मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 13 भाग 10

 कौन है आँख वाला


     समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।

विनश्यत्‍स्‍वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।। 27।।

समं पश्यीन्ह सर्वत्र अमवीस्थतमीश्वरम्।

न हिनस्मात्मनात्मानं ततो याति पंरा गतिम् ।। 28।।

प्रकृत्यैव च कर्मीणि क्रियमाणानि सर्वशः।

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं ग़ पश्यति।। 29।।

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनयश्यति।

तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्यद्यते तदा।। 30।।


इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब बराबर भूतों में नाशरीहत परमेश्वर को समभाव मे स्थित देखता है, वही देखता है।

क्योंकि वह पुरुष सब में समभाव से स्थित हुए परमेश्वर को समान देखता हुआ, अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है।

और जो पुरुष संपूर्ण क्रमों को सब प्रकार से प्रकृति से ही किए हुए देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है वही देखता है।

और यह पुरूष जिस काल में भूतों के न्यारे— न्यारे भाव को एक परमात्मा के संकल्य के आधार स्थित देखता है तथा उस परमात्‍मा के संकल्‍प से ही संपूर्ण भूतों का विस्‍तार देखता है? उस क्रम में सच्चिदानंदधन ब्रह्म को प्राप्त होता है।


इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही देखता है कौन देखता है? कौन जानता है? किसके पास दर्शन है, दृष्टि है? उसकी व्याख्या है। किसका जानना सही जानना है? और किसके पास असली आंख है? कौन देखता है?

इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही देखता है। यह संसार हम सब देखते हैं। इसमें सभी नाश होता दिखाई पड़ता है। सभी परिवर्तित होता दिखाई पड़ता है। सभी लहरों की तरह दिखाई पड़ता है, क्षणभंगुर। इसे देखने के लिए कोई बड़ी गहरी आंखों की जरूरत नहीं है। जो आंखें हमें मिली हैं, वे काफी हैं। इन आंखों से ही दिखाई पड़ जाता है।

लेकिन बड़ी कठिनाई है। इन आंखों से ही दिखाई पड़ जाता है कि यहां सब क्षणभंगुर है। लेकिन हममें बहुत—से लोग आंखें होते हुए बिलकुल अंधे हैं। यह भी दिखाई नहीं पड़ता कि यहां सब क्षणभंगुर है। यह भी दिखाई नहीं पड़ता। हम क्षणभंगुर वस्तुओं को भी इतने जोर से पकड़ते हैं, उससे पता चलता है कि हमें भरोसा है कि चीजें पकड़ी जा सकती हैं और रोकी जा सकती हैं।

रात है, दिन है। ऐसे ही प्रेम है और घृणा है। आकर्षण है और विकर्षण है। आदर है और अनादर है।

हमारी सारी तकलीफ यह होती है कि अगर किसी व्यक्ति के प्रति हमारा आदर है, तो हम कोशिश करते हैं, सतत बना रहे। वह बना रह नहीं सकता। क्योंकि आदर के साथ वैसे ही रात भी जुड़ी है अनादर की। और प्रेम के साथ घृणा की रात जुड़ी है।

और सभी चीजें बहती हुई हैं, प्रवाह है। यहां कोई चीज थिर नहीं है। इसलिए जब भी आप किसी चीज को थिर करने की कोशिश करते हैं, तभी आप मुसीबत में पड़ जाते हैं। लेकिन कोशिश आप इसीलिए करते हैं कि आपको भरोसा है कि शायद चीजें थिर हो जाएं।

जवान आदमी जवान बने रहने की कोशिश करता है। सुंदर आदमी सुंदर बने रहने की कोशिश करता है। जो किसी पद पर है, वह पद पर बने रहने की कोशिश करता है। जिसके पास धन है, वह धनी बने रहने की कोशिश करता है। हम सब कोशिश में लगे हैं।


हमारे अगर जीवन के प्रयास को एक शब्द में कहा जाए, तो वह यह है कि जीवन है परिवर्तनशील और हम कोशिश में लगे हैं कि यहां कुछ शाश्वत मिल जाए। कुछ शाश्वत। इस परिवर्तनशील प्रवाह में हम कहीं पैर रखने को कोई भूमि पा जाएं, जो बदलती नहीं है। क्योंकि बदलाहट से बड़ा डर लगता है। कल का कोई भरोसा नहीं है। क्या होगा, क्या नहीं होगा, सब अनजान मालूम होता है। और अंधेरे में बहे चले जाते हैं। इसलिए हम सब चाहते हैं कोई ठोस भूमि, कोई आधार, जिस पर हम खड़े हो जाएं, सुरक्षित। सिक्योरिटी मिल जाए यह हमारी चेष्टा है। यह चेष्टा बताती है कि हमें क्षणभंगुरता दिखाई नहीं पड़ती।

