शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 15 भाग 2

दृढ़ वैराग्‍य और शरणागति


            न रूपमस्येह तथोपलभ्यते

नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।

अश्वथमेनं सुविरूद्धमूलम्

असङ्गशस्त्रेण दृढ़ेन छित्‍वा।। 3।।

तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं

यीस्मन्गता न निवतर्न्ति भूय:।

तमेव ब्राह्य पुरुषं पुपद्ये

यत: प्रवृत्ति: प्रमृता पुराणी।। 4।।

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा

अध्यात्मनित्या विनिवृक्कामा:।

द्वन्द्वैर्विमुक्‍ता: सुखदुखसंज्ञै:

गव्छज्यमूढा: पदमव्ययं तत्।। 5।।


इस संसार— वृक्ष का रूप जैसा कहा है, वैसा यहां नहीं पाया जाता है; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अंत है तथा न अच्‍छी प्रकार से स्थिति ही है। इसलिए हम अहंता? ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा काटकर, उसके उपरांत उस परम पद रूप परमेश्वर को अच्छी प्रकार खोजना चाहिए कि जिसमें गए हुए पुरुष फिर पीछे संसार में नहीं आते हैं।


और जिस परमेश्वर से यह पुरातन संसार— वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है उस ही आदि पुरुष के मैं शरण है इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके नष्ट हो गया है मान और मोह जिसका तथा जीत लिया है आसक्तिरूप दोष जिन्होंने और परमात्मा के स्वरूप में है निरंतर स्थिति जिनकी तथा अच्छी प्रकार से नष्ट हो गई है कामना जिनकी? ऐसे वे सुख— दुख नामक द्वंद्वों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं।



इस संसार—वृक्ष का रूप जैसा कहा है, वैसा यहां नहीं पाया जाता है, क्योंकि न तो इसका आदि है और न अंत है तथा न अच्छी प्रकार से स्थिति ही है। इसलिए इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा काटकर।

यह जो उलटे वृक्ष की कल्पना कृष्ण ने दी, ऐसा हम खोजने जाएंगे, तो हमें मिलेगा नहीं। उसके कई कारण हैं।

पहला तो कारण यह है कि हम उस वृक्ष की एक छोटी शाखा हैं। हम खोजने जा नहीं सकते। हम उस वृक्ष से दूर खड़े होकर देख नहीं सकते। हम उस वृक्ष के अंग हैं। इसलिए हम कैसे देख पाएंगे कि वृक्ष उलटा खड़ा है; जड़ ऊपर है और पत्ते नीचे हैं। हम पत्ते ही हैं या हम शाखाएं हैं। हम वृक्ष के अंग हैं, उससे हम दूर नहीं हो सकते हैं।

इसलिए संसार के वृक्ष की यह उलटी जो अवस्था है, ध्यान की परम गुह्य स्थिति में ही दिखाई पड़ती है। उसके पहले नहीं। क्यों? क्योंकि ध्यान की उस गुह्य स्थिति में आप वृक्ष के हिस्से नहीं रह जाते, आप संसार के हिस्से नहीं रह जाते। इसलिए सिर्फ समाधि में ही इस उलटे वृक्ष का पूरा रूप दिखाई पड़ता है। यह समाधिस्थ चित्त की अनुभूति है।

आप इसे समझ लें बुद्धि से, उतना ही काफी है। आप इसे देख न पाएंगे। वृक्ष विराट है। वैज्ञानिक कहते हैं, इसका हम कोई ओर—छोर नहीं उपलब्ध कर पाते हैं। जितनी खोज बढ़ती है, उतना ही यह वृक्ष विराट मालूम होता है। रोज नए तारे खोजे जाते हैं; नए सूरज खोजे जाते हैं।

अब तक कोई चार अरब सूरज खोजे जा चुके हैं। और कभी ऐसा लगता था कि एक सीमा आ जाएगी, जब खोज समाप्त हो जाएगी; हम पहुंच जाएंगे अंतिम सीमा पर। पर अब कोई सीमा नहीं मालूम होती है। जितना आगे बढ़ते हैं, नई खोज होती चली जाती है।

वृक्ष बहुत बड़ा मालूम होता है, विराट मालूम होता है। और हम उसके अंग हैं, इसलिए दूर खड़े होकर हम देख नहीं पाते हैं। देखने की कोई संभावना भी नहीं है।

फिर न तो इसका कोई आदि है और न अंत है। अगर इसका कोई प्रारंभ होता, तो भी देखना आसान था। अगर कभी यह अंत होता होता, तो भी देखना आसान था। यह एक अनंत श्रृंखला है। एक तरफ एक ग्रह उजड्ता है, तो दूसरा ग्रह निर्मित हो जाता है। एक तरफ एक सूरज बुझता है, तो दूसरे सूरज में प्राण आ जाते हैं।

वैज्ञानिक सोचते हैं कि शायद पांच हजार वर्ष बाद हमारा सूरज ठंडा हो जाएगा, क्योंकि उसकी गरमी रोज चुकती जाती है। लेकिन कुछ दूसरे सूरज, जो ठंडे पडे हैं, गरम होते जा रहे हैं। जैसे ही हमारा सूरज ठंडा होगा, कोई सूरज दूसरा गरम हो जाएगा। इस सूरज के ठंडे होते ही इस पृथ्वी से जीवन तिरोहित हो जाएगा। लेकिन किसी और पृथ्वी पर जीवन के अंकुरण शुरू हो जाएंगे। वैज्ञानिक हिसाब से कोई पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन अभी है। होना चाहिए। वृक्ष की एक शाखा सूखती है, तो दूसरी शाखा निकल जाती है। वृक्ष मुरझाए, कि नए अंकुर आ जाते हैं। पुराने पत्ते गिर भी नहीं पाते कि नए पत्ते प्रकट होने लगते हैं।

