शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 14भाग 10

 अव्‍यभिचारी भक्‍ति


    मां च योऽव्‍यभिचारैण भक्तियोगेन सेवते।

स गुणान्समतींत्‍यैतान्‍ब्रह्मभयाय कल्पते।। 26।।

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।

शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।। 27।।


और जो पुरुष अव्यभिचरीं भक्तिरूप योग के द्वारा मेरे को निरंतर भजता है, वह इन तीनों गुणों को अच्‍छी प्रकार उल्लंघन करके सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिए योग्य होता है।

तथा हे अर्जुन, उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का मैं ही आश्रय हूं।


और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा मेरे को निरंतर भजता है, वह इन तीनों गुणों को अच्छी प्रकार उल्लंघन करके सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिए योग्य होता है।

तथा हे अर्जुन, उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का मैं ही आश्रय हूं।

पहली बात, जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा......।

व्यभिचार का अर्थ है, जहां मन में बहुत दिशाएं हों, जहां मन में बहुत प्रेम—पात्र हों, जहां मन में बहुत खंड हों। विभाजित मन व्यभिचारी मन है। अव्यभिचारी भक्तिरूप का अर्थ है कि मन एकजुट हो, इकट्ठा हो। एक ही धारा में बहे, एक ही दिशा की तरफ प्रवाहित हो, तो अव्यभिचारी है।

संसार में हमारा मन बहुत तरफ बह रहा है। संसार में हम सभी व्यभिचारी हैं। मन का एक हिस्सा धन के लिए दौड रहा है। मन का दूसरा हिस्सा पद के लिए दौड़ रहा है। मन का तीसरा हिस्सा यश के लिए दौड रहा है। मन का चौथा हिस्सा धर्म के लिए दौड़ रहा है। पांचवां हिस्सा कुछ और, छठवां कुछ और। आपके भीतर एक भीड़ है। और सभी अलग— अलग भागे जा रहे हैं।

इसलिए बड़ा द्वंद्व है और बडी कलह है। क्योंकि एक ही व्यक्ति को इतनी दिशाओं में भागना पड़ रहा है। जैसे एक ही बैलगाड़ी में हमने सब तरफ बैल जोत दिए हैं। आठों दिशाओं में बैल जा रहे हैं। बैलगाड़ी कहां जाए? तो जब भी कोई बैल जरा ताकत ज्यादा लगा देता है या दूसरा बैल थोडा ढीला और शिथिल होता है या विश्राम कर रहा होता है या ज्यादा ताकत पहले लगा चुका होता है और अब ताकत नहीं बचती, तो बैलगाड़ी को थोड़ी देर कोई पूरब की तरफ खींच लेता है।


लेकिन यह थोड़ी देर हो सकता है। क्योंकि जो पूरब की तरफ खींच रहा है, वह थक जाएगा खींचने में। और पश्चिम की तरफ जो बैल बंधा हुआ है, जो कि इस खिंचने में जा रहा है, वह थकेगा नहीं। वह थोड़ा ढील दे रहा है, विश्राम कर रहा है। जब उसकी ताकत इकट्ठी हो जाएगी और पूरब की तरफ ले जाने वाला बैल थक जाएगा, तब वह पश्चिम की तरफ बैलगाड़ी को खींचेगा।

ऐसे आप जिंदगीभर खिचेंगे बहुत, पहुंचेंगे कहीं भी नहीं। बैलगाड़ी आखिर में वहीं अस्थिपंजर टूटे हुए पड़ी मिलेगी, जहां शुरू में खड़ी थी।

ऐसा हमारा मन है, व्यभिचारी मन है। इसमें कभी एक बात ठीक लगती है, कभी उससे विपरीत बात ठीक लगती है। अभी धन कमा रहे हैं, और तभी कोई आ जाता है कि आप! आप जैसा यशस्वी पुरुष! आपके नाम से तो एक धर्मशाला बननी ही चाहिए।

