मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 12 भाग 8

 उद्वेगरहित अहंशून्‍य भक्‍ति


यस्माब्रोद्धिजते लोको लोकान्‍नोद्वोजते च य:।

हषीमर्बभयोद्वेगैर्मुक्‍तो यः स च मे प्रिय:।। 15।।

अनयेक्ष: शू्चिर्दर्थ्य उदासीनो ग्लव्यथ:।

सर्वारम्भयश्त्यिगी यो मद्यक्त: स मे प्रिय:।। 16।।


तथा जिससे काई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादिकों से रहित है, वह भक्त मेरे को प्रिय है।

और जो पुरूष आकांक्षा से रहित तथा बहार— भीतर से शुद्ध और दक्ष है अर्थात जिस काम के लिए आया था, उसको पूरा कर चुका है एवं पक्षपात से रहित और दुखों से छूटा हुआ है? वह सर्व आरंभों का त्यागी मेरा भक्त मेरे को प्रिय है।



तथा जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है तथा जो हर्ष और अमर्ष, भय व उद्वेगों से रहित है, वह भक्त मेरे को प्रिय है। और जो पुरुष आकांक्षा से रहित है तथा बाहर— भीतर से शुद्ध है, दक्ष है और जिस काम के लिए आया था, उसको पूरा कर चुका है एवं पक्षपात से रहित और दुखों से छूटा हुआ है, वह सर्व आरंभों का त्यागी मेरा भक्त मेरे को प्रिय है।

कृष्ण और भी लक्षण बताते हैं उसके, जो परमात्मा को प्रिय है अर्थात जो परमात्मा के निकट होता चला जाता है, समीप होता चला जाता है। ये गुण समीप लाने वाले गुण हैं। ये गुण परमात्मा की तरफ उन्‍मूख करने वाले गुण हैं।

जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है..।

यह जरा जटिल है। जिसके कारण किसी को कोई अशांति पैदा नहीं होती। पर इसे समझना पड़ेगा। क्योंकि ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो कहेंगे, हमें कृष्ण के कारण अशांति हो रही है। तब तो कृष्ण भी दिक्कत में पड़ जाएंगे, क्योंकि कृष्ण से भी लोगों को अशांति हो रही है। वे भी कृष्ण को नष्ट करने के लिए पूरी कोशिश में लगे हैं। पर यह सूत्र कहता है, तथा जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है। इसका मतलब समझ लें।

आप कारण न बनें किसी के उद्विग्न होने के, यह ध्यान रखना जरूरी है। फिर भी कोई उद्विग्न हो सकता है। क्योंकि उद्विग्न होने में आप अकेले ही भागीदार नहीं होते, होने वाला भी उतना ही भागीदार होता है।

खयाल करना, जरूरी नहीं है कि दूसरा कारण उपस्थित कर रहा हो। सौ में निन्यानबे मौके पर तो आप कारण की तलाश कर रहे होते हैं। उसके भी कारण हैं।

इस सूत्र का अर्थ यह नहीं है कि आप शांत हो जाएंगे, तो आपके कारण कोई अशांत न होगा। इस सूत्र का अर्थ है कि आप कारण मत बनना। इसका होश रखना कि मैं कारण न बनूं।

जिस व्यक्ति के भीतर से दूसरों को उद्विग्‍न करने के कारण समाप्त हो जाते हैं, वह प्रतिक्रिया से, रिएक्यान से मुक्त हो जाता है। वही लक्षण है।

जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है।

दूसरी घटना तभी घटेगी, जब पहली घट गई हो। अगर आप किसी के कारण नहीं बनते हैं, तो दूसरा आपका कारण बनना भी चाहे, तो भी बन नहीं सकता है। और अगर दूसरा कारण बनने में समर्थ है अभी, तो आप समझना कि अभी पहली बात घटी नहीं है। दूसरा उसका सहज परिणाम है।