यहां सभी कुछ क्षणभर के लिए है। हमें यही दिखाई नहीं पड़ता। कृष्ण तो कहते हैं, और वही देखता है, जो क्षणभंगुर के भीतर शाश्वत को देख लेता है।

हमें तो क्षणभंगुर ही नहीं दिखाई पड़ता। पहली बात। क्षणभंगुर न दिखाई पड़ने से हम अपने ही मन के शाश्वत निर्मित करने की कोशिश करते हैं। वे झूठे सिद्ध होते हैं। वे सब गिर जाते हैं।

हमारा प्रेम, हमारी श्रद्धा, हमारा आदर, हमारे सब भाव मिट जाते हैं, धूल—धूसरित हो जाते हैं। हमारे सब भवन गिर जाते हैं। हम कितने ही मजबूत पत्थर लगाएं, हमारे सब भवन खंडहर हो जाते हैं। हम जो भी बनाते हैं इस जिंदगी में, वह सब जिंदगी मिटा देती है। कुछ बचता नहीं। सब राख हो जाता है। लेकिन फिर भी हम स्थिर को बनाने की कोशिश करते रहते हैं, और असफल होते रहते हैं। हमारे जीवन का विषाद यही है।

संबंध चाहते हैं स्थिर बना लें। वे नहीं बन पाते। हमने कितनी कोशिश की है कि पति—पत्नी का प्रेम स्थिर हो जाए, वह नहीं हो पाता। बड़ा विषाद है, बड़ा दुख है, बड़ी पीड़ा है। कुछ स्थिर नहीं हो पाता। मित्रता स्थिर हो जाए शाश्वत हो जाए। कहानियों में होती है। जिंदगी में नहीं हो पाती।

कहानियां भी हमारी मनोवांछनाए हैं। जैसा हम चाहते हैं जिंदगी में हो, वैसा हम कहानियों में लिखते हैं। वैसा होता नहीं। इसलिए हर कहानी, दो प्रेमियों का विवाह हो जाता है—या कोई फिल्म या कोई कथा—और खत्म होती है कि इसके बाद दोनों आनंद से रहने लगे। यहां खत्म होती है। यहां कोई जिंदगी खत्म नहीं होती।

कहानी चलती है, जब तक विवाह नहीं हो जाता और शहनाई नहीं बजने लगती। और शहनाई बजते ही दोनों प्रेमी फिर सदा सुख—शांति से रहने लगे, यहां खत्म हो जाती है। और आदमी की जिंदगी में जाकर देखें।

शहनाई जब बजती है, उसके बाद ही असली उपद्रव शुरू होता है। उसके पहले थोड़ी—बहुत सुख—शांति रही भी हो। उसके बाद बिलकुल नहीं रह जाती। लेकिन उसे हम ढांक देते हैं। वहां से परदा गिरा देते हैं। वहां कहानी खत्म हो जाती है। वह हमारी मनोवांछा है, ऐसा होना चाहिए था। ऐसा होता नहीं है।

हम अपनी कहानियों में जो—जो लिखते हैं, वह अक्सर वही है, जो जिंदगी में नहीं होता। हम अपनी कहानियों में उन चरित्रों को बहुत ऊपर उठाते हैं आसमान पर, जो जिंदगी में हो नहीं सकते। जिंदगी तो बिलकुल क्षणभंगुर है। वहा कोई चीज थिर होती नहीं; टिक नहीं सकती। टिकना वहां होता ही नहीं।

इसे ठीक से समझ लें। क्षणभंगुर है जगत चारों तरफ। हम इस जगत से डरकर अपना एक शाश्वत मन का जगत बनाने की कोशिश करते हैं। वह नहीं टिक सकता। हमारा क्या टिकेगा, हम खुद क्षणभंगुर हैं। बनाने वाला यह मन क्षणभंगुर है। इससे कुछ भी बन नहीं सकता। और जिस सामग्री से यह बनाता है, वह भी क्षणभंगुर है।

लेकिन अगर हम क्षणभंगुरता में गहरे देखने में सफल हो जाएं, हम क्षणभंगुरता के विपरीत कोई शाश्वत जगत बनाने की कोशिश न करें, बल्कि क्षणभंगुरता में ही आंखों को पैना गड़ा दें, तो क्षणभंगुरता के पीछे ही, प्रवाह के पीछे ही, वह जो अविनश्वर है, वह जो परमात्मा है शाश्वत, वह दिखाई पड़ जाएगा।