अभी धन इकट्ठा कर रहे थे, अब यह नाम का भी मोह पकड़ता है कि एक धर्मशाला तो कम से कम होनी ही चाहिए, जिस पर एक पट्टी तो लगी हो। एक मंदिर बनवा दूं। बिरला का मंदिर है, मेरा क्यों न हो! अभी धन पकड़े था, अब यह धन खर्चा करने का काम है। यह आपके मन के विपरीत है मामला। लेकिन इससे यश मिलता है, नाम मिलता है।

अब ये मंदिर बनाएंगे। मंदिर बनाते -बनाते यह बैल थक जाएगा। और मंदिर बन भी नहीं पाएगा, उसके पहले ही आप ब्लैक मार्केटिंग और जोर से करने लगेंगे। क्योंकि वह जितना पैसा खर्च हो गया, उसको पैदा करना है। तो इधर मंदिर बन नहीं पाता कि वह आदमी जोर से और जेब काटने लगेगा; चोरी और करने लगा; स्मगलिंग करेगा। कुछ उपाय करेगा जल्दी से, ताकि यह जो मंदिर में लग गया है, इससे दस गुना पैदा कर ले।

यह चल रहा है। यह पूरे वक्त आपके मन को पकड़े हुए है। यह विभिन्न दिशाओं में दौड़ता हुआ मन व्यभिचारी मन है। और व्यभिचारी को कोई शांति नहीं। हो नहीं सकती। अव्यभिचारी इसीलिए बड़ी मूल्यवान बात है।

कृष्ण कहते हैं, जब तक कोई अव्यभिचारी- भाव से सत्य की ओर, स्वयं की ओर, सच्चिदानंदघन परमात्मा की ओर न बहे, तब तक कोई उपलब्धि नहीं है।

और ध्यान रहे, अगर आप अव्यभिचारी है, तो एक ही क्षण में भी उपलब्धि हो सकती है। क्योंकि जब सारी शक्ति एक दिशा में बहती है, तो सब बाधाएं टूट जाती हैं।

बाधाएं हैं ही नहीं। बाधाएं खड़ी हैं, क्योंकि आप बहुत दिशाओं में बह रहे हैं। इसलिए आपकी शक्ति ही इकट्ठी नहीं हो पाती, जो किसी भी दिशा में बह सके।

जैसे हम गंगा को हजार हिस्सों में बांट दें और गंगा का कोई भी हिस्सा फिर सागर तक न पहुंच पाए। सारी गंगा रेगिस्तानों में खो जाए। गंगा के लिए कोई बाधा नहीं है। लेकिन अविभाज्य धारा चाहिए। गंगा इकट्ठी हो, तो ही सागर तक पहुंच सकती है। और आप भी इकट्ठे हों, तो ही परमात्मा तक पहुंच सकते हैं।

लेकिन जैसा हमारा मन है, उसमें बड़ी तकलीफ है। उसकी पहली तकलीफ तो यह है कि वह इकट्ठा कभी भी नहीं है, एकजुट कभी भी नहीं है; खंड-खंड है, टूटा-टूटा है। और जब एक खंड कहता है, यह करो, तभी दूसरा खंड कुछ और कह रहा है कि यह मत करो। तो हम जो भी करें, उसी से पछतावा हाथ लगता है। और ! जो भी हम न करें, उसका भी पछतावा रह जाता है कि वह हमने क्यों न कर लिया।

हम दुख ही इकट्ठा करते हैं, करें तो, न करें तो। आप धन कमाए, तो दुखी होंगे। क्योंकि आप धन कमाकर पाएंगे कि इससे तो अच्छा था, मैंने ज्ञानार्जन किया होता, तो कुछ सुख तो मिलता। या इससे तो अच्छा था कि मैं किसी बड़े पद पर हो गया होता; सारी ताकत उस तरफ लगा दी होती। एक राजनेता हो गया होता। कुछ सुख तो मिलता।

