मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 13 भाग 9

 पुरूष में थिरता के चार मार्ग


ध्यानेनात्‍मनि पश्‍यान्ति केचिदात्‍मानमात्‍मना।

अन्ये सांख्‍येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।। 24।।

अन्ये त्वेवमजानन्‍त: श्रुत्‍वान्‍येभ्‍य उपासते।

तउपि चातितरन्‍त्येव मृत्‍यु श्रुतिपरायणा:।। 25।।

यावत्‍संजायते किंचित्‍सत्‍वं स्‍थावरजड्गमम्।

क्षेत्रक्षत्रज्ञसंयोत्‍तद्विद्धि भरतर्षभ।। 26।।


और है अर्जुन उस परम पुरुष को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्‍म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हदय में देखते हैं तथा अन्य कितने ही ज्ञान— योग के द्वारा देखते हैं तथा अन्य कितने ही निष्काम कर्म— योग के द्वारा देखते हैं।

परंतु इनसे दूसरे अर्थात जो मंद बुद्धि वाले पुरूष है, वे स्वयं इस प्रकार न जानते न दूसरों से अर्थात तत्‍व के जानने वाले पुरूषों से सुनकर ही उपासना करते हैं और वे सुनने के परायण हुए पुरुष भी मृत्‍युरूय संसार— सागर को निस्संदेह तर जाते हैं।

हे अर्जुन यावन्‍मात्र जो कुछ भी स्थावर— जंगम वस्तु उत्पन्‍न होती है, उस संपूर्ण को तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्‍न हुई जान।


हे अर्जुन, उस परम पुरुष को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैं तथा अन्य कितने ही ज्ञान—योग के द्वारा देखते हैं। और अन्य कितने ही निष्काम कर्म—योग के द्वारा देखते हैं।

कृष्ण कहते हैं, वह जो परम पुरुष की स्थिति है, उस स्थिति को देखने के बहुत द्वार हैं। कुछ लोग शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा उसे हृदय में देखते हैं। 

शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा......।

बुद्धि को सूक्ष्म और शुद्ध करने की प्रक्रियाएं हैं। बुद्धि साधारणतया स्थूल है। और स्थूल होने का कारण यह है कि स्थूल विषयों से बंधी है।

आप क्या सोचते हैं बुद्धि से? अगर आप अपने मन का विश्लेषण करें, तो आप पाएंगे कि आपके सोचने—विचारने में कोई पचास प्रतिशत से लेकर नब्बे प्रतिशत तो कामवासना का प्रभाव होता है। उसका अर्थ है, आप शरीरों के संबंध में सोचते हैं। पुरुष स्त्रियों के शरीर के संबंध में सोचता रहता है।

तो जब आप शरीर के संबंध में सोचते हैं, तो बुद्धि भी शरीर जैसी ही स्थूल हो जाती है। बुद्धि जो भी सोचती है, उसके साथ तत्सम हो जाती है।

अगर आप शरीरों के संबंध में कम सोचते हैं, कामवासना से कम ग्रसित हैं, तो धन के संबंध में सोचते हैं। मकानों, कारों के संबंध में सोचते हैं, जमीन—जायदाद के संबंध में सोचते हैं। वह भी सब स्थूल है। और उसमें भी बुद्धि वैसी ही हो जाती है, जो आप सोचते हैं। जो आप सोचते हैं _ बुद्धि उसी का रूप ग्रहण कर लेती है। सोचते—सोचते, सोचते—सोचते बुद्धि वैसी ही हो जाती है।
खयाल करें आप, आप जो भी सोचते हैं, क्या आपकी बुद्धि उसी तरह की नहीं हो गई है? एक चोर की बुद्धि चोर हो जाती है। एक कंजूस की बुद्धि कंजूस हो जाती है। एक हत्यारे की बुद्धि हत्या से भर जाती है। जो भी वह कर रहा है, सोच रहा है, चिंतन कर रहा है, मनन कर रहा है, वह धीरे— धीरे उसकी बुद्धि का रूप हो जाता है।

बुद्धि को सूक्ष्म करने का अर्थ है कि धीरे— धीरे स्थूल पदार्थों से बुद्धि को मुक्त करना है और उसे सूक्ष्म आब्जेक्ट, सूक्ष्म विषय देना है। जैसे कि आप सूरज को देखें, तो यह स्थूल है। फिर आप आंख बंद कर लें और सूरज का जो बिंब भीतर आंख में रह गया, निगेटिव, उस बिंब पर ध्यान करें। वह बिंब ज्यादा सूक्ष्म है। फिर आप बिंब पर ध्यान करते जाएं, ध्यान करते जाएं। आप पाएंगे कि बिंब थोड़ी देर में खो जाता है।

लेकिन अगर आप रोज ध्यान करेंगे, तो बिंब ज्यादा देर टिकने लगेगा। बिंब ज्यादा देर नहीं टिकता, आपकी बुद्धि सूक्ष्म हो जाती है, इसलिए आप ज्यादा देर तक उसे देख पाते हैं। रोज—रोज आप करेंगे, तो आप पाएंगे कि सूरज को देखने की जरूरत ही न रही, आप आंख बंद करते हैं और सूक्ष्म बिंब उपस्थित हो जाता है। अब आप इस बिंब को देखते रहते हैं, देखते रहते हैं।