दो तरह के लोग हैं जगत में। एक वे, जो क्षणभंगुर को देखकर अपने ही गृह—उद्योग खोल लेते हैं शाश्वत को बनाने के। और दूसरे वे, जो क्षणभंगुर को देखकर अपना गृह—उद्योग नहीं खोलते शाश्वत को बनाने का, बल्कि क्षणभंगुर में ही गहरा प्रवेश करते हैं। अपनी दृष्टि को एकाग्र करते हैं। और क्षणभंगुर की परतों को पार करते हैं। क्षणभंगुर लहरों के नीचे वे शाश्वत के सागर को उपलब्ध कर लेते हैं।

कृष्ण कहते हैं, इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही देखता है।

उसके पास ही आंख है, वही आंख वाला है, वही प्रज्ञावान है, जो इस सारी क्षणभंगुरता की धारा के पीछे समभाव से स्थित शाश्वत को देख लेता है।

एक बच्चा पैदा हुआ। आप देखते हैं, जीवन आया। फिर वह बच्चा जवान हुआ, फिर बूढ़ा हुआ और फिर मरघट पर आप उसे विदा कर आए। और आप देखते हैं, मौत आ गई।

कभी इस जन्म और मौत दोनों के पीछे समभाव से स्थित कोई चीज आपको दिखाई पड़ी? जन्म दिख जाता है, मृत्यु दिख जाती है। लेकिन जन्म और मृत्यु के भीतर जो छिपा हुआ जीवन है, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि जन्म के पहले भी जीवन था, और मृत्यु के बाद भी जीवन होगा।

मृत्यु और जन्म जीवन की विराट व्यवस्था में केवल दो घटनाएं हैं। जन्म एक लहर है और मृत्यु लहर का गिर जाना है। लेकिन जिससे लहर बनी थी, वह जो सागर था, वह जन्म के पहले भी था और मृत्यु के बाद भी होगा। वह हमें दिखाई नहीं पड़ता।

तो जन्म के समय हम बैंड—बाजे बजा लेते हैं कि जीवन आया, उत्सव हुआ। फिर मृत्यु के समय हम रो— धो लेते हैं कि जीवन गया, उत्सव समाप्त हुआ, मौत घट गई। लेकिन दोनों स्थितियों में हम चूक गए उसे देखने से, जो न कभी पैदा होता है और न कभी नष्ट होता है। पर हमारी आंखें उसको नहीं देख पातीं।

अगर हम जन्म और जीवन के भीतर परम जीवन को देख पाएं, तो कृष्ण कहते हैं, तो तुम्हारे पास आंख है।

तो आंख की एक परिभाषा हुई कि परिवर्तनशील में जो शाश्वत को देख ले। जहां सब बदल रहा हो, वहा उसे देख ले, जो कभी नहीं बदलता है। वह आंख वाला है।

इसलिए हमने इस मुल्क में फिलासफी को दर्शन कहा है। फिलासफी को हमने दर्शन कहा है। दर्शन का अर्थ है यह, जो देख ले शाश्वत को परिवर्तनशील में। बनाने की जरूरत नहीं है; हमारे बनाए वह न बनेगा। वह मौजूद है। वह जो परिवर्तन है, वह केवल ऊपर की पर्त है, परदा है। उसके भीतर वह छिपा है, चिरंतन। हम सिर्फ परदे को हटाकर देखने में सफल हो जाएं।

हम कब तक सफल न हो पाएंगे? जब तक हम अपने गृह—उद्योग जारी रखेंगे और शाश्वत को बनाने की कोशिश करते रहेंगे। जब तक हम परिवर्तन के विपरीत अपना ही सनातन बनाने की कोशिश करेंगे, तब तक हम परिवर्तन में छिपे शाश्वत को न देख पाएंगे।

गृहस्थ का आध्यात्मिक अर्थ होता है, जो अपना शाश्वत बनाने में लगा है। संन्यस्थ का आध्यात्मिक अर्थ होता है, जो अपना शाश्वत नहीं बनाता, जो परिवर्तन में शाश्वत की खोज में लगा है।

गृहस्थ का अर्थ है, घर बनाने वाला। संन्यस्थ का अर्थ है, घर खोजने वाला। संन्यासी उस घर को खोज रहा है, जो शाश्वत है ही, जिसको किसी ने बनाया नहीं। वही परमात्मा है, वही असली घर है। और जब तक उसको नहीं पा लिया, तब तक हम घरविहीन, होमलेस, भटकते ही रहेंगे।

