मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 13भाग 3

   अमानित्‍वमदम्भिन्वमीहंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योयासनं शौचं स्थैर्यमविनिग्रह:।। 7।।
हन्द्रियाथेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्‍युजराव्‍याधिदु:खदौषानुदर्शनम्।। 8।।

 


और हे अर्जुन, श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दंभाचरण का अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन—वाणी की सरलता, श्रद्धा— भक्ति सहित गुरु की सेवा— उपासना, बाहर— भीतर की शुद्धि, अंतःकरण की स्थिरता, मन और इंद्रियों सहित शरिर का निग्रह तथा इस लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों में आसक्‍ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव एवं जन्म, मृत्य्र, जरा और रोग आदि में दोषों का बारंबार दर्शन करना, ये सब ज्ञान के लक्षण हैं।

 

 और हे अर्जुन, श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दंभाचरण का अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमा— भाव, मन—वाणी की सरलता, श्रद्धा— भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर— भीतर की शुद्धि, अंतःकरण की स्थिरता, मन और इंद्रियों सहित शरीर का निग्रह तथा इस लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव एवं जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुख और दोषों का बारंबार दर्शन करना, ये सब ज्ञान के लक्षण हैं।

कौन है ज्ञानी? क्योंकि कल कृष्ण ने कहा कि ज्ञानी जान लेता है तत्व से इस बात को कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ अलग हैं। तो जरूरी है, अब हम समझ लें कि ज्ञानी कौन है? कौन जान पाएगा इस भेद को? कौन इस भेद को जानकर अभेद को उपलब्ध होगा? तो अब ज्ञानी के लक्षण हैं। एक—एक लक्षण पर खयाल कर लेना जरूरी है।

श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव

शुरूआती बात, क्योंकि ज्ञान के साथ तत्‍क्षण श्रेष्ठता का भाव पैदा होता है कि मैं श्रेष्ठ हूं दूसरे निकृष्ट हैं, मैं जानता हूं दूसरे नहीं जानते हैं; मैं ज्ञानी हूं दूसरे अज्ञानी हैं। ज्ञान के साथ जो सबसे पहला रोग, जिससे बचना जरूरी है, वह श्रेष्ठता का अहंकार है।

ब्राह्मण की अकड़ हम देखते हैं। अब उसकी कम होती जा रही है, क्योंकि चारों तरफ से उस पर हमला पड़ रहा है। नहीं तो ब्राह्मण की अकड़ थी। ब्राह्मण की शक्ल ही देखकर कह सकते हैं कि वह ब्राह्मण है। उसके नाक का ढंग, उसके आंख का ढंग, उसके चेहरे का रोब! चाहे वह भीख मांगता हो, लेकिन फिर भी ब्राह्मण पहचाना जा सकता है कि वह ब्राह्मण है। उसकी आंख, उसका श्रेष्ठता का भाव, एक अरिस्टोक्रेसी, एक गहरा आभिजात्य, भीतर मैं श्रेष्ठ हूं! चाहे वह नंगा फकीर हो, चाहे कपड़े फटे हों, चाहे हाथ में भिक्षा का पात्र हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन भीतर  एक दीप्ति श्रेष्ठता की जलती रहेगी।

एक बड़े मजे की घटना घटी है मनुष्य के इतिहास में। और वह यह कि हिंदुस्तान में हमने ब्राह्मण को क्षत्रिय के ऊपर रख दिया था; तलवार के ऊपर ज्ञान को रख दिया था। इसलिए हिंदुस्तान में कभी क्रांति नहीं हो सकी। क्योंकि दुनिया में जब भी कोई उपद्रव होता है, उसकी जड़ में ब्राह्मण होता है। कहीं भी हो, समझदार ही उपद्रव करवा सकता है, नासमझ तो पीछे चलते हैं। अगर यह पश्चिम में इतनी क्रांति की बात चलती है..।

 ब्राह्मण का मतलब, इटेलिजेंसिया; वह जो सोचती है, विचारती है। उस सोचने—विचारने वाले की श्रेष्ठता को अगर आपने जरा भी चोट पहुंचाई, तो वह उपद्रव खड़ा कर देता है। वह फौरन लोगों को भड़का देता है।

सिर्फ हिंदुस्तान अकेला मुल्क है, जहां पांच हजार साल में कोई क्रांति नहीं हुई। इसका राज क्या है? सारी दुनिया में क्रांति हुई, हिंदुस्तान में क्रांति नहीं हुई। उसका सीक्रेट क्या है? सीक्रेट है कि हमने ब्राह्मण को, जो उपद्रव कर सकता है, उसको पहले ही ऊपर रख दिया। उसको कहा कि तू तो श्रेष्ठ है।

फिर एक बड़े मजे की घटना घटी कि ब्राह्मण भूखा मरता रहा, दीन रहा, दुखी रहा, लेकिन कभी उसने बगावत की बात नहीं की, क्योंकि उसकी भीतरी श्रेष्ठता सुरक्षित है। और जब वह श्रेष्ठ है, तो कोई दिक्कत नहीं है।

रूस फिर इसका अनुगमन कर रहा है। कोई सोच भी नहीं सकता, लेकिन रूस इसका फिर अनुगमन कर रहा है। आज रूस ने सब वर्ग तो मिटा दिए, लेकिन ब्राह्मण को ऊपर बिठा रखा है। जिसको वे एकेडेमीसिएंस कहते हैं वहा। वे जितने भी बुद्धिवादी लोग हैं—लेखक हैं, कवि हैं, वैज्ञानिक हैं, डाक्टर हैं, वकील हैं—जिनसे उपद्रव की कोई भी संभावना है, उनका एक आभिजात्य वर्ग बना दिया है।

