मंगलवार, 3 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 10भाग 12

 शस्‍त्रधारियों में राम


पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम्।

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्थि जाह्नवी।। 3।।

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।

अध्यात्मविद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम्।। 32।।


और मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में राम हूं तथा मछलियों में मगरमच्छ हूं और नदियों में श्री भागीरथी गंगा जाह्नवी हूं।

और हे अर्जुन सृष्टियों का आदि अंत और मध्य भी मैं ही हूं। तथा मैं विद्याओं में अध्यात्म— विद्या अर्थात ब्रह्म— विद्या एवं परस्पर में विवाद करने वालों में तत्व— निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद हूं।


मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में राम हूं। इन प्रतीकों को थोड़ा हम समझें।

वायु इस जगत में सर्वाधिक स्वतंत्र है। और स्वतंत्रता ही पवित्रता है। वायु कहीं बंधी नहीं है, कहीं ठहरी नहीं है, कहीं उसका लगाव नहीं है, कहीं उसकी आसक्ति नहीं है। वायु एक सतत गति है।

तो पहली बात, जहां भी लगाव होगा, वहीं अपवित्रता शुरू हो जाएगी। जहां भी आसक्ति होगी, जहां भी ठहरने का मन होगा, जहां पड़ाव मंजिल बन जाएगा, वही अपवित्रता शुरू हो जाएगी।

जीवन की सारी दुर्गंध, जीवन की सारी कुरूपता, जहां—जहां हम ठहर जाते हैं और जकड़ जाते हैं, वहीं से पैदा होती है। जीवन जहां भी प्रवाह को खो देता है, गति को खो देता है, और जहां ठहर जाता है, जड़ हो जाता है..।

जैसे नदी बहती है, तो नदी पवित्र होती है। और डबरा बहता नहीं, अपवित्र हो जाता है। डबरे में भी वही जल है, जो नदी में है। लेकिन नदी में प्रवाह है, बहाव है, जीवन है। डबरा मृत है, मुर्दा है, कोई गति नहीं है। डबरा सड़ता है, दुर्गंधित होता है और नष्ट होता है। स्वभावत:, अपवित्र हो जाता है।

कृष्‍ण कहते हैं, पवित्र करने वालों में मैं वायु हूं।

पहली बात, पवित्रता वहीं ठहरती है, जहां प्रवाह सतत हो। पवित्रता वहीं ठहरती है, जहां कोई लगाव, जहां कोई रुकाव, जहां कोई ठहराव न आ जाए। पवित्रता वहीं ठहरती है, जहां कोई फिक्सेशन, प्राणों का अवरुद्ध होना न हो। जिसके प्राण भी वायु की तरह हैं— कहीं ठहरे हुए नहीं, कहीं रुकते नहीं, कहीं बंधते नहीं, कहीं कोई आसक्ति निर्मित नहीं करते— वही केवल पवित्रता को उपलब्ध हो पाएगा।

पुराने अति प्राचीन समय से संन्यासी को प्रवाहवत जीवन व्यतीत करने को कहा गया है। नदी की तरह बहता रहे। महावीर ने अपने संन्यासियों को कहा है कि वे तीन दिन से ज्यादा कहीं रुके नहीं। तीन दिन के पहले हट जाएं। थोड़ा सोचने जैसा है। क्योंकि तीन दिन का यह राज महावीर को कैसे पता चला होगा, कहना मुश्किल है।


लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि आदमी को किसी भी जगह मन के लगने में कम से कम तीन दिन से ज्यादा का समय चाहिए। आप अगर एक नये कमरे में सोने जाएंगे, तो तीन रातें आपको थोड़ी—सी बेचैनी रहेगी, चौथी रात आप ठीक से सो पाएंगे। कहीं भी किसी नई स्थिति को पुराना बना लेने के लिए कम से कम तीन दिनों की जरूरत है। कम से कम। थोड़ा ज्यादा समय भी लग सकता है।

महावीर ने अपने संन्यासी को कहा है कि वह तीन दिन से ज्यादा एक जगह न रुके। इसके पहले कि कोई अपना मालूम पड़ने लगे, उसे हट जाना चाहिए। क्योंकि जहां लगा कि कोई अपना है, वहीं जंजीर निर्मित हो जाती है। और जिसके प्राणों पर जंजीर पड़ जाती है, उन प्राणों में कुरूपता और दुर्गंध और सड़ांध शुरू हो जाती है। डबरा बनना शुरू हो गया प्राणों का।

संन्यासी का अर्थ है, जो अपने को डबरा नहीं बनने देता। गृहस्थ का इतना ही अर्थ है कि जो अपने को डबरा बनाने का पूरा आयोजन कर लेता है। चाहे तो गृहस्थ भी प्रवाहित रह सकता है, लेकिन उसे थोड़ी कठिनाइयां होंगी। उसे बहुत होश रखना पड़े, तो ही वह डबरा बनने से रुक सकता है। अन्यथा सब चीजें धीरे— धीरे जम जाएंगी, फ्रोजन हो जाएंगी और उनके बीच वह भी जम जाएगा।

लेकिन हम सब तो यही कोशिश करते हैं कि जितने जल्दी जम जाएं, उतना अच्छा। जमने में सुविधा है, सुरक्षा है, कनवीनियंस है। गैर—जमे होने में असुविधा है, असुरक्षा है। रोज नये के सामने पड़ना पड़ता है, तो रोज नई बुद्धि की जरूरत पड़ती है। हम सब जम जाना चाहते हैं। जमे हुए आदमी का पुरानी बुद्धि से काम चल जाता है, नये की कोई आवश्यकता नहीं होती।

हम सब नये से भयभीत होते हैं। कुछ भी नया हो, तो चिंता पैदा होती है। क्योंकि पुराने के साथ कैसा व्यवहार करना, वह तो हम जानते हैं; नए के साथ फिर से व्यवहार सीखना पड़ता है। पुराना तो मृत, यंत्रवत हो जाता है। पुराने को तो हम ऐसे करते हैं जैसे कोई रोबोट, कोई मशीन का आदमी कर रहा हो। उसमें हमें फिर बुद्धिमत्ता की, चेतना की, होश की, कोई भी जरूरत नहीं रह जाती। हम करते चले जाते हैं।

आप अपने घर जब आते हैं, तो आपको सोचना नहीं पड़ता, बाएं मुडूं, दाएं मुडूं। आप मुड़ते चले जाते हैं। यह काम शरीर ही कर लेता है। इसके लिए आपको कुछ, किसी तरह के होश की जरूरत नहीं होती। शराबी भी शराब पीकर अपने घर पहुंच जाता है। कितने ही हाथ—पैर डोलते हों, वह भी अपने घर का जाकर द्वार—दरवाजा खटखटाने लगता है। यह यंत्रवत है। इसके लिए कोई सोच—विचार की जरूरत नहीं है।

इसलिए जितने हम जम जाते हैं, उतना ही सोच—विचार से छुटकारा हो जाता है। विचार बड़ा कष्टपूर्ण है। इसलिए दुनिया में कोई भी आदमी विचार नहीं करना चाहता, विचार से बचना चाहता है। इसी वजह हमारा प्रवाह समाप्त हो जाता है।

कृष्‍ण कहते हैं, पवित्र करने वालों में मैं वायु हूं।

तो वायु का पहला लक्षण तो यह है कि वह कहीं ठहरती नहीं। आई भी नहीं, कि गई। आ भी नहीं पाई, कि जा चुकी। आना भी नहीं हो पाया, कि जाना हो गया। वायु कहीं भी मेहमान नहीं बनती; स्पर्श करती है और हट जाती है।

