सोमवार, 9 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 12 भाग 2

 दो मार्ग: साकार और निराकार


ये त्‍वक्षरमनिर्दश्यमव्‍यक्‍तं यर्युयासते।

सर्वत्रगमचिन्‍त्‍यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।। 3।।

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबद्धय:।

ते प्राम्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।। 4।।


और जो पुरूष इंद्रियों के समुदाय को अच्छी प्रकार वश में करके मन— बुद्धि से परे सर्वव्यायी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्‍य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासते है, वे संपूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सब में समान भाव वाले योगी भी मेरे को ही प्राप्त होते हैं।


और जो पुरुष इंद्रियों के समुदाय को अच्छी प्रकार वश में करके मन—बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार और अविनाशी, सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासते है, वे संपूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सब में समान भाव वाले योगी भी मेरे को ही प्राप्त होते हैं।

कोई ऐसा न समझे कि भक्ति से ही पहुंचा जा सकता है। कोई ऐसा न समझे कि भक्ति के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। तो क्या दूसरे सूत्र में तत्काल कहते हैं कि वे जो भक्त हैं, और मेरे में सब भांति डूबे हुए हैं, जिनका मन सब भाति मुझमें लगा हुआ है, और जो मुझ सगुण को, साकार को निरंतर भजते हैं श्रद्धा से, वे श्रेष्ठतम योगी हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि केवल वे ही पहुंचते हैं। वे भी पहुंच जाते हैं, जो निराकार का ध्यान करते हैं। वे भी पहुंच जाते हैं, जो शून्य के साथ अपना एकीभाव करते हैं। वे भी मुझको ही उपलब्ध होते हैं। उनका मार्ग होगा दूसरा, लेकिन उनकी मंजिल मैं ही हूं। तो कोई सगुण से चले कि निर्गुण से, वह पहुंचता मुझ तक ही है।

पहुंचने को और कोई जगह नहीं है। कहां से आप चलते हैं, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। जहां आप पहुंचेंगे, वह जगह एक है। आपके यात्रा—पथ अनेक होंगे, आपके ढंग अलग—अलग होंगे। आप अलग—अलग विधियों का उपयोग करेंगे, अलग नाम लेंगे, अलग गुरुओं को चुनेंगे, अलग अवतारों को लेंगे, अलग मंदिरों में प्रवेश करेंगे, लेकिन जिस दिन घटना घटेगी, आप अचानक पाएंगे, वे सब भेद खो गए, वे सब अनेकताएं समाप्त हो गईं और आप वहा पहुंच गए हैं, जहां कोई भेद नहीं है, जहां अभेद है।

बड़ा उलटा मालूम पड़ता है। जो तर्क, चिंतन करते रहते हैं, उन्हें लगता है, दोनों बातें कैसे सही हो सकती हैं! क्योंकि निराकार और साकार तो विपरीत मालूम पड़ते हैं। सगुण और निर्गुण तो विपरीत मालूम पड़ते हैं। कितना विवाद चलता है! पंडितों ने अपने सिर खाली कर डाले हैं। अपनी जिंदगियां लगा दी हैं इस विवाद में कि सगुण ठीक है कि निर्गुण ठीक है। बड़े पंथ, बड़े संप्रदाय खड़े हो गए हैं। बड़ी झंझट है। एक—दूसरे को गलत सिद्ध करने की इतनी चेष्टा है कि करीब—करीब दोनों ही गलत हो गए हैं।

इस जमीन पर इतना जो अधर्म है, उसका कारण यह नहीं है कि नास्तिक हैं दुनिया में बहुत ज्यादा। नहीं। आस्तिकों ने एक—दूसरे को गलत सिद्ध कर—करके ऐसी हालत पैदा कर दी है कि कोई भी सही नहीं रह गया। मंदिर, मस्जिद को गलत कह देता है, मस्जिद मंदिर को गलत कह देती है। मंदिर इस खयाल से मस्जिद को गलत कहता है कि अगर मस्जिद गलत न हुई, तो मैं सही कैसे होऊंगा! मस्जिद इसलिए गलत कहती है कि अगर तुम भी सही हो, तो हमारे सही होने में कमी हो जाएगी।