रूस में लेखक इतना समादृत है, जितना जमीन पर कहीं भी नहीं। कवि इतना समादृत है, जितना जमीन पर कहीं भी नहीं। वैज्ञानिक, सोचने—समझने वाला आदमी समादृत है। उसको ऊपर बिठा दिया है। उसको फिर ब्राह्मण की कोटि में रख दिया है। रूस में क्रांति तब तक नहीं हो सकती अब, जब तक यह ब्राह्मण का आभिजात्य न टूटे।

दो प्रयोग हुए हैं। हिंदुस्तान ने प्रयोग किया था पांच हजार साल पहले। रूस उसका अनुकरण कर रहा है, जाने—अनजाने। ब्राह्मण को ऊपर बिठा दो, फिर उपद्रव नहीं होगा। उसकी श्रेष्ठता सुरक्षित रहे, फिर कोई बात नहीं है। भीख मांग सकता है वह, लेकिन उसकी भीतरी अकड़ कायम रहनी चाहिए। आप उसको सिंहासन पर भी बिठा दो और कहो कि विनम्र हो जाओ, भीतर की अकड़ छोड़ दो, वह सिंहासन को लात मार देगा। ऐसे सिंहासन का कोई मूल्य नहीं है। उसे भीतर का सिंहासन चाहिए।

जैसे ही किसी व्यक्ति को ज्ञान का जरा—सा स्वाद लगता है कि एक भीतरी श्रेष्ठता पैदा होनी शुरू हो जाती है। उसकी चाल बदल जाती है। उसकी अकड़ बदल जाती है।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञान का लेकिन पहला लक्षण वे कह रहे हैं, श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव।



ब्राह्मण को विनयी होना चाहिए; यह उसका पहला लक्षण है। यह होता नहीं। नहीं होता, इसीलिए पहला लक्षण बताया। जो नहीं होता, उसकी चिंता पहले कर लेनी चाहिए। जो बहुत कठिन है, उसकी फिक्र पहले कर लेनी चाहिए।

ज्ञान आए तो उसके साथ—साथ विनम्रता बढ़ती जानी चाहिए। अगर ज्ञान के साथ विनम्रता न बढ़े, तो ज्ञान जहर हो जाता है। ज्ञान के साथ विनम्रता समानुपात में बढ़ती जाए तो ज्ञान जहर नहीं हो पाता और अमृत हो जाता है।

श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दंभाचरण का अभाव...।

आचरण दो तरह से होता है। एक तो आचरण होता है, सहज—स्फूर्त। और एक आचरण होता है, दंभ आयोजित। आप रास्ते पर जा रहे हैं और एक भूखा आदमी हाथ फैला देता है। आप दो पैसे उसके हाथ में रख देते हैं, सहज दया के कारण, वह भूखा है इसलिए।

लेकिन रास्ते पर कोई भी नहीं है, अकेले हैं, और भूखा आदमी हाथ फैलाता है, आप बिना देखे निकल जाते हैं। रास्ते पर लोग देखने वाले मौजूद हैं, तो आप दो पैसे दे देते हैं। अगर साथ में मित्र मौजूद हैं, या ऐसा समझ लीजिए कि आपकी लड़की की शादी हो रही है और लड़का लड़की को देखने आया है, वह आपके साथ है, और भिखमंगा हाथ फैला देता है; दो पैसे की जगह आप दो रुपए दे देते हैं

ये दो रुपए आप दामाद को दे रहे हैं, होने वाले दामाद को। आप एक दंभ का आचरण कर रहे हैं। आप उसको दिखला रहे हैं कि मैं क्या हूं! इसका भिखारी से कोई लेना—देना नहीं है। भिखारी से कोई संबंध ही नहीं है। भिखारी को आपने पैसे दिए ही नहीं। और आपको कोई न भीतर दया है, न कोई करुणा है, न कोई सवाल है। आप एक दंभ आरोपित कर रहे हैं, एक आयोजन कर रहे हैं। तो आप अच्छे आदमी भी हो सकते हैं दंभ—आचरण के कारण।

ध्यान रहे, सहज बुरा आदमी भी बेहतर है। कम से कम सहज तो है। और जो सहज है, वह कभी अच्छा हो सकता है। क्योंकि बुराई दुख देती है। दुख कोई भी नहीं चाहता। आज नहीं कल सुख की तरफ जाएगा; खोजेगा, तो बुराई को छोड़ेगा। लेकिन हम झूठे अच्छे आदमी हैं। यह बहुत खतरनाक स्थिति है। झूठे अच्छे आदमी का मतलब है कि हम अच्छे बिलकुल नहीं हैं और बाहर हमने एक अच्छा आरोपण कर रखा है। रिस्पेक्टिबिलिटी।

मां—बाप बच्चों से कहते हैं कि देख, इज्जत मत गंवा देना, हमारा खयाल रखना, किसका बेटा है। वे उसको यह नहीं कह रहे हैं कि अच्छा काम करना अच्छा है। वे यह कह रहे हैं, अच्छा काम करना अहंकार—पोषक है। वे यह कह रहे हैं, घर की इज्जत का खयाल रखना। वे उससे यह नहीं कह रहे हैं कि अच्छे होने में तेरा आनंद होना चाहिए। वे यह कह रहे हैं, घर की इज्जत का सवाल है, प्रतिष्ठा का सवाल है, वंश का सवाल है।

वे उसको अहंकार सिखा रहे हैं। वे कह रहे हैं कि समझना कि तू किसका बेटा है। वे उसको झूठ सिखा रहे हैं। वह लड़का अब दंभ से आचरण करेगा। वह अच्छा भी होगा, तो अच्छे के पीछे भी वासना यही होगी कि आदर—सम्मान मिले।

रिस्पेक्टिबिलिटी दंभाचरण है, आदर की तलाश। लेकिन हमने सारा आचरण आदर पर खड़ा कर रखा है। हम एक—दूसरे को यही समझा रहे हैं, सिखा रहे हैं। सारी शिक्षा, सारा संस्कार, कि अगर बुरे हुए, तो बेइज्जती होगी। और बेइज्जती से आदमी डरता है, इसलिए बुरा नहीं होता।

