रविवार, 8 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 11भाग 5

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      रूपंमहत्ते कवक्तनेत्रं महाबाहो बहुबाक्रयादम्।

बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं हूड़वा लोका: प्रव्यथितास्तथाहम्।। 23।।

नभ:स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।

दृष्ट्रवा हि त्वां प्रव्यखितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो।। 24।।

दंष्ट्राकरालानि व ते मुखानि दृष्ट्रवैव कालानलसब्रिभानि।

दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।। 25।।

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्थ युत्रा: सर्वे सहैवावनियालसंघै:।

भीष्मो द्रोण: सूतमुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरयि योधमुख्यै।। 26।।

वक्वाणि ते स्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।

केचिद्विलग्ना दशनान्तरेपु संदृश्यन्ते चूर्णितेरुत्तमाङ्गै।। 27।।

यथा नदीनां बहवोउखुवेगा समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।

तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्ताण्यभिविज्वलन्ति।। 28।।


और हे महाबाहो आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले तथा कइ हाथ जंघा और पैरों वाले और बहुत उदरों वाले तथा बहुत— सी विकराल जाडों वाले महान रूप को देखकर सब लोक व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूं।

क्योंकि हे विष्णो आकाश के साथ स्पर्श किए हुए, देदीप्यमान अनेक रूपों से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अंत—करण वाला मैं धीरज और शांति को नहीं प्राप्त होता हूं।

और हे भगवन— आपके विकराल जाड़ों वाले और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर दिशाओं को नहीं जानता हूं और सुख को भी नहीं प्राप्त होता हूं। इसलिए हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न होवे। और मैं देखता हूं कि वे सब ही धृतराष्ट्र के पुत्रु राजाओं के समुदाय सहित आप में प्रवेश करते हैं और भीष्म पितामह द्रोणाचार्य तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सब के सब वेगयुक्त हुए आपके विकराल जाड़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिखते हैं।

और हे विश्वमूर्ति जैसे नदियों के बहुत— से जल के प्रवाह समुद्र के ही सम्‍मुख दौड़ते हैं अर्थात समुद्र में प्रवेश करते हैं वैसे ही वे शूरवीर मनुष्यों के समुदाय भी आपके प्रज्वलित हुए मुखों में प्रवेश करते हैं।




और हे महाबाहो! आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले तथा बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाले और बहुत उदरों वाले तथा बहुत—सी विकराल जाड़ों वाले महान रूप को देखकर सब लोग व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूं।

अर्जुन ने देखा, विकराल रूप! जहां परमात्मा मृत्यु का मुख बन गया है। वह कह रहा है कि हे महाबाहो! यह मैं देख रहा हूं इससे सारे लोक व्याकुल हो रहे हैं, मैं भी व्याकुल हो रहा हूं। मेरा हृदय धड़कता है और घबड़ाहट रोएं—रोएं में समा गई है। क्या यह भी आप हैं?

यह व्याकुलता स्वाभाविक है। क्योंकि हमने परमात्मा का एक ही रूप देखा। और हमने परमात्मा के एक ही रूप की पूजा की। और हमने परमात्मा के एक ही रूप को सराहा। और हमने यह माना कि वह एक इसी रूप से एक है; दूसरा रूप परमात्मा का नहीं है। तो जब हमें पूरा परमात्मा दिखाई पड़े, तो व्याकुलता बिलकुल स्वाभाविक है।

यह व्याकुलता परमात्मा के रूप के कारण नहीं है, हमारी बुद्धि के तादात्म्य के कारण है। हमने एक हिस्से के साथ तादात्म्य कर लिया है। हमने देखा कि परमात्मा होगा सौंदर्य। हमने परमात्मा की सारी प्रतिमाएं सुंदर बनाई हैं। कुछ हिम्मतवर तांत्रिकों ने कुरूप प्रतिमाएं भी बनाई हैं, लेकिन वे धीरे— धीरे खोती जा रही हैं। हमारे मन को उनकी अपील नहीं है।

अगर आप विकराल काली को देखते हैं, हाथ में खंजर लिए, कटा हुआ सिर लिए, गले में मुंडों की माला डाले हुए, पैरों के नीचे किसी की छाती पर सवार, लाल जीभ, खून टपकता हुआ, तो भला भय की वजह आप नमस्कार करते हों, लेकिन मन में यह भाव नहीं उठता कि यह परमात्मा का रूप है। भला मान्यता के कारण आप सोचते हों कि ठीक, लेकिन भीतर यह भाव नहीं उठता कि यह परमात्मा का रूप है।


और स्त्री, ममता, मां जिसको हमने कहा! और काली को हम मां कहते हैं! मां जो है, वह ऐसा विकराल रूप लिए खड़ी है, तो मन को बड़ी बेचैनी होती है कि क्या बात है! लेकिन जिन्होंने यह विकराल रूप खोजा था, उन्होंने एक द्वंद्व को इकट्ठा करने की कोशिश की थी।

मां से ज्यादा प्रेम से भरा हुआ हृदय पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। इसलिए मां को खड़ा किया इतने विकराल रूप में, जो कि दूसरा छोर है। मां को ऐसे खड़ा किया, जैसे वह मृत्यु हो। मां तो जन्म है। मां को ऐसे खड़ा किया, जैसे वह मृत्यु हो। दो द्वंद्व, जन्म और मृत्यु,। दोनों को एक साथ काली में इकट्ठा किया। एक तरफ वह जन्मदात्री है, और दूसरी तरफ मृत्यु उसके हाथ से घटित हो रही है। और हड्डियों की, खोपड़ियों की माला उसने गले में डाल रखी है!

