मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 12 भाग 6

कर्म—योग की कसौटी


अथैतदष्यस्थ्योऽसि कर्तुं मद्योगमख्सि।

सर्क्कर्मकलत्यागं न: कुरु यतक्ष्मवान्।। 11।।

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासत् ज्ञानद्धयानं विशिष्यते ।

ध्यानात्कर्मफलत्‍याग: त्यागाव्छान्तिरनन्तरम्।। 12।।


और यदि इसको भी करने के लिए असमर्थ है, तो जीते हुए मन वाला और मेरी प्राप्‍तिरूप योग के शरण हुआ सब कर्मों के कल का मेरे लिए त्याग कर।

क्योंकि मर्म को न जाकर किए हुए अभ्यास से परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है और परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है तथा ध्यान से भी सब क्रमों के फल का मेरे लिए त्याग करना श्रेष्ठ है। और त्याग से तत्‍काल ही परम शांति होती है।


और यदि इसको भी करने के लिए असमर्थ है, तो जीते हुए मन वाला और मेरी प्राप्तिरूप योग के शरण हुआ सब कर्मों के फल का मेरे लिए त्याग कर।

कृष्ण ने कहा, तू सब कर्म मैं कर रहा हूं ऐसा समझ ले। लेकिन अगर यह भी न हो सके! हो सकता है, यह भी तुझे कठिन हो कि कैसे समझ लूं कि सब आप कर रहे हैं। कर तो मैं ही रहा हूं।

निश्चित ही कठिन है। अगर कोई आपसे कहे कि सब परमात्मा कर रहा है, तो भी आप कहेंगे कि कैसे मान लूं कि सब परमात्मा कर रहा है?

 ऐसे लोग भी हैं कि अगर उनको समझा दो कि सब परमात्मा कर रहा है, तो वे सब करना छोड़कर बैठ जाते हैं। वे कहते हैं, जब परमात्मा ही कर रहा है, तो फिर हमको क्या करना है! लेकिन यह बैठना वे कर रहे हैं। इतना वे बचा लेते हैं। इसको वे यह नहीं कहते कि परमात्मा बिठा रहा है, तो ठीक। नहीं, वे कहते हैं, बैठ हम रहे हैं। हम क्या करें अब! जब परमात्मा ही सब कर रहा है, तो फिर हम कुछ न करेंगे।

लेकिन हम कुछ न करेंगे, इसका मतलब इतना तो हम कर ही सकते हैं। इतना हमने अपने लिए बचा लिया। इसका मतलब यह भी हुआ कि जो भी वे कर रहे थे, वे मानते नहीं कि परमात्मा कर रहा था। वे खुद कर रहे थे, इसलिए अब वे कहते हैं, हम रोक लेंगे। अब देखें, परमात्मा कैसे करता है!

कठिन है यह मानना कि परमात्मा कर रहा है, क्योंकि अहंकार मानने को राजी नहीं होता कि मैं नहीं कर रहा हूं। हां, अगर कुछ बुरा हो जाए, तो मानने को राजी हो भी सकता है कि परमात्मा कर रहा है।

असफलता आ जाए, तो आदमी आसानी से छोड़ देता है कि परमात्मा, भाग्य। सफलता आ जाए, तो वह कहता है, मैं। सफलता को उस पर छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। क्यों? क्योंकि सफलता से अहंकार परिपुष्ट होता है। तो जिस चीज से अहंकार परिपुष्ट होता है, वह तो हम अपने लिए बचाना चाहते हैं।

 एक संन्यासी छोटा—सा आश्रम बनाकर रहता था। आश्रम मैंने बनाया, ऐसा लोगों से कहता था। ज्ञान मैंने पाया, त्याग मैंने किया, ऐसा लोगों से कहता था। एक दिन एक गाय उसके आश्रम में घुस गई और फूल और बगिया को चर गई। बगिया को चरते देखकर उसे बहुत क्रोध आया। लकड़ी उठाकर उसने गाय को मार दी। गाय मर गई।

एक ब्राह्मण द्वार पर खड़ा था। उसने पूछा कि यह तुमने क्या किया! गाय को मार डाला! तो उस संन्यासी ने कहा कि सब परमात्मा कर रहा है, मैं क्या! तो उसकी मर्जी! उसके बिना मारे गाय मर सकती है? उसके बिना हाथ उठाए, मेरा हाथ उठ सकता है? उसकी बिना आज्ञा के पत्ता नहीं हिलता।

लेकिन आश्रम उसने बनाया है। ज्ञान उसने पैदा किया है। त्याग उसने किया है। गाय भगवान ने मारी है!

