मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 13भाग 11

 साधना और समझ


अनादित्वान्‍निर्गुणत्वात्परमात्मायमब्यय:।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करौति न लिप्‍यते।। 31।।

यथा सर्वगतं सौक्ष्‍म्यादास्काशं नोयलिप्‍यते।

सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्‍यते।। 32।।  


है अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है और न लिपायमान होता है।

जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिपायमान नहीं होता है, वैसे ही सर्वत्र देह में स्थित हुआ भी आत्मा गुणातींत होने के कारण देह के गुणों से लिपायमान नहीं होता है।


हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है, न लिपायमान होता है। जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिपायमान नहीं होता, वैसे ही सर्वत्र देह में स्थित हुआ भी आत्मा गुणातीत होने के कारण देह के गुणों से लिपायमान नहीं होता है।

जो मैं कह रहा था, यह सूत्र उसी की तरफ इशारा है।

हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होता हुआ भी वास्तव में न कर्ता है, न लिपायमान होता है।

यही अत्यधिक कठिन बात समझने की है।

हम देखते हैं आकाश, सबको घेरे हुए है। सब कुछ आकाश में होता है, लेकिन फिर भी आकाश को कुछ भी नहीं होता। एक गंदगी का ढेर लगा है। गंदगी के ढेर को भी आकाश घेरे हुए है। गंदगी का ढेर भी आकाश में ही लगा हुआ है, ठहरा हुआ है, लेकिन आकाश गंदगी के ढेर से गंदा नहीं होता। गंदगी का ढेर हट जाता है, आकाश जैसा था, वैसा ही बना रहता है।

फिर एक फूल खिलता है। चारों तरफ सुगंध फैल जाती है। फूल के इस सौंदर्य को भी आकाश घेरे हुए है। लेकिन आकाश इस फूल के सौंदर्य से भी अप्रभावित रहता है। वह इसके कारण सुंदर नहीं हो जाता। फूल आज है। कल नहीं होगा। आकाश जैसा था, वैसा ही होगा।

आकाश के इस गुण को बहुत गहरे में समझ लेना जरूरी है, क्योंकि यही आत्मा का गुण भी है।

आकाश सदा ही कुंवारा है। उसे कोई भी चीज छू नहीं पाती। ऐसा समझें, हम एक पत्थर पर लकीर खींचते हैं। पत्थर पर खींची लकीर हजारों साल तक बनी रहेगी। पत्थर पकड़ लेता है लकीर को। पत्थर लकीर के साथ तत्सम हो जाता है, तादात्म्य कर लेता है। पत्थर लकीर बन जाता है।

फिर हम लकीर खींचें पानी पर। खिंचती जरूर है, लेकिन खिंच नहीं पाती। हम खींच भी नहीं पाते और लकीर मिट जाती है। हम खींचकर पूरा कर पाते हैं, लौटकर देखते हैं, लकीर नदारद है। पानी पर लकीर खिंचती तो है, लेकिन पानी लकीर को पकड़ता नहीं। खिंचते ही मिट जाती है। खींचते हैं, इसलिए खिंच जाती है। लेकिन टिक नहीं पाती, क्योंकि पानी उसे पकड़ता नहीं। पत्थर पकड़ लेता है, हजारों साल तक टिक जाती है। पानी में क्षणभर नहीं टिकती, बनती जरूर है।

आकाश में लकीर खींचें, वहां बनती भी नहीं। पानी पकड़ता नहीं, लेकिन बनने देता है। पत्थर बनने भी देता है, पकड़ भी लेता है। आकाश न बनने देता है और न पकड़ता है। आकाश में लकीर खींचें, कुछ भी खिंचता नहीं। इतने पक्षी उड़ते हैं, लेकिन आकाश में कोई पद—चिह्न नहीं छूट जाते। इतना सृजन, इतना परिवर्तन, इतना विनाश चलता है और आकाश अछूता बना रहता है, अस्पर्शित, सदा कुंवारा।

