सोमवार, 9 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 11 भाग 9

 चरण—स्‍पर्श का विज्ञान


    सखेति मत्वा प्रसभं क्ट्रूम्क्तंक हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।

अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्‍प्रणयेन वापि।। 41।।

यच्चावहासार्थमसरूतोउसि विहारशय्यासनभोजनेषु।

एकोउथवाध्यम्हत तत्समक्षं तकामये त्वामहमप्रमेयम्।। 42।

पितासि लोकस्य चराचरस्थ त्वमस्य यूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।

न त्वत्समोउस्लथ्यधिक: कुतोउन्यो लोकत्रयेउध्यप्रतिमप्रभाव।। 43।।

तस्माह्मणम्य प्रणिधाय काय प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।

पितेव युत्रस्य सखेव सखु: प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोहुम।। 44।।


हे परमेश्वर सखा ऐसे मानकर आपके इस प्रभाव को न जानते हुए मेरे द्वारा प्रेम से अथवा प्रमाद से भी हे कृष्ण हे यादव हे सखे इस प्रकार जो कुछ हठपूर्वक कहा गया है; और हे अच्‍युतू जो आप हंसी के लिए विहार शय्या आसन और भोजनादिको में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किए गए हैं, वे सब अपराध अप्रमेयस्वरूय अर्थात अचिंत्य प्रभाव वाले आपसे मैं क्षमा कराता हूं।


हे विश्वेश्वर आप इस चराचर जगत के पिता और गुरु से भी बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अतिशय प्रभाव वाले तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है फिर अधिक कैसे होवे।

इससे हे प्रभो मैं शरीर को अच्छी प्रकार चरणों में रखकर और प्रणाम करके स्तुति करने योग्य आप र्ड़श्वर को प्रसन्‍न होने के लिए प्रार्थना करता हूं। हे देव पिता जैसे पुत्र के और सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रिय स्त्री के वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने के योग्य हैं।


हे परमेश्वर! सखा ऐसा मानकर, आपके इस प्रभाव को न जानते हुए मेरे द्वारा प्रेम से अथवा प्रमाद से भी, हे कृष्ण, हे यादव, हे सखे, इस प्रकार जो कुछ हठपूर्वक कहा गया है और हे अच्‍युत, आप हंसी के लिए, विहार, शय्या, आसन और भोजनादिकों में अकेले अथवा सखाओं के सामने भी अपमानित किए गए हैं, वे सब अपराध, अप्रमेयस्वरूप, आपसे मैं क्षमा कराता हूं।

यह बड़ी मधुर बात है। बहुत मीठी, अत्यंत आंतरिक। जिस दिन अर्जुन को दिखाई पड़ा है कृष्‍ण का विराट होना, उनका परमात्मा होना, उस दिन स्वाभाविक है कि उसका मन अनेक— अनेक पीड़ाओं, अनेक—अनेक शरमों, अपराध के भाव से भर जाए। क्योंकि इन्हीं कृष्‍ण को अनेक बार कंधे पर हाथ रखकर उसने कहा है, हे यादव, हे मित्र, हे सखा! इस विराट को मित्र की तरह व्यवहार किया है। आज सोचकर भी भय लगता है। आज सोचकर भी उसे लगता है कि मैंने क्या किया! क्या समझा मैंने उन्हें अब तक! और मैंने कैसा व्यवहार किया! काश, मुझे पता होता कि क्या छिपा है उनके भीतर, तो ऐसा व्यवहार मैं कभी न करता।

लेकिन बड़े मजे की बात है कि यह अर्जुन को ही लगता हो, ऐसा नहीं है। अगर आप पत्नी हैं, या अगर आप पति हैं, या पिता हैं, या बेटा हैं, जिस दिन आपको परमात्म— अनुभव होगा, उस दिन आपको भी लगेगा कि पत्नी के साथ मैंने कल तक कैसा व्यवहार किया! क्योंकि तब आपको पत्नी में भी वही दिखाई पड़ जाएगा। तब आपको लगेगा, मैंने नौकर के साथ कैसा व्यवहार किया! क्योंकि तब आपको नौकर में भी वही दिखाई पड़ जाएगा। तब आपको लगेगा, अब तक जो भी मैंने किया, वह नासमझी थी। क्योंकि जिसको मैं जो समझ रहा था, वह वह है ही नहीं। यह तो प्रतीक है अर्जुन का यह कहना, यह सभी अनुभवियों को अनुभव होगा।