ये हमारे मन की तरकीबें हैं। हम सब यही करते रहते हैं। जब आप हार जाते हैं जिंदगी में, तो कहते हैं, भाग्य। और जब जीत जाते हैं, तो कहते हैं, मैं। पर सभी कुछ परमात्मा पर छोड़ना मुश्किल है। असफलता तो छोड़ना बिलकुल आसान है, सफलता छोड़नी मुश्किल है। सब में दोनों आ जाते हैं।

तो कृष्ण कहते हैं, मुश्किल होगा शायद तुझे यह भी करना कि कर्म तू मुझ पर छोड़ दे। क्योंकि खुद को छोड़ना पड़ेगा। और अति कठिन है बात खुद को छोड़ने की। तो फिर तू एक काम कर। कर्म न छोड़ सके, तो कम से कम कर्म का फल छोड़ दे।

यह थोड़ा आसान है पहले वाले से। क्योंकि फल हमारे हाथ में है भी नहीं। कर्म हम कर सकते हैं, लेकिन फल क्या आएगा, इसको हम सुनिश्चित रूप से तय नहीं कर सकते हैं।

तो कृष्ण कहते हैं कि कर्म न छोड़ सके, क्योंकि कर्म तो तुझे लगता है कि तू करता है, लेकिन फल तो छोड़ ही सकता है। क्योंकि फल तो पक्का नहीं है कि तू करता है। कर्म तू करता है, फल होता है। और फल निश्चित नहीं किया जा सकता। और तू नियंता नहीं है फल का। इसलिए कम से कम फल ही छोड़ दे। इतना भी कर ले। तो कर्म तू कर और फल मुझ पर छोड़ दे। जो भी होगा, वह भगवान कर रहा है तू कर रहा है, ठीक। लेकिन परिणाम भगवान ला रहा है।

सब कर्मों का फल त्याग कर दे, मेरे ऊपर छोड़ दे। क्योंकि मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है।

कृष्ण कहते हैं, मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से तो परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है।

ऐसे अभ्यास में मत पड़ जाना, जिसको तुम जानते नहीं हो, क्योंकि अभ्यास आग से खेलना है। अभ्यास का मतलब है, कुछ होकर रहेगा अब। और अगर तुम्हें पता नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो और क्या होकर रहेगा, तो तुम कहीं ऐसा न कर लो कि अपने को नुकसान पहुंचा लो।

और जिंदगी बहुत जटिल है। ऐसे ही जैसे आपकी घड़ी गिर गई। खोलकर बैठ गए ठीक करने! तो घड़ी तो कोई बहुत जटिल चीज नहीं है। लेकिन घड़ी भी आप और खराब कर लोगे। वह घडीसाज के पास ही ले जानी चाहिए। वह रुपए, दो रुपए में ठीक कर देगा। आप सौ, दो सौ की चीज ऐसे ही खराब कर लोगे।

लेकिन जब घड़ी गिरती है, तो बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी का मन खोलने का होता है। क्योंकि बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी भी बचकाना है। वह बच्चा जो भीतर है,  कि जरा खोलकर हम ही ठीक न कर लें, जरा हिलाकर। कहा जाना? तो जरा हिला लें!

