शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 14 भाग 6

 रूपांतरण का सूत्र: साक्षी—भाव


कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्‍विक निर्मलं फलम्।

रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमस: फलम्।। 16।।

सत्‍वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ श्व च।

प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ।। 17।।

ऊर्ध्व गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठीन्त राजसाः।

जधन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्‍छन्ति तामसा:।। 18।।


सात्‍विक कर्म का तो सात्‍विक अर्थात सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है। और राजस कर्म का फल दुख, एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है।

तथा सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्‍न होता है और रजोगुण से निःसंदेह लोभ उत्पन्न होता है, तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्‍न होते हैं और अज्ञान भी होता है।


इसलिए सत्‍वगुण में स्थित हुए पुरूष स्वगीदि उच्‍च लोकों को जाते हैं। और रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य लोकों में ही रहते ह्रै एवं तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्य में स्थित हुए तामस पुरूष अधोगति को अर्थात नीच योनियों को प्राप्त होते हैं।

सात्विक कर्म का तो सात्विक अर्थात सुख, ज्ञान और वैराग्य आदि निर्मल फल कहा है। और राजस कर्म का फल दुख, संताप, पीड़ा; एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है। सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से निस्संदेह लोभ उत्पन्न होता है, तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है।

सत्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं और रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य अर्थात मनुष्य लोकों में होते हैं एवं तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्य आदि में स्थित हुए तामस पुरुष अधोगति को अर्थात नीच योनियों को प्राप्त होते हैं। 

सात्विक कर्म का फल सुख, ज्ञान और वैराग्य है।

एक—एक शब्द को ठीक से समझें। सात्विक कर्म का अर्थ है, जो कर्म आपके करने के पागलपन से पैदा न हुआ हो; पहली बात। आप लोगों से बात करते हैं। अक्सर बात आप इसलिए करते हैं कि अगर आप बात न करें, तो आपको भीतर बेचैनी मालूम होगी। आप लोगों से बात नहीं कर रहे हैं, एक कचरा आपके सिर पर पड़ा है, उसे आप निकाल रहे हैं। आपको प्रयोजन नहीं है कि दूसरे व्यक्ति को इससे कुछ लाभ होगा। दूसरे से आपको कोई मतलब ही नहीं है। अ ब स कोई भी हो; सिर्फ बहाना है दूसरा। और आपके सिर में जो घूम रहा है बवंडर, उसे आप निकाल रहे हैं।

इसलिए लोग एक—दूसरे की बातचीत से ऊबते हैं। ऊब इसीलिए पैदा होती है कि वे आए थे अपना कचरा निकालने, आप उनको मौका ही नहीं दे रहे हैं। और आप ही कचरा डाले जा रहे हैं। जिस आदमी से आप ऊबते हों, उसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि वह आपको मौका नहीं दे रहा है। और जो उबाने वाले, पक्के बोर होते हैं, वे आपको मौका देंगे ही नहीं। वे संध भी नहीं छोड़ते बीच में। दो बातों के बीच संध भी नहीं छोड़ते कि आप कुछ भी बीच में उठा दें और सिलसिला अपने हाथ में ले लें। वे कहे ही चले जाते हैं!

यह जो बोलना है, यह कोई संबंध नहीं है। और यह बोलने का जो कृत्य है, यह सात्विक नहीं रहा, राजसिक हो गया। आपको एक कर्म करने का पागलपन है भीतर; आप बिना किए नहीं रह सकते हैं। इसलिए मजबूरी है, कर रहे हैं। कुछ लोग सेवा में लगे हैं।

इसलिए आप यह मत सोचें कि दुनिया अच्छी हो जाएगी, तो सेवा करने वालों को कोई अवसर न रहेगा। वे अवसर खोज ही लेते हैं। वे खोज ही लेंगे। वे कोई न कोई उपाय खोज लेंगे, क्योंकि उन्हें कुछ करना है।

अगर करने की बीमारी से आपका कर्म निकल रहा है, तो वह सात्विक नहीं है। सात्विक वह कर्म है, जो करुणा से निकल रहा है, जो दूसरे को ध्यान में रखकर निकल रहा है; जिसमें आपका कोई भीतरी पागलपन नहीं है। और अगर कुछ करने को न हो, तो आप बेचैन न होंगे। आप शांत बैठे होंगे; आनंदित होंगे। अगर आपको करने को कुछ भी न बचे, तो आप उतने ही आनंदित होंगे, जितना आप करते हुए आनंदित हैं।

लेकिन सेवा करने वालों का कर्म छीन लो, वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। वे पूछते हैं, अब क्या करें! खाली बैठना उन्हें कठिन है।

