सोमवार, 9 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 11 भाग 10

 मनुष्‍य बीज है परमात्‍मा का 


  अदृष्‍टपूर्व हषितोउस्‍मि दष्टवा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।

तदेव मे दर्शय देवरूयं प्रसीद देवेश जगन्निवास।। 45।।

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रकुमहं तथैव।

तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहसबाहो भव विश्वमूर्ते।। 46।।


श्रीभगवानुवाच:


मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।

तेजोमय विश्वमनन्तमाद्य यन्धे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।। 47।।

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न न क्रियाभिर्न तयोभिरुग्रै।

एवंरूक शक्य अहं नृलोके द्रझुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।। 48।।


हे विश्वमूर्ते मैं पहले न देखे हुए आश्चर्यमय आपके इस रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूं और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है। इसलिए हे देव आप उस अपने चतुर्भुज रूप को ही मेरे लिए दिखाइए। हे देवेश हे जगन्निवास प्रसन्न होइए।

और हे विष्णो मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूं। इसलिए हे विश्वरूप हे सहस्त्रबाहो आप उस ही चतुर्भुज रूप से युक्त होइए।

इस प्रकार अर्जुन की प्रार्थना को सुनकर श्रीकृष्ण भगवान बोले हे अर्जुन अनुग्रहपूर्वक मैने अपनी योगशक्ति के प्रभाव से यह मेरा परम तेजोमय सबका आदि और सीमारहित विराट रूप तेरे को दिखाया है जो कि तेरे सिवाय दूसरे से पहले नहीं देखा गया।

हे अर्जुन मनुष्य— लोक में इस प्रकार विश्वरूप वाला मैं न वेद के अध्ययन से न यज्ञ से तथा न दान से और न क्रियाओं से और न उग्र तपो से ही तेरे सिवाय दूसरे से देखा जाने को शक्य है।



हे विश्वमूतें! मैं पहले न देखे हुए आश्चर्यमय आपके इस रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूं। और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है। इसलिए हे देव! आप उस अपने चतुर्भुज रूप को ही मेरे लिए दिखाइए। हे देवेश! हे जगन्निवास! प्रसन्न होइए।

पहले न देखे हुए आश्चर्यमय आपके इस रूप को देखकर हर्षित भी हो रहा हूं। और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है। अर्जुन बड़ी दुविधा में है। दोहरी बातें एक साथ हो रही हैं।

हंसना और रोना एक साथ जब घटित हो, तो हम आदमी को पागल कहते हैं। क्योंकि सिर्फ पागल ही हंसते और रोते एक साथ हैं। क्योंकि हम तो बांट लेते हैं समय में चीजों को। जब हम रोते हैं, तो रोते हैं; जब हंसते हैं, तो हंसते हैं। दोनों साथ—साथ नहीं करते। लेकिन जब कोई बहुत परम अनुभव घटित होता है, जिससे जिंदगी दो हिस्सों में बंट जाती है; पिछली जिंदगी अलग हो जाती है और आने वाली जिंदगी अलग हो जाती है; हम एक चौराहे पर खडे हो जाते हैं। जहां पीछा भी दिखाई पड़ता है, आगा भी। और जहां दोनों बिलकुल भिन्न हो जाते हैं, और दोनों के बीच कोई संबंध भी नहीं रह जाता। वहा दोहरी बातें एक साथ घट जाती हैं।

तो अर्जुन को हर्षित होना भी हो रहा है, भयभीत होना भी हो रहा, है। वह प्रसन्न भी है, जो उसने देखा। अहोभाग्य उसका। और वह घबड़ा भी गया है, जो उसने देखा। इतना विराट है, जो उसने देखा, कि वह कांप रहा है।

अपनी क्षुद्रता का भी अनुभव तभी होता है, जब हम विराट के सामने होते हैं। नहीं तो अपनी क्षुद्रता का भी अनुभव कैसे हो? हमको किसी को भी अपनी क्षुद्रता का अनुभव नहीं होता, क्योंकि मापदंड कहां है जिससे हम तौलें कि हम क्षुद्र हैं?

