शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

कृष्ण स्मृति 1 महाभारत युद्ध

"महाभारत युद्ध में कृष्ण एक प्रमुख भूमिका में थे। वे चाहते तो युद्ध रोक सकते थे। लेकिन वैसा नहीं हुआ। और परिणाम--एक भारी विध्वंस! स्वभावतः विध्वंस की भारी जिम्मेदारी कृष्ण पर जाती है। क्या कृष्ण के लिए यह उचित था--या उन पर लांछन लग सकता है?'

युद्ध और शांति के संबंध में भी बात वही है। फिर हम चाहते हैं कि शांति ही बचे, संघर्ष न बचे। फिर हम चुनाव शुरू करते हैं। और जगत जो है, वह द्वंद्वों का सम्मिलन है। और जगत जो है, वह विरोधी स्वरों का समवेत संगीत है। जगत इकसुरा नहीं हो सकता।

मैंने सुना है कि एक आदमी कोई वाद्ययंत्र बजाता था। और वह तार पर एक ही जगह उंगली रखकर घंटों उसी को रगड़ता रहता। उसके घर के लोग तो परेशान हो ही गए थे, उसके पास-पड़ोस के लोग भी परेशान हो गए थे। और अनेक लोगों ने उससे प्रार्थना की कि हमने बहुत वाद्य बजाने वाले देखे, लेकिन सभी का हाथ सरकता है, सभी के भिन्न स्वर निकलते हैं, तुमने यह क्या राग ले रखा है? तो उस आदमी ने कहा, वह अभी ठीक स्थान खोज रहे हैं, मैंने ठीक स्थान पा लिया है। तो मैं अब एक ठीक स्थान पर रुका हुआ हूं। मुझे अब कोई खोज की जरूरत नहीं है।

हमारा मन कर सकता है कि हम एक ही स्वर चुन लें जीवन का। लेकिन एक ही स्वर सिर्फ मृत्यु में हो सकता है। जीवन विरोधी स्वरों पर ही खड़ा होगा। तुमने अगर कभी किसी मकान के दरवाजे पर "आर्च' बना देखा हो, तो उसमें विरोधी ईंटें दोनों तरफ से लाकर हम मकान के द्वार पर अड़ा देते हैं। विरोधी ईंटें एक-दूसरे के विरोध में खड़े होने की वजह से भवन को उठा लेती हैं। कोई सोच सकता है कि ईंटें एक ही दिशा में लगा दी जाएं। फिर भवन गिरेगा, फिर भवन बनेगा नहीं।

जीवन की सारी व्यवस्था विरोधी स्वरों के तनाव पर है। युद्ध भी उस तनाव का हिस्सा है। और युद्ध ने नुकसान ही पहुंचाए, ऐसा जो सोचते हैं, वह गलत सोचते हैं, वह अधूरा देखते हैं। अगर हम मनुष्यता के विकास को समझने चलें तो हमें पता चलेगा। मनुष्यता के विकास का अधिकतम हिस्सा युद्धों के माध्यम से हुआ है। आज मनुष्य के पास जो कुछ है वह सब उसने प्राथमिक रूप से युद्धों में खोजा है। अगर आज हमें दिखाई पड़ते हैं कि सारी पृथ्वी पर रास्ते फैल गए हैं, तो पहली दफे रास्ते युद्धों के लिए बने थे, फौजों को भेजने के लिए बने थे। वह दो आदमियों को मिलाने के लिए नहीं बने थे, बारात ले जाने के लिए नहीं बने थे, वह युद्ध के लिए बने थे पहली बार। जितने भी साधन हैं--अगर आज हम बड़े मकान देख रहे हैं, तो पहले बड़ा मकान नहीं बना था, बड़ा किला बना था और वह युद्ध की जरूरत थी। पहली दीवाल दुश्मन के खिलाफ लड़ने के लिए बनाई गई। फिर दीवालें बनीं, फिर अब आकाश को छूते हुए मकान हैं। आज हम सोच भी नहीं सकते कि आकाश को छूता हुआ मकान युद्ध की जरूरत है। मनुष्य के पास जितनी भी संपन्नता है और जितने भी साधन हैं और जितना भी वैज्ञानिक आविष्कार है, वह सब युद्ध के माध्यम से हुआ।

असल में युद्ध ऐसे तनाव की स्थिति पैदा कर देता है, ऐसी चुनौती कि हमारे भीतर जो सोयी शक्तियां हैं, उन सबको जागकर सक्रिय होना पड़ता है। शांति के क्षण में हम आलस्य में हो सकते हैं, तमस में हो सकते हैं, युद्ध हमारे राजस को उभारता है। हमारे भीतर सोयी हुई शक्तियों को चुनौती के मौके पर उठना ही पड़ता है। इसलिए युद्ध के क्षण में हम साधारण नहीं रह जाते, हम असाधारण हो जाते हैं। और मनुष्य का मस्तिष्क अपनी पूरी शक्ति से काम करने लगता है। और युद्ध में एक छलांग लग जाती है मनुष्य की प्रतिभा की, जो कि शांति के कालों में, वर्षों में, सैकड़ों वर्षों में नहीं लग पाती।