संन्यासी वायु की तरह होना चाहिए। रुके न। जरूरी नहीं है कि वह मकान बदलता रहे, क्योंकि मकान बदलने से कुछ भी नहीं होता। मकान बदलकर भी रुकना हो सकता है। मकान बदलकर भी रुकना हो सकता है, क्योंकि रुकने के बड़े इंतजाम हैं। अब एक आदमी रोज मकान बदल लेता है, लेकिन रोज अपने को तो नहीं बदलेगा, तो वहीं जड़ हो जाएगा।

एक संन्यासी घर छोड़ देता है, लेकिन उस घर में जो भी सीखा था, वह तो साथ ही लेकर चलता है। मजे की घटना घटती है दुनिया में कि संन्यासी भी हिंदू होता है, मुसलमान होता है, जैन होता है, ईसाई होता है। ये रुके होने के लक्षण हैं। संन्यासी को तो सिर्फ संन्यासी होना चाहिए।

तो वायु का पहला लक्षण है कि कहीं रुकती नहीं।

दूसरा लक्षण है वायु का कि दिखाई नहीं पड़ती, और है। वह और भी गहरी बात है। वायु है, अनुभव होती है, दिखाई नहीं पड़ती। स्पर्श होता है, प्रतीति होती है, पकड़ में नहीं आती। पकड़ में नहीं आती, इसलिए बांधना मुश्किल है, रोकना मुश्किल है, परतंत्र करना मुश्किल है।

कृष्ण कहते हैं, पवित्र करने वालों में मैं वायु की भांति हूं।

जितनी पवित्रता होगी, उतनी ही ट्रासपैरेंसी हो जाएगी। जितनी पवित्रता होगी, उतना ही आर—पार दिखाई पड़ने लगेगा। अगर आपने कोई पवित्र कांच देखा हो, बिलकुल शुद्ध, तो कांच भी दिखाई नहीं पड़ेगा। आर—पार सब दिखाई पड़ेगा, बीच में कोई भी बाधा न होगी। वायु की पवित्रता उसकी पारदर्शिता भी है।

एक बहुत पुरानी इजिप्त में लोकोक्ति है कि जब कोई व्यक्ति परम पवित्र हो जाता है, तो उसकी छाया नहीं बनती। जब वह चलता है धूप में, तो उसकी छाया नहीं बनती।

यह सिर्फ इसी बात के लिए इशारा है। छाया तो बनती है महावीर की भी और कृष्ण की भी और बुद्ध की भी। लेकिन इजिप्त की यह बड़ी प्राचीन कहावत कहती है कि जो पावन, परम पवित्र हो जाता है, उसकी छाया नहीं बनती। यह सिर्फ इस बात की सूचना देता है कि जो इतना पवित्र हो जाता है कि जिसके भीतर कोई अशुद्धि न रह गई हो, तो उसके आर—पार दिखाई पड़ने लगता है। और जिसके आर—पार दिखाई पड़ने लगे, उसकी छाया नहीं बनेगी। छाया नहीं बनेगी, यह केवल प्रतीक है।

महावीर के आर—पार दिखाई पड़ता है। महावीर एक दरवाजे की भांति हैं, खुले हुए। और हम एक दीवाल की भांति हैं, हमारे आर— पार कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हमें खुद नहीं दिखाई पड़ता, दूसरे को दिखाई पड़ना तो बहुत मुश्किल है। हम खुद एक ठोस दीवाल हैं पत्थरों की, जिसमें अपने को ही खोजना हो, तो भी बहुत मुश्किल है। कुछ दिखाई नहीं पड़ता।

यह उसी मात्रा में दीवाल बिखरती चली जाती है, जिस मात्रा में मन पवित्र होता है। और जिस दिन मन वायु की तरह हो जाता है, कोई भी अपवित्रता नहीं रह जाती, ट्रांसपैरेंट हो जाता है, आर—पार दिखाई पड़ने लगता है। वायु का होना और दिखाई न पड़ना, संतत्व भी ऐसा ही है। होता है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ता।

पता चलना, ठोस हो जाना है। पता न चलना, तरल होना है, विरल होना है, हवा की तरह होना है। जिन्हें हमने भगवान भी कहा है, बुद्ध या महावीर को, उन्हें खुद कुछ भी पता नहीं है। वे निर्दोष बच्चों की भांति हैं।

हवा की तरह पवित्रता भी है, अनसेल्फकांशस; अनकांशस नहीं, अनसेल्फकांशस। अचेतन नहीं; अहंकार का जरा भी बोध नहीं है। अहंकार की चेतनता जरा भी नहीं है। और दिखाई नहीं पड़ना। जो भी चीज दिखाई पड़ने लगती है, वह पदार्थ बन जाती है। दिखाई पड़ना पदार्थ का गुण है, मैटर का गुण है। चैतन्य का गुण होना है, दिखाई पड़ना नहीं।

इसलिए हमें शरीर दिखाई पड़ते हैं, आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। हमें पत्थर दिखाई पड़ते हैं, प्रेम दिखाई नहीं पड़ता। जो भी हमें दिखाई पड़ता है, वह पदार्थ है। जो नहीं दिखाई पड़ता, वही परमात्मा है।

वायु हमें दिखाई नहीं पड़ती, पर है। और अगर हमें किसी को सिद्ध करना हो कि वायु है, तो हम उसकी आंखों का उपयोग न कर सकेंगे। और अगर कोई जिद्द ही करे कि मेरे सामने प्रत्यक्ष करो, तो हम कठिनाई में पड़ जाएंगे। यद्यपि जो हमसे कह रहा है कि वायु को प्रत्यक्ष करो, वह भी वायु के बिना एक क्षण जी नहीं सकता है। एक श्वास आनी बंद होगी, तो प्राण निकल जाएंगे। वायु ही उसका प्राण है, जीवन है। लेकिन फिर भी वायु को सामने रखा नहीं जा सकता, प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। हम अनुभव कर सकते हैं। लेकिन किसी के शरीर में लकवा लग गया हो और उसे स्पर्श का कोई बोध न होता हो, तो हवाएं बहती रहें, उसे कोई पता नहीं चलेगा। वह श्वास भी लेगा, उसी से जीएगा और पता नहीं चलेगा।

कहते हैं कि मछलियों को सागर का पता नहीं चलता। नहीं चलता होगा। क्योंकि सागर में ही पैदा होती हैं, सागर में ही बड़ी होती हैं, सागर में ही समाप्त हो जाती हैं। उन्हें पता नहीं चलता होगा, क्योंकि जो इतना निकट है और सदा निकट है, उसका पता चलना बंद हो जाता है।

वायु सदा निकट है, चारों तरफ घेरे हुए है। वही हमारा सागर है, जिसमें हम जीते हैं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ता। परमात्मा भी ठीक ऐसा ही है, चारों तरफ घेरे हुए है। उसके बिना भी हम क्षणभर नहीं जी सकते। वायु के बिना तो हम जी भी सकते हैं, उसके बिना हम क्षणभर नहीं जी सकते। वह हमसे वायु से भी ज्यादा निकट है। वह हमारे प्राणों का प्राण है। लेकिन उसका भी हमें कोई पता नहीं चलता।

कृष्‍ण कहते हैं, पवित्र करने वालों में मैं वायु हूं। और शस्त्रधारियों में राम हूं।

यह बहुत प्यारा प्रतीक है।

राम के हाथ में शस्त्र बहुत कट्राडिक्टरी है। राम जैसे आदमी के हाथ में शस्त्र होने नहीं चाहिए। राम का चित्र आप थोड़ा खयाल करें। राम के शरीर का थोड़ा खयाल करें। राम की आंखों का थोड़ा खयाल करें। राम के व्यक्तित्व का थोड़ा खयाल करें। शस्त्रों से कोई संबंध नहीं जुड़ता।

