शनिवार, 7 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 10 भाग 15

 मंजिल है स्‍वयं में


यच्चायि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्‍स्‍यान्मया भूतं चराचरम्।। 39।।

नान्तोउस्ति मम दिव्यानां विभूतीना परंतप।

एक् तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।। 40।।

यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ स्वं मम तेजोंउशसंभवम्।। 41।।

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्टथ्याहमिदं कृत्नमेकांशेन स्थितो जगत।। 42।।


और हे अर्जुन जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है वह भी मैं ही हूं क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत नहीं है कि जो मेरे से रहित होवे।

हे परंतप मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। यह तो मैने अपनी विभूतियों का विस्तार तेरे लिए संक्षेप से कहा है। इसलिए हे अर्जुन जो— जो भी विभूतियुक्त अर्थात

ऐश्वर्ययुक्त एवं कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्‍तु है, उस— उस को तू मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्‍न हुर्ड़ जान।

अथवा हे अर्जुन हम बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है। मैं इस संपूर्ण जगत को अपनी योग— माया के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूं। इसलिए मेरे को ही तत्व से जानना चाहिए।


 और हे अर्जुन, जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह मैं ही हूं क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत नहीं है कि जो मेरे से रहित हो।

इस सूत्र पर कृष्ण ने बार—बार जोर दिया है। बहुमूल्य है, और निरंतर स्मरण रखने योग्य इसलिए भी। जब भी हम ईश्वर के संबंध में विचार करते हैं, तब ऐसा ही विचार में प्रतीत होता है कि ईश्वर अस्तित्व से कुछ और है। यह विचार की भूल के कारण होता है; यह विचार के स्वभाव और विचार की प्रक्रिया के कारण होता है। जब भी विचार का उपयोग किया जाता है, तो चीजें दो में टूट जाती हैं। विचार वस्तुओं को विश्लिष्ट करने का मार्ग है। तो जब भी हम सोचते हैं ईश्वर के संबंध में, तो जगत अलग और ईश्वर अलग हो जाता है। तो हम कहते हैं सृष्टि, तो स्रष्टा अलग हो जाता है।

लेकिन वस्तुत: अनुभूति में सृष्टि और स्रष्टा पृथक—पृथक नहीं हैं, वे एक ही हैं। इसलिए पुराने अनुभव करने वाले लोगों ने कहा है कि यह सृष्टि ठीक वैसे ही है, जैसे मकड़ी अपने ही भीतर से जाले को निकालकर फैलाती है। यह जो इतना विस्तार है, यह परमात्मा से वैसे ही निकलता और फैलता है, जैसे मकड़ी का जाला उसके भीतर से निकलता और फैलता है।

यह विस्तार उसका ही विस्तार है। यह विस्तार उससे पृथक नहीं है। और एक क्षण को भी पृथक होकर इसका कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। यह है उसकी ही मौजूदगी के कारण। वह इसमें समाया है, इसीलिए इसका अस्तित्व है। वह मौजूद है, इसीलिए यह मौजूद है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम ईश्वर को अस्तित्व का पर्यायवाची मानें। अस्तित्व ही ईश्वर है।

इस बात से तो विज्ञान भी राजी होगा। इस बात से तो नास्तिक भी राजी हो जाएगा। लेकिन नास्तिक या वैज्ञानिक कहेगा, फिर ईश्वर शब्द के प्रयोग की कोई जरूरत नहीं; प्रकृति काफी है, जगत काफी है, अस्तित्व काफी है। और यहां धर्म के जगत के लिए विशेष शब्द के प्रयोग का अर्थ समझ लेना उचित है।

अस्तित्व काफी है कहना, लेकिन अस्तित्व से हमारे हृदय में कोई भी आंदोलन नहीं होता। अस्तित्व से हमारे प्राणों में कोई चीज संचारित नहीं होती। अस्तित्व से हमारे हृदय की वीणा पर कोई चोट नहीं पड़ती। अस्तित्व और हमारे बीच कोई संबंध निर्मित नहीं होता। ईश्वर कहते ही हमारे हृदय में गति शुरू हो जाती है। ईश्वर शब्द इसलिए प्रयोजित है। क्योंकि ईश्वर है, इतना काफी नहीं है कहना, आदमी ईश्वर तक पहुंचे, यह भी जरूरी है।

धर्म केवल तथ्यों की घोषणा नहीं है, वरन लक्ष्यों की घोषणा भी है। यहीं विज्ञान और धर्म का फर्क है। धर्म केवल तथ्यों की, फैक्ट्स की घोषणा नहीं है। क्या है, इतने से ही धर्म का संबंध नहीं है। क्या होना चाहिए, क्या हो सकता है, उससे भी धर्म का संबंध है।

अगर बीज हमारे सामने पड़ा हो, तो विज्ञान कहेगा, यह बीज है, और धर्म कहेगा, यह फूल है। धर्म उसकी भी घोषणा करेगा जो हो सकता है, जो होना चाहिए। और जो नहीं हो पाएगा, तो बीज के प्राण कुंठित, पीड़ित और परेशान रह जाएंगे। बीज अतृप्त रह जाएगा, अगर फूल न हो पाया तो। और बीज के प्राणों में एक गहरा विषाद, एक संताप रह जाएगा, एक अधूरापन।

विज्ञान इतना कहकर राजी हो जाता है कि अस्तित्व है। धर्म कहता है, ईश्वर और अस्तित्व समानार्थी हैं, फिर भी हम अस्तित्व नहीं कहते, कहते हैं, ईश्वर है। ईश्वर कहते ही बीज और फूल, दोनों की एक साथ घोषणा हो जाती है। जब हम कहते हैं, अस्तित्व ईश्वर है, तो हम मौलिक रूप से यह कहना चाहते हैं कि प्रत्येक ईश्वर है और हो सकता है।

कृष्ण ने कहा है, ऐसा चर और अचर कोई भी नहीं है, जो मेरे से रहित होवे। ऐसी कोई भी सत्ता नहीं है, जहां मैं मौजूद नहीं हूं। लेकिन पत्थर की तो हम बात छोड़ दें, आदमी को भी पता नहीं चलता कि वह मौजूद है। पत्थर में भी वह मौजूद है। पत्थर को हम छोड़ दें, आदमी को भी पता नहीं चलता कि वह मेरे भीतर मौजूद है। हमें भी अनुभव नहीं होता कि वह हमारे भीतर मौजूद है। कहीं और खोजने निकलते हैं—काबा में, काशी में, मक्का में, मदीना में— कहीं उसे खोजने निकलते हैं। यह खयाल ही नहीं आता कि वह यहां भीतर हो सकता है। क्या कारण होगा?