खाली सिर्फ वही बैठ सकता है, जो अपने साथ आनंदित है। जो स्वयं में आनंदित है, वही बैठ सकता है खाली । जो स्वयं में आनंदित नहीं है, वह कहीं न कहीं लगाए रखेगा अपने को, किसी कर्म में उलझाए रखेगा। वह उलझाव अपने से बचने की तरकीब है। वह एक एस्केप है, पलायन है, जिसमें अपने को भूला रहता है और कहीं लगा रहता है।

सात्विक कर्म का अर्थ है, जो कर्म तुम्हारे हलकेपन से, तुम्हारी शांति से, तुम्हारे निर्भार होने से निकलता हो। तुम्हें करने की कोई मजबूरी नहीं है। लेकिन कोई परिस्थिति थी, जहां कुछ करने से किसी को लाभ होता, मंगल होता किसी का, किसी का शुभ होता, तो कर्म जब निकले, वह सात्विक है।

सात्विक कर्म सुख पैदा करेगा। सात्विक कर्म ही सुख पैदा करेगा। सुख का मतलब ही यह है कि जो तुम्हारे आनंद से निकले कर्म, वही तुम्हें सुख देगा। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।

जो किसी और कारण से तुम्हारे भीतर से निकलेगा कर्म, वह तुम्हें सुख नहीं देगा। क्योंकि वस्तुत: सुख किसी चीज में नहीं है, हम डालते हैं। और अगर हममें न हो, तो हम नहीं डाल सकते। मैं आपसे यहां बोल रहा हूं। अगर यह मेरे आनंद से निकल रहा है, तो यह बोलना आनंदपूर्ण हो जाएगा, क्योंकि मेरे आनंद में डूबा हुआ निकल रहा है। लेकिन अगर किसी और कारण से निकल रहा हो, तो इससे मुझे सुख नहीं मिल सकता।

आप जो भी करते हैं, करने से आप कुछ नहीं पाते। आप करने में क्या डालते हैं भीतर से, उसी को पाते हैं। हम जो डालते हैं, वही हमें मिलता है।

अगर कोई आदमी सेवा करके भी दुखी है, तो इसका मतलब है, कर्म सात्विक नहीं है। अगर आप कुछ भी करके दुखी हो रहे हैं, तो इसका अर्थ है कि आप जो कर रहे हैं, वह सात्विक नहीं है। वह राजसिक होगा।

राजसिक कर्म से दुख निकलता है, क्योंकि राजसिक कर्म भीतरी दुख से पैदा होता है। मैं एक भी राजनीतिज्ञ को सुखी नहीं पाता हूं। बड़े कर्म में वे लीन हैं। विराट कर्म उन्हीं से चल रहा है! सारे अखबार उन्हीं से भरे होते हैं।

सात्विक व्यक्ति तो खबर की दुनिया के बाहर चुपचाप काम में लगा होता है। राजनैतिक बड़े काम करता है, विराट कर्म का जाल उसी का है; सारा खेल उसका है। यह सारा प्रपंच परमात्मा का जो चलाता है, उसमें नब्बे परसेंट राजनैतिक चलाता है। लेकिन सुखी बिलकुल नहीं है। इतना करके भी सुख की कोई छाया भी नहीं मिलती।

सात्विक कर्म भीतर के सुख से निकलते हैं। और हर कर्म आपके सुख को हजार गुना कर देगा। क्योंकि हर कर्म आपके सुख की प्रतिध्वनि को आप तक लौटाता है।

आप जो देते हैं अपने कर्म में, वह हजार गुना होकर आप पर बरसने लगता है। यह सारा जगत एक प्रतिध्वनि है। आप एक गीत गाते हैं, तो सब तरफ से गीत गूंजकर आप पर गिरता है। आप एक गाली देते हैं, तो गाली लौट आती है हजार गुनी होकर। जो काटे बोता है, काटे काटता है। जो फूल बोता है, वह फूल काट लेता है। सात्विक कर्म सुख लाएगा, एक। ज्ञान लाएगा, दो। यह बड़ी अनूठी बात है।

सात्विक कर्म ज्ञान क्यों लाएगा? ज्ञान मिलना चाहिए शास्त्र से, गुरु से। लेकिन कृष्ण कहते हैं, सात्विक कर्म ज्ञान लाएगा। यह किस ज्ञान की बात कर रहे हैं?

