शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय14 भाग 5

 संबोधि और त्रिगुणात्‍मक अभिव्‍यक्‍ति


  अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।

तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।। 13।।

यदा सत्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।

तदोत्तमीवदां लोकानमलान्मीतयद्यते ।। 14।।

रजसि प्रलयं गत्वा कर्ममङ्गिषु जायते ।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढयीनिषु जायते।। 15।।


हे अर्जुन, तमोगुण के बढने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश एवं कर्तव्य— कर्मों में अप्रवृति और प्रमाद और निद्रादि अंतःकरण की मोहिनी वृत्तियां, ये सब ही उत्पन्‍न होते हैं।

और हे अर्जुन, जब यह जीवात्मा सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के मलरीहत अर्थात दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है। और रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर क्रमों की आसक्‍ति वाले मनुष्यों में उत्पन्‍न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ पुरूष मूढ़ योनियों में उत्पन्‍न होता है।


हे अर्जुन, तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश एवं कर्तव्य—कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद और निद्रादि अंतःकरण की मोहनी वृत्तियां, ये सब उत्पन्न हो जाती हैं।

एक—एक गुण का लक्षण कृष्ण गिना रहे हैं। ठीक से समझें। तमोगुण के बढ़ने पर जीवन में अप्रकाश, अंधेरा मालूम होने लगता है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम पढते हैं शास्त्रों में कि भीतर देखो, वहा परम ज्योति जल रही है। हम भीतर देखते हैं, वहां सिर्फ अंधकार है!

परम ज्योति निश्चित ही वहां जल रही है। जिन्होंने कहा है, उन्होंने देखकर ही कहा है। पर आप जब तक तमस से घिरे हैं, तब तक आप जहां भी देखें, वहीं अंधकार पाएंगे। भीतर देखें, तो अंधकार पाएंगे, बाहर देखें, तो अंधकार पाएंगे। जीवन में तलाश करें, तो आपको लगेगा, सब अंधेरा है। क्या फायदा है इस जीवन का? क्या हो रहा है? कहां मैं पहुंच रहा हूं? यह सब अंधे की तरह चला जा रहा हूं।

हर आदमी, जिसमें थोड़ा भी विचार है, विचारेगा तो फौरन पाएगा, चारों तरफ गहन अंधकार है। और इस अंधकार से कोई छुटकारा नहीं दिखता। और दीये वगैरह की बातचीत ही बातचीत मालूम होती है। कहीं कोई दीया नहीं दिखाई पड़ता; कहीं कोई आपकी प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता।

वह अंधकार तमोगुण के कारण है। और जब तमोगुण बढ़ेगा, तो अंधकार बढेगा। इसलिए आपकी जिंदगी में भी अंधकार की तारतम्यता होती है। जब कभी आप किसी सात्विक वृत्ति में डूब जाते हैं, तो आपकी जिंदगी में भी एक आलोक आ जाता है। कभी छोटे—से कृत्य में भी यह घटना घटती है।

आप राह से गुजर रहे हैं, किसी का एक्सिडेंट हो गया, कोई राह के नीचे गिर पड़ा। आप अपना काम छोड्कर उस आदमी को उठा लिए। आपके भीतर का तमस तो कहेगा कि किस झंझट में पड रहे हो! पुलिस थाने जाना पड़े; अस्पताल जाना पड़े। और पता नहीं कोई उपद्रव इसमें आ जाए! आपके भीतर का तमस तो कहेगा कि रास्ते पर अपने चलो। समझो कि तुमने देखा ही नहीं। तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं है।

लेकिन अगर उस तमस का आपने साथ न दिया, सहयोग न दिया और मन में उठी सत्य की वृत्ति का सहयोग किया, उस व्यक्ति को उठा लिया, चाहे थोड़ी झंझट हो। झंझट संभव है। झंझट नहीं होगी, ऐसा भी नहीं। थोड़ी परेशानी हो, अपना काम छोड्कर किसी दूसरे काम में उलझना पड़े। लेकिन अगर आपने उठा लिया, तो उस क्षण में आप अपने भीतर अगर ध्यान करेंगे, तो आप पाएंगे कि वहा धीमा प्रकाश है।

