मंगलवार, 3 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 10 भाग 5

 कृष्‍ण की भगवता और डांवाडोल अर्जुन


अर्जुन उवान

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।

गुरुक शाश्वतं दिव्यमादिदेवमज विभुम्।। 12।।

आहुस्त्‍वमृषय सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।

असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे।। 13।।

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्‍मां वदसि केशव।

न हि ते भगवच्छक्तिं क्ट्रिर्देवा न दानवा:।। 14।।


इस प्रकार श्रीकृष्ण के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला हे भगवन— आप परम ब्रह्म और परम धाम एवं परम पवित्र हैं क्योंकि आपको सब ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं वैसे ही देवऋषि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास और स्वयं आप भी ऐसा मेरे प्रति कहते हैं।

और हे केशव जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं इस समस्त को मैं सत्य मानता हूं। हे भगवन— आप के लीलामय स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं।


कृष्ण ने जो भी अर्जुन को कहा, वह बुद्धि से मानने जैसा नहीं है; तर्क उसके विरोध में जाएगा, विचार उस पर संदेह करेंगे। अहंकार अस्वीकार करना चाहेगा उस सबको। क्योंकि कृष्‍ण ने जो कहा है, उससे ज्यादा कठिन बात, अहंकार को मानना, दूसरी नहीं हो सकती।

कृष्‍ण भी वैसे ही हड्डी—मांस—मज्जा से बने हैं, जैसे हड्डी—मांस— मज्जा से अर्जुन बना है। कृष्ण को भी वैसे ही भूख लगती है, जैसी अर्जुन को लगती है। कृष्ण भी वैसे ही थकते हैं और विश्राम करते हैं, जैसा अर्जुन थकता है और विश्राम करता है। कृष्ण को अर्जुन मान सकता है महामानव सरलता से, लेकिन ईश्वर मानने में बड़ी कठिनाई है। ईश्वर मानने का अर्थ ही ठीक से हम समझ लें, तो कठिनाई भी समझ में आ जाए।

जब हम एक किसी व्यक्ति को महामानव मानते हैं, तो भी हम अपने और उसके बीच जो अंतर देखते हैं, वह क्वांटिटी का, डिग्रीज का, कम का, परिमाण का है। हमारे जैसा ही, हमारे ही आयाम में, हमसे थोड़ा ज्यादा। लेकिन जैसे ही हम किसी व्यक्ति को भगवान मानते हैं, हमारा उससे सब संबंध टूट जाता है। और हमारे और उसके बीच जो अंतर है, वह क्वांटिटेटिव नहीं, क्वालिटेटिव हो जाता है। वह फिर गुण का अंतर है। फिर वह परिमाण और मात्रा का भेद नहीं है। फिर हमारे और उसके बीच कोई सेतु, कोई संबंध नहीं है। वह दूसरे ही लोक का अस्तित्व है। हमारे और उसके बीच एक अलंध्य खाई है।

इसलिए किसी व्यक्ति को महामानव मान लेने में अड़चन नहीं है, महात्मा मान लेने में अड़चन नहीं है। हमसे संबंध नहीं टूटता। हमारे ही रास्ते पर कोई हमसे दो कदम आगे होता है, कोई दस कदम आगे होता है। अहंकार को तकलीफ होती है इसमें भी कि किसी को मैं आगे मानूं! लेकिन फिर भी अहंकार इससे नष्ट नहीं होता। हम किसी को अपने से आगे मान सकते हैं।

कभी—कभी ऐसा भी होता है कि अपने से किसी को आगे मानने में भी अहंकार को तृप्ति मिलती है। वह तृप्ति जरा सूक्ष्म है। जिसे हम अपने से आगे मानते हैं, यह मानने के कारण ही हम उससे संयुक्त हो जाते हैं। और यह मानने के कारण ही हम उसको पहचानने वाले हो जाते हैं। और यह मानने के कारण ही हम भी अपने भविष्य में कभी उस जैसा होने की संभावना का अहंकार पोषित कर सकते हैं।

लेकिन किसी व्यक्ति को ईश्वर मानने में हमारी सारी तर्क—सारणी टूट जाती है, हमारी सारी अंतर्व्यवस्था अस्तव्यस्त हो जाती है। ईश्वर मानने का अर्थ ही यह हुआ कि वह हमसे बिलकुल भिन्न है। भिन्नता इतनी गहरी है कि हम उसे समझ भी नहीं पा सकते कि वह क्या है।

कृष्‍ण ने जो भी कहा है, वह असंभव है। असंभव है बुद्धि के लिए। अर्जुन उसके उत्तर में जो कह रहा है, वह बहुत सोचने जैसा है। और जैसा ऊपर से दिखाई पड़ता है, वैसा उसका अर्थ नहीं है। और जैसा भी आपको अर्थ दिखाई पड़ता रहा होगा, थोड़ा गहरे उतरेंगे, तो उससे बिलकुल विपरीत अर्थ पाएंगे।

अर्जुन ने कृष्ण की ये सारी बातें सुनकर कि मैं परमात्मा हूं; मैं ही सबमें व्याप्त हूं; सब कुछ मेरे ही द्वारा धारण किया गया है, समस्त ऋषियों में मेरे ही भाव प्रकट हुए हैं; और समस्त श्रेष्ठताओं और समस्त शक्तियों का मैं ही आधार और बीज हूं; और जहां भी जीवन में कोई सुगंध ऊंचाई छूती है, और जब भी कोई शिखर गौरीशंकर होता है, तब उस श्रेष्ठता की अंतिम स्थिति में जो खिलता है, जो फूल खिलता है, वह मैं ही हूं। मैं ही इस जीवन का आभिजात्य, मैं ही इस जीवन का रस, मैं ही इस जीवन का प्राण, मैं ही इस जीवन का केंद्र हूं। ये बातें कृष्‍ण ने कहीं, जो बड़ी असंभव हैं किसी बुद्धि को मानने के लिए। अर्जुन ने जो उत्तर दिया, इसलिए बहुत सोचने जैसा है।