जब आप किसी का कारण नहीं हैं दुख देने का, तो कोई आपको दुख देना भी चाहे तो दे नहीं सकता।

कृष्ण कहते हैं, यह मुझे प्रिय है। और जो हर्ष और अमर्ष, भय व उद्वेगों से रहित है, वह भक्त मुझे प्रिय है।

हर्ष और अमर्ष, भय और उद्वेग से रहित है।

इसे थोड़ा समझें। थोड़ा बारीक, थोड़ा सूक्ष्म है।

कोई दुखी होता है, तो आप दुखी होते हैं। किसी के घर कोई मर गया, तो आपको भी आंसू आ जाते हैं। किसी का घर जल गया, तो आप सांत्वना, संवेदना प्रकट करने जाते हैं। लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि यह दुख सच्चा है या झूठा है?

अगर यह सच्चा है, तो इसकी कसौटी एक ही है कि जब किसी का मकान बड़ा हो रहा हो, तब आप खुश हों। तो ही जलने पर आपको दुख हो सकता है। और जब कोई जीत रहा हो, तो आप प्रसन्न हों। तो ही उसकी हार से आपको पीड़ा हो सकती है।

कोई गरीब सें धनी हो रहा हो, तो आपको हर्ष होता है? पीड़ा होती है। तो फिर दूसरी बात संदिग्ध है कि कोई अमीर से गरीब हो गया हो, तो आपको दुख हो। वह संदिग्ध है, वह नहीं हो सकता। क्योंकि जीवन का तो गणित है। और उसकी सीधी साफ लकीरें हैं। उस हिसाब में कहीं भूल—चूक नहीं है।

इसलिए मनसविद कहते हैं कि आप जब दूसरे के दुख में दुख बताते हैं, तो भीतर आपको सुख होता है। यह बड़ी जटिल है बात और हमें लगता है कि उलटी मालूम पड़ती है। हमको लगता है, यह बात ठीक नहीं है। क्योंकि जब किसी का घर जल जाता है, तो हम सच में ही दुखी होते हैं, ऐसा हमें लगता है।

लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं, आपके गहरे में थोड़ा—सा सुख होता है। और वह सुख कि अपना घर नहीं जला, एक। इसका जल गया। और जलना ही था, पाप की कमाई थी। यह सब भीतर है। और काफी इतरा रहे थे, रास्ते पर आ गए। देर है उसके न्याय में, अंधेर नहीं है। यह सब भीतर चल रहा है। और ऊपर से सहानुभूति बता रहे हैं। और उस सहानुभूति में भी एक तरह का सुख है कि आज इस हालत में आ गए कि सहानुभूति हम दिखा रहे हैं। भगवान न करे कि कभी हम इस हालत में हों कि कोई हमें सहानुभूति दिखाए। आपको पता है, जब कोई आपको सहानुभूति दिखाने आता है, तो अच्छा नहीं लगता। खटकता है कि अच्छा, कोई बात नहीं। किस्मत की बात है! कभी मौका आएगा, तो हम भी सहानुभूति बताने आएंगे। ऐसा सदा हमारे यहां थोड़ा ही होता रहेगा! सब के घर होगा।

लेकिन जब आपको कोई सहानुभूति बताता है, तो सच में आपको अच्छा लगता है? अगर आपको अच्छा नहीं लगता, तो निश्चित ही जो बता रहा है, उसको अच्छा लग रहा होगा। उसके अच्छे लगने की वजह से ही आपको भी अच्छा नहीं लग रहा है। और आपको अच्छा न लगने की वजह से उसको भी अच्छा लग रहा है। सब जुड़ा है।

दूसरे की खुशी में आप खुश नहीं होते। दूसरे के दुख में भी आपका दुख झूठा है। तभी आपका दुख सच्चा हो सकता है दूसरे के दुख में, जब दूसरे की खुशी में आपकी खुशी सच्ची हो। और दूसरे की खुशी में आपको खुशी तभी हो सकती है, जब आप इतने मिट गए हों कि दूसरा दूसरा मालूम न पड़े। नहीं तो नहीं मालूम हो सकती। जब तक मैं हूं तब तक दूसरे की खुशी में मुझे कैसे खुशी मालूम होगी? उसको मिल गई और मुझे नहीं मिली!

