रविवार, 8 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 11 भाग 6

 पूरब और पश्‍चिम: नियति और पुरूषार्थ


यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः।

तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवायि वक्ताणि समृद्धवेगाः।। 29।।

लेलिह्यमे ग्रसमान: समन्ताल्लोकान्समग्रान्त्रदनैर्ज्वलदभि:।

तेजोभिरायर्य जगत्ममग्रं भासस्तवोग्रा: प्रतयन्ति विष्णो।। 3०।।

आख्याहि मे को भवागुग्ररूपो नमोउख ते देववर प्रसीद।

विज्ञखमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।। 31।।


अथवा जैसे पतंगा मोह के वश होकर नष्ट होने के लिए प्रज्वलित अग्नि में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं।

और आप उन संपूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रसन करते हुए सब ओर से चाट रहे हैं। हे विष्णो आपका उग्र प्रकाश संपूर्ण जगत को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपायमान करता है।

हे भगवन— कृपा करके मेरे प्रति कहिए कि आप उग्र रूप वाले कौन हैं! हे देवों में श्रेष्ठ आपको नमस्कार होवे। आप प्रसन्‍न होइए। आदिस्वरूप आपको मैं तत्व से जानना चाहता हूं क्योंकि आपकी प्रवृत्ति को मैं नहीं जानता।


अर्जुन कह रहा है, अथवा जैसे पतंग मोह के वश होकर नष्ट होने के लिए प्रज्वलित अग्नि में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश कर रहे हैं।

जैसे दीया जल रहा हो और पतंगा चक्कर लगाता है दीए के, और पास आता चला जाता है। उसके पंख भी जलने लगते हैं, तो भी हटता नहीं, और पास आता चला जाता है। लपट उसे छूने लगती है, तो भी पास आता चला जाता है। अंत में वह लपट में छलांग लगाकर जल जाता है। और ऐसा भी नहीं कि एक पतंगे को जलता देखकर दूसरे पतंगे कुछ समझ लें। वे भी चक्कर लगाते हैं, और निकट आते जाते हैं प्रकाश के। जहां भी प्रकाश हो, पतंगे प्रकाश को खोजते हैं।

अर्जुन कह रहा है, मैं ऐसे ही देख रहा हूं इन सारे लोगों को आपके इस मृत्यु रूपी मुंह में जाते हुए। वे सब भाग रहे हैं अति वेग से और एक—दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं कि कौन पहले पहुंच जाए। बड़ा वेग है। और जा कहां रहे हैं! आपके मुंह में जा रहे हैं, जहां मौत के सिवाय और कुछ भी नहीं है। यह क्या हो रहा है! ये सब महाशूरवीर, महायोद्धा, बुद्धिमान, पंडित, ज्ञानी, ये सब मृत्यु की तरफ जा रहे हैं। और इतनी साज—सजावट से जा रहे हैं कि ऐसा नहीं लगता कि इनको पता हो कि ये मृत्यु की तरफ जा रहे हैं। इतनी शान से जा रहे हैं। शोभायात्रा बना रखी है इन्होंने अपनी गति को। और जा रहे हैं, देखता हूं , आपके मुंह में, जहां मृत्यु घटित होगी।

और आप उन संपूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रसन करते हुए सब ओर से चाट रहे हैं।

और आप हैं एक कि आपकी अग्नि लपटें सब तरफ से छू रही हैं लोकों को और उनको लीले चली जा रही हैं।

हे विष्णु! आपका उग्र प्रकाश संपूर्ण जगत को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपायमान कर रहा है।

सब तप रहे हैं, जल रहे हैं, भस्म हुए जा रहे हैं।

हे भगवन्! कृपा करके मेरे प्रति कहिए कि आप उग्र रूप वाले कौन हैं?