आकाश का यह जो गुण है, यही परमात्मा का भी गुण है। या ऐसा कहें कि जो हमें बाहर आकाश की तरह दिखता है, वही भीतरी आकाश परमात्मा है; इनर स्पेस, भीतर का आकाश परमात्मा है। कृष्ण कहते हैं, यह जो भीतर छिपा हुआ चैतन्य है, इसे कुछ भी छूता नहीं। तुम क्या करते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम क्या करते हो, क्या होता है, इससे तुम्हारे भीतर के आकाश पर कोई लकीर नहीं खिंचती। तुम भीतर शुद्ध ही बने रहते हो। यह शुद्धि तुम्हारा स्वभाव है।

यह बड़ा खतरनाक संदेश है। इसका मतलब हुआ कि पाप करते हो, तो भी कोई रेखा नहीं खिंचती। पुण्य करते हो, तो भी कोई लाभ की रेखा नहीं खिंचती। न पाप न पुण्य, न अच्छा न बुरा—भीतर कुछ भी छूता नहीं। भीतर तुम अछूते ही बने रहते हो। खतरनाक इसलिए है कि सारी नैतिकता, सारी अनैतिकता व्यर्थ हो जाती है।

भीतर की शुद्धि शाश्वत है। तुम्हारे करने से कुछ बनता—बिगड़ता नहीं। लेकिन तुम्हारे करने से तुम अकारण दुःख पाते हुए मालूम होते हो। अगर तुम बुरा करते हो, तो तुम बुरे के साथ तादात्म्य बना लेते हो और दुख पाते हो। अगर तुम शुभ करते हो, तो शुभ के साथ तादात्म्य बना लेते हो और सुख पाते हो।

लेकिन सुख—दुख दोनों तुम्हारी भ्रांतियां हैं। वह जो भीतर छिपा है, वह न सुख पाता है, न दुख पाता है। वह जो भीतर छिपा है, वह सदा एकरस अपने में ही है। न तो वह दुख की तरफ डोलता है, न सुख की तरफ डोलता है।

वह भीतर कौन है तुम्हारे भीतर छिपा हुआ, उसकी खोज ही अध्यात्म है। एक ऐसे बिंदु को स्वयं के भीतर पा लेना, जो सभी चीजों से अस्पर्शित है।

एक गाड़ी चलती है। गाड़ी का चाक चलता है, हजारों मील की यात्रा करता है। लेकिन गाडी के चाक के बीच में एक कील है, जो बिलकुल नहीं चलती, जो खड़ी ही रहती है। चाक चलता चला जाता है। चाक अच्छे रास्तों पर चलता है, बुरे रास्तों पर चलता है। चाक सुंदर और असुंदर रास्तों पर चलता है। चाक सपाट राजपथों पर चलता है, गंदगी—कीचड़ से भरे हुए जंगली रास्तों पर चलता है। वह जो कील है चाक के बीच में खड़ी, वह चलती ही नहीं; वह खडी ही रहती है।

ठीक वैसे ही तुम्हारा मन सुख में चलता है, दुख में चलता है, तुम्हारा शरीर कष्ट में चलता है, सुविधा में चलता है, लेकिन भीतर एक कील है चैतन्य की, वह खड़ी ही रहती है, वह चलती ही नहीं। अगर तुम शरीर से अपने को एक समझ लेते हो, तो बहुत तरह के कष्ट तुम्हारे दुख का कारण बन जाते हैं। अगर तुम मन से अपने को एक समझ लेते हो, तो बहुत तरह की मानसिक व्यथाएं, चिंताएं तुम्हें घेर लेती हैं, तुम उनसे घिर जाते हो। शरीर से अलग कर लो, शरीर में कष्ट होते रहेंगे, लेकिन तुम दुखी नहीं। मन से अलग कर लो, भावों के तूफान चलते रहेंगे, लेकिन तुम दूर खड़े उनको देखते रहोगे।