लेकिन सुनने वाले पर जो परिणाम होता है, उसे लगता है कि मस्जिद भी गलत और मंदिर भी गलत। ये जो दोनों को गलत कह रहे हैं, ये दोनों गलत हैं। और यह गलती की बात इतनी प्रचारित होती है, क्योंकि दुनिया में कोई तीन सौ धर्म हैं, और एक धर्म को दो सौ निन्यानबे गलत कह रहे हैं। तो आप सोच सकते हैं कि जनता पर किसका परिणाम ज्यादा होगा! एक कहता है कि ठीक। और दो सौ निन्यानबे उसके खिलाफ हैं कि गलत। हरेक के खिलाफ दो सौ निन्यानबे हैं। इन तीन सौ ने मिलकर तीन सौ को ही गलत कर दिया है और जमीन अधार्मिक हो गई है।

ये दुनिया में तीन सौ धर्मों ने यह हालत कर दी है। एक—दूसरे ने एक—दूसरे के परमात्मा का सिर खोल दिया है। लाशें पड़ी हैं अब परमात्माओं की। और वे सब इस मजे में खोल रहे हैं कि हम तुम्हारे परमात्मा का सिर खोल रहे हैं, कोई अपने का तो नहीं!

हिंदुओं ने मुसलमानों को गलत कर दिया है; मुसलमानों ने हिंदुओं को गलत कर दिया है। साकारवादियो ने निराकारवादियो को गलत कर दिया है; निराकारवादियो ने साकारवादियो को गलत कर दिया है। बाइबिल कुरान के खिलाफ है; कुरान वेद के खिलाफ है, वेद तालमुद के खिलाफ है, तालमुद इसके। सब एक—दूसरे के खिलाफ हैं और पूरी जमीन परमात्मा की लाशो से भर गई है।

इसे थोड़ा समझें, क्योंकि तर्क के लिए बड़ी कठिनाई है। तर्क कहता है कि अगर आकार ठीक है, तो निराकार कैसे ठीक होगा? क्योंकि तर्क को लगता है कि आकार के विपरीत है निराकार। लेकिन निराकार आकार के विपरीत नहीं है। आकार में भी निराकार ही प्रकट हुआ है। और निराकार भी आकार के विपरीत नहीं है। जहां आकार लीन होता है, उस स्रोत का नाम निराकार है।

लहर के विपरीत नहीं है सागर। क्योंकि लहर में भी सागर ही प्रकट हुआ है। लहर भी सागर के विपरीत नहीं है, क्योंकि सागर से ही पैदा होती है, तो विपरीत कैसे होगी! और सागर में ही लीन होती है, तो विपरीत कैसे होगी! जो मूल है, उदगम है और जो अंत है, उसके विपरीत होने का क्या उपाय है?



निराकार और आकार विपरीत नहीं हैं। विपरीत दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि हमारे पास देखने की सीमित क्षमता है। वे विपरीत दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि देखने की हमारे पास इतनी विस्तीर्ण क्षमता नहीं है कि दो विरोधों को हम एक साथ देख लें। हमारी देखने की क्षमता तो इतनी कम है कि जिसका हिसाब नहीं।

अगर मैं आपको एक कंकड़ का छोटा—सा टुकड़ा हाथ में दे दूं और आपसे कहूं कि इसको पूरा एक साथ देख लीजिए, तो आप पूरा नहीं देख सकते। एक तरफ एक दफा दिखाई पड़ेगी। फिर उसको उलटाइए, तो दूसरी तरफ दिखाई पड़ेगी। और जब दूसरा हिस्सा दिखाई पड़ेगा, तो पहला दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा।