कारण बहुत सहज, बहुत सरल है। जो अति निकट होता है, वह विस्मरण हो जाता है। जो बहुत निकट होता है, उसकी हमें याद ही नहीं आती। और जो भीतर ही होता है, उसका हमें पता ही नहीं चलता। हमें पता ही उन चीजों का चलता है, जो दूर होती हैं, जिनमें और हममें फासला होता है। बोध के लिए बीच—बीच में गैप, अंतराल चाहिए। हमारे और परमात्मा के बीच में कोई अंतराल नहीं है, इसलिए बोध पैदा नहीं हो पाता।

इसे थोड़ा हम समझ लें।

अगर आपको बचपन से ही शोरगुल के बीच बड़ा किया जाए, रेलवे स्टेशन पर बड़ा किया जाए, जहां दिनभर गाड़ियां दौड़ती रहती हों, और यात्री भागते रहते हों, और शोरगुल होता हो, इंजन आवाज करते हों, तो आपको उसी दिन पता चलेगा कि शोरगुल हो रहा है, जिस दिन रेलवे में हड़ताल हो जाए; उसके पहले पता नहीं चलेगा। जिस दिन सब गाड़ियां बंद हों और यात्री कोई न आएं, न जाएं, उस दिन आपको पहली दफा पता चलेगा कि शोरगुल हो रहा था। अन्यथा आप शोरगुल के आदी हो गए होंगे। आपको खयाल में भी नहीं आएगा।


जो बात निरंतर होती रहती है, उसका हमें बोध मिट जाता है। जो बात अचानक होती है, उसका हमें बोध होता है। जो कभी—कभी होती है, उसका हमें बोध होता है। जो सदा होती रहती है, उसका हमें बोध मिट जाता है। और परमात्मा और हमारे बीच कभी भी हड़ताल नहीं होती, यही तकलीफ है। परमात्मा और हमारे बीच कभी ऐसी घटना नहीं घटती कि परमात्मा मौजूद न हो। अगर एक क्षण को भी परमात्मा गैर—मौजूद हो जाए, तो हमें पता चले।

मछली सागर में तैरती रहती है, उसे सागर का पता नहीं चलता। मछली को सागर से निकालकर रेत पर डाल दो, तब उसे पहली दफा पता चलता है कि सागर था। तब उसकी तडफन, तब उसकी बेचैनी, तब उसके प्राणों का संकट खडा होता है, तब उसे पता चलता है कि जहां मैं थी, वह सागर था, वह मेरे प्राणों का आधार था।

लेकिन आदमी को परमात्मा के बाहर निकालकर किसी भी रेत पर डालने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए आदमी को पता नहीं चलता कि वह परमात्मा में जी रहा है! यह अजीब सा लगेगा।

हम तो साधारणत: सोचते हैं कि परमात्मा बहुत दूर होना चाहिए, इसलिए हमें पता नहीं चलता है। वह बिलकुल ही गलत है। दूर होता, तो पता हम चला ही लेते। इतना निकट है, इसीलिए पता नहीं चलता। और निकटता इतनी सघन है कि कभी नहीं टूटी, इसलिए पता नहीं चलता।

दूरी कितनी ही बड़ी हो, पार की जा सकती है। और परमात्मा अगर दूर होता, तो हमने पार कर लिया होता। और एक आदमी पार कर लेता, फिर तो हम पक्का रास्ता बना लेते। फिर कोई कठिनाई न थी। एक कृष्ण पहुंच जाते, एक बुद्ध पहुंच जाते, फिर क्या दिक्कत थी! फिर कोई कठिनाई न थी। चांद पर एक आदमी उतर गया, अब सिद्धांतत: पूरी मनुष्यता उतर सकती है। अब यह कोई कठिनाई की बात नहीं रही, देर—अबेर की बात है। एक बार रास्ते का पता चल गया, तो कोई भी उतर सकता है।

दूरी की यात्रा की एक खूबी है। दूरी की यात्रा में रास्ता बन जाता है। एक आदमी पहुंच जाए, सब पहुंच सकते हैं। लेकिन परमात्मा और हमारे बीच दूरी न होने से रास्ता नहीं बन सकता। रास्ते के लिए दूरी जरूरी है। कुछ तो फासला हो, तो हम रास्ता बना लें।

इसलिए इतने लोग परमात्मा को पा लेते हैं, फिर भी रास्ता नहीं बन पाता बंधा हुआ कि जिस पर से फिर कोई भी धड़ल्ले से चला जाए। और फिर किसी को भी यह चिंता न रहे कि मुझे खोजना है। रास्ता पकड़ लिया, खोज पूरी हो ही जाएगी।

ध्यान रहे, अगर रास्ता मजबूत हो, तो आपको सिर्फ चलना जानना जरूरी है। धर्म के मामले की कठिनाई यह है कि चलना तो सबको आता है, रास्ता नहीं है। और हर एक को रास्ता अपना ही बनाना पड़ता है। कोई दूसरे का रास्ता काम नहीं पड़ता। दूरी हो तो दूसरे के रास्ते काम पड़ते हैं, दूरी यहां बिलकुल नहीं है। यहां इंचभर का फासला नहीं है।

यह बहुत पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी दिखाई पड़ेगा। जब दूरी होती है, तो हम पहुंच सकते हैं चलकर। और जब दूरी बिलकुल न हो, तो हम पहुंच सकते हैं रुककर; चलकर नहीं पहुंच सकते। अगर मुझे आपके पास आना है, तो मैं चलकर आऊंगा। और अगर मुझे मेरे ही पास आना है, तो चलना फिजूल है। और अगर मैं मेरे ही पास पहुंचने के लिए चलता हूं तो उसका मतलब, मैं पागल हूं। कोई आदमी कहे कि मैं मेरे ही पास जाने के लिए दौड़ रहा हूं तो आप कहेंगे, वह पागल है। क्योंकि दौड़ तो और दूर ले जाएगी, पास कैसे लाएगी? पास आना हो तो सब दौड़ छोड़ देनी पड़ती है।

लेकिन यही सबसे बड़ी कठिनाई है, यह सरलता, परमात्मा का निरंतर मौजूद होना। यह भाषा में फिर भी गलत है कहना कि वह हमारे पास है, क्योंकि पास का मतलब भी थोड़ी दूरी तो होती ही है। हम वही हैं! फिर भी भाषा में दो हो जाते हैं, मैं और वह।

इसलिए ज्ञानियों ने या तो कहा कि मैं ही हूं अहं ब्रह्मास्मि! और या कहा कि तू ही है। या तो मैं ही हूं और या तू ही है। क्योंकि दो का उपयोग करने में फिर थोड़ा सा फासला बनता है। उतना फासला भी नहीं है।

कृष्ण का यह कहना कि सारे अस्तित्व में, होने मात्र में, मैं ही समाया हुआ हूं इन बहुत—सी बातों की सूचना है। जिसे भी खोजना हो उसे, उसे खोजने की भूल में नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि उसे हमने कभी खोया नहीं है। जिसे हम खो दें, उसे खोज भी सकते हैं। लेकिन परमात्मा को खोने का कोई उपाय नहीं है। आप परमात्मा को खो नहीं सकते हैं।

अगर परिभाषा की तरह से कहा जाए, तो परमात्मा का अर्थ है, आपका वह हिस्सा, जिसे आप खो नहीं सकते। जो—जो हिस्से आप खो सकते हैं—शरीर आप खो सकते हैं। मन आपका कल बदल सकता है, खो सकते हैं। आंखें कल आपकी फूट सकती हैं; इंद्रियां खो सकते हैं। होश भी, जिसको हम होश कहते हैं, वह भी खो सकता है, कल आप बेहोश हो सकते हैं। लेकिन जिसे आप खो ही नहीं सकते, वही परमात्मा है आपके भीतर। आपका होना, बीइंग, आपका अस्तित्व, वह आप नहीं खो सकते। जो नहीं खोया जा सकता, वही परमात्मा है।

तब तो यह मतलब हुआ कि हम उसे खोज रहे हैं, तो हम गलती कर रहे हैं। निश्चित ही! खोजने से कोई उसे पाता नहीं। खोजने से सिर्फ एक ही बात पता चलती है कि खोज व्यर्थ थी। खोजने से सिर्फ हम थकते हैं और रुकते हैं। लेकिन जिस दिन हम थकते हैं और रुकते हैं, उसी दिन उसे पा लेते हैं।

