शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 15 भाग 3

 संकल्‍प—संसार का या मोक्ष का


न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पाक्क:।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 6।।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।

मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। 7।।

शरीरं यदवाम्नोति यच्‍चाप्‍युत्‍क्रामतीश्‍वर:।

गृहीत्‍वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्:।। 8।।

श्रोत्रं चक्षु: स्यर्शनं च रमनं घ्राणमेव च।

आधिष्ठाय मनश्चायं विश्यानुपसेवते।। 9।।


उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चंद्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते है वही मेरा परम धाम है।

और हे अर्जुन, इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और  इन की त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है।

जैसे कि वायु गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिकों का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है, उससे इन मन सहित इंद्रियों की ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।

और उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्‍मा श्रोत्र, चक्षु और त्‍वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों की सेवन करता है।


उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चंद्रमा और न अग्नि ही। तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है।

पहली बात, इस जगत में जो भी हम देखते हैं, वह दूसरे से प्रकाशित है। आप मुझे देख रहे हैं; बिजली बुझ जाए, फिर आप मुझे नहीं देख सकेंगे। मैं आपको देख रहा हूं; बिजली बुझ जाए, फिर मैं आपको नहीं देख सकूंगा। आप हैं, लेकिन कोई और चीज चाहिए, जिसके द्वारा आप प्रकाशित हैं।

दिन में दिखाई पड़ता है, रात में दिखाई नहीं पड़ता। आंख तो होती है, चीजें भी होती हैं, लेकिन सूरज नहीं होता। सभी चीजें पर—प्रकाश चाहती हैं। कोई और चाहिए, जो प्रकाशित कर सके। कृष्ण कह रहे हैं, लेकिन मेरा परम धाम वहां है, जहां न तो सूर्य के प्रकाश की कोई जरूरत है, न चंद्र के प्रकाश की कोई जरूरत है; न अग्नि की कोई जरूरत है, जहां दूसरे प्रकाश की कोई जरूरत नहीं है। मेरा परम धाम स्व—प्रकाशित  है।

यह बात बड़ी समझ लेने जैसी है। क्योंकि यह बहुत गहरा और मौलिक आधार है समस्त साधना का। और इसकी खोज ही साधक का लक्ष्य है। ऐसी कौन—सी घटना है जो स्व—प्रकाशित है? ऐसा क्या अनुभव है जो स्व—प्रकाशित है?

आप आंख बंद कर लें, तो मैं नहीं दिखाई पडूंगा। आंख बंद करके लेकिन आप तो अपने को दिखाई पड़ते ही रहेंगे। शरीर दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन स्वयं का होना तो प्रतीत होता ही रहेगा। दीया बुझ जाए, मैं आपको दिखाई नहीं पडूंगा। लेकिन आप अपने को तो अनुभव करते ही रहेंगे कि मैं हूं। आपके होने के लिए तो किसी और प्रकाश की जरूरत नहीं है।

तो आपके होने में कोई एक तत्व चेतना का है, जो स्वयं प्रकाशित है; जिसका होना अपने आप में काफी है। यह जो चेतना की हल्की—सी झलक आपके भीतर है, यही झलक जब पूरी प्रकट हो जाती है, तो कृष्ण कहते हैं, वह परम धाम मेरा है; वही मैं हूं।

उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है—न करने की कोई जरूरत है—न चंद्रमा और न अग्नि, तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है।

यहां कृष्ण कह रहे हैं कि जितना ही व्यक्ति चेतन होता चला जाता है, उतना ही वह परम धाम की तरफ गति करता है। और जिस दिन परम चैतन्य प्रकट होता है, उस परम चैतन्य को प्रकाशित करने के लिए किसी की भी कोई जरूरत नहीं है, वह स्व—प्रकाशित है। और एक ही बात इस जगत में स्व—प्रकाशित है, वह स्वयं का होना है। उसके लिए किसी प्रमाण की कोई जरूरत नहीं है। उसको असिद्ध करने का भी कोई उपाय नहीं है। अगर आप यह भी कहें कि मैं नहीं हूं, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके कहने से सिर्फ आपका होना ही सिद्ध होता है।