एक छोटे—से कंकड़ को भी हम पूरा नहीं देख सकते, तो सत्य को हम पूरा कैसे देख सकते हैं? कंकड़ तो बड़ा है, एक छोटे—से रेत के कण को भी आप पूरा नहीं देख सकते, आधा ही देख सकते हैं। आधा हमेशा ही छिपा रहेगा। और जब दूसरे आधे को देखिएगा, तो पहला आधा आख से तिरोहित हो जाएगा।

आज तक किसी आदमी ने कोई चीज पूरी नहीं देखी। बाकी आधे की हम सिर्फ कल्पना करते हैं कि होनी चाहिए। उलटाकर जब देखते हैं, तो मिलती है, लेकिन तब तक पहला आधा खो जाता है। आदमी के देखने की क्षमता इतनी संकीर्ण है!

तो हम सत्य को पूरा नहीं देख पाते हैं। सत्य के संबंध में हमारी हालत वही है, जो हाथी के पास पांच अंधों की हो गई थी। उन सबने हाथी ही देखा था, लेकिन पूरा नहीं देखा था। किसी ने हाथी का पैर देखा था; और किसी ने हाथी का कान देखा था; और किसी ने हाथी की सूंड देखी थी। और वे सब सही थे, और फिर भी सब गलत थे।

और जब वे गांव में वापस लौटकर आए, तो बड़ा उपद्रव और विवाद खड़ा हो गया। क्योंकि उन सबने हाथी देखा था, और सभी का दावा था कि हम हाथी देखकर आ रहे हैं। लेकिन किसी ने कहा कि हाथी सूप की भांति है; और किसी ने कहा कि हाथी है मंदिर के खंभे की भांति; और बडी मुश्किल खड़ी हो गई। और निर्णय कुछ भी नहीं हो सकता था, क्योंकि सभी की बातें इतनी विपरीत थीं। लेकिन वे सारी विपरीत बातें इसलिए विपरीत मालूम पड़ती थीं कि उन सबने अधूरा—अधूरा देखा था। और कोई हाथी से अगर पूछता, तो वह कहता, यह सब मैं हूं।

यह अर्जुन हाथी के सामने खड़ा है। इसलिए अगर एक ने कहा हो कि निराकार है वह, और किसी दूसरे ने कहा हो, साकार है वह। यह अर्जुन हाथी के सामने खड़ा है और हाथी से पूछ रहा है कि क्या हो तुम! तो हाथी कहता है, सब हूं मैं। वह जिसने कहा है कि सूप की भांति, वह मैं ही हूं; और जिसने कहा है, खंभे की भांति, वह मैं ही हूं। उन सब की भूल इसमें नहीं है; वे जो कहते हैं, उसमें भूल नहीं है। उनकी भूल उसमें है, जो वे इनकार करते हैं।

कोई भूल नहीं है अंधे की, अगर वह कहता है कि हाथी मैंने देखा जैसा, वह खंभे की भांति है। अगर वह इतना ही कहे कि जितना मैंने देखा है हाथी, वह खंभे की भांति है, तो जरा भी भूल नहीं है। लेकिन वह कहता है, हाथी खंभे की भांति है। और जब कोई कहता है कि हाथी खंभे की भांति नहीं है, सूप की भांति है, तो झगड़ा शुरू हो जाता है। तब वह कहता है, हाथी सूप की भांति हो नहीं सकता, क्योंकि खंभा कैसे सूप होगा!