कभी—कभी ऐसा भी होता है कि हिलाने से ठीक हो जाती है। मगर इससे आप यह मत समझ लेना कि आप कलाकार हो गए और आपको पता चल गया कि..। तो दूसरों की घड़ी मत हिलाने लगना, नहीं तो बंद भी हो सकती है। कभी—कभी संयोग सफल हो जाते हैं। कभी आपकी घड़ी बंद है। आपने जरा हिलाई। और आप समझे कि अरे! चल गई! नाहक दों—चार रुपए खराब करने पड़ते। अब हम भी जानकर हो गए। अब जहां भी घड़ी बंद दिखे, उसे हिला देना।

संयोग कभी—कभी जीवन में भी सफल होते हैं। कभी—कभी उनसे लाभ भी हो जाता है। पर उनको विज्ञान नहीं कहा जा सकता। पर जिंदगी तो बहुत जटिल है। घड़ी में तो कुछ भी नहीं है।

आपके छोटे—से मस्तिष्क में कोई सात करोड़ सेल हैं, सात करोड़ जीवंत कोष्ठ हैं! उन सात करोड़ जीवंत कोष्ठ की व्यवस्था पर सब निर्भर है—आपका होना, आपकी चेतना, आपकी बुद्धि, सोच, विचार, भाव—सब।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि बिना मर्म को जाने हुए अभ्यास में तो पड़ना मत, अर्जुन। उससे तो बेहतर परोक्ष ज्ञान है।

परोक्ष ज्ञान का अर्थ है, शास्त्र ने जो कहा है। शास्त्र ने जो कहा है, वह बेहतर है, बजाय इसके कि तू अभ्यास अपना करके, बिना मर्म को समझे, कुछ उपद्रव में पड़ जाए। उससे तो शास्त्र ने जो कहा है..। शास्त्र का अर्थ होता है, जिन्होंने जाना, जिन्होंने अनुभव किया, और अपने अनुभव को लिपिबद्ध किया, कि उनके काम आ सके, जो जानते नहीं हैं।

इस बात को ठीक से समझ लें।

जिन्होंने जाना, जिन्होंने अनुभव किया, प्रयोग किया, अभ्यास किया, प्रतीत किया, जो पहुंच गए, उनके वचन हैं। सिर्फ वचन नहीं हैं, उनके लिए, जो नहीं जानते हैं। इसमें फर्क है। क्योंकि वे बोल सकते हैं, जैसा उन्होंने जाना। लेकिन अगर आपका ध्यान न रखा जाए, तो उनका ज्ञान आपके लिए खतरनाक हो जाएगा। वह इस भांति बोला गया है शास्त्र। जो अज्ञानी को खयाल में रखकर बोला गया है कि वह इससे उपद्रव न कर सके।

जीसस ने छोटी—छोटी कहानिया कही हैं। और सभी बातें कहानियों में कही हैं। बड़ी मजे की बात है। और कहानियां इतनी सरल हैं कि कोई भी समझ ले। और इतनी कठिन भी हैं कि बहुत मुश्किल है समझना। पर कहानियों में इस ढंग से कहा है कि जो कहानी समझेगा, उसे पता ही नहीं चलेगा कि भीतर क्या छिपा है। वह सिर्फ कहानी का मजा लेगा, बात खतम हो जाएगी। उसे कहानी कोई नुकसान नहीं पहुंचा पाएगी। थोड़ी उसकी समझ बढ़ेगी।

लेकिन जो कहानी में उतर सकता है गहरा, जितना गहरा उतर सकता है, उतना ही अर्थ बदल जाएगा। जीसस की एक—एक कहानी में सात—सात अर्थ हैं। और सात मन की स्थितियां हैं। पहली स्थिति पर सिर्फ कहानी है। उसको बच्चा भी पढ़े तो आनंदित होगा। एक कहानी का मजा आएगा। बात खतम हो जाएगी। लेकिन दूसरी स्थिति में खड़ा हुआ आदमी दूसरा अर्थ लेगा। तीसरी स्थिति में खड़ा हुआ आदमी तीसरा अर्थ लेगा।

शास्त्र का अर्थ है, जो अज्ञानियों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं। और कुंजियां इस भांति छिपाई गई हैं कि गलत आदमियों के हाथ में न पड़ जाएं। और उसी वक्त कुंजी हाथ में पड़े, जब वह आदमी उसका ठीक उपयोग कर सके। उसके पहले हाथ में न पड़े। इतनी सारी व्यवस्था जहां की गई हो, उसका नाम शास्त्र है। हर किसी किताब का नाम शास्त्र नहीं है।