जो मेंढक अपने कुएं के बाहर ही न गया हो, उसे कुआ सागर दिखाई पड़े तो कुछ गलत तो नहीं है, बिलकुल तर्कयुक्त है। तो मेंढक जब सागर के किनारे जाएगा, तभी अड़चन आएगी। कहते हैं न कि ऊंट जब तक पर्वत के पास न पहुंचे, तब तक अड़चन नहीं होती। क्योंकि तब तक वह खुद ही पर्वत होता है। पर्वत के करीब पहुंचकर पहली दफा तुलना पैदा होती है।

अर्जुन की घबड़ाहट तुलना की घबड़ाहट है। पहली दफा बूंद सागर के निकट है। पहली दफा ना—कुछ सब कुछ के सामने खड़ा है। पहली दफा सीमा असीम से मिल रही है। तो घबड़ाहट है। जैसे नदी सागर में गिरती है तो घबडाती होगी। अतीत में, अनजान में, अपरिचित में प्रवेश हो रहा है। और ओर—छोर मिट जाएंगे, नदी खो जाएगी!।

यह अर्जुन ऐसी ही हालत में खड़ा है, जहां मिट जाएगा पूरा। रत्ती भी नहीं बचेगी। और अब तक अपने को जो समझा था, वह कुछ भी नहीं साबित हुआ, क्षुद्र निकला। और विराट सामने खड़ा है। इसलिए भयभीत भी हो रहा है और हर्षित भी हो रहा है।

नदी जब सागर में गिरती है, तो अतीत खो रहा है, इससे भयभीत भी होती होगी; और अज्ञात मिल रहा है, इससे हर्षित भी होती होगी। तो नदी नाचती हुई गिरती है। उसके पैर में भय का कंपन भी होता होगा और आनंद की पुलक भी होती है, क्योंकि अब विराट से एक होने जा रही है।

अर्जुन कह रहा है, हर्षित भी हो रहा हूं और मेरा मन अति भय से व्याकुल भी हो रहा है। इसलिए हे देव! आप अपने चतुर्भुज रूप को ही ले लें। हे देवेश! हे जगन्निवास! प्रसन्न हो जाएं, वापस लौट आएं। सीमा में खड़े हो जाएं। असीम को तिरोहित कर लें। इस असीम से मन कंपता है।

और हे विष्णो! मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूं। इसलिए हे विश्वरूप! हे सहस्रबाहो! आप उसी चतुर्भुज रूप से युक्त हो जाइए।

यहां मन की एक और गतिविधि समझ लेनी चाहिए।

जो न हो, मन उसकी मांग करता है। जो मिल जाए, तो जो नहीं हो जाता है, मन उसकी मांग करने लगता है।

अर्जुन खुद ही कहा था कि मुझे दिखाओ अपना विराट रूप, असीम हो जाओ। अब तो मैं देखना चाहता हूं; अनुभव करना चाहता हूं। अब सीमा से मेरी तृप्ति नहीं है। अब तो मैं पूरा का पूरा जैसे तुम हो अपने नग्न सत्य में, वैसे ही निर्वस्त्र, तुम्हें तुम्हारी पूरी नग्नता में, सत्यता में देख लेना चाहता हूं। यही अर्जुन की मांग थी, यह उसकी ही प्रार्थना थी। और अब देखकर वह कह रहा है,वापस लौट आओ; अपने पुराने रूप में खड़े हो जाओ। अब तो वही ठीक है। तुम्हारा चार हाथों वाला वह रूप, उसी में तुम वापस आ जाओ। प्रसन्न हो जाओ।

जो खो जाता है, हम उसकी मांग करने लगते हैं। जो मिल जाता है, वह हमें व्यर्थ दिखाई पड़ने लगता है। कुछ भी मिल जाए, तो हमें डर लगता है। पीछे लौटना चाहते हैं, आगे जाना चाहते हैं। मगर जो मिल जाए, उसके साथ राजी रहने की हमारी हिम्मत नहीं है।