आपको असलियत का तो तब पता चले, जब आप लोगों से कह दें कि कोई फिक्र नहीं, बुरे हो जाओ, बेइज्जती नहीं होगी। और अगर हम एक ऐसा समाज बना लें, जिसमें बुरे होने से बेइज्जती न होती हो, तब आपको पता चलेगा कि कितने आदमी अच्छे हैं। अभी तो बुराई से बेइज्जती मिलती है, अहंकार को चोट लगती है, तो आदमी अच्छा होने की कोशिश करता है। अच्छे होने की आकांक्षा में भी अच्छे होने का खयाल नहीं है, अच्छे होने की आकांक्षा में अहंकार का पोषण है।

कृष्ण कहते हैं ज्ञानी के लिए लक्षणों में, दंभाचरण का अभाव। वह आचरण सहज करेगा, जो ठीक लगता है, वही करेगा। जो आनंदपूर्ण है, वही करेगा। सिर्फ इसलिए कुछ नहीं करेगा कि लोग क्या कहेंगे। लोग अच्छा कहेंगे या बुरा कहेंगे, यह उसकी विचारधारा न होगी।

हम तो हर समय यही सोचते हैं कि लोग क्या कहेंगे। लोगों की हमारी फिक्र इतनी ज्यादा है कि अगर मैं आपको कह दूं कि कल सुबह आप मरने वाले हैं, तो जो आपको पहले खयाल आएगा, वह यह है कि मरघट मुझे कौन लोग पहुंचाने जाएंगे। फलां आदमी जाएगा कि नहीं? मिनिस्टर जाएगा कि नहीं? गवर्नर जाएगा कि नहीं? मरने के बाद अखबार में मेरी खबर छपेगी कि नहीं? लोग क्या कहेंगे?

बहुत लोगों के मन में यह इच्छा होती है कि मरने के बाद लोग मेरे संबंध में क्या कहेंगे, उसका कुछ पता चल जाए। इस तरह की लोगों ने कोशिश भी की है।

एक आदमी ने, राबर्ट रिप्ले ने अपने मरने की खबर उड़ा दी। सिर्फ इसलिए कि अखबारों में पता चल जाए, और कौन—कौन क्या—क्या कहता है, उसे मैं एक दफा पढ़ तो लूं। वह मरने के ही करीब था, डाक्टरों ने कहा था कि अब बस, चौबीस घंटे, छत्तीस घंटे से ज्यादा नहीं बच सकते। तो उसने अपने सेक्रेटरी को बुलाया और कहा कि तू एक काम कर। तू खबर कर दे कि मैं मर गया। मैं अपनी खबर अखबारों में पढ़ लेना चाहता हूं कि मेरे मरने के बाद लोग मेरे संबंध में क्या कहते हैं।

दूसरे दिन जब उसने खबर पढ़ ली और अच्छी—अच्छी बातें पढ़ लीं उसके संबंध में, क्योंकि मरने के बाद लोग अच्छी बातें कहते ही हैं, शिष्टाचारवश। और शायद इसलिए भी कि जब हम मरेंगे, तो लोग भी खयाल रखेंगे। बाकी और तो कुछ खास बात..। जब आप किसी आदमी के संबंध में सुनें कि सभी लोग अच्छी बातें कर रहे हैं, समझ लेना कि मर गया। नहीं तो जिंदा आदमी के बाबत सभी लोग अच्छी बात कर ही नहीं सकते। बड़ा कठिन है, बड़ा कठिन है।

अखबारों में अच्छी बातें सुनकर रिप्ले बहुत संतुष्ट हो गया। और उसने कहा कि अब अखबार वालों को खबर कर दो कि मेरी तस्वीर निकाल लें मरने की खबर पढ़ते हुए। मैं मनुष्य—जाति के इतिहास का पहला आदमी हूं जिसने अपने मरने की खबर पढ़ी। फिर उसने अखबारों में दूसरी खबर छपवाई।

निश्चित ही वह पहला आदमी था, जिसने अपने मरने की खबर पढ़ी और जिसने अपनी मृत्यु पर लोगों के द्वारा दिए गए संदेश पढ़े। दूसरों की फिक्र इतनी है कि आदमी मरते क्षण में भी अपनी फिक्र नहीं करता। जिंदगी की तो बात ही अलग, मौत भी आ रही हो, तो दूसरों की चिंता होती है।

आप यह जो दूसरों की चिंता करके जीते हैं, तो आपका सारा आचरण दंभ—आचरण होगा।

ज्ञानी सहज जीएगा; उसके भीतर जो है, वैसा ही जीएगा; परिणाम जो भी हो। दुख मिले, तो दुख झेलने को राजी रहेगा। सुख मिले, तो सुख झेलने को राजी रहेगा। समभाव से जो भी परिणाम हो, उसको झेलेगा, लेकिन जीएगा सहजता से। आपकी तरफ देखकर नहीं जीएगा। वह किसी तरह का आरोपण, किसी तरह का मुखौटा, किसी तरह के वस्त्र आपकी नजर से नहीं पहनेगा। उसे जो ठीक लगेगा, जो उसका आंतरिक आनंद होगा।

दंभाचरण का अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना..।

वह भी ज्ञान का लक्षण है। क्यों? क्योंकि जितना ही हम किसी को सताते हैं, उतने ही हम सताएं जाते हैं। यह कोई दूसरे पर दया करने के लिए नहीं है ज्ञानी का लक्षण। यह सिर्फ ज्ञानी की बुद्धिमत्ता है, उसका सहज बोध है, कि जब मैं किसी को सताता हूं तो मैं अपने सतानें के लिए आयोजन कर रहा हूं।