राम, शस्त्रों के साथ, बड़ी उलटी बात मालूम पड़ती है। न तो राम के मन में हिंसा है, न राम के मन में प्रतिस्पर्धा है, न राम के मन में ईर्ष्या है। न राम किसी को दुख पहुंचाना चाहते हैं, न किसी को पीड़ा देना चाहते हैं। फिर उनके हाथ में शस्त्र हैं। उनके हाथ में एक कमल का फूल होता, तो समझ में आता। उनके हाथ में शस्त्र, बिलकुल समझ में नहीं आते।

जब भी मैं राम का चित्र देखता हूं और उनके कंधे में लटका हुआ धनुष देखता हूं और उनके कंधे पर बंधे हुए तीर देखता हूं तो राम के शरीर से उनका कोई भी संबंध नहीं मालूम पड़ता। राम का शरीर एक कवि का, एक काव्य का, एक काव्य की प्रतिमा मालूम होती है। राम की आंखें प्रेम की आंखें मालूम होती हैं। राम पैर भी रखते हैं, तो ऐसा रखते हैं कि किसी को चोट न लग जाए। राम का सारा व्यक्तित्व फूल जैसा है। और कंधे पर बंधे हुए ये तीर, और हाथ में लिए हुए ये धनुष—बाण, ये कुछ समझ में नहीं आते! इनका कोई मेल नहीं है, इनकी कोई संगति नहीं है।

राक्षस के हाथ में, रावण के हाथ में शस्त्र सार्थक मालूम होते हैं, संगत मालूम होते हैं। वहां गणित ठीक बैठता है। महावीर के हाथ में तीर का न होना, तलवार का न होना संगत मालूम होता है। गणित वहां भी ठीक है। महावीर हैं या बुद्ध हैं, उनके हाथ में कुछ भी नहीं है, कोई शस्त्र नहीं है। रावण के हाथ में शस्त्र हैं, सारा शरीर शस्त्रों से ढंका है, यह भी ठीक है।

राम कुछ अनूठे हैं। ये आदमी बुद्ध जैसे और इनके हाथ में शस्त्र रावण जैसे, यह बड़ा विरोधाभासी है। और कृष्‍ण को यही प्रतीक मिलता है कि शस्त्रधारियों में मैं राम हूं! बहुत शस्त्रधारी हुए हैं। शस्त्रधारियों की कोई कमी नहीं है। राम को क्यों चुना होगा? जानकर चुना है, बहुत विचार से चुना है, बहुत हिसाब से चुना है। शस्त्र खतरनाक है रावण के हाथ में। इसे थोड़ा समझेंगे। थोड़ी बारीक है और बात थोड़ी कठिन मालूम पड़ेगी।

शस्त्र खतरनाक है रावण के हाथ में, क्योंकि रावण के भीतर सिवाय हिंसा के और कुछ भी नहीं है। और हिंसा के हाथ में शस्त्र का होना, जैसे कोई आग में पेट्रोल डालता हो। यह हम समझ जाएंगे। यह हमारी समझ में आ जाएगा। इस दुनिया की पीड़ा ही यही है कि गलत लोगों के हाथ में ताकत है। गलत आदमी उत्सुक भी होता है शक्ति पाने के लिए बहुत।

 शक्ति लोगों को व्यभिचारी बना देती है और पूर्ण रूप से व्यभिचारी बना देती है।  वे करप्ट हो जाते हैं, यह तथ्य है; लेकिन शक्ति के कारण करप्ट हो जाते हैं, यह गलत है। क्योंकि हमने राम के हाथ में भी शक्ति देखी है और करप्शन नहीं देखा, व्यभिचार नहीं देखा, शक्ति का कोई व्यभिचार नहीं देखा।

तब बात कुछ और है। तथ्य तो ठीक है कि हम देखते हैं कि जिनके हाथ में शक्ति आती है, वे व्यभिचारी हो जाते हैं। लेकिन इसका कारण शक्ति नहीं है। इसका बुनियादी कारण यह है कि व्यभिचारी ही शक्ति के प्रति आकर्षित होते हैं। लेकिन कमजोर आदमी अपने व्यभिचार को प्रकट नहीं कर पाता, जब शक्ति हाथ में आती है, तब वह प्रकट कर पाता है। शक्ति के कारण व्यभिचार पैदा नहीं होता, प्रकट होता है।

आप कमजोर हैं, आपके भीतर हिंसा है, दूसरा आदमी मजबूत है, आप हिंसा नहीं कर पाते। फिर एक बंदूक आपके हाथ में दे दी जाए, अब दूसरा आदमी कमजोर हो गया, अब आप ताकतवर हैं, अब हिंसा होगी।

चरित्र की असली परीक्षा तभी है, जब शक्ति पास में हो। जिनके पास शक्ति नहीं है, उनके चरित्र का कोई भरोसा नहीं है। उनका चरित्र केवल कमजोरी हो सकती है।

इसलिए इस दुनिया में जितने चरित्रवान लोग दिखाई पड़ते हैं, निन्यानबे प्रतिशत तो कमजोरी की वजह से चरित्रवान होते हैं। इसलिए इतने चरित्रवान भी दिखाई पड़ते हैं, इतनी चरित्र की बात भी होती है और दुनिया रोज चरित्रहीनता में उतरती जाती है।

कमजोर आदमी को ताकत दो और उसका चरित्र बह जाएगा। सबसे पहली जो दुर्घटना होगी, वह चरित्र की हत्या हो जाएगी। कमजोर आदमी को किसी तरह की ताकत दो— धन दो, पद दो, राजनीति की कोई सत्ता दो— सारा चरित्र बह जाएगा।

नहीं, लोग कमजोरी की वजह से केवल चरित्रवान थे। हाथ में ताकत आती है और सब चरित्र खो जाता है। परीक्षा शक्ति के बाद ही पता चलती है।

जिनके भी मन में यह भय है कि मैं क्षुद्र हूं मैं कुछ भी नहीं हूं वे किसी पद पर बैठकर अपने और दूसरों के सामने सिद्ध करना चाहते हैं कि मैं कुछ हूं।  कोई नहीं पसंद करता कि मैं कोई भी नहीं हूं। हर एक के भीतर खयाल है कि मैं कुछ हूं। कुछ हूं लेकिन यह किसको कहूं कैसे कहूं जब तक कि हाथ में ताकत न हो। हाथ में ताकत हो, तो कहूं कि मैं कुछ हूं। सिर्फ वे ही लोग ताकत की दौड़ से बच सकते हैं, जो बिना कहे भीतर हीनता की ग्रंथि से मुक्त हो जाते हैं। जिनके भीतर हीन होने का भाव ही तिरोहित हो जाता है, वे ही लोग दूसरे से श्रेष्ठ होने की कोशिश बंद कर देते हैं!