अर्जुन की भी यही हालत है। वह दरवाजे के भीतर घुस गए; उन्होंने कुंडी बजा दी। अब परमात्मा मिल गया, अब वे कह रहे हैं कि नहीं, वापस! फिर मुझे खोजने दो। फिर तुम अपनी सीमा में खड़े हो जाओ, ताकि फिर मैं असीम को खोजूं। अब तुम फिर मुस्कुराओ। अब तुम फिर गदा हाथ में ले लो। अब तुम चतुर्भुज हो जाओ। तुम वही हो जाओ! क्योंकि तुम तो मुझे मिटाए दे रहे हो। अब मेरा कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।

ध्यान रहे, बोर्डम के लिए बुद्धि जरूरी है। बुद्धि के नीचे भी बोर्डम पैदा नहीं होती, बुद्धि के ऊपर भी बोर्डम पैदा नहीं होती। आपने किसी गाय— भैंस को बोर होते हुए देखा है? कि भैंस बैठी है, बोर हो गई! कि बहुत ऊब गई! वही घास रोज चर रही है। वही सब रोज चल रहा है। भैंस को कोई ऊब नहीं है। क्यों?

क्योंकि ऊब पैदा होती है बुद्धि के साथ। बुद्धि तुलना करने लगती है—जो था, जो है, जो होगा—इसमें। तौलने लगती है, तो फिर भेद अनुभव होने लगता है। फिर कल भी यही भोजन मिला, आज भी यही मिला, परसों भी यही मिला, तो ऊब पैदा होने लगती है। भैंस को पता ही नहीं कि कल भी यही भोजन किया था। कल समाप्त हो गया। कल तो बुद्धि संगृहीत करती है, बुद्धि स्मृति बनाती है। भैंस जो भोजन कर रही है, वह नया ही है। कल जो किया था, वह तो खो ही गया, उसका कोई स्मरण ही नहीं है। कल जो होगा, उसकी कोई खबर नहीं है; आज काफी है।

इसलिए बुद्धि के नीचे भी बोर्डम नहीं है। कोई जानवर ऊबा हुआ नहीं है। जानवर बड़े प्रसन्न हैं। कोई आदमी के पार गया आदमी, बुद्ध, महावीर, ऊबे हुए नहीं हैं। उनकी प्रसन्नता फिर प्रसन्नता है। क्योंकि जो बुद्धि हिसाब रखती थी, उसको वे पीछे छोड़ आए।

आदमी परेशान है, जो भैंस और भगवान के बीच में है। उसकी बड़ी तकलीफ है, वह ऊबा हुआ है। आदमी का अगर एकमात्र लक्षण, जो जानवर से उसे अलग करता है, कोई खोजा जाए, तो वह बोर्डम है, ऊब है। हर चीज से ऊब जाता है।

एक सुंदर स्त्री के पीछे दीवाना है, मिली नहीं, मिल  गई तो स्त्री से ऊब शुरू हो गई! दो—चार दिन में ऊब जाएगा। सब सौंदर्य बासा पड़ जाएगा, पुराना पड़ जाएगा। एक अच्छे मकान की तलाश है; मिला नहीं कि दो—चार—आठ दिन में सब बासा हो जाएगा। एक अच्छी कार चाहिए; वह मिल गई। दो—चार—आठ दिन में बासी हो जाएगी। दूसरी कार नजर को पकड़ने लगेगी।

बुद्धि तौलती है, ऊबती है। बुद्धि के नीचे भी ऊब नहीं, बुद्धि के पार भी नहीं।

यह अर्जुन ऐसी ही दिक्कत में पड़ा है। इसको दिखाई पड़ रहा है विराट। अब इसको याद आता है कृष्‍ण का वह प्यारा मुख, जिससे मित्रता हो सकती थी, जिसके कंधे पर हाथ रखा जा सकता था जिसे कहा जा सकता था, हे यादव, हे कृष्‍ण, अरे सखा! जिससे मजाक की जा सकती थी। उसको पकड़ने का मन होता है।

सारी दुनिया में यह बात विचारणीय बनी रही है कि आखिर भारत में हिंदुओं ने परमात्मा की इतनी साकार मूर्तियां क्यों निर्मित कीं? इतनी निराकार की बात करने के बाद इतनी साकार मूर्तियां क्यों निर्मित कीं? मुसलमानों को कभी समझ में नहीं आ सका कि उपनिषद की इतनी ऊंचाई पर पहुंचकर भारत, जहां परम निराकार की बात है, फिर क्यों गांव—गांव, घर—घर में मूर्ति की पूजा कर रहा है?