अनेक लोगों का ऐसा खयाल है कि अगर कृष्ण ने महाभारत का युद्ध रोका होता तो भारत बहुत संपन्न होता। और भारत ने बड़े विकास के शिखर छू लिए होते। बात इससे बिलकुल उलटी है। अगर कृष्ण जैसे दस-पांच लोग भारत के इतिहास में हमें मिले होते और हमने एक महाभारत नहीं, दस-पांच महाभारत लड़े होते तो हम विकास के शिखरों पर होते।

महाभारत को हुए अंदाजन पांच हजार से ज्यादा वर्ष हुए होंगे। पांच हजार वर्षों में फिर हमने कोई बड़ा युद्ध नहीं किया। बाकी हमारी लड़ाइयां बहुत दिवालिया, "बैंकरप्ट' हैं। बाकी हमारी लड़ाइयों की बड़ी कोई कीमत नहीं है। वे छोटे-मोटे झगड़े हैं। उनको युद्ध कहना भी ठीक नहीं है। पांच हजार वर्षों से हमने कोई बड़ा युद्ध नहीं लड़ा। अगर युद्ध की वजह से हानि होती है और विध्वंस होता है, तो हमें पृथ्वी पर सबसे ज्यादा संपन्न और विकासमान होना चाहिए था। लेकिन हालतें उलटी हैं। जिन मुल्कों ने युद्ध लड़े हैं, वे बहुत विकासमान हैं और बहुत संपन्न हैं। पहले महायुद्ध के बाद लोग सोच सकते थे कि जर्मनी अब सदा के लिए टूट जाएगा, लेकिन दूसरे महायुद्ध में जर्मनी पहले महायुद्ध के जर्मनी से अनंतगुना शक्तिशाली होकर प्रगट हुआ--सिर्फ बीस साल के फासले पर। कोई सोच भी नहीं सकता था कि पहले महायुद्ध के बाद दूसरा महायुद्ध जर्मनी कर सकेगा। दो-चार सौ साल तक भी कर सकेगा, इसकी भी संभावना नहीं थी। लेकिन बीस साल में जर्मनी अनंतगुना शक्तिशाली होकर बाहर आ गया। पहले महायुद्ध ने उसकी शक्तियों को जिस तीव्रता पर पहुंचा दिया, उस तीव्रता का उसने उपयोग कर लिया।

अभी पिछले दूसरे महायुद्ध में लगता था कि अब शायद युद्ध कभी होना बहुत मुश्किल हो जाएगा, और जो देश सबसे ज्यादा मिटे थे--जर्मनी और जापान--वह दोनों के दोनों फिर संपन्न होकर खड़े हो गए। आज जापान को देखकर कोई कह सकता है कि बीस साल पहले एटम बम इसी मुल्क पर गिरा था? आज जापान को देखकर कोई नहीं कह सकता। हिंदुस्तान को देखकर जरूर हम कह सकते हैं कि यहां एटम बम गिरते ही रहे होंगे। हमारी दुर्दशा देखकर लगता है कि यहां जैसे युद्ध होता ही रहा होगा।

महाभारत के कारण हिंदुस्तान का अहित नहीं हुआ। महाभारत की छाया में हिंदुस्तान में जो शिक्षक पैदा हुए, वे सब युद्ध-विरोधी थे। और उन्होंने महाभारत का शोषण किया। और कहा कि ऐसा युद्ध और ऐसी हिंसा। नहीं, अब न युद्ध करना है, न ही अब हिंसा करनी है। अब लड़ना नहीं है। महाभारत के पीछे कृष्ण की क्षमता के व्यक्तियों की शृंखला नहीं हम पैदा कर पाए। अन्यथा महाभारत में जिस ऊंचाई को हमारे देश की चेतना की लहर ने छुआ था, हम हर बार उससे ज्यादा ऊंचाई की लहर को छू सकते थे। और शायद आज हम पृथ्वी पर सबसे ज्यादा संपन्न और सबसे ज्यादा विकसित समाज होते।