जिस दिन आपको भी थोड़ी—सी झलक मिलेगी, सिवाय क्षमा मांगने के और कोई उपाय नहीं रह जाएगा। क्योंकि चारों तरफ वही विराट मौजूद है, और हम उसके साथ जो व्यवहार कर रहे हैं, वह बड़ा ओछा है। पर होगा ही व्यवहार ओछा, क्योंकि दृष्टि ओछी है। क्योंकि वह विराट तो कहीं दिखता ही नहीं है।

अर्जुन यही कह रहा है कि हमने तुम्हें मित्र समझा, यही बड़ी भूल थी। और मित्र समझकर हमने वे बातें कही होंगी, जो मित्रता में कह दी जाती हैं।

और मित्र एक—दूसरे को गाली भी दे देते हैं। सच तो यह है कि जब तक गाली देने का संबंध न हो, लोग मित्रता ही नहीं समझते! जब तक एक—दूसरे को गाली न देने लगें, तब तक समझते हैं, अभी पराए हैं, अभी कोई अपनापन नहीं है।

तो मित्र समझा है। कभी कहा होगा, ऐ कृष्‍ण! कभी कहा होगा, ऐ यादव! कभी कहा होगा, ऐ मित्र! क्षमा कर देना। हठपूर्वक बहुत—सी बातें कही होंगी। हठपूर्वक अपनी बात मनवानी चाही होगी। तुम्हारी बात झुठलाई होगी। विवाद किया होगा। तुम गलत हो, ऐसा भी कहा होगा। तुम गलत हो, ऐसा सिद्ध भी किया होगा। अवमानना की होगी। ठुकराया होगा तुम्हारे विचार को।

और हे अच्युत, हंसी के लिए ही सही, तुमसे वे बातें कही होंगी, जो नहीं कहनी चाहिए थीं। विहार में, शय्या पर, आसन में, भोजन करते वक्त, मित्रों के साथ, भीड़ में, एकांत में, दूसरों के सामने, न मालूम क्या—क्या कहा होगा! न मालूम किस—किस भांति आपको अपमानित किया होगा! या दूसरे अपमानित कर रहे होंगे, तो सहमति भरी होगी, विरोध न किया होगा। ये सब अपराध, अप्रमेयस्वरूप, अचिंत्य प्रभाव वाले, आपसे मैं क्षमा कराता हूं।

आपको अब जैसा देख रहा हूं और अब तक जैसा आपको देखा, इन दोनों के बीच जमीन—आसमान का भेद पड़ गया है। तो जो व्यवहार मैंने आपसे किए थे अनजान में, न जानते हुए आपको, न पहचानते हुए आपको, उन सबके लिए मुझे माफ कर देना।

इस जगत से भी हम माफी मांगेंगे, क्योंकि जगत परमात्मा है। और हम जो व्यवहार उससे कर रहे हैं, वह परमात्मा के साथ किया गया व्यवहार नहीं है। अगर मानकर भी चलें आप— अभी आपको पता भी नहीं है, सिर्फ मानकर चलें— कि यह जगत परमात्मा है और चौबीस घंटे के लिए प्रत्येक व्यक्ति से ऐसा व्यवहार करने लगें, जैसे वह परमात्मा है, तो आप पाएंगे कि आप बदलने शुरू हो गए, आप दूसरे आदमी हो गए। आपके भीतर गुणधर्म बदल जाएगा।

सूफियों की एक परंपरा है, एक साधना की विधि है, कि जो भी दिखाई पड़े, उसे परमात्मा मानकर ही चलना। अनुभव न हो, तो भी। कल्पना करनी पड़े, तो भी। क्योंकि वह कल्पना एक न एक दिन सत्य सिद्ध होगी। और जिस दिन सत्य सिद्ध होगी, उस दिन किसी से क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी।

मंसूर ने कहा है कि अगर परमात्मा भी मुझे मिल जाए, तो मुझे क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी। क्योंकि मैंने उसके सिवाय किसी में और कुछ देखा ही नहीं है।

अर्जुन को मांगनी पड़ रही है, क्योंकि अब तक उसने परमात्मा में भी कृष्ण को देखा है, एक मित्र को देखा है, एक सखा को देखा है। फिर मित्र के साथ जो संबंध है...।

