मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 12 भाग 10


आधुनिक मनुष्‍य की साधना

तुल्यनिन्दास्तुतिमौंनी संतुष्‍टो थेन केनचित्।

अनिकेत: स्थिरमतिभक्‍तिमान्मे प्रियो नर:।। 19।।

ये त धर्म्‍यामृतमिदं यथोक्‍तं पर्युयासते।

श्रहधाना मत्यरमा भक्तास्‍तउतीव मे प्रिया:।। 20।।


तथा जो निंदा— स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है, एवं जिस—किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित ह्रै वह स्थिर बुद्धि वाला भक्‍तिमान पुरुष मेरे को प्रिय है।

और जो मेरे को परायण हुए श्रद्धायुक्‍त पुरुष इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम भाव से सेवन करते है, वे भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं।




तथा जो निंदा—स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है एवं जिस—किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित है, वह स्थिर बुद्धि वाला भक्तिमान पुरुष मेरे को प्रिय है। और जो मेरे परायण हुए श्रद्धायुक्त पुरुष इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं।

निंदा—स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है। निंदा—स्तुति को समान कब समझा जा सकता है? निंदा दुख क्यों देती है? स्तुति सुख क्यों देती है? जब कोई आपकी प्रशंसा करता है, तो भीतर फूल क्यों खिल जाते हैं? और जब कोई निंदा करता है, तो भीतर सब उदास, मृत्यु जैसा क्यों हो जाता है? कारण खोजना जरूरी है, तो ही हम निंदा—स्तुति के पार हो सकें।

जब कोई स्तुति करता है, तो आपके अहंकार को तृप्ति होती है। जब कोई स्तुति करता है, तो असल में वह यह कह रहा है कि जैसा मैं अपने को समझता था, वैसा ही यह आदमी भी समझता है। आप समझते हैं कि आप बहुत सुंदर हैं। और जब कोई कह देता है कि धन्य हैं; कि आपके दर्शन से हृदय प्रफुल्लित हुआ; ऐसा सौंदर्य कभी देखा नहीं! तो आप प्रसन्न होते हैं। क्यों? क्योंकि दर्पण के सामने खड़े होकर यही आपने अपने से कई बार कहा है। यह पहली दफा कोई दूसरा भी आपसे कह रहा है।

और अपनी बात का भरोसा आपको नहीं होता। अपनी बात का आपको भरोसा आपको क्या होगा, अपने पर ही भरोसा नहीं है। जब कोई दूसरा कहता है, तो भरोसा होता है कि ठीक है, बात सच है। वह जो दर्पण के सामने मुझे लगता था, बिलकुल सही है। यह आदमी भी कह रहा है। और यह क्यों कहेगा! अहंकार को तृप्ति मिलती है। और आपकी सेल्फ इमेज, वह जो प्रतिमा है अपने मन में, वह परिपुष्ट होती है।

जब कोई निंदा करता है और कह देता है कि क्या शक्ल पाई है! भगवान कहीं और देख रहा था, जब आपको बनाया? कि सामान चुक गया था? कि देखकर ही विरक्ति पैदा होती है, संसार से भागने का मन होता है! तब आपको चोट पड़ती है। क्यों चोट पड़ती है? अहंकार को ठेस लगती है।



ऐसा कौन है, जो अपने को सुंदर नहीं मानता? कुरूप से कुरूप व्यक्ति भी अपने को सुंदर मानता है। लेकिन अपनी मान्यता के लिए भी दूसरों का सहारा चाहिए। क्योंकि हमारी अपनी कोई आत्म—स्थिति तो नहीं है। सुंदर भी हम मानते हैं दूसरों के सहारे, और अगर दूसरे कुरूप कहने लगें, तो फिर सुंदर मानना मुश्किल हो जाता है।

इसलिए चोट लगती है। अगर हर कोई कहने लगे कि तुम कुरूप हो, तो फिर हमारी प्रतिमा डगमगाने लगती है और आत्म—विश्वास हिलने लगता है। और फिर हम दर्पण के सामने भी खड़े होकर हिम्मत से नहीं कह सकते कि नहीं, मैं सुंदर हूं। क्योंकि यह भी तो दूसरों के मंतव्य पर निर्भर है। तो जब दूसरे कुछ कहने लगते हैं, जो विपरीत पड़ता है, तो आपको अपनी प्रतिमा डगमगाती मालूम पड़ती है। घबड़ाहट पैदा होती है, बेचैनी पैदा होती है।