कभी आपने अपनी मां को इस भाव से देखा? बहुत घबड़ाहट होगी। और अगर आप अपनी मां को इस भाव से नहीं देख सकते, तो काली को आप मां कैसे कह सकते हैं! असंभव है।

लेकिन जिन्होंने, जिन तांत्रिकों ने यह द्वंद्व को जोड्ने का खयाल किया, बड़े अदभुत लोग थे। इसमें एक प्रतीक है। इसमें जन्म और मृत्यु एक साथ खड़े हैं। इसमें प्रेम और मृत्यु एक साथ खड़े हैं। इसमें मां का हृदय और मृत्यु के हाथ एक साथ खड़े हैं। मगर धीरे— धीरे यह रूप खोता चला गया। यह रूप आज अगर कभी आपको। दिखाई भी पड़ता है तो सिर्फ परंपरागत है। इसकी धारणा खो गई। इसके हृदय में संबंध हमारे खो गए।

हमने परमात्मा का तो सौम्य,  सुंदर रूप— कृष्ण बांसुरी बजाते। खड़े हैं, वे लगते हैं कि परमात्मा हैं। मोर—मुकुट बांधा हुआ है, उनके ओंठों पर मुस्कान है। वे लगते हैं कि परमात्मा हैं। उनसे हमें आश्वासन मिलता है, राहत मिलती है, सांत्वना मिलती है। हम वैसे ही बहुत दुखी हैं। काली को देखकर और उपद्रव क्यों खड़ा करना है!

कृष्‍ण को देखकर सांत्वना, कंसोलेशन मिलता है कि ठीक है।। इस जीवन में होगा दुख। इस जीवन में होगी मृत्यु। आज नहीं कल, वह मुकाम आ जाएगा, जहां बांसुरी ही बजती रहती है। जहां सुख ही सुख है। जहां शांति ही शांति है, जहां संगीत ही संगीत है। जहां फिर कुछ बुरा नहीं है। उसकी आशा बंधती है, उसका भरोसा बंधता है। मन को राहत मिलती है। तो जो हमारे पास नहीं है, जो जिंदगी में खोया हुआ है, जिसका अभाव है, उसे हमने कृष्ण में पूरा कर लिया।

आपने कभी खयाल किया कि हमने कृष्‍ण, राम, बुद्ध, महावीर, किसी के बुढ़ापे का चित्र नहीं बनाया है। कोई बुढ़ापे की मूर्ति नहीं बनाई है। ऐसा नहीं है कि ये लोग बूढ़े नहीं हुए। बूढ़े तो होना ही पड़ेगा। इस जमीन पर जो है, जमीन के नियम उस पर काम करेंगे। और ये जमीन के नियम किसी को भी छूट नहीं देते, यहां कोई छुट्टी नहीं है। और अगर इस जमीन के नियमों में छुट्टी हो, तो फिर जगत। बिलकुल एक बेईमान व्यवस्था हो जाए। यहां तो कृष्‍ण को भी बुढ़ा होना पड़ेगा, राम को भी होना पड़ेगा, बुद्ध को भी होना पड़ेगा, महावीर को भी होना पड़ेगा।

लेकिन हमने उनको बुढ़ा नहीं बनाया। उससे यह पता नहीं चलता कि वे बूढ़े नहीं हुए। उससे यही पता चलता है कि बुढ़ापे से हम कितने भयभीत हैं, कितने डरे हुए हैं। और अगर राम को भी हम देखें, टूटे हुए दांत, लकड़ी टेकते हुए, तो फिर भगवान मानना बहुत मुश्किल हो जाएगा। सुंदर, युवा! वे सदा ही युवा हैं। उनका युवापन ठहर गया है, वह आगे नहीं बढ़ता।

कृष्‍ण को बूढ़ा देखें। खंखारते हुए, खांसते हुए, खाट पर, किसी अस्पताल में भर्ती! बिलकुल यह हमारे भरोसे के, विश्वास के बाहर हो गया। हमारी सारी श्रद्धा नष्ट हो जाएगी। और हमें लगेगा, यह भी क्या बात हुई! कम से कम भगवान होकर तो ऐसा नहीं होना था।

तो भगवान हमारी कामनाओं से हम निर्मित करते हैं। उनकी मूर्ति हम अपनी वासना से निर्मित करते हैं। उसका तथ्य से कम संबंध है, हमारी भावना से ज्यादा संबंध है।

देखते हैं आप, न दाढ़ी उगती राम को, न कृष्ण को, न बुद्ध को, न महावीर को। न मूंछ निकलती, न दाढ़ी निकलती। जरा कठिन मामला है। कभी—कभी ऐसा होता है, कोई पुरुष मुखन्नस होता है। कभी—कभी किसी पुरुष को दाढ़ी—मूंछ नहीं उगती। क्योंकि उसमें कुछ हार्मोन की कमी होती है, वह पूरा पुरुष नहीं है। लेकिन यह कभी—कभी होता है। सब अवतार हमने मुखन्नस खोज लिए! जरा कठिन है। थोड़ा सोचने जैसा है!