जब आप कोई सात्विक कर्म करते हैं, तब आप एकदम शांत हो जाते हैं। कभी भी अच्छा काम करके देखें, और उस रात आप गहरी नींद सोएंगे। कोई बुरा काम करके देखें, उस रात आप सो भी नहीं पाएंगे। कोई बुरा काम करें, वह भीतर खटकता ही रहेगा, काटे की तरह चुभता ही रहेगा। कोई भला काम करें, और एक हलकापन फैल जाता है; एक सुबह हो जाती है भीतर। छोटा—सा!
एक बीमार आदमी जा रहा हो और उसको आप हाथ का सहारा देकर रास्ता पार करवा दें। रास्ता पार कराते—कराते ही आपके भीतर कुछ होने लगेगा। सब हलका हो जाएगा, शांत हो जाएगा।

रास्ते पर एक नोट पड़ा हो। उठाने का खयाल आ जाए उससे ही बेचैनी शुरू हो जाएगी। फिर उठाकर उसे जेब में रख लें। फिर वह पहाड़ की तरह भारी मालूम पड़ेगा। फिर आप और कुछ भी करते रहें, लेकिन भीतर एक बेचैनी है।

झूठ बोलने वाले आदमी की बड़ी तकलीफ है। उसको एक झूठ के लिए हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। एक बुरा काम कर ले, तो उसको बचाने के लिए फिर हजार बुरे काम करने पड़ते हैं। फिर एक सिलसिला शुरू होता है, जिसका कोई अंत नहीं है। और इसमें वह उलझता चला जाता है। इस सबका इकट्ठा परिणाम दुख है।
लेकिन कृष्ण कहते हैं, सात्विक कर्म का फल सुख और ज्ञान है। जैसे ही आप हलके होंगे, शांत होंगे, प्रसन्न होंगे, प्रफुल्लित होंगे, एट ईज होंगे, एक गहरा विश्राम होगा; भीतर दो स्वर नहीं हैं, एक ही भाव है; और सब चीजें साफ हैं, सच्ची हैं, सीधी हैं। इस सीधे —सच्चेपन में, इस भोलेपन में, इस निर्दोषता में, आपकी आंखें अपने को पहचानने में समर्थ होंगी। वही ज्ञान है।

स्वयं को पहचानने के लिए भीतर धुआं नहीं चाहिए, द्वंद्व नहीं चाहिए कलह नहीं चाहिए। भीतर सन्नाटा चाहिए। और सन्नाटा केवल उसी में हो सकता है, जो सात्विक हो। नहीं तो सन्नाटा बहुत मुश्किल है।

आपको पूरे समय सुरक्षा में ही लगे रहना पड़ता है। पूरे समय भय पकड़े है। पूरे समय कोई आपका पीछा कर रहा है। कोई आपको पकड़ने—उलझाने में लगा हुआ है। जिन—जिन को आपने धोखा दिया है, वे आपकी तलाश में हैं। जिन—जिन का आपने बुरा किया है, वे भी आपके बुरे के लिए, प्रतिकार की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ये सब चारों तरफ आपके दुश्मन हो जाते हैं।

असल में, सात्विक व्यक्ति अपने चारों तरफ मित्रता बो रहा है, प्रेम बो रहा है। उसे भय का कोई कारण नहीं है। सुरक्षा की कोई चिंता नहीं है। भीतर कोई कलह नहीं है।

इससे जो सहज भाव पैदा होगा, जो आंतरिक स्वास्थ्य पैदा होगा, वही स्वास्थ्य आपकी आखों को भीतर की तरफ खोलेगा। धुआं हट जाएगा। जैसे सुबह की धुंध हट गई हो और सूरज साफ हो जाए, वैसे ही आपके दुष्कृत्यों की धुंध हट जाएगी, दुर्भाव की धुंध हट जाएगी, और आप आत्म—साक्षात्कार में सफल हो पाएंगे। इसलिए ज्ञान।

और भी उससे भी जटिल बात है, वैराग्य। सुख, ज्ञान और वैराग्य फल हैं सात्विक कर्म के। यह बहुत समझने जैसा है और बहुत गहरा और सूक्ष्म है।

जो आदमी जितना सात्विक है, उतना ही उसका राग गिरने लगेगा, उतना ही उसमें एक वैराग्य— भाव उदय होने लगेगा। क्यों? राग का क्या मतलब है?

राग का मतलब है, मेरा सुख दूसरे पर निर्भर है। यह राग का मतलब है, अटैचमेंट का, कि मेरा सुख दूसरे पर निर्भर है। मेरी पत्नी पर मेरा सुख निर्भर है। मेरे पति पर निर्भर है। मेरे बेटे पर, मेरे पिता पर, मित्र पर, धन पर, मकान पर, किसी दूसरे पर कहीं मेरा सुख निर्भर है। और जिस पर मेरा सुख निर्भर है, उसे मैं पकड़कर रखना चाहता हूं कि वह छूट न जाए। यही राग है।

लेकिन सात्विक व्यक्ति जानता है कि सुख मेरे भीतर है; इसका वह रोज अनुभव करता है। जब भी वह सात्विक कर्म करता है, सात्विक भाव करता है, वह पाता है, सुख बरस जाता है। सुख मेरे हाथ में है। सुख की वर्षा का सारा आयोजन मेरे हाथ में है। इशारा, और सुख बरस जाता है।