प्रशंसा में अच्छा लगता है, क्योंकि आपके अहंकार को फुसलाया जा रहा है। इसलिए प्रशंसा वही करता है, जो आपसे कुछ पाना चाहता है। वह पाने का रूप कुछ भी हो। प्रशंसा वही करता है, जो आपसे कुछ खींचना चाहता है। क्योंकि प्रशंसा पाकर आप बेहोश हो जाते हैं अहंकार में और आपसे कुछ करवाया जा सकता है।

मूढ़ से मूढ़ आदमी को बुद्धिमान कहो, तो वह भी राजी हो जाता है! अपनी प्रशंसा को इनकार करना, बड़ा मुश्किल है। और जब अपनी प्रशंसा को इनकार करना बड़ा मुश्किल है, तो अपनी निंदा को स्वीकार करना बड़ा मुश्किल है।

तो जरूरी नहीं है कि जो निंदक कह रहा हो, वह गलत ही हो, वह सही भी हो सकता है। और सच तो यह है कि जितना सही होता है, उतना ज्यादा खलता है। अगर वह बिलकुल गलत हो, तो ज्यादा परेशानी नहीं होती। अगर कोई आदमी, आपकी आंखें हैं और वह कहता है अंधा है, तो आप ज्यादा परेशान नहीं होते। क्योंकि कौन सुनेगा इसकी! आंखें आपके पास हैं। लेकिन आप अंधे हैं, और वह आदमी कहता है अंधा है, तो फिर ज्यादा चोट पड़ती है। क्योंकि आपको भी लगता तो है कि वह ठीक ही कहता है। और मन भी नहीं होता मानने का कि यह बात ठीक है।

तो जितने सच्चाई के करीब होती है निंदा, उतना दुख देती है। और स्तुति जितनी झूठ के करीब होती है, उतना सुख देती है। जितने असत्य के करीब होती है स्तुति, उतना सुख देती है। और निंदा जितने सत्य के करीब होती है, उतना दुख देती है। पर इन सब दोनों का केंद्र क्या है?

इन दोनों का केंद्र यह है कि दूसरे क्या कहते हैं, वह मूल्यवान है। क्यों मूल्यवान है? क्योंकि आपका जो अहंकार है, वह दूसरों के हाथ से निर्मित हुआ है, आपकी आत्मा नहीं। आपकी आत्मा तो परमात्मा के हाथ से निर्मित हुई है। लेकिन आपका अहंकार दूसरों के हाथों से निर्मित हुआ है। अहंकार समाज का दान है। आत्मा परमात्मा की देन है।

आत्मा को समाज नहीं छीन सकता। लेकिन अहंकार को समाज छीन सकता है। जिसको आज कहता है, तुम महापुरुष हो, कल पापी कह सकता है। और ऐसे महापुरुष हैं, जो कल पूजे जा रहे थे और दूसरे दिन उन पर जूते फेंके जा रहे हैं। वही समाज, वही लोग! जरूरी नहीं है कि समाज पहले सही था, या अब सही है। बात इतनी है केवल कि समाज दोनों काम कर सकता है।

इसलिए जो आदमी अहंकार के साथ जीता है, आत्मा के साथ नहीं, वह हमेशा चिंतित रहेगा, कौन क्या कह रहा है! निंदा कौन कर रहा है? स्तुति कौन कर रहा है? क्योंकि उसका सारा व्यक्तित्व इसी पर निर्भर है, दूसरों पर। दूसरे क्या कह रहे हैं?