शास्त्र बहुत वैज्ञानिक आयोजन है। और हजारों साल बाद भी उसी ढंग से शास्त्र कारगर है।

लेकिन बड़ा मुश्किल है। इसलिए शास्त्र तो आप पढ़ लेते हैं, उसका अर्थ आपको पता चलता है कि नहीं, यह कहना मुश्किल है। आपको उतना ही पता चलता है, जितना आपको पता चल सकता है। बस, उससे ज्यादा पता नहीं चलता। इसलिए फिर शास्त्रों पर टीकाओं और व्याख्याओं की जरूरत पड़ी। क्योंकि जिनको ज्यादा पता चल गया उन शास्त्रों में—जितना आपको पता चलता था, उससे ज्यादा पता चल गया—तो उन्होंने टीकाएं लिखी हैं। लेकिन उन टीकाओं में भी उन्हीं नियमों का उपयोग किया गया है कि गलत आदमी के हाथ ज्ञान न पड़ जाए।

गलत आदमी अज्ञान में बेहतर है, क्योंकि अज्ञान में ज्यादा खतरा नहीं किया जा सकता।

आपने आमतौर से सुना होगा कि अज्ञान में खतरा होता है। अज्ञान में ज्यादा खतरा नहीं होता। लेकिन अज्ञानी के हाथ में ज्ञान हो, तो फिर ज्यादा खतरा होता है। ऐसा जैसे कि बच्चे के हाथ में तलवार दे दी। और उन्होंने उठाकर पिता की ही गरदन काट दी। वे सिर्फ देख रहे थे कि तलवार काम करती है कि नहीं करती है! असली है कि नकली है!

आज विज्ञान में यही उपद्रव खड़ा हो गया है। आज विज्ञान ने फिर कुछ कुंजियां खोज लीं। आइंस्टीन मरने के पहले कहकर मरा है कि अगर मुझे दुबारा जन्म मिले, तो मैं वैज्ञानिक नहीं होना चाहता। मैं एक प्लंबर हो जाऊंगा, लेकिन अब वैज्ञानिक नहीं होना चाहता। क्योंकि जो मैंने दिया है, वह उनके हाथ में पड़ गया है, जो सारी दुनिया को नष्ट कर देंगे। और मेरा कोई वश नहीं रहा।

अभी वैज्ञानिक विचार करते हैं कि हमें अपना ज्ञान छिपाना चाहिए अब। वह राजनीतिज्ञों के हाथ में न पड़े, क्योंकि राजनीतिज्ञों से ज्यादा नासमझ आदमी खोजने मुश्किल हैं। उनके हाथ में ज्ञान पड़ने का मतलब है, अज्ञानियों के, नेताओं के हाथ में ज्ञान पड़ गया! वे खतरा कर देंगे। वे उपद्रव कर देंगे। अब आज सारी दुनिया के पास ताकत विज्ञान ने दे दी है। और चाबी भी दे दी है।

शास्त्र का अर्थ है, कभी एक बार ऐसा पहले भी हो चुका है। अध्यात्म के जगत में हमने इतने ही मूल्यवान सूत्र खोज लिए थे। लेकिन वे हर किसी को दे देना खतरनाक है। तो उन्हें शास्त्रों में प्रकट भी किया है और छिपाया भी है।

शास्त्र का अर्थ है, जो प्रकट भी करता है और छिपाता भी है। प्रकट उतना करता है, जितना आप आत्मसात कर लो। और उतना छिपाए रखता है, जितना अभी आपके काम का नहीं है। और जब आप एक कड़ी आत्मसात कर लेंगे, तो दूसरी कड़ी आपको दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी। एक सीढ़ी से ज्यादा आपको कभी दिखाई नहीं पड़ पाती। जब दूसरी सीढ़ी आप आत्मसात कर लोगे, तब तीसरी आपको दिखाई पड़ेगी। हर कुंजी जब आप उपयोग कर लोगे, तो दूसरी कुंजी आपके हाथ में दे जाएगी और दूसरा ताला खुलने लगेगा।

शास्त्र एक वैज्ञानिक व्यवस्था है। इसलिए शास्त्र साधारण किताब का नाम नहीं है। आज तो किताबें बहुत हैं।  हजारो किताबें प्रति सप्ताह छपती हैं। इन किताबों की भीड़ में शास्त्र खो गया। अब शास्त्र का कुछ पता लगाना मुश्किल है कि कौन—सा शास्त्र है!

