गुरुवार, 12 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 14भाग 3

  


रजो रागत्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।

तन्‍न्‍िबघ्‍नति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।। 7।।

तमस्थ्यानजं विद्धि मोहन सर्वदेहिनाम्।

प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्‍निबध्‍नाति भारत।। 8।।

सत्यं सुखे संजयीत रज: कर्मणि भारत।

ज्ञानमावृत्‍य तु तम: प्रमादे संजयन्वत।। 9।।


हे अर्जुन, रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्‍न हुआ जान। वह हम जीवात्मा को कर्मों की और उनके फल की आसक्ति से बांधता है।

और हे अर्जुन, सर्व देहाभिमानियों के मोहने वाले तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान। वह इस जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है।


क्योंकि हे अर्जुन, सत्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में लगाता है तथा तमोगुण तो ज्ञान को आच्‍छादन करके अर्थात ढंककर प्रमाद में भी लगाता है।


हे अर्जुन, रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न हुआ जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों की और उनके फल की आसक्ति से बांधता है।

इनमें तीनों गुणों की, जो कि बांधने वाले तत्व हैं..।

संस्कृत में गुण शब्द का एक अर्थ रस्सी भी है, जिससे बांधा जाए। इनको गुण इसलिए भी कहा जाता है कि ये बांधते हैं। इसलिए हम परमात्मा को निर्गुण कहते हैं।

निर्गुण का यह मतलब नहीं कि उसमें कोई गुण नहीं हैं। निर्गुण का यह मतलब है कि उस पर कोई बंधन नहीं हैं। वह कहीं बंधा हुआ नहीं है। ये तीन गुण उसमें नहीं हैं, जो बांध सकते हैं। वह इन तीन के बंधन के बाहर है। उसकी निर्गुणता का अर्थ है, वह परम स्वतंत्र है। और आपके भीतर जो छिपा है, वह भी परम स्वतंत्र है। लेकिन उसके चारों तरफ बंधन है। बंधन से आपकी स्वतंत्रता नष्ट नहीं हो गई है, सिर्फ अवरुद्ध हो गई है।

 कोई भी चेतना किसी भी स्थिति में स्वतंत्रता तो नहीं खोती है, लेकिन अवरोध खडे हो जाते हैं। और अगर अवरोधों से हमारा लगाव हो जाए, तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। वही कठिनाई है। हमारे हाथ में जंजीरें नहीं हैं। और अगर जंजीरें हैं, तो हम उनको आभूषण समझे हुए हैं। और हमने उनमें हीरे, चांदी, सोना जड़ लिया है। हमने उनमें रंग—बिरंगे चित्र बना लिए हैं। अब अगर कोई हमारी जंजीर तोड़ना भी चाहे, तो हम उसको समझेंगे, यह दुश्मन है, हमारे सौंदर्य को, हमारे आभूषण को नष्ट कर रहा है।

और जब भी कोई व्यक्ति अपनी जंजीर को आभूषण समझ ले, तो उसकी स्वतंत्रता बहुत मुश्किल हो गई। अगर कोई कारागृह को अपना घर समझ ले और सजावट करने लगे, तब फिर उसके छुटकारे का कोई उपाय न रहा। छुटकारे के लिए पहली बात तो जान लेनी जरूरी है कि मैं कारागृह में हूं। और इसे सजाना नहीं है, इसे तोड़ना है। और जो मुझे बांधे हुए हैं, वे आभूषण नहीं हैं, जंजीरें हैं। उनसे गौरवान्वित नहीं होना है, उनसे छुटकारा पाना है।

हे अर्जुन, रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न हुआ जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों की और उनके फल की आसक्ति से बांधता है।

सत्वगुण को कृष्‍ण ने कहा कि वह सुख की आसक्ति और ज्ञान का अभिमान, इससे बांधता है।

जिसको हम पांडित्य कहें, वह सत्व से बंधा हुआ व्यक्तित्व है। जिसको हम साधुत्व कहें, वह भी सत्व से बंधा हुआ व्यक्तित्व है। उसकी दो आकांक्षाएं हैं। एक आकांक्षा है कि उसे सुख मिले। इसलिए वह स्वर्ग को खोजता है। स्वर्ग का मतलब है, जहां दुख बिलकुल न हो, सिर्फ सुख हो। वह स्वर्ग की खोज के लिए सब कुछ करने को तैयार है। तप करेगा, पूजा, यज्ञ, सब करेगा, लेकिन स्वर्ग मिले। ऐसी जगह मिल जाए, जहां सुख ही सुख हो; शुद्ध सुख हो और दुख न हो। सत्व ऐसे लोगों को बांध लेता है।