तो खोज का एक उपयोग है, नकारात्मक। उससे व्यर्थता पता चल जाती है। दौड़ना, जाना, कहीं पाने की कोशिश, वह सब व्यर्थ हो जाती है। जिस दिन हम इस हालत में आ जाते हैं कि न कुछ पाने को है, न कुछ खोजने को है, न कहीं जाने को है, और भीतर सारी गति शून्य हो जाती है, उसी क्षण हम उसे पा लेते हैं, क्योंकि उसे हम पाए ही हुए हैं। वह हमारा अस्तित्व है।

हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। यह तो मैंने अपनी विभूतियों का विस्तार तेरे लिए संक्षेप से कहा है।

ये जो इतने—इतने प्रतीक कृष्‍ण ने लिए और अर्जुन को इतने—इतने मार्गों से इशारा किया, वे कहते हैं, यह तो बहुत संक्षिप्त में मैंने तुझे कुछ इशारे किए हैं। मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है। जिसका अंत हो जाए, वह विभूति नहीं है। जिसका अंत हो जाए, वह दिव्य भी नहीं है। जिन—जिन चीजों का अंत होता है, वे— वे चीजें सांसारिक हैं। और जिन—जिन का प्रारंभ होता है, वे भी चीजें सांसारिक हैं। दिव्य से अर्थ ही वही है कि जिसका न कोई प्रारंभ है और न कोई अंत है, जिसका हम खोज नहीं सकते कि कब प्रारंभ हुआ और जिसकी हम खोज नहीं कर सकते कि कब समाप्त होगा।

इसका यह अर्थ नहीं है कि हमारी खोज छोटी है। नहीं, हम कितना ही खोजें, जिसका स्वभाव ही अनादि और अनंत होना है, वही दिव्यता है, वही डिवाइननेस है।

इस जगत में जहां—जहां हमें प्रारंभ मिल जाता हो और अंत मिल जाता हो, समझ लेना कि वहां—वहां संसार है। और जहां प्रारंभ न मिलता हो और अंत न मिलता हो किसी बात का, वहीं—वहीं समझना कि परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हुई।

लेकिन हम तो परमात्मा को भी वस्तुओं की तरह देखना चाहते हैं। हम तो चाहते हैं, परमात्मा भी सामने खड़ा हो जाए, तभी हम मानें। नास्तिक यही कहता है कि कहां है तुम्हारा ईश्वर? उसे सामने कर दो; हम मान लें। उसका प्रश्न सार्थक मालूम होता है, लेकिन बिलकुल ही व्यर्थ है। क्योंकि वह ईश्वर शब्द की परिभाषा भी नहीं समझ पाया।

ईश्वर से अर्थ ही उसका है कि जिसका कोई प्रारंभ नहीं, अंत नहीं, जिसका कोई रूप नहीं, जिसका कोई गुण नहीं, फिर भी जो है। और जितने भी गुण हैं और जितने भी आकार हैं, और जितने भी रूप हैं, सबके भीतर है।

एक फूल मैं आपको दूं और कहूं कि सुंदर है। फूल तो मैं आपको दे सकता हूं फूल की परिभाषा भी हो सकती है, लेकिन सौंदर्य की परिभाषा में कठिनाई खड़ी हो जाएगी। और आप सब जानते हैं कि सौंदर्य क्या है। लेकिन अगर कोई पूछ लेगा, तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। आप बता न पाएंगे कि सौंदर्य क्या है।

सबको अनुभव है कि सौंदर्य क्या है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसने कभी सौंदर्य का अनुभव न किया हो। कभी उगते हुए सूरज में, कभी डूबते हुए चांद में, कभी किसी फूल में, कभी किन्हीं आंखों में, कभी किसी चेहरे में, कभी किसी शरीर के अनुपात में, कभी किसी ध्वनि में, कभी किसी गीत की कड़ी में, कहीं न कहीं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने सौंदर्य का अनुभव न किया हो। लेकिन अब तक, प्लेटो से लेकर बर्ट्रेड रसेल तक, सौंदर्य के संबंध में निरंतर चिंतन करने वाले लोग एक परिभाषा भी नहीं दे पाए हैं कि सौंदर्य क्या है!

कुछ चीजें ऐसी हैं कि जब तक तुम नहीं पूछते, मैं जानता हूं; और तुम पूछते हो कि मुश्किल खड़ी हो जाती है। उसने कहा कि मैं भलीभांति जानता हूं कि प्रेम क्या है, लेकिन तुम पूछो और मैं मुश्किल में पड़ा। मैं भलीभांति जानता हूं कि समय, टाइम क्या है, लेकिन तुमने पूछा कि मैं मुश्किल में पड़ा।

परमात्मा इनमें सबसे गहरी मुश्किल है, सबसे बड़ी मुश्किल है। समय और प्रेम और सौंदर्य और सत्य, शुभ, ये सब अलग— अलग मुश्किलें हैं। इनकी कोई की परिभाषा नहीं हो पाती।

इसका मतलब आप समझे? ईश्वर की हम व्याख्या नहीं कर सकते, लेकिन अनुभव कर सकते हैं। सौंदर्य की हम व्याख्या नहीं कर सकते, अनुभव हम रोज करते हैं। फूल खिलता है और हम कहते हैं, सुंदर है। और छोटा—सा बच्चा भी पूछ ले कि सौंदर्य यानि क्या? क्या मतलब सौंदर्य से? कहां है सौंदर्य इस फूल में, मुझे बताओ! हाथ रखकर, अंगुली रख दो कि यह रहा सौंदर्य।

आप पंखुड़ी पर अंगुली रखेंगे, तो लगेगा, यह भी कोई सौंदर्य हुआ! आप पूरे फूल को भी मुट्ठी में ले लेंगे, तो भी क्या आप समझते हैं, आपने सौंदर्य को मुट्ठी में ले लिया! आप कहां से बताएंगे कि सौंदर्य यह रहा! आप उस बच्चे को कहेंगे, सौंदर्य एक अनुभव है। हो तो हो, न हो तो न हो।

और फूल से सौंदर्य का कुछ लेना—देना नहीं है। क्योंकि कल सुबह आप कहेंगे, बड़ा सुंदर सूरज निकल रहा है। बच्चा पूछेगा कि फूल में और सूरज में कोई संबंध तो मालूम नहीं होता! कल फूल को सुंदर कहते थे, आज सूरज को सुंदर कहने लगे! कुछ तो समझ का उपयोग करो! और परसों आप कहेंगे किन्हीं आंखों में देखकर कि आंखें बड़ी सुंदर हैं। तो वह बच्चा कहेगा, अब आप बिलकुल पागल हुए जा रहे हैं। परसों फूल को कहा था सौंदर्य। कल सूरज को कहा था सौंदर्य। आज आंखों को कहने लगे सुंदर हैं! सौंदर्य क्या है?