और अंधा आदमी भी अपने को अनुभव करता है। अंधेरे में भी आप अपने को अनुभव करते हैं। आपकी आंखें चली जाएं, आपके कान खो जाएं, आपके हाथ काट दिए जाएं, आपकी जीभ काट दी जाए, आपकी नाक नष्ट कर दी जाए, तो भी आप अपना अनुभव कर सकते हैं, तो भी आप होंगे और आपकी प्रतीति में रत्तीभर का भी फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि आंखों से दूसरे देखे जाते हैं, स्वयं नहीं। कानों से दूसरे सुने जाते हैं, स्वयं नहीं। सारी इंद्रियां भी खो जाएं, तो भीतर के होने में जरा भी अंतर नहीं पड़ता।

वह जो भीतर का होना है, वहा कोई प्रकाश नहीं है, फिर भी आप जानते हैं कि आप हैं। और आप कभी भीतर नहीं गए हैं अभी। अगर आप भीतर जाएं, तो आपको वहा भी प्रकाश का अनुभव होना शुरू हो जाएगा।



ध्यान में जो लोग भी गति किए हैं, उन सभी का अनुभव प्रकाश का अनुभव है। वे किस प्रकाश को जानते हैं?

कबीर कहते हैं कि जैसे आकाश में बिजलियां चमक रही हैं, ऐसा मेरे भीतर कुछ हो रहा है। दादू कहते हैं कि जैसे हजार सूरज एक साथ उग गए हों, ऐसा मेरे भीतर कुछ उग आया है। फिर चाहे मुसलमान फकीर हों, ईसाई फकीर हों, सभी फकीरों का अनुभव है कि जब भीतर ध्यान की गहराई उतरती है, तो परम प्रकाश के अनुभव होते हैं।

वह प्रकाश न तो सूरज का है, न अग्नि का है, न चांद का है। वह प्रकाश कहां से आता है? वह प्रकाश कहीं से भी नहीं आता; आप स्वयं ही वह प्रकाश हैं। आपका होना ही वह प्रकाश है।

इस प्रकाश को कह रहे हैं कृष्ण कि वह मेरा परम धाम है। और जो उस स्थिति को उपलब्ध हो जाता है, वह इस संसार में वापस नहीं लौटता। वही मूल—स्रोत है, वही उदगम है।

और हे अर्जुन, इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है।

उस स्व—प्रकाशित ज्योति—पुंज का एक हिस्सा ही प्रत्येक देह के भीतर छिपा है।

इसे हम ऐसा समझें। आप आंख बंद कर लें, तो आप अपने विचारों को देख सकते हैं। आंख बंद है; विचार देखे जा सकते हैं। कौन देखता है? भीतर क्रोध उठे, कामवासना उठे, आप उसे भी देख सकते हैं। कौन देखता है? वह जो देखने वाला है, उसको आप नहीं देख सकते।

जिस—जिसको आप देख सकते हैं, वह—वह आप नहीं हैं, यह गणित है। और जो सबको देखता है, लेकिन स्वयं नहीं देखा जा सकता, वह आप हैं। वही आपका मूल उत्स है। उससे पीछे जाने का कोई उपाय नहीं। नहीं तो उसको भी आप देख लेते। उससे पीछे खड़े हो जाते, उसको भी देख लेते। लेकिन उसे आप नहीं देख सकते।

सब देख सकते हैं। शरीर देखा जा सकता है, मन के विचार देखे जा सकते हैं; हृदय की भावनाएं देखी जा सकती हैं; कुंडलिनी के अनुभव देखे जा सकते हैं; सब देखा जा सकता है। जो भी देखा जा सकता है, वह आपका स्वभाव नहीं है। देखने वाला जो है, वही आपका स्वभाव है। वह जो द्रष्टा है, वह इररिडयूसिबल है। उसे आप दृश्य नहीं बना सकते। उसको आप विषय नहीं बना सकते। वह हमेशा विषयी है। वह हमेशा सब्जेक्ट है, वह आब्जेक्ट नहीं हो सकता।

जैसे ही सारे विषय खो जाते हैं, और सिर्फ जानने वाला ही रह जाता है, और जानने को कुछ नहीं बचता, परम प्रकाश का उदय होता है। यह परम प्रकाश बाहर से नहीं आता, न सूरज से, न चांद से, यह आपके भीतर ही छिपा है।