पहले तो जब बुद्धि स्थूल रहेगी, तो बिंब फीका पड़ता जाएगा। और जब बुद्धि सूक्ष्म होने लगेगी, तो आप चकित होंगे। जैसे—जैसे आप भीतर देखेंगे, बिंब उतना ही तेजस्वी होने लगेगा।
जब बिंब पहले देखने में तो फीका लगे और फिर उसकी तेजस्विता बढ़ती जाए, तो समझना कि आपकी बुद्धि सूक्ष्म हो रही है। जब बिंब पहले तो तेजस्वी लगे और फिर धीरे— धीरे उसमें फीकापन आता जाए, तो समझना कि आपकी बुद्धि स्थूल है, सूक्ष्म को नहीं पकड़ पाती, इसलिए बिंब फीका होता जा रहा है।
कान से आवाज सुनते हैं आप। जितने जोर की आवाज हो, उतनी आसानी से सुनाई पड़ती है; जितनी धीमी आवाज हो, उतनी मुश्किल से सुनाई पड़ती है। जोर की आवाजें सुनते—सुनते आपकी सुनने की जो बुद्धि है, वह स्थूल हो गई है। कान कभी बंद कर लें और कभी भीतर की सूक्ष्म आवाजें सुनें। धीरे— धीरे भीतर आवाजों का एक नया जगत प्रकट होगा। एक ध्वनियों का जाल प्रकट हो जाएगा। और—और सुनते जाएं, और एक ही ध्यान रहे कि मैं सूक्ष्म से सूक्ष्म को सुनूं।

ऐसा करें कि बाजार में आप खड़े हैं। आंख बंद कर लें। जो तेज आवाज है, वह तो अपने आप सुनाई पड़ती है। बीच बाजार में सड़क पर खड़े होकर आंख बंद करके इन सारी आवाजों में जो सबसे सूक्ष्म आवाज है, उसे पकड़ने की कोशिश करें।
आप बहुत चकित होंगे कि जैसे ही आप सूक्ष्म को पकड़ने की कोशिश करेंगे, जो बड़ी आवाजें हैं, वे आपके ध्यान से अलग हो जाएंगी, फौरन हट जाएंगी; और सूक्ष्म आवाजें प्रकट होने लगेंगी। और आप कभी चकित भी हो सकते हैं कि एक पक्षी वृक्ष पर बोल रहा था, वह सड़क के ट्रैफिक और उपद्रव में अचानक आपको सुनाई पड़ने लगा। सारा ट्रैफिक जैसे दूर हो गया और पक्षी की धीमी आवाज प्रकट हो गई।

स्थूल आवाजों को छोड्कर सूक्ष्म को सुनने की कोशिश करें। उस मात्रा में आपकी बुद्धि सूक्ष्म होगी। फिर धीरे से कान को बंद करके भीतर की आवाजें सुनें। जब ऐसे—ऐसे कोई उतरता जाता है, तो आखिरी जो सूक्ष्मतम आवाज है, नाद है भीतर, ओंकार की ध्वनि, वह सुनाई पड़नी शुरू होती है। जिस दिन वह सुनाई पड़ने लगे, समझना आपके पास शुद्ध सूक्ष्म बुद्धि पैदा हो गई। नाद सुनाई पड़ने लगे, तो वह पहचान है कि आपके भीतर शुद्ध बुद्धि पैदा हो गई।

इसलिए हम अपने विद्यालयों में इस मुल्क में पहला काम यह करते थे.....। अभी हम उलटे काम में लगे हैं। अभी हम सारी दुनिया में शिक्षा देते हैं, वे सभी स्थूल हैं। इस देश में हम इस बात की फिक्र किए थे कि विद्यार्थी जब गुरुकुल में मौजूद हो, तो पहला काम उसकी बुद्धि को सूक्ष्म करने का। जब तक उसके पास सूक्ष्म बुद्धि नहीं है, तब तक क्या होगा? उसके पास स्थूल बुद्धि है, हम स्थूल शिक्षा उसे दे सकते हैं। वह शिक्षित भी हो जाएगा, पंडित भी हो जाएगा, लेकिन ज्ञानी कभी भी नहीं हो पाएगा। पहले उसकी इस बुद्धि को स्थूल से सूक्ष्म करना है; पहले उसके उपकरण को निखार लेना है।

अभी हम विद्यार्थियों को भेज देते हैं विद्यालय में। और विद्यालय में शिक्षक उन पर हमला बोल देते हैं, सिखाना शुरू कर देते हैं, बिना इसकी फिक्र किए कि सीखने का जो उपकरण है, वह अभी सूक्ष्म भी हुआ था या नहीं; अभी उसमें धार भी आई थी या नहीं। अभी वह स्थूल ही है; उस स्थूल पर हम फेंकना शुरू कर देते हैं चीजें, और भी स्थूल हो जाता है।