स्वभावत:, वह जानने लगता है कि सुख मेरा किसी पर निर्भर नहीं है। इसलिए उसका राग क्षीण होता है, वैराग्य बढ़ता है। अगर पत्नी उसके पास है, तो वह सुखी है। और पत्नी उससे दूर है, तो वह सुखी है। और उसके सुख में फर्क नहीं पड़ता। जब पत्नी पास है, तब वह पत्नी का सुख लेता है। जब पत्नी दूर है, तब पत्नी के न होने का सुख लेता है। पर उसके सुख में अंतर नहीं पड़ता। और दोनों का सुख है, ध्यान रहे।

और आमतौर से आदमी, जब पत्नी है, तब पत्नी के होने का दुख भोगता है। और जब पत्नी नहीं है, तब न होने का दुख भोगता है। आप प्रयोग करके देखना, पत्नी को थोड़े दिन बाहर भेजें। फिर आप दुखी होंगे कि पत्नी दूर है। और आप भलीभाति जानते हैं कि जब पास थी, तब नरक था। मगर थोड़े दिन दूर रहे, तो भूल जाता है नरक और कल्पना कर—करके आप स्वर्ग बना लेते हैं। पत्नी आते ही से सब स्वर्ग रास्ते पर लगा देगी। वापस आई कि नरक शुरू हुआ।

लोगों का अनुभव है, पति—पत्नियों का, कि न तो वे साथ रह सकते हैं और न दूर रह सकते हैं। इसलिए उनका द्वंद्व जो है, उससे छुटकारे का कोई उपाय भी नहीं है। पास रहते हैं, तो कष्ट पाते हैं। दूर रहते हैं, तो कष्ट पाते हैं।

जिन लोगों के पास धन है, वे धन के कारण परेशान हैं। जिनके पास धन नहीं है, वे धन के न होने के कारण परेशान हैं। कोई गरीबी से पीड़ित है, कोई अमीरी से पीड़ित है।

शायद आपको खयाल ही नहीं है कि सुख बाहर से कभी किसी को मिला नहीं है। न गरीबी से मिला है, न अमीरी से, न पत्नी के होने से, न न होने से। सुख एक आंतरिक संपदा है। जब उसे आप अपने भीतर खोज लेते हैं, तब आपको मिलता है। तब हर हालत में मिलता है। तब ऐसी कोई दशा नहीं है, जब सुख नहीं मिलता। तब हर स्थिति में आप सुख खोज लेते हैं।

अगर घर में बच्चे खेल रहे हैं और शोरगुल कर रहे हैं, तो आप उनकी, बच्चों की खिलखिलाहट में सुख लेते हैं। और बच्चे चले गए और घर खाली है, तो आप घर के सन्नाटे में सुख लेते हैं। तब घर का सन्नाटा सुखद है। और जब बच्चे लौट आते हैं, और किलकारियां भरते हैं, और नाचते हैं, कूदते हैं, तब आप उनके नाचने—कूदने में सुख लेते हैं। जीवन चारों तरफ उछलता हुआ, आप उसमें सुख लेते हैं।

लेकिन सुख आपके भीतर है। कभी आप सन्नाटे पर आरोपित कर देते हैं, कभी बच्चों की किलकारी पर आरोपित कर देते हैं। जो दुखी आदमी है, बच्चे शोरगुल करते हैं, तो वह कहते हैं, शांति नष्ट हो रही है। बंद करो आवाज! घर में कोई न हो, तो वह कहता है, बिलकुल अकेला हूं। बड़ी उदासी मालूम होती है।

आपके ढंग पर, आपकी जीवन—व्यवस्था पर, लाइफ स्टाइल पर निर्भर है। सात्विकता एक जीवन का ढंग है, जिसमें सुख भीतर है। इसलिए कृष्ण बड़ी मौलिक बात कहते हैं कि वैराग्य उसका फल है।

सुखी आदमी हमेशा विरागी होगा। आपने इससे उलटी बात सुनी होगी कि अगर सुख चाहिए हो, तो वैराग्य को साधो, वह बिलकुल गलत है। क्योंकि कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं, वैराग्य साधो, तो सात्विकता आ जाएगी। कृष्ण कह रहे हैं, सात्विक हो जाओ, तो वैराग्य उसका फल है।

लेकिन न मालूम कितने लोग समझाए चले जा रहे हैं कि तुम वैरागी हो जाओ। छोड़ दो सब, फिर बड़े सुखी हो जाओगे।

मैं छोड़े हुए लोगों को जानता हूं। यहां घर के कारण दुखी थे; वहा अब आश्रम के कारण दुखी हैं। पहले यहां पत्नी—बच्चों के कारण दुखी थे, अब वहा दुखी हैं संन्यासियों के पास रहकर संन्यासियों के कारण। दुख में अंतर नहीं है।

