शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 14भाग 8

 संन्‍यास गुणातीत है


अर्जन उवाच:

कैर्लिङ्गैस्त्रीनुाणानेतानतझीए भवति प्रभो।

किमाचार: कथं चैतांस्प्रीनुाणानतिवर्तते।। 21।।


श्रीभगवानवाच:


प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।

न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।। 22।।

उदासीनवदासीनो गुणैयों न विचाल्यते।

गुणा वर्तन्त इत्‍येव योऽवतिष्ठीत नेङ्ग्ले।। 23।।


अर्जुन ने पूछा कि हे पुरुषोत्तम, इन तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरूष किन— किन लक्षणों से युक्त होता है? और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है? तथा हे प्रभो? मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है?

हम प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले हे अर्जुन, जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर बुरा समझता है और न निवृत्त होने पर उनकी अकांक्षा करता है।

तथा जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है और गुण ही गुणों में बर्तते हुँ ऐसा समझता हुआ जो सच्‍चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से चलायमान नहीं होता है।


अर्जुन ने पूछा कि हे पुरुषोत्तम, इन तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन—किन लक्षणों से युक्त होता है? और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है? तथा हे प्रभो, मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है?

अर्जुन की जिज्ञासा करीब—करीब सभी की जिज्ञासा है। हम भी जानना चाहते हैं कि इन तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन लक्षणों से युक्त होता है।    जब भी कोई जागरूक पुरुष हुआ है, तो उसके शिष्यों ने निश्चित ही पूछा है कि लक्षण क्या है? वह जिस दिव्य चेतना के अवतरण की आप बात करते हैं, जिस भगवत्ता की आप बात करते हैं, उस भगवत्ता का लक्षण क्या है? हम कैसे पहचानेंगे कि कोई उस भगवत्ता को उपलब्ध हो गया? उसका आचरण कैसा होगा?

इस प्रश्न को ठीक से समझना जरूरी है।

पहली तो बात यह है कि लक्षण तो बाहर से बताए जा सकते हैं। और बाहर की सब पहचान कामचलाऊ होगी। क्योंकि दो गुणातीत व्यक्तियों के बाहर के लक्षण एक जैसे नहीं होंगे। इससे बड़ी अड़चन पैदा हुई है।

जिन्होंने महावीर से पूछा था कि उसके लक्षण क्या हैं, वे कृष्ण को गुणातीत नहीं मान सकते। क्योंकि महावीर ने वे लक्षण बताए, जो महावीर ने अनुभव किए हैं, जो महावीर के जीवन में आए। तो महावीर का भक्त जानता है कि वह जो गुणातीत व्यक्ति है, वह वस्त्र भी त्याग कर देगा, वह दिगंबर होगा।

इसलिए दिगंबरत्व लक्षण है गुणातीत का। दिगंबर परंपरा में दिगंबरत्व लक्षण है। जब तक वस्त्र हैं, तब तक कोई मोक्ष में प्रवेश नहीं कर सकता। क्योंकि वस्त्र को पकड़ने का मोह बता रहा है कि तुम अभी कुछ छिपाना चाहते हो। गुणातीत कुछ भी नहीं छिपाता। वह खुली किताब की तरह है।

तो महावीर से जिन्होंने गुणातीत के लक्षण समझे थे, वे बुद्ध को भी गुणातीत नहीं मानते। बुद्ध उसी समय जीवित थे। एक ही जगह मौजूद थे। बिहार में एक ही प्रांत में मौजूद थे। कभी—कभी एक ही गांव में एक साथ भी मौजूद थे।

महावीर को मानने वाला बुद्ध को गुणातीत नहीं मानता, स्थितप्रज्ञ नहीं मानता, क्योंकि बुद्ध कपड़ा पहने हुए हैं। वह उतनी अड़चन है। इसलिए महावीर को तो जैन भगवान कहते हैं; बुद्ध को महात्मा कहते हैं। करीब—करीब हैं। कभी न कभी वस्त्र भी छूट जाएंगे और किसी जन्म में यह व्यक्ति भी तीर्थंकरत्व को उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन अभी नहीं है।


कृष्ण को तो मानने का कोई उपाय ही नहीं रहेगा। राम को तो किसी तरह नहीं माना जा सकता। मोहम्मद या क्राइस्ट को किसी तरह नहीं माना जा सकता कि ये गुणातीत हैं। अगर महावीर से लक्षण सीखे हैं, तो कठिनाई आएगी।