यह बड़े मजे की बात है। इस जगत में श्रेष्ठ लोग ही श्रेष्ठ बनने की कोशिश नहीं करते। हीन लोग श्रेष्ठ बनने की कोशिश करते हैं।

राम के हाथ में शस्त्र गलत आदमी के हाथ में शस्त्र हैं। गलत इसलिए कह रहा हूं कि रावण के हाथ में तो ठीक आदमी के हाथ में हैं। रावण की आत्मा और शस्त्रों के बीच सेतु है, संबंध है, एक हार्मनी है, एक संगीत है। राम और शस्त्र के बीच कोई सेतु नहीं है। एक खाई है, अलंध्य खाई है, अनब्रिजेबल गैप है। वही राम की खूबी भी है। शस्त्र हैं और राम हैं, और उन दोनों के बीच कोई सेतु नहीं है। रावण के हाथ में ठीक मालूम पड़ते हैं शस्त्र, लेकिन खतरनाक हैं। क्योंकि जब भीतर हिंसा हो और शस्त्र हाथ में हों, तो हिंसा गुणित होती चली जाएगी, मल्टीप्लाइड हो जाएगी।

इसलिए लोग कहते हैं कि मनुष्यता विकसित हो रही है, वह जरा संदिग्ध बात है। अस्त्र—शस्त्र विकसित हो रहे हैं, यह निस्संदिग्ध बात है। मनुष्यता विकसित होती नहीं दिखाई पड़ती। एवोल्‍यूशन, विकास, वस्तुओं का हो रहा है।

पच्चीस हजार साल पहले जिस आदमी ने पत्थर के औजार से किसी की हत्या की होगी और पच्चीस हजार साल बाद जिसने बम से हत्या की, इनके हत्या करने का पैमाना बड़ा हो गया। पत्थर के औजार से आप एकाध को मार सकते थे, एटम से आप लाखों को एक साथ मार सकते हैं। एक हाइड्रोजन बम कोई एक करोड़ आदमियों को एक साथ मार सकता है। और अभी जमीन पर  हजारो हाइड्रोजन बम तैयार हैं।

वैज्ञानिक कहते हैं कि तैयारी जरूरत से ज्यादा हो गई। वे कहते हैं कि हमारे पास इतने बम हैं अब, जितने आदमी नहीं हैं मारने को! एक—एक आदमी को सात—सात बार मारना पड़े, तो हमारे पास इंतजाम है। हालांकि एक आदमी एक ही दफे में मर जाता है! लेकिन राजनीतिज्ञ बहुत हिसाब लगाते हैं! कोई बच जाए एक दफा, दुबारा, तिबारा, तो हम सात बार मार सकते हैं एक आदमी को।  आदमी विकसित हुआ नहीं मालूम पड़ता, लेकिन ताकत विकसित हुई मालूम पड़ती है।

हिंसा हो भीतर, वैमनस्य हो भीतर, प्रतिस्पर्धा हो भीतर, शत्रुता हो भीतर, तो अस्त्र—शस्त्र घातक हैं। यह तो हमारी समझ में आ जाएगा। एक तरफ रावण है, जिससे शस्त्रों का मेल है, यह खतरनाक है। दूसरी तरफ बुद्ध और महावीर हैं। ये भी बिलकुल गणित के फार्मूले की तरह साफ हैं। जैसे ये आदमी हैं, इनके पास वैसा ही सब कुछ है; इनके पास कोई अस्त्र—शस्त्र नहीं है। भीतर प्रेम है, हाथ में तलवार नहीं है।

ये आदमी अपने लिए खतरनाक नहीं हैं, किसी के लिए खतरनाक नहीं हैं। लेकिन नकारात्मक रूप से समाज के लिए ये भी खतरनाक हो सकते हैं। नकारात्मक रूप से! क्योंकि इसका मतलब यह हुआ कि बुरे आदमी के हाथ में ताकत रहेगी और अच्छा आदमी ताकत को छोड़ता चला जाएगा। जाने—अनजाने यह बुरे आदमी को मजबूत करना है। महावीर की कोई इच्छा नहीं है, बुद्ध की कोई इच्छा नहीं है कि बुरा आदमी मजबूत हो जाए। लेकिन बुद्ध और महावीर का शस्त्र छोड़ देना, बुरे आदमी को मजबूत करने का कारण तो बनेगा ही। अच्छा आदमी मैदान छोड़ देगा, बुरा आदमी ताकतवर हो जाएगा।

दुनिया में जितनी बुराई है, उसमें सिर्फ बुरे लोगों का हाथ होता, तो भी ठीक था, उसमें अच्छे लोगों का हाथ भी है।  थोड़ी समझनी कठिन मालूम पड़ेगी। क्योंकि अच्छे आदमी का सीधा हाथ नहीं है, अच्छे आदमी का हाथ परोक्ष है, इनडायरेक्ट है। अच्छा आदमी छोड्कर चल देता है। अच्छा आदमी लड़ाई के मैदान से हट जाता है। अच्छा आदमी, जहां भी संघर्ष है, वहां से दूर हो जाता है। बुरे आदमी ही शेष रह जाते हैं। और बुरे आदमी ताकत पर पहुंच जाते हैं, तो पूरे समाज को बुरा करने का कारण होते हैं।

इसलिए कृष्‍ण राम को चुन रहे हैं, यह बहुत सोचकर कही गई बात है। राम दोहरे हैं, आदमी बुद्ध जैसे और शक्ति रावण जैसी।

और शायद दुनिया अच्छी न हो सकेगी, जब तक अच्छे आदमी और बुरे आदमी की ताकत के बीच ऐसा कोई संबंध स्थापित न हो। तब तक शायद दुनिया अच्छी नहीं हो सकेगी। अच्छे आदमी सदा पैसिफिस्ट होंगे, शांतिवादी होंगे, हट जाएंगे। बुरे आदमी हमेशा हमलावर होंगे, लड़ने को तैयार रहेंगे। अच्छे आदमी प्रार्थना—पूजा करते रहेंगे, बुरे आदमी ताकत को बढ़ाए चले जाएंगे। अच्छे आदमी एक कोने में पड़े रहेंगे, बुरे आदमी सारी दुनिया को रौंद डालेंगे।

थोड़ा हम सोचें, राम जैसा आदमी सारी पृथ्वी पर खोजना मुश्किल है। एक अनूठा आयाम है राम का। एक अलग ही डायमेंशन है। क्राइस्ट, बुद्ध, महावीर खोजे जा सकते हैं। रावण, या हिटलर, या नेपोलियन, या सिकंदर खोजे जा सकते हैं। राम बहुत अनूठा जोड़ हैं। आदमी बुद्ध जैसे, हाथ में ताकत रावण जैसी।

कृष्‍ण कहते हैं, शस्त्रधारियों में मैं राम हूं।

बुराई में भी सब बुराई नहीं है, और भलाई में भी सब भलाई नहीं है। बुराई में भी ताकत तो भली है, और भलाई में भी ताकत की कमी बुरी है। भले को भी शक्तिशाली होना चाहिए। इस जगत में बुराई कम होगी तभी, जब भला भी शक्तिशाली हो। तभी होगी कम, जब भला भी शक्ति को निर्मित करे। भला शक्ति से भाग जाए, तो वह बुरे आदमी को बुरा होने की सुविधा दे रहा है, मार्ग दे रहा है। वह साथी और संगी बन रहा है— बिना जाने, बिना इच्छा के।

इसलिए राम को, कृष्‍ण कहते हैं कि मैं शस्त्रधारियों में राम हूं।

मैं भला हूं बुद्ध जैसा, लेकिन मैं बुरा भी हो सकता हूं रावण जैसा। बुरा हो सकता हूं का मतलब यह कि मैं बुरे के साथ ठीक उसके ही तल पर युद्ध ले सकता हूं। ठीक उसके ही स्थान पर उससे जूझ सकता हूं। ठीक उसके ही उपकरणों का उपयोग कर सकता हूं।

लेकिन एक बात ध्यान देने जैसी है कि राम जैसा व्यक्ति ही रावण के शस्त्रों का उपयोग कर सकता है। कोई दूसरा व्यक्ति उपयोग करेगा, तो चाहे जीते, चाहे हारे, रावण ही जीतेगा। अगर कोई दूसरा व्यक्ति रावण से लड़ने जाए और रावण के ही शस्त्रों का उपयोग करे, तो चाहे रावण जीते और चाहे वह दूसरा व्यक्ति जीते, कोई जीते, कोई हारे, रावण ही जीतेगा। क्योंकि इस युद्ध में वह दूसरा आदमी धीरे— धीरे रावण जैसा ही हो जाएगा।