लेकिन जो व्यक्ति भक्त है, साधक है, प्रभु की खोज में लगा है, आत्मा की तरफ चल रहा है, उसके तो पहले कदम पर ही वह इसकी फिक्र छोड़ देता है कि दूसरे क्या कह रहे हैं। वह इसकी फिक्र करता है कि मैं क्या हूं वह इसकी फिक्र नहीं करता कि लोग क्या कह रहे हैं।

लोग कुछ भी कह रहे हों, मैं क्या हूं? यह उसकी चिंता है। यह उसकी खोज है कि मैं खोज लूं आविष्कृत कर लूं कि मैं कौन हूं। दूसरों के कहने से क्या होगा? क्या मूल्य है दूसरों के कहने का? कृष्ण कहते हैं, निंदा—स्तुति को समान जो समझता है...।

वही समान समझ सकता है, जो दूसरों के मंतव्य से अपने को दूर हटा रहा है। और जो इस बात की खोज में लगा है कि मैं कौन हूं। लोगों की धारणा नहीं, मेरा अस्तित्व क्या है। वह सम हो जाएगा। वह अपने आप सम हो जाएगा। उसके लिए लोगों की स्तुति भी व्यर्थ है, उसके लिए उनकी निंदा भी व्यर्थ है। वह तो बल्कि चकित होगा कि लोग मुझमें इतने क्यों उत्सुक हैं! इतनी उत्सुकता वे अपने में लें, तो उनके जीवन में कुछ घटित हो जाए, जितनी उत्सुकता वे मुझमें ले रहे हैं!

आपको खयाल है कि आप दूसरों में कितनी उत्सुकता लेते हैं! इतनी उत्सुकता काश आपने अपने में ली होती, तो आज आप कहीं होते। आप कुछ होते। आपके जीवन में कोई नया द्वार खुल गया होता। इतनी ही उत्सुकता से तो आप प्रभु को पा सकते थे।

लेकिन आपकी उत्सुकता दूसरों में लगी है! सुबह उठकर गीता पर पहले ध्यान नहीं जाता; पहला ध्यान अखबार पर जाता है। दूसरों की फिक्र है। वे क्या कर रहे हैं, क्या सोच रहे हैं! पड़ोसी आपके बाबत क्या कह रहे हैं!

कौन क्या कह रहा है आपके बाबत, इसको इकट्ठा करके क्या होगा? मरते वक्त सब हिसाब भी कर लिया और किताब में सब लिख भी डाला कि कौन ने क्या कहा, फिर क्या होगा? मौत आपको जांचेगी, आपके हिसाब—किताब को नहीं।

निंदा और स्तुति से वह व्यक्ति मुक्त हो सकेगा, जो दूसरों की चिंता छोड़ देता है। इसका यह मतलब नहीं है कि दूसरों के प्रति लापरवाह हो जाता है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि स्वार्थी हो जाता है। सच तो यह है कि जो दूसरों के विचार की बहुत चिंता करता है, वह दूसरों की चिंता जरा भी नहीं करता। वह तो उनके विचार की चिंता करता है कि वे मेरे बाबत क्या कह रहे हैं। वह अहंकारी है। उसका दूसरों से कोई लेना—देना नहीं। वह दूसरों के विचार की अपने अहंकार के लिए फिक्र करता है।

लेकिन जो आदमी दूसरों की चिंता छोड़ देता है, उसका अहंकार गिर जाता है। अहंकार दूसरों के सहारे के बिना खड़ा नहीं हो सकता, उसके लिए दूसरों का सहारा चाहिए। वह एक झूठ है, जो दूसरों के सहारे खड़ा होता है। सब झूठ दूसरों के सहारे खड़े होते हैं; सत्य अपने सहारे खड़े होते हैं।

इसलिए धर्म अकेले भी हो सकता है, राजनीति अकेले नहीं हो सकती। राजनीति बड़ा से बड़ा झूठ है। उसको दूसरों के सहारे की जरूरत है। दूसरे का वोट, दूसरे का मत, दूसरे पर सारा खेल खड़ा है। राजनीति का बड़ा से बड़ा नेता भी दूसरों के सहारे खड़ा है। दूसरों की अंगुलियां उसको बड़ा किए हुए हैं। वे हाथ हटा लें, वह नीचे जमीन पर गिर जाएगा और उठने का उसे कोई मौका नहीं रहेगा। लेकिन धार्मिक व्यक्तित्व किसी के सहारे खड़ा नहीं होता, अपने ही कारण खडा होता है। उसे कोई गिरा नहीं सकता, क्योंकि किसी ने उसे सम्हाला ही नहीं है।

कृष्ण कहते हैं कि जो निंदा स्तुति को समान समझने लगा है, मननशील है एवं जिस—किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा संतुष्ट है। और परमात्मा जैसा रखे, वैसा ही होने को राजी है। और परमात्मा जैसा रखे, उसमें भी विधायक खोज लेता है। मननशील का अर्थ है, विधायक को खोज लेने वाला।