अगर आपने कृष्ण से लक्षण सीखे हैं, तो भी कठिनाई आएगी। क्योंकि लक्षण कामचलाऊ हैं। वास्तविक अनुभूति तो स्वयं जब तक कोई गुणातीत न हो जाए, तब तक नहीं होगी। लेकिन यह कहना फिजूल है पूछने वाले से, कि जब तू गुणातीत हो जाएगा, तब जान लेगा। वह यह कहता है कि मैं नहीं हूं गुणातीत, इसीलिए तो पूछ रहा हूं। तो उसके पूछने को तृप्त तो करना ही होगा।

इसलिए गौण, कामचलाऊ लक्षण हैं। वे लक्षण भिन्न—भिन्न हो सकते हैं। अलग—अलग गुणातीत लोगों में भिन्न—भिन्न रहेंगे। उनके भीतर की दशा तो एक है। लेकिन उनके बाहर की अभिव्यक्ति अलग— अलग है। वह हजार कारणों पर निर्भर है।

पर हमारा मन होता है पूछने का, कि लक्षण क्या है? क्योंकि हम ऊपर से चीजों को जांचना चाहते हैं। हम जानना चाहते हैं कि कौन आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया? हम कैसे पहचानें? कोई सींग तो निकल नहीं आते कि अलग से दिखाई पड़ जाए कि यह आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया। वह आदमी आप ही जैसा आदमी होता है। सच तो यह है कि वह अति साधारण हो जाता है। क्योंकि असाधारण होने का जो पागलपन है, वह अहंकार का हिस्सा है। वैसा आदमी अति साधारण हो जाता है। विशिष्टता की तलाश उसकी बंद हो जाती है।

सभी साधारण लोग असाधारण होने की खोज कर रहे हैं। इसलिए जो वस्तुत: असाधारण है, वह बिलकुल साधारण जैसा होगा।

झेन फकीरों ने उसके गुणों में एक गुण गिनाया है, मोस्ट आर्डिनरी। अगर आप झेन फकीरों का गुण सुन लें, तो आपको बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि झेन फकीर कहते हैं, गुणातीत को तो पहचानना ही मुश्किल होगा, यही उसका पहला लक्षण है। क्योंकि वह बिलकुल साधारण होगा। उसको विशिष्ट होने का कोई मोह नहीं है। वह दिखाने की कोशिश नहीं करेगा कि मैं विशिष्ट हूं तुमसे ज्यादा जानता हूं कि तुमसे ज्यादा आचरण वाला हूं। वह यह कोशिश नहीं करेगा।

एक झेन फकीर हुआ, नान—इन। वह अपने गुरु के पास गया। वह गुरु की तलाश कर रहा था। पर उसके मन में एक सुनी हुई बात थी कि जो दावा करे कि मैं गुरु हूं, वहां से भाग खड़े होना। क्योंकि झेन फकीर कहते रहे हैं सदियों से कि वह जो गुरु होने योग्य है, वह दावा नहीं करेगा। वह उसका लक्षण है।

यह नान—इन खोजता था। बहुत गुरुओं के पास गया। लेकिन वे सब दावेदार थे और सब ने कोशिश की कि बन जाओ शिष्य। वह वहा से भाग खड़ा हुआ।

फिर एक दिन एक जंगल से गुजरते हुए एक गुफा के द्वार पर उसे बैठा हुआ एक फकीर दिखाई पड़ा। वह थका—मादा था। वह फकीर अति साधारण मालूम हो रहा था। न कोई गरिमा थी, न कोई विराट तेज प्रकट हो रहा था। न कोई आभामंडल दिखाई पड़ रहा था, जैसा कि कृष्ण, बुद्ध, महावीर के सिर के चारों तरफ बना होता है। ऐसा कुछ भी नहीं था। एक साधारण आदमी बैठा था चुपचाप; कुछ कर भी नहीं रहा था।

इसको प्यास लगी थी, भूख लगी थी। यह रास्ता भटक गया था। तो उसके पास गया। जैसे—जैसे पास गया, वैसे—वैसे लगा कि उसके पास जाने से इसके भीतर कुछ शांत होता जा रहा है। यह थोड़ा चौंका। वह आदमी—जब पास गया, तो पता चला—वह आंख बंद किए बैठा है। वह इतना शांत था कि उससे यह कहकर कि मुझे प्यास लगी है, बाधा देना इसे उचित नहीं मालूम पड़ा। तो यह चुपचाप उसके पास बैठ गया कि जब वह आंख खोलेगा, तब मैं बात कर लूंगा। लेकिन उसके पास बैठे—बैठे यह ऐसा शांत होने लगा और इसकी आंख बंद हो गई। सांझ का वक्त था। पूरी रात बीत गई।