इस प्रकार कृष्‍ण के वचनों को सुनकर अर्जुन ने कहा, हे भगवन्, आप परम ब्रह्म और परम धाम एवं परम पवित्र हैं। आपको सब ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं। वैसे ही देवऋषि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास और स्वयं आप भी ऐसी ही घोषणा मेरे प्रति करते हैं। और हे केशव, जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस समस्त को मैं सत्य मानता हूं। हे भगवन्, आपके लीलामय स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं।

ठीक ऊपर से देखने पर लगेगा कि अर्जुन ने सब कुछ स्वीकार कर लिया। काश, अर्जुन यह सब कुछ स्वीकार कर ले, तो गीता यहीं समाप्त हो जाती; आगे गीता निष्प्रयोजन है। फिर कहने को कुछ और बचता नहीं, और समझाने को भी कुछ बचता नहीं। आखिरी बात पूरी हो गई। अल्टिमेट, जो आत्यंतिक घटना घटनी चाहिए अर्जुन के भीतर, वह घट गई। लेकिन गीता समाप्त नहीं होती है और कृष्‍ण को और भी श्रम लेना पड़ता है। यह वक्तव्य जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा नहीं होगा, इसीलिए। इसमें तीन बातें खयाल में ले लेने जैसी हैं।

अर्जुन कहता है कि आप परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र हैं, क्योंकि ऐसा ही ऋषियों ने भी कहा है, महर्षियों ने भी कहा है।

अर्जुन को अभी भी यह सीधी प्रतीति नहीं है। अभी भी गवाह की जरूरत है; साक्षी की, विटनेस की जरूरत है। अर्जुन मानता है, क्योंकि सब ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों के भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी आपको स्वीकार करते हैं। देवऋषि नारद—ये बड़े नाम हैं, उस युग के बड़े नाम हैं— असित और देवल और महर्षि व्यास, और इतना ही नहीं, आप स्वयं भी मेरे प्रति ऐसा ही कहते हैं।

ध्यान रहे, जब भी हमें साक्षी की, गवाह की जरूरत पड़ती है, तो उसका अर्थ होता है, सत्य का साक्षात्कार सीधा नहीं है। अर्जुन यह नहीं कहता कि ऐसा मैं अनुभव करता हूं। अर्जुन कहता है, जिनकी बात मानी जा सके, वे भी ऐसा ही कहते हैं। अर्जुन कहता है, आप जो कह रहे हैं, वह प्रामाणिक मालूम पड़ता है; क्योंकि जो भी विचारशील हैं, जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने भी ऐसा ही कहा है।

यह इमीजिएट, यह सीधा—सीधा अनुभव नहीं है। कहीं ऐसा अगर हो कि महर्षि व्यास ऐसा न कहें, और देवल और असित इनकार कर दें, और नारद कह दें कि नहीं, ये कृष्‍ण भगवान नहीं हैं, तो अर्जुन की क्या गति हो? तो अर्जुन डांवाडोल हो जाए।

उसका सत्य, उसका अपना सत्य नहीं है, गवाहों का सत्य है। किन्हीं की गवाही पर वह अपनी मान्यता को निर्धारित कर रहा है। गवाही बहुत मजबूत है।

साधारण आदमी की यही मनोदशा है। उसके पास अपना कोई सत्य नहीं होता। कोई और कहता है, तो वह मान लेता है। कोई और बदल जाएगा कल, तो वह भी बदल जाएगा।

लेकिन महर्षि व्यास जो कहते हैं, वह सत्य कहते हैं, यह अर्जुन कैसे जानेगा! बड़ी मजे की बात है। तब अर्जुन खोजेगा कि और कौन—कौन ऋषि हैं, जो महर्षि व्यास को महर्षि मानते हैं! वह भी निर्भर करेगा किसी गवाही पर।

यह तो इनफिनिट रिग्रेस है, इसमें तो कहीं कोई उपाय नहीं हो सकता। अ को आप मानते हैं, क्योंकि ब कहता है। ब को आप मानते हैं, क्योंकि स कहता है। स को आप मानते हैं, क्योंकि द कहता है। लेकिन आप दूसरे पर निर्भर हैं। और जो मान्यता दूसरे पर निर्भर है, वह कभी भी गहरी नहीं हो सकती। क्योंकि जब कृष्‍ण को सीधा सामने पाकर सीधा नहीं माना जा सकता, तो महर्षि व्यास के वक्तव्य को कैसे गहरे में माना जा सकता है?

कृष्‍ण सामने खड़े हैं—यह बहुत मजे की बात है— यह ऐसी स्थिति है कि अंधा सूरज के सामने खड़ा हो और कहे कि ही, मैं मानता हूं कि तुम सूरज हो और तुममें प्रकाश है, क्योंकि अ ने भी ऐसा कहा है, ब ने भी ऐसा कहा है, स ने भी ऐसा कहा है! बड़े— बड़े ज्ञानी भी यही कहते हैं कि सूरज में प्रकाश है; और तुम भी मेरे प्रति कहते हो कि तुम प्रकाशवान हो!

लेकिन अंधे को खुद दिखाई नहीं पड़ रहा। क्योंकि अगर अंधे को खुद दिखाई पड़ता हो, तो गवाही की कोई भी जरूरत नहीं है। सत्य के लिए गवाही की कोई भी जरूरत नहीं है। केवल असत्य के लिए गवाही की जरूरत पड़ती है। सत्य तो स्वयं ही अपनी गवाही है। और अगर सत्य स्वयं अपनी गवाही नहीं दे सकता, तो फिर और कौन उसकी गवाही दे सकेगा?