हम नकारात्मक को खोज लेने वाले लोग हैं। हमें कांटा दिखाई पड़ता है, फूल दिखाई नहीं पड़ता। अगर एक आदमी के बाबत मैं कहूं कि वह गजब का कलाकार है, उसकी बांसुरी जैसी बांसुरी कोई नहीं बजा सकता। तो आप फौरन कहेंगे, छोड़िए भी, वह क्या बांसुरी बजाएगा! चरित्रहीन है।

यह नकारात्मक चिंतन की प्रक्रिया है। विधायक चिंतन की प्रक्रिया होगी कि मैं आपसे कहूं कि फलां आदमी चरित्रहीन है, उससे बचना। और आप कहें कि क्या! वह चरित्रहीन कैसे हो सकता है? उसकी बांसुरी में ऐसे प्राण हैं, वह बांसुरी इतनी अदभुत बजाता है; चरित्रहीन होगा कैसे? नहीं; मैं नहीं मान सकता हूं कि वह चरित्रहीन है।

तो आप देख रहे हैं उसको, जो फूल है। और जो फूलों को देखता है, उसे और ज्यादा फूल दिखाई पड़ने लगते हैं। और जो कांटो को देखता है, उसे और ज्यादा कांटे दिखाई पड़ने लगते हैं। जो आप खोजते हैं, वह आपको मिल जाता है। हर आदमी की योग्यता के अनुकूल उसे सब कुछ मिल जाता है। जो आदमी नकारात्मक को खोज रहा है, चारों तरफ उसके नरक खड़ा हो जाता है। सब जगह उसे गलत दिखाई पड़ने लगता है।

कृष्ण कहते हैं, जिस—किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा संतुष्ट है। कैसा भी परमात्मा रखे, वह उसमें भी।

यह जो भाव—दृष्टि है कि वह जैसा रखे! जरूर उसका कोई प्रयोजन होगा। अगर वह आग में डालता है, तो तपाता होगा। अगर वह कांटों में चलाता है, तो परखता होगा। कोई परीक्षा होगी। कोई बात होगी उसकी। उस पर छोड्कर जीने वाला जो संतुष्ट व्यक्ति है, वही मननशील भी है।

और रहने के स्थान में ममता से रहित है..।

और जहां रखे, लेकिन कोई ममता खड़ी नहीं करता। जिस स्थिति में, जिस स्थान में, फिर यह नहीं कहता कि यहीं रहूंगा। वह जहां हटा दे। वह जहां पहुंचा दे। वह जैसा करे। सभी स्थान उसी के हैं। और सभी स्थितियां उसकी हैं। और सभी द्वारों से वह आदमी पर काम कर रहा है। इस भाव दशा में जो व्यक्ति है, वह ममता नहीं बांधेगा। वह ममता नहीं बांधेगा।

अपेक्षा पूरी न हो। आपको पता है, दुखद अपेक्षाएं भी पूरी न हों, तो भी दुख होता है। अगर आप सोच रहे हों कि बड़ी बीमारी है और डाक्टर के पास जाएं। और वह कहे, कुछ नहीं, तो मन में बड़ी उदासी होती है कि बेकार आना हुआ! कुछ नहीं? आपको शक होता है, कहीं डाक्टर की ऐसा तो नहीं कि भूल हो रही है। जरा और बड़े डाक्टर को दिखा लें।

इसलिए जो चालाक डाक्टर हैं, वे बड़े गंभीर हो जाते हैं आपको देखकर। और आपकी बीमारी को इस तरह से लेते हैं जैसे कि बस, ऐसी बड़ी बीमारी किसी को भी कभी नहीं हुई। तब आपका दिल राजी होता है कि ठीक है। आप जैसे बड़े आदमी को छोटी बीमारी हो सकती है! बड़ी ही होनी चाहिए। यह आदमी समझा। अब जरा बात काम की है।

कृष्ण कहते हैं, जिस हालत में, जिस स्थान में, जिस स्थिति में कोई ममता नहीं; विपरीत हो जाए, तो भी विपरीत में प्रवेश करने का उतना ही सहज भाव बिना किसी आसक्ति के पीछे, ऐसा स्थिर बुद्धि वाला भक्तिमान पुरुष मुझे प्रिय है। और जो मेरे परायण हुए श्रद्धायुक्त पुरुष इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं।

