शनिवार, 2 सितंबर 2023

कौरव पांडव

"कृष्ण यदि आज होते तो यह विश्व जो दो गुटों में बंटा है, उसमें किस गुट का पक्ष लेते?'

असल में जब भी ऐसे संकट का क्षण होता है जब कि निर्णय करना हो कि कौन शुभ है, कौन अशुभ है, तो सदा ही कठिनाई होती है। उस दिन भी आसान नहीं थी बात। क्योंकि दुर्योधन ही नहीं था उस तरफ, उस तरफ भीष्म भी थे, उस तरफ अच्छे लोग भी थे। और कृष्ण ही नहीं थे, अर्जुन ही नहीं थे इस तरफ, इस तरफ भी बुरे लोग थे। निर्णायक क्षण में तय करना सदा ही मुश्किल होता है। लेकिन, मूल्य कुछ निर्धारण करते हैं।

दुर्योधन किसलिए लड़ता था? आदमी उसके पास अच्छे थे या बुरे, यह उतना, बड़ा मूल्यवान नहीं है, वह लड़ किसलिए रहा था? उस लड़ने के मूल्य क्या थे, "वैल्यूज' क्या थे? कृष्ण अगर लड़ने को प्रेरित कर रहे थे अर्जुन को, तो मूल्य क्या थे? एक तो बड़े-से-बड़ा जो निर्णायक मूल्य था वह था न्याय, "जस्टिस'। न्याय क्या है? न्याययुक्त क्या था? तो आज फिर हमें निर्णय करना पड़े कि न्याययुक्त क्या है, न्याय क्या है? अब जैसे मेरी समझ में स्वतंत्रता न्याय है, परतंत्रता अन्याय है। जो "ग्रुप', जो वर्ग, जो गुट मनुष्य को किसी तरह की परतंत्रता में ढकेलता हो, वह अन्याय का पक्ष है। उस तरफ अच्छे आदमी भी हो सकते हैं, क्योंकि अच्छे आदमी भी जरूरी नहीं है कि बहुत दूरद्रष्टा हों। "कनफ्यूज्ड' होते हैं। उनको भी पता नहीं हो सकता है कि वह जो कर रहे हैं वह बुरे पक्ष में जा रहा है।

स्वतंत्रता बहुत ही कसौटी की बात है। मनुष्य की स्वतंत्रता जिस बात से बढ़ती हो, ऐसा समाज, ऐसा जगत चाहिए। जिस बात से स्वतंत्रता कम होती हो, ऐसा समाज और ऐसा जगत नहीं चाहिए। स्वभावतः जो लोग परतंत्रता भी लाना चाहें, वे भी परतंत्रता शब्द का उपयोग नहीं करेंगे। क्योंकि उस शब्द का तो कोई उपयोग सुनके ही हट जाएगा। वे भी ऐसे शब्द खोजेंगे जिनसे परतंत्रता आती हो, लेकिन परतंत्रता का भाव न पता चलता हो। ऐसा एक नया शब्द समानता है, "इक्वालिटी'। यह शब्द बहुत चालाकी से भरा हुआ है। और कुछ लोग हैं जो स्वतंत्रता को एक तरफ काट कर समानता की गुहार पर हैं। वे कहते हैं, समानता चाहिए। वे यह भी कहते हैं कि समानता के बिना स्वतंत्रता कैसे हो सकती है? वे कहते हैं, प्राथमिक चीज समानता है। और वे यह भी कहते हैं, समानता के बिना स्वतंत्रता कैसे हो सकती है? और यह बात समझ में पड़ेगी अनेकों को कि ठीक ही तो बात है, जब तक सब लोग समान नहीं हैं तो सब लोग स्वतंत्र कैसे हो सकते हैं। और तब इस समानता को लाने के लिए अगर स्वतंत्रता भी काटनी पड़ती हो तो फिर हम तैयार हो जाते हैं।