अगर इन तीनों में है, तो इसका मतलब हुआ कि फूल से वह समाप्त नहीं होता। सूरज पर समाप्त नहीं होता। आंखों में समाप्त नहीं होता। अगर इन तीनों में है, तो तीनों जैसा नहीं है और फिर भी तीनों के भीतर कहीं छिपा है। तीनों में अनुभव होता है और हृदय एक—सा आंदोलित होता है। लेकिन कहां फूल और कहां सूरज और कहां आदमी की आंखें! इनमें कोई संबंध दिखाई नहीं पड़ता। कोई अदृश्य फूल में भी मौजूद है, जिसे आप सौंदर्य कहते हैं। कोई अदृश्य आंख में भी मौजूद है, जिसे आप सौंदर्य कहते हैं। दोनों में कहीं कोई मेल है।

ईश्वर को जब भी हम मापने चलते हैं, तभी हम आकार देते हैं। और जब भी हम पूछते हैं, कहां है ईश्वर? कैसा है ईश्वर? क्या है उसका रूप? क्या है उसका रंग? क्या है उसकी आकृति? तब हम गलत सवाल पूछ रहे हैं। सब आकृतियां जिसकी हैं, और सब रूप जिसके हैं, वही है ईश्वर।

इसे हम ऐसा समझें कि आप सागर के किनारे खड़े हो जाएं। आपने सागर कभी देखा न होगा। आप कहेंगे, बिलकुल कैसी पागलपन की आप बात कर रहे हैं! हम सब सागर के किनारे ही रहने वाले लोग, सागर हम रोज देखते हैं। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, सागर आपने कभी नहीं देखा। सिर्फ आपने सागर के ऊपर की उठती हुई लहरें देखी हैं। लहरें सागर नहीं हैं। लहरों में सागर है, लहरें सागर नहीं हैं। क्योंकि सागर बिना लहरों के भी हो सकता है, लहरें बिना सागर के नहीं हो सकतीं।

लेकिन आप लहरों को देखकर लौट आते हैं और सोचते हैं, सागर को देखकर लौट आए। हर लहर में सागर है, सब लहरों में सागर है। लेकिन सागर लहरों के पार भी है, लहरों से गहरा भी है। लहरें सागर के ऊपर ही डोलती रहती हैं। सागर बहुत बड़ा है। हमने लहरें ही देखी हैं। इसलिए कोई यह भी पूछ सकता है कि किस लहर को आप सागर कहते हैं?

हमने आदमी देखे हैं। पौधे देखे हैं। पशु देखे हैं। पक्षी देखे हैं। हम पूछते हैं कि किसको आप भगवान कहते हैं? कौन है ईश्वर? ये सब लहरें हैं उसी एक सागर की। इन सबके भीतर जो है, इन सबके नीचे जो है, जिस पर ये लहरें उठती हैं और जिसमें ये लहरें विलीन हो जाती हैं, वह सागर परमात्मा है। वह हमने नहीं देखा, हम लहरें ही देख पाते हैं।

मैं आपको देखता हूं लेकिन उसको नहीं देखता, जो आपके पहले भी था, आपके भीतर भी है अभी; और कल आप गिर जाएंगे, तब भी होगा। आप तो सिर्फ एक लहर हैं, जो उठी जन्म के दिन और गिरी मृत्यु के दिन, और कभी जवान थी और आकाश को छूने का सपना देखा। आप सिर्फ एक लहर हैं। लेकिन जब आप नहीं थे, आपकी आकृति नहीं थी, तब भी आप सागर में थे। और कल आपकी आकृति गिरकर लीन हो जाएगी, तब भी आप सागर में होंगे। सागर सदा होगा।

जो सदा है, वही परमात्मा है। जो कभी है, वही लहर है, और कभी नहीं हो जाता है। इसलिए परमात्मा को तो यह भी कहना ठीक नहीं है कि वह है। क्योंकि जितनी चीजों को हम कहते हैं है, वे सभी नहीं हो जाती हैं। सभी नहीं हो जाती हैं। जिसको भी हमने कहा है। कल वह नहीं हो जाएगी। और परमात्मा कभी भी नहीं नहीं होता। तो हमारा है शब्द भी बहुत छोटा पड़ जाता है।

अगर कोई आपसे सागर के किनारे पूछने लगे कि सागर किस लहर जैसा है? तो आप भी सोचेंगे कि उचित है, चुप ही रहूं जवाब न दूं। अगर आप यह कहें कि इस लहर जैसा है, तो भी गलती हो जाती है। अगर आप कहें कि सब लहरों जैसा है, तो भी गलती हो जाती है। क्योंकि सब लहरों से बड़ा है। और अगर आप कहें, किसी लहर जैसा नहीं, तो भी गलती हो जाती है, क्योंकि सभी लहरों में वही है। यह है तकलीफ।

कृष्ण कहते हैं, मेरे विस्तार का कोई अंत नहीं है। तो संक्षेप में तुझे कुछ लहरों के प्रतीक मैंने दिए हैं। उन लहरों के प्रतीक से भी अगर तू नीचे झांकेगा, तो तू सागर में पहुंच जाएगा।

लेकिन खतरा एक है। अगर आप लहर में डुबकी लगाएं, तो आप सागर में पहुंच जाएं। लेकिन अगर किनारे पर बैठकर लहर का चिंतन करें, तो आप कभी सागर में नहीं पहुंच सकते। और हम सब लहर का चिंतन करते हैं। और सोचते हैं कि चिंतन करते—करते कभी तो सागर में पहुंच जाएंगे। डुबकी लगानी पड़ेगी। लहर में डुबकी लगानी पड़ेगी।

कृष्‍ण ने जो प्रतीक दिए हैं, अगर किसी में भी डुबकी लग जाए, तो परमात्मा से संबंध जुड़ जाए। लेकिन अगर आप बैठकर चिंतन करने लगें, तो आप किनारे पर बैठ गए। विचार किनारा है जगत का। अनुभूति, कहें ध्यान, कहें समाधि, छलांग है सागर में।

इसलिए हे अर्जुन, जो—जो भी विभूतियुक्त, ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त, शक्तियुक्त है, उस—उस को तू मेरे तेज के अंश से उत्पन्न जान।

जहां—जहां तुझे कोई अभिव्यक्ति अपनी चरम स्थिति को छूती हुई मालूम पड़े, कोई शिखर जहां गौरीशंकर बन जाता हो, कोई फूल जहां पूरा खिल जाता हो; जहां भी तुझे लगे ऐश्वर्य, जहां भी तुझे लगे कांति, जहां भी तुझे लगे विभूति, जहां भी तुझे लगे कि कुछ असाधारण घटित हुआ है, जहां भी तुझे लगे कि कोई चीज अपनी चरमता को पहुंच गई, अपनी ऊंचाई को छू ली..?।

कृष्‍ण कहते हैं, जहां—जहां ऐश्वर्य है, जहां—जहां अभिव्यक्ति अपनी आखिरी चोटी को छू लेती है, वहीं—वहीं मैं हूं वहीं—वहीं मेरा ही अंश प्रकट होता है।

इसे ठीक से समझ लेना। इसका अर्थ यह हुआ, जैसे सूरज किसी से कहे...। क्योंकि सूरज को सीधा देखना बहुत मुश्किल है। दस करोड़ मील दूर है सूरज, फिर भी हम आंख गड़ाकर देख नहीं सकते, आंखें मुश्किल में पड़ जाती हैं। अगर सूरज के सामने ही खड़े हों, तो आंखें अंधी हो जाएंगी। यह बड़े मजे की बात है। सूरज के बिना सारी पृथ्वी पर अंधेरा हो जाता है। सूरज के बिना हम सब अंधे हो जाते हैं। और सूरज को सामने से देखें, तो भी हम अंधे हो जाएंगे। सूरज को सीधा नहीं देखा जा सकता।