जैनियों के चौबीस तीर्थंकर हैं। चौबीस तीर्थंकरों में किसी की दाढ़ी—मूंछ नहीं उगती। यह मानना मुश्किल है कि उन्होंने इतनी खोज कर ली हो। और हमेशा जब भी कोई तीर्थंकर हुआ, तो वह ऐसा आदमी हुआ जिसमें हार्मोन की कमी थी।

यह बात नहीं है। दाढ़ी—मूंछ उगी ही है। लेकिन हमारा मन नहीं कहता कि दाढ़ी—मूंछ उगे। क्यों? क्योंकि वह दाढ़ी—मूंछ जो उगे, तो फिर बुढ़ापा आएगा। वह जो दाढ़ी—मूंछ उगे, तो युवावस्था को ठहराना मुश्किल हो जाएगा। वह जो दाढ़ी—मूंछ उगे, तो वे फिर ठीक हम जैसे हो जाएंगे। और हमारा मन करता है कि वे हम जैसे न हों।

हम अपने से बहुत परेशान हैं। हम अपने से बहुत पीड़ित हैं। वे हम जैसे न हों।

इसलिए हमने अपने अवतारों, अपने तीर्थंकरों, अपने पैगंबरों में वे सब बातें जोड़ दी हैं, जो हम चाहते हैं, हममें होतीं, और नहीं हैं। हम सुबह—शाम लगे हैं दाढ़ी छोलने में! वह हम चाहते हैं कि न होती। वह हम चाहते हैं कि न होती। और आज नहीं कल विज्ञान व्यवस्था खोज लेगा कि पुरुष दाढ़ी—मूंछ से छुटकारा पा जाए।

इतनी उत्सुकता दाढ़ी—मूंछ से छुटकारा पाने की भी बड़ी अजीब है और बड़ी विचारणीय है और बड़ी मनोवैज्ञानिक है। थोड़ी पैथालाजिकल है, थोड़ी रुग्ण भी है।

पुरुष के मन में जो सौंदर्य की धारणा है, वह स्त्री की है। उसको स्त्री का चेहरा सुंदर मालूम पड़ता है। और स्त्री के चेहरे पर दाढ़ी— मूंछ नहीं है। वह सोचता है, सुंदर होने का लक्षण दाढ़ी—मूंछ का न होना है। मगर स्त्रियों से भी पूछो, कि दाढ़ी—मूंछ न हो, तो स्त्री को चेहरा सुंदर सच में लग सकता है?

लगना नहीं चाहिए। और अगर लगता है, तो उसका मतलब पुरुषों ने उनका दिमाग भी भ्रष्ट किया हुआ है। लगना नहीं चाहिए। प्राकृतिक रूप से स्त्री को दाढ़ी—मूंछ वाला चेहरा सुंदर लगना चाहिए, जैसा पुरुष को गैर दाढ़ी—मूंछ का चेहरा सुंदर लगता है। थोड़ा सोचें कि आपकी पत्नी दाढ़ी—मूंछ लगाए हुए खड़ी है! तो जब आप गैर दाढ़ी—मूंछ के खड़े हैं, तब वही हालत हो रही है।

लेकिन चूंकि पुरुष प्रभावी है और स्त्रियों के मन को उसने अपने ही सांचे में ढाल रखा है हजारों साल में...। स्त्रियां कह भी नहीं सकतीं कि तुम यह क्या कर रहे हो? क्यों स्त्री जैसे हुए जा रहे हो? स्त्रियां भी मानती हैं कि यह सुंदर है, क्योंकि उनकी अपनी सुंदर की व्याख्या भी हमने नष्ट कर दी है। स्त्री का हमने मंतव्य ही समाप्त कर दिया है। पुरुष की ही धारणा, उसकी भी धारणा है। जिसको पुरुष सुंदर मानता है, वह भी सुंदर मानती है।

तो सुंदर की जो हमारी धारणा थी, हमने राम पर, कृष्ण पर, बुद्ध पर थोप दी है। लेकिन वे हमारी कामनाएं हैं; वे तथ्य नहीं हैं। तथ्य तो, जीवन के साथ मृत्यु जुड़ी है, यह है। मृत्यु से हम भयभीत हैं। हम बचना चाहते हैं।

हम में से अधिक लोग आत्मा को अमर इसीलिए मानते हैं कि इसके सिवाय बचने का और कोई उपाय नहीं दिखता। उन्हें कुछ पता नहीं है कि आत्मा अमर है। उन्हें कुछ भी पता नहीं है कि आत्मा है भी। लेकिन फिर भी वे माने चले जाते हैं कि आत्मा अमर है। क्यों? भय है मृत्यु का।

शरीर तो जाएगा, यह पक्का है, कितना ही उपाय करो। तो बचने का अब एक ही उपाय है कि आत्मा अमर हो। इसलिए जैसे—जैसे आदमी बुढ़ा होता है, आत्मा में भरोसा करने लगता है। जवान आदमी कहता है, पता नहीं, है या नहीं। हो सकता है, न भी हो। यह आदमी अभी समझकर नहीं बोल रहा है। अभी जवानी का जोश बोल रहा है। थोड़ा हाथ—पैर ढीले पड़ने दें, भरोसा आने लगेगा। थोड़ी मौत करीब आने दें, दांत गिरने दें, भरोसा आने लगेगा। क्यों?  