सुबह वह फकीर उठा। उस फकीर ने यह भी नहीं पूछा कि कैसे आए? कहां से आए? कौन हो? वह उठा। उसने चाय बनाई। चाय पी फकीर ने। उसने इससे भी नहीं कहा, नान—इन से, कि तू एक चाय पी ले। फिर अपनी जगह आकर आंख बंद करके बैठ गया।

यह नान—इन भी उठा। जिस भांति फकीर ने चाय बनाई थी, इसने भी चाय बनाई। पी, और यह जाकर अपनी जगह बैठ गया। ऐसा सात दिन चला। सातवें दिन उस फकीर ने कहा कि मैं तुझे स्वीकार करता हूं। वह आदमी नान—इन का गुरु हो गया।

नान—इन ने उससे पूछा कि तुमने मुझे क्यों स्वीकार किया? तो उसने कहा, गुरु वही गुरु होने योग्य है, जो दावा न करे, और शिष्य भी वही शिष्य होने योग्य है, जो दावा न करे। तू चुप रहा और तूने यह नहीं कहा कि हम शिष्य होने आए हैं। और तू चुपचाप अनुकरण करता रहा छाया की तरह। सात दिन, जो मैंने किया, तूने किया। तूने यह भी नहीं पूछा कि यह करना कि नहीं करना।

जब वह उठकर बाहर घूमने जाए, तो यह भी बाहर चला जाए। वह चक्कर लगाए, यह भी चक्कर लगाए झोपड़े का। जब वह बैठ जाए, तो यह भी बैठ जाए।

पर नान—इन ने कहा है कि सात दिन के बाद कुछ पाने को भी नहीं बचा। सात दिन उसके साथ चुपचाप होना काफी था। मोस्ट आर्डिनरी, एकदम साधारण आदमी! वहा गुरु मिल गया।

हर परंपरा अलग लक्षण गिनाती है। हर परंपरा को लक्षण गिनाने पड़े हैं, क्योंकि पूछने वाले लोग मौजूद हैं। पूछने में थोड़ी भूल है। लेकिन स्वाभाविक भूल है। क्योंकि हम जानना चाहते हैं, वैसा पुरुष कैसा होगा।

अर्जुन पूछता है, तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन—किन लक्षणों से युक्त होता है?

लक्षण का मतलब है, जिन्हें हम बाहर से पहचान सकें। जिनसे हम कुछ अंदाज लगा सकें। पर इससे एक दूसरा खतरा।

एक खतरा तो यह पैदा हुआ कि सब धर्मों ने अलग लक्षण गिनाए। क्योंकि लक्षण गिनाने वाले ने जो लक्षण अपने जीवन में पाए थे, वही उसने गिनाए। इसलिए सब धर्मों में एक वैमनस्य पैदा हुआ। और एक के तीर्थंकर को दूसरा अवतार नहीं मान सकता। और एक के क्राइस्ट को दूसरा क्राइस्ट नहीं मान सकता। एक के पैगंबर को दूसरा पैगंबर नहीं मान सकता। क्योंकि लक्षण अलग हैं। और लक्षण मेल नहीं खाते हैं।

दूसरा खतरा यह हुआ, जो इससे भी बड़ा है, वह यह कि लक्षणों के कारण कुछ लोग लक्षण आरोपित कर लेते हैं। तब वे दूसरों को तो धोखा देते ही हैं, खुद भी धोखे में पड़ जाते हैं। क्योंकि लक्षण पूरे के पूरे आरोपित किए जा सकते हैं।

अगर यह लक्षण हो कि साधु पुरुष मौन होगा, तो आप मौन हो सकते हैं। गुणातीत पुरुष बोलेगा नहीं, तो न बोलने में कोई बहुत बड़ी अड़चन नहीं है। गुणातीत पुरुष, जो भी करने का हम लक्षण बना लें, वह लक्षण लोग नकल कर सकते हैं।

और ध्यान रहे, नकल में कोई अड़चन नहीं है। कोई भी अड़चन नहीं है। महावीर नग्न खड़े हैं, तो सैंकड़ों लोग नग्न खड़े हो गए। लेकिन नग्नता से कोई दिगंबरत्व तो पैदा नहीं होता। दिगंबरत्व शब्द का अर्थ है कि आकाश ही मेरा एकमात्र वस्त्र है। मैं और किसी चीज से ढंका हुआ नहीं हूं। जैसे मैं पूरा अस्तित्व हो गया हूं। सिर्फ आकाश ही मेरा वस्त्र है।