शरीर और मन दोनों से पार खड़ा हो जाता है जो, उसे पता चलता है कि यहां तो कभी भी कुछ नहीं हुआ। यहां तो सदा ही सब वैसा का वैसा है। जैसा अगर सृष्टि का कोई पहला क्षण रहा होगा, तो उस दिन जितनी शुद्ध थी चेतना, उतनी ही शुद्ध आज भी है।

इसे हम ऐसा समझें कि आप एक नाटक में काम करते हैं। रावण बन गए हैं। बड़े बुरे काम करने पड़ते हैं। सीता चुरानी पड़ती है। हत्याएं करनी पड़ती हैं। युद्ध करना पडता है। या राम बन गए हैं। बडे अच्छे काम करते हैं। बडे आदर्श, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। लोग आदर देते हैं, सम्मान करते हैं। लेकिन जब आप नाटक छोड्कर घर आते हैं, तो न आप राम होते हैं, न रावण होते हैं। न तो रावण का होना आपको छूता है, न राम का होना आपको छूता है।

लेकिन कभी—कभी खतरा हो सकता है। कभी—कभी अभिनय भी छू सकता है। अगर आप अपने को एक समझ लें। अगर आप यह समझ लें कि मैंने इतने दिन तक राम का पार्ट किया, तो अब गांव के लोगों को मुझे राम समझना चाहिए। तो फिर झंझट हो सकती है।


आपको लाइ डिटेक्टर पर खड़ा करके पूछा जाए कि क्या तुम शरीर हो? आप बड़े आत्म—ज्ञानी हैं। गीता पढ़ते हैं, कुरान पढ़ते हैं, कंठस्थ है। और आप रोज सुबह बैठकर दोहराते हैं कि मैं शरीर नहीं हूं। आप लाइ डिटेक्टर पर खड़े किए जाएं। आप कहेंगे, मैं शरीर नहीं हूं। वह डिटेक्टर कहेगा कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। क्योंकि आपकी मान्यता तो गहरी है कि आप शरीर हैं। आप जानते हैं। आपके गहरे तक यह बात घुस गई है। इसे तोड्ने में इसीलिए कठिनाई है। लेकिन यह तोड़ी जा सकती है, क्योंकि यह झूठ है। यह सत्य नहीं है।

आप पृथक हैं ही। आप कितना ही मान लें कि मैं पृथक नहीं हूं आप पृथक हैं। आपके मानने से सत्य बदलता नहीं। हा, आपके मानने से आपकी जिंदगी असत्य हो जाती है।

कृष्ण कहते हैं, यह जो भीतर बैठा हुआ स्वरूप है, यह सदा मौन, सदा शांत, शुद्ध, सदा आनंद से भरा है।

इसका हमने कभी कोई दर्शन नहीं किया है। और जो भी हम जानते हैं अपने संबंध में, वह या तो शरीर है या मन है। मन के संबंध में भी हम बहुत नहीं जानते हैं। मन की भी थोड़ी— थोड़ी सी परतें हमें पता हैं। बहुत परतें तो अचेतन में छिपी हैं, उनका हमें कोई पता नहीं है।

साक्षी का अर्थ है कि मैं शरीर से भी अपने को तोडू और मन से भी अपने को तोडू। और जब मैं कहता हूं तोडूं? तो मेरा मतलब है, वह जो गलत जोड़ है, वही तोड़ना है। वस्तुत: तो हम जुड़े हुए नहीं हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है, न लिपायमान होता है। न तो यह कुछ करता है और चाहे किसी को लगता हो कि कुछ हो भी रहा है, तो भी लिप्त नहीं होता।