राजनेता हो जाते, तो सोचते, इससे तो बेहतर था, कुछ धन ही कमा लेते। यह तो व्यर्थ की दौड़- धूप है। ज्ञान इकट्ठा कर लेते, तो कहते, क्या हुआ! शब्द ही शब्द हाथ में लग गए। कुछ मजबूत हाथ में नहीं है। कुछ सब्‍स्‍टेंशियल, कुछ सारभूत नहीं दिखता।

सभी रोते हुए दिखाई पड़ते हैं। वह जो शान इकट्ठा कर लेते हैं, वे रो रहे हैं। धन इकट्ठा कर लेते हैं, वे रो रहे हैं। पद इकट्ठा कर लेते हैं, वे रो रहे हैं। हंसता हुआ आदमी ही नहीं दिखता। जो भी दिखता है, रोता हुआ दिखता है। फिर भी, जो आप हैं, उसके लिए आप ज्यादा रोते हैं। जो आप नहीं हैं, उसका आपको अनुभव नहीं है। आप सोचते हैं, सारा जगत सुख भोग रहा है, मेरे सिवाय। मैं दुख भोग रहा हूं।



जहां भी आप हैं, वहा आप असंतुष्ट होंगे, यह व्यभिचारी मन का लक्षण होगा ही। क्योंकि कोई भी काम आप टोटल, समग्र चेतना से नहीं कर पाते हैं। और जो काम समग्र चेतना से होता है, उसी का फल आनंद है।

अगर आप गड्डा भी खोद पाएं जमीन में समग्र चेतना से, उस गड्डा खोदते वक्त आपके पूरे प्राण कुदाली बन गए हों, और मन कहीं भी न जा रहा हो, सारा मन कुदाली में प्रविष्ट कर गया हो; गड्डा खोदना ही एक क्रिया रह जाए और कहीं भी कोई दौड़ न हो, उस क्षण में आपको जो परम अनुभव होगा, वह आपको बड़ी से बड़ी प्रार्थना और पूजा और यज्ञ में नहीं हो सकता। क्योंकि आप जब प्रार्थना कर रहे हैं, तब मन हजार तरफ जा रहा है। तो वह कुदाली से जमीन खोदना प्रार्थना हो जाएगी।

प्रार्थना का एक ही अर्थ है, अव्यभिचारी चित्त की धारा। वह किसी भी तरफ जा रही हो, पर इकट्ठी जा रही हो।

जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा, अव्यभिचारी प्रेम के द्वारा मुझको निरंतर भजता है।

जिसके मन में निरंतर अंतिम की खोज का स्वर बजता रहता है।

भजने का अर्थ यह नहीं कि आप बैठकर राम-राम, राम-राम कर रहे हैं। क्योंकि आपके राम-राम करने का कोई मूल्य नहीं है। जब आप राम-राम कर रहे होते हैं, तब भीतर आप और दूसरी चीजें भी कर रहे होते हैं। धीरे- धीरे अभ्यास हो जाता है। राम-राम करते रहते हैं, और दूसरे हिसाब भी लगाते रहते हैं। राम-राम ऊपर-ऊपर चलता रहता है, जैसे कि कोई और कर रहा हो। और भीतर सब हिसाब चलते रहते हैं। तो उसका कोई मूल्य नहीं है।

भजने का अर्थ है- भजन बड़ी गहरी प्रक्रिया है-उसका अर्थ है, मेरे रोएं-रोएं में रस की तरह कोई चीज डोलती रहे। उठुं, बैठुं, चलूं, बाकी एक स्मृति सजग ही रहे कि उस परम को उपलब्ध करना है, सत्य को खोज लेना है, मुक्ति को खोज लेना है। ये कोई शब्द बनें, यह आवश्यक नहीं है। इनको कोई ऊपर के शब्दों में छिपाने की जरूरत नहीं है। यह भीतर का भाव रहे। इसलिए इसे भक्ति कहेंगे। भक्ति का अर्थ है, भाव। यह भाव बना रहे।