लेकिन आप नंगे खड़े हो सकते हैं। फिर उसमें तरकीबें निकालनी पड़ती हैं। दिगंबर जैन मुनि जहां ठहरता है, तो भक्तों को इंतजाम करना पड़ता है। पुआल बिछा देते हैं उसके कमरे में। वह नहीं कहता कि बिछाओ। क्योंकि वह कहे, तो लक्षण से नीचे गिर गया। पुआल बिछा देते हैं। वह पुआल में छिपकर सो जाता है।

क्योंकि किसी तरह का ओढ़ना नहीं कर सकते उपयोग। किसी तरह का बिछौना उपयोग नहीं कर सकते। कमरे को चारों तरफ से बिलकुल बंद कर देते हैं।

महावीर किसी कमरे में नहीं ठहरे। न किसी ने कभी पुआल बिछाई। और कोई बिछाता भी तो वे पुआल में छिपते नहीं। क्योंकि बिछाने वाला बिछा रहा होगा, आपको उसमें छिपने की कोई जरूरत नहीं है। और कौन कह रहा है कि आप कमरे में रहो? पुआल भरी है, आप बाहर चले जाओ।

लेकिन यह आदमी बेचारा सिर्फ नग्न हो गया है। इसको वस्त्रों की अभी जरूरत थी। इसको सर्दी लगती है, गर्मी लगती है। और इसमें कोई एतराज नहीं है कि इसको लगती है। कठिनाई यह है कि नाहक एक लक्षण को आरोपित करके चल रहा है।

महावीर ने कहा है कि तुम भिक्षा मांगने जाओ। तुम किसी द्वार पर पहले से खबर मत करना कि मैं भिक्षा लेने आऊंगा। क्योंकि तुम्हारे निमित्त जो भोजन बनेगा, उसमें जितनी हिंसा होगी, वह तुम्हारे ऊपर चली जाएगी। तो तुम तो अनजाने द्वार पर खडे हो जाना। जो उसके घर बना हो, वह दे दे। तुम्हारे भाग्य में होगा, तो कोई दे देगा। नहीं भाग्य में होगा, तो तुम भूखे रहना, वापस लौट आना, बिना किसी मन में बुराई को लिए, कि लोग बुरे हैं इस गांव के, किसी ने भिक्षा नहीं दी।

और महावीर ने एक शर्त लगा दी, कि अगर तुम्हारे भाग्य में है, तो तुम पक्की कसौटी कर लेना। तो तुम एक चिह्न लेकर निकलना सुबह ही। उठते ही सोच लेना कि आज भिक्षा उस द्वार से लुंगा।जिस द्वार पर एक बैलगाड़ी खड़ी हो। बैलगाड़ी में गुड़ भरा हो। गुड़ में एक बैल सींग लगा रहा हो। और सींग में गुड़ लग गया हो। ऐसा कोई भी एक लक्षण ले लेना।

यह महावीर का एक लक्षण था, जिसमें वे तीन महीने तक गांव में भटके और भोजन नहीं मिला। अब यह बड़ा अजीब—सा, जो भाव आ गया सुबह, वह..। अब यह बड़ा कठिन है कि किसी घर के सामने बैलगाड़ी में भरा हुआ गुड़ हो। फिर कोई बैल उसमें सींग लगा रहा हो। और फिर उस घर के लोग देने को राजी हों। कोई उनकी मजबूरी तो है नहीं। उन्होंने कोई कसम खाई नहीं कि देंगे ही।

तो महावीर कहते थे, भाग्य में नहीं है, तुम वापस लौट आना। गुणातीत खुद से नहीं जीता, गुणों से जीता है। प्रकृति को बचाना होगा, तो बचा लेगी।

और एक दिन—एक दिन जरूर ऐसा हुआ। तीन महीने बाद हुआ, लेकिन बराबर ऐसा हुआ कि....।

अभी भी जैन दिगंबर मुनि ऐसा करता है। लेकिन उसके फिक्स लक्षण हैं। दो—चार हर मुनि के फिक्स हैं। सब भक्त जानते हैं। वे चारों लक्षण अपने घर के सामने खड़े कर देते हैं। लक्षण ऐसे सरल हैं, घर के सामने केला लटका हो। एक केला लटका हो घर के सामने, वहा से भिक्षा ले लेंगे। तो सब मुनियों के लक्षण पता हैं।