इसलिए नहीं कि इसे कोई अनुभव हुआ जा रहा है। कोई बुजुर्ग होने से अनुभवी नहीं होता। अगर बुजुर्ग होने से दुनिया में अनुभव मिलता होता, तो सारे लोग कितनी दफे बुजुर्ग हो चुके हैं, अनुभव ही अनुभव होता। कोई अनुभव नहीं मिलता। लेकिन बूढ़े होने से भय बढ़ता है, मौत करीब मालूम पड़ने लगती है। अब इतना भरोसा नहीं मालूम पड़ता, पैरों में इतनी ताकत नहीं मालूम पड़ती। अब तर्क करने की सुविधा नहीं मालूम पड़ती। अब लगता है, अब तो ऐसा लगता है कि वह जो अंधविश्वासी कहते हैं, वही ठीक हो, तो अच्छा। आत्मा हो! यह हमारा विश फुलफिलमेंट है, आत्मा हो। तो हम मानने लगते हैं कि आत्मा है।

 

घबड़ाहट की वजह से, भय की वजह से आदमी मान लेता है, आत्मा अमर है, अनुभव की वजह से नहीं। क्योंकि अनुभव तो बड़ी और बात है। और अनुभव तो उसे उपलब्ध होता है, जो मृत्यु से भय छोड़ देता है और जीवन की वासना छोड़ देता है।

हम तो मृत्यु के भय से, आत्मा अमर है, मान लेते हैं। हमें कभी पता नहीं चलेगा कि आत्मा है भी। उसी को पता चलेगा, जो मृत्यु का भय नहीं करता और जीवन का मोह नहीं करता।

कौन है जो मृत्यु का भय नहीं करे और जीवन का मोह न करे? वही व्यक्ति, जो जीवन और मृत्यु को एक की तरह देख ले, अनुभव कर ले। और इसके लिए कहीं शास्त्र में जाने की जरूरत नहीं। और इसके लिए किसी महापुरुष, महाज्ञानी के चरणों में बैठने की जरूरत नहीं। जीवन काफी शिक्षा है।

जीवन और मृत्यु दो कहां हैं? वे एक ही हैं। हमने अपने मोह में बांटा है दो में। वे एक ही हैं। कभी आपको पता है किस दिन जन्म समाप्त होता है और मृत्यु शुरू होती है? और किस दिन, किस सीमा पर जीवन समाप्त होता है और मृत्यु का आगमन होता है? कहीं कोई विभाजन नहीं है। कोई वाटर—टाइट कंपार्टमेंट, कोई खंड—खंड बांटने का उपाय नहीं है। जीवन, मृत्यु एक ही चीज के दो नाम मालूम पड़ते हैं। एक ही घटना के लिए दो शब्द मालूम हैं। एक छोर जीवन, दूसरा छोर मृत्यु।

तो हम परमात्मा का रूप बनाते हैं, मोहक, सुंदर। हमने ना रखे हैं, वे सब ऐसे रखे हैं कि मन को लुभाएं। लेकिन जो हिस्सा है, वह हमने काट रखा है।

अर्जुन भी भयभीत हुआ। इसलिए नहीं कि परमात्मा का भयरूप है, बल्कि इसलिए कि आज तक उसने सोचा ही नहीं था कि यह कभी धारणा ही मन में न बनी थी कि यह भयंकर रूप परमात्मा का होगा। हम सोचते हैं यमराज को, भैंसे पर बैठे विकराल दांतों वाला, काला आदमी, सीगों वाला। लेकिन कभी यमराज को परमात्मा के साथ एक करके नहीं देखते। यमराज अलग ही मालूम पड़ता है। उसका डिपार्टमेंट, वह सब अलग विभाग है। परमात्मा से हम उसको नहीं जोड़ते हैं, कि मृत्यु परम् से आती है।

गीता के ये सूत्र बड़े कीमती हैं, इन्हें थोड़ा समझ लेना।

यमराज कहीं भी नहीं, परमात्मा के मुंह में ही है। और या कहीं किसी हाथी घोड़े पर बैठकर नहीं आने वाला है, किसी पर सवार होकर। परमात्मा के दांत, वे ही यमराज हैं।

यह देखकर अर्जुन घबड़ा गया है और वह कह रहा है कि लोक व्याकुल हो रहे हैं, मैं भी व्याकुल हो रहा हूं। क्योंकि हे विष्णो! आकाश के साथ स्पर्श किए हुए, देदीप्यमान, अनेक रूपों से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से आपको देखकर भयभीत अंतःकरण वाला मैं धीरज और शांति नहीं प्राप्त होता हूं।

वह ठीक कह रहा है। वह कह रहा है, आपकी वजह, भयभीत हो रहा हूं ऐसा नहीं, भयभीत अंतःकरण वाला, मैं भयभीत अंतःकरण वाला हूं इसलिए भयभीत हो रहा हूं। अकारण भयभीत नहीं हो रहा हूं। आप तो विशाल हैं, महान हैं, हैं, महादेव हैं, आप तो परमेश्वर हैं। आपके कारण भयभीत नहीं हो रहा हूं, लेकिन मेरा अंतःकरण भय वाला है।