सिर्फ अज्ञानी ही दूसरे को सता सकता है, क्योंकि उसका मतलब है कि उसे पता ही नहीं है कि मैं क्या कर रहा हूं। अपने लिए ही काटे बो रहा हूं। यह अज्ञानी ही कर सकता है।

ज्ञानी तो देखता है जीवन के अंत: —संबंधों को, कि जो मैं करता हूं वही मुझ पर वापस लौट आता है। जगत एक प्रतिध्वनि है। जो भी मैं बोलता हूं वही मुझ पर बरस जाता है। अगर मैं गाली फेंकता हूं तो गालियां मेरे पास लौट आती हैं। और अगर मैं मुस्कुराहट फेंकता हूं तो हजार मुस्कुराहटें मेरी तरफ वापस लौट आती हैं। जगत वही लौटा देता है, जो हम उसे देते हैं। यह ज्ञानी का अनुभव है, यह कोई सिद्धांत नहीं है। वह जानता है कि मैं दुख दूंगा, तो मैं दुख देने के लिए लोगों को आमंत्रित कर रहा हूं,।

आप किसी को दुख देकर देखें। सीधी—सी बात है कि जब आप किसी को दुख देते हैं, तो आप उसको प्रेरित करते हैं कि वह आपको दुख दे।

इसे आप ऐसा समझें कि जब कोई आपको दुख देता है, तो आपके मन में क्या होता है? जब कोई आपको दुख देता है, तो जो पहली बात आपके मन में बनती है, वह यह कि इसको कैसे दुगुना दुख दें। आप उपाय में लग जाते हैं कि इसको कैसे दुख दें। यह सीधा—सा, सरल—सा नियम है। इसलिए ज्ञानी प्राणिमात्र को भी किसी प्रकार से नहीं सताना चाहता है।

क्षमा भाव.......।

क्षमा का अर्थ लोग समझते हैं कि दूसरे पर दया करना। नहीं, वैसा अर्थ नहीं है। क्योंकि दया में भी अहंकार है। क्षमा बड़ी सूक्ष्म बात है।

क्षमा का अर्थ है, मनुष्य की कमजोरी को समझना और यह जानना कि मैं खुद भी कमजोर हूं दूसरा भी कमजोर है। खुद की कमजोरी का अनुभव ज्ञानी को होता है, वह अपनी सीमाएं जानने लगता है, अपनी सीमाएं जानने के कारण वह प्रत्येक मनुष्य के प्रति क्षमावान हो जाता है, क्योंकि वह समझता है कि सबकी कमजोरी है। जो ज्ञानी आपकी कमजोरी के प्रति क्षमावान नहीं, समझना कि उसने अभी अपना आत्म—विश्लेषण नहीं किया।

ज्ञानी विश्लेषण करता है अपना। उस विश्लेषण से सारी मनुष्यता से उसकी पहचान हो जाती है। ज्ञानी का यह अनिवार्य लक्षण है कि ज्ञानी निंदा नहीं करेगा, दंडित नहीं करेगा; वह यह नहीं कहेगा कि तुम महापापी हो और नरक में सडोगे। वह तुम्हारे ऊपर खड़े होकर तुम्हें नीचा दिखाने की कोशिश भी नहीं करेगा। क्योंकि उसने अपना विश्लेषण किया है, उसने अपनी स्थिति भी जानी है। और अपनी स्थिति को जानकर वह पूरी मनुष्यता की स्थिति से परिचित हो गया है।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञानी का लक्षण है क्षमा का भाव

वह जानता है, आदमी कमजोर है। वह जानता है, आदमी मुश्किल में है। वह जानता है, आदमी बड़ी दुविधा में है। वह जानता है कि आदमी जैसा भी है, बड़ी जटिलता में है। इसलिए उसे दोषी क्या ठहराना!

अगर आप कुछ भूल कर लेते हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। स्वाभाविक मालूम होता है। सच तो यह है कि अगर आप भूल नहीं करते हैं, तो बड़ा अस्वाभाविक मालूम होता है। आदमी इतना कमजोर, इतनी शक्तियों का दबाव, इतनी जटिलताएं, इतनी मुसीबतें, उनके बीच में भी आदमी किसी तरह अपने को सम्हाले रहता है।

कृष्ण कहते हैं, क्षमा का भाव, मन—वाणी की सरलता...।

सरलता को थोड़ा खयाल में ले लेना चाहिए कि उसका क्या अर्थ होता है। सरलता का अर्थ होता है, बिना किसी कपट के। सरलता का अर्थ होता है, सीधा—सीधा। सरलता का अर्थ होता है, बिना किसी योजना को बनाए, बिना किसी कैलकुलेशन के, बिना किसी गणित के।

छोटे बच्चे में सरलता होती है। अगर उसको क्रोध आ गया है, तो वह आग की तरह जल उठता है, भभक उठता है। उस क्षण ऐसा लगता है, सारी दुनिया को नष्ट कर देने की उसकी मर्जी है। और क्षणभर बाद वह फूल की तरह मुस्कुरा रहा है। और जिसको वह मारने को खड़ा हो गया था, नष्ट कर देने को, उसी के साथ खेल रहा है। जो भीतर था, उसने बाहर ले आया, जैसा था, वैसा ही बाहर ले आया। उसने यह नहीं सोचा कि लोग क्या सोचेंगे। उसने यह नहीं सोचा कि दुनिया क्या कहेगी। उसने यह नहीं सोचा कि इससे नरक जाऊंगा या स्वर्ग जाऊंगा। उसने कुछ सोचा ही नहीं, जो भीतर था, वह बाहर ले आया।

बच्चे में सरलता है। और इसलिए बच्चा अभी रो रहा है, अभी मुस्कुरा सकता है। कई दफे बड़ों को बड़ी हैरानी होती है कि ये बच्चे भी किस तरह के हैं! अभी रो रहा था, अभी मुस्कुरा रहा है। बड़े धोखेबाज मालूम पड़ते है, पाखंडी मालूम पड़ते हैं। इतने जल्दी यह हो कैसे सकता है कि अभी यह रो रहा था, अभी मुस्कुरा रहा है! आप रोएं, तो दो—चार दिन लग जाएंगे मुस्कुराने में। क्योंकि वह रोना आप में सरकता ही रहेगा। पर आप कारण समझते हैं?