दूसरा जब तक दूसरा है, तब तक आप उसके दुख में दुखी नहीं हो सकते। दूसरा जब तक दूसरा है, उसके सुख में सुखी नहीं हो सकते। और दूसरा जब दूसरा ही नहीं होगा...। कब नहीं होगा? जब आप नहीं होंगे भीतर, वह भीतर की अस्मिता, अहंकार नहीं होगा।

लेकिन बड़ी जटिलता है। जब अहंकार ही नहीं होता, तो अपने सुख में भी सुख नहीं होता, अपने दुख में भी दुख नहीं होता। और जो व्यक्ति अहंकारशून्य हो जाता है, वह हर्ष—विषाद के परे हो जाता है—न अपना, न दूसरे का।

कृष्ण का सूत्र कहता है, तथा जो हर्ष और अमर्ष, भय और उद्वेगों से रहित है..।

जिसे न अब कोई हर्ष होता, न जिसे अब कोई अमर्ष होता। न जिसे अब कोई चीज भयभीत करती है। मौत भी नहीं। क्योंकि मौत भी स्वप्न है। कोई कभी मरता नहीं है, प्रतीत होता है कि हम मरते हैं। जिसकी अंतर—दशा में ऐसा अनुभव होने लगे कि मौत भी घटित नहीं होती मुझे, मौत भी मेरे आस—पास आती है और गुजर जाती है, और मैं अछूता, अस्पर्शित रह जाता हूं ऐसा व्यक्ति मुझे प्रिय है।

कृष्ण कहते हैं, जिसका भय नहीं रहा कोई, वह प्रभु को प्रिय है। लेकिन भय क्या है? एक ही भय है, सब भय की जड़ में एक ही भय है कि मैं मिट न जाऊं, कहीं मैं मिट न जाऊं, मौत कहीं मुझे समाप्त न कर दे। बस, यही भय है सारे भय के पीछे। फिर बीमारी का हो, दुख का हो, सब के गहरे में मौत है।

और जब तक कोई व्यक्ति अहंकार के पार नहीं झांकता, और इंद्रियों के पीछे नहीं देखता, तब तक मौत दिखाई पड़ती ही रहेगी। क्योंकि इंद्रियों के बाहर जो जगत है, वहां मौत है। जिस संसार को आप आंख से देख रहे हैं, वहा मौत है। वहां वास्तविकता है मौत की। वहां मौत ही ज्यादा वास्तविक है; जीवन तो वहां क्षणभंगुर है।

फूल खिला नहीं कि मुरझाना शुरू हो जाता है। बच्चा पैदा नहीं हुआ कि मरना शुरू हो जाता है। वहा सब परिवर्तित हो रहा है। परिवर्तन का अर्थ है कि प्रतिपल मौत घटित हो रही है। इंद्रियों का जहां अनुभव है, उस अनुभव के जगत में मृत्यु प्रतिपल घटित हो रही है। वहा जीवन आश्चर्य है। मृत्यु तथ्य है। वहा जीवन संदिग्ध है।

इसीलिए तो नास्तिक कहते हैं कि जीवन है ही नहीं; सभी पदार्थ है। क्योंकि मौत इतनी घटित हो रही है कि तुम कहां जीवन की बातें लगा रहे हो! यहां जीवन सिर्फ सपना है तुम्हारा। यहां सब मौत है। एक लिहाज से उनके कहने में सचाई है। बाहर के जगत में जीवन का पता भी नहीं चलता। झलक भी मिलती है, तो वह झलक भी ऐसी लगती है कि शायद सिर्फ मौत को प्रकट करने के लिए आती है। सिर्फ मौत का पता चल जाए, इसलिए जीवन की लकीर कहीं—कहीं झलक में आती है। बाकी चारों तरफ मौत है।