इसे हम थोड़ा समझ लें।

हम सबके पास अंतःकरण भय वाला है। यह थोड़ा गहन और आपको पता भी नहीं कि आपका अंतःकरण क्या कानशिएंस क्या है।

आप चोरी करने से डरते हैं। भीतर कोई कहता है, चोरी बुरी है।आप पडोसी की स्त्री को भगा ले जाने से बचते हैं। भीतर कोई कहता है, यह बात बुरी है। नहीं करना। उसे देखकर यह कांप रहा है। यह वास्तविक अंतःकरण नहीं है। यह सामाजिक व्यवस्था है।

इसलिए एक समाज में अगर चचेरी बहन से शादी होती है, तो कोई अड़चन नहीं है। चचेरी बहन से शादी हो जाती है। किसी को कोई तकलीफ नहीं होती। और दूसरे समाज में उसी के पड़ोस में चचेरी बहन से शादी करने की बात ही महापाप हो सकती है। कोई सोच भी नहीं सकता कि बहन से भी, और प्रेम कर सकते हैं! संभव ही नहीं है। और उसको पत्नी बना सकते हैं, यह तो बिलकुल ही कल्पना के बाहर है। यह अंतःकरण है।

यह जब तक दुनिया में बहुत समाज हैं, बहुत संप्रदाय हैं, तब तक बहुत अंतःकरण होंगे। और इन अंतःकरण के कारण बड़ा उपद्रव है। और दुनिया तब तक एक नहीं हो सकती, जब तक हम कोई एक युनिवर्सल कांशिएंस पैदा न कर लें। तब तक दुनिया एक नहीं हो सकती। लाख लोग सिर पटकें कि हिंदू मुसलमान भाई भाई। लाख लोग सिर पटकें कि हिंदी चीनी भाई  भाई। यह असंभव है। क्योंकि भाई भाई तब तक नहीं हो सकते, जब तक भीतर के अंतःकरण भिन्न—भिन्न हैं। तब तक सब ऊपरी होगा, थोथा, दिखावा। मौके पर सब कलई खुल जाएगी और दुश्मन बाहर निकल आएंगे। ऊपर से होगा, क्योंकि वह जो भीतर अंतःकरण क्‍या है। कानशिएंस क्‍या है।

आप चोरी करने से डरते है। भीतर कोई कहता है,चोरी बुरी है। आप पड़ोसी की स्‍त्री को भगा ले जाने से बचते है। भीतर कोई कहता है, यह बात बुरी है। किसी की हत्या करने से भय है, कांपता है मन। भीतर कोई कहता है, हत्या पाप है। हिंसा बुरी है। कौन कहता है आपके भीतर? जो आपके भीतर बोलता है, यह अंतःकरण है।

यह अंतःकरण वास्तविक नहीं है। क्योंकि वास्तविक अंतःकरण भय के कारण नहीं जीता। वास्तविक अंतःकरण तो ज्ञान के कारण जीता है। यह अंतःकरण सोशल प्रोडक्ट है, समाज के द्वारा पैदा किया गया है। यह समाज बच्चा पैदा होते  ही बच्चे में अंतःकरण पैदा करने में लग जाता है। क्योंकि समाज को भय है कि अगर बच्चे को ऐसे ही छोड़ दिया जाए, तो वह पशु जैसा हो जाएगा।

और इस भय में सचाई है। अगर बच्चे को कुछ भी न कहा जाए, तो वह पशु जैसा हो जाएगा। तो समाज उसे बताना शुरू करता है। वह कहता है, अगर तुम ऐसा करोगे, तो दंड पाओगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो पुरस्कार पाओगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो माता— पिता प्रसन्न होंगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो दुखी होंगे, नाराज होंगे, कष्ट पाएंगे।

धीरे धीरे हम बच्चे में भय और लोभ के आधार पर अंतःकरण पैदा करते हैं। हम कहते हैं, तुम ऐसा करो, मां प्रसन्न है, पिता प्रसन्न हैं, सब लोग प्रसन्न हैं तुमसे। तुम ऐसा करो, और सब लोग तुम्हारी निंदा करेंगे, और सब तुम्हें निंदित कर रहे हैं। तो बच्चे को धीरे धीरे समझ में आने लगता है, किस चीज से डरे। तो जिस जिस चीज से मां बाप डराते हैं, उस उस से वह डरने लगता है। भय गहरे में बैठ जाता है, अंतःकरण बन जाता है।

इसलिए हर समाज का अंतःकरण अलग अलग होता है। हिंदू का अलग, मुसलमान का अलग, ईसाई का अलग, जैन का अलग। आत्मा अलग अलग नहीं होती, अंतःकरण अलग अलग होता है।अब एक जैन है, वह मांसाहार नहीं कर सकता। क्योंकि बचपन से उसे कहा गया है कि यह महापाप है। तो अगर मांस सामने आ जाए, तो भीतर उसके हाथ पैर कांपने लगेंगे। इसलिए नहीं कि मांस को देखकर कांपते हैं। क्योंकि दूसरा मुसलमान बैठा है, उसके नहीं कांप रहे हैं। तो मांस में कंपाने वाली कोई बात नहीं है। कांप रहे हैं अंतःकरण के कारण।