लेकिन कोई आदमी सूरज के सामने खडा हो, सूरज को तो देख नहीं सकता सीधा, आंखें बंद हो जाएंगी। करीब—करीब अर्जुन वैसे ही कृष्‍ण के सामने खड़ा है। वह भी नहीं देख पा रहा है। वह भी नहीं देख पा रहा है कि कौन सामने है, किससे वह पूछ रहा है, किससे वह समझ रहा है। वह भी नहीं देख पा रहा है, वह भी नहीं समझ पा रहा है। ठीक है, मित्र है, बुद्धिमान है, आदर योग्य है, और कभी—कभी किसी क्षण में रहस्यपूर्ण है। कुछ जानता है। सीखा जा सकता है उससे। लेकिन अभी वह सूर्य नहीं दिखाई पड़ रहा है जो कृष्‍ण हैं। वे आंखें बंद हैं।

वह पूछता है कि मैं कहां—कहां आपको देखूं? जो सामने खड़ा है, वहां न देखकर वह पूछता है, कहां—कहां आपको देखूं? जैसे कोई सूरज से पूछे, तो सूरज कहे, जहां—जहां कोई दीया तुझे दिखाई पड़े, जो अंधेरे को तोड़ता हो, तो जानना कि वहां—वहां मैं हूं। तो जहां—जहां भी कोई दीया चमके और भभककर प्रकाश कर दे, वहां— वहां समझना, मेरी ही ज्योति है, मेरा ही तेज है।

यह जो कृष्ण कहते हैं, जहां—जहां ऐश्वर्य तुझे दिखाई पड़े..। अगर ईश्वर नहीं दिखाई पड़ता, तो बेहतर है कि तू ऐश्वर्य को देख। अगर सूरज नहीं दिखाई पड़ता, तो बेहतर है कि तू प्रकाश को देख। जहां—जहां तुझे चमकदार प्रकाश दिखाई पड़े, समझना कि मेरा ही अंश, मेरा ही तेज प्रकट हो रहा है।

सूरज का तेज तो हम देख सकते हैं दीयों में, वह बड़ी कठिन बात नहीं है। छोटे—से आपके घर में भी दीये की जो ज्योति जलती है, वह सूरज का ही हिस्सा है। वह सूरज का ही हिस्सा है।

एकदम से समझना कठिन होगा। अगर आप मिट्टी का तेल जला रहे हैं, तो आपको पता नहीं होगा कि मिट्टी का तेल निर्मित इसीलिए हुआ है कि लाखों—लाखों साल में पृथ्वी के द्रव्यों ने सूरज की किरणों को पीया है। और वे ही किरणें आपको वापस आपके मिट्टी के तेल से आपके दीये में वापस उपलब्ध हो जाती हैं। जब आप एक लकड़ी को रगड़कर जलाते हैं—जैसा कि पुराने जमाने में रिवाज था—दो लकड़ियों को रगड़कर या दो चकमक पत्थरों को रगड़कर आप जब किरण पैदा करते हैं, तो आपको खयाल न होगा, अरबों—अरबों वर्षों में पत्थर सूरज को पी गए हैं। वही पुन: प्रज्वलित हो जाता है।

लकड़ी के भीतर भी सूरज छिपा है और आपके भीतर भी। जहां भी ज्योति है, वहां सूरज की किरण है। वह कब पी ली गई होगी, यह दूसरी बात है। कब छिप गई होगी, यह दूसरी बात है। लेकिन वह सूरज की किरण है। सूरज प्रतिपल अपनी रोशनी दे रहा है। वह हजारों—हजारों जगह इकट्ठी हो रही है, संगृहीत हो रही है। वही रोशनी आप पुन: पा लेते हैं।

लेकिन सूरज को सीधे देखना मुश्किल है। दीये को आप मजे से सीधा देख सकते हैं। दीया बहुत अंश में सूरज है, लेकिन तेज उसका ही है।

तो कृष्ण कहते हैं, जहां—जहां ऐश्वर्य, जहां—जहां विभूति, जहां— जहां कांति, जहां—जहां शक्ति दिखाई पड़े, वहां—वहां मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न है, ऐसा तू जानना।

जो शब्द चुने हैं, एक तो है ऐश्वर्य, विभूति, कांति, शक्ति, वे सब संयुक्त हैं। शक्ति का अर्थ है, ऊर्जा, एनर्जी। एक छोटे—से बच्चे में शक्ति दिखाई पड़ती है। एक बुजुर्ग में शक्ति क्षीण हो गई होती है, उस अर्थों में जैसी बच्चे में दिखाई पड़ती है।

इसलिए जो शक्ति की खोज कर रहे हों, बेहतर है कि बच्चे में खोजें, बुजुर्ग में खोजने न जाएं। वहां शक्ति तो क्षीण होने लगी है। जो शक्ति की खोज कर रहे हों, बेहतर है कि सुबह के सूरज में खोजें, सांझ के सूरज में खोजने न जाएं, क्योंकि वहां तो ढलने लगा सब। शक्ति तो जितनी नई हो, उतनी तीव्र और गहन होती है। जो शक्ति को खोजने चलेंगे, उनके लिए बच्चे ईश्वरीय हो जाएंगे; वहां शक्ति अभी नई है, अभी फव्वारे की तरह फूटती हुई है। अभी उबलता हुआ है वेग, अभी सागर की तरफ दौड़ेगी यह गंगा। अभी यह गंगोत्री है, छोटी है, लेकिन विराट ऊर्जा से भरी है।

यह बड़े मजे की बात है। गंगोत्री में जितनी शक्ति है, उतनी जब गंगा सागर में गिरती है, तब नहीं होती है। बड़ी तो हो जाती है गंगा बहुत, लेकिन बुढ़ी भी हो जाती है। विशाल तो हो जाती है, लेकिन शक्ति का विशालता से कोई संबंध नहीं है। शक्ति तो, सच है कि जितना छोटा अणु हो, उतनी गहन होती है।

इसलिए आज विज्ञान अणु में सर्वाधिक शक्ति को उपलब्ध कर पाया है। परमाणु में, क्षुद्र परमाणु में, अति क्षुद्र परमाणु में, उसमें जाकर शक्ति का स्रोत मिला है।

छोटे—से बच्चे में भी, पहले दिन के बच्चे में जो शक्ति है, फिर वह रोज कम होती चली जाएगी। शक्ति को देखना हो, तो नये में खोजना। इसलिए जो भी समाज नये होते हैं, वे बच्चों का आदर करते हैं। जो समाज शक्तिशाली होते हैं, वे बच्चों का आदर करते हैं, सम्मान करते हैं।

लेकिन अगर ऐश्वर्य खोजना हो, तो बुजुर्ग में खोजना, वृद्ध में खोजना। क्योंकि ऐश्वर्य अनुभव का निखार है, वह बच्चे में कभी नहीं होता। उसमें शक्ति होती है अदम्य। लेकिन अगर ऐश्वर्य खोजना हो, तो वह वृद्ध में खोजना।

 जब सच में ही कोई आदमी वृद्ध होता है— सच में! हम सब भी बूढ़े होते हैं, लेकिन हमारा बुढा होना वृद्ध होना नहीं है, सिर्फ क्षीण होना है, दीन होना है, दरिद्र होना है। हमारा वार्धक्य एक उपलब्धि नहीं है, सिर्फ एक लंबी गवाई है, कमाई नहीं है। लंबा हमने गंवाया है। खोया है, खोया है। क्षीण हो गए। जर्जर हो गए। सब चुक गया।

 जब सच ही कोई बूढ़ा होता है, तो उसके शुभ्र बाल वैसे ही हिमाच्छादित हो जाते हैं, जैसे हिमालय के पर्वत। उसके शुभ्र बालों में वैसी ही शीतलता और वैसा ही ऐश्वर्य आ जाता है, जैसे कभी जब गौरीशंकर पर बर्फ जमी होती है।