वह छोटा बच्चा एक क्षण में रोता है, एक क्षण में हंसता है।

उसका कारण यह नहीं है कि वह धोखा दे रहा है। उसका कारण यह नहीं है कि उसकी हंसी झूठी है। उसका कारण यह है कि उसका रोना इतना सच्चा था कि निकल गया, बात खतम हो गई। अब वह हंस रहा है।

आपका रोना भी झूठा है, हंसना भी झूठा है। ऊपर से चिपकाया हुआ है। दोनों ही झूठे हैं। जिंदगी चल रही है झूठ में। दोनों तरफ झूठ के चक्के लगाए हुए हैं गाड़ी में। कहीं नहीं पहुंच रही है जिंदगी, तो कहते हैं, कहीं पहुंचती नहीं। प्रयोजन क्या है? लक्ष्य नहीं मिलता!

वह लक्ष्य मिलेगा क्या! दोनों चक्के झूठे हैं। वे दिखाई पड़ते हैं, पेंटेड हैं। चक्के नहीं हैं।

सरलता का अर्थ है, जैसा भीतर हो, वैसा ही बाहर प्रकट कर देना। बड़ी कठिनाई होगी। आप कहेंगे, आप उपद्रव की बात कह रहे हैं। उपद्रव की है, इसीलिए तो कम लोग सरल हो पाते हैं। जटिल आप इसीलिए तो हो जाते हैं, क्योंकि सरल होना मुश्किल है। अगर 'सरल होंगे, तो बहुत—सी कठिनाइयां झेलनी पड़ेगी। बहुत—सी कठिनाइयां झेलनी पड़ेगी, बहुत—सी अड़चनें झेलनी पड़ेगी। इसीलिए तो आदमी उनसे बचने के लिए कठिन हो जाता है, जटिल हो जाता है।

एक आदमी सुबह—सुबह मिलता है। मन में होता है कि इस दुष्ट की शक्ल कहां से दिखाई पड़ गई! अब दिनभर खराब हुआ। और उससे आप नमस्कार करके कहते हैं कि धन्यभाग कि आप दिखाई पड़ गए। बड़ी कृपा है। बड़े दिनों में दिखाई पड़े। बड़े दिन से बड़ी इच्छा थी। और भीतर कह रहे हैं, यह दुष्ट कहा से सुबह दिखाई पड़ गया!

अब यह जो भीतर और बाहर हो रहा है, अगर आप सीधे ही कह दें कि महानुभाव, कहां से दिखाई पड़ गए आप सुबह से, दिनभर खराब हो गया। तो आप कठिनाई में पड़ेंगे। क्योंकि यह आदमी झंझट डालेगा। यह आपको फिर ऐसे ही जाने नहीं देगा। फिर दिन तो दूर है, यह अभी आपको उपद्रव खड़ा कर देगा। यह शक्ल फिर दिनभर में करेगी, वह तो अलग रही बात; लेकिन यह अभी कोई मुसीबत खड़ी कर देगा। तो आप ऊपर एक झूठा आवरण खड़ा कर लेते हैं। जिंदगी की जरूरतें आपको झूठा बना देती हैं।

लेकिन ज्ञानी के लिए कृष्ण कहते हैं, कठिनाई भला हो, लेकिन उसको मन—वाणी की सरलता चाहिए। वह वैसी ही बात कह देगा, जैसी है। इसका यह मतलब नहीं है कि वह किसी को चोट पहुंचाना चाहता है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि वह किसी को अपमानित करना चाहता है। इसका सिर्फ इतना मतलब है कि वह जैसा भीतर है, चाहता है कि लोग उसे बाहर भी वैसा ही जानें। फिर इसके कारण जो भी कठिनाई झेलनी पड़े, वह झेल लेगा। लेकिन अपने को झूठा नहीं करेगा।

दो उपाय हैं, या तो बाहर की कठिनाई से बचने के लिए भीतर जटिल हो जाएं; और या फिर बाहर की कठिनाई झेलने की तैयारी हो, तो भीतर सरल हो जाएं।

संतत्व की सबसे बड़ी तपश्चर्या सरलता है। कोई धूप में खड़ा होना संतत्व नहीं है। और न कोई सिर के बल खड़े होकर अभ्यास करे, तो कोई संत हो जाएगा। ये सब कवायदें हैं और इनका कोई बहुत बड़ा मूल्य नहीं है। संतत्व की असली संघर्ष की तपश्चर्या है सरलता, क्योंकि तब आपको बड़ी मुसीबतें झेलनी पड़ेगी। बड़ी मुसीबतें झेलनी पड़ेगी, क्योंकि चारों तरफ आपने झूठ का जाल बिछा रखा है।

आपने ऐसे आश्वासन दे रखे हैं, जो आप पूरे नहीं कर सकते। आपने ऐसे वक्तव्य दे रखे हैं, जो असत्य हैं। आपने सबको धोखे में रख छोड़ा है और आपके चारों तरफ एक झूठी दुनिया खड़ी हो गई है। सरलता का अर्थ है, यह दुनिया गिरेगी, खंडहर हो जाएगा। क्योंकि आप अपनी पत्नी से कहते ही चले जा रहे हैं कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। वह मानती नहीं। वह रोज पूछती है कि प्रेम करते हैं? हजार ढंग से पूछती है कि आप मुझे प्रेम करते हैं?