ध्यान रहे, मित्रता कितनी ही गहरी हो, उसमें शत्रुता मौजूद रहती है। और मित्रता चाहे कितनी ही निकट की हो, उसमें एक दूरी तो रहती ही है।

मन का जो द्वंद्व है, वह सब पहलुओं पर प्रवेश करता है। आप किसी को शत्रु नहीं बना सकते सीधा। शत्रु बनाना हो, तो पहले मित्र बनाना जरूरी है। या कि आप किसी को सीधा शत्रु बना सकते हैं? सीधा शत्रु बनाने का कोई उपाय नहीं है। शत्रुता भी आती है, तो मित्रता के द्वार से ही आती है। असल में शत्रुता मित्रता में ही छिपी रहती है।

इसलिए बुद्धिमानों ने कहा है कि जिनको शत्रु न बनाने हों, उनको मित्र बनाने से बचना चाहिए। अगर आप मित्र बनाएंगे, तो शत्रु भी बनेंगे ही। क्योंकि मित्र और शत्रु कोई दो चीजें नहीं हैं। शायद एक ही घटना के दो छोर हैं; दो सघनताएं हैं एक ही तरंग की।

तो अर्जुन यह कह रहा है कि मित्रता में बहुत बार शत्रुता भी की है। और मित्रता में बहुत समय ऐसे वचन भी कहे हैं, जो शत्रु से भी नहीं कहने चाहिए। उन सबकी मैं क्षमा चाहता हूं।

हे विश्वेश्वर! आप इस चराचर जगत के पिता और गुरु से भी बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अतिशय प्रभाव वाले, तीनों लोकों में आपके समान दूसरा कोई भी नहीं है। अधिक तो कैसे होवे? इससे हे प्रभो, मैं शरीर को अच्छी प्रकार चरणों में रखकर और प्रणाम करके स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना करता हूं। हे देव, पिता जैसे पुत्र के और सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रिय स्त्री के, वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने के लिए योग्य हैं।

मैं जानता हूं कि आप क्षमा कर देंगे। और मैं जानता हूं कि आप बुरा न लेंगे, अतीत में जो हुआ है। मैं जानता हूं कि आप महाक्षमावान हैं और जैसे प्रियजन को कोई क्षमा कर दे, आप मुझे कर देंगे। फिर भी मैं क्षमा मांगता हूं। शरीर को ठीक से चरणों में रखकर...।

इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

हमें खयाल में नहीं है कि शरीर की प्रत्येक अवस्था मन की अवस्था से जुड़ी है। शरीर और मन ऐसी दो चीजें नहीं हैं। इसलिए आज तो विज्ञान बाडी एंड माइंड, शरीर और मन, ऐसा न कहकर, साइकोसोमेटिक, मनोशरीर या शरीरमन, ऐसा एक ही शब्द का प्रयोग करने लगा है। और ठीक है, क्योंकि शरीर और मन एक साथ हैं। और प्रत्येक में कुछ भी घटित हो, दूसरे में प्रभावित होता है। जैसे कभी सोचें...।

यह बड़े मजे की बात है कि सारी दुनिया में अपमान करने के लिए सिर पर पैर रखने की भावना है, लेकिन सम्मान करने के लिए सिर्फ भारत में पैर पर सिर रखने की धारणा है। इस लिहाज से भारत की पकड़ गहरी है आदमी के मन के बाबत।

इसका यह मतलब हुआ कि सारी दुनिया में अपमान करने की व्यवस्था तो हमने खोज ली है, सम्मान करने की व्यवस्था नहीं खोज पाए। और अगर यह बात सच है कि हर मुल्क में हर आदमी को अपमान की हालत में ऐसा भाव उठता है, तो दूसरी बात भी सच होनी चाहिए कि श्रद्धा के क्षण में सिर को किसी के पैर में रख देने का भाव उठे। यह, भीतर जो घटना घटेगी, तभी!