स्वर्ग भी बंधन है। देवता मुक्त नहीं हैं।

धनी के पास कितना ही धन हो, धन के खोने का डर तो दुख देता ही है। इसलिए हम कांपते रहते हैं कि कब हमारा सुख छिन जाए। और सुख हमने कमाया है पुण्यों से, उसकी एक मात्रा है। पुण्य चुक जाएंगे, सुख चुक जाएगा। तब हम वापस दुख में फेंक दिए जाएंगे। तो हम कंपित हैं। हम डरे हुए हैं। हम घबड़ाए हुए हैं। हमें आश्वस्त करें। आप सुख से भी मुक्त हो गए हैं। अब आपको कोई भय न रहा। अब आपको कोई कंपा नहीं सकता; क्योंकि आपसे अब कोई कुछ छीन नहीं सकता। आपके पास कुछ है ही नहीं जो छीना जा सके। आप सिर्फ आप हैं, जिसको छीनने का कोई उपाय नहीं है, चुराने का कोई उपाय नहीं है, मिटाने का कोई उपाय नहीं है। आप उस परम मुक्त अवस्था को उपलब्ध हो गए हैं, जिसके लिए देवता भी तरसते हैं, हम तरसते हैं।


सत्व देवत्व तक ले जा सकता है। वह शुद्धतम जंजीर है, सुंदरतम जंजीर है। तो जिनके मन में सुख की गहरी आकांक्षा है—सुख की, शाति की या आनंद की—जिनके मन में गहरी आकांक्षा है सुख की, आनंद की, शांति की, वे सत्व से मुक्त न हो पाएंगे। क्योंकि सत्व सुख देता है। और जो सुख देता है, उससे हम बंध जाएंगे।

जिनके मन में आसक्ति है, लगाव है, जो किसी दूसरे व्यक्ति के ऊपर निर्भर होते हैं अपने सुख लिए......। पति है, वह कहता है, पत्नी के बिना मैं नहीं जी सकता। या पत्नी है, वह कहती है, पति मरेंगे तो मैं सती हो जाऊंगी, उनकी चिता पर जल जाऊंगी। उनके बिना नहीं जी सकती।

सती आसक्ति का गहनतम प्रतीक है। मेरा जीवन किसी और के जीवन पर पूरी तरह निर्भर है, उसके बिना कोई अर्थ नहीं है, कोई सार नहीं है। फिर मर जाना उचित है। फिर मृत्यु भी हितकर मालूम होती है बजाय जीवन के।

तो जब कोई व्यक्ति आसक्ति से किसी से बंधता है, तो ऐसी आसक्ति और कामना से जो उत्पन्न होता है, वह रजोगुण है। या इस जीवात्मा के कर्मों की और उनके फल की आसक्ति जो है, उससे रजोगुण उत्पन्न होता है।

एक तो आसक्ति है, किसी से बंध जाना। ऐसा बंध जाना कि लगे कि मेरे प्राण मेरे भीतर नहीं, उसके भीतर हैं। यह व्यक्ति के साथ भी हो सकता है, वस्तु के साथ भी हो सकता है। कुछ लोग हैं कि उनके प्राण उनकी तिजोरी में हैं। आप उनको मारो, वे न मरेंगे। तिजोरी को मार दो, वे मर जाएंगे।

रजोगुण ऐसी आसक्ति से बढ़ता है, निर्मित होता है। और ऐसा व्यक्ति सदा ही फलों की आसक्ति से बंधा होता है। क्या मिलेगा अंत में? वह उसकी नजर में होता है। वह हमेशा फल को देखता है। वृक्ष की उसे चिंता नहीं होती। वह सब कर सकता है, लेकिन फल! नजर में, आंख में, प्राण में एक ही बात गूंजती रहती है, फल! ऐसा व्यक्ति सदा दुखी होगा। दुखी इसलिए होगा कि वह जो भी करेगा, उसमें तो उसे कोई रस नहीं है। रस तो फल में है। फल सदा भविष्य में है।