सच तो यह है कि मंदिर जाने के पहले आपको अपने सत्व को जगा लेना चाहिए, तो ही मंदिर में जाने की कोई सार्थकता है। कुछ करें, जिससे सत्व जगता हो। सत्व जग जाए, तो प्रार्थना आसान हो जाएगी। सत्व जग जाए तो आंख बंद करने से भीतर हलका प्रकाश मालूम होगा।

यह हलका प्रकाश कोई प्रतीक नहीं है। यह वास्तविक घटना है। आप चौबीस घंटे इसका अनुभव करें। जब मन क्रोध से भरा हो, तब आंख बंद करके देखें। तब आप पाएंगे, भीतर बहुत घना अंधकार है। जब मन दया और करुणा से भरा हो, तब आंख बंद करके देखें। तब आप पाएंगे, भीतर थोड़ी रोशनी है। और जब मन ध्यान से भरा हो, तब भीतर देखें। तो पाएंगे, विराट प्रकाश है।  

कृष्ण कह रहे हैं, तमोगुण के बढने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश।

अंतःकरण में अंधेरा और इंद्रियों में भी अंधेरे का एक बोध होगा। जब तम बढ़ेगा, तो आप अपने शरीर में भी पाएंगे कि एक बोझिलता है। आप पाएंगे कि जैसे शरीर वजनी है। जब आप सत्व वृत्ति से भरे होंगे, तो पाएंगे, शरीर हल्का है, आलोकित है। आप उछलते हुए चल रहे हैं। जैसे जमीन की कशिश कम काम करती है। जैसे आप पर उसका कोई प्रभाव नहीं है।

और योगियों को निरंतर अनुभव हुए हैं; और जो भी लोग ध्यान में बैठते हैं, उनको भी अनुभव होते हैं। ध्यान करते—करते अचानक ऐसा लगता है कि जमीन से उठ गए। जरूरी नहीं कि आप उठ गए हों। आंख खोलकर पाते हैं कि जमीन पर बैठे हुए हैं। लेकिन आंख बंद करके लगता है, जमीन से उठ गए।

वह अनुभव वास्तविक है। वास्तविक इस अर्थ में नहीं है कि आप जमीन से उठ गए। वास्तविक इस अर्थ में है कि भीतर आप इतने हलके हो जाते हैं कि ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जमीन से हट गए होंगे। और कभी—कभी यह घटना इतनी गहरी घटती है कि वस्तुत: शरीर जमीन से ऊपर उठ जाता है।

इंद्रियां और अंतःकरण दोनों अप्रकाश से भरते हैं तमोगुण के कारण। और कर्तव्य—कर्मों में अप्रवृत्ति हो जाती है।

कर्तव्य—कर्म का अर्थ है, जिसको करना जरूरी था, अनेक कारणों से। मां बीमार है, उसके लिए दवा ले आना जरूरी था। जिसने जीवन दिया है, उसके जीवन की थोड़ी चिंता और फिक्र एकदम स्वाभाविक है। लेकिन तमस से भरा हुआ व्यक्ति उसमें भी आलस्य करेगा। वह सोचेगा, हजार तरकीबें मन में सोचेगा। न करने के उपाय सोचेगा।

वह यह भी सोच सकता है कि यह बीमारी कोई खतरनाक थोड़े ही है। वह यह भी सोच सकता है कि डाक्टर कहां ठीक कर पाते हैं! सब प्रभु की कृपा से ठीक होता है। वह यह भी सोचेगा कि भाग्य में ठीक होना होगा, तो हो ही जाएगी। नहीं होना होगा, तो कुछ किया नहीं जा सकता। वह सब बातें सोचेगा।

अक्सर तामसी वृत्ति के लोग भाग्य की बातें सोचते हैं, भगवान की बातें सोचते हैं; सिर्फ अपने को बचाने के लिए। यह भगवान और भाग्य कोई उनके जीवन की क्रांति नहीं है। यह सिर्फ पलायन और बचाव है।

कृष्ण कहते हैं, कर्तव्य—कर्म छोड़ देगा।

घर में आग लग जाए, तो नहीं बैठा रहेगा कि जब भाग्य में है......। मां बीमार हो, तो कहेगा, सब भाग्य से होता है। पिता भूखा मर रहा हो, तो सोचेगा, क्या किया जा सकता है! अपने— अपने कर्मों का फल है, सबको भोगना पड़ता है। लेकिन घर में आग लग जाए, तो यह सबसे पहले भागकर खड़ा बाहर हो जाएगा। तब यह नहीं सोचेगा कि बचना होगा, तो बचेंगे; जलना होगा, तो जलेंगे। जाना कहा! आना कहां!