मानने का मन नहीं होता उसका कि यह आप जो रूप दिखला रहे हैं, यह सच में आपका ही रूप है। सोचता है, कोई भ्रम पैदा कर रहे होंगे। सोचता है, कोई प्रतीक! सोचता है, मुझे कुछ धोखा दे रहे होंगे, डरवा रहे होंगे। सोचता है, मेरी परीक्षा ले रहे होंगे। यह मानने का मन नहीं करता है कि यह आप ही हैं। तो वह कहता है, यह उग्र रूप वाला कौन है? यह आप नहीं मालूम पड़ते!

हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार होवे, आप प्रसन्न होइए।

वह घबड़ा भी रहा है। बेचैन हो रहा है। और कह रहा है, आप प्रसन्न होइए।

आदिस्वरूप, आपको मैं तत्व से जानना चाहता हूं क्योंकि आपकी प्रवृत्ति को मैं नहीं जानता।

आप अपनी प्रवृत्तियां सिकोड़ लें। कि आप लोगों की मृत्यु बनते हैं, मुझे प्रयोजन नहीं। कि आप लोगों को लील जाते हैं, मुझे मतलब नहीं। कि आप लोगों को बनाते हैं, मुझे मतलब नहीं। आपकी प्रवृत्ति को हटा लें। आप क्या करते हैं, इससे मुझे प्रयोजन नहीं। आप क्या हैं, केंद्र में, इसेंस में, सार में, तत्व में, वही मैं जानना चाहता हूं। हम सब भी परमात्मा को जानना चाहते हैं, और उसकी प्रवृत्ति से बचना चाहते हैं। यह सारा संसार उसकी प्रवृत्ति है। यह सारा संसार उसका खेल है। हम इससे बचना चाहते हैं और उसे जानना चाहते हैं। वही अर्जुन कह रहा है। अर्जुन की आकांक्षा हमारी आकांक्षा है।

हम भी कहते हैं, संसार से छुडाओ प्रभु, अपने पास बुला लो। जैसे कि संसार में वह पास नहीं है! हम कहते हैं, हटाओ इस भवसागर से, इस बंधन से और अपने गले लगा लो। जैसे इस बंधन में उसी ने गले नहीं लगाया है! हम कहते हैं, कब छूटेगी यह पत्नी? कब छूटेगा यह पति? यह छुटकारा कब होगा? हे प्रभु! पास बुलाओ। जैसे कि इस पति में और पत्नी में वही मौजूद नहीं है!

अर्जुन यह कह रहा है, तुम्हारी प्रवृत्ति नहीं, तुम्हारा तत्व। मैं तो तुम्हें सारभूत जानना चाहता हूं। तुम क्या करते हो, वह मुझे मतलब नहीं है। तुम क्या हो? तुम्हारा डूइंग नहीं, तुम्हारी बीइंग। मैं तुम्हारे उस केंद्र को जानना चाहता हूं जहां कोई गति नहीं है, जहां कोई कर्म नहीं है, जहां सब शांत और मौन है। प्रवृत्ति को हटा लो।

लेकिन वह कह जरूर रहा है, लेकिन उसे पता नहीं कि वह साथ ही अपना विरोध भी कर रहा है। एक तरफ वह कहता है, हटा लो यह उग्र रूप और प्रसन्न हो जाओ। प्रसन्नता भी प्रवृत्ति है। और दूसरी तरफ वह कह रहा है कि प्रवृत्ति का मुझे कुछ पता नहीं। जानना भी नहीं चाहता। तत्व जानना चाहता हूं। प्रसन्नता तत्व नहीं है। प्रसन्नता भी कर्म है। जैसे उग्रता कर्म है, वैसे प्रसन्नता कर्म है। जैसे मृत्यु कर्म है, वैसे जीवन भी कर्म है। लेकिन हम चुनाव करते ही चले जाते हैं। वह कहता है कि प्रसन्नता, आनंदित हो जाइए। वह भी मानेगा कि शायद आनंदित होना ही तत्व है। वह भी तत्व नहीं है।

तत्व तो शून्य है। और शून्य को देखने की क्षमता बड़ी मुश्किल है। हम प्रवृत्ति को ही देख पाते हैं। शून्य को हम कहां देख पाते हैं! शून्य जब प्रवृत्ति बनता है, तभी हमारी पकड़ में आता है। नहीं तो कहां पकड़ में आता है!