महावीर ने यह नहीं कहा कि तुम अपने लक्षण निश्चित कर लेना। तुम रोज सुबह जो तुम्हारा पहला भाव हो, वह लेकर निकलना। इनके सब तय हैं। तो उलटी हिंसा पच्चीस गुनी ज्यादा होती है। क्योंकि एक घर से जो भिक्षा ले लेते, तो पच्चीस घर, जितने उनके भक्त गांव में होंगे, सब बनाएंगे और सब अपने घर के सामने लक्षण लटकाएंगे। और उनका लक्षण रोज मिलता है। तीन महीने तक चूकने की किसी को नौबत आती नहीं। रोज मिलेगा ही। लक्षण ही वे लेते हैं, जो सबको पता हैं। तो नकल हो सकती है।

एक बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांगने गया। एक कौआ मांस का टुकड़ा लेकर उड़ता था, वह छूट गया उसके मुंह से। वह भिक्षापात्र में गिर गया। संयोग की बात थी। बुद्ध ने भिक्षुओं को कहा है कि जो भी तुम्हारे भिक्षापात्र में डल जाए, वह तुम खा लेना, फेंकना मत। बुद्ध को भी नहीं सूझा होगा कि कभी कोई कौआ मांस का टुकड़ा गिरा देगा।

अब इस भिक्षु के सामने सवाल खड़ा हुआ कि अब क्या करना! क्योंकि बुद्ध कहते हैं। मांसाहार करना कि नहीं? गिरा तो है पात्र में ही। नियम के बिलकुल भीतर है। तो उस भिक्षु ने जाकर बुद्ध को कहा कि क्या करूं? मांस का टुकड़ा पड़ा है, इसे फेंकुं तो नियम का उल्लंघन होता है। क्योंकि भोजन का तिरस्कार हुआ। मैंने मांगा भी नहीं था, कौए ने अपने आप डाला है।

बुद्ध ने सोचा होगा। बुद्ध ने सोचा होगा, कौए रोज—रोज तो डालेंगे नहीं। कौओं को ऐसी क्या पड़ी है कि भिक्षुओं को परेशान करें। यह संयोग की बात है। तो बुद्ध ने कहा कि ठीक है; जो भिक्षापात्र में पड़ जाए, ले लेना। क्योंकि अगर यह कहा जाए कि फेंक दो इसे, तो अब एक दूसरा नियम बनता है कि भिक्षापात्र में जो पसंद न हो, वह फेंकना फिर। फिर चुनाव शुरू होगा। फिर भिक्षु वही जो पसंद है, रख लेगा, बाकी फेंक देगा। इससे व्यर्थ भोजन जाएगा। और भिक्षु के मन में चुनाव पैदा होगा।

तो आज चीन में, जापान में मांसाहार जारी है। क्योंकि भक्त मांस डाल देते हैं भिक्षापात्र में। और सब भक्त जानते हैं कि भिक्षु मांस पसंद करते हैं। वह कौए ने जो डाला था, रास्ता खोल गया। सारा चीन, सारा जापान, लाखों बौद्ध भिक्षु मांसाहार करते हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि नियम है, जो भिक्षापात्र में डाला जाए, उसे छोड़ना नहीं।

आदमी बेईमान है। वह नकल भी कर सकता है। नकल से तरकीब भी निकाल सकता है। सब उपाय खोज सकता है। लक्षण की वजह से एक उपद्रव हुआ है कि हम लक्षण को आरोपित कर सकते हैं, हम उसका अभिनय कर सकते हैं।

पर हमारे मन में उठता है कि क्या लक्षण होंगे।

कृष्ण ने जो लक्षण बताए हैं, वे कीमती हैं। यद्यपि बाहरी हैं, पर हमारे मन के लिए उपयोगी हैं।

किन लक्षणों से युक्त होता है? किस प्रकार के आचरणों वाला होता है? मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों के अतीत होता है? कृष्ण ने कहा, हे अर्जुन, जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को, रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर बुरा समझता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है।

बड़ा जटिल लक्षण है। खतरा भी उतना ही है। क्योंकि जितना जटिल है, उतना ही आपके लिए सुविधा है।

कृष्ण यह कह रहे हैं कि गुण जो भी करवाएं! तमोगुण कुछ करवाए, तो जब तमोगुण प्रवृत्ति में ले जाता है, तब दुखी नहीं होता कि मुझसे बुरा हो रहा है। रजोगुण किसी कर्म में ले जाता है, तो भी दुखी नहीं होता कि रजोगुण मुझे कर्म में ले जा रहा है। या सत्वगुण निवृत्ति में ले जाता है, तो भी सुखी नहीं होता कि मुझे सत्वगुण निवृत्ति में ले जा रहा है। न राग से दुखी होता है, न वैराग्य से सुखी होता है। जो दोनों ही चीजों को गुणों पर छोड़ देता है और समझता है, मैं अलग हूं।

इसका मतलब क्या हुआ?