और इसी बच्चे को अगर एक मांसाहारी घर में रखा जाता, तो इसके भी नहीं कंपते। और अगर एक मांसाहारी बच्चे को गैर— मांसाहारी घर में रखा जाता, तो उसके भी कंपते। वह जो अंतःकरण बचपन से पैदा किया गया है, वह जो भय, कि क्या गलत है, वह बैठा है, वह भेद निर्मित कर रहा है।

अर्जुन कहता है, मेरे अंतःकरण के कारण मैं भयभीत हो रहा हूं आपके कारण नहीं। और ठीक कह रहा है। यह उसका निरीक्षण बिलकुल उचित है। अंतःकरण ने आज तक उसके यही जाना है कि परमात्मा सौम्य है, सुंदर है, प्रीतिकर है, आनंदपूर्ण है, सच्चिदानंद है, आनंदघन है। अब तक उसने यही जाना है। मृत्यु भी परमात्मा है, यह उसने न सुना है, न जाना है।

इसलिए बचपन से बना हुआ अंतःकरण परमात्मा की एक प्रतिमा लिए है, वह प्रतिमा खंडित हो रही है। इसलिए वह व्यथित है। और न केवल वह कहता है, मैं व्यथित हूं सारे लोक व्यथित हैं। यह रूप बहुत घबड़ाने वाला है।

और हे भगवन्! आपके विकराल जाड़ों वाले और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर दिशाओं को नहीं जानता हूं और सुख को भी प्राप्त नहीं होता हूं।

दिशा भ्रांति हो गई है। अब मुझे पता नहीं कि उत्तर कहां है, दक्षिण कहां है, पूरब कहां है! वह यह कह रहा है कि अब मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, मेरा सिर घूम रहा है। दिशाएं पहचान में नहीं आती कि क्या क्या है! यह तुम्हारा रूप देखकर दिशाएं भ्रांत हो गईं, मेरे पथ खो गए। मेरा मार्ग धुएं से भर गया। और जरा भी सुख को प्राप्त नहीं होता हूं। यह जो आपको देख रहा हूं— आप भगवान हैं! वह कह रहा है, आप भगवान हैं, आप परमेश्वर हैं, फिर भी आपका यह रूप देखकर जरा भी सुख को प्राप्त नहीं होता हूं। जरा भी मुझे, जरा भी सहारा सुख के लिए आपकी इस स्थिति को देखकर नहीं मिलता है।

इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होवे।

वह यह कह रहा है कि आप कृपा करें और यह रूप तिरोहित कर लें। और वह जो प्रसन्नवदन, वह जो मुस्कुराता हुआ आनंदित रूप था, आप उसमें वापस लौट आएं।

आदमी का मन आखिर तक, अंत तक भी परमात्मा पर अपने को थोपना चाहता है। अंत तक भी, परमात्मा जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लेने की तैयारी नहीं होती। अंत तक!

साधक की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि वह परमात्मा पर भी अपने को थोपता है। और तब तक सिद्ध नहीं हो पाता, जब तक परमात्मा जैसा भी हो, उसको वैसा ही स्वीकार कर लेने की स्थिति न आ जाए।

अभी अर्जुन थोड़ा—सा विनम्र निवेदन कर रहा है कि प्रसन्न हो जाएं। यह हटा लें। यह प्रज्वलित, प्रलयंकारी रूप अलग कर लें। ओंठों पर थोड़ी मुस्कुराहट ले आएं। आपके चेहरे पर हंसी को  देखकर, आनंद को देखकर मुझे सुख होगा।। इसे खयाल में लें।

जब तक आप सोचते हैं कि परमात्मा ऐसा होना चाहिए, जब तक आपकी परमात्मा की कोई धारणा है, तब तक आप परमात्मा को नहीं जान पाएंगे। तब तक जो भी आप जानेंगे, वह परदा होगा। अगर आपको परमात्मा को ही जानना है, तो आपको अपनी सारी धारणा अलग कर देनी होगी; हिंदू मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सब हटा देने होंगे। आपको निपट परमात्मा को शून्य की तरह जानने के लिए खड़ा हो जाना पड़ेगा। अपना अंतःकरण, अपने भरोसे, विश्वास, अपनी दृष्टि, सब हटा देनी होगी। और जैसा भी हो—विकराल हो, मृत्यु हो, अमृत हो, जो भी हो— उसके लिए राजी हो जाना होगा।

जब भी कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में राजी हो जाता है, तो परमात्मा के दोनों रूप खो जाते हैं—विकराल भी, सौम्य भी। और जिस दिन  ये दोनों रूप खोते हैं, उस अनुभव को हमने ब्रह्म—अनुभव कहा है। जब तक ये रूप रहते हैं, तब तक हमने इसे ईश्वर अनुभव कहा है। इस फर्क को थोड़ा समझ लें।

यह ईश्वर का अनुभव है, जब तक ये दो रूप हमें दिखाई पड़ते हैं। जिस दिन ये दो रूप भी नहीं दिखाई पड़ते— दोनों में चुनाव नहीं रह जाता, उसी दिन दिखाई नहीं पड़ते— उस दिन जो रह जाता है, वह ब्रह्म है।