कर्तव्य जहां है, वहां यह तमस वृत्ति से भरा हुआ व्यक्ति कर्तव्य को काटेगा, और जहां वासना है, वहां नहीं काटेगा। और यह सब तरकीबें खोजेगा।

आदमी बहुत बेईमान है। वह सभी अच्छे शब्दों के पीछे अपनी गलतियों के सहारे खोज लेता है। प्रगतिशील के पीछे वह सब तरह की नासमझिया खोज लेता है। भाग्य के पीछे वह सब तरह के आलस्य को छिपा लेता है। परमात्मा के नाम के पीछे सब तरह के तमस को लेकर बैठ जाता है।

कृष्ण कहते हैं, जब तमस बढ़ता है, उसका घनीभूत रूप होता है मन में, तो कर्तव्य—कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद होता है। निद्रादि अंतःकरण की मोहिनी वृत्तियां, ये सभी उत्पन्न होती हैं।

और ज्यादा नींद आती मालूम पड़ती है। नींद का मतलब इतना ही है कि वह ज्यादा सोया रहता है। हर चीज में जागा हुआ नहीं रहता; सोया—सोया रहता है। गीता भी पड़ेगा, तो ऐसे पढ़ रहा है, जैसे नींद में पढ़ रहा हो। सुन भी रहा है, तो ऐसे सुन रहा है, जैसे सोया हो और सुन रहा है।

धार्मिक मंदिरों में सभाओं में जाकर देखें, लोग सोए हुए हैं। कुछ डाक्टर तो कहते हैं कि नींद न आती हो, तो धार्मिक सभा में जाकर बैठें। वहां निश्चित आ जाती है। जिस पर ट्रैक्येलाइजर भी सफल नहीं होता, उसको भी आ जाती है। राम की कथा सुनो, एकदम नींद आने लगती है!

एक आलस्य है, जो मन को पकड़े हुए है सब तरफ। निद्रा बढ़ती है; मोहिनी वृत्तियां पैदा होती हैं।

मोहिनी वृत्ति का अर्थ है, उस चीज में ज्यादा मन लगता है, जहां बेहोशी बढ़े। शराब हो, नाच हो, संगीत हो, कामवासना हो, जहां भी निद्रा बढ़े, जहां भी जागरण की कोई जरूरत न हो, वहां उस तरफ जाने का भाव प्रवाहित होता है।

जब यह जीवात्मा सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के मलरहित अर्थात दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है।

और जब जीवनभर के अंत में जीवन का सारा निचोड़ और सार है, मृत्यु के क्षण में आपने जीवन में जो भी कमाया है, वह सारभूत सब आणविक होकर आपके साथ खड़ा हो जाता है।

अगर कोई व्यक्ति जीवनभर तमस से भरा रहा है, तो मरने के पहले बेहोश हो जाता है। अधिक लोग मरने के पहले बेहोश हो जाते हैं। मृत्यु होश में नहीं घटती। जो जीए ही नहीं होश में, वे मर कैसे सकते हैं! सिर्फ सत्व—प्रधान व्यक्ति ही मरते वक्त होश से भरे होते हैं। वह लक्षण है कि उसने जीवन में जागा हुआ होने का, अप्रमाद में रहने का प्रयास किया, तो मृत्यु जागते घटती है। वह मृत्यु को देख पाता है। और जो मृत्यु को देख पाता है, वह अमृत हो जाता है।

रजोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मृत्यु के क्षण में भी जीवन की ही सोचता रहता है। वह तब भी सोचता रहता है, कितने काम अधूरे रह गए। थोड़ा मौका मिल जाए, तो ये भी पूरे कर दूं। वह कभी यह नहीं सोचता कि सब भी पूरे करके क्या होगा? और काम तो अधूरे रह ही जाएंगे। क्योंकि वासनाओं का कोई अंत नहीं है। कितना ही करो, कभी भी करो, आधे में ही मरना पड़ेगा।