अब यह बड़ा मजेदार तर्क है। समानता इसलिए लानी है कि स्वतंत्रता आ सके, और स्वतंत्रता इसलिए काटनी पड़ती है क्योंकि समानता लानी है। और एक बार स्वतंत्रता खोने के बाद उसे लाना बहुत असंभव है। उसे कौन लाएगा? मैं तुमसे कहता हूं, यहां सब इकट्ठे हैं, मैं इन सबको कहता हूं कि तुम सबको समान करने के लिए सबको पहले जंजीर पहनानी पड़ेगी। क्योंकि जंजीर बिना पहनाए, किसी का सिर बड़ा है, किसी के हाथ लंबे हैं, किसी के पैर छोटे हैं, इन सबको काटा नहीं जा सकता। तो सबको समान करने के लिए पहले जंजीरें डाल दी जाती हैं, फिर सबके हाथ-पैर काटकर हम सबको समान कर देंगे। लेकिन जो सबको समान करेगा, वह तो असमान रह ही जाएगा। वह तो आपके बाहर रह जाएगा, उसके हाथ तो खुले होंगे, जंजीरें नहीं होंगी और उसके हाथ में तलवार होगी। और एक बार जब सबके हाथों में जंजीर रहेगी और कुछ लोगों के हाथ में तलवारें होंगी और हाथ-पैर कट चुके होंगे, तब तुम करोगे क्या?

ऐसा खयाल था माक्र्स का कि एक बार समानता लाने के लिए स्वतंत्रता खोनी पड़ेगी, व्यक्तिगत स्वतंत्रता नष्ट करनी पड़ेगी; एक अधिनायकशाही, एक "डिक्टेटरशिप' चाहिए होगी; फिर जब पूरा हो जाएगा काम समानता का तब स्वतंत्रता दे दी जाएगी। लेकिन जिनके हाथ में इतनी ताकत होगी सबको समान करने की, वह स्वतंत्रता देंगे? लक्षण नहीं दिखाई पड़ते हैं। बल्कि जितनी ताकत उसकी बढ़ जाती है और जितना आदमी पंगु हो जाता है, उतनी ही स्वतंत्रता की बात ही खतम हो जाती है, क्योंकि तुम पूछ नहीं सकते, आवाज भी नहीं उठा सकते, बगावत नहीं कर सकते।

समानता की आड़ में स्वतंत्रता कटेगी। और स्वतंत्रता एक बार कट जाए, तो लौटना बहुत मुश्किल मामला है। क्योंकि जब स्वतंत्रता कट जाती है तो काटनेवाला स्वतंत्रता की भविष्य की संभावनाओं को भी काट देता है। और दूसरी बात यह है कि स्वतंत्रता तो एक बिलकुल ही सहज तत्व है। जो प्रत्येक को मिलना चाहिए और समानता बिलकुल असहज बात है जो मिल नहीं सकती। यह अ-मनोवैज्ञानिक है कि हम आदमी को समान करें। आदमी समान हो नहीं सकता। आदमी समान है नहीं। आदमी मूलतः असमान है, स्वतंत्रता जरूर चाहिए, और इसलिए स्वतंत्रता चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जो हो सकता है वह हो सके, उसे उसका पूरा मौका चाहिए।

तो मेरी दृष्टि में स्वतंत्रता का पक्ष कृष्ण का पक्ष है, समानता का नहीं हो सकता। स्वतंत्रता हो तो धीरे-धीरे असमानता कम हो सकती है। ध्यान रहे, मैं कह रहा हूं, असमानता कम हो सकती है। यह नहीं कह रहा हूं कि समानता आ सकती है। स्वतंत्रता रहे तो असमानता धीरे-धीरे कम हो सकती है। लेकिन समानता अगर जबर्दस्ती थोप दी जाए, तो स्वतंत्रता कम होती चली जाएगी। जबर्दस्ती थोपी कोई भी चीज परतंत्रता का ही पर्याय है। तो मूल्य चुनने पड़ेंगे। व्यक्ति का मूल्य कीमती है।

