सोमवार, 9 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 12 भाग 3

 पाप और प्रार्थना


 क्लेशोऽम्मितरस्लेशमस्थ्यासक्लचेतसाम्।

अव्‍यक्‍ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्‍यते ।। 5।।

ये तु सवींणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्‍परा:।

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।। 6।।


किंतु उन सच्चिदानंदघन निरस्कार ब्रह्म में आसक्‍त हुए चित्त वाले पुरुषों के साधन में क्लेश अर्थात परिश्रम विशेष है, क्योंकि देहाभिमानियों से अव्यक्त विषयक गति दुखपूर्वक प्राप्त की जाती है। अर्थात जब तक शरीर में अभिमान रहता ह्रै तब तक शुद्ध सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में स्थिति होनी कठिन है।

और जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों की मेरे में अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को हीं तैलधारा के सदृश अनन्य भक्ति— योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते है, उनका मैं शीघ्र ही उद्धार करता हूं।


किंतु उन सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों के साधन में क्लेश अर्थात विशेष परिश्रम है। क्योंकि देह— अभिमानियों में अव्यक्त विषयक गति दुखपूर्वक प्राप्त की जाती है। अर्थात जब तक शरीर में अभिमान है, तब तक शुद्ध सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में स्थिति होनी कठिन है। और जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति—योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं, उनका मैं शीघ्र ही उद्धार करता हूं।

इस सूत्र में दो बातें कही गई हैं। एक, कि वे भी पहुंच जाते हैं, जो निराकार, निर्गुण, शून्य की उपासना करते हैं। वे भी मुझ तक ही पहुंच जाते हैं, कृष्ण कहते हैं। वे भी परम सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन उनका मार्ग कठिन है। उनका मार्ग दुर्गम है। और उनके मार्ग पर क्लेश है, पीड़ा है, कष्ट है। क्या क्लेश है उनके मार्ग पर?

जो निराकार की तरफ चलता है, उसे कुछ अनिवार्य कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। पहली तो यह कि वह अकेला है यात्रा पर। कोई उसका संगी—साथी नहीं। और आपको पता है, कभी आप अंधेरी गली से गुजरते हैं, तो खुद ही गीत गुनगुनाने लगते हैं, सीटी बजाने लगते हैं। कोई है नहीं वहां। अकेले में डर लगता है। लेकिन अपनी ही सीटी सुनकर डर कम हो जाता है। अपनी ही सीटी, अपना ही गीत!

उस अज्ञात के पथ पर जहां कि गहन अंधेरा है, क्योंकि कोई संगी—साथी नहीं है, और इस जगत का कोई प्रकाश काम नहीं आता है; निराकार का यात्री अकेले जाता है। कोई परमात्मा, कोई परमात्मा की धारणा का सहारा नहीं है। तो पहली तो कठिनाई यह है कि अकेले की यात्रा है।


वह जो भक्त का रास्ता है, उस पर परमात्मा साथ है। भक्त कितना ही कमजोर हो, परमात्मा से जुड़कर बहुत ज्यादा ताकतवर है। सारी कमजोरी खो जाती है।

निराकार का पथिक अकेला है, किसी का उसे साथ नहीं है। कठिनाई होगी। अकेले होने से बड़ी और कठिनाई भी क्या है! जिंदगी में कभी आप अकेले हुए हैं? अकेला होने का आपको पता है? जरा देर अकेले छूट जाते हैं, तो जल्दी से अखबार पढ़ने लगते हैं, रेडियो खोल लेते हैं, किताब उठा लेते हैं। कुछ न कुछ करने लगते हैं, ताकि अकेलापन पता न चले। हमारे जीवन का सारा जाल—परिवार, पति—पत्नी, मित्र, क्लब, होटल, समूह, संघ, मंदिर, चर्च—अकेले होने से बचने की तरकीबें हैं। अकेले होने से घबड़ाहट होती है।

आपकी पत्नी जब मर जाती है या पति जब मर जाता है, तो जो पीड़ा होती है, वह उसके मरने की कम है, अगर ठीक से खोज करेंगे, तो अकेले हो जाने की ज्यादा है। आप छ: महीने बाद कहेंगे। और अगर जरा मंद बुद्धि हुए, छ: साल बाद कहेंगे। यह दूसरी बात है। लेकिन बात उसने ठीक ही कह दी। अकेले होने की पीड़ा है। किसी को भी हाथ में हाथ लेकर भरोसा आ जाता है कि अकेले नहीं हैं।