कोई भी आदमी पूर्ण विराम पाकर नहीं मर सकता, कि कहे कि सब काम पूरे हो गए, सब वासनाएं तृप्त हो गईं, जो करना था सब कर लिया, अब जीने का कोई कारण नहीं। नहीं, कोई आदमी ऐसा नहीं मर पाता। कुछ न कुछ बाकी रहेगा ही। और जैसे—जैसे मौत करीब आती है, वैसे—वैसे लगता है कि बहुत बाकी रह गया। समय कम और करने को ज्यादा, और करने की क्षमता रोज क्षीण होती चली जाती है।

तमोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त बेहोश हो जाता है। रजोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त भी मन में क्रियाएं जारी रखता है। सत्वगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त शांत जागरूकता में मरता है, होशपूर्वक मरता है। इन तीनों के परिणाम होंगे आने वाले जीवन पर।

जो सत्वगुण की स्थिति में मृत्यु को उपलब्ध होगा, कृष्ण कहते हैं, वह दिव्य स्वर्गादिक लोकों में प्रवेश कर जाता है।

सत्व की स्थिति में जो मरता है, वह परम सुख की अवस्था में प्रवेश कर जाता है। स्वर्ग परम सुख की अवस्था है। लेकिन ध्यान रखें, अंतिम अवस्था नहीं है। सुख की ही अवस्था है; आनंद की अवस्था नहीं है। और आनंद और सुख में इतना ही फर्क है कि सुख की अवस्था शाश्वत नहीं है, समाप्त होगी। और आनंद की अवस्था शाश्वत है, समाप्त नहीं होगी।

सुख की अवस्था के बाद फिर दुख आएगा। जैसे दिन के बाद रात आती है, ऐसा सुख के बाद फिर दुख आएगा। चाहे सुख कितना ही लंबा हो, लेकिन दुख से छुटकारा नहीं है। दुख पीछे खड़ा हुआ प्रतीक्षा कर रहा है। सुख एक कमाई है, जो चुक जाएगी। इसलिए स्वर्ग में गया हुआ वापस लौट आएगा; कितने ही समय के बाद, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वापस लौटना सुनिश्चित है।

सुख अंतिम नहीं है। उसके साथ दुख जुड़ा है। आनंद अंतिम है। उसके साथ फिर कुछ भी नहीं जुड़ा है। जो आनंद में प्रविष्ट हो गया, उसका पुनरागमन नहीं है; वह वापस नहीं लौटता।

सत्व की स्थिति में मरा हुआ व्यक्ति स्वर्ग में प्रवेश पाता है। जिसने जीवनभर साधुता साधी हो, सत्व को जगाया हो, होश को निर्मित किया हो, वह स्वर्ग में प्रवेश करता है।

रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है।

और अगर रजोगुण पीछे पड़ा रहा हो, मरते क्षण में भी योजनाएं बनती रही हों, फाइव इयर प्लान तैयार होते रहे हों, तो ऐसा आदमी मरकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है।

कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्य हैं। कोई धन के लिए दौड़ रहा है, कोई पद के लिए दौड़ रहा है, कोई प्रतिष्ठा के लिए दौड़ रहा है। कुछ करना है उन्हें। कुछ करके दिखाना है, चाहे कोई देखने को उत्सुक हो या न हो। चाहे कुछ करने से फल आता हो, न आता हो। 

यह जो करने की वृत्ति पैदा होती है, इसके लक्षण मां के पेट में बच्चा होता है, तब भी दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। वह जो रजोगुणी बच्चा है, वह मां के पेट में भी हलन—चलन ज्यादा मचाता है। इसलिए मां जान जाती है कि पेट में लड़की है या लड़का। अगर लड़का है, तो थोड़ा उपद्रव ज्यादा करता है। क्योंकि पुरुष ज्यादा रजोगुण—प्रधान है। स्त्री ज्यादा तमोगुण—प्रधान है। इसलिए लड़की होती है, तो वह शांत पड़ी रहती है। लड़का होता है, तो वहां थोड़ी कुछ क्रांति खड़ी करता है। उसमें भी अगर राजनीतिज्ञ होने वाला हो..!