आखिरी बात बहुत समझने जैसी है कि यह जो आनंद की प्रक्रिया है, यह जो प्रभु—प्रेम का मार्ग है, इसको भी कृष्ण कहते हैं, इस अमृत को भी जो निष्काम भाव से सेवन करते हैं।

ऐसा मत करना कि आप सोचें कि अच्छा! यह—यह करने से परमात्मा के प्रिय हो जाएंगे, तो हम भी यह—यह करें। तो आपसे भूल हो जाएगी। तब तो 'आप परमात्मा पाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। तो यह जो करना है, कामवासना से भरा है। इसमें वासना है, इसमें फल की इच्छा है। इसमें आप परमात्मा को पाने के लिए उत्सुक हैं, इसलिए ऐसा कर रहे हैं। आप परमात्मा को पाने के लिए कारण निर्मित कर रहे हैं।

इसका यह मतलब हुआ कि आप परमात्मा को पाने के लिए ठीक सौदा करने की स्थिति में आ रहे हैं कि कह सकें कि हां, अब मुझ में ये—ये गुण हैं, अब मिल जाओ!

तो कृष्ण आखिरी शर्त बड़ी गहरी जोड़ देते हैं। और वह यह कि ये सारे लक्षण निष्काम भाव से हों। यह परमात्मा को पाने की दृष्टि से नहीं, बल्कि इन प्रत्येक लक्षण का अपना ही आनंद है, इसी दृष्टि से। इनसे परमात्मा मिलेगा जरूर, लेकिन मिलने की वासना अगर रही, तो बाधा पड़ जाएगी।

परमात्मा पाया जाता है, लेकिन परमात्मा कोई सौदा नहीं है, कि हम कहें कि ये—ये लक्षण मेरे पास हैं, अभी तक नहीं मिले! अब मिलो। मैं सब तरह से तैयार हूं।

तो आप कभी भी न पा सकेंगे, क्योंकि यह तो अहंकार का ही आधार हुआ। परमात्मा पाया जाता है तब, जब आप अपने को इतना भूल गए होते हैं इन लक्षणों में, इतने लीन हो गए होते हैं कि आपको खयाल ही नहीं होता कि अभी परमात्मा भी पाने को शेष है। जिस क्षण आप इतने शांत और निष्काम होते हैं, सिर्फ होते हैं, इतनी भी वासना मन में नहीं रहती, इतनी भी लहर नहीं होती कि परमात्मा को पाना है, उसी क्षण अचानक आप पाते हैं कि परमात्मा पा लिया गया है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ये सब बातें भी निष्काम! इनमें पीछे कोई कामवासना न हो। धर्ममय अमृत को निष्काम भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं।



एक, भक्ति का अर्थ है, सत्य को बुद्धि से नहीं, हृदय से पाया जा सकता है। विचार से नहीं, भाव से पाया जा सकता है। चिंतन से नहीं, प्रेम से पोया जा सकता है। पहली बात।

दूसरी बात, भक्ति को पाना हो, तो आक्रामक चित्त बाधा है। ग्राहक चित्त! पुरुष का चित्त बाधा है। स्त्रैण चित्त! एक प्रेयसी की तरह प्रभु को पाया जा सकता है।

तीसरी बात, प्रभु को पाना हो, तो प्रभु को पाने की त्वरा, ज्वर, फीवर, बुखार नहीं चाहिए। प्रभु को पाना हो तो अत्यंत शांत, निष्काम भाव दशा चाहिए। उसको पाने के लिए उसको भी भूल जाना जरूरी है। खूब याद करें उसे, लेकिन अंतिम क्षण में उसे भी भूल जाना जरूरी है, ताकि वह आ जाए। और जब हम बिलकुल विस्मृत हो गए होते हैं; यह भी न अपना पता रहता, न उसका पता रहता; न यह खयाल रहता कि कौन खोज रहा है, और न यह खयाल रहता कि किसको खोज रहा है, बस उसी क्षण, उसी क्षण घटना घट जाती है, और उस अमृत की उपलब्धि हो जाती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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