इस मुल्क ने निराकार को देखा है। और जिन्होंने इस मुल्क में निराकार को देखा है, उन्होंने अपने पीछे आने वालों के लिए साकार मूर्तियां बना दीं। क्योंकि उन्हें पता है कि निराकार बहुत घबड़ा देता है, अगर बिना तैयारी के कोई वहां पहुंच जाए। उसमें मिटने की तैयारी चाहिए। उसके पहले साकार ही ठीक है। उसके कंधे पर हाथ रखा जा सकता है। उसका शादी—विवाह रचाया जा सकता है। उसको कपड़े—गहने पहनाए जा सकते हैं। वह कुछ गड़बड़ नहीं करता। उसके साथ तुम्हें जो करना हो, तुम कर सकते हो। भोजन करवाओ तो करवाओ! लिटाओ तो लिटाओ। सुला दो। उठा दो। द्वार बंद कर दो, खोल दो। जो करना हो!

परमात्मा को जिन्होंने विराट में झांका है, उन्होंने आदमी के लिए मूर्तियां निर्मित करवा दी हैं। क्योंकि उन्हें पता चल गया कि आदमी जैसा है, अगर ऐसा ही सीधा विराट में खड़ा हो जाए, तो या तो विक्षिप्त हो जाएगा, घबड़ा जाएगा, और या फिर खड़ा ही नहीं हो पाएगा; देख ही नहीं पाएगा; आंख ही नहीं खुलेगी।

इसलिए निराकार का इतना चिंतन करने वाले लोगों ने भी साकार को हटाया नहीं, साकार को बने रहने दिया।

कभी—कभी बहुत कंट्राडिक्टरी लगता है। शंकराचार्य जैसा व्यक्ति, जो शुद्ध निराकार की बात करता है, फिर वह भी मूर्ति के सामने नाचता है, कीर्तन करता है! वह भी गीत गाता है मूर्ति के सामने! बड़ी कठिन बात मालूम पड़ती है। क्योंकि पश्चिम में जो लोग वेदांत का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं, यह कंट्राडिक्टरी है।

यह शंकर के व्यक्तित्व में बड़ा विरोधाभास है। एक तरफ तो वेदांत की इतनी ऊंची बात कि सब माया है। और फिर इसी माया, मिट्टी के बने हुए भगवान के सामने गीत गाना और नाचना और तल्लीन हो जाना!

शंकर को तो पता है, जो उन्हें दिखाई पड़ा है। लेकिन उनके पीछे जो लोग आ रहे हैं, अब वे उनके संबंध में भी समझ सकते हैं। कि जो शंकर को दिखाई पड़ा है, यह अगर किसी को आकस्मिक रूप से दिखाई पड़ जाए, कहीं कोने से टूट पड़े कोई धारा और इसका अनुभव हो जाए, तो झेलना मुश्किल हो जाएगा। वह इम्पैक्ट, वह आघात तोड़ जाएगा।

इसलिए मूर्ति को रहने दो, जब तक कि अमूर्ति के लिए तैयार न हो जाए व्यक्ति। तब तक चलने दो उसे अपने खेल—खिलौनों के साथ, जब तक कि वह इतना प्रौढ़ न हो जाए कि सब छोड़ दे।

यह अर्जुन यही मांग कर रहा है कि तुम मूर्त बन जाओ, अमूर्त नहीं। और तुम्हारी मूर्ति वापस ले आओ।

इस प्रकार अर्जुन की प्रार्थना को सुनकर, कृष्‍ण बोले, हे अर्जुन! अनुग्रहपूर्वक मैंने अपनी योगशक्ति के प्रभाव से यह मेरा परम तेजोमय, सबका आदि और सीमारहित विराट रूप तुझे दिखाया, जो कि तेरे सिवाय दूसरे से पहले नहीं देखा गया।