भारत ने बड़ी साहस की बात कही है। भारत ने ईश्वर को भी माया का हिस्सा कहा है। यह सुनकर आपको कठिनाई होगी। भारत कहता है, ईश्वर भी माया का हिस्सा है। ईश्वर—अनुभव भी माया का हिस्सा है। ब्रह्मानुभव! क्योंकि ईश्वर में भी रूप हैं। और ईश्वर के साथ भी हमारा लगाव है, अच्छा—बुरा; ऐसा हो, ऐसा न हो।

भक्त भगवान को निर्मित करते रहते हैं, सजाते रहते हैं। मंदिरों में ही नहीं; मंदिरों में तो वे सजाते ही हैं, क्योंकि भगवान बिलकुल अवश है, वह कुछ कर नहीं सकता, जो करना चाहो, करो। वहां.....। 

लेकिन यह अर्जुन ठेठ भगवान के सामने खड़े होकर भी कह रहा है। कि ऐसा अच्छा होगा, मुझे सुख मिलेगा। आप जरा प्रसन्न हो जाएं। यह रूप हटा लें, यह तिरोहित कर लें।

ये क्या कह रहा है? ये यह कह रहा है कि अभी भी केंद्र मैं हूं। मेरा सुख! आप ऐसे हों, जिसमें मुझे सुख मिले। मैं ऐसा हो जाऊं, जिसमें आप आनंदित हों, ऐसा नहीं। मैं आनंदित होऊं, ऐसे आप हो जाएं। यह आखिरी राग है। और तब तक शेष रहता है, जब तक  हम माया की आखिरी परिधि ईश्वर को पार नहीं कर लेते।

कहता है अर्जुन, हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होवे। और मैं देखता हूं कि वे सब ही धृतराष्ट्र के पुत्र, राजाओं के समुदाय आपमें प्रवेश  करते हैं। और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सबके सब वेगयुक्त हुए आपके विकराल जाड़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्ण हुऐ सिरों सहित आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिखते हैं।

और हे विश्वमूतें! जैसे नदियों के बहुत—से जल के प्रवाह समुद्र के ही सम्मुख दौडते हैं और समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे शूरवीर मनुष्यों के समुदाय भी आपके प्रज्वलित हुए मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।

वह कहता है कि आपके दांतों में दबे हैं। और न केवल दबे हैं, उनके सिर चूर्ण हो गए हैं। जैसे आपने उनका भोजन कर लिया हो और वे आपकी दाढ़ों में चिपककर रह गए हैं। और वे महाबलशाली लोग, जिनके लिए कल्पना भी नहीं कर सकता अर्जुन! भीष्म पितामह, इतना बलशाली व्यक्ति, वह भी जाकर चूर्ण हो जाएगा मृत्यु के मुख में पड़कर! द्रोणाचार्य, उसका गुरु, वह भी इस तरह असहाय होकर दांतों में चिपट जाएगा! कर्ण, उस विपरीत शत्रुओं के वर्ग का सबसे शूरवीर पुरुष, वह भी ऐसा दयनीय हो जाएगा! और न केवल धृतराष्ट्र के पुत्र, मेरे पक्ष के लोग भी आपके दांतों में दबे मर रहे हैं, चूर्ण हुए जा रहे हैं। न केवल इतना ही, बल्कि जो बाहर हैं, वे तेजी से दौड़ रहे हैं आपके मुंह की तरफ, जैसे नदियां सागर की तरफ दौड़ती हैं।

बहुत भय लगता है, अर्जुन कहता है, बहुत व्यथा होती है।  बंद कर लें यह मुंह।

हम सभी दौड रहे हैं मृत्यु की तरफ, जैसे नदियां दौड़ती हैं। और अगर यह सारा जगत, यह सारा जगत अगर शरीर है, तो निश्चित ही इस जगत के मुंह में कहीं दांतों के नीचे दबकर हम सब चूर्ण हो जाएंगे। और फिर कोई भी हो— भीष्म हों, कि द्रोणाचार्य, कि कर्ण, या कि अर्जुन—कोई भी हो, वे सभी चूर्ण हो जाएंगे। और जो नहीं चूर्ण हो रहे हैं, वे भी दौड़ रहे हैं। बड़ा श्रम उठा रहे हैं, भागे जा रहे हैं, कुछ उपलब्धि के लिए!

हम सबको यह खयाल है कि जिंदगी में कुछ पा लेंगे। और आखिर में सिवाय मौत के हम कुछ भी नहीं पाएंगे। लगता है, न मालूम क्या पा लेंगे। और पाते सिर्फ मौत हैं, और कुछ भी नहीं पाते। लाख करे उपाय आदमी, कब्र के सिवाय कहीं और पहुंचता नहीं। कोई और दूसरी मंजिल नहीं। और कितना ही इकट्ठा करे, कितनी ही उपलब्धियां, कितना ही सोचे, विचारे, योजना बनाए, आखिर में पहुंच जाता है मृत्यु के मुंह में—बिना योजना बनाए। बचता है, तो भी नहीं बच पाता। शायद बचने की कोशिश में भी वहीं पहुंच जाता है।