अर्जुन को प्रतीति सीधी नहीं है। अर्जुन अभिभूत है, प्रभावित है, लेकिन बड़े गवाहों के नाम से; सीधे कृष्ण से नहीं। अगर उसे पता चल जाए कि महर्षि व्यास ने नहीं कहा है ऐसा, तो उसके सब आधार डगमगा जाएं, उसकी श्रद्धा का पूरा भवन गिर जाए।

दूसरे की गवाही पर निर्भर जो भी व्यक्ति जीता है, वह बहुत दरिद्र है, उसके पास सीधी देखने की आंख नहीं है। एक बात।

दूसरी बात, अर्जुन कृष्‍ण को प्रेम करता हे, यह जरूर सच। और प्रेम करता है इसीलिए उसने, अर्जुन ने उन लोगों की गवाहियां चुन ली हैं, जो कृष्‍ण को भगवान कहते हैं। अगर अर्जुन कृष्ण को प्रेम न करे, तो वह दूसरे गवाह चुनेगा, जो भगवान कृष्‍ण को नहीं कहते। और ऐसा नहीं है कि दूसरे गवाह नहीं हैं।

निश्चित ही, अर्जुन के मन में अगर कृष्‍ण के प्रति प्रेम न होता, तो उसने गवाही दूसरी चुनी होतीं। ये तीन—चार जो गवाहों के नाम लिए हैं, ये ही गवाह नहीं थे, और भी गवाह थे। 

हम अपने प्रेम से अपनी गवाही चुन लेते हैं। अर्जुन का प्रेम है कृष्‍ण के प्रति, लगाव है। उसने जो कृष्‍ण के अनुमोदन में हैं, उन लोगों के नाम चुन लिए हैं। लेकिन यह प्रेम श्रद्धा नहीं है, यह मित्र के प्रति प्रेम है। यह लगाव समान तल पर है। अर्जुन कहता है कि मानता हूं आप जो भी कहते हैं, सत्य मानता हूं। लेकिन यह मान्यता सीधी नहीं है, यह बात ठीक से समझ लें।

काश यह मान्यता सीधी होती, तो उसी क्षण गीता समाप्त हो जाती। बात पूरी हो गई थी। फिर कृष्‍ण का आदेश मानने के अतिरिक्त और कोई उपाय न था। लेकिन अभी भी आदेश माना नहीं जा सकता। अर्जुन कहता है कि आप भगवान हैं, लेकिन अभी भी संदेह किए चला जाएगा। और जब कृष्‍ण बुद्धि से उसे सब जगह से काट—छांट डालेंगे और जब उसकी बुद्धि को कोई उपाय नहीं मिलेगा, तो वह कहेगा कि ऐसे मेरी तृप्ति नहीं होती। आप तो अपना विराट भगवान का रूप दिखाएं, तब शायद!

नहीं, अभी उसका स्वयं का राजी होना नहीं हुआ है। बुद्धि से गवाह जुटाकर वह अपने को समझा रहा है। इस सूत्र में जगह—जगह उसकी खबर है।

ऋषि तो कहते हैं कि आप परम ब्रह्म हैं, और इतना ही नहीं, स्वयं आप भी ऐसा मेरे प्रति कहते हैं। वह कृष्‍ण को भी गवाहियों की कतार में खड़ा कर रहा है। वह इनकी बात भी न मानता। लेकिन बड़ी मुश्किल है। कृष्ण खुद कह रहे हैं कि मैं भगवान हूं। तो वह कहता है कि और आप भी ऐसा ही मेरे प्रति कहते हैं। तो उसकी हिम्मत नहीं जुट पाती कि वह संदेह खड़ा करे। लेकिन संदेह उसके भीतर है।

जिसके भीतर संदेह नहीं है, वह गवाह नहीं जुटाएगा। गवाह हम जुटाते इसलिए हैं कि भीतर के संदेह को काटने का और कोई उपाय नहीं है। भीतर के संदेह जितने बड़े होंगे, उतने बड़े गवाह हम जुटाएंगे।

अर्जुन को अगर सड़क चलता हुआ कोई भी आदमी कह दे कि कृष्ण भगवान हैं, तो वह मानेगा नहीं; उसका संदेह बड़ा है। जब महर्षि व्यास ही तराजू पर  बैठकर न कहें कि हां, ये भगवान हैं, तब तक वह मानेगा नहीं!

जितना बड़ा हो संदेह, उतनी बड़ी गवाही चाहिए। यह थोड़ा उलटा मालूम पड़ेगा! हम जितनी बड़ी गवाही खोजते हैं, उतने बड़े संदेह की खबर देते हैं। अगर संदेह बिलकुल न हो, तो गवाही की बिलकुल जरूरत न पड़ेगी। अगर संदेह शून्य हो, तो सारी दुनिया भी विपरीत गवाही दे, तो भी कोई अंतर नहीं पड़ेगा।

लेकिन यह अर्जुन जो कह रहा है, इसकी बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि उस पर ही आगे की पूरी समझ निर्भर करेगी। अर्जुन को भरोसा जरा भी गहरे में नहीं है, ऊपर— ऊपर है। लगाव है उसका। मानना चाहता है कि कृष्‍ण भगवान हों; मान नहीं पाता है। अपने को मनाना भी चाहता है। यह चेष्टा वास्तविक है, प्रामाणिक है। चाहता है कि मान ले कि कृष्‍ण भगवान हैं, इसलिए गवाही भी जुटाता है। लेकिन फिर भी गवाहियां ऊपर ही रह जाती हैं। और तब वह कहता है, स्वयं आप भी ऐसा ही मेरे प्रति कहते हैं।

और हे केशव, जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस समस्त को मैं सत्य मानता हूं।

यह मानना जानना नहीं है। यह मानना वस्तुत: मानना नहीं है, क्योंकि इतने बड़े सत्य को मानते ही तो जीवन रूपांतरित हो जाता है। यह तो मानते ही अर्जुन का दूसरा जन्म हो जाए। लेकिन अर्जुन वही का वही रहता है यह मानने के बाद भी।

जिस धर्म को मानने के बाद आपका जीवन न बदले, तो आप समझना कि आपने धर्म को माना नहीं। जिस आग में हाथ डालें और हाथ भी न जले, तो समझना कि वह आग झूठी होगी, सपने की होगी, कल्पना की होगी, कागजी होगी। होगी नहीं। चित्र पुता होगा आग का, उसमें आप हाथ डाल रहे हैं।

ऐसा अगर अर्जुन जान ले कि कृष्‍ण भगवान हैं, तो अर्जुन वैसे ही खो जाएगा, जैसे बूंद सागर में खो जाती है। इसी क्षण खो जाएगा। लेकिन यह भी उसकी चेष्टा है, यह मानना भी उसका बौद्धिक प्रयास है। यह भी प्रयत्न है, यह भी एक श्रम है, यह भी एक कोशिश है। और इसलिए कोशिश कभी भी गहरी नहीं जाती, ऊपर—ऊपर रह जाती है; और भीतर विपरीत दशा मौजूद रहती है। भीतर विपरीत दशा मौजूद रहती है। वह विपरीत दशा अर्जुन के भीतर भी मौजूद है। यद्यपि उसे थोड़ा आनंद आ रहा है यह बात कहने में कि इस समस्त को मैं सत्य मानता हूं।