जैसे मां घर में काम कर रही हो, वह चौके में काम कर रही है और उसका छोटा बच्चा घूम रहा है कमरे में। वह सब काम करती रहती है, लेकिन उसका भाव बच्चे की तरफ लगा रहता है। वह कहां जा रहा है? वह क्या कर रहा है? वह गिर तो नहीं जाएगा? वह कोई गलत चीज तो नहीं खा लेगा? वह कोई चीज गिरा तो नहीं लेगा अपने ऊपर? वह सब काम करती रहेगी, लेकिन उसका अचेतन प्रवाहित रहेगा बच्चे की तरफ।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तूफान भी आ जाए, आंधिया बह रही हों, मां की नींद नहीं खुलती। लेकिन उसका बच्चा जरा-सी आवाज कर दे रात, उसकी नींद खुल जाती है। तूफान चल रहा है, उससे उसकी नींद नहीं टूटती। लेकिन बच्चे की जरा-सी आवाज, कि उसकी नींद टूट जाती है। जरूर कोई भाव गहरे में, नींद में भी सरक रहा है।

आप अपने संन्यासी को कहते हैं स्वामी और अपनी संन्यासिनी को कहते हैं मां, ऐसा क्यों? संन्यासिनी को मां क्यों और संन्यासी को स्वामी क्यों? या तो उसको भी स्वामिनी जैसा कोई शब्द दें; या संन्यासी को भी पिता क्यों नहीं?

स्टैनफोर्ड में अभी-अभी एक प्रयोग हुआ, जो बड़ा सोचने जैसा है। वह प्रयोग यह है कि जिस चीज में आपका रस होता है, उस रस के कारण आपकी आंख की जो पुतली है, वह बड़ी हो जाती है। अगर आप कोई किताब पढ़ रहे हैं, जिसमें आप बहुत ज्यादा रस पा रहे हैं, तो कमरे में बिलकुल भी कम से कम प्रकाश हो, तो भी आप पढ पाएंगे। क्योंकि आपकी आंख की पुतली बड़ी हो जाती है, आपकी जिज्ञासा के कारण, आपके रस के कारण। और अगर आपको किताब में रस नहीं है, तो कमरे में प्रकाश भी पूरा हो, तो भी आपको धुंधला- धुंधला दिखाई पड़ेगा। क्योंकि रस नहीं होता, तो आंख की पुतली छोटी हो जाती है।

आंख की पुतली चौबीस घंटे छोटी-बडी होती है। जब आप बाहर जाते हैं धूप में, तो पुतली छोटी हो जाती है, क्योंकि उतनी धूप को भीतर ले जाने की जरूरत नहीं है। कम से काम चल जाता है। जब आप बाहर से भीतर आते हैं, तो पुतली बड़ी होती है, क्योंकि अब ज्यादा रोशनी भीतर जानी चाहिए।

इसीलिए एकदम धूप से आने पर आपको कमरे में अंधेरा मालूम पड़ता है, क्योंकि पुतली छोटी रहती है। थोड़ी देर लगेगी, तब पुतली बड़ी होगी। फिर कमरे में प्रकाश हो जाएगा। आपकी पुतली बिलकुल छोटी—बड़ी होकर प्रकाश को कम—ज्यादा भीतर ले जाती है।

स्टैनफोर्ड में उन्होंने एक प्रयोग किया कि अगर पुरुषों को कोई भी चीज सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, तो नग्न स्त्री के चित्र। नग्न स्त्री का चित्र सामने आए, तो उनकी आंख की पुतली एकदम बड़ी हो जाती है।

वह उनके बस में नहीं है। आप कोशिश करके धोखा नहीं दे सकते। क्योंकि आप पुतली को कुछ नहीं कर सकते, न छोटी कर सकते हैं, न बड़ी कर सकते हैं। नंगा चित्र स्त्री का सामने आते ही पुतली एकदम बड़ी हो जाती है।

लेकिन बड़े मजे की बात है कि नंगे पुरुष का चित्र देखकर स्त्री की पुतली बड़ी नहीं होती। लेकिन एक छोटे बच्चे का चित्र देखकर एकदम बडी हो जाती है। छोटा बच्चा, और स्त्री की पुतली एकदम बड़ी हो जाती है। जैसे मां होना उसकी सहज गति है।