यह भी सोचने जैसा है कि महाभारत जैसा युद्ध विपन्न समाजों में घटित नहीं होता। युद्ध के लिए भी संपन्न होना जरूरी है। और संपन्नता के लिए भी युद्ध का घटना जरूरी है। असल में वह चुनौती के क्षण हैं। कृष्ण ने जिस युद्ध में हमें उतारा था, वह युद्ध में अगर हम सतत उतरे होते...क्योंकि इसे हम सोचें, आज करीब-करीब पश्चिम उस जगह है जहां महाभारत के दिनों में हम पहुंच गए थे। आज जितने अस्त्रों-शस्त्रों की बात है, करीब-करीब वे सभी अस्त्र-शस्त्र किसी-न-किसी रूप में महाभारत में प्रयोग किए गए। बड़ा संपन्न, बड़ा प्रतिभाशाली और बहुत वैज्ञानिक उन्नत शिखर था। उस युद्ध से कुछ हानि नहीं हो गई। उस युद्ध के बाद यह निराशा का क्षण हमें पकड़ा। उस निराशा के क्षण का दुरुपयोग हुआ। उस निराशा के क्षण ने पश्चिम में भी पकड़ा है कुछ को। पश्चिम भी भयभीत हो गया है। और पश्चिम का अगर पतन होगा, तो वह पश्चिम में जो शांतिवादी है उसकी वजह से होगा। अगर पश्चिम ने शांतिवादी की बात मान ली, तो पश्चिम पतित हो जाएगा। वह वहीं पहुंच जाएगा, जहां महाभारत के बाद हम पहुंचे।

हिंदुस्तान ने शांतिवादी की बात मान ली। इसलिए पांच हजार वर्ष का लंबा चक्कर चला। इसे थोड़ा सोचना जरूरी है। कृष्ण युद्धवादी नहीं हैं, लेकिन युद्ध को भी जीवन के खेल का हिस्सा मानते हैं। युद्धखोर नहीं हैं, किसी को मिटाने की कोई आकांक्षा नहीं है, किसी को दुख देने का कोई खयाल नहीं है, युद्ध न हो उसके सारे उपाय उन्होंने कर लिए थे, लेकिन, जीवन की और सत्य की और धर्म की कीमत पर युद्ध को बचाने के लिए राजी न थे। आखिर किसी भी चीज के बचाने की एक सीमा है। आखिर युद्ध को भी तो हम इसीलिए नहीं करना चाहते कि जीवन को कोई नुकसान न पहुंचे। लेकिन अगर युद्ध के न होने से ही जीवन को नुकसान पहुंचा जा रहा हो, तो फिर क्या अर्थ रह जाएगा? आखिर शांतिवादी यही तो कहता है कि युद्ध न हो, कि कहीं शांति खंडित न हो जाए। लेकिन अगर युद्ध के न होने से ही शांति खंडित हो रही हो, तो फिर एक निर्णायक युद्ध की सामर्थ्य चाहिए।

तो कृष्ण असल में युद्धखोर या युद्धवादी नहीं हैं, लेकिन, युद्ध से भयभीत और युद्ध से भागे हुए पलायनवादी भी नहीं हैं। कृष्ण कहते हैं, युद्ध न हो तो ठीक। लेकिन युद्ध होना ही हो, तो भागना ठीक नहीं हैं। और अगर युद्ध होना ही हो, और ऐसा क्षण आ जाए कि मनुष्य के मंगल के लिए और मनुष्य के हित के लिए युद्ध अनिवार्य हो जाए तो इस अनिवार्य युद्ध को फिर आनंद से स्वीकार करना। फिर उसे बोझ की तरह ढोना भी ठीक नहीं है। क्योंकि जो बोझ की तरह युद्ध में जाएगा फिर उसकी हार सुनिश्चित है। जो सिर्फ रक्षा के लिए युद्ध में जाएगा, उसकी हार भी सुनिश्चित है। क्योंकि रक्षा के भाव से भरा हुआ "डिफेंसिव' जो चित्त है, वह लड़ने में सामर्थ्य और शौर्य नहीं दिखा पाता। वह सिर्फ बचाव के उपाय करता रहता है और सिकुड़ता जाता है। तो कृष्ण लड़ने को भी आनंद बनाने को कहते हैं। दूसरे को दुख पहुंचाने का सवाल नहीं है। लेकिन जिंदगी में चुनाव सदा अनुपात के हैं--शुभ फलित होगा या अशुभ? जरूरी नहीं है कि युद्ध से अशुभ ही फलित हो। कभी न युद्ध करने से अशुभ फलित हो सकता है। अब यह देश हमारा एक हजार साल तक गुलाम रहा। यह हमारे युद्ध करने की क्षमता की क्षीणता का परिणाम था। पांच हजार वर्ष से गरीब और दीन-हीन, यह हमारे शौर्य और हमारे व्यक्तित्व में जो अभय चाहिए उसकी कमी का परिणाम है। जो फैलाव चाहिए, विस्तार का जो भाव चाहिए, उसकी कमी का परिणाम है।

तो कृष्ण के कारण नुकसान नहीं हुआ, कृष्ण की शृंखला नहीं पैदा हो सकती, हम और कृष्ण पैदा नहीं कर सके, इसलिए नुकसान हुआ। और कृष्ण के युद्ध के बाद स्वाभाविक था कि निराशावादी स्वर प्रमुख हो। सदा होता है। और निराशावादी शिक्षक लोगों को समझाएं कि व्यर्थ है यह सब। और देखो कितनी हानि हो गई। और वह स्वर हमारे मन में बैठ गया, और पांच हजार साल से हम डरी हुई कौम हैं। और जो कौम मरने से डर जाए, युद्ध से डर जाए, वह कौम बहुत गहरे में जीने से भी डर जाती है। तो हम जीने से भी डर गए हैं। हम कंप रहे हैं--न हम जी रहे हैं, न हम मर रहे हैं। हम दोनों के बीच में एक त्रिशंकु की भांति हैं।