गृहस्थ वह है, जो परमात्मा की फिक्र नहीं करता। यह चारों तरफ परिवर्तन है, इसके बीच में पत्थर की मजबूत दीवालें बनाकर अपना घर बना लेता है खुद। और उस घर को सोचता है, मेरा घर है, मेरा आवास है।

गृहस्थ का अर्थ है, जिसका घर अपना ही बनाया हुआ है। संन्यस्थ का अर्थ है, जो उस घर की तलाश में है जो अपना बनाया हुआ नहीं है, जो है ही।

दो तरह के शाश्वत हैं, एक शाश्वत जो हम बनाते हैं, वे झूठे ही होने वाले हैं। हमसे क्या शाश्वत निर्मित होगा! शाश्वत तो वह है, जिससे हम निर्मित हुए हैं। आदमी जो भी बनाएगा, वह टूट जाएगा, बिखर जाएगा। आदमी जिससे बना है, जब तक उसको न खोज ले, तब तक सनातन, शाश्वत, अनादि, अनंत का कोई अनुभव नहीं होता।

और जब तक उसका अनुभव न हो जाए, तब तक हमारे जीवन में चिंता, पीड़ा, परेशानी रहेगी। क्योंकि जहां सब कुछ बदल रहा है, वह। निश्चित कैसे हुआ जा सकता है? जहां पैर के नीचे से जमीन खिसकी जा रही हो, वहा कैसे निश्चित रहा जा सकता है? जहां हाथ से जीवन की रेत खिसकती जाती हो, और जहां एक—एक पल जीवन रिक्त होता जाता हो और मौत करीब आती हो, वहां कैसे शांत रहा जा सकता है? वहां कोई कैसे आनंदित हो सकता है? जहां चारों तरफ घर में आग लगी हो, वहां कैसे उत्सव और कैसे नृत्य चल सकता है?

असंभव है। तब एक ही उपाय है कि इस आग लगे हुए घर के भीतर हम छोटा और घर बना लें, उसमें छिप जाएं अपने उत्सव को बचाने के लिए। लेकिन वह बच नहीं सकता। परिवर्तन की धारा, जो भी हम बनाएंगे, उसे तोड़ देगी।

हमारा बनाया हुआ शाश्वत नहीं हो सकता। हम शाश्वत नहीं हैं। लेकिन हमारे भीतर और इस परिवर्तन के भीतर कुछ है, जो शाश्वत है। अगर हम उसे देख लें।

उसे देखा जा सकता है। परिवर्तन को जो साक्षीभाव से देखने लगे, थोडे दिन में परिवर्तन की पर्त हट जाती है और शाश्वत के दर्शन होने शुरू हो जाते हैं। परिवर्तन से जो लड़े नहीं, परिवर्तन को जो देखने लगे; परिवर्तन के विपरीत कोई उपाय न करे, परिवर्तन के साथ जीने लगे, परिवर्तन से भागे नहीं, परिवर्तन में बहने लगे; न कोई लड़ाई, न कोई झगड़ा, न विपरीत में कोई आयोजन, जो परिवर्तन को राजी हो जाए सिर्फ जागा हुआ देखता रहे। धीरे— धीरे। परिवर्तन की पर्त बहुत पतली है। होगी ही। परिवर्तन की पर्त बहुत मोटी नहीं हो सकती, बहुत पतली है, तभी तो क्षण में बदल जाती है। धीरे—धीरे परिवर्तन की पर्त मखमल की पर्त मालूम होने लगती है। उसे आप हटा लेते हैं। उसके पार शाश्वत दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।

कृष्ण कहते हैं, नाशरहित परमेश्वर को जो समभाव से स्थित देखता है, वही देखता है। क्योंकि वह पुरुष समभाव से स्थित हुए परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है। इससे वह परम गति को प्राप्त होता है।

क्योंकि वह पुरुष समभाव से स्थित हुए परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है। इसे समझ लें। इससे वह परम गति को प्राप्त होता है।

हम अपने ही द्वारा अपने आपको नष्ट करने में लगे हैं। हम जो भी कर रहे हैं, उसमें हम अपने को नष्ट कर रहे हैं। लोग, अगर मैं उनसे कहता हूं कि ध्यान करो, प्रार्थना करो, पूजा में उतरो, तो वे कहते हैं, समय कहां! और वे ही लोग ताश खेल रहे हैं। उनसे मैं पूछता हूं क्या कर रहे हो? वे कहते हैं, समय काट रहे हैं। उनसे मैं कहूं ध्यान करो। वे कहते हैं, समय कहां! होटल में घंटों बैठकर वे सिगरेट फूंक रहे हैं, चाय पी रहे हैं, व्यर्थ की बातें कर रहे हैं। उनसे मैं पूछता हूं क्या कर रहे हो? वे कहते हैं, समय नहीं कटता, समय काट रहे हैं।

बड़े मजे की बात है। जब भी कोई काम की बात हो, तो समय नहीं है। और जब कोई बे—काम बात हो, तो हमें इतना समय है कि उसे काटना पड़ता है। ज्यादा है हमारे पास समय!