श्रृंखला अनंत है। इसलिए न पीछे खड़े होने का उपाय है, न आगे खड़े होने का उपाय है। न किनारे खड़े होने का उपाय है, क्योंकि हम उसके हिस्से हैं, हम श्रृंखला हैं।

और इसलिए भी अच्छी प्रकार से नहीं समझा जा सकता, क्योंकि इसकी कोई ठीक स्थिति नहीं है। यह शब्द समझ लेने जैसा है। स्थिति केवल परमात्मा की है, संसार की केवल गति है, स्थिति नहीं है।

यहां सब चीजें हो रही हैं; कोई भी चीज है की अवस्था में नहीं है। इसलिए बुद्ध ने तो कहा कि है शब्द का प्रयोग ही मत करना। जैसे हम कहते हैं, वृक्ष है। तो बुद्ध कहते हैं, ऐसा कहना ही मत, क्योंकि है की कोई स्थिति नहीं है। वृक्ष हो रहा है। जब तुम कहते हो, वृक्ष है, तब भी वह हो रहा है। हम कहते हैं, यह जवान है, तब भी हम गलत कहते हैं। क्योंकि जब हम कहते हैं, जवान है, तब वह जवान हो रहा है या बुुुढा हो रहा है। लेकिन है की कोई स्थिति नहीं है। हमेशा होने की स्थिति है, भवति। सभी कुछ बिकमिंग है। कहीं कुछ ठहरा नहीं है।

स्थिति का अर्थ है, ठहराव। परमात्मा के सिवाय और किसी की कोई स्थिति नहीं है। बाकी सब बहाव है। जैसे नदी बह रही है, ऐसे आप भी बह रहे हैं। ऐसी हर चीज बह रही है।

यह वृक्ष एक बहाव है, इसलिए भी देखना बहुत मुश्किल है। क्योंकि हर चीज बदल रही है। आप देख भी नहीं पाते कि बदल जाती है। आप इसके पहले कि समझ पाएं, स्थिति बदल जाती है। इसके पहले कि आप पकड़ पाएं, जिसको आप पकड़ रहे थे, वह वहा मौजूद न रहा। कुछ और हो गया। यहां सब धुआं— धुआं है, बादलों की तरह है। जैसे बादलों में हम आकृति नहीं पकड़ पाते हैं। आप देख रहे हैं कि एक हाथी बन रहा है बादलों में; और आप देख भी नहीं पाए कि हाथी बिखर गया, कुछ और बन गया।

पूरा जगत धुआं— धुआं है। स्थिति केवल परमात्मा की है। और जब तक स्थिति उपलब्ध न हो, तब तक कोई भी ठहराव समझ का, बुद्धि का नहीं हो सकता। तब तक ज्ञान की कोई अवस्था नहीं है। इसलिए हिंदुओं की सारी चेष्टा इस बात में रही है कि कैसे आप गति से मुक्त हों और स्थिति को प्राप्त हों। कैसे दौड़ना बंद हो और ठहरना आए। कैसे प्रवाह रुके, थम जाए। नदी बहते—बहते कैसे एकदम जम जाए, बर्फ हो जाए। सब चीजें ठहर जाएं।

इस भीतर के चित्त की दौड के रुक जाने का नाम ही ध्यान है। भीतर कुछ भी न दौड़े, कोई गति न रहे, कोई प्रवाह न रहे, सब चीजें फ्रोजन हो जाएं, जड़ हो जाएं, ठहर जाएं, सब कंपन समाप्त हो जाएं; उसी क्षण आप परमात्मा हो गए। जब तक आप बहते हैं, तब तक संसार है। जब आप ठहरते हैं, तब आप परमात्मा हैं।

परमात्मा ही समझा जा सकता है। यह बड़ा विरोधाभासी लगेगा। क्योंकि विज्ञान कहता है, संसार समझा जा सकता है, परमात्मा को समझने का कोई उपाय नहीं। परमात्मा का पता ही नहीं चलता है कि वह कहां है! समझना दूर, यह भी तय करना मुश्किल है कि है भी या नहीं। और गीता कहती है कि सिर्फ परमात्मा ही समझा जा सकता है, क्योंकि वह थिर है। वह जाना जा सकता है, उस पर भरोसा किया जा सकता है, वह रिलाएबल है। ऐसा नहीं कि आप एक आंख उठाकर देखेंगे और जब दुबारा आंख खोलेंगे, तो वह बदल गया। वह वही होगा—इस जन्म में, अगले जन्म में, कल्पों—कल्पों बाद, युगों—युगों बाद—आप जब भी लौटकर आएंगे, वह वही होगा।

वह कूटस्थ है, वह ठहरा हुआ है, वहां कुछ भी बदलता नहीं। आप कितना ही परिभ्रमण करें, कितना ही समय व्यतीत करें, जब भी आप लौटेंगे, आप पाएंगे, परमात्मा वैसा का वैसा है, सब वही है। वहां रत्तीभर कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।

यह अपरिवर्तित ही समझा जा सकता है। क्योंकि यह भरोसे योग्य है। इस पर श्रद्धा की जा सकती है। संसार तो भरोसे योग्य नहीं है। वह तो छाया की भांति है।

खलील जिब्रान की एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी है। एक लोमडी सुबह—सुबह उठी। भोजन की तलाश पर निकली। सूरज उगता था उसके पीछे। बड़ी लंबी छाया लोमड़ी की बनी। लोमड़ी ने अपनी छाया देखी और सोचा, आज तो एक हाथी मिले, तभी पेट भर पाएगा! इतनी लंबी छाया कि एक हाथी के बिना भोजन का कोई उपाय नहीं। और छाया से ही लोमडी जान सकती है कि मैं कितनी बडी हूं। और जानने का उपाय भी नहीं। आप भी दर्पण से ही जानते हैं कि आप कौन हैं। और तो कोई उपाय नहीं। दर्पण यानी छाया!