अब मेरी समझ यह है कि बर्ट्रेंड रसल, या गांधी, या विनोबा, इनकी बात अगर दुनिया मान लेगी तो नुकसान होगा। युद्ध से भय की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अब पृथ्वी युद्ध के लिए बहुत छोटी पड़ गई है, यह बात जरूर सच है। असल में युद्ध के लिए भी जगह चाहिए। हमारे पास साधन इतने बड़े हो गए हैं कि अब पृथ्वी पर युद्ध नहीं हो सकता, यह बात जरूर सच है। लेकिन यह इसलिए सच नहीं है कि शांतिवादी की बात भय के कारण मानने योग्य है, यह इसलिए सत्य है कि अब हमारे पास साधन बड़े हैं, पृथ्वी छोटी है। अब पृथ्वी पर युद्ध बिलकुल बेमानी है। अब युद्ध की शकल बदलेगी, अब युद्ध का विस्तार और बढ़ेगा। चांदत्तारों पर, मंगल पर, ग्रहों-उपग्रहों पर कहीं युद्ध शुरू होंगे। वैज्ञानिकों का अंदाज है कि अंदाजन पचास करोड़ ग्रह होने चाहिए सारे जगत में, जिन पर जीवन होगा। कम-से-कम। तो आज जो भयभीत हो गया है कि हाइड्रोजन बम मत बनाओ और एटम बम मत बनाओ, अगर इस भयभीत आदमी की बात को मान लिया गया, तो इस जगत के विस्तार पर जो अभियान हो सकता है, जो यात्रा हो सकती है, वह नहीं हो सकेगी। और पृथ्वी जरूर उस जगह पहुंच गई है जहां युद्ध बेमानी है। लेकिन यह इसलिए नहीं हुआ है...यह भी समझने जैसी बात है।

युद्ध आज अर्थहीन हो गया है, इसलिए नहीं कि शांतिवादी की बात समझ में आ गई, युद्ध इसलिए अर्थहीन हो गया है कि युद्ध के विज्ञान का पूरा विकास हो गया है, "टोटल वार' का विकास हो गया है। युद्ध इतना समग्र हो गया है अब कि पृथ्वी पर लाना बिलकुल बेमानी है, क्योंकि युद्ध का तभी तक कोई अर्थ है जब कोई जीतता हो और कोई हारता हो। अब जो युद्ध है उसमें कोई जीतेगा नहीं, कोई हारेगा नहीं। उसमें दोनों एक-साथ मर जाएंगे। अब युद्ध का पृथ्वी पर कोई मतलब नहीं है। और मैं मानता हूं कि इसी वजह से पृथ्वी अब एक हो जाएगी, अब एक "ग्लोबल विलेज' से ज्यादा उसकी हालत नहीं है। एक छोटा-सा गांव जमीन हो गई है। शायद गांव से भी छोटी। दो गांव के बीच यात्रा में जितना समय लगता था, अब पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाने में उतना समय नहीं लगता है। तो पृथ्वी इतनी छोटी हो गई है कि अब युद्ध पृथ्वी पर बेमानी है। और पृथ्वी पर अगर युद्ध होता है तो वह नासमझ बात होगी। इसका यह मतलब नहीं है कि युद्ध न हो, इसका यह मतलब भी नहीं है कि युद्ध अब नहीं होंगे, युद्ध तो होते रहेंगे। लेकिन अब नई भूमियों पर होंगे। नई यात्राएं होंगी उनकी, और नए अभियान होंगे। युद्ध बंद नहीं हुआ, इतने समझाने वालों के बाद भी। वह बंद नहीं हो सकता, वह जीवन का हिस्सा है।

अब यह बड़े मजे की बात है कि युद्ध से क्या-क्या पैदा हुआ। अगर हम बहुत गौर से देखें, तो हमारे सारे सहयोग की, कोआपरेशन की सारी व्यवस्था युद्ध के लिए पैदा हुई। "कोआपरेशन फॉर कांफ्लिकट'। सारा सहयोग संघर्ष के लिए है। अगर जमीन पर युद्ध न हो तो कोई "कोआपरेशन', कोई सहयोग भी नहीं होगा।

तो कृष्ण को समझना बहुत जरूरी है। कृष्ण शांतिवादी नहीं हैं, कृष्ण युद्धवादी नहीं हैं। असल में वाद का मतलब ही होता है कि दो में से हम एक को चुनते हैं। कृष्ण अ-वादी हैं। कृष्ण कहते हैं, शांति से शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। युद्ध से शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। मेरा मतलब समझाने का है--कृष्ण कहते हैं जिससे मंगल-यात्रा गतिमान होती हो, जिससे धर्म विकसित होता हो, जिससे जीवन में आनंद की संभावना बढ़ती हो, स्वागत है उसका। ऐसा स्वागत चाहिए भी।