इसका यह मतलब हुआ कि श्रद्धा को जितना हमने अनुभव किया है, संभवत: दुनिया में कोई मुल्क अनुभव नहीं किया। अगर अनुभव करता, तो यह प्रक्रिया घटित होती। क्योंकि अगर अनुभव करता, तो कोई उपाय खोजना पड़ता, जिससे श्रद्धा प्रकट हो सके। तो एक तो श्रद्धा की यह अभिव्यक्ति है क्षमा—याचना के लिए। अर्जुन कह रहा है कि सब भांति आपके चरणों में अपने शरीर को रखकर मांगता हूं माफी। मुझे माफ कर दें।

लेकिन इतनी ही बात नहीं है, थोड़ा भीतर प्रवेश करें। तो सिर जब किसी के चरणों में रखा जाता है......।

अभी जब बॉडी—इलेक्ट्रिसिटी पर काफी काम हो गया है, तो यह बात समझ में आ सकती है। आपको शायद अंदाज न हो, लेकिन उपयोगी होगा समझना। और इस संबंध में थोड़ी जानकारी लेनी आपके फायदे की होगी।

हर शरीर की गतिविधि विद्युत से चल रही है। आपका शरीर एक विद्युत—यंत्र है, उसमें विद्युत की तरंगें दौड़ रही हैं। आप एक बैटरी हैं, जिसमें विद्युत चल रही है, बहुत लो वोल्टेज की, बहुत कम शक्ति की। लेकिन बड़ा अदभुत यंत्र है कि उतने लो वोल्टेज से सारा काम चल रहा है।

आपको अपनी पत्नी या प्रेयसी के पास बैठकर जो शांति मिलती है, उसमें अध्यात्म बहुत कम, बिजली ज्यादा है। आपकी ऋण— धन विद्युत जुड़ जाती है। और अगर प्रेम गहरा हो तो ज्यादा जुड़ जाती है, क्योंकि आप एक—दूसरे को ज्यादा से ज्यादा निकट लेना चाहते हैं। अगर प्रेम ज्यादा न हो, तो आप भला निकट हों, अपने को दूर रखना चाहते हैं। एक तरह का बचाव बना रहता है, वह बाधा बन जाती है।





भारत इस रहस्य को किसी दूसरे कोने से सदा से जानता रहा है। गुरु के चरणों में सिर रखना, गुरु के साथ उसकी विद्युत का जोड़ है। उसके चरणों में सिर रखते ही गुरु की जो विद्युत धारा है, वह शिष्य में प्रवाहित होनी शुरू हो जाती है।

और ध्यान रहे, विद्युत के प्रवाहित होने के लिए दो ही जगहें हैं, या तो हाथ या पैर— अंगुलियां। नुकीला कोना चाहिए, जहां से विद्युत बाहर जा सके। और जहां से विद्युत भीतर लेनी हो, उसके लिए सिर से अच्छी कोई जगह नहीं है। उसके लिए गोल जगह चाहिए, जहां से विद्युत ग्रहण की जा सके। रिसेप्टिविटी के लिए सिर बहुत अच्छा है; दान के लिए अंगुलियां बहुत अच्छी हैं।

गुरु के चरणों में शिष्य सिर रख दे। सिर का मतलब है, रिसेप्टिव हिस्सा, ग्राहक हिस्सा। और चरणों का अर्थ है, दान देने वाला हिस्सा। और गुरु अपने हाथों को सिर के ऊपर रख दे, आशीर्वाद में। तो गुरु दोनों तरफ से, पैर की अंगुलियों से, हाथ की अंगुलियों से, दायक हो जाता है। और जो नीचे झुका है, उसकी तरफ आसानी से विद्युत बह पाती है। इसलिए शिष्य नीचे है, गुरु ऊपर है।

अगर आपको सच में श्रद्धा का भाव जन्मा है, तो आप फौरन अनुभव करेंगे कि आपके सिर में अलग तरह की तरंगें गुरु के चरणों से प्रवाहित होनी शुरू हो गईं। और आपका सिर शांत हुआ जा रहा है। कोई चीज उसमें बह रही है और शांत हो रही है।

मनुष्य का शरीर विद्युत—यंत्र है। अब तो विद्युत के छोटे यंत्र भी बनाए गए हैं, जो आपके मस्तिष्क में लगा दिए जाएं, तो वे धीमी गति से आपके मस्तिष्क में विद्युत की तरंगें फेंकेंगे। उन तरंगों से आप शांत होने लगेंगे।

अर्जुन कह रहा है कि चरणों में सिर रखकर आपसे प्रसन्न होने की प्रार्थना करता हूं मुझे क्षमा कर दें। और मैं जानता हूं कि आप तो क्षमा कर ही देंगे। लेकिन जो मैंने किया है अतीत में, वह मेरे ऊपर बोझ है। उस बोझ से मुझे मुक्त हो जाना जरूरी है। उसके लिए चरणों में सब छोड़ देता हूं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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