कितनी जिंदगी है आपके पास? ऐसा लगता है, बहुत ज्यादा है; जरूरत से ज्यादा है। आप कुछ खोज नहीं पा रहे, क्या करें इस जिंदगी का। तो ताश खेलकर काट रहे हैं। सिगरेट पीकर काट रहे हैं। शराब पीकर काट रहे हैं। सिनेमा में बैठकर काट रहे हैं। फिर भी नहीं कटती, तो सुबह जिस अखबार को पढ़ा, उसे दोपहर को फिर पढकर काट रहे हैं। शाम को फिर उसी को पढ़ रहे हैं।

कटती नहीं जिंदगी; ज्यादा मालूम पड़ती है आपके पास। समय बहुत मालूम पड़ता है और आप काटने के उपाय खोज रहे हैं।

पश्चिम में विचारक बहुत परेशान हैं। क्योंकि काम के घंटे कम होते जा रहे हैं। और आदमी के पास समय बढ़ता जा रहा है। और काटने के उपाय कम पड़ते जा रहे हैं। बहुत मनोरंजन के साधन खोजे जा रहे हैं, फिर भी समय नहीं कट रहा है।

तो पश्चिम के विचारक घबडाए हुए हैं कि अगर पचास साल ऐसा ही चला, तो पचास साल में मुश्किल से एक घंटे का दिन हो जाएगा काम का। वह भी मुश्किल से। वह भी सभी लोगों के लिए काम नहीं मिल सकेगा। क्योंकि टेक्नालाजी, यंत्र सब सम्हाल लेंगे। आदमी खाली हो जाएगा।

बड़े से बड़ा जो खतरा पश्चिम में आ रहा है, वह यह कि जब आदमी खाली हो जाएगा और समय काटने को कुछ भी न होगा, तब आदमी क्या करेगा? आदमी बहुत उपद्रव मचा देगा। वह कुछ भी काटने लगेगा समय काटने के लिए। वह कुछ भी करेगा; समय काटेगा। क्योंकि बिना समय काटे वह नहीं रह सकता।

आपको पता नहीं चलता। आप कहते रहते हैं कि कब जिंदगी के उपद्रव से छुटकारा हो! कब दफ्तर से छूटूं! कब नौकरी से मुक्ति मिले! कब रिटायर हो जाऊं! लेकिन जो रिटायर होते हैं, उनकी हालत देखें। रिटायर होते ही से जिंदगी बेकार हो जाती है। समय नहीं कटता।

मनसविद कहते हैं कि रिटायर होते ही आदमी की दस साल उम्र कम हो जाती है। अगर वह काम करता रहता, दस साल और जिंदा रहता। क्योंकि अब कहां काटे? तो अपने को ही काट लेता है। अपने को ही नष्ट कर लेता है।

यह सूत्र कहता है कि जो व्यक्ति परिवर्तन के भीतर छिपे हुए शाश्वत को समभाव से देख लेता है, वह फिर अपने आपको नष्ट नहीं करता।

नहीं तो हम नष्ट करेंगे। हम करेंगे क्या? इस क्षणभंगुर के प्रवाह में हम भी क्षणभंगुर का एक प्रवाह हो जाएंगे। और हम क्या करेंगे? इस क्षणभंगुर के प्रवाह में, इससे लड़ने में हम कुछ इंतजाम करने में, सुरक्षा बनाने में, मकान बनाने में, धन इकट्ठा करने में, अपने को बचाने में सारी शक्ति लगा देंगे और यह सब बह जाएगा। हम बचेंगे नहीं। वह सब जो हमने किया, व्यर्थ चला जाएगा।