कमल का पत्ता जैसे पानी में भी, पानी की बूंदें पड़ जाएं उसके ऊपर, तो भी छूता भी नहीं बूंदों को। बूंदें अलग बनी रहती हैं, पत्ते पर पड़ी हुई भी। जल छूता नहीं। वैसा यह अछूता रह जाता है। इसने कभी भी कुछ नहीं किया है।

हम इसे कैसे मानें? हम तो सब चौबीस घंटे कुछ न कुछ कर रहे हैं। हम इसे कैसे मानें? हम यह कैसे स्वीकार करें कि यह भीतर जो है, यह सदा शुद्ध है। क्योंकि हम बहुत—से पाप कर रहे हैं, चोरी कर रहे हैं, झूठ बोल रहे हैं। यह कृष्ण की बात समझ में नहीं आती कि हम और शुद्ध हो सकते हैं! हम, जिन्होंने इतनी बुराइयां की हैं? न भी की हों, तो इतनी बुराइयां सोची हैं, करनी चाही हैं। कितनी बार हत्या करने का मन हुआ है, चोरी करने का मन हुआ है। यह मन हमारा, यह कैसे भीतर सब शुद्ध हो सकता है?

बाहर के आकाश को देखें! सब कुछ घटित हो रहा है और बाहर का आकाश शुद्ध है। भीतर भी एक आकाश है, ठीक बाहर के आकाश जैसा। बीच में सब घटित हो रहा है, वह भी भीतर शुद्ध है।

इस शुद्धता का स्मरण भी आ जाए, तो आपकी जिंदगी में एक नया आयाम खुल जाएगा। आप दूसरे आदमी होने शुरू हो जाएंगे। फिर आप जो भी कर रहे हैं, करते रहें, लेकिन करने से रस खो जाएगा। फिर जो भी कर रहे हैं, करते रहें, लेकिन करने में से अकड़ खो जाएगी। फिर करना ऐसे हो जाएगा, जैसे सांप तो निकल गया और केवल सांप का ऊपर का खोल पड़ा रह गया है। जैसी रस्सी तो जल गई, लेकिन सिर्फ राख रस्सी के रूप की रह गई है।

अगर आपको यह खयाल आना शुरू हो जाए कि मैं अकर्ता हूं तो कर्म जारी रहेगा, जली हुई रस्सी की भांति, जिसमें अब रस्सी रही नहीं, सिर्फ राख है। सिर्फ रूप रह गया है पुराना। कर्म चलता रहेगा अपने तल पर, और आप हटते जाएंगे। जैसे—जैसे कर्म से हटेंगे, वैसे—वैसे लगेगा कि मैं अलिप्त भी हूं। कुछ मुझे लिप्त नहीं कर सकता।

आपका व्यक्तित्व आपकी मान्यता है। इसलिए बहुत मजे की घटनाएं घटती हैं। अगर आप दुनिया की अलग—अलग संस्कृतियों का अध्ययन करें, तो आप चकित हो जाएंगे।

कुछ ऐसी कौमें हैं, जो मानती हैं, पुरुष कमजोर है और स्त्री ताकतवर है। वहा पुरुष कमजोर हो गया है और स्त्री ताकतवर हो गई है। जिन कौमों की ऐसी धारणा है कि पुरुष कमजोर है, वहां पुरुष कमजोर है। और स्त्री ताकतवर है, तो स्त्री ताकतवर है। वहां मर्दाना होने का कोई मतलब नहीं है। वहा जनाना होने की ज्ञान है। और वहां अगर कोई मर्द ताकतवर होता है, तो लोग कहते हैं कि क्या जनाना मर्द है! क्या शानदार मर्द है! ठीक औरत जैसा।

आप यह मत सोचना की औरत कमजोर है। औरत का कमजोर होना एक मान्यता है।

आप चकित होंगे जानकर कि अमेजान में एक छोटी—सी कौम है। जब बच्चा होता है किसी स्त्री को, तो पति को भी प्रसव की पीड़ा होती है। एक खाट पर पड़ती है स्त्री, दूसरी खाट पर लेटता है पति। और दोनों तड़पते हैं। आप कहेंगे, यह पति बनता होगा। क्योंकि आखिर इधर भी तो इतने बच्चे पैदा होते हैं!