तो निराकार का रास्ता तो बिलकुल अकेला है। न पत्नी साथी होगी, न मित्र साथी होगा, न पति। निराकार की जो ठीक साधना है, उसमें तो गुरु भी साथी नहीं होगा। उसमें गुरु भी कह देगा कि मैं सिर्फ रास्ता बताता हूं चलना तुझे है। मैं तेरे साथ नहीं आ सकता हूं। निराकार की आत्यंतिक साधना में तो गुरु कहेगा, तू मुझे छोड़, तभी तेरी यात्रा शुरू होगी। कहेगा कि मुझे पकड़ मत, कहेगा कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है; क्योंकि अकेले होने की ही साधना है। गुरु का होना भी बाधा है।

इसलिए यह सूत्र कहता है, कृष्ण कहते हैं, अति कठिन है। पहली बात कि अकेला हो जाना होगा। दूसरी बात, अगर परमात्मा की तरफ समर्पण न हो, तो उस अकेलेपन में अहंकार के उठने की बहुत गुंजाइश है। बहुत ऐसा हो सकता है कि मैं हूं। यह मैं की अकड़ बहुत तीव्र हो सकती है, क्योंकि इसको मिटाने के लिए कोई भी नहीं है।

निराकार और मेरा अहंकार, अगर कहीं ये दोनों मिल जाएं तो खतरा है, बड़े से बड़ा खतरा है। क्योंकि अगर मैं कहूं कि मैं ब्रह्म हूं तो इसमें दोनों संभावनाएं हैं। इसका एक मतलब तो यह होता है कि अब मैं नहीं रहा, ब्रह्म ही है; तब तो ठीक है। और अगर इसका यह मतलब हो कि मैं ही हूं अब कोई ब्रह्म वगैरह नहीं है, तो बड़ा खतरा है।

निराकार के मार्ग से हजारों साल में एकाध आदमी निकलता है। लेकिन दरवाजा खुला रखा जाता है। क्योंकि वह जो निराकार के मार्ग से निकलता है, वह भक्ति के मार्ग से निकल ही न सकेगा। उसका कोई उपाय ही नहीं है। वह उसी मार्ग से निकल सकेगा। बुद्ध को भक्ति के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता। महावीर को भक्ति के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता। कोई उपाय नहीं है! वह उनका स्वभाव नहीं है।

मीरा को निराकार के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता, वह उसका स्वभाव नहीं है। सब मार्ग खुले और साफ होने चाहिए। पर मार्ग कठिन है, क्योंकि अहंकार के उठने का डर है। देह—अभिमान मजबूत हो सकता है। खतरा है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, पहुंच तो जाते हैं मुझ तक ही वे लोग भी, जो निराकार से चलते हैं। लेकिन वह स्थिति कठिन है। और जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति—योग से निरंतर चिंतन करते भजते हैं, उनका मैं शीघ्र उद्धार करता हूं।

भक्त के लिए एक सुविधा है। वह पहले चरण पर ही मिट सकता है। यह उसकी सुविधा है। ज्ञानी की असुविधा है, आखिरी चरण पर मिट सकता है; बीच की यात्रा में रहेगा। वह रहना मजबूत भी हो सकता है। और ऐसा भी हो सकता है, वह इतना मजबूत हो जाए कि आखिरी चरण उठाने का मन ही न रहे, और अहंकार में ही ठहरकर रह जाए।

लेकिन भक्त को एक सुविधा है, वह पहले चरण पर ही मिट सकता है। सुविधा ही नहीं है, पहले चरण पर उसे मिटना ही होगा, क्योंकि वह साधना की शुरुआत ही वही है। रोग को साथ ले जाना नहीं है। ज्ञानी का रोग साथ चल सकता है आखिरी तक। आखिर में छूटेगा, क्योंकि मिलन के पहले तो रोग मिटना ही चाहिए, नहीं तो मिलन नहीं होगा। लेकिन भक्त के पथ पर वह पहले, प्रवेश पर ही बाहर रखवा दिया जाता है, छुड़वा दिया जाता है।