लेकिन कृष्ण कहते हैं कि न मर्म को समझकर किया हुआ अभ्यास, उससे तो परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है।

परोक्ष ज्ञान का मतलब, दूसरों ने, लेकिन जिन्होंने जाना है, उनका कहा हुआ ज्ञान। उसको ही स्वीकार कर लेना उचित है। परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है।

लेकिन परोक्ष ज्ञान उधार है। शास्त्र से कितना ही पता चल जाए, वह आपका स्वानुभव तो नहीं है। किसी को पता चला, पतंजलि को। किसी को पता चला, वशिष्ठ को। किसी को पता चला, शंकर को, रामानुज को। आपने सुना, उन्हें पता चला है। आपने मान लिया। आपकी थोड़ी बुद्धि तो बढ़ी, लेकिन आप नहीं बढ़े। आपका संग्रह बढ़ा, जानकारी बढ़ी, लेकिन बोध नहीं बढ़ा। बोध तो बढ़ेगा स्वानुभव से।

तो कृष्ण कहते हैं, परोक्ष ज्ञान से, शास्त्र ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है।

तो बेहतर है कि तू सीधा न तो अभ्यास की उलझन में पड़, क्योंकि मर्म को बिना समझे खतरा है। न शास्त्रों की समझ में पड़, क्योंकि कितना ही समझ ले, तो भी वह दूसरे का ज्ञान होगा। और सेकेंड हैंड होगा। तेरे लिए नया और ताजा नहीं होगा। अपना नहीं है, वह ताजा भी नहीं है।

और ज्ञान के संबंध में एक बात जान लेनी जरूरी है कि जो अपना नहीं है, वह अपना है ही नहीं। वह कितना ही ठीक पकड़ में आ जाए तो भी वह दूसरे का है। और दूसरे के ज्ञान से आपकी आंख काम नहीं कर सकती। दूसरे के पैर से आप चल नहीं सकते। दूसरे की छाती से आप श्वास नहीं ले सकते। दूसरे की प्रज्ञा आपकी प्रज्ञा नहीं बन सकती। आपकी प्रज्ञा तो तभी बनती है, जब सीधा ध्यान परमात्मा की तरफ लगता है।

परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है।

तो जितनी देर आप अभ्यास में लगाते हों, उससे बेहतर है, उतना समय आप शास्त्र में लगाएं। जितना आप शास्त्र में लगाते हों, उससे भी बेहतर है कि उतना परमात्मा के ध्यान में लगाएं। बेहतर है, किताबें बंद कर दें, आंख बंद कर लें और परमात्मा का स्मरण करें। क्या करेंगे परमात्मा के स्मरण में? कैसे होगा परमात्मा का ध्यान? क्या करना पड़ेगा? एक छोटा—सा खयाल समझ लें।

कुछ भी न करें। सिर्फ लेट जाएं या बैठ जाएं और बिलकुल ढीला छोड़ दें अपने को। कुछ भी न करें, श्वास भी न लें। अपने आप जितनी चलती है, चलने दें। एक पाच मिनट तो सिर्फ इतना ही ध्यान रखें कि मैं कुछ न करूं, सिर्फ पड़ा रहूं मुर्दे की भांति।

एक पांच मिनट में सिर्फ अपने को शांत कर लें। दस मिनट, पंद्रह मिनट, जितनी देर आपको लगे। सिर्फ शांत पड़ जाएं, जैसे मुर्दा हैं, आप हैं ही नहीं। सारी क्रिया को शिथिल छोड़ दिया, रिलैक्स कर दिया। और जब यह सब शिथिल और शांत हो जाए सिर्फ श्वास ही सुनाई पड़े...। कभी—कभी कोई विचार मन में तैर जाएगा। कभी कोई चींटी काटती है, तो पता चलेगा। कभी कोई बाहर से आवाज आएगी, तो भनक पड़ेगी। मगर आप अपनी तरफ से बिलकुल शांत पड़े हैं, जैसे हैं ही नहीं।