सूरज भी चुक जाएगा। उसकी गरमी भी कम होती है। यह बिजली भी चुक जाएगी। दीया जलता है, तेल चुक जाएगा, दीया बुझ जाएगा। सिर्फ एक ज्योति है, जो कभी नहीं बुझती, क्योंकि वह बिना ईंधन के जलती है, वह चेतना की ज्योति है। कोई तेल उसे नहीं जलाता। कोई ईंधन, कोई पेट्रोल, कोई बिजली, कोई हीलियम गैस उसे नहीं जलाती। इसलिए उसके समाप्त होने का कोई उपाय नहीं है। वह शाश्वत है।

वैज्ञानिक बड़ी खोज करते हैं कि कोई ऐसा प्रकाश उपलब्ध हो जाए, जो बिना ईंधन के चले। क्योंकि सब ईंधन चुकते जाते हैं, सब ईंधनों की सीमा है। कोयला खत्म होता जाता है, पेट्रोल खत्म होता जाता है। आज नहीं कल सब ईंधन चुक जाएंगे। और आदमी बिना ईंधन के जी नहीं सकता। तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई है। वैज्ञानिक सोचते हैं, ईंधनरहित कोई प्रकाश।

और कृष्ण उसी प्रकाश की बात कर रहे हैं। वह प्रकाश प्रत्येक के भीतर है। लेकिन उसे यंत्र से पैदा करने का कोई भी उपाय नहीं है। चैतन्य उसी प्रकाश का नाम है।

इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है—उस परम प्रकाश का ही अंश है—और वही इन त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है।

और यह जो चेतना का अंश आपके भीतर है, यही आपकी पांचों इंद्रियों को अपने में आकर्षित किए हुए है, सम्हाले हुए है। यह थोड़ा समझने जैसा है। क्योंकि बडी भ्रांति है इस संबंध में।

आमतौर से आदमी सोचते हैं कि इंद्रियों ने आपको बांधा हुआ है। कृष्ण कह रहे हैं कि आप ही इंद्रियों को पकड़े हुए हैं। इंद्रियां आपको क्या बांधेगी! इंद्रियां जड़ हैं, वे आपको बांधें, इसका कोई उपाय नहीं है। आप बंधे हुए हैं। और यह आपका ही संकल्प है; यह आपका ही निर्णय है। इस निर्णय की बड़ी प्रक्रिया है।

आप रूप देखना चाहते हैं। रूप देखने की जो वासना है, वह आपकी आंखों को आपसे बांधे रखती है। उस वासना के रज्‍जु से आंख बंधी रहती है। अगर आपकी देखने की इच्छा खो जाए, आप इसी क्षण अंधे हो जाएंगे।

आप आंखों को पकड़े हैं, क्योंकि देखना चाहते हैं। कान को पकड़े हैं, क्योंकि सुनना चाहते हैं। हाथ को पकड़े हैं, क्योंकि छूना चाहते हैं। आपकी चाह आपकी इंद्रियों के और आपके बीच सेतु है। इसलिए बुद्ध ने कहा है कि आंखें मत फोड़ो; कान बंद करने से कुछ भी न होगा। चाह को गिरा दो, चाह को हटा दो, तो इंद्रियों से संबंध धीरे— धीरे अपने आप छूट जाता है।

ध्यान रहे, आप आमतौर से यही सुनते रहे हैं कि इंद्रियों ने आपको बांधा है, इंद्रिया दुश्मन हैं। और कृष्ण बिलकुल उलटी बात कह रहे हैं। क्या कह रहे हैं कि आपने इंद्रियों को चाहा है; उनका उपयोग किया है। आपने ही उनको खींचा और आकर्षित किया है, इसलिए वे हैं। और जिस दिन आप निर्णय करेंगे, जिस दिन आपका रुख बदल जाएगा, आपकी धारा भीतर बहने लगेगी, उसी दिन इंद्रिया तिरोहित हो जाएंगी।

इंद्रियों को दोष मत दें। दोष किसी का भी नहीं है। आपका संकल्प है। आपकी चेतना ने इस शरीर में रहना चाहा है, इसलिए शरीर में है। जिस दिन नहीं रहना चाहेगी, उसी दिन शरीर छूट जाएगा।

अगर यह बात खयाल में आ जाए, तो इंद्रियों से जो दुश्मनी चलती है, वह बंद हो जाए। वह मूढूतापूर्ण है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है। और वह गलत है। उसके परिणाम भयानक हैं। क्योंकि आप इंद्रियों से लड़ने में शक्ति गंवा देते हैं। और लड़ाई वहा अर्थहीन है। लड़ाई कहीं और होनी चाहिए। लड़ाई होनी चाहिए कि मेरा इंद्रियों को पकड़ने का रुख कम हो जाए।