और ऐसे व्यक्ति की धीरे— धीरे एक व्यवस्था हो जाती है मन की कि वह वर्तमान में देख ही नहीं सकता। और जब फल भी आएगा, तब भी वह फल को नहीं देख पाएगा, क्योंकि फल तब वर्तमान हो जाएगा और उसकी आंखें फिर भविष्य में देखेंगी।

तो ऐसा व्यक्ति फल के द्वारा फिर किसी और फल को खोजने लगता है। पहले वह धन कमाता है। धन उसकी आकांक्षा होती है। फिर जब धन मिल जाता है, तो उस धन से वह और धन कमाने लगता है। फिर यही चलता है।

उसकी हालत ऐसी है कि एक रास्ते का उपयोग दूसरे रास्ते तक पहुंचने के लिए करता है। फिर दूसरे रास्ते का उपयोग तीसरे रास्ते तक पहुंचने के लिए करता है। जिंदगीभर वह रास्तों पर चलता है और मंजिल कभी नहीं आती। आएगी नहीं। क्योंकि हर साधन का उपयोग वह फिर किसी दूसरे साधन तक पहुंचने के लिए करता है। साध्य का कोई सवाल नहीं है।

और ऐसे व्यक्ति की नजर सदा साध्य पर लगी होती है। उसको दिखता है हमेशा फल। इसके पहले कि वह कुछ करे, वह अंत में देख लेता है। और अंत को देखकर ही चलता है।

इसमें बड़ी कठिनाइयां हैं। अगर वस्तुत: उसे अंत मिल भी जाए, तो भी उसकी आगे देखने की आदत उसे अंत का सुख न लेने देगी। और अंत मिलना इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि फल आपके हाथ में नहीं है। फल हजारों कारणों के समूह पर निर्भर है। और कोई भी व्यक्ति इतना समर्थ नहीं है कि जगत के सारे कारणों को नियोजित कर सके।

आप धन कमा रहे हैं। धन कमा लेंगे, यह आप पर ही निर्भर नहीं है। यह करोडों कारणों पर निर्भर है, यह मल्टी काजल है।

समझ लें, एक क्रांति हो जाए; धन किसी का रह ही न जाए, सामूहिक संपत्ति हो जाए। संपत्ति का वितरण हो जाए। आप जब तक धन कमा पाएं, तब तक महंगाई इतनी बढ़ जाए कि धन का कोई मूल्य न रह जाए।

जिंदगी बड़ी जटिल है। यहां आप अकेले नहीं हैं। यहां अरबों लोग हैं। अरबों कारण काम कर रहे हैं। 

फलाकांक्षी बड़ी कठिनाई में है। पहले तो वह फल मिल भी जाए—जो कि असंभव जैसा है—जो फल वह चाहता है, वह मिल भी जाए, तो वह उसको भोग न सकेगा। उसकी आदत गलत है। पहले मिलना ही मुश्किल है, क्योंकि फल आपके हाथ में नहीं है। और जब आप तय करते हैं कुछ पाने का, तब इतने कारण काम कर रहे हैं कि आप उन पर कोई कब्जा नहीं कर सकते।

अगर इस स्थिति को हम ठीक से समझें, तो इसी को कृष्ण ने कहा है कि फल भगवान के हाथ में है। करोड़ों ये जो कारण हैं, अनंत जो कारण हैं, यह अनंत कारणों का ही इकट्ठा नाम भगवान है। भगवान कहीं कोई ऊपर बैठा हुआ आदमी नहीं है, जिसके हाथ में है।

ऐसा अगर हो, तब तो हम कोई तरकीब निकाल ही लें उसको प्रभावित करने की। हम उसकी स्तुति कर सकते हैं, खुशामद कर सकते हैं। उस पर काम न चले, तो उसकी पत्नी होगी, उसको प्रभावित कर सकते हैं। उसके लड़के—बच्चे होंगे, कोई नाता—रिश्ता खोज सकते हैं, कोई रास्ता बन ही सकता है। अगर कहीं भगवान है व्यक्ति की तरह, तो हम से बच नहीं सकता। हम फल को नियोजित कर सकते हैं। उसके माध्यम से हम कुछ तय कर सकते हैं।

लेकिन ऐसा भगवान नहीं है। भगवान का कुल अर्थ है, इस जगत का जो अनंत विस्तार है अनंत कारणों का, इन अनंत कारणों के जोड़ का नाम भाग्य या भगवान है—जो भी आपको पसंद हो। जब हम कहते हैं, फल भाग्य के हाथ में है, तो इसका मतलब इतना है कि मैं अकेला नहीं हूं, अरबों कारण काम कर रहे हैं।