हमारा देश अगर कृष्ण को समझा होता, तो हम इस भांति नपुंसक न हो गए होते। हमने बहुत अच्छी-अच्छी बातों के पीछे बहुत-बहुत न-मालूम कैसी कुरूपताएं छिपा रखी हैं। हमारी अहिंसा की बात के पीछे हमारी कायरता छिपकर बैठ गई है। हमारे युद्ध-विरोध के पीछे हमारे मरने का डर छिपकर बैठ गया है। लेकिन हमारे युद्ध न करने से युद्ध बंद नहीं होता, हमारे युद्ध न करने से कोई और हम पर युद्ध जारी रखता है। हम लड़ने न जाएं इससे लड़ाई बंद नहीं होती, सिर्फ हम गुलाम बनते हैं। और फिर भी हम लड़ाइयों में घसीटे जाते रहे। यह बड़े मजे की बात है। हम नहीं लड़े, कोई हम पर हावी हो गया, हमें गुलाम बना लिया और फिर हम उसकी फौजों में लड़ते ही रहे। लड़ाई तो कुछ बंद नहीं हुई। कभी हम मुगल की फौज में लड़े, कभी हम तुर्क की फौज में लड़े, कभी हम हूण की फौज में लड़े। हम खुद ही न लड़े, गुलाम भी रहे और अपनी गुलामी को बचाने के लिए लड़ते रहे। फिर हम अंग्रेज की फौज में लड़े। लड़ाई तो बंद नहीं हुई। हां, इतना ही हो गया कि हम अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ते, अपने जीवन के लिए लड़ते, फिर हम अपनी परतंत्रता के लिए लड़े कि हमारी परतंत्रता कैसे बनी रहे, इसके लिए भी हमारा आदमी मरता रहा। यह दुखद फल हुआ। यह महाभारत के कारण नहीं। यह फिर से हम महाभारत की हिम्मत न जुटा पाए, उसके कारण।

इसलिए मैं कहता हूं कि कृष्ण को समझना थोड़ा मुश्किल तो है। बहुत आसान है समझ लेना एक शांतिवादी की बात, क्योंकि वह एक पहलू चुन लेता है। बहुत आसान है समझ लेना युद्धवादी की बात।एक हिटलर, एक मुसोलिनी, एक चंगेज, एक तैमूर, नेपोलियन, सिकंदर--युद्धखोरी की बात समझने में भी बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि वह कहते हैं कि युद्ध ही जीवन है। शांतिवादी हैं--रसल हैं, गांधी हैं--उनकी बात भी समझ लेनी बहुत आसान हैं। वह कहते हैं कि नहीं, शांति ही जीवन है। कृष्ण की बात समझनी बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह कहते है कि जीवन दोनों द्वारों से गुजरता है। वह शांति से भी गुजरता है, वह युद्ध से भी गुजरता है। और अगर तुम्हें शांति बनाए रखनी है तो तुम्हें युद्ध की सामर्थ्य रखनी होगी। और अगर तुम्हें युद्ध जारी रखना है तो तुम्हें शांति में तैयारी भी करनी होगी। ये दो पैर हैं जीवन के। इनमें से एक को भी काटा तो लंगड़े और पंगु हो जाते हैं। चंगेज और तैमूर और मुसोलिनी भी लंगड़े हैं और गांधी और रसल भी लंगड़े हैं। इनके एक-एक पैर हैं। इनसे गति नहीं हो सकती। और इसलिए अगर एक-एक पैर वाले आदमी रहें, तो फिर "पीरियाडिकल फैशन' रहता है। एक पैर मुसोलिनी का और एक पैर गांधी का। दुनिया ऐसी चलती है। दो पैर तो चाहिए ही--एक पैर मुसोलिनी का चलता है, एक गांधी का चलता है। एक फैशन मुसोलिनी की होती है, फिर एक फैशन गांधी की होती है। जब मुसोलिनी अपना युद्ध कर लेता है और हिटलर और स्टेलिन अपने युद्ध कर चुके होते हैं, तब रसल और गांधी और बिनोबा की बात हमको एकदम अपील करने लगती है। दस-बीस साल इनकी बात अपील करती है, तब तक यह इतना लंगड़ा पैर ज्यादा देर नहीं चलता, दूसरे पैर की जरूरत पड़ जाती है, फिर कोई माओ खड़ा होगा, फिर कोई खड़ा होगा, फिर युद्ध बीच में आ जाएगा।