हे भगवन्, आपके लीलामय स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं।

इससे उसके अहंकार को थोड़ा आनंद भी आ रहा है, लेकिन मैं जानता हूं। न देवता जानते हैं, न दानव जानते हैं। आपके इस लीलामय स्वरूप को कोई भी नहीं जानता, लेकिन मैं, अर्जुन, जानता हूं। यह उसकी सारी मान्यता भी उसके गहन अहंकार को संपुष्ट करती है। मैं जानता हूं! इसीलिए वह माने ले रहा है।

इसमें एक बात ध्यान देने योग्य है कि बहुत बार हम इसलिए मान लेते हैं कि मानने से अहंकार पुष्ट होता है। इसलिए आप देखकर हैरान होंगे कि अगर आपको नास्तिकों के बीच में छोड़ दिया जाए, तो आप नास्तिक हो जाएंगे। आपको आस्तिकों के बीच में छोड़ दिया जाए, आप आस्तिक हो जाएंगे। क्योंकि जिनकी भीड़ होती है, उनके विपरीत जाने में अहंकार को तकलीफ होती है।

क्योंकि आस्तिक होना आसान है, इसलिए हम आस्तिक हैं। और नास्तिक होना आसान हो जाए, तो हम नास्तिक हो जाएं। जो भी कनवीनिएंट है। हमारा धर्म एक तरह की कनवीनिएंस है, एक तरह की सुविधा है। जिस बात में सुविधा होती है, वह हम करते रहते हैं। मंदिर जाने में सुविधा होती है, तो हम करते रहते हैं।

एक मित्र मेरे पास आए थे कुछ दिन हुए। उन्होंने कहा कि मुझे भरोसा बिलकुल नहीं है, न मंदिर में, न भगवान में। लेकिन लड़की की शादी करनी है, इसलिए मंदिर जाना पड़ता है। और किसी से कह भी नहीं सकता कि मेरा भगवान में कोई भरोसा नहीं है, क्योंकि छोटे बच्चे हैं। इन सबको पालना और बड़ा करना है।

एक सामाजिक कृत्य है, एक सामाजिक सुविधा है। और फिर अहंकार है। अहंकार को जिसमें भी तृप्ति मिलती हो, अहंकार मानने को राजी हो जाता है।

अर्जुन को सुख मालूम हो रहा है। क्योंकि न देवता जानते हैं, न दानव जानते हैं; कोई भी नहीं जानता कि कृष्ण क्या हैं, क्या है उनका रहस्य, लेकिन मैं मानता हूं।

ये दो बातें ध्यान में रखने की हैं इस सूत्र में। एक तो अर्जुन मानता नहीं, गहरे में अस्वीकार है। उस अस्वीकार को भरने की, गवाही से, चेष्टा है। हम अपने मतलब की गवाही सदा खोज लेते हैं।

आदमी अपने मतलब से सब कुछ खोजता है। उसके सपने भी उसके मतलब से निर्मित होते हैं, उसके सत्य भी। उसकी कल्पनाएं भी उसके मतलब से जन्मती हैं, उसके सिद्धांत भी। आदमी बहुत जटिल, बहुत जटिल घटना है।

अर्जुन की जटिलता को खयाल में लें। जटिलता यह है कि वह मानना भी नहीं चाहता कि कृष्‍ण भगवान हैं और मानना भी चाहता है, ईदर—ऑर। दोनों उसके सामने हैं। और ऐसे दोनों ही हम सबके सामने सदा होते हैं।

हम सब का ही प्रतीक है अर्जुन। हम सबके भीतर ही ऐसा द्वंद्व है। हम मानना भी चाहते हैं और नहीं भी मानना चाहते हैं। हम करना भी चाहते हैं और नहीं भी करना चाहते हैं। हम जीना भी चाहते हैं और नहीं भी जीना चाहते हैं। हम शांत भी होना चाहते हैं और नहीं भी होना चाहते हैं। दोनों विरोध हमारे भीतर एक साथ खड़े हुए हैं। और हम जीवनभर यही करते रहते हैं। कि जैसे कोई एक सिक्का हो आपके पास, तो कभी उसे उलटा कर लें और कभी उसे सीधा कर लें। दूसरा पहलू नीचे दब जाता है, लेकिन मौजूद रहता है। फिर ऊब जाते हैं एक पहलू से, तो दूसरा ऊपर कर लेते हैं। हम जिंदगीभर इस द्वंद्व के बीच ही डोलते रहते हैं।

हम सबका मन एक ही साथ विपरीत को करना चाहता है। हम श्रद्धा भी करना चाहते हैं और अश्रद्धा भी हमारी गहरी है। यह जटिलता है। और इस जटिलता को बिना समझे जो चलेगा, वह इस जटिलता के बाहर कभी भी नहीं हो पाएगा। इस जटिलता को जो समझ लेगा, वह इसके बाहर हो सकता है।

अर्जुन को भी पता नहीं है। यह बहुत अनकांशस, यह बहुत अचेतन है। अगर अर्जुन से भी हम यह कहें कि नहीं, ये तू जो गवाहियां इकट्ठी कर रहा है, ये इसलिए इकट्ठी कर रहा है कि तुझे संदेह है। तो वह भी चौंकेगा कि आप क्या कह रहे हैं! मैं भगवान मानता हूं। और अगर कृष्ण जिद्द करें कि नहीं, तू मानता नहीं है। तो वह और भी जिद्द करेगा कि मैं मानता हूं।


लेकिन उसकी जिद्द भी यही बताएगी। हम जिद्द ही उन बातों की करते हैं, जिनके विपरीत हमारे भीतर कोई स्वर होता है। जितने जिद्दी लोग होते हैं, वे द्वंद्वग्रस्त लोग होते हैं। जिसके भीतर का द्वंद्व विसर्जित हो जाता है, उसकी जिद्द भी चली जाती है।