मरते वक्त हम अपना अगला जन्म निश्चित कर रहे हैं। जो गुण सघन हो जाता है, वही हमें अगले जन्म की यात्रा पर भेद पैदा करता है।

रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है।

और तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ पुरुष मूढ़ योनि में उत्पन्न होता है।

मूढ़ योनि की बड़ी गलत परिभाषाएं हुई हैं। अनेक गीता के व्याख्याकारों ने मूढ़ योनि का अर्थ लिया है कि वह पशुओं में चला जाता है। वह गलत है। क्योंकि लौटकर नीचे गिरने का कोई उपाय जगत में नहीं है। कोई मनुष्य की स्थिति में एक बार आ जाए, तो वापस पशु नहीं हो सकता। क्योंकि वापस पशु होने का तो मतलब यह हुआ कि मनुष्यता तक पहुंचने की जो कमाई थी, उसका क्या होगा।

चेतना कभी पीछे नहीं लौटती। रुक सकती है। आगे न जाए, यह हो सकता है। अवरुद्ध हो जाए, लेकिन पीछे नहीं लौट सकती। एक बच्चा अगर दूसरी कक्षा में आ गया, तो उसको पहली कक्षा में वापस भेजने का कोई उपाय नहीं। वह दूसरी में पचास साल रुके, तो रुक सकता है, कोई हर्जा नहीं। लेकिन उसको पहली में वापस करने की कोई व्यवस्था नहीं है। क्योंकि वह पहली पार कर ही चुका। और जो हम जान चुके, उसे न—जाना नहीं किया जा सकता। जो हम कर चुके, उस अनकिया नहीं किया जा सकता।

इसलिए मेरी दृष्टि में जिन—जिन व्याख्याओं में कहा गया है कि तमस से भरा हुआ व्यक्ति पशुओं की योनि में चला जाता है, ये व्याख्याएं गलत हैं। और जिन्होंने की हैं, वे केवल शब्दों के आधार पर व्याख्याएं कर रहे हैं।

मूढ़ योनि का मतलब है कि मनुष्यों में ही, जैसे कर्म से भरे हुए लोग हैं, सत्व से भरे हुए लोग हैं, वैसे ही तमस से भरे हुए मूढ़ लोग हैं।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पांच प्रतिशत बच्चे मूढ़ योनि में हैं, जिनको हम ईडियट कहें, इम्बेसाइल कहें। पांच प्रतिशत बच्चे। न कोई बुद्धि है, न कुछ करने का भाव है। अपने जीवन की रक्षा तक की सामर्थ्य नहीं है। जो मूढ़ बच्चा है, घर में आग लग जाए तो भागकर बाहर नहीं जाएगा। उसको यह भी पता नहीं है कि मुझे अपने को बचाना है। इतना भी कर्म पैदा नहीं होता। यह योनि मूढ़ योनि है। जिसको मनोवैज्ञानिक ईडियोसि कहते हैं, उसको ही कृष्ण ने मूढ़ कहा है।

मूढ़ का मतलब पशु नहीं है। अगर पशु ही कहना होता, तो पशु ही कह दिया होता, मूढ़ कहने की कोई जरूरत न थी। पशु मूढ़ नहीं होते, सिर्फ मनुष्य ही मूढ़ हो सकता है। पशु मूर्ख नहीं होते, सिर्फ मनुष्य ही मूर्ख हो सकता है।

जो सत्व—प्रधान हैं, वे भी पांच प्रतिशत होते हैं। यह बड़ी आश्चर्यजनक बात है। मनोविज्ञान के आधार पर पाच प्रतिशत लोग टैलेंटेड होते हैं, प्रतिभाशाली होते हैं। वैज्ञानिक हैं, कवि हैं, दार्शनिक हैं, संत हैं। पांच प्रतिशत लोग एक छोर पर प्रतिभासंपन्न होते हैं। और ठीक पांच प्रतिशत लोग दूसरे छोर पर छू होते हैं। बाकी नब्बे प्रतिशत लोग बीच में होते हैं। ये मध्यवृत्तीय लोग हैं, मध्यवर्गीय लोग हैं।

ये जो मध्यवर्गीय लोग हैं, इनमें मूढ़ता भी सम्मिलित है, बुद्धिमत्ता भी सम्मिलित है। ये दोनों का मिश्रण हैं।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि स्थिति करीब—करीब ऐसी है, जैसा शिव का डमरू होता है, उसको हम उलटा कर लें। शिव का डमरू बीच में तो पतला होता है, दोनों तरफ बड़ा होता है। बीच में संकरा हो जाता है। इसको हम उलटा कर लें। दोनों तरफ संकरा और बीच में चौड़ा। तो दोनों तरफ संकरे छोरों पर पांच—पांच प्रतिशत लोग हैं।