लोमड़ी बड़ी चिंतित भी हुई, क्योंकि कहां पाएगी हाथी? और भूख बढ़ने लगी और खोजती रही, खोजती रही। दोपहर हो गई, सूरज ऊपर आ गया; अभी तक भोजन भी नहीं मिला। और हाथी को पाने का खयाल, तो भूख भी हाथी जैसी, हाथी को पचाने जैसी भीतर हो गई। क्योंकि सारा मन का खेल है।

लेकिन हाथी मिला नहीं, भोजन मिला नहीं। नीचे झुककर उसने फिर छाया देखी। सूरज अब ऊपर आ गया, तो छाया करीब—करीब खो गई। तो लोमड़ी ने कहा, अब तो एक चींटी भी मिल जाए तो भी काम चलेगा।

संसार छाया की तरह है। और बचपन में हर आदमी सोचता है कि हाथी नहीं मिला, तो काम नहीं चलेगा। और बुढ़ापे में हर आदमी जानता है कि चींटी भी मिल जाए, तो भी काम चलेगा। छाया छोटी होती जाती है।

सभी बच्चे सिकंदर होना चाहते हैं। सभी बुजुर्ग कहने लगते हैं, अंगूर खट्टे हैं। सभी बच्चे संसार को जीतने निकलते हैं। सभी बूढ़े वैराग्य की बातें करने लगते हैं। इसलिए नहीं कि वैराग्य आ गया। इसलिए कि छाया सिकुड़ गई। और अब इतने से भी काम चल जाएगा। और कुछ न भी मिला, तो भी काम चल जाएगा।

वैराग्य का मतलब है, छाया सिकुड़ गई। यह वैराग्य कोई वास्तविक नहीं है। अगर यह वैराग्य वास्तविक हो, तो जवानी में भी आ सकता था। इसके लिए बुढ़ापे तक रुकने की कोई जरूरत न थी।

यह जो लोमड़ी का कहना है कि चींटी से भी काम चल जाएगा, यह कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। अगर यह बुद्धिमत्ता होती, तो सुबह भी छाया की भ्रांति में आने का कोई प्रयोजन न था। सिर्फ छाया सिकुड़ गई है।

इस संसार को समझने का ठीक—ठीक उपाय नहीं है, क्योंकि प्रतिपल बदल रहा है। इसकी कोई स्थिति नहीं है। इसलिए इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्य शस्त्र द्वारा काटकर।

इसको जानने में उलझने की भी कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि इसको जान—जानकर भी कोई कभी जान नहीं पाता।

विज्ञान सोचता था, इसी सौ वर्ष पहले, कि जल्दी ऐसा दिन आ जाएगा, जब हम सब जान लेंगे। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि वह दिन कभी भी नहीं आएगा। क्योंकि जितना हम जानते हैं, उतना पता चलता है कि और भी जानने को शेष है। जितना हम जानते हैं, उतने ही अनजान तथ्य सामने आ जाते हैं जिनको जानने की चुनौती मिल जाती है। एक समस्या हल नहीं होती, पचास खड़ी हो जाती हैं। उसको हल करने के कारण ही पचास समस्याएं उठ आती हैं, पचास प्रश्न उठ आते हैं।

अब विज्ञान का भरोसा डगमगा गया है। अब विज्ञान भी मानता है कि कोई अंतिम ज्ञान उपलब्ध हो सकेगा, इसकी आशा नहीं है। सब कामचलाऊ ज्ञान है। रिलेटिविटी का यही मतलब है कि सब ज्ञान कामचलाऊ है। हम जितना जानते हैं, उतने तक ठीक है। बाकी जितना हम और ज्यादा जानेंगे? सब गड़बड़ हो जाएगा।

परमात्मा ही जाना जा सकता है। उसकी स्थिति है। इसलिए धर्म के अतिरिक्त ज्ञान का कोई भी द्वार नहीं है।

विज्ञान कामचलाऊ उपयोगिता का द्वार है, ज्ञान का नहीं। उससे जो भी हम जानते हैं, वह करीब—करीब सत्य है, एप्राक्सिमेटली। लेकिन करीब—करीब सत्य का कोई मतलब नहीं होता। करीब—करीब सत्य का असत्य ही मतलब होता है। या तो कोई चीज सत्य होती है या नहीं होती। करीब—करीब सत्य का कोई अर्थ नहीं होता। पर उपयोगिता विज्ञान की है।

ज्ञान धर्म के माध्यम से उपलब्ध होगा। और ज्ञान तभी उपलब्ध होगा, जब हम स्थिति को उपलब्ध हो जाएं। अगर परमात्मा की स्थिति है और हमारी गति है, तो मिलन नहीं हो सकता। समान समान का ही मिलन संभव है। जब हम भी स्थित होंगे, तो उससे मिलन हो जाएगा। उस जैसे जब होंगे, तब हमारा उससे मिलन हो जाएगा।