असल में दुख इस तरह छूटता ही नहीं। सात्विक हो जाओ, तो वैराग्य उसका फल होगा।

और ध्यान रहे, जब दुखी आदमी छोड्कर भागता है, तो उसका छोड्कर भागना एक रोग की तरह है। और जब सुखी आदमी छोड़ता है, उसके छोड़ने में एक ज्ञान है। उसका छोड़ना ऐसा है,

जैसे सूखा पता वृक्ष से गिरता है। न तो वृक्ष को घाव पैदा होता है, न पत्ते को पता चलता है, न कहीं कोई खबर होती है। सूखा पत्ता है। सूख गया। अपने आप चुपचाप कब झड़ जाता है हवा के झोंके में, किसी को पता नहीं चलता। वृक्ष की नींद भी नहीं टूटती। वह अपनी शांति में खड़ा है। एक कच्चे पत्ते को तोड़े, पत्ते को भी चोट पहुंचती है, वृक्ष पर भी घाव बनता है। वृक्ष भी सहमता है।

अब तो नापने के उपाय हैं वृक्ष की संवेदना को। वृक्ष की संवेदना का यंत्र लगा दें और पत्ता तोड़े। और संवेदना का यंत्र कहेगा, वृक्ष को चोट पहुंची, घाव पहुंचा, दुख हुआ।! और ध्यान रखें, वृक्ष भी याद रखता है। अगर आप रोज—रोज वृक्ष का पत्ता तोड़ते हैं या माली हैं और काटते हैं, तो आप चकित होंगे जानकर, रूस में बड़े प्रयोग हुए हैं, जब माली वृक्ष के पास आता है..। बहुत पहले कबीर ने कहा था, माली आवत देख के कलियन करी पुकार। वह कबीर ने कविता में कहा था। अभी रूस में उसके वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं।

जैसे ही माली को वृक्ष करीब आते देखता है, उसके सारे प्राण के रोएं—रोएं सिहर उठते हैं। और इसकी जांच, अब तो वैज्ञानिक यंत्र हैं हमारे पास, जो खबर दे देते हैं कि वृक्ष कांप रहा है, घबड़ा रहा है। और ऐसा नहीं कि जिस वृक्ष को काटा है, वही घबड़ाता है। उसके पास के वृक्ष भी उसकी पीड़ा से प्रभावित होते हैं और घबड़ाते हैं और डांवाडोल होते हैं। लेकिन सूखा पत्ता जब गिरता है, तो वृक्ष को कहीं भी कुछ पता नहीं चलता।

सुखी आदमी जब कुछ छोड़ता है, तो सूखे पत्ते की तरह गिर जाता है। इसलिए बुद्ध जब छोड़ते हैं राज्य, वह और बात है। और अगर आप घर छोड्कर चले गए, वह कोई राज्य भी नहीं है, आपका घाव आपको सताएगा। आप चले जाएंगे जंगल में, लेकिन सोचेंगे घर की। चले जाएंगे जंगल में, लेकिन कोई मिलने आ जाएगा, तो आप कहेंगे, महल छोड़ आया हूं। चाहे आप झोपड़ा छोड़ आए हों। लाखों की संपत्ति पर लात मार दी है। बड़ी सुंदर पत्नी थी। हालांकि किसी की पत्नी सुंदर नहीं होती। सदा दूसरे की पत्नी सुंदर होती है, अपनी कभी होती नहीं।

सभी पति ऐसा ही सोचते हैं। क्योंकि जो दूर है, वह लुभावना है। जो पास है, वह व्यर्थ हो जाता है। जो हाथ में नहीं है, वह आकर्षक है। जो हाथ में है, वह बोझ हो जाता है।

पर अगर आप जंगल चले गए, तो आप चर्चा करेंगे कि आप कोई नूरजहां, कोई मुमताजमहल छोड़ आए हैं। कोई बड़ा महल, कोई बड़ा राज्य।

वह सूचना आप जो दे रहे हैं, उससे पता चलता है कि वह छूट नहीं पाया। घाव पीछे रह गया है। जिनको त्यागी गई चीजों की याद रह जाती है, उनका घाव पक्का है, वह भर नहीं रहा। वह घाव दर्द दे रहा है।

कृष्ण कहते हैं, सात्विक कर्म का फल वैराग्य है।
यह बडा क्रांतिकारी वचन है और बड़ा वैज्ञानिक। शुभ जो करेगा, धीरे— धीरे उसका राग क्षीण हो जाएगा और वैराग्य का उदय होगा। राजस कर्म का फल दुख; तामस कर्म का फल अज्ञान।