अर्जुन को इस जीवन की पूरी की पूरी मृत्यु में दौड़ती हुई धारा दिखाई पड़ रही है। वह भयभीत न होता, अगर उसे ऐसा दिखाई पड़ता कि मृत्यु कहीं और घटित हो रही है, परमात्मा के मुंह में नहीं, तो इतना भयभीत न होता। कम से कम परमात्मा से सहारा मिल सकता था, मृत्यु के विपरीत भी। अगर मृत्यु कहीं और घट रही थी, अगर कोई शैतान, कोई यमदूत मृत्यु को ला रहा था, तो परमात्मा बचाने वाला हो सकता था। अब तो बचने का भी कोई उपाय नहीं है। क्योंकि यह परमात्मा का ही मुंह है, जहां मृत्यु घटित हो रही है। इससे भयभीत हुआ है।

अगर आपको भी यह पता चल जाए कि आपके दुख का कारण परमात्मा ही है, आपकी मृत्यु का कारण परमात्मा ही है, तो भय और भी ज्यादा संतप्त कर देगा। हम कई तरकीबें निकालते हैं। हम कहते हैं कि दुख का कारण दुष्ट आत्माएं हैं। दुख का कारण शैतान, इबलीस, बीलझेबब— हमने शैतान के हजार नाम खोज रखे हैं— वह है दुख का कारण। दुख का कारण पिछले जन्मों के कर्म हैं। यह मृत्यु कोई परमात्मा के कारण नहीं हो रही, यह तो शरीर क्षणभंगुर है, इसके कारण हो रही है। हम हजार तरकीबें खोजते हैं। परमात्मा को बचाते हैं। उससे हमारे मन में एक तो राहत रहती है कि सब कुछ हो......।

सुना है मैंने, कबीर ने एक पद लिखा कि चलती चक्की देखकर मैं बहुत घबड़ा गया। क्योंकि उस चलती चक्की के बीच जो भी दाने दब गए, वे चूर्ण हो गए। और कबीर ने कहा है कि मुझे ऐसा लगा, यह सारा जगत एक चलती चक्की है, जिसके भीतर सब पिसे जा रहे हैं।

वह घबड़ाहट स्वाभाविक है। लेकिन स्वाभाविक इसलिए है कि हमने परमात्मा का जो रूप बनाया है, वह अपनी मनोनुकूल आकांक्षा से बनाया है। वह परमात्मा का रूप नहीं, हमारी वासनाओं का रूप है।

मृत्यु भी परमात्मा में ही घटित होती है और जीवन भी उसमें ही घटित होता है। वही मां भी है, वही मृत्यु भी। इसलिए काली की प्रतिमा बड़ी सार्थक है। उससे ही सब निकलता है और उसमें ही सब लीन होता है। सागर में सारी नदियां गिरती हैं और सारी नदियां सागर से ही पैदा होती हैं। सारी नदियां सागर से पैदा होती हैं। फिर चढ़ती हैं नदियां धूप की किरणों के सहारे बादलों में, फिर बादलों के सहारे पहाड़ों पर, फिर गंगोत्रियो में गिरती हैं और फिर सागर की तरफ दौड़ती हैं।

जो नदी सागर में अपने को गिरते देखती होगी, वह घबड़ा जाती होगी। मिट रही है, मौत है सागर। लेकिन उसे पता नहीं कि यह सागर मौत भी है, गर्भ भी। क्योंकि कल फिर उठेगी ताजी होकर,नई होकर, युवा होकर। बुढ़िया हो गई, बासी हो गई, जमीन ने गंदी कर दी। सब गंदगी सागर छांट देगा। फिर ताजा, फिर शुद्ध, फिर वाष्पीभूत होगी। फिर गंगोत्री, फिर यात्रा शुरू होगी। यह वर्तुल है। सागर नदी की मृत्यु भी है, जन्म भी। परमात्मा सृष्टि भी है, प्रलय भी वहां होना भी है और न होना भी।

इससे अर्जुन भयभीत हो गया है। और वह कहता है, वापस लौटा लो; इस रूप को मत दिखाओ। यह रूप प्रीतिकर नहीं है। इससे मुझे जरा भी सुख नहीं मिलता है। फिर भी वह कहे चला जा रहा है, भगवान, परमेश्वर, महादेव, देवों के देव!

थोड़ा हम उसका द्वंद्व, उसकी दुविधा समझें। वह अनुभव तो कर रहा है कि यह भी परमात्मा का ही रूप है, लेकिन मन मानना नहीं चाहता कि यह भी रूप है। वह कहता है, हटा लो, प्रसन्न हो जाओ। यह रूप नहीं देखा जाता है।

यह अर्जुन की ही दुविधा नहीं है, जो व्यक्ति भी परम अनुभव के निकट पहुंचते हैं और ईश्वर— अनुभूति को उपलब्ध होते हैं, उनकी यही दुविधा है।

अर्जुन की तकलीफ यही है कि वह द्वंद्व के पार होने के किनारे खड़ा है। वह कृष्ण से कहता है, लौटा लो। वापस हो जाओ। वही रूप ठीक था, तुम जैसे थे वही। हंसो, मुस्कुराओ। यह मृत्यु वाला रूप मुझे जरा भी सुख नहीं देता है। हालांकि उसे अनुभव हो रहा है कि यह भी उनका ही रूप है।

अगर वह आज राजी हो जाए इस रूप के लिए, तो द्वंद्व के इसी क्षण पार हो जाए। लेकिन अर्जुन इस क्षण तक राजी नहीं हो सका। और वापस द्वंद्व में गिरने के आग्रह कर रहा है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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