आपको क्रोध आया। अब रजोगुण आपको किसी की हिंसा करने में ले जा रहा है। आप कहेंगे, यह तो लक्षण ही है गुणातीत का! इस वक्त दुख करने की कोई जरूरत नहीं है, मजे से जाओ। तो ऊपर से तो नकल हो सकती है। क्योंकि आप क्रोधित हो सकते हैं और आप कह सकते है, मैं क्या कर सकता हूं; यह तो गुणों का वर्तन है! आप हिंसा भी कर सकते हैं और कह सकते हैं, मैं क्या कर सकता हूं; यह तो गुणों का वर्तन है! मेरे भीतर जो गुण थे, उन्होंने हिंसा की।

इसीलिए मैं कह रहा हूं कि लक्षण बाहर हैं और असली बात तो भीतर है। असली बात भीतर है। वह आप ही पहचान सकते हैं कि जब आप क्रोध में गए थे, तो आप सच में क्रोध का सुख ले रहे थे या साक्षी थे। क्योंकि ध्यान रहे, जो आदमी क्रोध का साक्षी है, उसका क्रोध अपने आप निर्बीज हो जाएगा। क्रोध उठेगा भी, तो भी उसमें प्राण नहीं होंगे। क्योंकि प्राण तो हम डालते हैं। उसमें धुआं ही होगा, आग नहीं हो सकती।

कामवासना उठेगी, तो भी आपके साक्षी— भाव के रहने से कामवासना आपको ज्यादा दूर ले नहीं जाएगी। थोड़ी हिलेगी—डुलेगी; विदा हो जाएगी। क्योंकि आपके बिना सहयोग के, आपके साक्षी— भाव को खोए बिना कोई भी चीज बहुत दूर तक नहीं जा सकती। जब आप साथ होते हैं, तब चीजें दूर तक जाती हैं। लेकिन यह तो भीतरी बात है। इसको तय करना कठिन है। इसलिए जैनों ने कृष्ण को नहीं माना कि वे गुणातीत हैं। बड़ा मुश्किल है। कृष्ण तो गुणातीत हैं। लेकिन बात भीतरी है। कृष्ण उस युद्ध के मैदान पर खड़े हुए भी भीतर से वहां नहीं खड़े हैं। उस सारे जाल—प्रपंच के बीच भी भीतर से साक्षी हैं। लेकिन जैन कहते हैं, हम कैसे मानें कि वे साक्षी हैं? कौन जाने, वे साक्षी न हों और प्रवृत्ति में रस ले रहे हों?

तो जैन तो कहते हैं कि अगर प्रवृत्ति के साक्षी हैं, तो प्रवृत्ति गिर जानी चाहिए। तो वे कहते हैं, हम महावीर को मानेंगे, क्योंकि वे प्रवृत्ति छोड्कर चले गए हैं।

लेकिन दूसरी तरह भी खतरा वही है। आपकी प्रवृत्ति मौजूद हो, आप जंगल जा सकते हैं। क्या अड़चन है? और जंगल में आप ध्यान कर रहे हों। हम को लगता है, आप ध्यान कर रहे हैं। भीतर पता नहीं आप क्या सोच रहे हैं? कौन—सी फिल्म देख रहे हैं? क्या कर रहे हैं?

महावीर के जीवन में उल्लेख है। बिंबसार सम्राट, उस समय का एक बड़ा सम्राट, महावीर के दर्शन को आया। जब वह दर्शन को आ रहा था, तो उसने रास्ते में अपने एक पुराने मित्र को, जो कभी सम्राट था....... प्रसन्न कुमार उसका नाम था, वह मुनि हो गया था महावीर का, राज्य छोड़ दिया था उसने। वह बिंबसार का बचपन का मित्र था और विश्वविद्यालय में दोनों साथ पढ़े थे। वह प्रसन्न कुमार उसे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा एक पर्वत की कंदरा के पास, ध्यान में लीन, पत्थर की मूर्ति की तरह। बिंबसार का मस्तक झुक गया। उसने सोचा कि हम अभी भी संसार में भटक रहे हैं और यह मेरा मित्र कैसी पवित्रता को उपलब्ध हो गया! नग्न, पत्थर की तरह शांत खड़ा है!