इस क्षण में सिर्फ एक ही भावना करें। आपके मन में जो भी इष्ट हो, जिस परमात्मा का जैसा नाम आपको प्यारा लगता हो, या मूर्ति प्यारी लगती हो, आकृति प्यारी लगती हो, बुद्ध की प्रतिमा प्यारी लगती हो, तो बस, इस शांत अवस्था में सिर्फ बुद्ध की प्रतिमा का स्मरण करें। इस शून्य मन में सिर्फ बुद्धि की प्रतिमा बने। या आपको अच्छा लगता हो ओम का उच्चार, तो सिर्फ ओम का उच्चार भीतर गुंजने दें। या आपको अच्छा लगता हो राम—राम तो राम—राम का उच्चार भीतर गुंजने दें। कोई भी एक चीज पकड़ लें, जो आपको प्यारी लगती हो और प्रभु का स्मरण दिलाती हो।

ऐसा हुआ है। मैंने सुना, एक सूफी फकीर हुआ। एक सम्राट उसकी सेवा में आता था। और उसने उसे कहा कि तू ईश्वर का स्मरण कर। उस सम्राट को एक हीरे से बहुत प्रेम था। वह हीरा उसने बड़ी मुश्किल, बड़े युद्धों के बाद पाया था। और वह चौबीस घंटे उसको अपने पास रखता था।

जब वह परमात्मा के स्मरण को बैठा, तो परमात्मा का तो स्मरण न आए, उसको उसी हीरे—हीरे का ही खयाल आए। और वह हीरा दिखाई पड़े। तो वह वापस फकीर के पास आया। उसने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई है। यह हीरा मुझे बाधा डालता है। मैं कैसे इसका त्याग करूं!

तो फकीर ने कहा, तू त्याग मत कर, क्योंकि त्याग से और ज्यादा बाधा डालेगा। तू ऐसा कर कि परमात्मा को छोड़, तू हीरे की ही याद कर। तू आंख बंद कर ले और हीरे को ही देख। और सिर्फ इतना ही खयाल कर कि यह हीरा परमात्मा का रूप है।

वह सम्राट चकित हुआ। उसने सोचा, फकीर कहेगा, हीरे का त्याग कर। कहां की क्षुद्र चीज में उलझा है!

लेकिन फकीर निश्चित समझदार रहा होगा। सम्राट ने हीरे पर ध्यान करना शुरू कर दिया। जब हीरे पर ध्यान किया, तो हीरे ने बाधा डालनी बंद कर दी, स्वभावत:। बाधा वह इसलिए डालता था कि कहां जा रहे हो? जब कहीं जाने की कोई बात न रही, तो हीरे ने बाधा डालनी बंद कर दी। और कुछ था नहीं उसका उलझाव; एक हीरा ही था। और हीरे में वह परमात्मा को अनुभव करने लगा। थोड़े ही दिनों में हीरा खो गया और परमात्मा ही शेष रह गया।

तो जो भी आपका हीरा हो, आपकी पत्नी का चेहरा हो, आपके बेटे की आंख हो, आपके मित्र की छवि हो, कृष्ण का रूप हो, राम का हो, जीसस का हो—आपका जहां सहज रुझान हो—कुछ भी हो। और कुछ भी न हो, तो अपनी ही फोटो। वह तो कम से कम होगी। तो आईने में अपनी शक्ल देख ली। आंख बंद कर लिया और कहा कि यह परमात्मा का रूप है। उसी पर.....। उससे भी पहुंच जाएंगे। कुछ घबड़ाना मत कि अपनी ही तस्वीर कैसे!