ठहरते ही उस ठहरे हुए का अनुभव शुरू हो जाता है। और ठहरने का एक ही उपाय है। इस संसार के वृक्ष को समझने से कुछ न होगा, वरन अहंता (घमंड), ममता और वासना, इन तीनों को वैराग्यरूपी शस्त्र द्वारा काटकर, उसके उपरांत उस परम पद परमेश्वर को अच्छी प्रकार खोजना चाहिए।

वृक्ष को खोजने में न पड़े। वृक्ष को तो काट ही दें। और उसको खोजने में चलें, जिसका पतन वृक्ष है। जिससे गिरकर वृक्ष पैदा हो रहा है, उस मूल उदगम को खोजने चलें। उस बीज को पकड़े, उस मूल स्रोत को पकडे।

कभी आपने बीज को तोड़कर देखा? बीज आप बोते हैं, एक वृक्ष उससे निकल आता है। लेकिन जो बीज आप बोते हैं, उससे यह वृक्ष निकलता है? क्योंकि वह बीज तो सड़ जाता है, गल जाता है, मिट्टी में मिल जाता है। उस बीज से यह वृक्ष निकलता नहीं। उस बीज को कभी तोड़कर आपने देखा है? कहीं आप इस वृक्ष को खोज पाएंगे? उस बीज में कहीं यह वृक्ष मिलता भी नहीं है खोजने से। वैज्ञानिक, वनस्पतिशास्त्री भी कहते हैं कि बीज में कोई शून्य से ही वृक्ष निकलता है। बीज तो केवल उस शून्य को अपने भीतर छिपाए हुए है। बीज तो सिर्फ खोल है, भीतर कोई शून्य छिपा है। बीज की खोल टूटकर मिट्टी में मिल जाती है, उस शून्य से ही वृक्ष निकलता है।

तो बीज के भीतर जो छिपा शून्य है, वही उदगम है। और जब तक हम उस शून्य में प्रवेश न कर जाएं, तब तक मूल का, सत्य का कोई अनुभव संभव नहीं है।

इसलिए बुद्ध ने तो अपने सारे धर्म को शून्यता की छाया दे दी, शून्यता का रंग दे दिया। और कहा कि शून्य में प्रवेश कर जाओ, तो ब्रह्म की उपलब्धि है। और कोई ब्रह्म नहीं है।

जो भी दिखाई पड़ता है, वह खोल है। उस खोल के भीतर न दिखाई पड़ने वाला छिपा है। उस अदृश्य को जानने की दो बातें कृष्ण कह रहे हैं। पहले तो वैराग्य से अहंकार, ममता और वासना को काट डालें।

वैराग्य का क्या मतलब है? वैराग्य का मतलब है, यह बोध कि जहां —जहां मुझे सुख का खयाल होता है, वहा सुख नहीं है। यह शास्त्र से पढ़कर नहीं आ जाएगा। संसार को ही उसके पूरे तत्व में समझने से आएगा।

आपने बहुत प्रयोग किए हैं। जहां—जहां सुख की छाया दिखी है, वहा—वहा दौड़े हैं। फिर वहा सुख पाया या नहीं? अगर नहीं पाया, कभी भी नहीं पाया। जहां भी प्रतिबिंब दिखा, वहीं गए और मृग—मरीचिका मिली। जहां भी ध्वनि मिली, वहीं गए, लेकिन पाया कि सिर्फ खाली घाटियों में गूंजती आवाज थी। इंद्रधनुषों की खोज की। बड़े रंगीन थे दूर से; पास गए, खो गए। हाथ में कुछ भी न आया। इन सारे जीवन के अनुभवों का जो निचोड़ है, वह वैराग्य है। तो किसी शास्त्र को पढ़ने से वैराग्य नहीं आ जाएगा; कि आप भर्तृहरि का वैराग्य—शतक पढ़ लें और सोचें कि वैराग्य आ जाएगा। भर्तृहरि को वैराग्य—शतक का अनुभव आया गहन भोग से।

भर्तृहरि ने दो किताबें लिखी हैं। एक का नाम है, श्रृंगार—शतक। वह उसका पहला अनुभव है, संसार का अनुभव। तब उसने भोगा।

उसने सब भूलें कीं, जो कोई भी समझदार आदमी करेगा। जो कोई भी हिम्मती आदमी करेगा, उसने वे सब भूलें कीं। उसने अपने को भूलों से बचाया नहीं। क्योंकि भूलों से जो बचता है, वह अनुभव से भी बच जाता है। वह संसार के सब गली—कूचों में भटका। उसने संसार की सब पगडंडियां छान डालीं। उसने बुरे और भले का भेद भी नहीं किया। जहां उसकी वासना ले गई, गया। लेकिन होश सजग रखा और इस बात को जांचता रहा कि जहां—जहां वासना ले जाती है, वहां कुछ मिलता है या नहीं!