इसलिए विश्वविद्यालय से निकलते—निकलते बुद्धि करीब—करीब कुंठित हो जाती है। बुद्धि लेकर नहीं लौटते हैं विद्यार्थी विश्वविद्यालय से, खोकर लौटते हैं। हां, कुछ तथ्य याद करके, स्मृति भरकर लौट आते हैं। परीक्षा दे सकते हैं। लेकिन बुद्धिमत्ता नाम—मात्र को भी नहीं दिखाई पड़ती।

तो आज अगर सारे विश्वविद्यालयों में उपद्रव हैं सारी दुनिया में, तो उसका कारण, बुनियादी कारण यह है कि आप उनसे बुद्धिमत्ता तो छीन लिए हैं और केवल स्मृति उनको दे दिए हैं। स्मृति का उपद्रव है। बुद्धिमत्ता बिलकुल, विजडम बिलकुल भी नहीं है।
और बुद्धिमत्ता पैदा होती है बुद्धि की सूक्ष्मता से। कितना आप जानते हैं, इससे नहीं। क्या आप जानते हैं, इससे भी नहीं। कितनी परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं, इससे भी नहीं। कितनी पीएच डी. और डी. लिट. आपके पास हैं, इससे भी नहीं। बुद्धिमत्ता उपलब्ध होती है, कितनी सूक्ष्म बुद्धि आपके पास है, उससे।

इसलिए यह भी हो सकता है कि कभी कोई बिलकुल अपढ़ आदमी भी बुद्धि की सूक्ष्मता को उपलब्ध हो जाए। और यह तो अक्सर होता है कि बहुत पढ़े—लिखे आदमी बुद्धि की सूक्ष्मता को उपलब्ध होते दिखाई नहीं पड़ते हैं। पंडित में और बुद्धि की सूक्ष्मता पानी जरा मुश्किल है। बहुत कठिन है। जरा मुश्किल संयोग है। कभी—कभी गांव के ग्रामीण में, चरवाहे में भी कभी—कभी बुद्धिमत्ता की झलक दिखाई पड़ती है। उसके पास बुद्धि का संग्रह नहीं है। लेकिन एक सूक्ष्म बुद्धि हो सकती है।

इसलिए कबीर जैसा गैर पढ़ा—लिखा आदमी भी परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है।

परम ज्ञान का संबंध, आपके पास कितनी संपदा है स्मृति की, इससे नहीं है। परम ज्ञान का संबंध इससे है, आपके पास कितने सूक्ष्मतम को पकड़ने की क्षमता है। आप कितने ग्राहक, कितने रिसेप्टिव हैं। कितनी बारीक ध्वनि आप पकड़ सकते हैं, और कितना बारीक स्पर्श, कितना बारीक स्वाद, कितनी बारीक गंध..। क्योंकि भीतर सब बारीक है। बाहर सब स्थूल है, भीतर सब सूक्ष्म है। जब भीतर के जगत को अनुभव करना हो, तो सूक्ष्मता और शुद्धि की जरूरत है।

कृष्ण कहते हैं, शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैं..।

जब किसी के पास भीतर सूक्ष्म बुद्धि होती है, तो हृदय की तरफ उसे मोड़ दिया जाता है। वह बहुत कठिन नहीं है। पर सूक्ष्म बुद्धि का होना पहले जरूरी है।

करीब—करीब जैसे आपके पास एक दूरवीक्षण यंत्र हो, आप उसे लगाकर आंख में और किसी भी तारे की तरफ मोड़ दे सकते हैं। फिर जिस तरफ आप मोड़ेंगे, वही तारा प्रगाढ़ होकर प्रकट हो जाएगा। ठीक वैसे ही जब सूक्ष्म बुद्धि भीतर होती है, तो एक रास्ता है उसे हृदय की तरफ मोड़ देना, उस सूक्ष्म बुद्धि को हृदय पर लगा देना ध्यानपूर्वक, तो उस हृदय के मंदिर में परमात्मा का आविष्कार कर लेते हैं।

कितने ही अन्य उसे ज्ञान—योग के द्वारा देखते हैं..।

यह हृदय की तरफ लगा देना भक्ति—योग है। हृदय भक्ति का केंद्र है, प्रेम का। तो जब सूक्ष्म हुई बुद्धि को कोई प्रेम के केंद्र हृदय की तरफ लगा देता है, तो मीरा का, चैतन्य का जन्म हो जाता है। कृष्ण कहते हैं, कितने ही उसे ज्ञान—योग के द्वारा.....।

वही सूक्ष्म बुद्धि है, लेकिन उसे हृदय की तरफ न लगाकर मस्तिष्क का जो आखिरी केंद्र है, सहस्रार, उसकी तरफ मोड़ देना। तो सहस्रार में जो परमात्मा का दर्शन करते हैं, वह ज्ञान—योग है। और कितने ही निष्काम कर्म—योग के द्वारा देखते हैं...।

कितने ही अपनी उस सूक्ष्म हुई बुद्धि को अपने कर्म— धारा की तरफ लगा देते हैं। वे जो करते हैं, उस करने में उस सूक्ष्म बुद्धि को समाविष्ट कर देते हैं। तो करने से मुक्त हो जाते हैं, कर्ता नहीं रह जाते।