रावण की असली पराजय यही है कि रावण राम को अपने जैसा नहीं बना पाया। असली पराजय यही है। राम राम ही बने रहे। उनके व्यक्तित्व में जरा—सी एक कली भी नहीं सूखी। उनका फूल फूल जैसा ही खिला रहा। उनकी तलवार, उनके हाथ के शस्त्र, उनके भीतर की मनुष्यता में जरा—सा भी फर्क न ला पाए। वही रावण की हार है, वहीं रावण पराजित हो गया है। अगर राम भी रावण जैसे हो जाएं, तो जीत भी लें, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई फर्क नहीं पड़ता।

रावण हारा, क्योंकि जिसके हाथों हारा, वह आदमी रावण के तल का न था। इसलिए रावण प्रसन्न है कि राम के हाथ से उसकी मृत्यु घटित हुई। यह अनूठी बात है। रावण प्रसन्न है कि राम के हाथों उसकी मृत्यु हुई। रावण प्रसन्न है कि अब मुक्ति में क्या बाधा रही होगी! अगर खुद राम मुझे मारने को आए हों, इस शरीर से मुझे विदा करते हों, तो मेरे मोक्ष में बाधा ही क्या है!

राम से शत्रुता नहीं है, विरोध है, संघर्ष है। लेकिन राम की ऊंचाई का रावण को बोध है। राम की भिन्नता का भी पता है।

कृष्‍ण कहते हैं, मैं शस्त्रधारियों में राम हूं।

मैं शस्त्र भी ले सकता हूं लेकिन उससे मैं नहीं बदलता। शस्त्र मुझे नहीं बदल सकता है, यह उनका प्रयोजन है। मैं कुछ भी करूं, मेरा करना मेरी आत्मा को नहीं बदल सकता है, यह उनका अभिप्राय है।

ध्यान रखें, हम जो भी करते हैं, उसका जोड़ ही हमारी आत्मा है। राम जो भी करते हैं, उसका जोड़ उनकी आत्मा नहीं है। राम जो भी करते हैं, वह एक तल पर है और उनकी आत्मा बिलकुल दूसरे तल पर है। राम के कृत्यों से हम राम की आत्मा का पता नहीं लगा सकते। राम की आत्मा का पता हो, तो हम राम के कृत्यों को समझ सकते हैं।

कृत्यों से हमारी आत्मा का पता चल जाता है। और हमारे पास दूसरी कोई आत्मा नहीं है। आपने जो—जो किया है, वह अगर अलग कर लिया जाए, तो आप बिलकुल शून्य हो जाएंगे। राम ने जो भी किया है, उसे अलग कर लिया जाए, राम में कोई कमी नहीं पड़ेगी। राम का करना, हम समझें ठीक से, तो बिलकुल बाहरी घटना है। भीतर कुछ भी नहीं घटता है। भीतर कुछ भी नहीं घटता है। इसलिए एक अनूठी घटना राम के जीवन में है, जिसे समझना लोगों को मुश्किल पड़ा है।

राम सीता के चोरी जाने से रावण से लड़ने गए। स्वभावत:, हमें लगेगा कि सीता से भारी आसक्ति रही होगी! अन्यथा राम को और सीताएं भी मिल सकती थीं। राम को क्या कमी हो सकती थी सुंदर स्त्रियों की, वे उपलब्ध हो सकती थीं। राम को भारी आसक्ति रही होगी, लगाव रहा होगा, तब तो इतने बड़े युद्ध में इतनी झंझट में उतरे। और जब तक सीता को वापस न ले आए, तब तक हमें लगता होगा, कि दिन—रात सो न सके होंगे; बेचैन रहे होंगे; परेशान रहे होंगे।

लेकिन फिर दूसरी घटना बहुत मुश्किल में डाल देती है। एक धोबी की जरा—सी चर्चा, वह भी किसी के द्वारा सुनी गई! एक धोबी का अपनी पत्नी से यह कह देना कि मैं कोई राम नहीं हूं कि तू महीनों और सालों घर से नदारद रहे और मैं तुझे वापस घर में रख लूं! उसकी पत्नी एक रात घर से नदारद रह गई होगी। तो मैं कोई राम नहीं हूं! यह खबर राम को लगना और सीता का जंगल में छुड़वा देना।

यह जरा असंगत मालूम पड़ता है। यह आदमी सीता के लिए इतना बड़ा युद्ध लेने गया। इस आदमी ने अपने प्राण सीता के लिए युद्ध में लगा दिए। यह आदमी लडा, वर्षों शक्ति और श्रम व्यय किया, और एक धोबी के कहने से इस आदमी ने सीता को जंगल में छुड़वा दिया!

इस आदमी के कृत्यों से हम इस आदमी को नहीं समझ सकते। यह आदमी क्या करता है, इससे इसकी आत्मा का पता नहीं चलेगा। नहीं तो इन दोनों बातों में मेल बिठाना मुश्किल है। यह आदमी क्या है, उसे हम समझ लें, तो इसके कृत्यों की व्याख्या हो सकती है।

सीता का चोरी जाना युद्ध का कारण नहीं है, केवल युद्ध का बहाना है। सीता के लिए युद्ध नहीं किया गया है। ज्यादा समझ की बात तो यह है कि शायद युद्ध के लिए सीता को चोरी करवाने की व्यवस्था की गई हो। समझ में भी ऐसा ही आता है। क्योंकि राम एक सोने के मृग के पीछे भागते हैं शिकार करने। आप भी धोखे में न आते। हालांकि सोना बहुत आकर्षित करता है, लेकिन सोने का मृग आपको भी दिखाई पड़ता, तो आप समझते, कोई धोखा है। राम को तो सोने का मृग क्या धोखा दे सकता था!

यह जाना आयोजित है। यह जाना जानकर है। यह जाना समझ— बूझकर है। सीता चुराई जा सके, इसके लिए सुविधा देनी जरूरी है। वह जो गलत है, वह गलत कर सके, तभी उसकी गलती प्रकट होती है। वह जो बुरा है, उसे बुरे होने का पूरा मौका दिया जाए, तो ही उसकी बुराई प्रकट होती है। रावण सीता को चुराकर ही झंझट में पड़ गया। उसकी बुराई शिखर पर पहुंच गई, उसका पाप का घड़ा पूरा भर गया। और तब उसे विनष्ट किया जा सकता है।

एक खयाल आपको शायद न हो। भारतीय मन बहुत अनूठा है और कई बार पश्चिम में उसको समझना मुश्किल हो जाता है। कथा यह है कि वाल्मीकि ने रामायण पहले लिखी, राम बाद में हुए। यह बात निश्चित ही असंगत मालूम पड़ती है। लेकिन भारतीय मन में बड़े और खयाल हैं।

राम का व्यक्तित्व एक विराट योजना का हिस्सा मात्र है। वह योजना पहले से नियोजित है, वह योजना पहले से तैयार है। राम सिर्फ एक अभिनेता हैं उस योजना में। इसलिए सीता चोरी जाती है, तो युद्ध को चले जाते हैं। और एक धोबी एतराज उठाता है, तो सीता को जंगल भेज देते हैं। राम जैसे इन किन्हीं कृत्यों के बीच में नहीं हैं। बाहर खड़े हैं। जैसे ये सारे कृत्य एक अभिनय के मंच पर किए जा रहे हैं, जिनसे राम का कुछ लेना—देना नहीं है। जो करना जरूरी है, वे कर रहे हैं। जो होना चाहिए, वह हो रहा है। लेकिन वे बाहर खड़े हैं। उनकी आत्मा इनमें से किसी से भी छू नहीं जाती। कोई चीज उनको स्पर्श नहीं कर रही है।