अगर कोई व्यक्ति ठीक से जीया है, तो वार्धक्य उसका ऐश्वर्य को उपलब्ध हो जाता है। एक कांति, एक दीप्ति जो वृद्ध में ही होती है, बच्चे में नहीं हो सकती। बच्चे में एक अदम्य वेग होता है, शक्ति होती है, जो कुछ बन सकती है, नष्ट भी हो सकती है। अगर वृद्ध उसे कुछ बनाने में समर्थ हो जाए, और वह जो शक्ति बच्चे में दिखाई पड़ी थी, अगर ठीक—ठीक यात्रा करे, तो ऐश्वर्य बन जाती है अंत में। अनुभव से यात्रा करके शक्ति ऐश्वर्य बनती है।

इसलिए जो समाज पुराने होते हैं, उनमें ऐश्वर्य देखा जा सकता है। जैसे अगर शक्ति देखनी हो, तो पश्चिम में देखनी चाहिए। और अगर ऐश्वर्य देखना हो, वह आभा देखनी हो जो वार्धक्य को उपलब्ध होती है, तो पूरब में देखनी चाहिए। इसलिए जो समाज पुराने होते हैं, वे वृद्ध को आदर देते हैं, बच्चे को नहीं। उनका आदर ऐश्वर्य के लिए है, चरम के लिए है, आखिरी के लिए है, अंतिम जो शिखर होगा, उसके लिए है।

शक्तिशाली समाज बच्चों और जवानों पर निर्भर करेगा। ऐश्वर्यशाली समाज वृद्ध पर, वार्धक्य पर निर्भर करेगा। इसलिए हमने तो अपने मुल्क में वृद्ध हो जाने को ही काफी आदर की बात समझा है। जरूरी नहीं है कि बुजुर्ग आदर के योग्य हो। लेकिन फिर भी हमने ऐसे वृद्ध देखे हैं कि उनके कारण सभी के आदृत हो गए। और वृद्ध ही पा सकते हैं उस अंतिम बात को, उस सौम्यता को।

एक तो भभक है आग की, और एक सिर्फ आभा है। ऐसा समझें कि जब सांझ सूरज डूब जाता है और रात नहीं आई होती है, तब जो प्रकाश फैल जाता है; या सुबह जब सूरज नहीं निकला होता, रात जा चुकी होती है, तब जो प्रकाश, जो आलोक फैल जाता है, वह आभा है, वह ऐश्वर्य है। शक्ति जला देती है, ऐश्वर्य केवल आलोकित करता है। शक्ति आग है; ऐश्वर्य केवल प्रकाश है और शीतल है। ऐश्वर्य में कोई दंभ और दर्प नहीं है, शक्ति में होगा। शक्ति से प्रारंभ होता है जीवन का, ऐश्वर्य पर उपलब्धि होती है। कांति से यात्रा है। अगर शक्ति कांति से गुजरे, तो ही ऐश्वर्य को उपलब्ध होती है। अगर कोई व्यक्ति अपनी जीवन—ऊर्जा का उपयोग क्षुद्र को खरीदने में करता रहे, तो कांतिहीन हो जाता है।

हम कई बार हीरे—जवाहरातों को देकर रोटी के टुकड़े खरीद लाते हैं। कई बार कहना ठीक नहीं, अधिक बार, ज्यादातर जीवन में जो श्रेष्ठतम है, उसे गंवाकर हम क्षुद्र को खरीद लेते हैं। पूरा जीवन हमारा इसी नासमझी में बीतता है। बस, काफी धंधा किया, काफी लेन—देन किया, इसका भर सुख होता है।

कांति का अर्थ है, जो व्यक्ति अपनी जीवन—ऊर्जा को निरंतर श्रेष्ठ के लिए समर्पित कर रहा है। उस व्यक्ति को कांति उपलब्ध होती है, जो जितनी शक्ति देता है, उससे ज्यादा पाता है। जो हमेशा लाभ में है, एक आंतरिक लाभ में। अगर एक इंचभर अपनी शक्ति खोता है, तो इसीलिए कि कोई विराट का द्वार खुल रहा है, अन्यथा नहीं खोता। इसे हम ऐसा समझें, जैसा मैंने पीछे आपको कहा। काम ऊर्जा है, सेक्स एनर्जी है। आप उसे केवल शरीर के तथाकथित सुख में गंवा सकते हैं जीवनभर, सारी कांति खो जाएगी। आपके चारों तरफ जो एक मंडल चाहिए व्यक्तित्व का, वह सिकुड़ जाएगा।

कभी आपने खयाल किया है, काम—ऊर्जा के क्षीण होते ही आपको एक सिकुडाव का अनुभव होता है। कोई चीज सिकुड़ गई भीतर, आप दीन हुए। आपने कुछ खोया, पाया कुछ भी नहीं।

ठीक इससे विपरीत स्थिति उस व्यक्ति को उपलब्ध होनी शुरू होती है, जिसकी काम—ऊर्जा ऊर्ध्वगामी होती है और प्रभु के चरणों में समर्पित होने लगती है, और जिसकी काम—ऊर्जा व्यक्तियों और दूसरे व्यक्तियों की तरफ प्रवाहित नहीं होती, वरन अपनी अंतरात्मा की तरफ प्रवाहित होने लगती है। हर इंच पर उसे लगता है, जीवन विराट हुआ, और बड़ा हुआ।

ब्रह्मचर्य शब्द हम सब सुनते हैं, बात करते हैं, लेकिन आपको खयाल न होगा कि इसका अर्थ क्या होता है! इसका अर्थ होता है, ब्रह्म जैसी चर्या। और ब्रह्म का आपको अर्थ पता है? ब्रह्म का अर्थ होता है, विस्तार। ब्रह्म का अर्थ है, जो विस्तीर्ण है, जो फैलता ही चला गया है, जिसका ओर—छोर नहीं है।

तो जिस दिन आपकी चर्या उस विस्तार की तरफ बढ़ने लगती है, और आपके भीतर कुछ फैलता चला जाता है और फैलता ही चला जाता है, सब सीमाएं छूट जाती हैं और आपके भीतर कोई फैलता ही चला जाता है, जिस दिन आपके भीतर चांद—सूरज घूमने लगते हैं, जिस दिन आपको लगता है कि आप फैल गए सारे आकाश में और आकाश से एक हो गए, उस दिन ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है।

लेकिन यह होगा, जब हमारी ऊर्जा, हमारी शक्ति निरंतर श्रेष्ठ के प्रति समर्पित हो रही हो। अपने से नीचे का कुछ खोजना, कांति को खोना है। अपने से ऊपर के लिए शक्ति को नियोजित करना, कांति को उपलब्ध होना है। कांति सिर्फ एक खबर है, आपके चेहरे से, आपकी आंखों से, आपके हाथों से, आपके व्यक्तित्व से, एक खबर है कि भीतर ऊर्जा ने कुछ ऊर्ध्वगमन शुरू किया है।

बड़ी मुश्किल की बात है। इस कांति की तरफ खयाल ही नहीं है। इसलिए जवान आदमी...। मैंने कहा, बच्चा होता है शक्तिशाली, बुजुर्ग होता है ऐश्वर्ययुक्त, जवान हो सकता है कांतियुक्त। बच्चा शक्तिशाली होता है, यह नैसर्गिक है। जवान कांतियुक्त हो, यह चुनाव है। और जवान अगर कांतियुक्त न हो सके, तो बुढ़ापा एक दीनता होगी, एक दरिद्रता होगी, एक बोझ।