हाथी से कोई भी नहीं पूछता! और हाथी से पूछने के लिए अंधे समर्थ नहीं हो सकते। और अगर हाथी कह दे कि मैं सब हूं तो अंधे सोचेंगे, हाथी पागल है। क्योंकि अंधे तो देख नहीं सकते हैं। ' सोचेंगे, हाथी पागल हो गया है। अन्यथा ऐसी व्यर्थ, बुद्धिहीन बात नहीं कहता। कोई अंधा उसकी मानेगा नहीं। सब अंधे अपनी मानते हैं। और जब अपनी मानते हैं, तो दूसरे के वक्तव्य को गलत करने की चेष्टा जरूरी हो जाती है। क्योंकि दूसरे का वक्तव्य स्वयं को गलत करता मालूम पड़ता है।

कृष्ण का यह सूत्र कह रहा है कि वे भी पहुंच जाते हैं, जो प्रेम से चलते हैं। और वे भी पहुंच जाते हैं, जो ज्ञान से चलते हैं। मार्ग विपरीत हैं।

ज्ञान से चलने वाले को शून्य होना पड़ता है। और प्रेम से चलने वाले को पूर्ण होना पड़ता है। लेकिन शून्यता और पूर्णता एक ही घटना के दो नाम हैं। शून्य से ज्यादा पूर्ण कोई और चीज नहीं है। और पूर्ण से ज्यादा शून्य कोई और चीज नहीं है।

हमारे लिए तकलीफ है। क्योंकि हमारे लिए शून्य का अर्थ है कुछ भी नहीं। और हमारे लिए पूर्ण का अर्थ है सब कुछ। ये हमारे देखने के ढंग, दृष्टि, हम जितना समझ सकते हैं, हमारी सीमा, उसके कारण यह अड़चन है।

लेकिन जो शून्य हो जाता है, वह तत्‍क्षण पूर्ण का अनुभव कर लेता है। और जो पूर्ण हो जाता है, वह भी तत्‍क्षण शून्य का अनुभव कर लेता है। थोड़ा—सा फर्क होता है। वह फर्क आगे—पीछे का होता है। जो शून्य होता हुआ चलता है, उसे पहले अनुभव शून्य का होता है। शून्य का अनुभव होते ही पूर्ण का द्वार खुल जाता है। जो पूर्ण की तरफ से चलता है, उसे पहले अनुभव पूर्ण का होता है। पूर्ण होते ही शून्य का द्वार खुल जाता है।

ऐसा समझ लें कि शून्यता और पूर्णता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो सिक्के का हिस्सा आपको पहले दिखाई पड़ता है, जब आप उलटाएंगे, पूरा सिक्का आपके हाथ में आएगा, तो दूसरा हिस्सा दिखाई पड़ेगा।

इसीलिए ज्ञानी पहले प्रेम से बिलकुल रिक्त होता चला जाता है और अपने को शून्य करता है। प्रेम से भी शून्य करता है, क्योंकि वह भी भरता है।

तो महावीर ने कहा है कि सब तरह के प्रेम से शून्य; सब तरह के मोह, सब तरह के राग, सबसे शून्य। इसलिए महावीर ने कह दिया कि ईश्वर भी नहीं है। क्योंकि उससे भी राग बन जाएगा, प्रेम बन जाएगा। कुछ भी नहीं है, जिससे राग बनाना है। सब संबंध तोड़ देने हैं। और प्रेम संबंध है। और अपने को बिलकुल खाली कर लेना है।

जिस दिन खाली हो गए महावीर, उस दिन जो पहली घटना घटी, वह आप जानते हैं वह क्या है! वह घटना घटी प्रेम की। इसलिए महावीर से बड़ा अहिंसक खोजना मुश्किल है। क्योंकि शून्य से चला था यह आदमी। और सब तरफ से अपने को शून्य कर लिया था। परमात्मा से भी शून्य कर लिया था। जिस दिन पहुंचा मंजिल पर, उस दिन इससे बड़ा प्रेमी खोजना मुश्किल है। यह उलटी बात हो गई।