हर बार असफलता मिली। सुख कभी भी न पाया। सदा ही भ्रांति सिद्ध हुई। वासना ने जहां —जहां मार्ग दिखाया, वहीं—वहीं व्यर्थता हाथ आई, वहीं—वहीं विषाद मिला।

हजारों वासनाओं के मार्गों पर चलकर जब एक ही अनुभव होता है निरपवाद रूप से, तो वैराग्य का जन्म होता है। वैराग्य वासना की असफलता का सतत अनुभव, उसका सार—निचोड़ है। और तब यह बात कठिन नहीं रह जाती, अहंकार को, ममता को, वासना को काट देना जरा भी कठिन नहीं रह जाता।

वैराग्य की प्रतीति का अर्थ है, जहां —जहां वासना कहती है सुख है, वहां—वहा सुख नहीं है। जहां—जहां वासना कहती है सुख है, वहा—वहा दुख है, और जहां—जहां वासना कहती है दुख है, वहां—वहां सुख है। वासना धोखा देती है, प्रवंचक है, दि ग्रेट डिसीवर। इस प्रतीति का नाम वैराग्य है। और तब सुख में खोजना बंद, और दुख में खोज शुरू होती है।

दुख की खोज को हम तप कहते हैं। तपश्चर्या का अर्थ है, अब मैं सुख में नहीं खोजता; सुख में खोजा और नहीं पाया, अब मैं दुख में खोजूंगा। क्योंकि अगर सुख में खोजने से दुख मिला, तो संभावना है कि शायद दुख में खोजने से सुख मिल सके। विपरीत यात्रा करूंगा।

वैराग्य अनुभव है वासना की विफलता का। और जैसे ही यह अनुभव गहरा हो जाता है, यह अनुभव शस्त्र बन जाता है। तब साधक अपने भीतर वैराग्य के शस्त्र को लिए रहता है। जैसे ही वासना उससे कहती है वहां सुख, वहीं वह शस्त्र से गिराकर काट डालता है। वह कहता है, मैं जानता हूं; यह बहुत बार हो चुका। बुद्ध को जब पहली समाधि उपलब्ध हुई, तो उन्होंने जो पहले शब्द अपने भीतर कहे—किसी और से नहीं, खुद से कहे—वे ये थे कि बस, हे काम के देवता, अब तुझे मेरे लिए कष्ट न करना पड़ेगा। मैं भी दौड़ा और मेरे कारण तू भी काफी दौड़ा। अब तुझे मेरे लिए नए घर न बनाने पड़ेंगे। क्योंकि मैंने आधार ही गिरा दिया, अब कोई बुनियाद ही न रही।

वैराग्य के शस्त्र का अर्थ है, भीतर एक सजगता। वासना जहां—जहां धोखा देने लगे, वहां —वहां सजगता रुकावट बन जाए। वहां—वहां हम पुन: स्मरण कर सकें कि इस तरह की वासना में हम बार—बार उतर चुके हैं।

आप भी बहुत बार वैराग्य की हलकी झलक से भरते हैं। हर वासना के बाद वैराग्य की झलक हर आदमी को आती है। हर संभोग के बाद क्षणभर को प्रत्येक स्त्री—पुरुष को यह प्रतीति होती है कि बस, बहुत हुआ, व्यर्थ है। लेकिन थोड़ी देर आराम के बाद फिर वासना सजग हो जाती है। तो वह जो क्षणभर का अनुभव था, वह शस्त्र नहीं बन पाता। वह जो अनुभव था, संगृहीत नहीं होता। वह बूंद—बूंद की तरह खो जाता है, कभी गागर भर नहीं पाती। साधक बूंद—बूंद अनुभव को इकट्ठा करता है और गागर को भरता है। वह बूंद—बूंद को खो जाने नहीं देता।

आपके अनुभव में और बुद्ध के अनुभव में बहुत फर्क नहीं है। बस, इतना ही फर्क है कि आपके पास कोई गागर नहीं है, जिसमें आप अपनी बूंदें भर लेते। आपको उतने ही अनुभव हुए हैं, ज्यादा हो गए होंगे, क्योंकि बुद्ध को मरे पच्चीस सौ साल हो गए। बुद्ध से ज्यादा अनुभव आपको हो चुके हैं। लेकिन बूंद—बूंद होते हैं, खो जाते हैं। इकट्ठे नहीं हो पाते हैं; उनकी चोट नहीं बन पाती। शस्त्र निर्मित नहीं हो पाता।

अपने अनुभवों को इकट्ठा करें। अनुभवों को खो जाने मत दें। क्योंकि उनके अतिरिक्त ज्ञान का और कोई मार्ग नहीं है। बूंद—बूंद। इकट्ठा करके आपके पास इतनी अनुभव की क्षमता हो जाएगी कि वासना कमजोर पड़ जाएगी। काटना भी नहीं पड़ता, अनुभव ही काफी होता है। अनुभव ही काफी होता है, वासना से लड़ना भी नहीं पड़ता। वासना धीरे— धीरे निर्वीर्य हो जाती है।

इस वृक्ष को वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा काटकर, उसके उपरांत उस परम पद परमेश्वर को अच्छी प्रकार खोजना चाहिए कि जिसमें गए हुए पुरुष फिर पीछे संसार में नहीं आते। और जिस परमेश्वर से यह पुरातन संसार—वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उस ही आदि पुरुष के मैं शरण हूं इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके..।

इस प्रक्रिया को थोड़ा सजगता से समझ लें।

हम सब बार—बार जन्मते हैं, बार—बार मरते हैं। लेकिन हर मरण मूर्च्छा में है, और हर जन्म भी मूर्च्छा में है। इसलिए आपको कुछ याद नहीं कि पहले भी आप थे। यह जन्म आपको पहला मालूम पड़ता है, और यह मौत जो आती है, आखिरी मालूम पड़ती है। क्योंकि दोनों तरफ अंधकार है। स्मृति खो गई है। होशपूर्वक मर सकें, तो होशपूर्वक जन्म होगा।