मन सहित पांचों इंद्रियों को वही आकर्षण करता है। जैसे कि वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिको का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है, उससे इन मन सहित इंद्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।

जब आप मरते हैं, तब भी आप सूक्ष्म इंद्रियों को अपने साथ ले जाते हैं। जैसे हवा फूलों की गंध को अपने साथ ले जाती है। फूल को तो नहीं ले जा सकती, फूल तो पीछे रह जाता है, लेकिन हवा का झोंका फूल की गंध को अपने साथ ले जाता है। आपकी चेतना शरीर को तो नहीं ले जा सकती, लेकिन शरीर को पकड़ने की जो वासना है, उसको गंध की तरह अपने साथ ले जाती है।

उसी वासना के आधार पर, उसको हिंदुओं ने सूक्ष्म इंद्रियां कहा है। आंख स्थूल इंद्रिय है; देखने की वासना सूक्ष्म इंद्रिय है। जीभ स्थूल इंद्रिय है; स्वाद की आकांक्षा सूक्ष्म इंद्रिय है। फूल तो पड़े रह जाते हैं।

आप जानकर चकित होंगे कि हिंदू मरे हुए आदमी के शरीर की हड्डियां जब मरघट से उठाकर लाते हैं, तो उनको फूल कहते हैं। बिलकुल प्यारा शब्द है।

फूल पड़े रह जाते हैं, लेकिन गंध आपके साथ चली जाती है। और वह जो गंध आपके साथ चली जाती है, वह नए जन्मों की तलाश करती है। वह नए शरीर खोजती है, नए गर्भ खोजती है। और जैसी आपकी वासना होती है, वैसा गर्भ आपको उपलब्ध हो जाता है।

जो आप होना चाहते हैं, जो आप होना चाहने की कामना इकट्ठी करते रहे हैं, वही संगृहीभूत हो जाती है, वही क्रिस्टलाइज हो जाती है। नई देह का निर्माण... आप नई देह को पकड़ लेते हैं।

यह तब तक चलता रहेगा, जब तक हवा गंध को ले जाती रहेगी। यह उस दिन बंद हो जाएगा, जिस दिन हवा फूल को ही नहीं छोड़ेगी, गंध को भी छोड़ देगी। हवा खाली उड़ जाएगी।

बुद्ध ऐसे ही उड़ते हैं। महावीर ऐसे ही उड़ते हैं। फूल भी छोड़ जाते हैं, गंध भी छोड़ जाते हैं। फिर कोई देह उपलब्ध नहीं होती, फिर कोई गर्भ उपलब्ध नहीं होता। फिर किसी शरीर में प्रवेश का उपाय नहीं रह जाता। प्रवेश का उपाय आपको साथ लेकर चलना पड़ता है।

और उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है।

फिर यात्रा शुरू हो जाती है। फिर वही भोग शुरू हो जाता है। फूल बदल जाते हैं, गंध की यात्रा चलती रहती है। इंद्रियां बदल जाती हैं, वासना की यात्रा चलती रहती है।

इंद्रियों को छोड़ना नहीं है, वासनाओं को छोड़ देना है। इंद्रियां अपने से छूट जाती हैं। लेकिन हमें इंद्रियां छोड़ना आसान मालूम पड़ता है। कोई भोजन छोड़ देता है, कोई भोजन में नमक छोड़ देता है, कोई भोजन में घी छोड़ देता है, कोई भोजन में शक्कर छोड़ देता है, कोई आंखें नीची करके चलने लगता है, कोई स्त्री के स्पर्श से भयभीत हो जाता है; कोई कीमती वस्त्र का स्पर्श नहीं करता। यह सब इंद्रियों का छोड़ना है।

यह वैसे ही है, जैसे कोई जीवन से ऊबा हुआ आदमी आत्महत्या कर ले। और आत्महत्या से जीवन समाप्त नहीं होता; सिर्फ देह बदलती है। मरे नहीं कि नया शरीर ग्रहण हो जाएगा। और आत्महत्या करने वाले को और भी विकृत देह के उपलब्ध होने की संभावना है। क्योंकि जिसने अपने को नष्ट करना चाहा, उसका चित्त विकृत अवस्था में है। और इस विकृति की छाप उसके ऊपर रहेगी, आत्महत्या की।