हम इस मुल्क में पच्चीस वर्ष तक युवकों को आश्रमों में रखकर कांति की कला सिखाते थे। इसके पहले कि शक्ति क्षीण होनी शुरू हो जाए, उसको रूपांतरण देना जरूरी है। इसके पहले कि शक्ति नीचे से बहनी शुरू हो जाए, उसके पहले उसे ऊपर के मार्ग पर चला देना जरूरी है। क्योंकि एक बार शक्ति नीचे की तरफ बहने लगे, तो हर चीज हैबिट फार्मिग है, हर चीज की आदत बन जाती है। फिर रिपिटीटिव, फिर पुनरुक्ति होने लगती है।

और जीवन एक ऐसी बाल्टी की तरह हो जाता है, जिसे हम पानी में डालते हैं भरने के लिए, लेकिन उसमें इतने छेद होते हैं कि शोरगुल बहुत होता है, पानी भरता भी मालूम पड़ता है, लेकिन आखिर में जब बाल्टी बुढापे में हमारे हाथ आती है, तो उसमें कुछ भी नहीं होता, एक बूंद भी पानी की नहीं होती; सब बीच में गिर गया होता है। बुढ़ापे में जिस व्यक्ति की कुएं की बाल्टी भरी हुई आ जाए, समझना कि ऐश्वर्य उपलब्ध हुआ।

लेकिन यह तभी संभव होगा, जब जवानी में छिद्र व्यक्तित्व में पैदा न हों, और जवानी में छिद्रों से बचा जा सके, जो कि अति कठिन है। क्योंकि शक्ति अगर ऊपर रूपांतरित न हो, तो शक्ति बोझ बन जाती है, उसको फेंकना जरूरी हो जाता है।

इसलिए पश्चिम में एक नया विचार लोगों को पकड़ा है और वह यह है कि सेक्स इज जस्ट ए रिलीज, ए रिलीफ। कामवासना, सिर्फ एक शक्ति भारी हो जाती है, तनाव हो जाता है, उससे छुटकारा है। पश्चिम में एक बहुत क्षुद्र खयाल काम—ऊर्जा के बाबत आया है। वे कहते हैं, काम—ऊर्जा छींक जैसी है। छींक ली, तो राहत मिलती है। छींक आ गई, तो राहत मिलती है। नहीं तो नाक में सनसनाहट और तकलीफ मालूम पड़ती है। सब काम—ऊर्जा भी इसी तरह की है। उसको फेंक दी बाहर, तो राहत मिलती है।

शक्ति भारी हो जाती है, अगर काम में न लाई जाए, फिर उसे फेंकना ही पड़ेगा। केवल वे ही लोग शक्ति को फेंकने से बच सकते हैं, जो उस कला को सीख लेते हैं, जिसमें शक्ति रोज काम में आती चली जाती है, बचती ही नहीं फेंकने के लिए।

कांति का अर्थ है, ऊपर की ओर उठती हुई शक्ति। शरीर से भी झलकने लगती है। शरीर से भी उसकी सुगंध आने लगती है। शरीर भी एक अनूठे सौंदर्य से आच्छादित हो जाता है।

ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त, शक्तियुक्त जो भी है, वहीं मेरी विभूति है, वहीं मैं प्रकट हुआ हूं? वहीं तू मुझे देख लेना। और जहां भी यह घटित हो, समझना कि मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ है, मेरी ही ज्योति वहां प्रज्वलित हो रही है; मेरे ही अमृत की धार वहां बहती है; मेरे ही स्वरों का संगीत है वहां; मेरी ही सुवास है; मेरे ही हृदय की धड़कन वहां भी धड़कती है।

अथवा हे अर्जुन, इस बहुत जानने से तेरा प्रयोजन ही क्या है!

अगर तू मुझे ऐश्वर्य में भी न देख सके, कांति में भी न देख सके, शक्ति में भी न देख सके, और इतने जो मैंने तुझे प्रतीक कहे, इनमें तुझे कोई खयाल न आए, तो फिर बहुत जानने से कोई प्रयोजन नहीं है। अब मैं तुझे कितना ही कहता रहूं उससे कुछ हल न होगा। तू देखना शुरू कर।

कृष्‍ण कहते हैं, अर्जुन, तेरा इतना सब पूछने का प्रयोजन ही क्या है, अगर तू इशारा न समझ पाए! तो फिर तू पूछता चला जा सकता है और मैं तुझे जवाब देता चला जा सकता हूं उससे कुछ हल न होगा। आज जमीन पर जो इतना कनफ्यूजन, इतना विभ्रम है, वह इसलिए है कि इतने जवाब और इतने सवाल आपके मस्तिष्क में खड़े हो गए हैं कि आज तय करना ही मुश्किल है कि आपका भी कोई प्रश्न है? और प्रश्न आप पूछ रहे हैं, तो कुछ करने का इरादा है या यों ही पूछने चले आए हैं?

कृष्ण पूछते हैं, हे अर्जुन, इस बहुत जानने से फिर क्या प्रयोजन है! सिर्फ जानना ही है या तुझे उतरना भी है? तू कूदना भी चाहता है या सिर्फ सोचता ही रहेगा? तू कुछ करने को आतुर है या सिर्फ एक बौद्धिक कुतूहल है?

इस संपूर्ण जगत को अपनी योग—माया के एक अंश मात्र से धारण करके मैं स्थित हूं।

सारा जगत मेरा ही एक अंश मात्र है। यह बहुत कीमती वचन है। क्योंकि मैंने कहा, सारा जगत ईश्वर है। सारा जगत ईश्वर है, लेकिन सारा ईश्वर जगत नहीं है। सारा जगत ईश्वर है, लेकिन सारा ईश्वर जगत नहीं है। क्योंकि ईश्वर की अनंत संभावनाएं हैं, अनंत जगतों में प्रकट होने की। ईश्वर तो इस पूरे अस्तित्व की मूल संभावना है। उसमें से कभी कोई एक बीज अंकुरित होता है, तो एक जगत निर्मित हो जाता है। उसमें से कभी कोई दूसरा बीज निर्मित होता है, तो दूसरा जगत निर्मित हो जाता है। अनंत जगत हो सकेंगे, और हर जगत उसका एक अंश ही होगा।

पूरा ईश्वर अगर जगत हो, तब ईश्वर भी सीमित हो गया। तब फिर दूसरा जगत नहीं हो सकता। अगर यही जगत सब कुछ हो ईश्वर का, तो फिर आगे कोई गति और कोई विकास नहीं है।

ईश्वर के अनंत होने का अर्थ है, यह जगत उसकी एक अभिव्यक्ति है। उसकी अनेक अभिव्यक्तियां हो सकती हैं। होती रही हैं। होती रहेंगी। इसलिए कहा, एक अंश में ही मेरी योग—माया का उपयोग है।

योग—माया शब्द का ठीक वही अर्थ होता है, जो अंग्रेजी में मैजिक का होता है, जादू का होता है। लेकिन जादू तो जादूगर करता है! जादूगर कर क्या रहा है? जो नहीं है, वह आपको दिखाई पड़ने लगे, इस कला का नाम जादू है। मैजिक का अर्थ है, जो नहीं है, वह आपको दिखाई पड़े।