पुरुष की सहज गति पिता होना नहीं है, पति होना, स्वामी होना सहज गति है। तो कोई पुरुष किसी स्त्री को इसलिए विवाह नहीं करता कि पिता बनेगा। सोचता ही नहीं है। बनना पड़ता है, यह दूसरी बात है। न बने, तब तक पूरी चेष्टा करता है।

लेकिन स्त्री जब भी सोचती है, तो वह पत्नी बनने के लिए नहीं सोचती, वह मां बनने के लिए सोचती है। और जब वह किसी से प्रेम भी करती है, तो उसको जो पहला खयाल होता है वह यही होता कि इससे जो बच्चा पैदा होगा, वह कैसा होगा! उसकी जो गहरी आकांक्षा है, वह मां की है।

इसलिए मैं अपनी संन्यासिनियों को मां कहता हूं, क्योंकि वह उनकी पूर्णता का अंतिम शब्द है। और पुरुष को स्वामी कहता हूं क्योंकि पति, मालिक होना उसकी आखिरी खोज है। वह अपना जिस दिन मालिक हो जाएगा, उसकी खोज पूरी होगी। और स्त्री की खोज उसी दिन पूरी होगी, जिस दिन सारा जगत उसे बेटे की तरह मालूम पड़ने लगे, सारा अस्तित्व उसे बेटे की तरह मालूम पड़ने लगे; सारे अस्तित्व से उसमें मातृत्व जग जाए।

भाव का अर्थ है, जिस दिशा में आपकी अचेतन धारा सहज बहती है। मां, स्त्री का भाव है। स्वामित्व, पुरुष का भाव है। वह कुछ भी करे, वह चाहे धन इकट्ठा करे, तो स्वामी होना चाहता है।

बड़े पद की तलाश करे, तो स्वामी होना चाहता है। त्याग करे, तो स्वामी होना चाहता है। वह कुछ भी करे, उसकी खोज एक है कि वह मालिक हो जाए, चीजों पर उसका कब्जा हो। वह अपनी भी खोज में निकले, तो भी स्वामी होना चाहता है।

भाव हम उसको कहते हैं, जिसको आपको सोचने की जरूरत नहीं पड़ती। जो आपके अचेतन में एक पर्त की तरह सदा बना हुआ है। आप कुछ भी करें, वह मौजूद है।

अव्यभिचारी— भाव का अर्थ है, परमात्मा का खयाल, स्मृति, वह खोज की धुन आपके भीतर बजती रहे। आप कुछ भी करें, करना ऊपर—ऊपर हो, वह धुन भीतर बजती ही रहे। तो आपका सारा करना उसका भजन हो जाएगा।

और आप उसका भजन करते रहें और भीतर कोई और धुन बजती रहे, वह बेकार है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है।

आपको आपके मन में नियम को ठीक से समझ लेना चाहिए। क्या नियम है? नियम यह है कि जो ऊपर चल रहा है, वह सार्थक नहीं है। जो भीतर चल रहा है, वह सार्थक है। इसलिए परमात्मा को अगर ऊपर जोड़ दें आप, कोई मूल्य का नहीं है। भीतर जुड़ना चाहिए। एक।

दूसरा नियम यह है कि आप व्यभिचारी हैं, आप हजार चीजें खोज रहे हैं। इस हजार में परमात्मा भी हजार और एक हो जाए, तो बेकार है। क्योंकि फिर वह व्यभिचार और बढ़ा, कम नहीं हुआ। एक हजार चीजें पहले खोज रहे थे, उस लिस्ट में एक परमात्मा और जोड़ दिया!