आप अपने घर से निकले। आप बड़ी योजनाएं बनाए चले जा रहे हैं। दूसरा आदमी अपनी कार लेकर निकला। वे शराब पी गए हैं। आपको उनका बिलकुल पता नहीं है कि वे चले आ रहे हैं तेजी से आपकी तरफ कार भगाते हुए। वे कब आपको पटक देंगे सड़क पर आपकी योजनाओं के साथ, आपको कुछ पता नहीं है। उनका आपने कुछ बिगाड़ा नहीं दिखाई पड़ता ऊपर से। शराब आपने उन्हें पिलाई नहीं। मगर वह सारी जिंदगी का नक्‍शा बदल दे सकते हैं। प्रतिपल हजारों काम आपके आस—पास चल रहे हैं। आप असहाय हैं। आप कर क्या सकते हैं? लेकिन जो आदमी फल पर बहुत आकांक्षा बांध लेता है, वह बड़ी मुश्किल में पड़ता है, क्योंकि फल पूरे नहीं हो पाते। जब पूरे नहीं हो पाते, तो विषाद से भर जाता है।

कृष्ण कहते हैं कि यह जो फल की आसक्ति है, यह रजोगुण का स्वभाव है!

और हे अर्जुन, सर्व देह—अभिमानियो के मोहने वाले तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान। वह इस जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है।

सत्व, ज्ञान और सुख के द्वारा, रज, आसक्ति और फल की आकांक्षा के द्वारा; और तम, अज्ञान, मूर्च्छा, प्रमाद, आलस्य के द्वारा है।

प्रमाद शब्द को ठीक से समझ लेना चाहिए। उसमें सारा रस तम का छिपा हुआ है। प्रमाद का अर्थ है, मूर्च्छा का एक भाव, बेहोश, अजागरूक। चले जा रहे हैं, किए जा रहे हैं, लेकिन कोई सावधानी नहीं है। जो भी कर रहे हैं, ऐसे कर रहे हैं, जैसे नींद में हों। क्यों कर रहे हैं, इसका पक्का पता नहीं। करें या न करें, इसका कोई बोध नहीं। क्या कर रहे हैं, इस ठीक करते हुए क्षण में चेतना का ध्यान, चेतना का प्रवाह उस कम की तरफ नहीं।

खाना खा रहे हैं। हाथ खाना खाए जा रहे हैं, यंत्रवत, क्योंकि उनकी आदत हो गई है। मन कहीं भागा हुआ है। मन न मालूम किन लोकों की यात्राएं कर रहा है! न मालूम मन किस काम में संलग्न है। तो आप यहां नहीं हैं। आप यहां बेहोश हैं।

बड़ा अनूठा प्रयोग है अनापानसती—योग का, बड़ा सरल, कि श्वास का मुझे बोध बना रहे। जब श्वास नाक को छुए, भीतर जाती श्वास, तो मुझे पता रहे कि उसने स्पर्श किया नाक का। फिर नाक के भीतरी अंतस हिस्सों का स्पर्श किया, फिर श्वास भीतर गई, फेफड़ों में भरी, पेट ऊपर उठा, फिर श्वास वापस लौटने लगी। उसका आने का मार्ग, जाने का मार्ग, दोनों का बोध हो।

बर्मा (म्यांमार )  में इसे वे विपस्सना कहते हैं। विपस्सना का मतलब है, देखना। देखते रहना, ध्यानपूर्वक देखते रहना।

कोई भी एक क्रिया को ध्यानपूर्वक देखते रहने का परिणाम परम बोध हो सकता है। और कोई व्यक्ति अगर अपने दिनभर की सारी क्रियाओं को देखता रहे, तो उसका प्रमाद टूट जाएगा। जब प्रमाद टूट जाता है, तो तम का बंधन गिर जाता है।

लेकिन हम सब बेहोश जीते हैं। हम जो भी करते हैं, वह ऐसा करते हैं, जैसे हिप्नोटाइज हैं। कुछ होश नहीं; चले जा रहे हैं, किए जा रहे हैं, यंत्रवत।