सदा से ही जो अशुभ है, वह व्यक्ति को मूल्य नहीं देना चाहता, क्योंकि व्यक्ति ही विद्रोह का तत्व है। इसलिए अशुभ की शक्तियां समूह को मानती हैं, व्यक्ति को नहीं मानतीं। और यह भी जानकर तुम हैरान होओगे कि अगर तुम्हें कोई अशुभ कार्य करना हो, तो व्यक्ति से करवाना बहुत मुश्किल है, समूह से करवाना सदा आसान है। एक अकेले हिंदू से मस्जिद में आग लगवानी बहुत मुश्किल है। हिंदुओं की भीड़ से लगवानी बहुत आसान है। एक अकेले मुसलमान से एक हिंदू बच्चे की छाती में छुरा घुसवाना बहुत कठिन है, लेकिन मुसलमान की भीड़ से बहुत आसान है। असल में जितनी बड़ी भीड़ होती है, आत्मा उतनी कम हो जाती है। क्योंकि आत्मा के होने का जो तत्व है वह व्यक्तिगत दायित्व है, "इंडिवीजुअल रिसपांसिबिलिटी' है। जब मैं तुम्हारी छाती में छुरा भोंकता हूं, तो मेरा अंतःकरण कहता है कि क्या कर रहे हो? लेकिन जब मैं सिर्फ एक भीड़ के साथ चलता हूं और आग लगती है, तो मैं सिर्फ भीड़ का एक हिस्सा होता हूं, मेरा अंतःकरण कभी भी नहीं कहता तुम क्या कर रहे हो? मैं कहता हूं, लोग कर रहे हैं। हिंदू कर रहे हैं, मैं तो सिर्फ साथ हूं। और कल मुझे कभी व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। अशुभ जो है वह सदा ही समूह को आकर्षित करना चाहता है। अशुभ जो है वह भीड़ पर निर्भर करता है। और अशुभ चाहता है कि व्यक्ति मिट जाए, भीड़ रह जाए। शुभ व्यक्ति को स्वीकार करता है और चाहता है भीड़ धीरे-धीरे खतम हो जाए, व्यक्ति रह जाएं। व्यक्ति रहेंगे तो संबंध रहेंगे, लेकिन वह भीड़ नहीं होगी, वह समाज होगा।

अब इसे भी थोड़ा समझ लेने जैसा है, जहां व्यक्ति हों, वहीं समाज हो सकता है। और जहां व्यक्ति की सत्ता कम हो जाए वहां सिर्फ भीड़ होती है, समाज नहीं होता। समाज और भीड़ में इतना ही फर्क है। व्यक्तियों के अंतर्संबंध का नाम समाज है, लेकिन व्यक्ति होने चाहिए। मैं स्वतंत्र रूप से तुमसे, स्वतंत्र व्यक्ति के साथ जब संबंधित होता हूं, तो समाज होता है। एक जेलखाने में समाज नहीं होता, सिर्फ भीड़ होती है। कैदी भी संबंधित होते हैं, एक-दूसरे को देखकर हंसते भी हैं, एक-दूसरे को सिगरेट-बीड़ी भी भेज देते हैं, लेकिन भीड़ होती है, समाज नहीं होता। वे सब वहां इकट्ठे किए गए हैं। अपनी स्वतंत्रता का उनका चुनाव नहीं है। इसलिए स्वतंत्रता, व्यक्ति, व्यक्तित्व, आत्मा, धर्म और अदृश्य और अज्ञात की संभावना जिस पक्ष की तरफ प्रबल होगी--प्रबल कह रहा हूं, क्योंकि निर्णायक नहीं होता बहुत कि इस पक्ष के तरफ है और इसकी तरफ बिलकुल नहीं है। राम और रावण लड़ते हों, तो  भी पक्का नहीं होता, बहुत साफ नहीं होता। क्योंकि रावण में भी थोड़ा राम तो होता है और राम में भी थोड़ा रावण तो होता ही है। कौरवों में भी थोड़ा पांडव तो होता है, पांडवों में भी थोड़ा कौरव होता ही है। ऐसा अच्छे से अच्छा आदमी नहीं है पृथ्वी पर जिसमें बुरा थोड़ा-सा न हो। और ऐसा बुरा आदमी भी नहीं खोजा जा सकता, जिसमें थोड़ा-सा अच्छा न हो। इसलिए सवाल सदा अनुपात का और प्रबलता का है। स्वतंत्रता, व्यक्ति, आत्मा, धर्म, ये मूल्य हैं, जिनकी तरफ शुभ की चेतना साथ होगी।

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित

ओशो ज्ञान गंगा से साभार 

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