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि परमात्मा को तुम अपने व्यभिचार की लिस्ट में न जोड़ सकोगे। तुम्हें सारी यह लिस्ट एक तरफ रख देनी पड़ेगी। और इस सारी लिस्ट की तरफ तुम्हारा जो प्राण दौड़ रहा है, वह अकेला परमात्मा की तरफ ही दौड़े।

तुम कुछ भी करो, लेकिन सब करना तुम्हारा भजन बन जाए। तुम भोजन भी करो, तो तुम्हें यह खयाल रहे कि जैसे तुम्हारे भीतर छिपा परमात्मा भोग ले रहा है। तुम स्नान करो, तो तुम्हें खयाल रहे कि तुम्हारे भीतर छिपा परमात्मा स्नान कर रहा है। तुम उठो—बैठो, तो तुम्हें खयाल रहे कि परमात्मा उठता है और बैठता है। यह धुन इतनी गहरी हो जाए कि यह अव्यभिचारी हो जाए। इसमें दूसरे का खयाल न रहे। तो ही!

जो आपकी दिखाने वाली पर्त है, उससे परमात्मा को मत जोड़ना। उससे कोई सार नहीं है। उसमें वह भी हो जाएगा, कौन—सा परमात्मा? वह जो न दिखाने वाली पर्त है, जो आंतरिक है और वास्तविक है, जहां एक ही पिता होता है, जहां बहुत पिता नहीं हो सकते, उस भीतर की धारा से उसे जोड़ना।

और जहां एक ही हो सकता है, केंद्र पर एक ही हो सकता है, परिधि पर अनेक हो सकते हैं। जैसे—जैसे चित्त अव्यभिचारी होता है, वह केंद्र पर घिर हो जाता है।

अव्यभिचार के लिए इतना जोर है, क्योंकि अव्यभिचार के माध्यम से ही तुम्हारी चेतना एक जगह बहेगी। और एक जगह बह जाए कि तुम अनंत शक्तिशाली हो—तुम ही। और अनेक जगह बह जाए, तो तुम नपुंसक हो, तुम व्यर्थ हो। तुम्हारी सब धाराएं मरुस्थल में खो जाएंगी और सागर से कभी मिलना न हो पाएगा। वह इन तीन गुणों को अच्छी प्रकार उल्लंघन करके—जो अव्यभिचारी— भाव से निरंतर परमात्मा को भजता है—वह इन तीन गुणों को अच्छी प्रकार से उल्लंघन करके सच्चिदानदघनरूप ब्रह्म में एकीभाव के योग्य हो जाता है।

तथा हे अर्जुन, उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का मैं ही आश्रय हूं।

वह जो परम आनंद है, अमृत है, परब्रह्म है, धर्म है—जो भी हम उसे नाम दें—कृष्ण कहते हैं, उन सब का मैं ही आश्रय हूं।

यह जो मैं है, इसका कृष्ण की अस्मिता से कोई संबंध नहीं है। यह कृष्ण नाम के व्यक्ति के लिए उपयोग नहीं किया गया है, यह मैं।

उस सब का आश्रय मैं हूं........।

यह आप सबके भीतर जो छिपा हुआ अंतिम मैं है, उसके लिए उपयोग किया गया है। जो—जो भी कह सकता है मैं, उस मैं की जो अंतिम धारा है, उस अंतिम धारा के लिए उपयोग किया गया है। यह कृष्ण के मैं से इसका संबंध नहीं। यह समस्त चेतनाओं में जो गहरा आत्म — भाव है, वह जो मेरे का बोध है कि मैं हूं, उस होने का नाम है।

उस होने को ही सच्चिदानंदघन ब्रह्म, अमृत, आनंद या जो भी नाम हम चुनें —मुक्ति, परमेश्वर, प्रभु का राज्य, निर्वाण, कैवल्य—जो भी नाम हम चुनें, उसका अंतिम आश्रय है, आपके भीतर वह जो मैं की आखिरी शुद्धतम अवस्था है, होना, वही छिपी है।

लेकिन उसे पाने के लिए आपको अव्यभिचारी चेतना की धारा चाहिए; ध्यान चाहिए एकजुट, एक बहाव, और एक दिशा चाहिए।

और जो भी व्यक्ति ऐसी एक धारा को उपलब्ध हो जाता है, वह तीनों गुणों के पार गुणातीत परब्रह्म के साथ एकीभाव हो जाता है। वह योग्य हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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