यह यंत्रवतता, आलस्य, प्रमाद, निद्रा, ये तम की आधारशिलाए हैं। इसलिए कृष्ण गीता में कहते हैं कि योगी, जब आप सोते हैं, तब भी सोता नहीं।

आप तो जब जागते हैं, तब भी सोते ही हैं। आपका जागना भी जागना नहीं है, सिर्फ नाममात्र जागना है। आप खुद भी कोशिश करें, तो कई बार दिन में अपने को सोया हुआ पकड़ लेंगे। जरा ही चौंकाएं अपने को ।

योगी, कृष्ण कहते हैं, सोता है तब भी सोता नहीं। उसका कुल मतलब इतना है कि उसके तम का जो बंधन है, वह टूट गया। प्रमाद नहीं है। विश्राम करता है। लेकिन भीतर उसके कोई जागा ही रहता है, जागा ही रहता है। कोई दीया जलता ही रहता है। वहा कोई पहरेदार सदा बना ही रहता है। ऐसा कभी नहीं कि घर खाली हो और पहरेदार सोया हो। वहा कोई पहरे पर बैठा ही रहता है।

आपकी क्रियाएं ध्यानपूर्वक हो जाएं, तो अप्रमाद फलित होता है। और आपकी क्रियाएं गैर— ध्यानपूर्वक हों, तो प्रमाद होता है। हे अर्जुन, सब देहाभिमानियों को मोहने वाले तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान।

और अज्ञान का अर्थ यहां जानकारी की कमी नहीं है। अज्ञान का अर्थ है, आत्म—अज्ञान, अपने को न जानना।

जो अपने को नहीं जानता, वह जागेगा भी कैसे? वह किसको जगाए? कौन जगाए? और जो जागा हुआ नहीं है, वह अपने को कभी जानेगा कैसे? वे दोनों एक—दूसरे पर निर्भर बातें हैं। जो जितना ही जागता है, उतना ही स्वयं को पहचानता है। जो जितना स्वयं को पहचानता है, उतना ही जागता चला जाता है। परम जागरण आत्मज्ञान बन जाता है।

तमोगुण अज्ञान है। रजोगुण आसक्ति है। सत्वगुण सूक्ष्म अभिमान है, शुद्ध अभिमान है। ये तीन बंधन हैं।

क्योंकि हे अर्जुन, सत्वगुण सुख में लगाता है, रजोगुण कर्म में लगाता है, तमोगुण तो ज्ञान को आच्छादन करके, ढंककर प्रमाद में लगाता है।

और तीन ही तरह के व्यक्ति हैं इस जगत में। तीनों गुण सभी के भीतर हैं। लेकिन सभी के भीतर तीनों गुण समान मात्राओं में नहीं हैं। किसी के भीतर सत्वगुण प्रमुख है, तो सत्वगुण दो को दबा देता है। इसको ठीक से समझ लें।

जिस व्यक्ति के भीतर सत्वगुण प्रमुख है, जिसे शांति, सुख, ज्ञान की तलाश है, उस व्यक्ति का रजोगुण, उस व्यक्ति का तमोगुण भी इसी तलाश में संलग्न हो जाता है। उस व्यक्ति के पास जितनी कर्मठता है, जितनी शक्ति है, जितनी ऊर्जा है रज की, वह सारी ऊर्जा वह ज्ञान की तलाश में लगा देता है। वह सारी ऊर्जा, वह सारा कर्म सुख की खोज में लग जाता है। और उस व्यक्ति के भीतर जितना तम है, जितना आलस्य है, वह सब भी ज्ञान की तलाश में, सुख की तलाश में, विश्राम की जो जरूरत पड़ेगी, उसमें लग जाता है।

अगर किसी व्यक्ति में तम प्रमुख है, तो उसके पास छोटी—मोटी बुद्धि अगर हो, थोड़ी—बहुत समझ हो, तो वह समझ को भी अपने आलस्य को सिद्ध करने में लगाता है। वह अपनी समझ को भी इस तरह उपयोग करता है कि आलस्य का रेशनलाइजेशन हो जाए, वह बुद्धियुक्त मालूम होने लगे। वह कहेगा, करने से क्या सार है? करके क्या कर लोगे? करने से क्या मिलने वाला है?