ये तीन मार्ग हैं, भक्ति, ज्ञान, कर्म। भक्ति उत्पन्न होती है हृदय से। जो बुद्धि है, वह तो एक ही है; जो उपकरण है, वह तो एक ही है। उसी एक उपकरण को हृदय की तरफ बहा देने से भक्त जन्म जाता है। उसी उपकरण को सहस्रार की तरफ बहा देने से ज्ञानी का जन्म हो जाता है, बुद्ध पैदा होते हैं, महावीर पैदा होते हैं। और उसी को कर्म की तरफ लगा देने से क्राइस्ट पैदा होते हैं, मोहम्मद पैदा होते हैं।

मोहम्मद और क्राइस्ट न तो भक्त हैं और न ज्ञानी हैं, शुद्ध कर्म—योगी हैं। इसलिए हम सोच भी नहीं सकते, जो लोग ज्ञान—योग की धारा में बहते हैं, वे सोच ही नहीं सकते कि मोहम्मद को तलवार लेकर और युद्धों में जाने की क्या जरूरत! हम सोच भी नहीं सकते कि क्राइस्ट को सूली पर लटकने की क्या जरूरत! उपद्रव में पड़ने की क्या जरूरत!

क्रांति इत्यादि तो सब उपद्रव हैं। ये तो उपद्रवियों के लिए हैं। हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध कोई बगावत कर रहे हैं और सूली पर लटकाए जा रहे हैं। क्योंकि बुद्ध ज्ञान—योगी हैं। वे अपने सहस्रार की तरफ शुद्ध सूक्ष्म बुद्धि को मोड़ रहे हैं। क्राइस्ट अपने कर्म की धारा की तरफ।

इसलिए ईसाइयत की सारी धारा कर्म की तरफ हो गई है। इसलिए सेवा धर्म बन गया। इसलिए ईसाई मिशनरी जैसी सेवा कर सकता है, दुनिया के किसी धर्म का कोई मिशनरी वैसी सेवा नहीं कर सकता। उसके कारण बहुत गहरे हैं। उसमें कोई कितनी ही नकल करे।

यहां हिंदुओं के बहुत—से समूह हैं, जो नकल करने की कोशिश करते हैं। पर वह नकल ही साबित होती है। क्योंकि वह उनकी मूल धारा नहीं है। क्राइस्ट की पूरी साधना सूक्ष्म हुई बुद्धि को कर्म की तरफ लगाने की है। फिर कर्म ही सब कुछ है। फिर वही पूजा है, वही प्रार्थना है।

इसलिए एक ईसाई फकीर कोढ़ी के पास जिस प्रेम से बैठकर सेवा कर सकता है, कोई हिंदू संन्यासी नहीं कर सकता। कोई जैन संन्यासी तो पास ही नहीं आ सकता, करने की तो बात बहुत दूर। कोढ़ी के पास! वह सोच ही नहीं सकता। वह अपने मन में सोचेगा, ऐसे हमने कोई पाप कर्म ही नहीं किए, जो कोढ़ी की सेवा करें। कोढ़ी की सेवा तो वह करे, जिसने कोई पाप कर्म किए हों। हमने ऐसे कोई पाप कर्म नहीं किए हैं।

हिंदू संन्यासी सोच ही नहीं सकता सेवा की बात, क्योंकि हिंदू संन्यासी को खयाल ही यह है कि संन्यासी की सेवा दूसरे लोग करते हैं। संन्यासी किसी की सेवा करता है! यह क्या पागलपन की बात है कि संन्यासी किसी के पैर दबाए। संन्यासी के सब लोग पैर दबाते हैं।

उसकी भी गलती नहीं है, क्योंकि वह जिस धारा से निष्पन्न हुआ है, वह ज्ञान—योग की धारा है। उसका कर्म से कोई लेना नहीं है; उसका सहस्रार से संबंध है। वह अपनी सारी चेतना को सहस्रार की तरफ मोड़ लेता है। और जब कोई अपनी सारी चेतना को सहस्रार की तरफ मोड़ लेता है, तो स्वभावत: दूसरों को उसकी सेवा करनी पड़ती है, क्योंकि वह बिलकुल ही बेहाल हो जाता है। न उसे भोजन की फिक्र है, न उसे शरीर की फिक्र है। दूसरे उसकी सेवा करते हैं। इसलिए हमने संन्यासियों की सेवा की, क्योंकि वे समाधि में जा रहे थे।

 
कृष्ण कहते हैं, कोई कर्म की तरफ, निष्काम कर्म—योग के द्वारा परमात्मा को देख लेते हैं।

निष्काम कर्म—योग के द्वारा परमात्मा दूसरों में दिखाई पड़ेगा।
 
निष्काम कर्म—योग के द्वारा परमात्मा चारों तरफ दिखाई पड़ने लगेगा। जिसकी भी आप सेवा करेंगे, वहीं परमात्मा दिखाई पड़ने लगेगा। क्योंकि वह सूक्ष्म यंत्र जो बुद्धि का है, अब उस पर लग गया।