 मैं यहां चुप बैठ जाऊं, तो मेरा मौन आपको पकड़ में नही आएगा। जब मेरा मौन शब्द बनता है, तब आपको सुनाई पडता है। जो मैं कहना चाहता हूं वह तो मेरे मौन में है। जब मैं उसे शब्द का रूप देता हूं तब वह आप तक पहुंचता है।

अगर आप मुझसे कहें कि ऐसा कुछ करिए कि मैं आपका मौन सुन पाऊं, तो बड़ी कठिन होगी बात। क्योंकि उसके लिए फिर आपके कान काम नहीं दे सकेंगे, वे सिर्फ शब्द सुनने को बने हैं। और उसके लिए आपकी बुद्धि भी काम नहीं दे सकेगी, क्योंकि वह भी केवल शब्द पकड़ने को बनी है। फिर तो आपको भी शून्य में ही खड़ा होना पड़े, तो ही फिर मौन से सुना जा सकता है।




लेकिन अगर आप कहें, मौन में सुनना है, तो फिर मौन होने की कला सीखनी पड़े। वह अर्जुन कह रहा है कि मैं आपको देखना चाहता हूं आपके तत्व में। लेकिन तत्व में केवल वही देख सकता है, जो स्वयं तत्व होने को राजी हो, शून्य होने को राजी हो।

शून्य होने को जो राजी है, वह इस जगत के शून्य को देख लेगा। जब तक हम शून्य होने को राजी नहीं हैं, तब तक हमें प्रवृत्ति ही दिखाई पड़ेगी। और जब तक प्रवृत्ति है, तब तक चुनाव रहेगा। हम कहेंगे, उदासी हटाओ, रुद्रता हटाओ, यह कूरता हटाओ, यह मृत्यु का उग्र रूप बंद करो। मुस्कुराओ, प्रसन्न हो जाओ। हम चुनेंगे, हमारी पसंद की प्रवृत्ति!


ध्यान रहे, इस सूत्र में थोड़ी एक बात खयाल ले लेने जैसी है। संसार को अक्सर हम कहते हैं, प्रवृत्ति का जाल। और संन्यासी को हम कहते हैं निवृत्ति, प्रवृत्ति से हट जाना। लेकिन संसार प्रवृत्ति का जाल है, यह तो सच है। और कोई कितना ही संसार से भागे, संसार के बाहर नहीं जा सकता, यह भी ध्यान रखना। जहां भी जाएं, वहीं संसार है। कहीं भी जाएं, वहीं संसार है, क्योंकि सभी तरफ प्रवृत्ति है उसकी। कहीं बाजार की प्रवृत्ति है। कहीं वृक्षों में पक्षियों की कलकलाहट है। कहीं नदी में पानी का शोर है। कहीं पहाडों का सन्नाटा है। लेकिन सब उसकी ही प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं।


प्रवृत्ति के बाहर जाने का एक ही उपाय है कि प्रवृत्ति में चुनना मत। यह मत कहना कि यह विकराल है, हटाओ, प्रसन्न को प्रकट करो। यह चुनाव बांधता है, प्रवृत्ति नहीं बांधती। और जो प्रवृत्ति में चुनाव नहीं करता, वह अचानक शून्य हो जाता है। क्योंकि चुनाव से ही भीतर का शून्य खंडित होता है। जो शून्य हो जाता है, वह उसे तत्व से जान लेता है।


अर्जुन कहता है, हे भगवन्, कृपा करके मेरे प्रति कहिए कि आप उग्र रूप वाले कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ, आपको नमस्कार होवे। आप प्रसन्न होइए। आदिस्वरूप, आपको मैं तत्व से जानना चाहता हूं। क्योंकि आपकी प्रवृत्ति को न मैं जानता हूं न आपकी प्रवृत्ति से मुझे कोई बहुत प्रयोजन है। आप क्या हैं, वही मैं जानना चाहता हूं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...