शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

स्वधर्म

 जिसे स्वधर्म की खोज करनी हो, उसे बाहर की दुनिया से कम से कम चौबीस घंटे में घंटेभर के लिए बिलकुल छुट्टी ले लेनी चाहिए, और भीतर की दुनिया में डूब जाना चाहिए। कर देने चाहिए द्वार बंद बाहर के। कह देना चाहिए बाहर के जगत को बाहर, और अब मैं होता भीतर। सब इंद्रियों के द्वार बंद करके भीतर घंटेभर के लिए डूब जाना चाहिए। वहीं पता चलेगा उस रहस्य का जो स्व है, जो निजता है। वहीं से सूत्र मिलेंगे, ध्वनि सुनाई पड़ेगी, वहीं से इशारे मिलेंगे। और धीरे-धीरे इशारे गहरे होते चले जाते हैं। पहले आवाज बड़ी छोटी होती है। स्वधर्म का पता अंतर की वाणी के अतिरिक्त और कहीं से नहीं चलता है।

घंटेभर के लिए चौबीस घंटे में, बंद कर देना बाहर की दुनिया को, भूल जाना; छोड़ देना सब बाहर का बाहर; अपने भीतर डुबकी लगा जाना। उस डुबकी में धीरे-धीरे भीतर की अंतर्वाणी सुनाई पड़नी शुरू होगी। सबके भीतर छिपा है वह।  छोटी है आवाज--धीमी, नाजुक, सूक्ष्म। केवल वे ही सुन सकते हैं, जो उतनी सूक्ष्म आवाज को सुनने के लिए अपने को ट्रेन करते हैं, प्रशिक्षित करते हैं।

इसलिए आज आप आंख बंद करके बैठ जाएंगे, तो भीतर की आवाज नहीं सुनाई पड़ेगी। आंख बंद करके भी बाहर की ही आवाज सुनाई पड़ती रहेगी। कल, परसों--बैठते रहें, बैठते रहें, जल्दी न करें, घबड़ाएं न। तेईस घंटे बाहर की दुनिया को दे दें, एक घंटा अपने को दे दें। बस, आंख बंद करें और सुनने की कोशिश करें भीतर। सुनने की कोशिश, जैसे भीतर कोई बोल रहा है, उसे सुन रहे हैं।

जैसे कि इतनी भीड़ है। यहां बहुत लोग बातचीत कर रहे हैं और आपको किसी की बात सुननी है, तो आप सबकी बातों को छोड़कर अपनी पूरी चेतना और एकाग्रता को उस आदमी के ओठों के पास लगा देते हैं। वह फुसफुसाकर भी बोलता हो, विस्पर भी करता हो, तो भी आप सुनने की कोशिश करते हैं--और सुन पाते हैं। चेतना सिकुड़कर सुनती है, तो सुन पाती है। एकाग्र हो जाती है, तो सुन पाती है।

जल्दी न करें। एक घंटा तय कर लें स्वधर्म की खोज के लिए। आपको पता नहीं, लेकिन आपकी अंतरात्मा को पता है कि क्या है आपका स्वधर्म। आंख बंद करें। मौन हो जाएं। चुप बैठकर सुनें। मौन, सिर्फ भीतर ध्यान को करके, सुनने की कोशिश करें कि भीतर कोई बोलता है! कोई आवाज!

बहुत-सी आवाजें सुनाई पड़ेंगी। पहचानने में कठिनाई न होगी कि ये बाहर की आवाजें हैं। मित्रों के शब्द याद आएंगे, शत्रुओं के शब्द; दुकान, बाजार, मंदिर, शास्त्र--सब शब्द याद आएंगे। पहचान सकेंगे भलीभांति, बाहर के सुने हुए हैं। छोड़ दें। उन पर ध्यान न दे। और भीतर! और प्रतीक्षा करते रहें।

अगर तीन महीने कोई सिर्फ एक घंटा चुप बैठकर प्रतीक्षा कर सके धैर्य से, तो उसे भीतर की आवाज का पता चलना शुरू हो जाएगा। और एक बार भीतर का स्वर पकड़ लिया जाए, तो आपको फिर जिंदगी में किसी से सलाह लेने की जरूरत न पड़ेगी।

जब भी जरूरत हो, आंख बंद करें और भीतर से सलाह ले लें; पूछ लें भीतर से कि क्या करना है। और स्वधर्म की यात्रा पर आप चल पड़ेंगे। क्योंकि भीतर से स्वधर्म की ही आवाज आती है। भीतर से कभी परधर्म की आवाज नहीं आती। परधर्म की आवाज सदा बाहर से आती है।

जो व्यक्ति अपने भीतर की इनर वॉइस, अंतर्वाणी को नहीं सुन पाता, वह व्यक्ति कभी स्वधर्म के तप को पूरा नहीं कर पाएगा। यह जो स्वधर्मरूपी यज्ञ की बात कृष्ण ने कही है, यह वही व्यक्ति पूरी कर पाता है, जो अपने भीतर की अंतर्वाणी को सुनने में सक्षम हो जाता है।

लेकिन सब हो सकते हैं, सबके पास वह अंतर्वाणी का स्रोत है। जन्म के साथ ही वह स्रोत है, जीवन के साथ ही वह स्रोत है। बस, हमें उसका कोई स्मरण नहीं। हमने कभी उसे टैप भी नहीं किया; हमने कभी उसे खटकाया भी नहीं; हमने कभी उसे जगाया भी नहीं। हमने कभी कानों को प्रशिक्षित भी नहीं किया कि वे सूक्ष्म आवाज को पकड़ लें।

इसमें एक बात और आपको खयाल दिला दूं कि भीतर की आवाज एक बार सुनाई पड़नी शुरू हो जाए, तो आपको अपना गुरु मिल गया। वह गुरु भीतर बैठा हुआ है। लेकिन हम सब बाहर गुरु को खोजते फिरते हैं। गुरु भीतर बैठा हुआ है।

परमात्मा ने प्रत्येक को वह विवेक, वह अंतःकरण, वह कांसिएंस, वह अंतर की वाणी दी है, जिससे अगर हम पूछना शुरू कर दें, तो उत्तर मिलने शुरू हो जाते हैं। और वे उत्तर कभी भी गलत नहीं होते। फिर वह रास्ता बनाने लगता है भीतर का ही स्वर, और तब हम स्वधर्म की यात्रा पर निकल जाते हैं।

अंतर्वाणी को सुनने की क्षमता ही स्वधर्मरूपी यज्ञ का मूल आधार है।





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