यह बड़ा उपद्रव का वचन है। क्योंकि इसमें बड़ी उलझनें हैं। जो लोग गीता में गहन चिंतन करते हैं, मनन करते हैं, उनको बड़ी कठिनाई होती है। तेरे सिवाय दूसरे से पहले नहीं देखा गया, इसका क्या मतलब है? क्या अर्जुन पहला अनुभवी है, जिसने परमात्मा का विराट रूप देखा? यह बात तो उचित नहीं मालूम पड़ती। अनंत काल से आदमी है, अनंत सिद्धपुरुष हुए हैं, अनंत जाग्रत चेतनाएं हुई हैं। क्या अर्जुन पहला आदमी है?

यह अर्थ नहीं हो सकता इस वाक्य का। इस वाक्य का केवल एक ही अर्थ है और वह यह कि कृष्‍ण के द्वारा यह रूप अर्जुन को दिखाया गया, यह पहली घटना है कृष्ण के द्वारा।

मैंने पीछे कहा कि अगर कोई अर्जुन बनने को तैयार हो, तो यह विराट दिखाया जा सकता है। 

एक को ही दिखा पाए। और यही पहला भी था और यही आखिरी भी। क्‍योंकि अर्जुन जैसा समर्पण अति कठिन। उतना सहज— भाव से छोड़ देना गुरु के हाथों में अति कठिन है— उतना निस्संदेह, उतनी पूर्ण श्रद्धा से, उतने समग्र भाव से। यही अर्थ है इस सूत्र का कि तेरे सिवाय दूसरे से पहले नहीं देखा गया है।

कृष्‍ण के संबंध में यह बात सच है कि कृष्ण ने इस रूप में, कृष्ण के रूप में जिसे दिखाया, वह अकेला अर्जुन है। और यह पहला कहा है उन्होंने। लेकिन बाद में भी किसी दूसरे को नहीं दिखाया है। यह आखिरी भी है।

अर्जुन पाना अति कठिन है। इसे थोड़ा सोच लें।

कृष्‍ण हो जाना इतना कठिन नहीं है, जितना अर्जुन पाना कठिन है। जब मैं ऐसा कहूंगा, तो आपको थोड़ी अड़चन मालूम पड़ेगी। कृष्‍ण हो जाना इतना कठिन नहीं है, जितना अर्जुन होना कठिन है। बुद्ध कृष्‍ण हो जाते हैं, महावीर कृष्ण हो जाते हैं, लेकिन अर्जुन होना बड़ा कठिन है। क्योंकि कृष्‍ण होना तो स्वयं पर स्वयं की श्रद्धा से होता है। अर्जुन होना स्वयं की दूसरे पर श्रद्धा से होता है, जो बड़ी जटिल बात है।


स्वयं पर भरोसा रखना तो इतना कठिन नहीं है। क्योंकि हमारा भरोसा स्वयं पर होता ही है थोड़ा कम—ज्यादा। यह बढ़ जाए, जिस दिन आदमी अपने में पूरे भरोसे से भर जाता है, उस दिन कृष्ण की घटना घट जाती है। यह तो सहज है, क्योंकि एक ही आदमी की बात है, अपने पर ही भरोसा करना है। लेकिन अर्जुन होना अति कठिन है, क्योंकि दूसरे पर ऐसे भरोसा करना है कि जैसे वह मेरी आत्मा है और मैं उसकी परिधि हूं।

इसलिए अर्जुन को खोजना कृष्ण को भी मुश्किल पड़ा है। एक अर्जुन कृष्‍ण को उपलब्ध हुआ है। राम को कभी कोई ऐसा अर्जुन उपलब्ध हुआ, पता नहीं। बुद्ध को कभी कोई ऐसा अर्जुन उपलब्ध हुआ, पता नहीं। जीसस को कभी कोई ऐसा अर्जुन उपलब्ध हुआ, पता नहीं। उनके पास भी बहुत लोगों को घटनाएं घटी हैं, लेकिन अर्जुन जैसी विराट अनुभव की घटना नहीं घटी।