लेकिन मरना अभी दूर है, भविष्य में है। पीछे लौटा जा सकता है। और जो जन्म हो चुका है आपका चालीस, पचास, साठ साल पहले, उस जन्म को होशपूर्वक फिर से देखा जा सकता है। उसकी पूरी फिल्म आपके भीतर संगृहीत है। 

आपका मस्तिष्क बिलकुल टेप का यंत्र है। वह सब रिकार्ड कर रहा है। वहा कुछ भी नहीं खोया है। जो भी आपने कभी जाना है, वह वहा अंकित है। आप पीछे इस रिकार्ड का उपयोग करना सीख जाएं, इसे लौटाकर बजाना सीख जाएं, तो आप उन अनुभवों से फिर गुजर सकते हैं, जिनसे आप बेहोशी में गुजर गए हैं। आप पिछले जन्म में वापस जा सकते हैं, और पिछले जन्म के पीछे मृत्यु में जा सकते हैं। और तब यात्रा का द्वार खुल जाता है।

इस भांति जो व्यक्ति पीछे लौटता है होशपूर्वक, उसकी आगे के लिए भी होश की क्षमता निर्मित हो जाती है। वह मरेगा, लेकिन होशपूर्वक मरेगा। वह जन्मेगा, लेकिन होशपूर्वक जन्मेगा। वह जीएगा, लेकिन होशपूर्वक जीएगा। और जो व्यक्ति होशपूर्वक जीने लगा, संसार उसे नहीं बांध पाता। बांधती है हमारी मूर्च्छा। वैराग्य के द्वारा ममता, अहंता और वासना को काटकर जो व्यक्ति परमेश्वर को खोजता है, मूल उदगम को खोजता है, वह व्यक्ति फिर संसार में वापस नहीं आता।

फिर संसार में वापस आने का कोई कारण नहीं रह जाता। संसार में हम वापस होते हैं बार—बार मूर्च्छा के कारण, सोए हुए होने के कारण।

और जिस परमेश्वर से यह पुरातन संसार—वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उस ही आदि पुरुष के मैं शरण हूं, इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके नष्ट हो गया है मान और मोह जिनका तथा जीत लिया है आसक्तिरूप दोष जिन्होंने और परमात्मा के स्वरूप में है निरंतर स्थिति जिनकी तथा अच्छी प्रकार से नष्ट हो गई है कामना जिनकी, ऐसे वे सुख—दुख नामक द्वंद्वों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं।

यह सूत्र, कि मैं उस आदि पुरुष, उस आदि उदगम के शरण हूं बहुमूल्य है। शरण का भाव बहुमूल्य है। क्योंकि वासना भी काटी जा सकती है वैराग्य से, फिर भी अहंकार शेष रह जाता है। वासना तोड़ी जा सकती है वैराग्य से, लेकिन तब वैराग्य का अहंकार सघन हो जाता है कि मैं विरागी हूं, कि मैं त्यागी हूं कि मैंने इतना छोड़ा, कि मैंने वासना नष्ट कर दी। एक गहन अग्नि जलने लगती है। अहंकार नए रूप ले लेता है, सूक्ष्म, पर और भी प्रगाढ़।

इसलिए कृष्ण एक शर्त जोड़ते हैं, वैराग्य के शस्त्र से काटकर मैं उस आदि पुरुष के शरण हूं, ऐसा दृढ़ भाव करें।



यह वैराग्य कहीं मेरे अहंकार को भरने का कारण न बने। क्योंकि जब तक मैं हूं तब तक मूल उदगम में खोना आसान नहीं, तब तक बूंद अपने को पकड़े है, सागर में खोने को राजी नहीं है।

मूल उदगम में मैं मैं नहीं रह जाऊंगा, मेरी अस्मिता खो जाएगी। मेरा सत्व बचेगा, मेरी चेतना बचेगी, लेकिन मैं का रूप खो जाएगा, मैं का नाम खो जाएगा। सभी नाम—रूप विलीन हो जाएंगे। यदि साधक वैराग्य को साधते—साधते साथ में शरणागति के भाव को न साधे, तो भटक जाता है। तब वैसा साधक हो सकता है शुद्ध हो जाए, लेकिन उसकी शुद्धि में भी जहर होगा। पवित्र हो जाए, लेकिन उसकी पवित्रता निर्दोष न होगी। उसकी पवित्रता में भी दोष होगा। शुभ हो जाए, सच्चा हो जाए नैतिक हो जाए; लेकिन उसकी नीति, उसकी सचाई, उसकी शुभता, भीतर एक मूल गलत भित्ति पर खड़े होंगे। वे अस्मिता की भित्ति पर खड़े होंगे। मैं शुद्ध हूं मैं शुभ हूं, मैं नैतिक हूं, यह भाव बना ही रहेगा। और यह आखिरी दीवार हो जाएगी। मैं हूं यह बना ही रहेगा। और जब तक मैं हूं तब तक परमात्मा नहीं है।

लोग मुझसे पूछते हैं कि परमात्मा को हम खोजते हैं, मिलता नहीं है। मैं उनसे कहता हूं, तुम जब तक खोजोगे, तब तक मिलने का कोई उपाय भी नहीं है! क्योंकि तुम ही बाधा हो। यह खोजने वाला ही उपद्रव है। और जब तक यह खोजने वाला न खो जाए, तब तक मिलने की कोई आशा नहीं है।