वह नमस्कार करके, बिना बाधा दिए, महावीर के दर्शन को आया था। महावीर और घने जंगल में किसी वृक्ष के नीचे विराजमान थे। वह वहा गया। वहां जाकर उसने कहा कि एक बात मुझे पूछनी है। बिंबसार ने कहा कि मेरा मित्र था प्रसन्न कुमार, वह आपका मुनि हो गया है। उसने सब छोड दिया। हम संसारी हैं, अज्ञानी हैं, भटकते हैं। उसे रास्ते में खड़े देखकर मेरा चित्त बड़ा आनंदित हुआ। मेरे मन में भी भाव उठा कि कब ऐसा शुभ क्षण आएगा कि मैं भी सब छोड्कर ऐसा ही शांति में लीन हो जाऊंगा! एक सवाल मेरे मन में उठता है। अभी जैसा खड़ा है प्रसन्न कुमार, शांत, मौन, अगर उसकी अभी मृत्यु हो जाए, तो वह किस महालोक में जन्म लेगा?

महावीर ने कहा, अगर इस वक्त उसकी मृत्यु हो, तो वह स्वर्ग जाएगा। लेकिन तू जब उसके सामने झुक रहा था, उस वक्त अगर मरता, तो नरक जाता।

अभी मुश्किल से आधी घड़ी बीती थी! और बिंबसार तो चौंक गया। क्योंकि जब वह सिर झुका रहा था, तब इतना शांत खड़ा था प्रसन्न कुमार कि यह सोचता था, वह स्वर्ग में है ही। और महावीर कहते हैं कि अगर उसी वक्त मर जाता, तो सीधा नरक जाता, सातवें नरक जाता।

बिंबसार ने कहा कि मैं समझा नहीं। यह पहेली हो गई। महावीर ने कहा कि तेरे आने के पहले तेरा फौज—फाटा आ रहा है। सम्राट था; उसके वजीर, घोड़े, सेनापति, वे आगे चल रहे हैं। तेरा एक वजीर भी उसके दर्शन करने तुझ से कुछ देर पहले पहुंचा। और उसने जाकर कहा कि यह देखो प्रसन्न कुमार खड़ा है मूरख की भांति। और यह अपना सारा राज्य अपने वजीरों के हाथ में सौंप आया है। इसका लड़का अभी छोटा है। वे सब लूटपाट कर रहे हैं। वह सारा राज्य बर्बाद हुआ जा रहा है। और ये बुद्ध की भांति यहां खड़े हैं!

उसने सुना प्रसन्न कुमार ने। उसको आग लग गई। वह भूल ही गया कि मैं मुनि हूं दिगंबर। उसका हाथ तलवार पर चला गया। पुरानी आदत! उसने तलवार खींच ली। आंख बंद थीं। उसने तलवार खींचकर उठा ली। और उसने अपने मन में कहा, क्या समझते हैं वे वजीर! अभी मैं जिंदा हूं। एक—एक को गर्दन से अलग कर दूंगा। और जब यह बिंबसार उसके दर्शन कर रहा था, तब वह गर्दनें काट रहा था। बाहर मूर्तिवत खड़ा था, भीतर गर्दनें धड़ से नीचे गिराई जा रही थीं। पुराना क्षत्रिय था। मेरे जिंदा रहते मेरे लड़के को धोखा दे रहे हैं! अभी मैं जिंदा हूं। क्या समझा है उन्होंने? मुनि हो गया, इससे क्या फर्क पड़ता है! अभी आ जाऊं, तो सब का फैसला कर दूंगा।

तो महावीर ने कहा कि इस समय अगर वह मर जाए, तो स्वर्ग जाएगा। तो बिंबसार ने कहा, अब दूसरी पहेली आप मुझे कह ही दें। अब क्या हो गया इतनी जल्दी?