पदार्थ का अर्थ है, मृत्यु। और इंद्रियों से पदार्थ के अतिरिक्त किसी चीज का पता नहीं चलता। इसलिए भय पकड़ता है। वह जो भीतर अमृत है, जो कभी नहीं मरता, वह भी भयभीत होता है मौत को चारों तरफ देखकर। चारों तरफ घटती मौत, आपको भी वहम पैदा होता है कि मैं भी मरूंगा।

जो व्यक्ति इंद्रियों के पार भीतर उतरता है और देखता है, उसे पता चलता है कि यहां जो बैठा है, वह मरता ही नहीं। वह कभी मरा नहीं, वह मर नहीं सकता। यह जो अमृत का बोध न होना शुरू हो जाए, तो आदमी भयभीत रहेगा। फर्क को समझ लें।

जिनको आप कहते हैं निर्भय, उनसे प्रयोजन नहीं है यहां हम दो तरह के लोगों को जानते हैं। भयभीत, भीरु, कायर, निर्भय, बहादुर। अभय तीसरी बात है। जिसको हम निर्भय कहते हैं, वह भी भयभीत तो होता है, लेकिन भागता नहीं। भयभीत तो वह भी होता है, लेकिन भागता नहीं। जिसको हम कायर कहते हैं, वह भी भयभीत होता है, लेकिन भागता है। कायर और बहादुर में इतना ही फर्क है कि कायर भी भयभीत होता है, बहादुर भी भयभीत होता है; लेकिन कायर भयभीत होकर भाग खड़ा होता है, बहादुर डटा रहता है। बाकी भयभीत दोनों होते हैं।

अभय का अर्थ है, जो भयभीत नहीं होता। उसको बहादुर नहीं कह सकते आप, क्योंकि बहादुरी का भी कोई सवाल नहीं है । जब भय ही नहीं, तो बहादुरी क्या? जिसको भय ही नहीं लगता, उसकी बहादुरी का क्या मूल्य है? 

अभय! अभय का अर्थ है, अब न बहादुरी रही, न कायरता रही। वे दोनों खो गईं। अब इस आदमी को यह पता है कि मृत्यु घटती ही नहीं।

तो कृष्ण कहते हैं, वह भक्त मुझे प्रिय है, जिसे अमृत की थोड़ी झलक मिलने लगी, जो भय के पार होने लगा।

और जो पुरुष आकांक्षा से रहित है तथा बाहर— भीतर से शुद्ध है, दक्ष है अर्थात जिस काम के लिए आया था, उसको पूरा कर चुका है एवं पक्षपात से रहित और दुखों से छूटा हुआ है, वह सर्व आरंभों का त्यागी भक्त मुझे प्रिय है।

जिसने वासनाओं की व्यर्थता को समझ लिया और अब जो मांग नहीं करता कि मुझे यह चाहिए। जो मिल जाता है, कहता है, बस यही मेरी चाह है। जो नहीं मिलता, उसकी चिंता नहीं है, आकांक्षा भी नहीं है।

हमें तो जो नहीं मिलता, उसका ही खयाल है। जो मिल जाता है, उसको हम भूल जाते हैं। आपको खयाल है! जो मिल जाता है, उसको आप भूल जाते हैं। जो नहीं मिलता है, उसका खयाल बना रहता है। और जब तक नहीं मिलता है, तभी तक खयाल बना रहता है।

जिस कार को आप खरीदना चाहते हैं और जब तक नहीं खरीदा है, तभी तक वह आपके पास है। जिस दिन आप खरीद लेंगे, उसमें बैठ जाएंगे, वह आपके पास नहीं रही; भूल गई। अब दूसरी कारें आपको दिखाई पड़ने लगेंगी, जो दूसरों के पास हैं।