थोड़ा सोचें, आपने जो भी जिंदगी में किया है, जिस दिन आप मरेंगे, उसमें से कितना सार्थक रह जाएगा? अगर आज ही आपकी मौत आ जाए, तो आपने बहुत काम किए हैं—अखबार में नाम छपता है, फोटो छपती है, बड़ा मकान है, बड़ी गाड़ी है, धन है, तिजोरी है, बैंक बैलेंस है, प्रतिष्ठा है, लोग नमस्कार करते हैं, लोग मानते हैं, डरते हैं, भयभीत होते हैं, जहां जाएं, लोग उठकर खड़े होकर स्वागत करते हैं—लेकिन मौत आ गई आज। इसमें से तब कौन—सा सार्थक मालूम पड़ेगा? मौत आते ही यह सब व्यर्थ हो जाएगा। और आप खाली हाथ विदा होंगे।

आपने जिंदगी में कुछ भी कमाया नहीं; सिर्फ गंवाया। आपने जिंदगी गंवाई। आपने अपने को काटा और नष्ट किया। आपने अपने को बेचा और व्यर्थ की चीजें खरीद लाए। आपने आत्मा गंवाई और सामान इकट्ठा कर लिया।

जीसस ने बार—बार कहा है कि क्या होगा फायदा, अगर तुमने पूरी दुनिया भी जीत ली और अपने को गंवा दिया? क्या पाओगे तुम, अगर तुम सारे संसार के मालिक भी हो गए और अपने ही मालिक न रहे?

महावीर ने बहुत बार कहा है कि जो अपने को पा लेता है, वह सब पा लेता है। जो अपने को गंवा देता है, वह सब गंवा देता है। हम सब अपने को गंवा रहे हैं। कोई फर्नीचर खरीद ला रहा है आत्मा बेचकर। लेकिन हमें पता नहीं चलता कि आत्मा बेची, क्योंकि आत्मा का हमें पता ही नहीं है। हमें पता ही नहीं, हम कब उसको बेच देते हैं; कब हम उसको खो आते हैं। जिसका हमें पता ही नहीं, वह संपदा कब रिक्त होती चली जाती है।

चार पैसे के लिए आदमी बेईमानी कर सकता है, झूठ बोल सकता है, धोखा दे सकता है। पर उसे पता नहीं कि धोखा, बेईमानी, झूठ बोलने में वह कुछ गंवा भी रहा है, वह कुछ खो भी रहा है। वह जो खो रहा है, उसे पता नहीं है। वह जो कमा रहा है चार पैसे, वह उसे पता है। इसलिए कौड़िया हम इकट्ठी कर लेते हैं और हीरे खो देते हैं।

कृष्ण कहते हैं, वही आदमी अपने को नष्ट करने से बचा सकता है, जिसको सनातन शाश्वत का थोड़ा—सा बोध आ जाए। उसके बोध आते ही अपने भीतर भी शाश्वत का बोध आ जाता है।

जो हम बाहर देखते हैं, वही हमें भीतर दिखाई पड़ता है। जो हम भीतर देखते हैं, वही हमें बाहर दिखाई पड़ता है। बाहर और भीतर दो नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

अगर मुझे सागर की लहरों में सागर दिखाई पड़ जाए, तो मुझे मेरे मन की लहरों में मेरी आत्मा भी दिखाई पड़ जाएगी। अगर एक बच्चे के जन्म और एक बुजुर्ग की मृत्यु में लहरें मालूम पड़े और भीतर छिपे हुए जीवन की झलक मुझे आ जाए तो मुझे अपने बुढ़ापे, अपनी जवानी, अपने जन्म, अपनी मौत में भी जीवन की शाश्वतता का पता हो जाएगा। इस बोध का नाम ही दृष्टि है। और इस बोध से ही कोई परम गति को प्राप्त होता है।

और जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति से ही किए हुए देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही देखता है।

वही जो मैं आपसे कह रहा था। चाहे आप ऐसा समझें कि सब परमात्मा कर रहा है, तब भी आप अकर्ता हो जाते हैं। सांख्य कहता है, सभी कुछ प्रकृति कर रही है, तब भी आप अकर्ता हो जाते हैं।

मूल बिंदु है, अकर्ता हो जाना। नान—डुअर, आप करने वाले नहीं हैं। किसी को भी मान लें कि कौन कर रहा है, इससे फर्क नहीं पड़ता। सांख्य की दृष्टि को कृष्ण यहां प्रस्तावित कर रहे हैं।

वे कह रहे हैं, जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति से ही किए हुए देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही देखता है। और यह पुरुष जिस काल में भूतों के न्यारे—न्यारे भाव को एक परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित देखता है तथा उस परमात्मा के संकल्प से ही संपूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उस काल में सच्चिदानंदघन को प्राप्त होता है।

जो कुछ हो रहा है, जो भी कर्म हो रहे हैं, वे प्रकृति से हो रहे हैं। और जो भी भाव हो रहे हैं, वह परमात्मा से हो रहे हैं, वह पुरुष से हो रहे हैं।