राजस कर्म का फल दुख होगा, क्योंकि वह दुख से निकलता है। आप कर्मों में लगे हैं इसलिए कि आप इतने ज्यादा भीतर परेशान हैं कि कर्मों में लगकर अपने को भुलाने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए छुट्टी का दिन बहुत कठिन हो जाता है। उसे गुजारना मुश्किल हो जाता है।

हमारे भीतर दुख है। उसे हम भुला रहे हैं किसी न किसी तरह के कर्म में। खाली बैठकर हमें बेचैनी होती है, क्योंकि खाली बैठकर दुख हमारा साफ हो जाता है।

ध्यान रहे, दुख से बचने का हमें एक ही उपाय है, विस्मरण। कोई भी तरकीब से भूल जाएं। दूसरी तरफ मन लग जाता है। ताश खेलने लगे, दुख भूल गया। कुछ काम करने लगे, दुकान पर चले गए सेवा करने लगे, कुछ न मिला तो गीता ही पढ़ने लगे, राम—राम जपने लगे, माला ले ली एक हाथ में, उसके गुरिए सरकाने लगे; कुछ कर रहे हैं। लेकिन कुछ करने से एक फायदा है कि वह जो भीतर दुख दिखाई पड़ता था, वह नहीं दिखाई पड़ता, मन डायवर्ट हुआ! किसी और दिशा में लग गया। लेकिन घडीभर बाद, कब तक माला फेरिएगा! फिर माला बंद की, दुख का फिर स्मरण आया।

दुखी लोग राजस कर्म में लग रहे हैं। और जहां से कर्म निकलता है, वहीं पहुंचा देता है। प्रारंभ हमेशा अंत है। इस सूत्र को खयाल रखें, प्रारंभ हमेशा अंत है। क्योंकि बीज ही वृक्ष होगा। और अंत में फिर वृक्ष में बीज लग जाएंगे। और जिस बीज से वृक्ष हुआ है, वही हजारों बीज उस वृक्ष पर लगेंगे, दूसरे नहीं। अगर आपके दुख से कर्म निकला है, तो दुख बीज है, कर्म वृक्ष है। फिर हजार बीज उसी दुख के लग जाएंगे।

इसलिए राजस कर्म दुख में ले जाता है, क्योंकि दुख से पैदा होता है।

और तामस कर्म का फल अज्ञान है। तामस कर्म का अर्थ है, नहीं करना था और करना पड़ा। करने की कोई इच्छा नहीं थी।

सात्विक कर्म का अर्थ है, करने की कोई विक्षिप्तता नहीं थी। किसी और को जरूरत थी, इसलिए किया। राजस कर्म का अर्थ है, करने का पागलपन था। तुमको जरूरत थी या नहीं, हमने किया।

जो राजस व्यक्ति है, उसके कर्म का निकलना उसके भीतर की बेचैनी है। सात्विक का कर्म दूसरे पर दया है। राजसिक का कर्म खुद की बीमारी है। तामसिक का कर्म दूसरे के द्वारा पैदा की गई मजबूरी है। उसको धक्का दो कि चलो, उठो। जाओ, यह करो। मजबूरी है। बंदूक लगाओ उनके पीछे, तो वे दों—चार कदम चलते हैं। बंदूक हटा लो, वे वहीं बैठ जाते हैं।

यह जो दूसरे के द्वारा मजबूरी से किया गया कर्म है तामस का, यह गहन अज्ञान लाएगा। जैसे सात्विक कर्म ज्ञान लाता है, दूसरे पर दया के कारण खुद को हलका करता है। यह दूसरे के द्वारा जबरदस्ती के कारण दूसरे पर घृणा पैदा होगी, हिंसा पैदा होगी; दूसरे को मार डालने का भाव होगा कि सारी दुनिया मेरे पीछे पड़ी है!

आलसी आदमी को ऐसे ही लगता है कि बाप पीछे पड़ा है, पत्नी पीछे पड़ी है, मां पीछे पड़ी है। सारी दुनिया मेरे पीछे पड़ी है कि कुछ करो। और उसे कुछ करने जैसा लगता ही नहीं। उसे लगता है, वह चुपचाप बैठा रहे। सारी दुनिया उसकी दुश्मन है!