जिस मकान में आप हैं, वह आपको नहीं दिखाई पड़ता। वह भी दूसरों को दिखाई पड़ता है, जो फुटपाथ पर बैठे हैं। उनको दिखाई पड़ता है कि गजब का मकान है। काश! इसके भीतर होते, तो पता नहीं कैसा आनंद मिलता! और वे भी कभी नहीं देखते कि भीतर जो रह रहा है, उसकी गति भी तो देखो। उसे कोई आंनद—वांनद नहीं मिल रहा है। वह अलग परेशान है। इस मकान में वह रहना ही नहीं चाहता। वह किसी और मकान की खोज कर रहा है।

जो नहीं है, उसका हमें खयाल है। जो है, उसे हम भूल जाते हैं। जो नहीं है, उससे दुख पाते हैं। जो है, उससे कोई सुख नहीं मिलता।

मगर इस दुनिया में जो नहीं है, उसका भी काफी मोल— भाव चल रहा है। जो नहीं है, उस पर भी हिसाब लग रहा है। जो नहीं है, उस पर जानें लोग अटकाए हुए हैं, अपनी जानें लगाए हुए हैं। और जो है, वह विस्मृत हो जाता है।

आकांक्षा का अर्थ है, जो नहीं है, उसकी खोज। आकांक्षा—मुक्ति का अर्थ है, जो है, उसमें तृप्ति।

बाहर— भीतर से जो शुद्ध है।

शुद्ध कौन है बाहर— भीतर से? शुद्ध वही है, जो बाहर— भीतर एक—सा है। भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और है, वह अशुद्ध है। शुद्ध का क्या अर्थ होता है? आप कब कहते हैं, पानी शुद्ध है? जब पानी में पानी के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है, तब आप उसे कहते हैं, पानी शुद्ध है। कब आप कहते हैं, दूध शुद्ध है? जब। दूध में सिर्फ दूध होता है और कुछ नहीं होता। शुद्ध पानी और —शुद्ध दूध को भी मिलाएं, तो दोनों अशुद्ध हो जाते हैं।

यह बड़े मजे की बात है। दोनों शुद्ध थे, तो डबल शुद्ध हो जाने चाहिए। लेकिन शुद्ध पानी शुद्ध दूध में मिलाओ, दोनों अशुद्ध हो गए। न पानी शुद्ध रहा, न दूध शुद्ध रहा। बात क्या हो गई? फारेन एलिमेंट, जो विजातीय है, वह अशुद्धि पैदा करता है। जब दूध दूध था, सिर्फ दूध था एकरस; सिर्फ दूध ही दूध था, बाहर— भीतर एक—सा ही था, तब शुद्ध था। जब पानी एक—सा ही था, तब वह भी शुद्ध था। अब न पानी पानी रह गया, न दूध दूध रह गया। दो पैदा हो गए, द्वंद्व खड़ा हो गया।



जब आप भीतर—बाहर एक—से होते हैं, पानी—पानी, दूध—दूध। जो भी हैं, जैसे भी हैं—बुरे हैं, भले हैं, यह सवाल नहीं है—जैसे भी हैं, बाहर— भीतर एक—से होते हैं, तो आप शुद्ध होते हैं। और जब बाहर— भीतर आप दो तरह के होते हैं, जब आपके भीतर दो आदमी होते हैं, तब वे दोनों ही अशुद्ध हो जाते हैं। बाहर— भीतर की समरसता, एक—सा पन शुद्धि है।

कृष्ण कहते हैं, जो बाहर— भीतर शुद्ध है, एक जैसा है, वह मुझे प्रिय है।

क्योंकि जो बाहर— भीतर एक—सा हो जाता है, उसके भीतर द्वंद्व मिट गया। और जिसके भीतर द्वंद्व मिट गया, वह तैयार हो गया निर्द्वंद्व, अद्वंद्व को अपने भीतर पहुंचाने के लिए। क्यौंकि जैसे हम हैं, उससे ही हमारा मिलन हो सकता है। अगर हम द्वंद्व में हैं, तो अद्वैत से हमारा मिलन नहीं हो सकता है। समान से मिलता है समान। इसलिए भीतर और बाहर एक—सा पन!