तो कृष्‍ण का यह कहना इस अर्थ में सार्थक है कि इस प्रकार का समर्पण मुश्किल है, अति दूभर है। और इस प्रकार का समर्पण हो, तो ही यह घटना घट सकती है।

हे अर्जुन! मनुष्य—लोक में इस प्रकार विश्वरूप वाला मैं न वेद के अध्ययन से, न यज्ञों के करने से, न दान से, न क्रियाओं से, न उग्र तपो से ही तेरे सिवाय दूसरे से देखे जाने योग्य शक्य हूं।

यह बड़ी गहरी और महत्वपूर्ण बात कही है।

कहा है कि वेद के अध्ययन से भी यह नहीं होगा। यज्ञों के करने से भी यह नहीं होगा। दान से भी नहीं होगा। क्रियाओं से योग की भी नहीं होगा। उग्र तपो से भी यह नहीं होगा। क्यों नहीं होगा? वेद के अध्ययन से क्यों नहीं होगा? क्यों, यज्ञ कोई साधेगा, तो नहीं होगा? क्यों नहीं योग की क्रियाएं इस स्थिति में ले जाएंगी?

यह नहीं होगा इसलिए कि वेद का अध्ययन हो, या यज्ञ हो, या योग की साधना हो, ये सारी की सारी प्रक्रियाएं स्वयं पर भरोसे से होती हैं। इनमें व्यक्ति अपना ही केंद्र होता है। ये समर्पण के प्रयोग नहीं हैं। ये सब संकल्प के प्रयोग हैं। और अर्जुन की घटना समर्पण से घटेगी, संकल्प से नहीं।

कोई कितना ही योग साधे, वह अर्जुन नहीं बन पाएगा, कृष्‍ण बन सकता है। इसे थोड़ा समझ लेना।

कितना ही योग साधे, कृष्‍ण बन सकता है। इसलिए हम कृष्ण को महायोगी कहते हैं। वह बुद्ध बन सकता है। क्योंकि संकल्प अगर इस जगह पहुंच जाए कि मैं अपने भीतर प्रवेश करता जाऊं अपनी ही शक्ति से, तो एक दिन उस बिंदु का अनावरण कर लूंगा, जो मुझमें छिपा है। लेकिन तब मैं अर्जुन नहीं रहूंगा, मैं कृष्ण हो जाऊंगा।

अर्जुन दूसरी ही प्रक्रिया है। वह संकल्प नहीं, समर्पण है। वहां स्वयं खोज नहीं करनी, जिसने खोज लिया है, उसके चरणों में अपने को छोड़ देना है। तो अर्जुन है, मीरा है, चैतन्य हैं, इनकी पकड़ दूसरी है; यह दूसरा उपाय है।

जगत में दो तरह के मन हैं। एक, जो संकल्प से पाएंगे परमात्मा को। दूसरे, जो समर्पण से पाएंगे परमात्मा को। समर्पण में अपने को बिलकुल छोड़ देना है।


कृष्‍ण की हवा है, अर्जुन ने तो सिर्फ नाव के पाल खोल दिए। अर्जुन खुद नहीं चला रहा है नाव को। हवा कृष्ण की है।

बुद्ध खुद चला रहे हैं। पाल वगैरह नहीं हैं उनकी नाव पर। और पाल वगैरह वे पसंद भी नहीं करते। मरते वक्त बुद्ध ने आनंद को कहा है, अपने पर ही भरोसा रखना, किसी और पर नहीं।

स्वभावत:, जिसने नदी को नाव को खेकर पार किया हो पतवारों से, वही कहेगा।

एक है समर्पण, कि छोड़ दो नाव उस पर, अनुकूल हवाओं के लिए। वह ले जाए पार या डुबा दे, तो भी समझना कि वही किनारा है। या खुद अपने ही बल से नदी को पार कर लेना।

इसलिए कृष्‍ण कहते हैं, न वेद के अध्ययन से, न यज्ञ के अनुष्ठान से, न योग की क्रिया से, न उग्र तपश्चर्या से यह होता है अर्जुन, जो तुझे हुआ है। यह समर्पण से होता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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