कृष्‍ण का यह कहना कि मैं धनुर्धारियों में, शस्त्रधारियों में राम हूं इस बात की खबर देना है कि मैं जो करता हूं उससे तू मेरा पता नहीं लगा सकेगा। मेरा होना, मेरे करने के पार है। वह जो अस्तित्व है मेरा, वह मेरे कृत्य से बहुत ऊपर है।

हमारी हालत उलटी है। हमारा अस्तित्व हमारे कृत्य से भी नीचे होता है। उसे हम समझ लें, तो राम की बात हमारे खयाल में आ जाए। रास्ते पर आप जाते हैं और एक भिखारी आपसे पैसा मांगता है। अगर आस—पास कोई न हो, तो आप भिखारी की बिना फिक्र किए आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन अगर चार लोग देखने वाले हों और प्रतिष्ठा का सवाल आ जाए, तो आप भिखारी को दो पैसे दे देते हैं। वह आप भिखारी को नहीं देते, अपनी प्रतिष्ठा को देते हैं।

इसलिए भिखारी भी अकेले आदमी को नहीं घेरते। दो—चार मित्र साथ में हों, तो पैर पकड़ लेते हैं। क्योंकि वह तीन की आंखों से ही पैसा मिलने वाला है, क्योंकि उन तीन के सामने यह भी तो जरा अपमानजनक है कि दो पैसे न दे सके। आपका कृत्य तो मालूम होता है कि आपने दया की, लेकिन आपका अस्तित्व आपके कृत्य से नीचे होता है। आपकी आत्मा आपके कृत्य से भी नीची होती है। दान वह नहीं है।

जहां अहंकार तृप्त हो रहा हो, वहां दान नहीं है, वह चाहे छोटा हो, चाहे बड़ा। जब तक अहंकार ही न दिया जाए, तब तक दान नहीं है। अहंकार के लिए कुछ दिया जाए, तो दान नहीं है। उसका संबंध दूसरे से नहीं है। आप जब भिखारी को देते हैं, तो उसका संबंध भिखारी से नहीं है, अपने से है। आप अपने अहंकार में दो पैसे डाल रहे हैं, ताकि अहंकार और मजबूत हो जाए। भिखारी का पात्र तो केवल आपके लिए एक निमित्त है।

लेकिन भिखारी को दो पैसे मिल जाते हैं। उसे प्रयोजन नहीं कि आपने किसलिए दिए। भिखारी को यह भी लग सकता है कि आपने दया की। हालांकि किसी भिखारी को ऐसा नहीं लगता। और जब आप देकर चले जाते हैं, तो भिखारी हंसता है कि ठीक बेवकूफ बनाया। उसका भी अपना अहंकार है, आपका ही नहीं है। वह भी भलीभांति जानता है कि किस तरह के लोग बुद्ध बन जाते हैं, किस हालत में बन जाते हैं। वह भी पीछे से हंसता है। सामने तो दुआ देता दिखाई मालूम पड़ता है। मानता तो वह उसी आदमी को है, जो बिना दिए अकड़कर चला जाता है। मानता तो वह भी उसी को है। समझता है कि इसको मैं बना नहीं पाया।

राम ठीक इसके विपरीत हैं। वे जो कर रहे हैं वह बहुत नीचा है। वे जो हैं, वह बहुत ऊपर है। कृष्ण कहते हैं, मैं जो कर रहा हूं उससे मुझे मत तौलना। मैं शस्त्रधारियों में राम जैसा हूं।

मछलियों में मगरमच्छ, नदियों में गंगा हूं। और हे अर्जुन, सृष्टियों का आदि, अंत और मध्य भी मैं ही हूं।

गंगा के प्रतीक को भी समझने जैसा है। गंगा के साथ हिंदू मन बड़े गहरे में जुड़ा है। गंगा को हम भारत से हटा लें, तो भारत को भारत कहना मुश्किल हो जाए। सब बचा रहे, गंगा हट जाए, भारत को भारत कहना मुश्किल हो जाए। गंगा को हम हटा लें, तो भारत का सारा साहित्य अधूरा पड़ जाए। गंगा को हम हटा लें, तो भारत के न मालूम कितने ऋषियों के नाम खो जाएं। गंगा को हम हटा लें, तो हमारा तीर्थ ही खो जाए, हमारे सारे तीर्थ की भावना खो जाए।

गंगा के साथ भारत के प्राण बड़े पुराने दिनों से कमिटेड हैं, बड़े गहरे में जुड़े हैं। गंगा जैसे हमारी आत्मा का प्रतीक हो गई है। मुल्क की भी अगर कोई आत्मा होती हो और उसके प्रतीक होते हों, तो गंगा ही हमारा प्रतीक है। पर क्या कारण होगा गंगा के इस गहरे प्रतीक बन जाने का कि हजारों—हजारों वर्ष पहले कृष्‍ण भी कहते हैं कि नदियों में मैं गंगा हूं?

गंगा कोई नदियों में विशेष उस अर्थ में नहीं है। गंगा से बड़ी नदियां हैं, गंगा से लंबी नदियां हैं। गंगा से बड़ी विशाल नदियां पृथ्वी पर हैं। गंगा कोई लंबाई में, विशालता में, चौड़ाई में, किसी दृष्टि से कोई बहुत बड़ी गंगा नहीं है। कोई बहुत बड़ी नदी नहीं है। ब्रह्मपुत्र है, और अमेजान है, और ह्वांगहो है, और सैकड़ों नदियां हैं, जिनके सामने गंगा फीकी पड़ जाए।

पर गंगा के पास कुछ और है, जो पृथ्वी पर किसी भी नदी के पास नहीं है। और उस कुछ और के कारण भारतीय मन ने गंगा के साथ एक तालमेल बना लिया। एक तो बहुत मजे की बात है कि पूरी पृथ्वी पर गंगा सबसे ज्यादा जीवंत नदी है, अलाइव। सारी नदियों का पानी आप बोतल में भरकर रख दें, सभी नदियों का पानी सड़ जायेगा, गंगा  का नहीं सड़ेगा। केमिकली गंगा बहुत विशिष्‍ट है। उसका पानी डिटेरिओरेट नहीं होता, सड़ता नहीं। वर्षों रखा रहे, बंद बोतल में भी वह अपनी पवित्रता, अपनी स्‍वच्‍छता कायम रखता है।

ऐसा किसी नदी का पानी पूरी पृथ्‍वी पर नहीं है। सभी नदियों के पानी इस अर्थों में कमजोर है। गंगा का पानी इस अर्थों में विशेष मालूम पड़ता है। उसका विशेष केमिकल गुण मालूम पड़ता है।

गंगा में इतनी लाशों को हम फेंकते है, गंगा में हमने हजारों—हजारों वर्षों से लाशों बहाई है। अकेले गंगा के पानी में सब कुछ लीन हो जाता हे। हड्डी भी। दूनियां की किसी भी नदी में यह क्षमता नहीं है। हड्डी भी पिधलकार लीन हो जाती है। बह जाती है और गंगा को अपवित्र नहीं कर पाती। गंगा सभी को आत्‍म सात कर लेती है। हड्डी भी। दूनियां कि किसी भी नदी में लाश को डाल दो वह पानी सड़ने लग जायेगा। पानी कमजोर है और लाश मजबूत है। गंगा में लाश कमजारे पड़ जाती है। बिखर जाती है। मिल जाती है। अपने तत्‍वों में विलिन हो जाती है। गंगा अछूति बहती रहती है। इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

गंगा के पानी की बड़ी केमिकल परीक्षाए हुई है। वैज्ञानिक। और अब तो यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो गया है कि उसका पानी असाधारण है।