इसलिए महावीर ने जितना जोर दिया फिर प्रेम पर—वह अहिंसा उनका नाम है प्रेम के लिए। वह ज्ञानी का शब्द है प्रेम के लिए। क्योंकि प्रेम से डर है कि कहीं आम आदमी अपने प्रेम को न समझ ले। इसलिए अहिंसा। अहिंसा का मतलब इतना ही है कि दूसरे को जरा भी दुख मत देना।

और ध्यान रहे, जो आदमी दूसरे को जरा भी दुख न दूं इसका खयाल रखता है, उस आदमी से दूसरे को सुख मिल पाता है। और जो आदमी खयाल रखता है कि दूसरे को सुख दूं वह अक्सर दुख देता है।

भूलकर भी दूसरे को सुख देने की कोशिश मत करना। वह आपकी सामर्थ्य के बाहर है। आपकी सामर्थ्य इतनी है कि आप कृपा करना, और दुख मत देना। आप दुख से बच जाएं दूसरे को देने से, तो काफी सुख देने की आपने व्यवस्था कर दी। क्योंकि जब आप कोई दुख नहीं देते, तो आप दूसरे को सुखी होने का मौका देते हैं। सुखी तो वह खुद ही हो सकता है। आप सुख नहीं दे सकते; सिर्फ अवसर जुटा सकते हैं।

सुख देने की कोशिश मत करना किसी को भी भूलकर, नहीं तो वह भी दुखी होगा और आपको भी दुखी करेगा। सुख कोई दे नहीं सकता है।

इसलिए महावीर ने नकार शब्द चुन लिया, अहिंसा। दुख भर मत देना, यही तुम्हारे प्रेम की संभावना है। इससे तुम्हारा प्रेम फैल सकेगा।

महावीर शून्य होकर चले और प्रेम पर पहुंच गए। कृष्ण पूरे के पूरे प्रेम हैं। और उनसे शून्य आदमी खोजना मुश्किल है। सारा प्रेम है, लेकिन भीतर एक गहन शून्य खड़ा हुआ है। इसलिए इस प्रेम में कहीं भी कोई बंधन निर्मित नहीं होता।

इसलिए हमने कहानी कही है कि सोलह हजार प्रेयसिया, पत्नियां हैं उनकी। और फिर भी हमने कृष्ण को मुक्त कहा है। सोलह हजार प्रेम के बंधन के बीच जो आदमी मुक्त हो सके, वह भीतर शून्य होना चाहिए; नहीं तो मुक्त नहीं हो सकेगा।

पर जैन नहीं समझ सके कृष्ण को। जैसा कि हिंदू नहीं समझ सकते महावीर को। जैन नहीं समझ सके, क्योंकि जैनों को लगा, जिसके आस—पास सोलह हजार स्त्रियां हों! एक स्त्री नरक पहुंचा देने के लिए काफी है। सोलह हजार स्त्रियां जिसके पास हों, इसके लिए बिलकुल आखिरी नरक खोजना जरूरी है। इसलिए जैनों ने कृष्ण को सातवें नरक में डाला हुआ है। क्योंकि जहां इतना प्रेम घट रहा हो, वहा बंधन हो ही गया होगा।

लेकिन उन्हें खयाल नहीं है कि यह आदमी बांधा नहीं जा सकता, क्योंकि भीतर यह आदमी है ही नहीं। यह मौजूद नहीं है। जो मौजूद हो, वह बांधा जा सकता है। अगर आप आकाश पर मुट्ठी बांधेंगे, तो मुट्ठी रह जाएगी, आकाश बाहर हो जाएगा। आकाश को अगर बांधना हो, तो हाथ खुला चाहिए। आपने बांधा कि आकाश बाहर गया।

जो शून्य की भांति है, वह बांधा नहीं जा सकता। भीतर यह आदमी शून्य है, लेकिन इसकी यात्रा प्रेम की है। इसलिए कृष्ण जैसा शून्य आदमी खोजना मुश्किल है।