कृष्ण के पास दोनों पैर हैं। कृष्ण लंगड़े आदमी नहीं हैं। और मैं मानता हूं कि दोनों पैर प्रत्येक के पास होने चाहिए। जो आदमी लड़ न सके, उसमें कुछ कमी होती है। और जो आदमी लड़ न सके, वह आदमी ठीक अर्थों में शांत भी नहीं हो सकता। वह लंगड़ा हो जाता है। जो आदमी शांत न हो सके, वह विक्षिप्त हो जाता है। और जो आदमी शांत न हो सके वह लड़ेगा कैसे? लड़ने में एक निर्णायक बात तय होनी है कि सारी दुनिया को शांतिवादी बनाना है? एक तरह का मुर्दापन छा जाएगा। जो कि संभव नहीं है, कोई मानेगा नहीं। शांतिवादी अपना जुलूस निकालता रहेगा और शांति के झंडे लगाता रहेगा--कोई मानने वाला नहीं है, कोई जीवन रुकता नहीं है--युद्धखोर, अपनी युद्ध की तैयारी करता रहेगा। फैशन बदलते रहते हैं। दस-बीस साल उसका प्रभाव रहता है, दस-बीस साल इनका प्रभाव रहता है। और ये दोनों एक-दूसरे के साझे में काम चलाते हैं।

कृष्ण की बात समग्र जीवन की है, और अगर हमारी समझ में आ जाए तो न तो शांति को छोड़ने की जरूरत है, न युद्ध को छोड़ने की जरूरत है। युद्ध के तल रोज बदलते जाएंगे, निश्चित ही। क्योंकि कृष्ण कोई चंगेज नहीं हैं। किसी की हत्या करने के लिए, किसी को दुख देने के लिए उनकी कोई आतुरता नहीं है। लेकिन युद्ध के तल बदलते जाएंगे। अब हम देखें कि युद्ध कितने प्रकार से तल बदलता है।

अगर आदमी आदमी से न लड़े, तो सब आदमी मिलकर प्रकृति से लड़ना शुरू कर देते हैं। अब यह जरा सोचने जैसी बात है कि जिन कौमों में युद्ध चलते रहे, उन्हीं कौमों में विज्ञान भी विकसित हुआ, क्योंकि लड़ने की क्षमता है उनमें। वह आदमी से भी लड़ते हैं, जब फिर वक्त मिलता है तो प्रकृति से भी लड़ लेते हैं। लेकिन हमारी कौम ने महाभारत के बाद प्रकृति से भी कोई लड़ाई नहीं लड़ी। बाढ़ से भी नहीं लड़े, आंधी से भी नहीं लड़े, पहाड़ से भी नहीं लड़े, प्रकृति के किसी तत्त्व से नहीं लड़े, इसलिए विज्ञान विकसित नहीं हो सका। क्योंकि वह तो प्रकृति से लड़ेंगे तो विकसित होगा। आदमी लड़ता रहे तो आज जमीन की प्रकृति से लड़ेगा और जमीन के राज खोल लेगा, कल वह चांदत्तारों की प्रकृति से लड़ेगा; उसका अभियान रुकेगा नहीं।

इसलिए ध्यान रहे कि जो समाज युद्ध में डूबे और उबरे, वे ही समाज चांद पर भी अपने आदमी को उतार पाए हैं। हम नहीं उतार पाए, शांतिवादी नहीं उतार पाया। और चांद आज नहीं कल, युद्ध के अर्थ में बड़ा कीमती है। जिसके हाथ में चांद होगा, उसके हाथ में पृथ्वी होगी। क्योंकि आने वाले युद्ध की मिसाइल्स जिसके हाथ में चांद पर लग जाएंगी, पृथ्वी उसके हाथ में होगी। इसलिए अब झगड़ा पृथ्वी से हट गया है। अब यह तो सब जिसको कहें कि "फिलस्फाइज्ड़' हैं--वियतनाम है, या कम्बोडिया है, या कुछ और है; हिंदुस्तान-पाकिस्तान हैं--यह सब कोई लड़ाई-झगड़े नहीं हैं, ये सिर्फ नासमझों के चित्त को उलझाए रखने की तरकीबें हैं। कि वह यहां उलझे रहेंगे। असली लड़ाई अब दूसरे तल पर शुरू हो गई है। चांद पर जाने की दौड़ का बहुत गहरा अर्थ दूसरा ही है। वह अर्थ यह है कि जिसके हाथ में कल चांद होगा, उसको पृथ्वी पर कोई चुनौती देने का उपाय नहीं रह जाएगा। उसके एटम और उसके हाइड्रोजन बम की तोपें चांद से पृथ्वी की तरफ लगी होंगी। एक-एक मुल्क के ऊपर उड़कर बम गिराने की जरूरत न रह जाएगी, मुल्क अपने-आप बम की तोप के सामने आते रहते हैं चौबीस घंटे में। वह घूमती रहती है पृथ्वी और पूरे वक्त सामने आते रहते हैं, अपने-आप। कोई अलग-अलग किसी मुल्क पर जाकर एटम को गिराने की जरूरत नहीं है। तो इसलिए इतनी दौड़ थी, और इतना खर्च करके--कोई एक अरब अस्सी करोड़ डालर खर्च हुआ एक आदमी को चांद पर उतारने में। यह कोई खेल नहीं था, इसमें कुछ कारण है पीछे। और कौन पहले उतार देता है यह जरूरी था।