यह क्यों है असाधारण, यह भी थोड़ी हैरानी की बात है। क्योंकि गंगा जहां से निकलती है, वहां से बहुत नदियां निकलती हैं। गंगा जिन पहाड़ों से गुजरती है, वहां से कई नदियां गुजरती हैं। तो गंगा में जो खनिज और जो तत्व मिलते हैं, वे और नदियों में भी मिलते हैं। फिर गंगा में कोई गंगा का ही पानी तो नहीं होता, गंगोत्री से तो बहुत छोटी—सी धारा निकलती है। फिर और तो सब दूसरी नदियों का पानी ही गंगा में आता है। विराट धारा तो दूसरी नदियों के पानी की ही होती है।

लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि जो नदी गंगा में नहीं मिली, उस वक्त उसके पानी का गुणधर्म और होता है और गंगा में मिल जाने के बाद उसी पानी का गुणधर्म और हो जाता है! क्या होगा कारण? केमिकली तो कुछ पता नहीं चल पाता। वैज्ञानिक रूप से इतना तो पता चलता है कि विशेषता है और उसके पानी में खनिज और केमिकल्स का भेद है। विज्ञान इतना ही कह भी सकता है। लेकिन एक और भेद है, वह भेद विज्ञान के खयाल में आज नहीं तो कल आना शुरू हो जाएगा। और वह भेद है, गंगा के पास लाखों—लाखों लोगों का जीवन की परम अवस्था को पाना।

यह मैं आपसे कहना चाहूंगा कि पानी, जब भी कोई व्यक्ति, अपवित्र व्यक्ति पानी के पास बैठता है— अंदर जाने की तो बात अलग—पानी के पास भी बैठता है, तो पानी प्रभावित होता है। और पानी उस व्यक्ति की तरंगों से आच्छादित हो जाता है। और पानी उस व्यक्ति की तरंगों को अपने में ले लेता है।

लाखों—लाखों वर्ष से भारत के मनीषी गंगा के किनारे बैठकर प्रभु को पाने की चेष्टा करते रहे हैं। और जब भी कोई एक व्यक्ति ने गंगा के किनारे प्रभु को पाया है, तो गंगा उस उपलब्धि से वंचित नहीं रही, गंगा भी आच्छादित हो गई है। गंगा का किनारा, गंगा की रेत के कण—कण, गंगा का पानी, सब, इन लाखों वर्षों में एक विशेष रूप से स्म्प्रिचुअली चार्च, आध्यात्मिक रूप से तरंगायित हो गया है।

इसलिए हमने गंगा के किनारे तीर्थ बनाए। इसलिए लोग गंगा की यात्रा करते रहे। इसलिए लोग सोचते थे कि गंगा में जाकर पाप धुल जाएंगे। वह पाप गंगा की वजह से नहीं धुल सकते, लेकिन गंगा के पास जो मिल्यु है, गंगा के पास जो वातावरण है, वह जो लाखों—लाखों वर्षों की छाया है, उस छाया में जरूर आप अगर अपने हृदय के द्वार खोलें, तो आप दूसरे आदमी होकर वापस लौट सकते हैं। गंगा एक आध्यात्मिक यात्रा भी है, एक नदी ही नहीं। और इस तरह के बहुत—से प्रयोग हुए हैं।

कृष्‍ण कहते हैं, मैं नदियों में गंगा हूं।

गंगा साधारण नदी नहीं है, एक आध्यात्मिक यात्रा है, और एक आध्यात्मिक प्रयोग। लाखों वर्षों तक लाखों लोगों का उसके निकट मुक्ति को पाना, परमात्मा के दर्शन को उपलब्ध होना, आत्म— साक्षात्कार को पाना! लाखों लोगों का उसके किनारे आकर अंतिम घटना को उपलब्ध होना! वे सारे लोग अपनी जीवन—ऊर्जा को गंगा के पानी पर उसके किनारों पर छोड़ गए हैं।

इसलिए कृष्‍ण कहते हैं कि मैं नदियों में गंगा हूं।

और हे अर्जुन, सृष्टियों का आदि, अंत और मध्य मैं ही हूं। तथा विद्याओं में अध्यात्म—विद्या अर्थात ब्रह्म—विद्या, और परस्पर विवाद करने वालों में तत्व—निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद, तर्क मैं ही हूं न्याय मैं ही हूं।

ये दो बातें बहुत बहुमूल्य हैं। विद्याओं में अध्यात्म—विद्या। अनंत विद्याएं हैं, लेकिन अध्यात्म—विद्या गुणात्मक रूप से भिन्न है।

अध्यात्म—विद्या उसकी विद्या है, जिससे हम स्वयं को जानते हैं। और तब यह भी हो सकता है कि एक अध्यात्म ज्ञानी कुछ भी और न जानता हो। 

क्योंकि मान्यता यह है कि जिसने सब जान लिया और स्वयं को न जाना, उसके जानने का उपयोग क्या? और जिसने कुछ भी न जाना और स्वयं को जान लिया, उसने सब जान लिया। क्योंकि अंततः जीवन का जो परम आनंद है, वह स्वयं को जानने से घटित होगा। और अंतत: मृत्यु के भी पार जाने वाला जो अमृत सूत्र है, वह स्वयं को जानने से घटित होगा। और अंतत: सब जाना हुआ जो हमारा पराया है, वह पड़ा रह जाएगा; जो मेरे साथ जा सकेगा, वह मेरा स्वयं का बोध है।

मृत्यु के पार जिसे न ले जाया जा सके, उसे हम ज्ञान नहीं मानते। हम तो ज्ञान उसे मानते हैं कि लपटों में जब शरीर भी जल जाए, तब भी मेरा ज्ञान न जले। आग भी मेरे ज्ञान को न जला सके, मृत्यु भी मेरे ज्ञान को नष्ट न कर सके, तो ही वह ज्ञान है। अन्यथा उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है।

तो हम सब जान लें, वह जानना ऊपरी है। उपयोगी हो सकता है, लेकिन आत्यंतिक उसका मूल्य नहीं है। अंततः वह व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए हम बड़े से बड़े पंडित को भी, जो बहुत जानता हो, मरते वक्त वैसा ही दीन ही जाते देखते हैं, जैसा कोई भी मर रहा हो। मृत्यु बता देती है कि आपने कुछ जाना कि नहीं जाना। मृत्यु खबर दे देती है।

ब्रह्म—विद्या, अध्यात्म—विद्या का अर्थ है, वह विद्या, वह सुप्रीम साइंस, जिससे हम उसे जान लेते हैं, जो हम हैं। जिससे हम उसे जान लेते हैं, जो सब जान रहा है। जिससे हम उसे जान लेते हैं, जिसकी कोई मृत्यु नहीं, जिसका कोई जन्म नहीं।

ब्रह्म—विद्या का अर्थ वह विद्या है, जिससे हम उसे जानते हैं, जो सब जानता है। गणित आप जिससे जानते हैं, फिजिक्स आप जिससे जानते हैं, केमिस्ट्री आप जिससे जानते हैं, उस तत्व को ही जान लेना ब्रह्म—विद्या है। जानने वाले को जान लेना ब्रह्म—विद्या है। ज्ञान के स्रोत को ही जान लेना ब्रह्म—विद्या है। भीतर जहां चेतना का केंद्र है, जहां से मैं जानता हूं आपको, जहां से मैं देखता हूं आपको; जिससे मैं देखता हूं उसे भी देख लेना, उसे भी जान लेना, उसे भी पहचान लेना, उसकी प्रत्यभिज्ञा, उसका पुनर्स्मरण ब्रह्म—विद्या है। कृष्ण कहते हैं, विद्याओं में मैं ब्रह्म—विद्या हूं।