यह हमारा मन ऐसा काम करता है। लेकिन हम संगत होने की दृष्टि से एक को ऊपर रखते हैं, दूसरे को नीचे दबा देते हैं। जिसको हम नीचे दबा देते हैं, आज नहीं कल वह बदला लेगा। वह ऊपर उभरेगा, वह निकलकर बाहर आएगा। और जिसे हमने आज ऊपर रखा है, उससे हम ऊब जाएंगे। सब चीजों से आदमी ऊब जाता है। और जिन चीजों के साथ रहता है सचेतन रूप से, उनसे जल्दी ऊब जाता है। तो जिसको आपने ऊपर रखा है, थोड़ी देर में दिल बदल जाएगा और मन ऊब जाएगा; फिर नीचे की बात ज्यादा सार्थक मालूम होने लगेगी। इस तरह मन घड़ी के पेंडुलम की तरह डोलता रहता है।

अर्जुन इस सूत्र में दोनों बातें कह रहा है। अगर आपको दोनों बातें दिखाई पड़ जाएं, तो आगे गीता को समझना बहुत सुगम हो जाए। कृष्‍ण को दोनों बातें दिखाई पड़ रही हैं। इसलिए गीता समाप्त नहीं की गई। गीता को जारी रखना पड़ा है। कृष्‍ण को पता है कि अर्जुन जो कह रहा है, यह अभी भी उसका अपना सत्य नहीं है।

और उधार सत्य, दूसरे के सत्य, असत्य से भी बदतर होते हैं। असत्य भी अपना हो, तो उसमें एक प्रामाणिकता होती है, एक सिंसिअरिटी होती है। और सत्य भी दूसरे का हो, तो इनसिंसिअर होता है, अप्रामाणिक होता है। दूसरे के सत्य का क्या अर्थ? मेरा असत्य भी मेरा अनुभव बनेगा। दूसरे का सत्य भी मेरा अनुभव नहीं बन सकता है।

महर्षि व्यास क्या कहते हैं, इससे अर्जुन का क्या लेना—देना? और महर्षि व्यास को मानने का अर्जुन को कारण क्या है? कृष्‍ण को मानने में जिसे कठिनाई हो रही हो, वह महर्षि व्यास को इतनी सुविधा से कैसे माने ले रहा है?

नहीं; वह ऊपर से लीपापोती कर रहा है। वह अपने मन को समझा रहा है। वह कोशिश कर रहा है कि मान जाऊं कि कृष्ण भगवान हैं। लेकिन भीतर प्रबल प्रवाह है अहंकार का। वह कहता है कि यह कैसे माना जा सकता है?

और ध्यान रहे, क्षत्रिय का अगर कोई सबसे ज्यादा विकसित हिस्सा है, तो वह अहंकार है। वही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। क्षत्रिय का अगर कोई सबसे विकसित हिस्सा है, तो वह अहंकार है। वही उसकी कमजोरी भी है। वही उसकी हिंसा है, वही उसकी कलह है। उसी को वह बर्दाश्त नहीं कर सकता। और अर्जुन तो कहना चाहिए, क्षत्रियों में श्रेष्ठतम क्षत्रिय है; शुद्धतम अहंकार है। उसके पास जो अस्मिता है, जो ईगो है, वह शुद्धतम क्षत्रिय की है। उसको बहुत मुश्किल है यह बात मानने की कि कृष्‍ण भगवान हैं। उसे सिर उनके चरणों में रखना बहुत कठिन है। अति कठिन है।

लेकिन कृष्ण की प्रतिभा, कृष्ण की आभा, कृष्ण का प्रकाश भी उसे छूता है। कृष्‍ण का प्रेम, उनकी अनुकंपा भी उसे स्पर्शित करती है। उसकी हृदय की पंखुड़ियां उनकी निकटता में खिलती भी हैं। उसके भीतर कुछ प्रतिध्वनित भी होता है। उनको पास पाकर वह जानता है कि सिर्फ आदमी के निकट नहीं है। यह कहीं गहरे में अहसास भी होता है। एक तल पर इनकार भी चलता है, एक तल पर इसका स्वीकार भी होता है। और इन दोनों द्वंद्व के बीच में फंसा हुआ अर्जुन है। यह द्वंद्व इस वक्तव्य में पूरी तरह साफ है। लेकिन एक मजा वह ले लेना चाहता है, और वह मजा यह है कि कुछ भी हो, आप जो कहते हैं, वह मैं सत्य मानता हूं। और देवता और दानव भी जिसे नहीं जान पाते, वह भी कम से कम मैं तो मानता हूं।

इस मानता शब्द पर भी थोड़ा विचार कर लेना उपयोगी है। आप मानते किन चीजों को हैं, कभी आपने खयाल किया है?

आप उन्हीं चीजों को मानते हैं, जिन पर आपको शक होता है। आप कभी कहते हैं, घोषणा करते हैं कि मैं सूरज में विश्वास करता हूं? आप कभी घोषणा करते हैं कि पृथ्वी पर मेरा पक्का विश्वास है? कभी आप कहते हैं कि शरीर में मेरी बड़ी श्रद्धा है?

न, आप कहते हैं, आत्मा में मेरी बड़ी श्रद्धा है। परमात्मा में मेरा बड़ा विश्वास है। मोक्ष में, मैं मानता हूं कि मोक्ष है।

कभी आपने खयाल किया है कि आप उन्हीं चीजों पर मान्यता का बल डालते है, जिनको आप नहीं जानते हैं। जिनको मानना बिलकुल असंभव मालूम पड़ता है, उन्हीं को आप कहते हैं, मैं मानता हूं। और जिनको मानना बिलकुल आसान है, प्रत्यक्ष है, उनको आप कभी मानने की बात नहीं करते।

शरीर को आप जानते हैं, आत्मा को आप मानते हैं। यह फर्क समझ लें। पदार्थ को आप जानते हैं, परमात्मा को आप मानते हैं। जिस दिन परमात्मा भी जानना बनता है और जिस दिन आत्मा भी जानना बन जाती है, उसी दिन, उसी दिन आपके भीतर एक स्वर का जन्म होता है। अन्यथा आपके भीतर द्वंद्व और कलह मौजूद ही रहेंगे।