आपने अपने को आग लगाकर जला लिया। तो एक क्षण में तो नहीं जल जाएंगे। जलने के पहले सोचेंगे, विचारेगे, सब विकृति भीतर इकट्ठी होगी। फिर आग लगाएंगे। फिर तड़पेंगे। फिर उस तड़पती हुई आग में बचना भी चाहेंगे, और बच भी न सकेंगे। पुकारेंगे, चीखेंगे, सोचेंगे कि भूल हो गई; बड़ा विषाद उत्पन्न होगा, बड़ा संताप, बड़ी पीड़ा होगी। और उस पीड़ा में मरेंगे।

इस पीड़ा की छाप, ये कुंठित वासनाएं, ये जलती हुई आग की लपटें, सब की गंध आपके साथ चली जाएगी। गंध तो जाएगी ही, दुर्गंध भी जाएगी, उत्तप्तता भी जाएगी। और नया गर्भ आप लेंगे, वह गर्भ भी विकृत, उत्तप्त होगा। उसमें भी आप अपंग पैदा होंगे, अंधे पैदा होंगे, टूटे—फूटे पैदा होंगे, खंडहर की तरह पैदा होंगे। क्योंकि खंडहर करने की जो चेष्टा आपने की, उसका संस्कार अपने साथ ले आए।

लेकिन यह तो हमारी समझ में आ जाता है कि इस तरह कोई अपने को आत्मघात करे तो पाप है, बुरा है और इसके दुष्परिणाम होंगे। लेकिन छोटी—छोटी आत्महत्याएं लोग करते हैं, वे हमारी समझ में नहीं आती हैं।

एक आदमी आंखें बंद करके बैठ जाता है। वह एक बटे पांच आत्महत्या हुई, क्योंकि पांच इंद्रियां हैं। एक आदमी ने पांचों को जला लिया, और एक आंख बंद करके बैठ गया।

सूरदास की हमने कथा सुनी है। अगर सूरदास ढंग के आदमी रहे हों, तो कथा झूठी होनी चाहिए। अगर कथा सच्ची हो, तो सूरदास ढंग के आदमी नहीं हो सकते। कथा है कि एक सुंदर युवती को देखकर उन्होंने अपनी आंखें फोड़ लीं।

यह तर्क तो समझ में आता है। इस तरह के बहुत सूरदास हैं। लेकिन सुंदर स्त्री की जो वासना उठती है, वह सुंदर स्त्री से नहीं उठ रही है, वह मेरे भीतर से उठ रही है। वह मेरी आंखों से भी नहीं उठ रही। आंखों से मेरे भीतर से आ रही है, आंखों से गुजर रही है। उस सुंदर स्त्री को शायद पता भी न हो कि कोई उसके पीछे सूरदास हो गया। और इन आंखों का कोई कसूर भी न था। आंखें तो वहीं गईं, जहां मैं ले जाना चाहता था। आंखों ने वही देखा, जो मैं देखना चाहता था। आंखों ने वही चाहा, जो मेरी चाह थी। आंखें मेरा अनुसरण कर रही थी। और मैंने आंखें फोड़ दीं।

यह आत्महत्या हुई, एक बटा पांच। इस तरह की आत्महत्या करने वाले को हम साधु कहते हैं। मगर यह भी विकृति है। और इस तरह की आत्महत्या करने वाला भी दुर्गति को उपलब्ध होता है। सवाल इंद्रियों को नष्ट करने का है ही नहीं, सवाल इंद्रियों से मुक्त होने का है। और इंद्रियों ने आपको नहीं बांधा है, आपने उनको बांधा है। इसलिए इंद्रियों का कहीं भी कोई कसूर नहीं है। आपका भी कोई कसूर नहीं है। अगर आप चाहते हैं यही, तो कोई कसूर नहीं है। पर इसे होशपूर्वक होने दें। फिर इसमें प्रसन्न हों। फिर वैराग्‍य की कामना न करें।

राग की कामना कर रहे हैं और वैराग्य के सवाल उठाते हैं, तब आप दुविधा में पड़ जाते हैं।