तो महावीर ने कहा कि जब तलवार उसने वापस रखी, सिर पर हाथ फेरा अपना ताज सम्हालने को, तो वहां तो कोई ताज नहीं था, घुटा हुआ सिर था। जब सिर पर हाथ गया, तो उसने कहा, मैं भी पागल हूं। मैं मुनि हो गया; प्रसन्न कुमार तो मर ही चुका है। कैसी तलवार? किसकी हत्या? मैं यह क्या हत्या कर रहा हूं! सजग हो गया। उसे हंसी आ गई कि मन भी कैसा पागल है। इस समय वह बिलकुल साक्षी है। इस समय वह जो परदे से उसका तादात्म्य हो गया था, वह टूट गया। अगर अभी मर जाए, तो स्वर्ग जा सकता है।

बड़ी कठिनाई है। लक्षण सब बाहर हैं। इसलिए लक्षण आप दूसरों पर मत लगाना। लक्षण आप अपने पर ही लगाना, तो ही काम के हो सकते हैं।

जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को.......।

जब सत्वगुण का प्रकाश हो, और ज्ञान जन्मे, और वैराग्य का उदय हो।

रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को।

कर्म उठें, कर्मों का जाल फैले।

तमोगुण के कार्यरूप मोह को......।

तमोगुण के कारण लोभ और मोह और अज्ञान जन्मे।

इन तीनों गुणों की प्रवृत्ति हो या निवृत्ति हो.......।

न तो प्रवृत्ति में मानता है कि बुरा है, न निवृत्ति में मानता है कि भला है। न तो प्रवृत्ति से बचना चाहता है, और निवृत्ति होने पर न प्रवृत्ति करना चाहता है। न तो आकांक्षा करता है कि ये हों, और न आकांक्षा करता है कि ये न हों। जो भी हो रहा है, उसे चुपचाप प्रकृति का खेल मानकर देखता रहता है। इसे कृष्ण ने मौलिक लक्षण कहा गुणातीत का।

तथा जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है और गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से चलायमान नहीं होता है।

गुण प्रतिपल सक्रिय हैं, उनके कारण जो चलायमान नहीं होता है। जैसे एक दीया जल रहा है। हवा का झोंका आया; दीए की लौ कांपने लगी। ऐसी हमारी स्थिति है। कोई भी झोंका आए किसी भी गुण से हम फौरन कंपने लगते हैं। गुण के झोंके आएं, तूफान चलें, भीतर कोई कंपन न हो। तूफान आएं और जाएं, आप अछूते खड़े रहें। न तो बुरा और न भला, कोई भी भाव पैदा न हो। न तो निंदा और न प्रशंसा, कोई चुनाव पैदा न हो, च्चाइसलेस, बिना चुने चुपचाप खड़े रहें।

सारी नीति हमें चुनाव सिखाती है और धर्म अचुनाव सिखाता है। नीति कहती है, यह अच्छा है, यह बुरा है। जब अच्छा उठे, तो प्रसन्न होकर करना। जब बुरा उठे, तो दुखी होना और करने से रुकना।

यह गीता का सूत्र तो बिलकुल विपरीत है। यह कह रहा है, बुरा उठे कि भला उठे, तुम कोई निर्णय ही मत लेना। बुरा उठे, तो बुरे को उठने देना। भला उठे, तो भले को उठने देना। न भले में स्तुति मानना, न बुरे में निंदा बनाना। तुम दोनों को देखते रहना कि तुम्हारा जैसे दोनों से कोई प्रयोजन नहीं है। जैसे रास्ते पर लोग चल रहे हैं और तुम किनारे खड़े हो। नदी बह रही है और तुम किनारे खड़े हो। आकाश में बादल चल रहे हैं और तुम नीचे बैठे हो। तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं। तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं। तुम बिलकुल अलग— थलग हो।

और जैसे ही कोई व्यक्ति गुणों के वर्तन से वर्तित नहीं होता, गुण कंपते रहते हैं और वह अकंप होता है, दोहरी घटना घटती है। एक तरफ जैसे ही हमारा संबंध गुणों से टूटता है, वैसे ही हमारा संबंध निर्गुण से जुड़ जाता है। इसे ठीक से समझ लें।

जब तक हम गुणों से जुड़े हैं, तब तक पीछे छिपा हुआ निर्गुण परमात्मा हमारे खयाल में नहीं है। क्योंकि हमारे पास ध्यान एक धारा वाला है। वह सारा ध्यान गुणों की तरफ बह रहा है। जैसे ही हम गुणों से टूटते हैं, यही ध्यान परमात्मा की तरफ बहना शुरू हो जाता है।

निर्गुण हमारे भीतर छिपा है। निर्गुण हम हैं और हमारे चारों तरफ गुणों का जाल है। अगर गुणों से बंधे रहेंगे, तो निर्गुण का बोध नहीं होगा। अगर गुणों से मुक्त होंगे, तो निर्गुण में स्थिति हो जाती है। और निर्गुण में स्थिति ही सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा में स्थिति है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


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