पुरुष और प्रकृति दो तत्व हैं। सारे कर्म प्रकृति से हो रहे हैं और सारे भाव पुरुष से हो रहे हैं। इन दोनों को इस भांति देखते ही आपके भीतर का जो आत्यंतिक बिंदु है, वह दोनों के बाहर हो जाता है। न तो वह भोक्ता रह जाता है और न कर्ता रह जाता है, वह देखने वाला ही हो जाता है। एक तरफ देखता है प्रकृति की लीला और एक तरफ देखता है भाव की, पुरुष की लीला। और दोनों के पीछे सरक जाता है। वह तीसरा बिंदु हो जाता है, असली पुरुष हो जाता है। तो कृष्ण कहते हैं, वह सच्चिदानंदघन को प्राप्त हो जाता है।

मतलब यह है कि हमारे पास आंखें तो जरूर हैं, लेकिन अब तक हमने उनसे देखा नहीं। या जो हमने देखा है, वह देखने योग्य नहीं है। हमारे पास कान तो जरूर हैं, लेकिन हमने उनसे कुछ सुना नहीं; और जो हमने सुना है, न सुनते तो कोई हर्ज न था। चूक जाते, तो कुछ भी न चूकते। न देख पाते, न सुन पाते जो हमने सुना और देखा है, तो कोई हानि नहीं थी।

थोड़ा हिसाब लगाया करें कभी—कभी, कि जिंदगी में जो भी आपने देखा है, अगर न देखते, क्या चूक जाता? भला ताजमहल देखे हों। न देखते, तो क्या चूक जाता? और जो भी आपने सुना है, अगर न सुनते, तो क्या चूक जाता?

अगर आपके पास ऐसी कोई चीज देखने में आई हो, जो आप कहें कि उसे अगर न देखते, तो जरूर कुछ चूक जाता, और जीवन अधूरा रह जाता। और ऐसा कुछ सुना हो, कि उसे न सुना होता, तो कानों का होना व्यर्थ हो जाता। अगर कुछ ऐसा देखा और ऐसा सुना हो कि मौत भी उसे छीन न सके और मौत के क्षण में भी वह आपकी संपदा बनी रहे, तो आपने आंख का उपयोग किया, तो आपने कान का उपयोग किया, तो आपका जीवन सार्थक हुआ है।

कृष्ण कहते हैं, वही देखता है, जो इतनी बातें कर लेता है—परिवर्तन में शाश्वत को पकड़ लेता है, प्रवाह में नित्य को देख लेता है, बदलते हुए में न बदलते हुए की झलक पकड़ लेता है। वही देखता है।

कर्तृत्व प्रकृति का है। भोक्तृत्व पुरुष का है। और जो दोनों के बीच साक्षी हो जाता है। जो दोनों से अलग कर लेता है, कहता है, न मैं भोक्ता हूं और न मैं कर्ता हूं...।

सांख्य की यह दृष्टि बड़ी गहन दृष्टि है। कभी—कभी वर्ष में तीन सप्ताह के लिए छुट्टी निकाल लेनी जरूरी है।

छुट्टियां हम निकालते हैं, लेकिन हमारी छुट्टियां, जो हम रोज करते हैं, उससे भी बदतर होती हैं। हम छुट्टियों से थके—मादे लौटते हैं। और घर आकर बड़े प्रसन्न अनुभव करते हैं कि चलो, छुट्टी खत्म हुई; अपने घर लौट आए। छुट्टी है ही नहीं। हमारा जो हॉली—डे है, जो अवकाश का समय है, वह भी हमारे बाजार की दुनिया की ही दूसरी झलक है। उसमें कोई फर्क नहीं है।

लोग पहाड़ पर जाते हैं। और वहां भी रेडियो लेकर पहुंच जाते हैं। रेडियो तो घर पर ही उपलब्ध था। वह पहाड़ पर जो सूक्ष्म संगीत चल रहा है, उसे सुनने का उन्हें पता ही नहीं चलता। वहां भी जाकर रेडियो वे उसी तेज आवाज से चला देते हैं। उससे उनको तो कोई शांति नहीं मिलती, पहाड़ की शांति जरूर थोड़ी खंडित होती है। सारा उपद्रव लेकर आदमी अवकाश के दिनों में भी पहुंच जाता है जंगलों में। सारा उपद्रव लेकर! अगर उस उपद्रव में जरा भी कमी हो, तो उसको अच्छा नहीं लगता। वह सारा उपद्रव वहां जमा लेता है।