ध्यान रहे, सात्विक व्यक्ति अपने चारों तरफ प्रेम बोता है। तामसिक वृत्ति का व्यक्ति अनजाने अपने चारों तरफ शत्रु पाता है। शत्रु उसको लगेंगे, क्योंकि वे सभी उसको निकालने की कोशिश में लगे हैं कि तुम कुछ करो। उसके मन में सबके प्रति घृणा, सबके प्रति द्वेष, सबके प्रति तिरस्कार, कोई मित्र नहीं है, सब दुश्मन हैं—ऐसा भाव पैदा होता है। उसका धुआं बढ़ जाता है। उसके भीतर का धुंध बढ़ जाता है। दूसरे पर दया से धुंध कटता है, दूसरे पर घृणा से धुंध बढ़ता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, तामस कर्म का फल अज्ञान है। वह और भी डूबता जाता है। खुद को देखना और मुश्किल हो जाता है। खुद को पहचानना असंभव हो जाता है।

सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है; रजोगुण से निस्संदेह लोभ; तमोगुण से प्रमाद और मोह और अज्ञान होता है।

सत्वगुण से ज्ञान। क्योंकि भीतर का अंधेरा टूटता है, आलोक आता है, हम स्वयं को पहचान पाते हैं।

रजोगुण से लोभ। और जितना ही कोई कर्मों में प्रवृत्त होता है, उतना ही लोभ को जगाना पड़ता है। क्योंकि लोभ को जगाए बिना कर्म में प्रवृत्त होना मुश्किल है। इसलिए आप ताश खेल रहे हैं। अकेला ताश खेलना आपको ज्यादा रस नहीं देगा। थोड़ा दांव जुए का लगा दें, थोड़े रुपए और रख दें वहा, तो गति आ जाएगी, क्योंकि अब लोभ के लिए सुविधा है।

तो हम कर्म भी तभी कर सकते हैं, जब कुछ लोभ सामने खड़ा हुआ दिखाई पड़े। इसलिए राजसिक व्यक्ति अपना लोभ पैदा करता रहता है रोज, ताकि कर्म कर सके। रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है। लोभ से राजसिकता बढ़ती है। जितनी राजसिकता बढ़ती है, उतना लोभ पैदा करना पड़ता है। इसलिए रोज आपको नई मंजिल चाहिए, नया लोभ चाहिए, नए टारगेट चाहिए, जहां आप पहुंचें। इसीलिए रोज विज्ञापनदाताओं को नए विज्ञापन खोजने पड़ते हैं। नई कारें बनानी पड़ती हैं। नये मकान की डिजाइन निकालनी पड़ती है। और आपको नया लोभ देना पड़ता है। विज्ञापन का पूरा का पूरा इंतजाम आपको लोभ देने के लिए है। इसलिए जितना राजसिक मुल्क होगा, उतनी ज्यादा एडवरटाइजमेंट होगी।

आपके पास मकान सिर्फ शहर में ही है? पहाड़ पर नहीं है? आप गरीब आदमी हैं। एक मकान पहाड़ पर भी चाहिए।

रोज नया लोभ देना पड़ता है, क्योंकि राजसिक पूरा मुल्क हो, राजस से भरे हुए लोग हों, कर्म का पागलपन हो, और लोभ की कमी हो, तो लोग पागल हो जाएंगे। उनको रोज नया लोभ दो, नई आवश्यकता पैदा करो।

तमोगुण से प्रमाद और मोह।

और जो आलस्य में पड़ा रहता है, वह धीरे- धीरे तंद्रा में, निद्रा में, प्रमाद में, बेहोशी में खोता चला जाता है। पर बेहोशी अज्ञान है।

सत्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादिक उच्च लोकों को जाते हैं। रजोगुण में स्थित पुरुष मध्य मनुष्य लोक में, एवं तमोगुण में निद्रा, प्रमाद, आलस्य में डूबे हुए लोग, तामस पुरुष, अधोगति, नीच योनियों को प्राप्त होते हैं।

ये तीन स्थितियां हैं मन की, चित्त की। मेरे हिसाब में कहीं कोई स्वर्ग नहीं है पृथ्वी के ऊपर। और कहीं कोई नरक नहीं है पृथ्वी के नीचे। कहीं पाताल में छिपा कोई नरक नहीं है, आकाश में छिपा कोई स्वर्ग नहीं है। स्वर्ग और नरक मनुष्य की उच्चतम और निम्नतम स्थितियां हैं।


जब भी आप गहन सुख में होते हैं, आप स्वर्ग में होते हैं। और जब आप गहनतम संताप में होते हैं, तो आप नरक में होते हैं। लेकिन आमतौर से आप दोनों में नहीं होते, बीच में होते हैं। वही मनुष्य के मन की अवस्था है, मध्य। और दोनों तरफ डोलते रहते हैं। सुबह नरक, शाम स्वर्ग। पूरे वक्त आपके भीतर डांवाडोल स्थिति चलती रहती है। स्वर्ग और नरक के बीच यात्रा होती रहती है।

जो व्यक्ति सत्व में थिर हो जाता है, उसकी यह यात्रा बंद हो जाती है। वह भीतर के सुख में घिर हो जाता है। उसका थर्मामीटर सुख के उच्चांक को छू लेता है और वहीं ठहरा रहता है। फिर नीचे नहीं गिरता।