बुद्ध ने परमात्मा को अस्वीकार किया है। और कहा कि कोई परमात्मा नहीं है।

लेकिन तब एक मुसीबत शुरू हुई। दार्शनिक रूप से कोई अड़चन नहीं है परमात्मा को अस्वीकार करने में, लेकिन तब साधक में शरणागति का भाव कैसे पैदा करोगे? परमात्मा हो या न हो, यह मूल्यवान भी नहीं है। है, इसको सिद्ध करने की कोई जरूरत भी नहीं है।

बुद्ध ने कह दिया कि नहीं कोई परमात्मा है। लेकिन तब एक अडचन शुरू हुई। और वह अड़चन यह थी कि शरणागति कैसे हो? व्यक्ति अपने अहंकार को कैसे खोएगा? तो उसके लिए नए सूत्र खोजने पड़े। वे नए सूत्र फिर वही के वही हो गए; उससे कोई फर्क न पड़ा।

तो बुद्ध—भिक्षु कहता है, बुद्धं शरणं गच्छामि। संघ शरणं गच्छामि। धम्म शरणं गच्छामि। पर शरणं गच्छामि, उससे बचने का कोई उपाय नहीं है!

बुद्ध कहते हैं, कोई भगवान नहीं है। लेकिन बुद्ध के साधक को बुद्ध को ही भगवान कहना पड़ता है। और बुद्ध भी इनकार नहीं करते कि मुझे भगवान मत कहो। क्योंकि बुद्ध को एक अड़चन साफ दिखाई पड़ती है। बुद्ध कह सकते हैं, मुझे भगवान मत कहो। क्योंकि बुद्ध को कोई रस आता होगा किसी के भगवान कहने से, यह धारणा ही मूढूतापूर्ण है।

फिर बुद्ध इनकार क्यों नहीं कर देते? और जब कोई बुद्ध के सामने आकर कहता है, बुद्धं शरणं गच्छामि—हे बुद्ध, तुम्हारी शरण जाता हूं तब वे क्यों नहीं कहते कि मैं कोई भगवान नहीं हूं। मेरी शरण क्यों जाते हो!

कारण है। बुद्ध को कोई रस नहीं है कि कोई उन्हें भगवान कहे, न कहे। लेकिन यह जो जा रहा है शरण, इसके शरण जाने का कोई मार्ग खोजना पड़े। और परमात्मा को इनकार कर दिया है, तो परमात्मा को जिस झंझट से छुटकारा दिला दिया, उसी झंझट में खुद को बैठ जाना पड़ा। वह परमात्मा की जगह खाली कर दी। और कोई चाहिए, जिसकी शरण जा सकें।

लेकिन बुद्ध तो कल मर जाएंगे। परमात्मा तो कभी नहीं मरता, बुद्ध कल मर जाएंगे। फिर क्या होगा? फिर किसकी शरण जाएंगे? क्योंकि लोग पूछेंगे, बुद्ध अब कहां हैं? अगर कहते हो, आकाश में हैं, तो फिर परमात्मा बन गया। अगर कहते हो, कहीं भी बुद्ध हैं और वहा से सहायता करेंगे, तो परमात्मा बन गया।

तो संघ शरणं गच्छामि। इसलिए दूसरा सूत्र जोड़ना पड़ा कि यह जो भिक्षुओं का संघ है, साधकों का, सिद्धों का, इसकी शरण जाओ। यह रहेगा।

लेकिन यह भी जरूरी नहीं कि सदा हो। हिंदुस्तान से खो गया, बुद्धों का कोई संघ न रहा। तो किसकी शरण जाओ? तो बुद्ध को तीसरा सूत्र खोजना पड़ा, धम्म शरणं गच्छामि—धर्म की शरण जाओ। धर्म सदा रहेगा।

लेकिन क्या फर्क पड़ता है! शरण जाना ही पड़ेगा। क्योंकि शरण जाए बिना साधक का अहंकार नहीं खोता। इसलिए पतंजलि ने अनूठी बात कही है, और वह यह कि परमात्मा स्वयं को खोने की एक विधि है। परमात्मा है या नहीं, यह सवाल ही नहीं है। यह परमात्मा तो सिर्फ एक तरकीब है खुद को खोने की। इस दार्शनिक विवेचन का कोई भी मूल्य नहीं है हिंदुओं के लिए कि ईश्वर है या नहीं।

ईसाइयों ने बड़ी मेहनत की ईश्वर को सिद्ध करने की कि वह है। मगर उनकी मेहनत से कुछ सिद्ध नहीं होता। क्योंकि जिन दलीलों से सिद्ध करो, वे दलीलें काटी जा सकती हैं। कट जाती हैं। उनमें कोई बड़ी दलील ऐसी नहीं है, जो न काटी जा सके।

हिंदुओं ने कभी कोशिश नहीं की ईश्वर को सिद्ध करने की। क्योंकि वे कहते हैं, यह तो सिर्फ एक ट्रिक है, यह तो सिर्फ एक युक्ति है; यह तो सिर्फ एक उपाय है। उपाय है कि तुम शरण जा सको।

इसलिए जब पहली दफा ईसाई भारत आए या इस्लाम भारत आया, तो उनको बड़ी हैरानी हुई कि हिंदू भी कैसे मूढ़ हैं! कोई पत्थर को रखकर पूज रहा है, कोई झाड़ को पूज रहा है, कोई नदी को पूज रहा है। पत्थर! कोई मूर्ति भी नहीं है। ऐसे ही अनगढ़ पत्थर पर सिंदूर पोत दिया है, उसको पूज रहे हैं। हनुमान जी हैं! बहुत अजीब लगा उनको कि यह सब क्या हो रहा है!