पति—पत्नी एक—दूसरे से पूछते हैं बार—बार, तरकीबें निकालते हैं पूछने की, कि आप मुझे अभी भी प्रेम करते हैं? क्योंकि भरोसा तो दोनों को नहीं आता, आ भी नहीं सकता। क्योंकि दोनों धोखा दे रहे हैं। पत्नी भी जानती है कि जब मैं ही नहीं करती हूं प्रेम, तो दूसरे का क्या भरोसा! पति भी जानता है कि जब मैं ही नहीं करता हूं प्रेम, तो पत्नी का क्या भरोसा!

इसलिए दोनों छिपी नजरों से जांच करते रहते हैं कि प्रेम है भी या नहीं। और एक—दूसरे से पूछते रहते हैं। और जब एक—दूसरे से पूछते हैं, तो गले लगाकर एक—दूसरे को आश्वासन देते हैं कि अरे, तेरे सिवाय जन्मों—जन्मों में न किसी को किया है, न कभी करूंगा। जन्मों—जन्मों की बात कर रहे हैं और भीतर सोच रहे हैं कि इसी जन्म में अगर छुटकारा हो सके! वह भीतर चल रहा है।

संतत्व की सबसे बड़ी तपश्चर्या है, सरल हो जाना। शुरू में बहुत कठिनाई होगी। लेकिन कठिनाई शुरू में ही होगी, थोड़े ही दिन में कठिनाइयां शांत हो जाएंगी। और थोड़े दिन में आप पाएंगे कि कठिनाइयों के ऊपर उठ गए। और जब आप सरल हो जाएंगे, तो लोग आपकी बात का बुरा भी न मानेंगे।

शुरू में तो बहुत बुरा मानेंगे, क्योंकि आप एकदम बदलेंगे और लगेगा कि यह क्या हो गया! यह आदमी कल तक क्या था, आज क्या हो गया! एकदम पतन हो गया इस आदमी का। कल तक कहता था प्रेम, आज कहता है कि एक क्षण प्रेम का मुझे कोई पता ही नहीं है। मैंने कभी तुझे प्रेम किया नहीं है।

शुरू में कठिनाई होगी, लेकिन जैसे—जैसे सरलता बढ़ती जाएगी, प्रकट होने लगेगी, वैसे—वैसे कठिनाई विदा हो जाएगी। और एक मजा है, सरलता में झेली गई कठिनाई भी सुख देती है और जटिलता में आया सुख भी दुख ही हो जाता है। क्योंकि हम भीतर इतनी गांठों से भर जाते हैं कि सुख हममें प्रवेश ही नहीं कर सकता। हम भीतर इतने अशांत हो जाते हैं कि अब कोई शांति की किरण हममें प्रवेश नहीं कर सकती।

तो कृष्ण कहते हैं, मन—वाणी की सरलता, श्रद्धा— भक्ति सहित गुरु की सेवा—उपासना...।

इतनी क्यों बातें जोड़नी? श्रद्धा— भक्ति सहित गुरु की सेवा—उपासना। क्या जरूरत है इतनी बातें जोड्ने की गुरु की उपासना में?

कारण है। किसी को भी गुरु स्वीकार करना मनुष्य के लिए अति कठिन है। इस जगत में कठिनतम बातों में यह बात है कि किसी को गुरु स्वीकार करें। क्योंकि गुरु स्वीकार करने का अर्थ होता है, मैंने अपने को स्वीकार किया कि मैं अज्ञानी हूं। गुरु को स्वीकार करने का अर्थ होता है, मैंने स्वीकारा कि मैं अज्ञानी हूं। यह बड़ी कठिन बात है। हमारा मानना होता है कि हम तो ज्ञानी हैं ही।

तो शिष्य बनना बहुत कठिन है। शायद सर्वाधिक कठिन बात कही जा सकती है, शिष्य बनना, सीखने की तैयारी। अहंकार को छोड़ना पड़े पूरा।

और फिर किसी को गुरु स्वीकार करना, किसी को अपने से ऊपर स्वीकार करना, बड़ा जटिल है। मन तो यही कहता है कि मुझसे ऊपर कोई भी दुनिया में नहीं है। और सब हैं, मुझसे नीचे हैं। हर आदमी अपने को शिखर पर मानता है। यह सहज मन की दशा है।

तो किसी को अपने से ऊपर मानना बडी कठिन है बात। हम कामचलाऊ ढंग से मान लेते हैं। इसलिए किसी को शिक्षक बना लेना आसान है, गुरु बनाया कठिन है। और फर्क है गुरु और शिक्षक में। शिक्षक का मतलब है, यह कामचलाऊ संबंध है। ! तुमसे हम सीख लेते हैं, उसके बदले में हम तुम्हें कुछ दे देते हैं। तुम्हारी फीस ले लो। हम तुम्हें धन दे देते हैं, तुम हमें ज्ञान दे दो, बात खतम हो गई। यह गुरु का संबंध नहीं है।

शिक्षक का संबंध ऐसा है, रास्ते पर किसी आदमी से पूछा कि स्टेशन का रास्ता किधर जाता है। बस, इतनी बात है। उसने रास्ता बता दिया। आपने उसको धन्यवाद दे दिया, अपने रास्ते पर चले गए। कुछ लेना—देना नहीं है। शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध ऐसा है, उसमें कामचलाऊ रिश्ता है, उपयोगिता का संबंध है।

गुरु और शिष्य का रिश्ता गैर—उपयोगिता का है और उसमें कोई कामचलाऊ बात नहीं है। और इसीलिए गुरु को शिष्य कुछ भी तो नहीं दे सकता। प्रत्युत्तर में कुछ भी नहीं दे सकता, कोई धन नहीं दे सकता।