फिर जो आदमी जितना मान्यता में कमजोर होगा, उस मान्यता को वह जिद्द से पूरा करता है। इसलिए कमजोर आस्था वाले लोग डाग्मैटिक हो जाते हैं। जितनी कमजोर आस्था वाले लोग होंगे, उतने ज्यादा मतांध होंगे। क्योंकि उन्हें खुद से ही डर लगता है कि अगर कहीं दूसरा मेरी मान्यता को खंडित कर दे या गलत कर दे, तो उन्हें खुद ही पता है कि हम तो भीतर तैयार ही हैं कि अगर कोई गलत कर दे, तो हम भी गलत मान लेंगे। इसलिए किसी की बात मत सुनो, विपरीत विचार को मत सुनो, विपरीत शास्त्र को मत पढ़ो।

भीतर एक भय है। भीतर एक भय है कि कहीं दूसरा सही न हो। कहीं दूसरे की बात सुनाई पड़ जाए, वह सही न हो। अपना तो कोई सत्य नहीं है, भीतर तो कोई सत्य नहीं है। दूसरे पर ही निर्भर है। कहीं औरों की बात सुनकर डांवाडोल न हो जाऊं। इसलिए सुनो ही मत, पढ़ो ही मत, समझो ही मत, दूसरे को जानो ही मत। और दूसरे से लड़ते भी रहो, और दूसरे से बचते भी रहो, और अपने को ही अंधे की तरह ठीक मानो और सबको गलत मानो।

यह सारा का सारा खेल एक बहुत मनोवैज्ञानिक बीमारी है। और वह बीमारी यह है कि मुझे ठीक पता नहीं है कि सत्य क्या है। तो जब तक मैं दूसरों को असत्य सिद्ध करता रहूं तभी तक मुझे भरोसा रहता है कि मैं सत्य हूं। और अगर मैं दूसरों की भी गौर से सुनने लगू तो मेरे भीतर सब डांवाडोल हो जाता है कि मैं सत्य हूं या नहीं हूं! सत्य क्या है?

और जब तक कोई आदमी अपने सत्य की तलाश में न लगे, तब तक महर्षियों ने क्या कहा है, व्यास क्या कहते हैं, खुद कृष्‍ण भी क्या कहते हैं, इसका मूल्य बड़ा नहीं है। अर्जुन क्या अनुभव करता है, इसका मूल्य है। कृष्ण क्या कहते हैं, इसका कोई मूल्य अर्जुन के लिए नहीं है। अर्जुन क्या अनुभव करता है, इसका मूल्य है। और उसकी अनुभूति इस सूत्र में जैसी प्रकट होती है, वह न तो गहरी है, न एकस्वर वाली है, न उसमें सामंजस्य है। उसमें विपरीत एक साथ मौजूद हैं। दिखाई नहीं पड़ते हैं, वही खतरा है। वही खतरा है।

अगर दिखाई पड़े कोई द्वंद्व, तो हम उसके बाहर हो सकते हैं। दिखाई न पड़े, तो बड़ा खतरा है। अर्जुन को भी पता नहीं है कि वह क्या कह रहा है। हम को भी पता नहीं है।

जब आप मंदिर में जाकर कहते हैं कि हे प्रभु, मैं आप में श्रद्धा रखता हूं और समर्पण करता हूं। आपको भी पता नहीं है, आप क्या कह रहे हैं! क्योंकि जो आप कह रहे हैं, वह बड़ा क्रांतिकारी वक्तव्य है। अगर सच है, तो आप उस दुनिया में प्रवेश कर जाएंगे, जो अमृत की है, आनंद की है। और अगर झूठ है, तो आपके साधारण झूठ उतना नुकसान नहीं करेंगे, जो आपने दुकान पर बोले हैं, लेकिन यह मंदिर में बोला गया झूठ भयंकर है।

क्या आपने कभी इसकी फिक्र की कि हम जो भी श्रद्धा के, भक्ति के, समर्पण के वक्तव्य देते हैं, उनमें हमारे प्राणों की कोई भी गहरी छाप होती है! बिलकुल नहीं होती है। सच तो यह है कि हम अपनी अश्रद्धा से इतने घबड़ा जाते हैं कि ऊपर से श्रद्धा का रंग पोत लेते हैं। नास्तिक भीतर छिपा है। आस्तिक हमारे वस्त्रों से ज्यादा गहरा नहीं है।

इस जमीन पर आस्तिक खोजना कठिन है, हालांकि आस्तिक सब दिखाई पडते हैं। और इस जमीन पर ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो नास्तिक न हो। यद्यपि नास्तिक एकदम से दिखाई नहीं पड़ता। यह मजा है। इसलिए दुनिया नास्तिक है। और एक— एक आदमी से मिलिए, तो वह आस्तिक है! सबका जोड़ नास्तिकता है। और सब अलग—अलग आस्तिक होने का दावा किए चले जाते हैं। उनकी जिंदगी में हम उतरें, तो नास्तिकता के सिवाय कहीं कुछ नहीं मिलता।

अभ्यास धर्म नहीं है। चेष्टा करके कोई बात दिखाई पड़ने लगे, उसका कोई मूल्य नहीं। दिखाई पड़े।

यह अर्जुन चेष्टा कर रहा है। व्यास ने कहा है, देवल ने कहा है, इसने कहा है, उसने कहा है। और फिर आप भी कहते हैं, तो मैं मानता हूं आप जो कहते हैं, वह सत्य ही कहते हैं। यह चेष्टा है, यह अभ्यास है! यह प्रयत्न है मान लेने का कि कृष्ण भगवान हैं। लेकिन भीतर कोई स्वर बजे चला जा रहा है कि नहीं। उसी को दबाने के लिए सब उपाय हैं।

आदमी की यह जो दोहरी व्यवस्था है, डबल बाइंड, यह बड़ी जटिल है, यह गांठ बड़ी गहरी है। इसलिए ऊपर से आप कहते हैं कि मैं बहुत प्रेम करता हूं और भीतर झांककर देखेंगे, तो प्रेम का कोई पता नहीं। ऊपर से कहते हैं, मेरी श्रद्धा अपार है। और भीतर देखेंगे, तो उतनी ही अपार अश्रद्धा मौजूद है। ऊपर से कुछ, भीतर से कुछ! हर आदमी दो में बंटा है।