आप दोनों तरफ से चल सकते हैं। अपनी—अपनी पात्रता, क्षमता, अपना निज स्वभाव पहचानना जरूरी है।

इसलिए कृष्ण ने कहा कि वे जो दूसरी तरफ से चलते हैं—निराकार, अद्वैत, निर्गुण, शून्य—वे भी मुझ पर ही पहुंच जाते हैं।

तब सवाल यह नहीं है कि आप कौन—सा मार्ग चुनें। सवाल यह है कि आप किस मार्ग के अनुकूल अपने को पाते हैं। आप कहां हैं? कैसे हैं? आपका व्यक्तित्व, आपका ढांचा, आपकी बनावट, आपके निजी झुकाव कैसे हैं?

एक बड़ा खतरा है, और सभी साधकों को सामना करना पड़ता है। और वह खतरा यह है कि अक्सर आपको अपने से विपरीत स्वभाव वाला व्यक्ति आकर्षक मालूम होता है। यह खतरा है। इसलिए गुरुओं के पास अक्सर उनके विपरीत चेले इकट्ठे हो जाते हैं। क्योंकि जो विपरीत है, वह आकर्षित करता है। जैसे पुरुष को स्त्री आकर्षित करती है; स्त्री को पुरुष आकर्षित करता है।

आप ध्यान रखें, यह विपरीत का आकर्षण सब जगह है। अगर आप लोभी हैं, तो आप किसी त्यागी गुरु से आकर्षित होंगे। फौरन आप कोई त्यागी गुरु को पकड़ लेंगे। क्यों? क्योंकि आपको लगेगा कि मैं एक पैसा नहीं छोड़ सकता और इसने सब छोड़ दिया! बस, चमत्कार है। आप इसके पैर पकड लेंगे। तो त्यागियों के पास अक्सर लोभी इकट्ठे हो जाएंगे। यह बड़ी उलटी घटना है, लेकिन घटती है।

अगर आप क्रोधी हैं, तो आप किसी अक्रोधी गुरु की तलाश करेंगे। आपको जरा—सा भी उसमें क्रोध दिख जाए, आपका विश्वास खतम हो जाएगा। क्योंकि आपका अपने में तो विश्वास है नहीं; आप अपने दुश्मन हैं; और यह आदमी भी क्रोध कर रहा है, तो आप ही जैसा है; बात खतम हो गई।

जिस दिन आपको पता चलता है कि गुरु आप जैसा है, गुरु खतम। वह आपसे विपरीत होना चाहिए। अगर आप स्त्रियों के पीछे भागते रहते हैं, तो गुरु को बिलकुल स्त्री पास भी नहीं फड़कने देनी चाहिए; उसके शिष्य चिल्लाते रहने चाहिए कि छू मत लेना, कोई स्त्री छू न ले। तब आपको जंचेगा कि हौ, यह गुरु ठीक है। सब अपने दुश्मन हैं, इसलिए अपने से विपरीत को चुन लेते हैं। फिर बड़ा खतरा है। क्योंकि अपने से विपरीत को चुन तो लेते हैं आप, आकर्षित तो होते हैं, लेकिन उस मार्ग पर आप चल नहीं सकते हैं। क्योंकि जो आपके विपरीत है, वह आप हो नहीं सकते। इसलिए अक्सर चेले कहीं भी नहीं पहुंच पाते।

साधक को पहली बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मेरी स्थिति क्या है? मैं किस ढंग का हूं? मेरा ढंग ही मेरा मार्ग बनेगा।

तो बेहतर तो यह है कि अपनी स्थिति को ठीक से समझकर और यात्रा पर चलना चाहिए। गुरु को समझकर यात्रा पर चलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अपने को समझकर गुरु खोजना चाहिए। गुरु खोजकर पीछा नहीं करना चाहिए। जो अपने को समझकर गुरु खोज लेता है, मार्ग खोज लेता है, जो अपने स्वधर्म को पहचान लेता है...।