वे जो पांच प्रतिशत लोग हैं, वे सत्व के कारण इस जगत में प्रतिभा से भरे हुए पैदा होते हैं। प्रतिभासंपन्न होना ही स्वर्ग में होना है। प्रतिभा सुख है। सुख की सूक्ष्म अनुभूति। और पांच प्रतिशत लोग मूढ़ होते हैं, जिनको कुछ भी होश नहीं, जिनको खाने—पीने का भी होश नहीं, जिनको उठने—बैठने का भी पता नहीं। बाकी लोग बीच में हैं, नब्बे प्रतिशत लोग।


ठीक मध्य में बड़े से बड़ा वर्ग है। करीब पचास प्रतिशत लोग ठीक मध्य में हैं। ये पचास प्रतिशत लोग दोनों तरफ यात्रा कर सकते हैं। चाहें तो कभी भी मूढ़ हो सकते हैं, और चाहें तो कभी भी प्रतिभा अर्जित कर सकते हैं। और यह निर्धारण मरने के क्षण में हो जाता है कि आप कैसे मर रहे हैं। तम से भरे हुए मर रहे हैं, रज से भरे हुए मर रहे हैं, सत्य से भरे हुए मर रहे हैं। बीच के जो लोग हैं, ये रजो—प्रधान हैं। तमो—प्रधान एक छोर पर हैं। सत्व—प्रधान दूसरे छोर पर हैं।

इस पूरी व्यवस्था को बदलने का एक ही उपाय है कि आप अपने भीतर गुणों की तारतम्यता को बदल लें। और यह कोई मरते क्षण के लिए मत रुके रहें कि मरते वक्त एकदम से सत्व—प्रधान हो जाएंगे। कोई कभी नहीं हो सकता।

मरते वक्त कुछ किया नहीं जा सकता। आपने जो जीवनभर में किया है, उसको ही इकट्ठा किया जा सकता है। जो कमाया है, वही। और आपके हाथ में फिर बदलाहट नहीं है। क्योंकि जीवन क्षीण हो रहा है, आप कुछ कर नहीं सकते।

अनेक लोग सोचते हैं, मरते वक्त राम का नाम ले लेंगे। जिन्होंने जीवनभर नहीं लिया राम का नाम, मरते वक्त उनके गले से वह शब्द न उठेगा। उनके होंठ सूख जाएंगे। उनके हृदय में कहीं छाया भी राम की न मिलेगी। उस वक्त तो वही शब्द उठेगा, जो उन्होंने जिंदगीभर सोचा है। कोई धन सोच रहा था, तो धन उठ सकता है। नोट दिखाई पड़ सकते हैं। तिजोरिया दिखाई पड़ सकती हैं। राम नहीं दिखाई पड़ेंगे।

वही जीवन के अंत में प्रकट होता है, जिसे हमने जीवनभर सम्हाला, बुलाया, निमंत्रण दिया है। इसलिए कल की प्रतीक्षा मत करें। और मृत्यु की राह मत देखें। जीवन ही जगह है, जहां हम अपनी मृत्यु को भी कमाते हैं।

ध्यान रहे, मृत्यु कमाई जाती है, मुफ्त नहीं मिलती। जितना आप कमाते हैं, वैसी मृत्यु हो जाती है। और जैसी मृत्यु, फिर वैसा नया जन्म हो जाता है। मृत्यु बड़ी सार्थक घटना है। क्योंकि नया जन्म उस पर निर्भर होगा। वह बीज है। नया जन्म, उससे वृक्ष बनेगा। जीवन को सत्व की तरफ ले चलें, तो आप स्वर्ग की तरफ अनिवार्य रूप से चलते जा रहे हैं।

स्वर्ग एक मनोदशा है। आप कहां हैं, यह सवाल नहीं है, कि कहीं आकाश में स्वर्ग है, वहा आप हैं। स्वर्ग एक मनोदशा है। आप जहां भी हों, सत्व से भरा हुआ व्यक्ति स्वर्ग में है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल


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