उसके पास जो भी रजोगुण है, जो भी ऊर्जा है, शक्ति है, वह इस शक्ति को भी इस भांति नियोजित करेगा कि वह कर्म न बन पाए। वह क्रियाएं तो करेगा, लेकिन क्रियाएं ऐसी होंगी, जो उसे और आलस्य में ले जाएं। वह आदमी चलेगा, तो चलकर शराबघर पहुंच जाएगा। उसकी क्रिया चलने में लगेगी, लेकिन जाएगा वह शराबघर। अगर उसको शराब खरीदनी हो, तो वह दिन में मेहनत भी करेगा। लेकिन मेहनत करके खरीदेगा शराब।

अगर किसी व्यक्ति में रजोगुण प्रमुख हो, तो वह अपनी सारी चेतना को, सारी शक्तियों को भाग—दौड़ में लगा देगा। क्रिया प्रमुख हो जाएगी। करना ही जैसे लक्ष्य हो जाएगा। कुछ करके दिखाना है। वह अपना सुख भी छोड़ सकता है उसके लिए, अपना विश्राम भी छोड़ सकता है। लेकिन कुछ करके दिखाना है।

इतिहास ऐसे ही लोग बनाते हैं, जिनमें रजोगुण प्रमुख है। राजनेता रजोगुणी है। कुछ करके दिखाना है। नाम छोड़ जाना है। इतिहास के पृष्ठों पर लिखा जाए।

और ध्यान रहे, तायनबी ने, एक बहुत बड़े इतिहासज्ञ ने, एक बहुत मधुर बात कही है। उसने कहा है, इतिहास बनाना ज्यादा आसान है बजाय इतिहास लिखने के। क्योंकि इतिहास तो गधे भी बना सकते हैं।

इतिहास बनाने में क्या लगता है? गोडसे बनने में क्या दिक्कत है? एक पिस्तौल चाहिए एक छुरा चाहिए, एक हथगोला काफी है। कुछ भी उपद्रव तो कर ही सकते हैं। इतिहास निर्मित होना शुरू हो जाता है। अब जब तक गांधी की याददाश्त रहेगी, तब तक गोडसे को भूलने का कोई उपाय नहीं। गोडसे ने किया क्या है? करने के नाम पर बहुत ज्यादा नहीं है। उपद्रव किया जा सकता है।

जिनमें भी रजोगुण भारी है, वे किसी न किसी तरह के उपद्रव में, किसी तरह की मिस्चीफ में संलग्न होते हैं। अगर वे बुरे हो जाएं, तो डाकू हो जाएंगे। अगर बुरे न हों, भाग्य से ठीक शिक्षा—संस्कार मिल जाए, तो राजनेता हो जाएंगे। डाकुओं को थोड़ी अकल हो जाए, तो राजनेता हो जाएंगे। राजनेताओं की थोड़ी अकल खो जाए, तो डाकू हो जाएंगे। उनमें परिवर्तन जरा भी दिक्कत का नहीं है। वे करीब ही खड़े हैं। वे सगे, मौसेरे भाई— भाई हैं।

अगर छोटा—मोटा हत्यारा हो, तो हत्यारा रह जाएगा। अगर बड़ा हत्यारा हो, तो तैमूर, चंगेज और हिटलर के साथ जुड़ जाएगा। अगर छोटी—मोटी किसी की संपत्ति पर कब्जा करे, तो चोर समझा जाएगा। अगर बडे साम्राज्यों पर कब्जा कर ले, तो सम्राट हो जाएगा। और साधु उसका गुणगान करेंगे, प्रशस्ति लिखेंगे।

रजोगुणी अपनी सारी शक्ति को लगा देता है, सारी समझ को, सारे विश्राम को, एक ही काम में कि कुछ करना है। वह करना कहां ले जाएगा, उस करने का क्या अर्थ होगा, करने का कोई परिणाम शुभ होगा, अशुभ होगा, इसका बहुत प्रयोजन नहीं है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हिटलर बचपन में चित्रकार होना चाहता था, पेंटर होने की आकांक्षा थी। और बैठकर बड़े चित्र बनाता रहता था। लेकिन कई एकेडमी में गया वह, लेकिन सभी जगह से उसको निराश वापस लौटना पड़ा। वह कुशल चित्रकार नहीं हो सकता था। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि काश, उसको किसी एकेडमी ने जगह दे दी होती, तो वह कागज रंगने में समय बिता देता, दुनिया का इतना उपद्रव नहीं होता। हो सकता था लाल रंग से कागज रंगता, लेकिन इतने खून से जमीन न रंगता।