रोज मेरे पास लोग आते हैं, जिनका कष्ट एक ही है, राग और वैराग्य की दुविधा। राग तो उनके जीवन का रस है और किन्हीं सिरफिरों की बातें सुनकर वैराग्य उनको पकड़ गया है। तो वैराग्य भी उनके सिर में घूम रहा है। और राग उनकी अवस्था है। अब इन दो झंडों के नीचे उनकी यात्रा चल रही है। इससे वे बड़े कष्ट चुनाव है। और अगर इस गुलामी को भी मैंने चुना है, तो जिस क्षण में हैं और खंडित हो गए हैं, टूट गए हैं, स्‍प्‍लिट। दो आदमी हैं मैं चाहूं उसी क्षण तोड़ सकता हूं। यह ध्यान आते ही रुख बदल उनके भीतर। एक राग की तरफ खींचता है, एक वैराग्य की तरफ जा सकता है।

इसलिए एक क्षण में समाधि लग सकती है, और एक क्षण में इस संताप से कोई आत्म—उपलब्धि होने वाली नहीं है। वैराग्य और राग साथ—साथ नहीं जी सकते हैं। जब तक राग है, तब तक वैराग्य को पकड भी नहीं सकते आप, सिर्फ सोच सकते हैं शब्दों में। शब्दों में सोचने का कोई अर्थ नहीं है, वह निष्प्राण है।

अपने राग को ठीक से समझें। और यह भी समझें कि यह मेरा संकल्प है। यह मैंने ही तय किया है, चाहे अनंत जन्मों पहले तय किया हो। यह मेरा ही निर्णय है कि मैं शरीर की यात्रा पर जाता हूं; इस संसार के सागर में उतरता हूं; इस संसार के वृक्ष में डूबता हूं; यह मेरा निर्णय है। मैं नियंता हूं। जिस दिन मैं यह निर्णय बदलूंगा, उसी दिन धारा बदल जाएगी। कोई मुझे ले जा नहीं रहा है।

यह हिंदू विचार अनूठा है। कोई मुझे ले जा नहीं रहा है, मैं मालिक हूं; इस गुलामी में भी मैं मालिक हूं। मैं जा रहा हूं यह मेरा बोध उत्पन्न हो सकता है। बुद्ध होने के लिए अनंत जन्मों की जरूरत नहीं है। एक क्षण में भी घटना घट सकती है।

कृष्ण यही अर्जुन को कह रहे हैं कि मेरा ही अंश तेरे भीतर है, सबके भीतर है। उसी अंश ने इंद्रियों को पकडा है। और वही अंश उन इंद्रियों की गंध को ले जाता है नई यात्राओं पर। जिस क्षण तू जान लेगा कि तेरा संकल्प ही तेरी यात्रा है, उस क्षण तू चाहे तो यात्रा रुक सकती है। और अगर तू यात्रा करना चाहे, तो कर सकता है। लेकिन तब यात्रा खेल होगी; तब यात्रा लीला होगी। क्योंकि तू ही कर रहा है; कोई करवा नहीं रहा है। तेरी ही मौज है।

इस संबंध में यह बड़ी क्रांतिकारी बात है। क्योंकि ईसाई सोचते हैं कि ईश्वर ने दंड दिया आदमी को, इसलिए संसार है। अदम ने भूल की, पाप किया, गुनाह किया, तो निष्कासित किया अदम को। मुसलमान भी वैसा ही सोचते हैं। जैन सोचते हैं कि आदमी ने कोई पाप किया, कोई कर्म—बंध किया, उसकी वजह से भटक रहा है। बुद्ध भी ऐसा ही सोचते हैं।

हिंदुओं का सोचना बहुत अनूठा है। हिंदू चितना यह है कि यह तुम्हारा संकल्प है। न तुम्हारा पाप है, न किसी ने तुम्हें दंड दिया है, न कोई दंड देने वाला बैठा है। और पाप तुम करोगे कैसे? कभी तो तुमने शुरुआत की होगी! कभी तो पहले दिन तुमने किया होगा बिना किसी पिछले कर्म के! आज हो सकता है कि मैं जो कर रहा हूं—पिछले कर्मों के कारण, पिछले जन्म में और पिछले कर्मों के कारण। लेकिन प्रथम क्षण में तो बिना किसी कर्म के मैंने कुछ किया होगा। वह मेरा संकल्प रहा होगा। वह मैंने चाहा होगा।

अगर यह मेरी चाह से ही संसार का वृक्ष है, तो मेरी चाह से ही समाप्त हो जा सकता है। राग संसार में उतरने का संकल्प है, वैराग्य संसार से पार होने का संकल्प है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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