एक बात सार की है कि शुद्ध हुई बुद्धि को जहां भी लगा दें, वहा परमात्मा दिखाई पड़ेगा। और अशुद्ध बुद्धि को जहां भी लगा दें, वहा सिवाय पदार्थ के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ सकता है। परंतु इससे दूसरे अर्थात जो मंद बुद्धि वाले पुरुष हैं, वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व को जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही उपासना करते हैं और वे सुनने के परायण हुए भी मृत्युरूप संसार—सागर को निस्संदेह तर जाते हैं।

लेकिन ये तीन बड़ी प्रखर यात्राएं हैं; ज्ञान की, भक्ति की, कर्म की, ये बड़ी प्रखर यात्राएं हैं। और कोई बहुत ही जीवट के पुरुष इन पर चल पाते हैं। सभी लोग इतनी प्रगाढ़ता से, इतनी प्रखरता से, इतनी त्वरा और तीव्रता से, इतनी बेचैनी, इतनी अभीप्सा से नहीं चल पाते हैं। उनके लिए क्या मार्ग है?

तो कृष्ण कहते हैं, अर्थात वे दूसरे भी इस प्रकार न जानते हुए, दूसरों से, जिन्होंने जाना है, उनसे सुनकर भी उपासना करते हैं और सुनने में परायण हुए मृत्युरूप संसार—सागर को निस्संदेह तर जाते हैं।

इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए। क्योंकि हममें से अधिक लोग उन तीन कोटियों में नहीं आएंगे। हममें से अधिक लोग इस चौथी कोटि में आएंगे, जो तीनों में से किसी पर भी जा नहीं सकते, जो तीनों में से किसी पर जाने की अभी अभीप्सा भी अनुभव नहीं करते हैं। लेकिन वे भी, जिन्होंने जाना है, अगर उनकी बात सुन लें—वह भी आसान नहीं है—जिन्होंने जाना है, उनकी बात सुन लें; और उनकी बात सुनकर उसमें परायण हुए, उसमें डूब जाएं, लीन हो जाएं, उससे उनकी उपासना का जन्म हो जाए तो वे भी मृत्यु के सागर को तर जाते हैं, अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं।
मगर कई शर्तें हैं। पहली शर्त, जिन्होंने जाना है, उनसे सुनें, फर्स्ट हैंड। जिन्होंने जाना है! अगर आप खुद जान लें मौलिक रूप से स्वयं, तब तो ठीक है, वे तीन रास्ते हैं। अगर यह संभव न हो, तो जिन्होंने जाना है, उनसे सीधा सुनें। शास्त्र काम न देंगे, कोई गुरु उपयोगी होगा। जिसने जाना हो, उससे सीधा सुनें। क्योंकि अभी उससे जो शब्द निकलेंगे, उसका जो स्पर्श होगा, उसकी जो वाणी होगी, उसमें ताजी हवा होगी उसके अपने अनुभव की। इसलिए शास्त्र पर कम जोर और गुरु पर ज्यादा जोर है।

अधिक लोगों के लिए, चौथा मार्ग जिनका होगा, उनके लिए गुरु रास्ता है। और शास्त्र का अर्थ भी गुरु के द्वारा ही खुलेगा। क्योंकि शास्त्र तो कोई हजार साल, दस हजार साल पहले लिखा गया है। दस हजार साल पहले जो कहा गया है, उसमें बहुत कुछ जोड़ा गया, घटाया गया; दस हजार साल की यात्रा में बहुत कचरा भी इकट्ठा हो गया, धूल भी जम गई। वह जो अनुभव था दस हजार साल पहले का शुद्ध, वह अब शुद्ध नहीं है, वह बहुत बासा हो गया है।

फिर किसी व्यक्ति के पास जाएं, जिसमें अभी आग जल रही हो, जो अभी जिंदा हो, अपने अनुभव से दीप्त हो, जिसके रोएं—रोएं में अभी खबर हो; जिसने अभी—अभी जाना और जीया हो सत्य को, जो अभी—अभी परमात्मा से मिला हो; जिसके भीतर पुरुष ठहर गया हो और जिसका शरीर और जिसका संसार अब केवल एक अभिनय रह गया हो; अब उसके पास बैठकर सुनें। उपासना का अर्थ है, पास बैठना।

उपासना शब्द का अर्थ है, पास बैठना। उपनिषद शब्द का अर्थ है, पास बैठकर सुनना। ये शब्द बड़े कीमती हैं, उपासना, उपदेश, उपनिषद। पास बैठकर। किसके पास? कोई जीवंत अनुभव जहां हो—सुनना। सुनना भी बहुत कठिन है, क्योंकि पास बैठने में पात्रता बनानी पड़ेगी। अगर जरा—सा भी अहंकार है, तो आप पास बैठकर भी बहुत दूर हो जाएंगे।

गुरु के पास बैठना हो तो अहंकार बिलकुल नहीं चाहिए, क्योंकि वही फासला है। स्थान का कोई फासला नहीं है गुरु के और तुम्हारे बीच, फासला तुम्हारे अहंकार का है। लोग सीखने भी आते हैं, तो बड़ी अकड़ से आते हैं। लोग सीखने भी आते हैं, तो भी आते नहीं हैं। उनको खयाल होता है कि आते हैं।