पुराने दिनों में तो व्यवस्था यह थी कि गुरु भोजन भी विद्यार्थी को देगा, आश्रम में रहने की जगह भी देगा। उसकी सब भांति फिक्र करेगा, जैसे पिता अपने बेटे की फिक्र करे। ज्ञान भी देगा और बदले में कुछ भी नहीं लेगा।

आप कठिनाई में पड़ेंगे उस आदमी के साथ, जो बदले में कुछ न ले। जो बदले में कुछ ले ले, उससे तो हमारा नाता—रिश्ता समानता का हो जाता है। जो बदले में कुछ न ले, उससे हमारा नाता—रिश्ता समानता का कभी नहीं हो पाता। वह ऊपर होता है, हम नीचे होते हैं।

तो इतने आग्रहपूर्वक कृष्ण कहते हैं, श्रद्धा— भक्ति सहित गुरु की सेवा—उपासना।

श्रद्धा— भक्ति की बहुत जरूरत पड़ेगी। और इसका एक मनोवैज्ञानिक रूप भी समझ लेना जरूरी है।

मनसविद कहते हैं कि जिस व्यक्ति से भी हम कुछ लेते हैं और उसके उत्तर में नहीं दे पाते, उसके प्रति हमारे मन में दुश्मनी पैदा होती है। क्योंकि उस आदमी ने हमें किसी तरह नीचा दिखाया है। एक मेरे मित्र हैं। बड़े धनपति हैं और बड़े दंभी हैं। और बड़े भले आदमी हैं। और जब भी कोई मुसीबत में हो, तो उसकी सहायता करते हैं। कम से कम उनके रिश्तेदारों में तो कोई भी मुसीबत में हो, तो वे हर हालत में सहायता करते हैं। मित्र, परिचित, कोई भी हो, सहायता करते हैं।

एक दिन मेरे पास आकर वे कहने लगे कि मैंने जिंदगी में सिवाय दूसरों की सहायता के कुछ भी नहीं किया, लेकिन कोई भी मेरा उपकार नहीं मानता है! उलटे लोग मेरी निंदा करते हैं। जिनकी मैं सहायता करता हूं वे ही निंदा करते हैं। जिनको मैं पैसे से सब तरह की सुविधा पहुंचाता हूं वे ही मेरे दुश्मन बन जाते हैं। तो कारण क्या है? किस वजह से ऐसा हो रहा है?

तो मैंने उनसे कहा कि आप उनको भी कुछ उत्तर देने का मौका देते हैं कि नहीं? तो उन्होंने कहा कि उसकी तो कोई जरूरत ही नहीं है। मेरे पास पैसा है, मैं उनकी सहायता कर देता हूं। तो फिर, मैंने कहा कि कठिनाई है। क्योंकि वे क्या करें! जब आप उनकी सहायता करते हैं, तो आपको लगता है कि आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं; लेकिन जिसकी सहायता की जाती है, वह आदमी तो अनुभव करता है कि उसका अपमान हुआ। ऐसा मौका आया कि किसी की सहायता लेनी पड़ी। और फिर लौटा सकता नहीं है, आप किसी को लौटाने देते नहीं हैं। तो फिर वह आपका दुश्मन हो जाएगा। वह आपका उत्तर किसी न किसी तरह तो देगा।

दो ही उपाय हैं, या तो आप उसकी कोई सहायता लें और उसको भी ऊपर होने का कोई मौका दें। और नहीं तो फिर वह आपकी सहायता झूठी थी, धोखे की थी, आप आदमी बुरे हैं, ये सब खबरें फैलाकर अपने मन को यह सांत्वना दिलाएगा कि इतने बुरे आदमी से नीचे होने का कोई सवाल ही नहीं; इस बुरे आदमी से तो मैं ही ऊपर हूं। यह वह कंसोलेशन, सांत्वना खोज रहा है।

आदमी के मन की बड़ी जटिलता है।

गुरु से आप ज्ञान लेते हैं, लौटा तो कुछ भी नहीं सकते। क्योंकि ज्ञान कैसे लौटाया जा सकता है! उससे जो मिलता है, उसका कोई प्रत्युत्तर नहीं हो सकता। इसलिए भारत में बड़े आग्रहपूर्वक यह कहा है कि श्रद्धा और भक्ति सहित।

अगर बहुत प्रगाढ़ श्रद्धा हो, तो ही शिष्य गुरु के विरोध में जाने से बच सकेगा, नहीं तो दुश्मन हो जाएगा। आज नहीं कल शिष्य के दुश्मन हो जाने की संभावना है। वह दुश्मन हो ही जाएगा। वह कोई न कोई बहाना और कोई न कोई कारण खोजकर शत्रुता में खड़ा हो जाएगा, तभी उसको राहत मिलेगी कि झंझट मिटी, इस आदमी के बोझ से मुक्त हुआ।

इसलिए हमने बहुत खोजबीन करके श्रद्धा और भक्ति को अनिवार्य शर्त माना है शिष्य की, तभी शिष्य गुरु के साथ उसके मार्ग पर चल सकता है और दुश्मन होने से बच सकता है। नहीं तो गुरु का शिष्य दुश्मन हो ही जाएगा।

इसे हम ऐसा समझें कि बेटे बाप के दुश्मन हो जाते हैं। इसलिए हमने बाप के प्रति बहुत श्रद्धा का भाव पैदा करने की कोशिश की है, नहीं तो बेटे बाप के दुश्मन हो ही जाएंगे। क्योंकि बाप से सब मिलता है, और लौटाने का क्या है।

पर बाप से तो जो मिलता है, वह लौटाया भी जा सकता है, क्योंकि बाह्य वस्तुएं हैं। गुरु से जो मिलता है, वह तो लौटाया ही नहीं जा सकता है। वह तो ऐसी घटना है कि उसको लौटाने का सिर्फ एक उपाय है कि तुम किसी और को शिष्य बना देना। बस, वही उपाय है, और कोई उपाय नहीं है। जो तुमने गुरु से पाया है, वह तुम किसी और शिष्य को दे देना, यही उपाय है। गुरु तक लौटाने का कोई उपाय नहीं है।