नहीं, पति बनता बिलकुल नहीं। और जब पहली दफा ईसाई मिशनरियों ने यह चमत्कार देखा, तो वे बड़े हैरान हुए कि ये पति भी क्या ढोंग कर रहे हैं! पति को कहीं प्रसव पीड़ा होती है! पत्नी को बच्चा हो रहा है, तुम क्यों तकलीफ पा रहे हो? और पत्नी से भी ज्यादा शोरगुल पति मचाता है, क्योंकि पति पति है। पत्नी तो थोड़ा—बहुत मचाती है। पति बहुत उछल—कूद करता है। गिर—गिर पड़ता है, रोता है, पीटता है। जब तक बच्चा नहीं हो जाता, तब तक तकलीफ पाता है। बच्चा होते ही से वह बेहोश होकर गिर जाता है।





तो पादरियों ने समझा कि यह भी एक खेल है। इन्होंने बना रखा है। बाकी इसमें कोई हो तो नहीं सकती सचाई। तो जब चिकित्सकों ने जांच की, तो उन्होंने पाया कि यह बात सच नहीं है। दर्द होता है। तकलीफ होती है। पेट में बहुत उथल—पुथल मच जाती है, जैसे बच्चा होने वाला हो। हजारों साल की उनकी मान्यता है कि जब दोनों का ही बच्चा है, तो दोनों को तकलीफ होगी।

और आप यह भी जानकर हैरान होंगे कि ऐसी भी कौमें हैं, इस मुल्क में भी ऐसी ग्रामीण और आदिवासी कौमें हैं, जहां स्त्री को बच्चा बिना तकलीफ के होता है। जैसे गाय को होता है, ऐसे स्त्री को होता है। वह जंगल में काम कर रही है, खेत में काम कर रही है, बच्चा हो जाता है। बच्चे को उठाकर खुद ही अपनी टोकरी में रखकर वृक्ष के नीचे रख देती है, और फिर काम करना शुरू कर देती है।

हमारी स्त्रियां सोच भी नहीं सकतीं कि खुद को बच्चा हो, न नर्स हो, न अस्पताल हो, न डाक्टर हो, और खुद ही को बच्चा हो, और उठाकर टोकरी में रखकर और काम शुरू! काम में कोई अंतराल ही नहीं पड़ता। वह भी मान्यता है। स्त्रियों को जो इतनी तकलीफ हो रही है, वह भी मान्यता है। स्त्रियों को तकलीफ न हो, वह भी मान्यता है।

आदमी बहुत अदभुत है। आदमी सेल्फ हिप्‍नोसिस करने वाला प्राणी है। वह अपने को जो भी मान लेता है, वैसा कर लेता है। आपकी सारी व्यक्तित्व की परतें आपकी मान्यताओं की परतें हैं। आप जो हैं, वह आपका सम्मोहन है।

अध्यात्म का अर्थ है, इस सारे सम्मोहन को तोड़कर उसके प्रति जग जाना, जिसका कोई भी सम्मोहन नहीं है। यह सारा शरीर, यह मन, ये धारणाएं, यह स्त्री यह पुरुष, यह अच्छा यह बुरा, इस सबसे हटते जाना। और सिर्फ चैतन्य मात्र, शुद्ध चित्त मात्र शेष रह जाए, मैं सिर्फ जानने वाला हूं, इतनी प्रतीति भर बाकी बचे। तो उस प्रतीति के क्षण में पता चलता है कि वह जो भीतर बैठा हुआ आकाश है, वह सदा कुंवारा है। न उसने कभी कुछ किया और न कुछ उस पर अभी तक लिप्त हुआ है। वह अस्पर्शित, शुद्ध है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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