लेकिन उन्हें पता नहीं कि हिंदुओं ने बड़े गहन तत्व को खोज लिया है। वे यह कहते हैं कि इससे फर्क ही नहीं पड़ता कि तुम किसको पूज रहे हो। तुम पूज रहे हो, यह सवाल है। तुम कहां झुक रहे हो, यह बेमानी है। तुम झुक रहे हो, बस इतना काफी है।

तो तुम पीपल के वृक्ष के सामने झुक जाओ। यह तो बहाना है। यह पीपल का वृक्ष बहाना है। परमात्मा भी बहाना है। है या नहीं, इससे हमें कोई प्रयोजन भी नहीं है। हमें झुकने में सहयोगी है, तो झुक जाओ। क्योंकि झुकने से तुम उसे जान लोगे, जिसे बिना झुके तुम कभी नहीं जान सकते हो। और वह तुम्हारे भीतर छिपा है। इसलिए दुनिया में हिंदू धर्म को समझने में बड़ी अड़चन हुई है। हिंदू धर्म सबसे कम समझा गया धर्म है। क्योंकि उसके रूप ऐसे अनगढ़ दिखाई पड़ते हैं। पर उनके अनगढ़ होने का कारण है। कारण है कि बड़ी गहरी बात हिंदुओं की पकड़ में आ गई। ईश्वर महत्वपूर्ण नहीं है, झुकता हुआ साधक, झुका हुआ साधक, शरण में गया हुआ साधक।

तो जहां शरण मिल जाए, जिसके माध्यम से मिल जाए। वह है या नहीं, यह भी गौण है। शरण मिल जाए, तो सब हो जाता है। कृष्ण कह रहे हैं, उस आदि पुरुष के मैं शरण हूं, इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके नष्ट हो गया है मान और मोह जिसका......।

स्वाभाविक है, जो भी शरण जाएगा, उसका मान और मोह नष्ट हो जाएगा। और जो शरण नहीं गया, उसका मान और मोह कभी नष्ट नहीं होता।

इसलिए मैं कई दफा चकित होता हूं। जैन या बौद्ध भिक्षु गहन मान से भर जाते हैं। जैनों को तो शरण जाने का और भी उपाय नहीं। बौद्धों ने तो बुद्ध को ही शरण जाने का उपाय बना लिया। महावीर ने कहा, अशरण रहो, किसी की शरण मत जाओ।

बात में कुछ गलती नहीं है। अगर अशरण रहकर भी निरअहंकारी हो सको, तो इससे बडी और कोई बात नहीं है। फिर जरूरत भी नहीं है शरण जाने की। लेकिन कौन रह सकेगा बिना शरण जाए निरअहंकारी? कभी करोड़ में एकाध कोई व्यक्ति, जो शरण न गया हो और निरअहंकारी हो जाए। शरण जा—जाकर भी अहंकार नहीं मिटता। झुक—झुककर भी नहीं झुकता, तो बिना झुके बहुत कठिन है। महावीर का झुक गया होगा, महावीर के पीछे चलने वालों को मुश्किल खड़ी है। वह झुक नहीं पाता।

इसलिए जैन साधु बड़ी साधना करता है। वैसी साधना संभवत: दुनिया में कोई भी धर्म का साधु नहीं करता है। उसकी साधना प्रगाढ़ है। लेकिन उसका अहंकार भी उतना ही प्रगाढ़ है। इसलिए जैन साधु जिस अकड़ से चलता है, वैसी अकड़ की हम सूफी फकीर में कल्पना भी नहीं कर सकते। सूफी फकीर तो सोचकर चकित ही हो जाएगा कि क्या कर रहे हो तुम! इतनी अकड़! जैन साधु किसी को नमस्कार नहीं कर सकता। क्योंकि कोई है ही नहीं जिसकी शरण जाना है।

लेकिन हिंदुओं ने मौलिक तत्व को पकड़ लिया है, कि कहीं से भी झुकना आ सके, और किसी भी तरह शरण जाने का भाव पैदा हो सके, तो वही परम साधना है।

स्वभावत:, मान और मोह नष्ट हो जाएगा। और जैसे—जैसे मान—मोह—आसक्ति नष्ट होते हैं, वैसे—वैसे परमात्मा के स्वरूप में स्थिति बनने लगेगी। क्योंकि ये ही हिलाते हैं। इनकी वजह से कंपन होता है। इनकी वजह से बेचैनी और अशांति होती है। इनकी वजह से गति होती है।

परमात्मा में जिसकी स्थिति बनने लगती है, सुख—दुख नामक द्वंद्वों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन उस अविनाशी पद को, परम पद को प्राप्त होते हैं।

वह परम पद छिपा है भीतर। जैसे ही हमारा हिलन—डुलन बंद हो जाता है, कंपन शात हो जाता है, ज्योति थिर हो जाती है, वह परम पद हमें उपलब्ध हो जाता है। जो सदा से हमारा है, जो सदा से हमारा रहा है, हम उसके प्रति प्रत्यभिज्ञा से भर जाते हैं। हम पहचान जाते हैं कि हम कौन हैं!

मैं के मिटते ही मैं कौन हूं इसकी पहचान आ जाती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


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