और जब तक आदमी दो में बंटा है, तब तक किसी भी स्थिति में भगवत्ता को पहचानना संभव नहीं है। जब आदमी के भीतर का जोड़ यह दो का समाप्त हो जाता है और एक ही पैदा होता है। जब आदमी के भीतर एक निर्मित होता है, तब भगवत्ता को कहीं भी पहचान लेना—पहचान लेना कहना ठीक नहीं, तब भगवत्ता को कहीं भी न पहचानना असंभव है। वह सब जगह मौजूद है। सब जगह मौजूद है। सब जगह मौजूद है। फिर ऐसा नहीं है कि उसे देखना पड़े, और फिर ऐसा भी नहीं है कि गवाहियां खोजनी पड़े। यहां एक मजे की बात है और वह यह कि अगर विज्ञान का अतीत खो जाए, तो विज्ञान का सारा भवन गिर जाए। अगर हम न्यूटन को अलग कर लें, गैलीलियो को अलग कर लें, तो न्यूटन और गैलीलियो के हटते ही आइंस्टीन जमीन पर गिर जाएगा। आइंस्टीन खड़ा नहीं हो सकता अपने पैरों पर।

विज्ञान एक परंपरा है, एक ट्रेडीशन है। और मजे की बात है कि धर्म को हम परंपरा कहते हैं, विज्ञान को परंपरा नहीं कहते। विज्ञान परंपरा है, एक ट्रेडीशन है, एक कलेक्टिव एफर्ट। बहुत लोगों का उसमें हाथ है। अगर उसमें से एक ईंट खींच लें, तो ऊपर का शिखर नीचे गिर जाएगा।

लेकिन धर्म परंपरा नहीं है, धर्म वैयक्तिक अनुभव है। अगर अतीत के सारे महापुरुष भी धर्म के विलीन हो जाएं और एक भी न हुए हों, तो भी आप धार्मिक हो सकते हैं इसी वक्त। क्योंकि धार्मिक होना निजी अनुभव है। किसने कहा है और नहीं कहा है, अगर वे सब खो जाएं, अगर दुनिया में सारे धर्म—ग्रंथ नष्ट हो जाएं, तो भी धर्म नष्ट नहीं होगा।

यह मजे की बात है। अगर विज्ञान की एक किताब भी खो जाए, तो बाकी सब किताबें अस्तव्यस्त हो जाएंगी। और सब किताबें खो जाएं, तो विज्ञान बिलकुल नष्ट हो जाएगा। क्योंकि विज्ञान निर्भर करता है दूसरों के वक्तव्यों पर। उसकी एक श्रृंखला है, कड़ी से कड़ी जुड़ी है। अगर पीछे की कड़ी खोती हैं, तो यह कड़ी निर्मित नहीं हो सकती।

आप सोचते हैं, अगर साइकिल न बनी हो दुनिया में, तो हवाई जहाज नहीं बन सकता। अगर बैलगाड़ी न बनी हो, तो चांद पर पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। हालांकि बैलगाड़ी से कोई चांद पर नहीं पहुंचता। लेकिन बैलगाड़ी अगर न बनी होती, तो चांद पर पहुंचने का कोई भी उपाय नहीं है। जिसने बैलगाड़ी बनाई थी, वह भी चांद पर पहुंचाने में उतना ही अनिवार्य अंग है, जितना चांद पर उतरने वाला आदमी।

लेकिन धर्म की बात बिलकुल अलग है। अगर महावीर न हों, बुद्ध न हों, कृष्ण न हों, राम न हों, कोई अंतर नहीं पड़ता। कोई अंतर नहीं पड़ता। आप चाहें तो उनके बिना धार्मिक हो सकते हैं। क्योंकि धार्मिक होना निजी सत्य का साक्षात्कार है। उसका परंपरागत सत्य से कुछ लेना—देना नहीं है।

यह अर्जुन अभी भी जो बात कर रहा है, परंपरा की बात कर रहा है। अभी तक इसे निजी कोई बोध नहीं है।

परमात्मा सामने खड़ा हो, और कैसी फीकी—फीकी बातें अर्जुन कर रहा है! कृष्ण के सामने क्या है अर्थ व्यास का? कृष्‍ण के सामने क्या है अर्थ देवल ऋषि का, देव ऋषियों का? कृष्ण के सामने क्या है अर्थ? ऐसे जैसे सूरज सामने खड़ा हो और कोई दीए को लेकर गवाहियां देता हो कि निश्चित, मैं दीए में देखकर कहता हूं कि तुम सूरज हो। ये गवाहियां ऐसी हैं।

लेकिन अर्जुन को खयाल नहीं है। वह सोच रहा है, बड़े—बड़े नाम ला रहा है वह, बड़े वजनी। वजनी वे हैं अर्जुन के लिए, कृष्‍ण के सामने वे दीए की तरह व्यर्थ हैं। सूरज के सामने जैसे दीया खो जाए; कोई अर्थ नहीं है। उनका मूल्य ही इतना है कि अंधेरा जब हो गहन, तब वे रोशनी देते हैं। और जब सूरज ही सामने हो, तो उनका कोई भी उपयोग नहीं है।

लेकिन अर्जुन उनकी गवाहियां ला रहा है, कृष्‍ण को बहुत अदभुत लगा होगा! आज तक कृष्ण और बुद्ध को कैसा लगा है, उन्होंने कोई वक्तव्य दिए नहीं हैं। लेकिन कृष्‍ण को बहुत हैरानी का लगा होगा कि मैं सामने खड़ा हूं और अर्जुन कह रहा है कि महर्षि व्यास भी कहते हैं कि आप भगवान हो। मैं भी मानता हूं; और भी मानते हैं। जैसे कि उसके मानने पर निर्भर हो कृष्‍ण का भगवान होना!