जो व्यक्ति तमस में बिलकुल थिर हो जाता है, उसका थर्मामीटर, उसकी चेतना की दशा निम्नतम बिंदु पर ठहर जाती है। उससे ऊपर नहीं उठती।

जो व्यक्ति राजस में भरा हुआ है, राजस में ठहरा हुआ है, वह मध्य में ही बना रहता है। सुख का आभास बना रहता है, दुख का डर बना रहता है। न दुख मिलता है, न सुख मिलता है। वह बीच में अटका-सा रहता है, त्रिशंकु की उसकी दशा होती है। और या फिर कभी-कभी छलांग लगाकर थोड़ा सुख ले लेता है, कभी छलांग लगाकर थोड़ा दुख ले लेता है।

ये तीन स्थितियां हैं। उच्चतम को हम स्वर्ग कहते हैं, वह मन की सुख की अवस्था है। निम्नतम को नरक कहते हैं, नीच गति कहते हैं, अधोगति कहते हैं, वह चेतना की निम्नतम स्थिति है। और मध्य, जहां मनुष्य है।

मनुष्य शब्द सोचने जैसा है। मनुष्य शब्द बना है मन से। मन की जो दशा है आमतौर से, मध्य में है। मन हमेशा बीच में है। वह सोचता है, कल सुख मिलेगा। सुख दूर है। मिला नहीं। और वह डरता है कि कल कहीं दुख न मिल जाए। तो कल दुख न मिले, इसका इंतजाम करता है। और कल सुख मिले, इसकी व्यवस्था करता है। कल भी वह यही करेगा, परसों भी यही करेगा, पूरी जिंदगी यही करेगा। रहेगा वह बीच में। और तब संतुष्ट नहीं होगा, अतृप्त होगा, फ्रस्ट्रेशन होगा। कहीं नहीं पहुंच रहा है। जहां खड़ा था, वहीं खडा है।

ये जो चेतना की स्थितियां हैं, इनको समझाने के लिए स्थान की तरह चर्चा की गई है शास्त्रों में। लेकिन उससे बड़ी भ्रांति हो गई है। लोग समझने लगे हैं, ये स्थान हैं। स्थान केवल समझाने के लिए हैं। स्थितियां हैं, स्थान नहीं। स्टेट्स आफ माइंड हैं, कोई भौगोलिक, ज्याग्राफी की जगह नहीं हैं।

यह तो अब छोटे—छोटे बच्चे भी जानते हैं कि नरक कहीं नहीं है, स्वर्ग कहीं नहीं है। भूगोल छान डाली गई है। और इसलिए शास्त्रों को निरंतर बदलना पड़ा। पहले शास्त्रों पर इतना दूर नहीं था स्वर्ग, जितना बाद में हो गया। पहले भगवान हिमालय पर रहते थे। फिर आदमी हिमालय पर पहुंचने लगा, तो भगवान को हटाना पड़ा। तो वह उनको कैलाश पर बैठा दिया, आखिरी चोटी पर। फिर वह भी कुछ अगम्य न रही। तो हमें आकाश में बिठाना पड़ा। अब हमारे अंतरिक्ष यान आकाश में पार जा रहे हैं। अब वहा भी भगवान सुरक्षित नहीं है।

इसलिए वेदांत ने कहा है कि भगवान निराकार है, तुम उसे कहीं खोज न पाओगे। तुम कहीं भी जाओ, तुम यह नहीं कह सकते, वह नहीं मिला, क्योंकि उसका कोई आकार नहीं है। पर यह आदमी जहां भी खोज लेता है, वहीं हमको कहना पड़ता है, यहां भगवान नहीं है।

स्थान की बात ही गलत है। स्थान से कुछ संबंध नहीं है। भगवान भी एक अवस्था है भगवत्ता की। जैसे ये तीन अवस्थाएं मन की हैं, ऐसी वह तीन के पार चौथी अवस्था है, गुणातीत। जब कोई तीनों के पार हो जाता है—न दुख, न सुख, न मध्य; न तामस, न राजस, न सात्विक—जब तीनों गुणों के पार कोई उठ जाता है, तब उस अवस्था का नाम भगवत्ता है।

इसलिए हम कृष्ण को भगवान कहते हैं या बुद्ध को भगवान कहते हैं। भगवान का कुल अर्थ इतना ही है। भगवान का यह मतलब नहीं कि उन्होंने दुनिया बनाई, कि बुद्ध ने कोई दुनिया बनाई, कि कृष्ण ने कोई दुनिया बनाई। भगवान का कुल अर्थ इतना ही है कि तीन गुणों के जो पार हो गया, वह भगवत्ता को उपलब्ध हो गया।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

 हरिओम सिगंल

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