समझ लें कि आपको प्रेम का कोई अनुभव ही नहीं होता। बहुत लोग हैं, जिनको अनुभव नहीं होता। मगर सबको यह खयाल रहता है कि मैं प्रेम करता हूं। तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। अगर आपको प्रेम का कोई अनुभव ही नहीं होता है, तो भक्ति का मार्ग आपके लिए नहीं है। अगर प्रेम करने वाले आपको पागल मालूम पड़ते हैं, तो भक्ति का मार्ग आपके लिए नहीं है।

कभी आपने सोचा कि अगर मीरा आपको बाजार में नाचती हुई मिल जाए, तो आपके मन पर क्या छाप पड़ेगी?

इसको ऐसा सोचिए कि अगर आप बाजार में नाच रहे हों कृष्ण का नाम लेकर, तो आपको आनंद आएगा या आपको फिक्र लगेगी कि कोई अब पुलिस में खबर करता है! लोग क्या सोच रहे होंगे? लोक—लाज, मीरा ने कहा है, छोड़ी तेरे लिए। वह लोक—लाज छोड़ सकेंगे आप?

प्रेम का कोई अनुभव आपको अगर हुआ हो और वह अनुभव आपको इतना कीमती मालूम पड़ता हो कि सब खोया जा सकता है, तो ही भक्ति का मार्ग आपके लिए है।

और कुनकुने भक्त होने से न होना अच्छा। ल्‍यूक वार्म होने से कुछ नहीं होता दुनिया में। उबलना चाहिए तो ही भाप बनता है पानी। और जब तक आपकी भक्ति भी उबलती हुई न हो, कुनकुनी हो, तब तक सिर्फ बुखार मालूम पड़ेगा, कोई फायदा नहीं होगा। बुखार से तो न—बुखार अच्छा। अपना नार्मल टेम्प्रेचर ठीक। क्योंकि बुखार गलत चीज है; उससे परिवर्तन भी नहीं होता, और उपद्रव भी हो जाता है।

और ध्यान रहे, परिवर्तन हमेशा छोर पर होता है। जब पानी उबलता है सौ डिग्री पर, तब भाप बनता है। और जब प्रेम भी उबलता है सौ डिग्री पर, जब बिलकुल दीवाना हो जाता है, तो ही मार्ग खुलता है। उससे पहले नहीं।

अगर वह आपका झुकाव न हो, तो उस झंझट में पड़ना ही मत। तो फिर बेहतर है कि आप प्रेम का खयाल न करके, ध्यान का खयाल करना। फिर किसी परमात्मा से अपने को भरना है, इसकी फिक्र छोड़ देना। फिर तो सब चीजों से अपने को खाली कर लेना है, इसकी आप चिंता करना। वही आपके लिए उचित होगा। फिर एक—एक विचार को धीरे—धीरे भीतर से बाहर फेंकना। और भीतर साक्षी— भाव को जन्माना। और एक ही ध्यान रह जाए कि उस क्षण को मैं पा लूं जब मेरे भीतर कोई चिंतन की धारा न हो, कोई विचार न हो।

जब मेरे भीतर निर्विचार हो जाएगा, तो मेरा निराकार से मिलन हो जाएगा। और जब मेरे भीतर प्रेम ही प्रेम रह जाएगा—उन्मत्त प्रेम, विक्षिप्त प्रेम, उबलता हुआ प्रेम—तब मेरा सगुण से मिलन हो जाएगा।

अपना निज रुझान खोजकर जो चलता है, और उसको उसकी पूर्णता तक पहुंचा देता है...। आप ही हैं द्वार; आप ही हैं मार्ग; आप में ही छिपी है मंजिल। थोड़ी समझ अपने प्रति लगाएं और थोड़ा अपना निरीक्षण करें और अपने को पहचानें, तो जो बहुत कठिन दिखाई पड़ता है, वह उतना ही सरल हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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