अपना ही नाम भी, अगर आपको वही प्यारा हो, तो फिर राम का नाम लेने की जरूरत नहीं है। क्योंकि जो प्यारा ही नहीं है, उसको लेकर कुछ फायदा नहीं होगा। प्रेम के बिना कुछ फायदा नहीं होगा। आपको अगर अपना ही नाम जंचता हो..। सबको जंचता है। और दिल होता है कि कहां राम—राम कर रहे हैं! अपना ही नाम दोहराएं। कोई हर्जा नहीं है, उसी को दोहराना। और समझना कि यह परमात्मा का नाम है। और आप थोड़े ही दिन में पाओगे कि आप खो गए और परमात्मा बच रहा।

परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है। ध्यान से भी श्रेष्ठ है सब कर्मों के फल का मेरे लिए त्याग करना।

क्योंकि ध्यान भी आपका कर्म है। आपको लगता है, मैं ध्यान कर रहा हूं। इतनी अड़चन बनी रहती है। मैं ध्यानी हूं और मैंने ध्यान किया परमात्मा का। तो वह भीतर मैं की सूक्ष्म रेखा बनी रहती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, उससे भी श्रेष्ठ है सब कर्मों के फल का त्याग करना। और त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है। सब कर्मों के त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है।

जैसे ही कोई सब प्रभु पर छोड़ देता है, अशांत होने का सारा कारण ही खो जाता है। अगर अशांति चाहिए तो सब अपने सिर पर रखना। दूसरों का भी उतारकर अपने सिर पर रख लेना। सारी दुनिया में जो—जो तकलीफें हैं, उनको अपने सिर पर रख लेना। तो अशांति आपकी आप कुशलता से बढ़ा सकोगे।

और करीब—करीब इसी तरह लोग बढ़ाए हुए हैं। सारी दुनिया की तकलीफें, सारी दुनिया का बोझ, आप अकेले के सिर पर पड़ गया है। अगर यह बोझ कम करना हो और शांति चाहिए हो, तो यह परमात्मा पर छोड़ देना।

परमात्मा के ऊपर सब छोड़ते ही आप निर्बोंझ हो जाते हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि जो बोझ था, वह आप ढो रहे थे। आप अकारण ढो रहे थे। परमात्मा उसे ढो ही रहा है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, सब कर्म को जो छोड़ देता मेरे ऊपर, वह श्रेष्ठतम है। उसे तो फिर ध्यान की भी जरूरत नहीं है। उसे तो फिर कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। एक ही बात कर ली कि सब हो गया। एक करने से सब हो जाता है, कि वह परमात्मा पर छोड़ देता है। त्याग से तत्काल परम शांति होती है। होगी ही।

लेकिन त्याग का मतलब आप यह मत समझ लेना कि घर छोड़ दिया, मकान छोड़ दिया, कपड़े छोड़ दिए, भाग गए। वह त्याग का मतलब नहीं है। उस त्याग में तो त्याग आपको पकड़े ही रहेगा। और आप जहां भी जाओगे, खबर करोगे कि मैं सब त्याग करके आ रहा हूं। वह मैं त्याग करके आ रहा हूं साथ जाएगा।


नहीं; त्याग का गहन अर्थ है कि मैं कर नहीं रहा हूं मैं कर भी नहीं सकता हूं जो करने वाला है, वह वही है। मैं नाहक ही बीच में..।

ईश्वर—समर्पण का अर्थ है कि ये परेशानियां मैं छोड़ता हूं। यह सब मेरे लिए नहीं चल रहा है। यह सब मैं नहीं चला रहा हूं। मैं व्यर्थ ही परेशान हो रहा हूं। इसलिए धार्मिक आदमी परम शांत हो जाता है, क्योंकि सब परमात्मा कर रहा है। वह अपने को करने के भाव से मुक्त कर लेता है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अकर्मण्य हो जाता है। इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि वह छोड़ देता है उस पर। वह काम लेना चाहे, तो काम ले। कर्म लेना चाहे, तो कर्म ले। और अकर्मण्य करके बिठालना चाहे, तो अकर्मण्य करके बिठाल दे।

अपनी तरफ अब उसकी कोई भी स्वयं की चेष्टा नहीं है। अब वह बहता है नदी की धारा में, जहां नदी ले जाए। डुबा दे, तो वह डुबाना भी उसके लिए किनारा है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...