इसलिए भारत ने फिर बाकी विद्याओं की बहुत फिक्र नहीं की। भारत के और विद्याओं में पिछड़े जाने का बुनियादी कारण यही है। भारत ने फिर और विद्याओं की फिक्र नहीं की, ब्रह्म—विद्या की फिक्र की थी।

लेकिन उसमें अड़चन है, क्योंकि ब्रह्म—विद्या जानने को कभी लाखों—करोड़ों में एक आदमी उत्सुक होता है। पूरा देश ब्रह्म—विद्या जानने को उत्सुक नहीं होता। और भारत के जो श्रेष्ठतम मनीषी थे, वे ब्रह्म—विद्या में उत्सुक थे। और भारत का जो सामान्यजन था, उसकी कोई उत्सुकता ब्रह्म—विद्या में नहीं थी। उसकी उत्सुकता तो और विद्याओं में थी। लेकिन सामान्यजन और विद्याओं को विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते हैं, और परम मनीषी उन विद्याओं में उत्सुक ही न थे।

पश्चिम में दूसरी विद्याएं विकसित हो सकी, क्योंकि पश्चिम के जो बड़े मनीषी हैं, वे और विद्याओं में उत्सुक हैं। इसलिए एक अदभुत घटना घटी। पश्चिम ने सब विद्याएं विकसित कर लीं और आज पश्चिम को लग रहा है कि वह आत्म— अज्ञान से भरा हुआ है।

और पूरब ने आत्म—ज्ञान विकसित कर लिया और आज पूरब को लग रहा है कि हमसे ज्यादा दीन और दरिद्र और भुखमरा दुनिया में कोई भी नहीं है।

हमने एक अति कर ली, परम विद्या पर हमने सब लगा दिया दांव। उन्होंने दूसरी अति कर ली। उन्होंने आत्म—विद्या को छोड्कर बाकी सब विद्याओं पर दांव लगा दिया। बड़ी उलटी बात है। वे आत्म—अज्ञान से पीड़ित हैं और हम शारीरिक दीनता और दरिद्रता से पीड़ित हैं।

यह जो परम विद्या है, इस परम विद्या और सारी विद्याओं का जब संतुलन हो, तो पूर्ण संस्कृति विकसित होती है। इसलिए न तो पूरब और न पश्चिम ही पूर्ण संस्कृतियां विकसित कर पाए। फिर भी अगर चुनाव करना हो, अगर फिर भी चुनाव करना हो, तो परम विद्या ही चुनने जैसी है, सारी विद्याएं छोड़ी जा सकती हैं। क्योंकि और सब पाकर कुछ भी पाने जैसा नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, मैं परम विद्या हूं सब विद्याओं में।

लेकिन यह बात आप ध्यान रखना, और विद्याओं का वे निषेध नहीं करते हैं, और विद्याओं में जो श्रेष्ठ है, उसकी सूचना भर दे रहे हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि सिर्फ अध्यात्म—विद्या को खोजना है, बाकी सब छोड़ देना है।

यह भी सोचने जैसा है कि अध्यात्म—विद्या परम विद्या तभी हो सकती है, जब दूसरी विद्याएं भी हों। नहीं तो वह परम विद्या नहीं रह जाएगी। आप कोई मंदिर का अकेला सोने का शिखर बना लें और दीवालें न हों, तो समझ लेना कि शिखर जमीन में पड़ा हुआ लोगों के पैरों की ठोकर खाएगा। मंदिर का स्वर्ण—शिखर आकाश में उठता ही इसलिए है कि पत्थर की दीवाले उसे सम्हालती हैं। अध्यात्म—विद्या का शिखर भी तभी सम्हलता है, जब और सारी विद्याएं दीवालें बन जाती हैं और उसे सम्हालती हैं। 

अब तक हम कहीं भी मंदिर नहीं बना पाए। हमने शिखर बना लिया, पश्चिम ने मंदिर बना लिया। जब तक हमारा शिखर पश्चिम के मंदिर पर न चढ़े, तब तक दुनिया में पूर्ण संस्कृति पैदा नहीं हो सकती।

और अंतिम बात।

कृष्ण ने कहा, एवं परस्पर विवाद करने वालों में तत्व—निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद, तर्क, न्याय मैं हूं।

तर्क दो तरह के हैं। एक तो तर्क है, जिसमें हम दूसरे को गलत सिद्ध करना चाहते हैं। वह क्या कह रहा है, उससे कोई संबंध नहीं है। दूसरे को गलत करना चाहते हैं, वह क्या कह रहा है, उससे कोई संबंध नहीं है। एक तो तर्क है, जिसमें हम अपने अहंकार को सिद्ध करना चाहते हैं, दूसरे को गलत करना चाहते हैं।

इसलिए कई दफा ऐसा होता है कि आपकी ही बात भी अगर दूसरा कह रहा हो, तो भी आप उसको गलत सिद्ध किए बिना नहीं मान सकते। दूसरा सदा गलत होता है! होना चाहिए। आप सदा सही हैं। अपने लिए आप कुछ भी तर्क का उपयोग करते हैं। लेकिन यह सत्य की जिज्ञासा से नहीं, यह केवल अहंकार की तृप्ति के लिए है। ऐसा तर्क भ्रष्ट तर्क है। इसको भारत कुतर्क कहता है। यह कितना ही विकसित हो जाए, इससे कोई मनुष्य के जीवन में रूपांतरण नहीं होता।

एक और तर्क भी है, जो हम सत्य की खोज के लिए करते हैं। तब यह सवाल नहीं है कि दूसरा गलत कह रहा है। तब सवाल यह है कि सही क्या है? कौन कह रहा है, यह मूल्यवान नहीं है। क्या है सही, यही मूल्यवान है। कोई भी सही कह रहा हो, तो हम तर्क की कोशिश करते हैं, उस सही की जांच के लिए। तर्क तो एक कसौटी है। जैसे कोई सोने को कसता है कसौटी पर, ऐसे ही तर्क विचार की क्षमता, निर्णय और निर्णय का शास्त्र एक कला है। उस पर कसना है, कि जो भी कहा जा रहा है, वह कितने दूर तक सही है।

लेकिन हम नहीं कस पाते, क्योंकि हम सही को तो पहले से ही जानते हैं! हम सब मानते हैं कि सत्य तो हमें पता ही है। इसलिए अगर दूसरा हमसे मेल खा रहा है, तो सही है। और अगर हमसे मेल नहीं खा रहा है, तो गलत है। हम कसौटी हैं।

हम कसौटी नहीं हो सकते। तर्क कसौटी है। और तर्क तो बिलकुल निष्पक्ष कसौटी है, अपने को भी उसी पर कसो और दूसरे को भी उसी पर कसो। और डबल बाइंड, दोहरा चित्त न हो, दूसरे के लिए कुछ और, हमारे लिए कुछ और।

कृष्‍ण कहते हैं, वैसा मैं तर्क नहीं हूं। सत्य के निर्णय के लिए जो आतुर हैं, सत्यनिष्ठ, जिन्हें इससे प्रयोजन नहीं है कि पक्ष में पड़ेगा कि विपक्ष में, मैं हारूंगा कि जीतूंगा; जिन्हें प्रयोजन इतना है कि सत्य क्या है, उसकी परख हो जाए, उसका पता चल जाए; ऐसे सत्य के लिए किया गया वाद, ऐसे सत्य की जिज्ञासा के लिए किया गया तर्क मैं हूं।

कृष्‍ण कहते हैं, ऐसे तर्क नहीं, लेकिन वह तर्क जो सत्य की खोज के लिए किया जाता है। तो मैं वाद, सत्य के खोजियो के लिए किया जाने वाला वाद हूं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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