इसलिए सभी सुंदर स्थान खराब हो गए हैं। क्योंकि वहां भी होटल खड़ी करनी पड़ती है। वहां भी सारा उपद्रव वही लाना पड़ता है, जो जहां से आप छोड्कर आ रहे हैं, वही सारा उपद्रव वहा भी ले आना पड़ता है जहां आप जा रहे हैं।

अगर यह कृष्ण का सूत्र समझ में आए, तो इसका उपयोग, आप वर्ष में तीन सप्ताह के लिए अवकाश ले लें। अवकाश का मतलब है, एकांत जगह में चले जाएं। और इस भाव को गहन करें कि जो भी कर्म हो रहा है, वह प्रकृति में हो रहा है। और जो भी भाव हो रहा है, वह मन में हो रहा है। और मैं दोनों का द्रष्टा हूं मैं सिर्फ देख रहा हूं। जस्ट ए वाचर ऑन दि हिल्स, पहाड़ पर बैठा हुआ मैं सिर्फ एक साक्षी हूं। सारा कर्म और भाव का जगत नीचे रह गया। सारा भाव और कर्म मेरे चारों तरफ चल रहा है और मैं बीच में खडा हुआ देख रहा हूं। और मैं तीन सप्ताह सिर्फ देखूंगा। मैं देखने को नहीं भूलूंगा। मैं स्मरण रखूंगा उठते—बैठते, चाहे कितनी ही बार चूक जाऊं; बार—बार अपने को लौटा लूंगा और खयाल रखूंगा कि मैं सिर्फ देख रहा हूं मैं सिर्फ साक्षी हूं। मुझे कोई निर्णय नहीं लेना है, क्या बुरा, क्या भला; क्या करना, क्या नहीं करना। मैं कोई निर्णय न लूंगा। मैं सिर्फ देखता रहूंगा।

तीन सप्ताह इस पर आप प्रयोग करें, तो कृष्ण का सूत्र समझ में आएगा। तो शायद आपकी आंख से थोड़ी धूल हट जाए और आपको पहली दफा जिंदगी दिखाई पड़े। आंख से थोड़ी धूल हट जाए और आंख ताजी हो जाए। और आपको बढ़ते हुए वृक्ष में वह भी दिखाई पड़ जाए, जो भीतर छिपा है। बहती हुई नदी में वह दिखाई पड़ जाए, जो कभी नहीं बहा। चलती, सनसनाती हवाओं में वह सुनाई पड़ जाए, जो बिलकुल मौन है। सब तरफ आपको परिवर्तन के पीछे थोड़ी—सी झलक उसकी मिल सकती है, जो शाश्वत है।

लेकिन आपकी आंख पर जमी हुई धूल थोड़ी हटनी जरूरी है। उस धूल को हटाने का उपाय है, साक्षी के भाव में प्रतिष्ठा। अगर आप तीन सप्ताह अवकाश ले लें, बाजार से नहीं, कर्म से, कर्ता से; भोग से नहीं, भोक्ता से..।

भोग से भाग जाने में कोई कठिनाई नहीं है। आप अपनी पत्नी को छोड्कर भाग सकते हैं जंगल में। पत्नी भाग सकती है मंदिर में पति को छोड्कर। भोग से भागने में कोई अड़चन नहीं है, क्योंकि भोग तो बाहर है। लेकिन भोक्ता भीतर बैठा हुआ छिपा है, वह हमारा मन है। वह वहां भी भोगेगा। वह वहा भी मन में ही भोग के संसार निर्मित कर लेगा। वही रस लेने लगेगा।

वहां भीतर से मैं भोक्ता नहीं हूं भीतर से मैं कर्ता नहीं हूं ऐसी दोनों धाराओं के पीछे साक्षी छिपा है। उस साक्षी को खोदना है। उसको अगर आप खोद लें, तो आपको आंख उपलब्ध हो जाएगी। और आंख हो, तो दर्शन हो सकता है।

शास्त्र पढ़ने से नहीं होगा दर्शन, दृष्टि हो, तो दर्शन हो सकता है। शब्द सुन लेने से नहीं होगा सत्य का अनुभव; आंख हो, तो सत्य दिखाई पड़ सकता है। क्योंकि सत्य प्रकाश जैसा है। अंधे को हम कितना ही समझाएं कि प्रकाश कैसा है, हम न समझा पाएंगे। अंधे की तो आंख की चिकित्सा होनी जरूरी है।

कृष्ण कह रहे हैं, उस आदमी को मैं कहता हूं आंख वाला, जो परिवर्तन में शाश्वत को देख लेता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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