भक्त अपने कर्मों को समर्पण कर देता है। वह कहता है, अब मैं नहीं कर रहा हूं; तू ही कर रहा है। वह बुरे— भले का भी भाव छोड़ देता है। वह कहता है, जो प्रभु की मर्जी। अब मेरी कोई मर्जी नहीं है। अब तू जो मुझसे करवाए, मैं करता रहूंगा। तेरा उपकरण हो गया। तू सुख में रखे तो सुखी, और तू दुख में रखे तो दुखी। न तो मैं सुख की आकांक्षा करूंगा, और न दुख न मिले, ऐसी वासना रखूंगा। अब मैं सब भांति तेरे ऊपर छोड़ता हूं। यह जो समर्पण है, इस समर्पण के साथ ही अहंकार गलना शुरू हो जाता है।

कृष्ण कहते हैं, उनका मैं जल्दी ही उद्धार कर लेता हूं क्योंकि वे पहले चरण में ही अपने को छोड़ देते हैं।

ज्ञानी का उद्धार भी होगा, लेकिन वह आखिरी चरण में होगा। घटना अंत में वही हो जाएगी। लेकिन कोई अपनी यात्रा के पहले ही बोझ को रख देता है, कोई अपनी यात्रा की समाप्ति पर बोझ को छोड़ता है। और जहां बोझ छूट जाता है अस्मिता का, अहंकार का, वहीं उद्धार शुरू हो जाता है।

कृष्ण जब कहते हैं, मैं उद्धार करता हूं तो आप ऐसा मत समझें कि कोई बैठा हुआ है, जो आपका उद्धार करेगा। कृष्ण का मतलब है, नियम। कृष्ण का मतलब है, शाश्वत धर्म, शाश्वत नियम। जैसे ही आप अपने को छोड़ देते हैं, वह नियम काम करना शुरू कर देता है।

पानी है; नीचे की तरफ बहता है। फिर उसको गरम करें आग से; भाप बन जाता है। भाप बनते ही ऊपर की तरफ उठने लगता है। एक नियम तो ग्रेविटेशन का है कि पानी नीचे की तरफ बहता है। न्यूटन ने खोजी यह बात कि जमीन चीजों को अपनी तरफ खींचती है, इसलिए सब चीजें नीचे की तरफ गिरती हैं। लेकिन एक और नियम भी है जो ग्रेविटेशन के विपरीत है। जिसको योगियों ने लेविटेशन कहा है। नीचे की तरफ खींचने में तो कशिश है, गुरुत्वाकर्षण है, लेकिन ऊपर की तरफ भी एक खिंचाव है, जिसको एक बहुत कीमती महिला सिमोन वेल ने ग्रेस कहा है। ग्रेस और ग्रेविटेशन। नीचे की तरफ कशिश, ऊपर की तरफ 'प्रभु—प्रसाद, ग्रेस।

नियम है। जब आप गिर पड़ते हैं जमीन पर, केले के छिलके पर पैर फिसल जाता है, तो आप यह मत सोचना कि कोई भगवान बैठा है, जो आपकी टांग तोड़ता है। कि खटाक से, आपने गड़बड़ की, केले के छिलके पर फिसले, उसने उठाया हथौड़ा और फ्रैक्चर कर दिया! कोई बैठा हुआ नहीं है कि आपका फ्रैक्रचर करे। किस—किस का फ्रैक्चर करने का हिसाब रखना पड़े। नियम है। आपने भूल की, नियम के अनुसार आपका पैर टूट गया। कोई तोड़ता नहीं है पैर। पैर टूट जाता है, नियम के विपरीत पड़ने से टूट जाता है।

ठीक ऐसे ही ग्रेस है। जैसे ही आपका अहंकार हटा, आप ऊपर की तरफ खींच लिए जाते हैं। कोई खींचता नहीं है। कोई ऐसा बैठा नहीं है कि आपके गले में फांसी लगाकर और ऊपर खींचेगा।

उद्धार का मतलब ऐसा मत समझना कि कोई आपको उठाएगा और खींचेगा। कोई नहीं उठा रहा है, कोई उठाने की जरूरत नहीं है। जैसे ही बोझ हलका हुआ, आप ऊपर उठ जाते हैं।