अगर चोर हैं, तो कोई फिक्र न करें। चोर भी परमात्मा को पा सकता है, लेकिन बाहर— भीतर एक—सा! यही कठिनाई है कि चोर बाहर— भीतर एक—सा नहीं हो सकता। नहीं तो चोरी नहीं चलेगी। अगर वह घोषणा कर दे कि मैं चोर हूं, तो चोरी तत्‍क्षण समाप्त हो जाएगी।

आप क्या हैं, यह सवाल नहीं है। अगर आप एकरस अभिव्यक्त हो जाते हैं, जैसे हैं, तो इस जगत में आपके लिए फिर कोई जगह नहीं है। फिर परमात्मा के हृदय में ही आपके लिए जगह है।

दक्ष, जिस काम के लिए आया था, उसे पूरा कर चुका।

वह जो मैं कह रहा था, उसी काम के लिए प्रत्येक व्यक्ति आया है कि वासनाओं में उतरकर जान ले कि व्यर्थ हैं। आकांक्षा करके देख ले कि जहर है। संसार में उतरकर देख ले कि आग है। इसी काम के लिए प्रत्येक व्यक्ति आया है। और अगर यही काम आप नहीं कर पा रहे हैं, यह अनुभव नहीं कर पा रहे हैं, तो आप दक्ष नहीं हैं। और जो भी दक्ष हो जाता है, वह परमात्मा के लिए प्रिय है।

पक्षपात से रहित, सब दुखों से छूटा हुआ, सर्व आरंभों का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है।

आरंभ का अर्थ है, जहां से वासना शुरू होती है। अगर वासना छोड़नी है, तो बीच में नहीं छोड़ी जा सकती, अंत में नहीं छोड़ी जा सकती, प्रारंभ में ही छोड़ी जा सकती है।

आप रास्ते से गुजरे और एक मकान आपको लगा, बहुत सुंदर है। अभी आपको खयाल भी नहीं है कि वासना का कोई जन्म हो रहा है। आप शायद सोच रहे हों कि आप बड़े सौंदर्य के पारखी हैं, बड़ा एस्थेटिक आपका बोध है, इसलिए मकान आपको सुंदर लग  रहा है। लेकिन यह आरंभ है। जो मकान सुंदर लगा, उसके पीछे थोड़ी ही देर में दूसरी बात भी लगेगी कि कब मेरा हो जाए।

आरंभ हमेशा छिपा हुआ है, पता नहीं चलता। आप कहते हैं, एक स्त्री जा रही है, कितनी सुंदर है! और आप सोचते होंगे कि चूंकि आप बड़े चित्रकार हैं, बडे कलाकार हैं, इसलिए। लेकिन। जैसे ही आपने कहा, कितनी सुंदर है, थोड़ी खोज करना, भीतर ! छिपी है दूसरा वासना, कैसे मुझे उपलब्ध हो जाए!

यह आरंभ है। अगर इस आरंभ में ही नहीं चेत गए, तो वासना पकड़ लेगी। इसलिए सर्व आरंभ का त्यागी। जहां—जहां से उपद्रव शुरू होता हो, उस उपद्रव को ही पहचान लेने वाला, और वहीं त्याग कर देने वाला। अगर वहां त्याग नहीं हुआ, तो मध्य में त्याग नहीं हो सकता। मध्य से नहीं लौटा जा सकता।

कुछ चीजें हैं, हाथ से तीर की तरह छूट जाती हैं, फिर उनको लौटाना मुश्किल है। जब तक तीर नहीं छूटा है और प्रत्यंचा पर सवार है, तब तक चाहें तो आप लौटा ले सकते हैं।


 आरंभ का अर्थ है, जहां से तीर छूटता है।

सब आरंभ का त्यागी परमात्मा को प्रिय है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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