लेकिन वह चित्रकार नहीं हो सका। वह बेचैनी उसको रह गई। उसके कुछ कर के दिखाना था। उसे कुछ बड़ा होना था। और वह बेचैनी धीरे— धीरे राजनीति की तरफ मुड़ गई। फिर वह खतरनाक आदमी साबित हुआ। हालांकि चित्रकला से उसका प्रेम कभी नहीं खोया। अपने कमरे में खूबसूरत चित्र उसने लगा रखे थे और चित्रों का पारखी था। संगीत में उसे रस था और पुराने शास्त्रीय संगीत के रिकार्ड सुनता था। वह एक चित्रकार हो सकता था। लेकिन उसकी सारी, रजोगुण की सारी शक्ति, जो चित्रकार बनने के दरवाजे से लौट गई, वह राजनीति में नियोजित हो गई।

इंग्लैंड अकेला मुल्क है आज, जहां विद्यार्थियों का बहुत उपद्रव नहीं है। सारी जमीन पर उपद्रव है। और कुल कारण इतना है कि इंग्लैंड अकेला ही मुल्क है, जहां विद्यार्थियों को अभी भी दो —तीन घंटे खेल के मैदान पर खेलना पड़ता है। रजोगुण नियोजित हो जाता है।

तीन घंटे जो बच्चा फुटबाल या वालीबाल खेलकर लौटा है, उससे आप कहो कि पत्थर मारो, कांच तोड़ो लोगों के मकान के, वह कहेगा, घर जाने दो। जो बच्चा छ: घंटे बैठा रहा है कुर्सी पर और हिलने भी नहीं दिया गया। और शिक्षक कहता है, बिलकुल बुद्धवत बैठे रहना। पत्थरों को छुपाकर रखे है। यह लडका कुछ तोड़ना चाहेगा, फेंकना चाहेगा।

फुटबाल या वालीबाल सिर्फ फेंकने, मिटाने, तोड्ने के व्यवस्थित उपाय हैं, कुछ और नहीं है। आखिर कर क्या रहा है, हाकी खेल रहा है एक लड़का। हाकी में नहीं मारने दोगे इसको लट्ठ, तो यह किसी के सिर पर मारेगा। यह जो गेंद है, यह सिर का काम कर रही है। इसका निकला जा रहा है रजोगुण।

दुनिया में विश्वविद्यालय जलाए जा रहे हैं, स्कूल तोड़े जा रहे हैं। वह तब तक जारी रहेगा, जब तक कि युवकों का रजोगुण नियोजित नहीं होता। और खतरे इसलिए बढ़ गए हैं। रजोगुण तो पहले भी था, लेकिन रजोगुण नियोजित हो जाता था।

हम अपने मुल्क में बाल—विवाह कर देते थे। रजोगुण को मौका नहीं रहता था कि जाकर काच तोड़े, आग लगाए, बसें जलाए, कुछ उपद्रव करे। इसके पहले कि होश सम्हले एक पत्नी बांध देते थे। वह इतना बड़ा वजन है कि उससे बड़ा वजन कोई है ही नहीं। उसको ही ढोओ। उसमें सारा रजोगुण नियोजित हो जाता है। इसके पहले कि अकल में थोड़े—बहुत अंकुर आएं, बच्चे पैदा हो जाएंगे। अब लड़ने—झगड़ने का इनके पास कहीं कोई उपाय नहीं। ये बड़े शांतमूर्ति मालूम पड़ेंगे!

इस भारत में ऐसे ही लोग थे बड़ी संख्या में उसका कारण और कुछ नहीं था। यह नहीं कि लोग धार्मिक थे। कुल कारण इतना था कि रजोगुण को सुविधा नहीं थी। लोग इसके पहले कि उपद्रव कर पाएं, उपद्रव की शक्ति किसी दिशा में संलग्न हो जाती थी।

अब सारी दुनिया में बच्चे जवान हो जाते हैं, न तो विवाहित किए जा रहे हैं, न उनके ऊपर कोई जिम्मेवारी है। मां—बाप सुख संपन्न हैं। उनके पास सुविधा है। तो लड़के पच्चीस और तीस साल तक आवारागर्दी कर सकते हैं। यह खतरनाक वक्त है। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, अठारह साल में वीर्य की ऊर्जा अपने शिखर को छू लेती है। इतनी शक्ति फिर जीवन में दुबारा नहीं होगी, जितनी अठारह साल में होगी।