हम सबको यह खयाल है कि अगर हम न मानें और हमारी वोट न मिले, तो भगवान गए! हमारे ऊपर निर्भर हैं। हम मानते हैं, तो भगवान हैं। हम नहीं मानते, तो दो कौड़ी की बात, समाप्त हो गई। आपके मानने पर कोई निर्भर बात नहीं है। किसी के मानने पर कोई निर्भर बात नहीं है। भगवत्ता एक सत्य है। और उस सत्य को जो इस भांति घूम—फिर कर चलेगा, वह सीधा न जाकर व्यर्थ ही चक्कर काट रहा है। केंद्र के आस—पास परिधि पर घूम रहा है, भटक रहा है, परिभ्रमण कर रहा है; केंद्र को चूक रहा है।

यह अर्जुन सामने नहीं देख रहा, कौन खड़ा है। यह घूम रहा है। यह चारों तरफ चक्कर लगाकर कह रहा है कि ठीक है; परिक्रमा कर रहा हूं। और लोग भी कहते हैं! मत इकट्ठे कर रहा है। लेकिन सामने जो खड़ा है, उससे चूक रहा है।

हम सबकी भी अवस्था यही है। परमात्मा सदा ही सामने है— सदा ही। क्योंकि जो भी सामने है, वही है। लेकिन हम पूछते हैं, परमात्मा कहां है? हम पूछते हैं, किस शास्त्र को खोलें कि परमात्मा का पता चले? किस गुरु से पूछें कि उसकी खबर दे? और वह सामने मौजूद है। और हम बिना गुरु से पूछे उसको नहीं देख सकते! और हम बिना शास्त्र पढ़े उसकी तरफ आंख नहीं उठा सकते!


जो सामने नहीं देख सकता उसकी मौजूदगी, वह शास्त्र में कैसे देखेगा? जो उसे नहीं देख सकता, वह गुरु को कैसे पहचानेगा कि यह रहा गुरु!

लेकिन हम चक्करों में घूमते हैं। चक्कर बड़े—छोटे, अपने—अपने पसंद के हम बनाते हैं और उनमें घूमते हैं। मंदिर में परिक्रमा होती है। बीच में मूर्ति होती है, चारों तरफ परिक्रमा होती है। हम परिक्रमा में ही घूमते रहते हैं जन्मों—जन्मों। उस बीच की मूर्ति से हमारा कोई संबंध ही नहीं हो पाता। बीच की मूर्ति सदा ही मौजूद है।

ये कृष्ण अर्जुन के सामने ही मौजूद हों, ऐसा नहीं है। वे हर अर्जुन के सामने मौजूद हैं। और अर्जुन जो कर रहा है, वही हर अर्जुन करता है।

अच्छा होता अर्जुन सीधा कृष्ण की आंखों में आंखें डालकर खड़ा हो जाता। छोड़ता व्यास को, छोड़ता देवल को, छोड़ता ऋषि— मुनियों को, सीधा कृष्ण की आंख में आंख डालकर खड़ा हो जाता। तो अर्जुन जितना जान लेता, उतना इन गवाहियों से, कितनी ही ये गवाहियां हों, कभी भी नहीं जाना जा सकता।

लेकिन सामने देखने की हिम्मत शायद उसकी नहीं है। शायद वह डरता है कि कहीं सामने देखकर सच में ही पता न चल जाए कि कृष्‍ण भगवान हैं। वह भी भय है। वह भी भय है। क्योंकि कल हम यह भी कह सकते हैं कि व्यास को गलती हुई होगी। जिम्मेवारी हमारी क्या? व्यास ने कहा था, इसलिए हमने मान लिया था। लेकिन अगर हमें ही दिखाई पड़ जाए, तो फिर जिम्मेवारी सीधी हो जाती है। फिर मैं ही जिम्मेवार हो जाता हूं। वह भी भय है; वह भी डर है।

ये सारे डर हैं। और हर आदमी के डर हैं। यहां अर्जुन को मैं मानकर चल रहा हूं कि वह जैसे आदमी के भीतर का, सबके भीतर का, सार—संक्षिप्त है। है भी। और कृष्ण को मानकर चल रहा हूं कि जैसे वे आज तक इस जगत में जितनी भगवत्ता के लक्षण प्रकट हुए हैं, उन सबका सार—संक्षिप्त हैं। कृष्‍ण जैसे इस जगत में जो भी भगवान होने जैसा हुआ है, उस सबका निचोड़ हैं। और अर्जुन जैसे इस जगत में जितने भी डांवाडोल आदमी हुए हैं, उन सबका निचोड़ है।

इसलिए गीता जो है, वह दो व्यक्तियों के बीच ही चर्चा नहीं है; दो अस्तित्वों के बीच, दो दुनियाओं के बीच, दो लोकों के बीच, दो अलग—अलग आयाम जो समानांतर दौड़ रहे हैं, उनके बीच चर्चा है। इसलिए दुनिया में गीता जैसी दूसरी किताब नहीं है, क्योंकि इतना सीधा डायलाग, ऐसा सीधा संवाद नहीं है।

रामायण है, वह राम के जीवन की लंबी कथा है। बाइबिल है, वह जीसस के अनेक—अनेक अवसरों पर अनेक—अनेक अलग— अलग लोगों को दिए गए वक्तव्य हैं। कुरान है, वह ईश्वर का संदेश है मनुष्य—जाति के प्रति, मोहम्मद के द्वारा निवेदित। लेकिन कोई भी डायलॉग नहीं है सीधा।

गीता सीधा डायलॉग है। मैं—तू की हैसियत से दो दुनियाएं सामने खड़ी हैं। एक तरफ सारी मनुष्यता का डांवाडोल मन अर्जुन में खड़ा है और एक तरफ सारी भगवत्ता अपने सारे निचोड़ में कृष्‍ण में खड़ी है। और इन दोनों के बीच सीधी मुठभेड़ है, सीधा एनकाउंटर है। यह बहुत अनूठी घटना है। इसलिए गीता एक अनूठा अर्थ ले ली है। वह फिर साधारण धार्मिक किताब नहीं है। उसको हम और किसी किताब के साथ तौल भी नहीं सकते। वह अनूठी है।

लेकिन अगर हम उसके इस गहरे आयाम में प्रवेश करें और अर्जुन की पर्त—पर्त तोड़ते चले जाएं, तो ही हमें खयाल में आएगा। तो अर्जुन के साथ कई बार मैं नाहक ज्यादा कठोर हो जाऊंगा, सिर्फ इसलिए ताकि मनुष्य की पर्त—पर्त का खयाल आ जाए। और अर्जुन पूरा उघड जाए, तो ही कृष्ण को हम पूरा उघाड़ सकते हैं। और जिस अर्थ में अर्जुन का द्वंद्व स्पष्ट हो, उसी अर्थ में कृष्‍ण का संदेश और संवाद भी स्पष्ट हो सकता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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