यह दौड़ अब वैसी ही है जैसे एक दिन दौड़ आज से कोई तीन सौ साल पहले यूरोप से एशिया की तरफ लग गई थी और सारे जहाज एशिया की तरफ भागे जा रहे थे--पोर्तगीज भी, स्पैनिश भी और अंग्रेज भी, और सब, फ्रेंच भी और जर्मन भी, सब भागे जा रहे थे। तीन सौ साल पहले जैसे एशिया की जमीन पर कब्जा करना जरूरी हो गया था विस्तारवादी के लिए, विकास के लिए। अब वह बेमानी हो गया, अब कोई मतलब नहीं। एशिया के लोग समझ रहे हैं कि हमारी स्वतंत्रता की लड़ाई ने हमको आजाद किया है, इसमें आधी ही सचाई है। आधी सचाई तो दूसरी है, और वह यह है कि अब एशिया की जमीन पर कब्जा करने का कोई मतलब नहीं रह गया है, अब वह बात खतम हो गई है। वह दौर खतम हो गया है। अब तो कहीं लड़ाई और दूसरी जमीन पर कब्जा करने की है। वहां दृष्टि और जगह चली गई है, अब वहां दौड़ है। कल चांदत्तारों पर और दूर तक दौड़ हो जाएगी। शक्ति का एक अभियान है जीवन। उस अभियान में जो मुर्दानगी को पकड़ लेते हैं, वह धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं।

हम ऐसी ही नष्ट हो गई कौम हैं। और इसलिए भी कृष्ण का संदेश बड़ा अर्थपूर्ण है--हमारे लिए ही है, मैं मानता हूं कि पश्चिम भी उस जगह खड़ा हो गया है जहां उसे निर्णायक लड़ाई शायद पृथ्वी पर एक बार और लड़नी पड़े। निश्चित ही पृथ्वी पर नहीं होगी, अगर पृथ्वी के प्रतियोगियों में भी लड़ाई होगी तो चांद या मंगल पर होगी। पृथ्वी पर कोई अर्थ नहीं है लड़ाई लड़ने का, क्योंकि दोनों मर जाएंगे। अगर उन दोनों को भी लड़ना है तो उन दोनों को भी किसी दूसरे ग्रह-उपग्रह पर ही लड़कर तय करना पड़ेगा कि कौन जीतता है।

इस निर्णायक लड़ाई में भी क्या होगा, शायद हालतें फिर वैसी ही खड़ी हो गई हैं जैसी महाभारत के समय। महाभारत के समय भी दो वर्ग थे। एक वर्ग था जो निपट भौतिकवादी था, जिसकी पूरी दृष्टि शरीर के अतिरिक्त किसी को स्वीकार नहीं करती थी। जिसकी दृष्टि भोग के अतिरिक्त किसी तरह के योग के लिए कोई क्षमता न रखती थी। आत्मा का होना न होने की बात थी। जिंदगी थी भोग, लूट-खसोट। जिंदगी शरीर से और शरीर की इंद्रियों के बाहर कोई अर्थ न रखती थी। एक वर्ग। उसी वर्ग के खिलाफ वह संघर्ष हुआ था। कृष्ण को उस संघर्ष को करवाना पड़ा था। जरूरी हो गया था कि शुभ की शक्तियां कमजोर और नपुंसक सिद्ध न हों, वह अशुभ की शक्तियों के सामने खड़ी हो जाएं।

आज फिर करीब-करीब हालत वैसी हो गई है और हो जाएगी बीस साल के भीतर। एक तरफ भौतिकवाद, "मटीरियलिज्म' अपनी पूरी ताकत के साथ खड़ा हो गया जाएगा, और दूसरी तरफ फिर कमजोर ताकतें होंगी शुभ की। शुभ में एक बुनियादी कमजोरी है। वह लड़ने से हटना चाहता है। अर्जुन भला आदमी है। अर्जुन शब्द का मतलब होता है, सीधा-सादा। तिरछा-इरछा जरा-भी नहीं। अ-रिजु। बहुत सीधा-सादा आदमी है। सरल चित्त है। देखता है कि फिजूल की झंझट कौन करे, हट जाओ। अर्जुन सदा ही हटता रहा है। वह जो अ-रिजु आदमी है, जो सीधा-सादा आदमी है, वह हट जाता है। वह कहता है, मत झगड़ा करो, जगह छोड़ दो। कृष्ण अर्जुन से कहीं ज्यादा सरल हैं, लेकिन सीधे-सादे नहीं। कृष्ण की सरलता की कोई माप नहीं है। लेकिन सरलता कमजोरी नहीं है, और सरलता पलायन नहीं है। वह जम कर खड़े हो गए हैं, वे नहीं भागने देंगे। शायद फिर पृथ्वी दो हिस्सों में बंट जाएगी। सदा ऐसा होता है, कि निर्णायक, "डिसीसिव मॉमेंट' आ जाते हैं, जब फिर लड़ने की बात होती है। उसमें गांधी और विनोबा और रसल काम नहीं पड़ेंगे। क्योंकि एक अर्थ में वे सब अर्जुन हैं। वे कहेंगे, हट जाओ; वे कहेंगे, मर जाओ लेकिन लड़ो मत।

कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर जरूरत है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए। शुभ को भी तलवार हाथ में लेने की हिम्मत रखनी चाहिए। निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो नहीं सकता। क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। लेकिन अशुभ जीत न पाए, इसलिए लड़ाई है।

तो धीरे-धीरे दो हिस्से दुनिया के बंट जाएंगे, जल्दी ही, जहां एक हिस्सा भौतिकवादी होगा और एक हिस्सा स्वतंत्रता, लोकतंत्र, व्यक्ति और जीवन के और मूल्यों के लिए होगा। लेकिन क्या ऐसे दूसरे शुभ के वर्ग को कृष्ण मिल सकते हैं? मिल सकते हैं। क्योंकि जब भी मनुष्य की स्थितियां इस जगह आ जाती हैं जहां कि कुछ निर्णायक घटना घटने को होती है, तो हमारी स्थितियां उस चेतना को भी पुकार लेती हैं उस चेतना को भी जन्म दे देती हैं। वह व्यक्ति भी जन्म जाता है। इसलिए भी मैं कहता हूं कि कृष्ण का भविष्य के लिए बहुत अर्थ है। और जब साधारण, सीधे-सादे, अच्छे आदमियों की आवाजें बेमानी हो जाएंगी--क्योंकि बुरा आदमी अच्छे आदमी की आवाजों से न डरता है, न भय खाता है, न रुकता है। तो वह बढ़ता चला जाता है। बल्कि अच्छा आदमी जितना सिकुड़ता है, बुरे आदमी के लिए उतना ही आनंदपूर्ण हो जाता है।

महाभारत के बाद हिंदुस्तान में बहुत अच्छे आदमी हुए--बुद्ध हैं, महावीर हैं--इनकी अच्छाई की कोई कमी नहीं है। इनकी अच्छाई की कोई सीमा नहीं है। लेकिन इनकी अच्छाई के प्रभाव में मुल्क सिकुड़ गया। हमारा चित्त सिकुड़ गया। और उस सिकुड़े हुए चित्त पर सारी दुनिया के आक्रामक टूट पड़े। आक्रमण करने ही हम नहीं जाते हैं, आक्रमण को बुलाते भी हमीं हैं। और जब तुम किसी को मारते हो, तभी तुम जिम्मेवार नहीं होते, जब तुम किसी की मार खाते हो तब भी तुम जिम्मेवार होते ही हो। क्योंकि किसी के चेहरे पर चांटा मारना भी एक कृत्य है जिसमें पचास प्रतिशत तुम जिम्मेवार हो, पचास प्रतिशत वह आदमी जिम्मेवार है जिसने चांटे को निमंत्रित किया है। सहा, "पैसीविटी' दिखाई, स्वीकार किया, बुलाया कि मारो। अगर तुम पर कोई चांटा मारता है तो पचास "परसेंट' तुम भी जिम्मेवार होते हो, तुम बुलाते हो।

अच्छे आदमियों की एक लंबी कतार ने--निपट अच्छे आदमियों की लंबी कतार ने--इस मुल्क के मन को सिकोड़ दिया, और हमने बुलाया, आमंत्रण दिया कि आओ। हमारा आमंत्रण मानकर बहुत लोग आए। उन्होंने हमें वर्षों तक गुलाम रखा, दबाया, परेशान किया। अपनी मौज से वे चले भी गए। लेकिन हम अभी भी, हमारी मनोदशा संकोच की ही है। हम फिर किसी को बुला सकते हैं। अगर कल माओ प्रवेश कर जाए इस मुल्क में, तो उसके लिए जिम्मेदार अकेला माओ नहीं होगा। लेनिन ने बहुत वर्षों पहले एक भविष्यवाणी की थी कि मास्को से कम्यूनिज्म पेकिंग और कलकत होता हुआ लंदन पहुंचेगा। उसकी भविष्यवाणी बड़ी सही मालूम पड़ती है। पेकिंग तो पहुंच गया। कलकत्ते में उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी है। लंदन ज्यादा दूर नहीं है। अब कलकत्ते में कम्यूनिज्म को प्रवेश करने में कोई कठिनाई नहीं है; क्योंकि भारत का मन सिकुड़ा हुआ है। वह आ जाएगा, उसको स्वीकार करके देश और दब जाएगा। इसलिए इस देश को तो कृष्ण पर पुनर्विचार करना ही चाहिए।

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित

साभार ओशो ज्ञान गंगा 



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