ईश्वर की भारतीय जो धारणा है, वह यह है कि जगत भी है नहीं, केवल ईश्वर चाहता है, इसलिए दिखाई पड़ता है। यह है नहीं, केवल ईश्वर चाहता है, इसलिए दिखाई पड़ता है। इसका होना केवल उसकी धारणा है, उसका विचार है।

 योग—माया का। परमात्मा के लिए सारा का सारा विराट जो विस्तार है, यह वास्तविक सृजन नहीं है, यह केवल उसके विचार का फैलाव है।

कृष्‍ण कहते हैं, यह सारा जगत मेरी योग—माया के एक अंश का विस्तार है, मेरे विचार का, मेरे खयाल का।

यह सारा अस्तित्व एक स्वप्न है गहन, उस मूल ऊर्जा का एक स्वप्न। उस मूल ऊर्जा का एक भाव, और जगत निर्मित हो जाता है। उस मूल ऊर्जा का भाव क्षीण होता है, और जगत खो जाता है।

इसका यह मतलब नहीं है कि आप पत्थर पैर पर मारेंगे, तो खून नहीं निकलेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि आप नहीं हैं। आप हैं। लेकिन आपके होने का जो घटक है, जो बुनियादी तत्व है, जिससे आप निर्मित हैं, वह वस्तु नहीं है, विचार है। आप विचार का एक जोड़ हैं, अनंत विचारों का एक जोड़ हैं।

यह सारा जगत अनंत विचारों का एक जोड़ है।

अगर हम भौतिकवादी और गैर— भौतिकवादी विचारों में भेद करना चाहें, तो वह यही होगा कि भौतिकवादी, मैटीरियलिस्ट कहता है कि जगत की जो बुनियादी इकाई है, वह पदार्थ है; और अध्यात्मवादी कहता है, जगत की जो मौलिक इकाई है, वह विचार है। जगत जिन ईंटों से बना है, वे ईंटें विचार की हैं। और अगर पदार्थ भी हमें दिखाई पड़ता है, तो वह विचार की सघनता है, डेंसिटी आफ थाट। और जिसे हम अपने भीतर विचार कहते हैं, उसमें और बाहर पड़े हुए पत्थर में जो फर्क है, वह गुण का नहीं है, मात्रा का है, डिग्रीज का है। अगर विचार ही गहन सघन हो जाए, तो पत्थर भी मौजूद हो सकता है, मैटीरिअलाइज हो सकता है।

कृष्‍ण कहते हैं, यह मेरी योग—माया का एक अंश है और इस अंश पर ही मैं सारे जगत को धारण करके ठहरा हुआ हूं इसलिए मेरे को ही तत्व से जान। तू और विस्तार में मत पड़। तू सीधा मुझको ही तत्व से जान। मैं ही आधारभूत हूं या जो आधारभूत है, वही मैं हूं। विस्तार में तू खो सकता है।

बहुत लोग डिटेल्स में खो जाते हैं। बहुत लोग इतने विस्तार में खो जाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं रहता है कि वे किसकी खोज के लिए निकले थे। कई बार जंगल में खो जाने की वजह से जिस वृक्ष की तलाश में हम निकले थे, उसकी स्मृति ही उठ जाती है।

इसलिए अंतिम वचन में कृष्ण ने याद दिलाया कि यह मैंने तुझसे थोड़े से विस्तार की बातें कही हैं, लेकिन इस विस्तार में खो जाने की जरूरत नहीं है। यह मैंने कहा ही इसलिए, ताकि सब तीर मेरी तरफ इशारा कर सकें। और तू मुझको ही सारी खोज का अंत जान, सारी खोज का केंद्र जान।

जो व्यक्ति भी ईश्वर की तरफ अपनी सारी खोज के तीरों को झुका देता है, जो अपनी सारी कामनाओं को, सारी इच्छाओं को, सारी प्रार्थनाओं को, सारी अभीप्साओं को, सारी आकांक्षाओं को एक ही ईश्वर की तरफ झुका देता है, उसे बहुत देर नहीं है कि वह पा ले।

हम अगर खोते हैं उसे, भूलते हैं उसे, विस्मरण करते हैं उसे, नहीं जान पाते उसे, तो उसका कारण केवल इतना ही है कि कभी हमने समग्रता से उसे चाहा ही नहीं, पुकारा ही नहीं। कभी समग्रता से हमने जाना ही नहीं कि वही एक पाने योग्य है। अगर हमने कभी उसे पाना भी चाहा है, तो वह हमारे हजारों पाने वाली चीजों में एक आइटम वह भी है। और वह भी आखिरी, वह भी आखिरी फेहरिस्त पर। जैसे कोई बाजार में सामान खरीदने निकला हो, तो निन्यानबे चीजें उसने सब लिख हों— नोन, तेल, लकड़ी— और आखिर में सौवां ईश्वर भी लिखा हो। ऐसे हम हैं। जब सब, तब आखिरी!

ईश्वर को जो अपनी जिंदगी की खोज में आखिरी रख रहा है, वह उसे पाने में आखिरी सिद्ध होगा। जो उसे प्रथम रखता है, वही उसे पाता है।

लेकिन हम क्षुद्र को ऊपर रखे रहते हैं। अगर अभी कोई आपको मिले और कहे कि एक कार दिए देते हैं या ईश्वर का दर्शन। क्या इरादा है? तो आप कहेंगे, ईश्वर का दर्शन तो कभी भी हो जाएगा, शाश्वत चीज है। कार पहले ले लें, इसका क्या भरोसा! क्षणिक का भरोसा भी नहीं है, इसको आज ले लें। ईश्वर को तो कल भी ले सकते हैं, अगले जन्म में भी ले सकते हैं। यह कोई जल्दी की बात नहीं है। आप पहले क्षुद्र को चुनेंगे।

कृष्‍ण कहते हैं, विस्तार में तू मत जा। मैं तेरे सामने खड़ा हूं। तू मुझको ही तत्व से जान, उसकी ही आकांक्षा कर।

अंतिम बात। कृष्‍ण ने बहुत—से प्रतीक कहे। वे सब प्रतीक इशारे हैं। कोई भी प्रतीक प्रतिमा नहीं है। कोई भी प्रतीक पूजा के लिए नहीं है। सभी प्रतीक केवल समझ के लिए सहारे हैं। जो प्रतीकों की पूजा में लग जाता है, वह भटक जाता है। प्रतीक पूजा के लिए नहीं होता; प्रतीक इशारे के लिए होता है।

एक आदमी रास्ते से गुजर रहा है। और किनारे पर पत्थर लगा है, मील का पत्थर लगा है और उस पर तीर लगा है। वह मील का पत्थर बैठकर पूजा करने के लिए नहीं है, वह बैठने के लिए नहीं है। वह तीर यह कह रहा है कि यहां से आगे बढ़ो। अगर मंजिल तक पहुंचना है, तो पत्थरों पर मत रुकना। यह तीर कह रहा है, आगे चलो।

ये जितने प्रतीक कृष्‍ण ने लिए हैं, यह उस महायात्रा के किनारे पर लगे हुए पत्थर हैं। इन पर रुकना नहीं है।

प्रतीक प्रतिमा नहीं है, इशारा है। सब प्रतीक उपयोगी हैं—मंदिर के, मस्जिद के, चर्च के, गुरुद्वारे के। सब प्रतीक उपयोगी हैं। कोई प्रतीक अंतिम नहीं है। प्रतीक से गुजर जाना, प्रतीक पर रुक मत जाना। प्रतीक पर ठहरना, उसका उपयोग करना और पार हो जाना। तो एक दिन विस्तार खो जाएगा, और केंद्र उपलब्ध हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...