नदी घड़े के पास नहीं आती, घड़े को ही नदी के पास जाना पड़ेगा। और घड़े को ही झुकना पड़ेगा नदी में, तो ही नदी घड़े को भर सकेगी। नदी तैयार है भरने को। लेकिन घड़ा कहे कि मैं अकड़कर अपनी जगह बैठा हूं मैं झुकूंगा नहीं; नदी आए और मुझे भर दे और मैं हजार रुपए भेंट करूंगा! तो नदी नहीं आ सकती। हां, कोई नल की टोंटी आ सकती है। पर नल की टोंटियों में और नदियों में बड़ा फर्क है। कोई पंडित आ सकता है, कोई गुरु नहीं आ सकता।

तो पास पहुंचना एक कला है। विनम्रता, निरअहंकार भाव, सीखने की तैयारी, सीखने की उत्सुकता, सीखने में बाधा न डालना। फिर सुने। क्योंकि सुनना भी बहुत कठिन है। क्योंकि जब आप सुनते भी हैं, तब भी सुनते कम हैं, सोचते ज्यादा हैं।

सोचेंगे आप क्या? जब आप सुन रहे हैं, तब भी आप सोच रहे हैं कि अच्छा, यह अपने मतलब की बात है? यह अपने संप्रदाय की है? अपने शास्त्र में ऐसा लिखा है कि नहीं?

 पुरानी परंपरा तो यही थी कि शिष्य गुरु के पास जाए, तो साल दो साल कुछ पूछे न, सिर्फ चुप बैठे, सिर्फ बैठना सीखे। बैठना सीखे।
सूफियों में कहा जाता है कि पहले बैठना सीखो। गुरु के पास आओ, बैठना सीखो, आना सीखो। अभी जल्दी कुछ ज्ञान की नहीं है। ज्ञान कोई इतनी आसान बात भी नहीं है कि लिया—दिया और घर की तरफ भागे। कोई इंसटैंट एनलाइटेनमेंट नहीं है। काफी हो सकती है, बनाई एक क्षण में और पी ली! कोई समाधि, कोई ज्ञान क्षण में नहीं होता। सीखना होगा।

सूफी अक्सर सालों बिता देते हैं, सिर्फ गुरु के पास झुककर बैठे रहते हैं। प्रतीक्षा करते हैं कि गुरु पहले पूछे कि कैसे आए? क्या चाहते हो? कभी—कभी वर्षों बीत जाते हैं। वर्षों कोई साधक रोज आता है नियम से, अपनी जगह आंख बंद करके शांत बैठ जाता है। गुरु को कभी लगता है, तो कुछ कहता है। नहीं लगता, तो नहीं कहता। दूसरे आने—जाने वाले लोगों से बात करता रहता है, शिष्य बैठा रहता है।

वर्षों सिर्फ बैठना होता है। जिस दिन गुरु देखता है कि बैठक जम गई। सच में शिष्य आ गया और बैठ गया। अब उसके भीतर कुछ भी नहीं है। उपासना हो गई।

अब वह बैठा है। सिर्फ पास है, जस्ट नियर। अब कुछ दूरी नहीं है, न अहंकार की, न विचारों की, न मत—मतांतर की, न वाद—विवाद की, न कोई शास्त्र की। अब कुछ नहीं है। बस, सिर्फ बैठा है। जैसे एक मूर्ति रह गई, जिसके भीतर अब कुछ नहीं है, बाहर कुछ नहीं है। अब खाली घड़े की तरह बैठा है। उस दिन गुरु डाल देता है जो उसे डालना है, जो कहना है। उस दिन उंडेल देता है अपने को। उस दिन नदी उतर जाती है घड़े में।

चौथे मार्ग पर बैठना सीखना होगा, मौन होना सीखना होगा, प्रतीक्षा सीखनी होगी, धैर्य सीखना होगा; और किसी जीवित गुरु की तलाश करनी होगी।

ऐसे सुनने के परायण हुए भी मृत्युरूप संसार—सागर को निस्संदेह तर जाते हैं। हे अर्जुन, यावन्मात्र जो कुछ भी स्थावर— जंगम वस्तु उत्पन्न होती है, उस संपूर्ण को तू क्षेत्र— क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान।

सभी विचार के पीछे क्या बार—बार दोहरा देते हैं, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ। वह जानने वाला और जो जाना जाता है वह। इन दो को वे बार—बार दोहरा देते हैं। कि जो भी पैदा होता है, वह सब क्षेत्र है। बनता है, मिटता है, वह सब क्षेत्र है। और वह जो न बनता है, न मिटता है, न पैदा होता है, जो सिर्फ देखता है, जो सिर्फ दर्शन मात्र की शुद्ध क्षमता है, जो केवल ज्ञान है, जो मात्र बोध है, जो प्योर कांशसनेस है, जो शुद्ध चित्त है—वही पुरुष है, वही परम मुक्ति है।
एक मित्र ने पूछा है कि कृष्ण बहुत बार पुनरुक्ति करते मालूम होते हैं गीता में। फिर वही बात, फिर वही बात, फिर वही बात। ऐसा क्यों है? क्या लिपिबद्ध करने वाले आदमी ने भूल की है? या कि कृष्ण जानकर ही पुनरुक्ति करते हैं? या कि अर्जुन बहुत मंद बुद्धि है कि बार—बार कहो, तभी उसकी समझ में आता है? या कृष्ण भूल जाते हैं बार —बार, फिर वही बात कहने लगते हैं?