अठारह साल, जब कि शक्ति अपने पूरे तूफान में है, उसका कोई नियोजन नहीं है। उसको कोई दिशा नहीं है बहने के लिए। केतली के नीचे आग जल रही है पूरी ऊर्जा से और ढक्कन बंद है। और निकालने का हम जो रास्ता बताते हैं, वह कोई रास्ता नहीं है, कि हम उनको कहते हैं, युनिवर्सिटी में पढ़ो—लिखो किताब! किताब से कोई ऊर्जा नहीं निकलती। उसमें थोड़े से जो सत्वगुण प्रधान युवक हैं, उनके लिए तो ठीक है। लेकिन बाकी का क्या हो?

पिछले जमाने में तो जो सत्वगुण प्रधान थे, वे ही विश्वविद्यालय तक पहुंचते थे, बाकी जिंदगी में लग जाते थे। अब सभी को विश्वविद्यालय पहुंचाने की सुविधा हो गई है। सौ में कोई पाच सत्वगुण प्रधान होंगे, बाकी जो पंचानबे हैं, उनके साथ बड़ा खतरा है। उस पंचानबे में आधे के करीब रजोगुण प्रधान हैं, जिनकी शक्ति का कोई उपयोग नहीं हो रहा है। किताब जिनकी शक्ति को नहीं पी सकती, परीक्षाएं जिनकी शक्ति को नहीं पी सकतीं। तो वे परीक्षा और किताब के माध्यम से भी उपद्रव खड़ा कर देंगे। हर परीक्षा के वक्त उपद्रव खड़ा हो जाएगा।

यह उपद्रव जो कर रहा है, वह रजोगुण प्रधान है। और बाकी जो आधे बचे तमोगुण प्रधान, वे आलसी हैं। वे कुछ भी न करेंगे। अगर युनिवर्सिटी में आग लग रही है, तो बुझाने वे जाने वाले नहीं; वे खडे देखते रहेंगे। न वे लगाने वाले को रोकने वाले हैं, न लगने वाली आग को रोकने वाले हैं।

आज विश्वविद्यालय में तीन तरह के वर्ग हैं। एक छोटा—सा वर्ग है, जो पीड़ित है। वह सत्वगुण प्रधान है। वह पीड़ित है सबसे ज्यादा, क्योंकि उसको काम ही करने, वह जो करना चाहता है, कि अध्ययन करे, कि शोध करे, वह कोई करने नहीं दे रहा उसको। पर वह बहुत कमजोर है। क्योंकि वह रजोगुण प्रधान नहीं है कि लड़ सके, उपद्रव कर सके। इसके बहुत पहले कि लड़ने की हालत आए, उसकी आंख पर चश्मा लग जाता है, उसकी कमर झुक जाती है। वह अपना अपनी पुस्तक में, अपने अध्ययन में लगा हुआ है। उसको इस सबका मौका नहीं है।

बड़ा वर्ग है, जो उपद्रव करना चाहता है। क्योंकि उसके पास शक्ति है और शक्ति को बहने के लिए रास्ता चाहिए।

फिर तीसरा वर्ग है, जो आलसी है। जो सिर्फ देखता है। जो तमाशबीन हो सकता है ज्यादा से ज्यादा। जो कोई पक्ष नहीं लेता। कुछ भी हो रहा हो, वह देखता रहता है।

व्यक्ति में जो भी तत्व प्रमुख होगा, बाकी दो तत्व उसके पीछे संलग्न हो जाते हैं।

सत्वगुण सुख में लगाता है, रजोगुण कर्म में और तमोगुण प्रमाद में डुबा देता है।

इन तीनों गुणों से मुक्ति चाहिए। कैसे तीनों गुणों से मुक्ति हो सकती है, उसकी साधना—विधि नें हम आगे प्रवेश करेंगे।

और जब भी कोई व्यक्ति तीनों गुणों के बाहर हो जाता है, उसे हमने गुणातीत अवस्था कहा है। वह परम सिद्धि है। इसलिए कृष्ण शुरू में कहते हैं कि हे अर्जुन, जिस परम ज्ञान से सिद्धि उपलब्ध होती है, अंतिम गंतव्य उपलब्ध होता है, वह मैं तुझे फिर से कहूंगा।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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