जैसे आप एक कार्क की गेंद ले लें; और उसके चारों तरफ मिट्टी लपेटकर उसे पानी में डाल दें। वह जमीन में बैठ जाएगी नदी की, क्योंकि वह मिट्टी जो चारों तरफ लगी है, उस कार्क को भी डुबा लेगी। लेकिन जैसे—जैसे मिट्टी पिघलने लगेगी और पानी में बहने लगेगी, कार्क उठने लगेगा ऊपर की तरफ। कोई उठा नहीं रहा है। मिट्टी बिलकुल बह जाएगी पिघलकर, हटकर; कार्क जमीन से ऊपर उठ आएगा। पानी की सतह पर तैरने लगेगा। किसी ने उठाया नहीं है। नियम! कार्क जैसे ही बोझिल नहीं रहा, उठ जाता है।

उद्धार का अर्थ है कि आप जैसे ही अपने को छोड़ देते हैं, उठ जाते हैं, खींच लिए जाते हैं।

कृष्ण कहते है, मैं उसको, जो सगुण रूप से, साकार को, एक परमात्मा की धारणा को, उसके चरणों में अपने को समर्पित करता है, अनन्य भाव से निरंतर, सतत उसका स्मरण करता है, वही उसकी धुन, वही उसका स्वर श्वास—श्वास में समा जाता है; रोएं—रोएं में उसी की पुलक हो जाती है, उठता, बैठता, सोता, सब भांति उसी को याद करता है, उसके ही प्रेम में लीन रहने लगता है, ऐसी जो तल्लीनता बन जाती है, उसका मैं शीघ्र ही उद्धार कर लेता हूं।

शीघ्र इसलिए कि वह पहले चरण पर ही बोझ से हट जाता है। ज्ञानी का भी उद्धार होता है, लेकिन आखिरी चरण पर।

तो जिन्हें यात्रा—पथ में अपने को बचा रखना हो और अंत में ही छोड़ना हो, वे निराकार की तरफ जा सकते हैं। जिनको पहले ही चरण पर सब छोड़ देना हो, भक्ति उनके लिए है। निश्चित ही, जो पहले चरण पर छोड़ता है, पहले चरण पर ही मिलन शुरू हो जाता है। जितनी देर आप अपने को खींचते हैं, उतनी ही देर होती है। जितने जल्दी अपने को छोड़ देते हैं, उतने ही जल्दी घटना घट जाती है। यह आत्मिक उत्थान आपके अहंकार के बोझ से ही रुका है। यह खयाल कि मैं हूं इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और जब तक मैं हूं तब तक परमात्मा नहीं हो सकता। और जब मैं मिट जाऊं, तभी वह हो सकता है।

हम अपने को बचा रहे हैं। कुछ है भी नहीं बचाने योग्य, फिर भी बचा रहे हैं! परमात्मा के पास भी सम्हलकर जाते हो कि कहीं कुछ छिन न जाए!जो इतना डरा है, भक्ति का मार्ग उस के लिए नहीं है। भक्ति के मार्ग पर तो ट्रस्ट, भरोसा, उसका भरोसा, कि ठीक है। वह मिटाएगा, तो इसमें ही कुछ लाभ होगा। कि वह छीनेगा, तो इसमें कुछ बात होगी, रहस्य होगा। कि वह नुकसान करेगा, तो उस नुकसान से जरूर कुछ लाभ होने वाला होगा। इस भांति जो अपने को छोड़ने को तैयार है, तो उद्धार इसी क्षण हो सकता है।

भक्त के लिए एक क्षण भी रुकने की जरूरत नहीं है। ज्ञानी के लिए जन्मों—जन्मों तक भी रुकना पड़ सकता है, क्योंकि अपनी ही चेष्टा से लगा है। भक्त तो अभी एवेलेबल हो जाता है, इसी वक्त—अगर वह छोड़ दे। और तत्काल नियम काम करना शुरू कर देता है। कृष्ण उसे खींच लेते हैं।

कृष्ण शब्द बड़ा प्यारा है। इसका मतलब होता है अट्रैक्यान,(आकर्षण) इसका मतलब होता है मैग्नेट। कृष्ण का मतलब होता है, जो खींचता है, आकृष्ट करता है।

कृष्ण एक नियम हैं। अगर आप अपने को छोडने को तैयार हैं, तो नियम आपको खींच लेता है। आप जगत के आत्यंतिक चुंबक के निकट पहुंच जाते हैं। आप खींच लिए जाते हैं—दुख से, पीडा से, अंधकार से। लेकिन स्वयं को गंवाने की हिम्मत चाहिए। स्वयं को मिटाने का साहस चाहिए। स्वयं को गला देने की तैयारी चाहिए।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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