विचारणीय है। ऐसा क्या कृष्ण साथ ही नहीं है। बुद्ध भी ऐसा ही बार—बार दोहराते हैं। क्राइस्ट भी ऐसा ही बार—बार दोहराते हैं। मोहम्मद भी ऐसा ही बार—बार दोहराते हैं। इस दोहराने में जरूर कुछ बात है।







यह सिर्फ पुनरुक्ति नहीं है। यह एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को समझ लेना चाहिए, नहीं तो पुनरुक्ति समझकर आदमी सोचता है कि क्या जरूरत! गीता को छांटकर एक पन्ने में छापा जा सकता है। मतलब की बातें उतने में आ जाएंगी, क्योंकि उन्हीं—उन्हीं बातों को वे बार—बार दोहराए चले जा रहे हैं।

मतलब की बातें तो उसमें आ जाएंगी, लेकिन वे मुर्दा होंगी और उनका कोई परिणाम न होगा। कई बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
एक, जब कृष्ण उन्हीं बातों को दुबारा दोहराते हैं, तब आपको पता नहीं कि शब्द भला वह हों, प्रयोजन भिन्न हैं। और प्रयोजन इसलिए भिन्न हैं कि इतना समझ लेने के बाद अर्जुन भिन्न हो गया है। जो बात उन्होंने शुरू में कही थी अर्जुन से, वही जब वे बहुत देर समझाने के बाद फिर से कहते हैं, तो अर्जुन अब वही नहीं है। इस बीच उसकी समझ बढ़ी है, उसकी प्रज्ञा निखरी है। अब यही शब्द दूसरा अर्थ ले आएंगे।

आप अगर इसकी परीक्षा करना चाहें, तो ऐसा करें, कोई एक किताब चुन लें जो आपको पसंद हो। उसको इस वर्ष पढें और अंडरलाइन कर दें। जो—जो आपको अच्छा लगे उसमें, उसको लाल स्याही से निशान लगा दें। और जो—जो आपको बुरा लगे, उसको नीली स्याही से निशान लगा दें। और जो—जो आपको उपेक्षा योग्य लगे, उसको काली स्याही से निशान लगा दें।

सालभर किताब को बंद करके रख दें। सालभर बाद फिर खोलें, फिर से पढ़ें। अब जो पसंद आए उसको लाल स्याही से निशान लगाएं। आप हैरान हो जाएंगे। जो बात पिछले साल इसी किताब में आपको पसंद नहीं पड़ी थीं, वे अब पसंद पड़ती हैं। और जो बात पसंद पड़ी थी, वह अब पसंद नहीं पड़ती। जिसकी आपने उपेक्षा की थी पिछले साल, इस बार बहुत महत्वपूर्ण मालूम हो रही है। और जिसको आपने असाधारण समझा था, वह साधारण हो गई है। जिसको आपने नापसंद किया था, उसमें से भी कुछ पसंद आया है। और जिसको आपने पसंद किया था, उसमें से बहुत कुछ नापसंदगी में डाल देने योग्य है। किताब वही है, आप बदल गए।
और अगर सालभर बाद आपको सब वैसा ही लगे, जैसा सालभर पहले लगा था, तो समझना कि आपकी बुद्धि सालभर पहले ही कुंठित हो गई है, बदल नहीं रही है, मर गई है। उसमें कोई बहाव नहीं रहा है।

सालभर बाद फिर उसी किताब को पढ़ना, आप चकित होंगे, नए शब्द अर्थपूर्ण हो जाते हैं; नए वाक्य उभरकर सामने, आ जाते हैं; पुराने खो जाते हैं। किताब का पूरा प्रयोजन बदल जाता है। किताब का पूरा अर्थ बदल जाता है।

इसलिए हमने इस मुल्क में पाठ पर बहुत जोर दिया, पढ़ने पर कम। पढ़ने का मतलब एक दफा एक किताब पढ ली, खतम हो गया। पाठ का मतलब है, एक किताब को पढ़ते ही जाना है जीवनभर। रोज नियमित पढ़ते जाना है।

लेकिन आप अगर मुर्दे की तरह पढ़ें, तो कोई सार नहीं है। पढ़ने में इतना बोध होना चाहिए कि आप में जो फर्क हुआ है, उस फर्क के कारण जो आप पढ़ रहे हैं, उसमें फर्क पड़ रहा है कि नहीं! तो पाठ है।