इसलिए श्रद्धा— भक्ति सहित गुरु की उपासना। बाहर— भीतर की शुद्धि, अंतःकरण की स्थिरता, मन—इद्रियों सहित शरीर का निग्रह।

इन सबके संबंध में मैंने काफी बात पीछे की है।

लोक—परलोक के संपूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव एवं जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुख और दोषों का बारंबार दर्शन, ये सब ज्ञान के लक्षण हैं।

आखिरी बात जिसकी अभी चर्चा नहीं हुई, उसकी हम बात कर लें। जन्म, मृत्यु, जरा, रोग, दुख इत्यादि में बारंबार दोषों का दर्शन, ये सब ज्ञान के लक्षण हैं।

जब आप पर कोई बीमारी आती है, कोई दुख आता है, कोई असफलता घटित होती है, कोई संताप घेर लेता है, तब आप क्या करते हैं? तब आप तत्‍क्षण यही सोचते हैं कि किन्हीं दूसरे लोगों की शरारत षड़यंत्र के कारण आप कष्ट पा रहे हैं। तो यह अज्ञानी का लक्षण है।

ज्ञानी लक्षण यह है कि जब भी वह दुख पाता है, तब वह सोचता है कि जरूर मैंने कोई दोष किया, मैंने कोई पाप किया, मैंने कोई भूल की, जिसका मैं फल भोग रहा हूं। ज्ञान का लक्षण यह है कि जब भी दुख मिले, तो अपने दोष की खोज करना। जरूर कहीं न कहीं मैंने बोया होगा, इसलिए मैं काट रहा हूं।

अज्ञानी दूसरे को दोषी ठहराता है, ज्ञानी सदा अपने को दोषी ठहराता है। और इसलिए अज्ञानी दोष से कभी मुक्त नहीं होता, ज्ञानी दोष से मुक्‍त हो जाता है। अगर मुझे यह प्रगाढ़ प्रतीति होने लगे—और होगी ही—अगर हर दुख में, हर पीड़ा में, हर रोग में, हर मृत्यु में मैं यही जानूंगा कि मेरी कोई भूल है, तो निश्चित ही आगे उन भूलों को करना मुश्किल हो जाएगा। जिन दोषों से इतना दुख पैदा होता है, उनको करना असंभव हो जाएगा। मेरा मन संस्कारित हो जाएगा। मुझे यह स्मरण गहरे में बैठ जाएगा, तीर की तरह चुभ जाएगा।

अगर सभी दुख मेरे ही कारण से पैदा हुए हैं, तो फिर आगे मेरे दुख पैदा होने मुश्किल हो जाएंगे, क्योंकि मैं अपने कारणों को हटाने लगता। लेकिन अज्ञानी के दुख दूसरों के कारण से पैदा होते हैं। इसलिए उसके हाथ में कोई ताकत ही नहीं है, वह कुछ कर सकता नहीं। दूसरे जब बदलेंगे, सारी दुनिया जब बदलेगी, तब वह सुखी हो सकता है!

अज्ञानी सुखी होगा, जब सारी दुनिया बदल जाएगी और कोई गड़बड़ नहीं करेगा, तब। ऐसा कभी होने वाला नहीं है। ज्ञानी अभी सुखी हो सकता है, इसी क्षण सुखी हो सकता है। क्योंकि वह मानता है कि दुख मेरे ही किसी दोष के कारण हैं।

मुसलमान फकीर इब्राहीम एक रास्ते से गुजरता था। उसके शिष्य साथ थे। इब्राहीम के प्रति उनका बड़ा आदर, बड़ा भाव, बड़ा सम्मान था। वह आदमी भी वैसा पवित्र था। अचानक इब्राहीम के पैर में पत्थर की चोट लगी और जमीन पर गिर पड़ा, पैर लहूलुहान हो गया।

शिष्य बहुत चकित हुए, शिष्य बहुत हैरान हुए। शिष्यों ने कहा कि यह किसी की शरारत मालूम पड़ती है। कल शाम को हम निकले थे, तब यह पत्थर यहां नहीं था। और सुबह आप यहां से निकलेंगे और मस्जिद जाएंगे सुबह के अंधेरे में, किसी ने यह पत्थर जानकर यहां रखा है। दुश्मन काम कर रहे हैं।

इब्राहीम ने कहा, पागलों, फिजूल की बातों में मत पड़ो। रुको। और इब्राहीम घुटने टेककर परमात्मा को धन्यवाद देने बैठ गया। प्रार्थना करने के बाद उसने कहा, हे परमात्मा, तेरी बड़ी कृपा है। पाप तो मैंने ऐसे किए हैं कि आज फांसी लगनी चाहिए थी, सिर्फ पत्थर की चोट से तूने मुझे छुड़ा दिया। तेरी अनुकंपा अपार है। ज्ञानी का लक्षण है, जब भी कोई पीड़ा आए, तो खोजना, कहीं अपनी कोई भूल, अपना कोई दोष, जिसके कारण यह दुख आ रहा होगा।

ये कृष्ण ने ज्ञान के लक्षण कहे हैं। इन लक्षणों को जो भी पूरा करने लगे, वह धीरे—धीरे ज्ञान के मंदिर की तरफ बढ़ने लगता है। और मंदिर बहुत दूर नहीं है। जहां आप खड़े हैं, बहुत पास है।

लेकिन जिस ढंग से आप खड़े हैं, बहुत दूर है, क्योंकि आप पीठ किए खड़े हैं। इन लक्षणों के विपरीत आप सब कुछ कर रहे हैं। आपकी पीठ है मंदिर की तरफ। इसलिए अगर आप और गहन अंधकार में, और अज्ञान में, और दुख में प्रवेश करते चले जाते हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...