गीता कल भी पढ़ी थी, आज भी पढ़ी, कल भी पढ़ेंगे, अगले वर्ष भी पढ़ेंगे, पढ़ते जाएंगे। जब बच्चे थे, तब पढ़ी थी, जब बूढ़े होंगे, तब पढेगे। लेकिन  अगर आपकी बुद्धि का सच में ही विकसित हुआ हो, प्रौढ हुआ हो, सिर्फ शरीर की उम्र न बढ़ी हो, भीतर चेतना ने भी अनुभव का रस लिया हो, जागृति आई हो, पुरुष स्थापित हुआ हो, तो गीता जो बुढ़ापे में पढ़ी जाएगी, उसके अर्थ बड़े और हो जाएंगे। तो कृष्ण जब बार—बार दोहराते हैं, तो वह अर्जुन जितना बदलता है, उस हिसाब से दोहराते हैं। वे उन्हीं शब्दों को दोहरा रहे हैं, जो उन्होंने पहले भी कहे थे। लेकिन उनका अर्थ अर्जुन के लिए अब दूसरा है।

दूसरी बात। जो भी महत्वपूर्ण है, उसे बार—बार चोट करना जरूरी है। क्योंकि आपका मन इतना मुश्किल में पड़ा है, सुनता ही नहीं; उसमें कुछ प्रवेश नहीं करता। उसमें बार—बार चोट की जरूरत है। उसमें हथौड़ी की तरह हैमरिंग की जरूरत है। तो जो मूल्यवान है, जैसे कोई गीत की कड़ी दोहरती है, ऐसा जो मूल्यवान है, कृष्ण उसको फिर से दोहराते हैं। वे यह कह रहे हैं कि फिर से एक चोट करते हैं। और कोई नहीं जानता, किस कोमल क्षण में वह चोट काम कर जाएगी और कील भीतर सरक जाएगी। इसलिए बहुत बार दोहराते हैं, बहुत बार चोट करते हैं।

इसलिए भी बार—बार दोहराते हैं कि जीवन का जो सत्य है, वह तो एक ही है। उसको कहने के ढंग कितने ही हों, जो कहना चाहते हैं, वह तो एक बहुत छोटी—सी बात है। उसे तो एक शब्द में भी कहा जा सकता है। लेकिन एक शब्द में आप न समझ सकेंगे। इसलिए बहुत शब्दों में कहते हैं। बहुत फैलाव करते हैं। शायद इस बहाने समझ जाएं। इस बहाने न समझें, तो दूसरे बहाने समझ जाएं। दूसरे बहाने न समझें, तो तीसरा सही। बहुत रास्ते खोजते हैं, बहुत मार्ग खोजते हैं।

घटना तो एक ही घटानी है। और वह घटना सिर्फ इतनी ही है कि आप साक्षी हो जाएं। आप जागकर देख लें जगत को। मूर्च्छा टूट जाए। आपको यह खयाल में आ जाए कि मैं जानने वाला हूं। और जो भी मैं जान रहा हूं वह मैं नहीं हूं।

यह इतनी—सी घटना घट जाए, इसके लिए सारा आयोजन है। इसके लिए इतने उपनिषद हैं, इतने वेद हैं, इतनी बाइबिल, कुरान, गीता, और सब है। बुद्ध हैं, महावीर, जरथुस्त्र और मोहम्मद, और सारे लोग हैं। लेकिन वे कह सभी एक बात रहे हैं, बहुत—बहुत ढंगों से, बहुत—बहुत व्यवस्थाओं से।

वह एक बात मूल्यवान है। लेकिन आपको अगर वह बात सीधी कह दी जाए, तो आपको सुनाई ही नहीं पड़ेगी। और मूल्य तो बिलकुल पता नहीं चलेगा।

आपको बहुत तरह से प्रलोभित करना होता है। जैसे मां छोटे बच्चे को प्रलोभित करती है, भोजन के लिए राजी करती है। राजी करना है भोजन के लिए, प्रलोभन बहुत तरह के देती है। बहुत तरह की बातें, बहुत तरह की कहानियां गढ़ती है। और तब बच्चे को राजी कर लेती है। कल वह दूसरे तरह की कहानियां गढेगी, परसों तीसरे तरह की कहानियां गढेगी। लेकिन प्रयोजन एक है कि वह बच्चा राजी हो जाए भोजन के लिए।

कृष्ण का प्रयोजन एक है। वे अर्जुन को राजी करना चाहते हैं उस परम क्रांति के लिए। इसलिए सब तरह की बातें करते हैं और फिर मूल स्वर पर लौट आते हैं। और फिर वे वही दोहराते हैं। इसके अंत में भी उन्होंने वही दोहराया है।

हे अर्जुन, जो कुछ भी स्थावर—जंगम वस्तु उत्पन्न होती है, उस संपूर्ण को तू क्षेत्र— क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न हुई जान।
वह जो भीतर क्षेत्रज्ञ बैठा है और बाहर क्षेत्र फैला है, उन दोनों के संयोग से ही सारे मन का जगत है। सारे सुख, सारे दुख; प्रीति— अप्रीति, सौंदर्य—कुरूपता, अच्छा—बुरा, सफलता—असफलता, यश—अपयश, वे सब इन दो के जोड़ हैं। और इन दो के जोड़ में वह पुरुष ही अपनी भावना से जुड़ता है। प्रकृति के पास कोई भावना नहीं है। तू अपनी भावना खींच ले, जोड़ टूट जाएगा। तू भावना करना बंद कर दे, परम मुक्ति तेरी है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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