सोमवार, 9 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 11 भाग 7

 साधना के चार चरण



श्रीभगवागुवाच:


कालोउस्थि लोकक्षयकृत्यवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त:।

ऋतेउयि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येउवस्थिता प्राचनीकेषु ।। 32।।

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुड्क्ष्‍व राज्यं समृद्धम्।

मयैवैते निहता: पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।। 33।।

द्रोणं च भीष्म च जयद्रथ च कर्ण तथान्यानयि योधवीरान्।

मया हतांस्त्‍वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।। 34।।


इस प्रकार अर्जुन के पुछने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले हे अर्जुन मैं लोकों का नाश करने वाला बडा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित हुए योद्धा लोग हैं वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात तेरे युद्ध न करने मे भी सबका नाश हो जाएगा।

इससे तू खड़ा हो और यश को प्राप्त कर तथा शत्रुओं को जीतकर धनधान्य से संपन्‍न राज्य को भोग। और ये सब शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन— तू तो केवल निमित्तमात्र ही हो जा।

तथा इन द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह तथा जयद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत— से मेरे द्वारा मारे हुए सूरवीर योद्धाओं को तू मार और भय मत कर निस्संदेह तू युद्ध में वैरियों को जीतेगा इसलिए युद्ध कर!


इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर कृष्‍ण बोले, हे अर्जुन! मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित हुए योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे। इससे तू खड़ा हो और यश को प्राप्त कर तथा शत्रुओं को जीत, धनधान्य से संपन्न हो। ये सब शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं।

हे सव्यसाचिन्। तू तो केवल निमित्त मात्र हो जा। तथा इन द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह, जयद्रथ और कर्ण और भी बहुत—से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योद्धाओं को तू मार और भय मत कर, निस्संदेह तू युद्ध में वैरियों को जीतेगा, इसलिए युद्ध कर।

यह नियति की धारणा की पूरी व्याख्या इस सूत्र में है।

हे अर्जुन! इस क्षण तू जो मेरा भयंकर रूप देख रहा है, विकराल, इस क्षण तू जो देख रहा मेरे मुंह से मृत्यु, इस क्षण तू जो देख रहा है अग्नि की लपटें मेरे मुंह से निकलती हुई, योद्धाओं को दौड़ता हुआ मृत्यु में, मेरे मुंह में, उसका कारण है। मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूं। इस क्षण मैं एक महानाश के लिए उपस्थित हुआ हूं। इस क्षण एक विराट विनाश होने को है। और उस विराट विनाश के लिए मेरा मुंह मृत्यु बन गया है। मैं इस समय महाकाल हूं। यह मेरा एक पहलू है विध्वंस का। यह मेरा एक रूप है।

एक रूप है मेरे सृजन का, एक रूप है मेरे विध्वंस का। अभी मैं विध्वंस के लिए उपस्थित हूं। यह तेरे सामने जो युद्ध के लिए तत्पर शूरवीर खड़े हैं, मैं इन्हें लेने आया हूं। ये मेरी तरफ दौड़ रहे हैं, ऐसा ही नहीं। मैं इन्हें लेने आया हूं। ये पतंगों की तरह दौड़ते दीये की तरफ जो योद्धा हैं, ये अपने आप दौड़ रहे हैं, ऐसा नहीं। मैं इन्हें निमंत्रण दिया हूं। ये थोड़ी ही देर में मेरे मुंह में समा जाएंगे। तूने भविष्य में झांककर देख लिया है। मेरे मुंह में तू अभी जो देख रहा है, वह थोड़ी देर बाद हो जाने वाली घटना है।


इस संबंध में थोड़ी—सी समय की बात समझ लें।

भविष्य वही है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ता। नहीं दिखाई पड़ता, इसलिए हम सोचते हैं, नहीं है। क्योंकि जो हमें दिखाई पड़ता है, सोचते हैं, है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, सोचते हैं, नहीं है। भविष्य हमें दिखाई नहीं पडता, इसलिए सोचते हैं, नहीं है।

लेकिन जो नहीं है, वह हो कैसे जाएगा? जो नहीं है, वह आ कैसे जाएगा? शून्य से तो कुछ आता नहीं। जो किसी गहरे अर्थ में आ ही न गया हो, वह आएगा भी कैसे?

भविष्य का अर्थ है कि हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है। ऐसा समझें कि मैं एक बहुत लंबे वृक्ष के नीचे बैठा हूं आप वृक्ष के ऊपर बैठे हैं। एक बैलगाड़ी रास्ते से आती है, मुझे दिखाई नहीं पड़ रही है। रास्ता लंबा है, मुझे दिखाई नहीं पड़ रही। मेरे लिए बैलगाड़ी अभी नहीं है; भविष्य में है। आप झाडू के ऊपर बैठे हैं, आपको बैलगाड़ी दिखाई पड़ती है। आप कहते हैं, एक बैलगाड़ी रास्ते पर आ रही है। मैं कहता हूं झूठ। बैलगाड़ी रास्ते पर नहीं है। आप कहते हैं, थोड़ी देर में दिखाई पड़ेगी। तुम्हारे लिए अभी भविष्य में है, मेरे लिए वर्तमान में है, क्योंकि मुझे दूर तक दिखाई पड़ रहा है।

फिर बैलगाड़ी आती है और मैं कहता हूं आपकी भविष्यवाणी सच थी। कोई भविष्यवाणी न थी, सिर्फ दूर तक दिखाई पड़ रहा था। फिर बैलगाड़ी चलती हुई आगे निकल जाती है। थोड़ी देर बाद मुझे दिखाई नहीं पड़ती। मैं कहता हूं बैलगाड़ी फिर खो गई। आप वृक्ष के ऊपर से कहते हैं, अभी भी नहीं खोई बैलगाड़ी। अभी भी रास्ते पर है, क्योंकि मुझे दिखाई पड़ रही है।

जैसे जमीन पर बैठकर अलग दिखाई पड़ता है, वृक्ष पर बैठकर ज्यादा दिखाई पड़ता है। ठीक चेतना की भी अवस्थाएं हैं। जहां हम खड़े हैं..।

जैसे मैंने चार अवस्थाएं कहीं आपसे। पहली, जहां मैं की भीड़ है। वहां से हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। जब तक ठीक हमारी आख के सामने न आ जाए, हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। फिर एक मैं रह जाए; हमारी दृष्टि बढ़ जाती है। हम ऊंचे तल पर आ गए; भीड़ से ऊपर उठ गए। एक बड़े वृक्ष पर बैठे हुए हैं। हमें दूर तक दिखाई पड़ने लगता है। कोई चीज आती है, उसके पहले दिखाई पड़ने लगती है। फिर तीसरा और ऊंचा तल है, जहां कि मुझे पता चल गया कि मैं नहीं हूं। यह बड़ी ऊंचाई आ गई। इस ऊंचाई से वे चीजें दिखाई पड़ने लगती है, जो बहुत दूर है; कभी होंगी। फिर एक और ऊंचाई है, जहां कि मैं नहीं हूं यह भी नहीं बचा। यह आखिरी ऊंचाई है। इससे ऊपर जाने का कोई उपाय नहीं है। यहां से सब दिखाई पड़ने लगता है। ऐसी अवस्था के व्यक्ति को हमने सर्वज्ञ कहा है। इसके लिए फिर कुछ भी भविष्य नहीं रह जाता है। इसके लिए सभी कुछ वर्तमान हो जाता है।

यह जो कृष्‍ण में अर्जुन को दिखाई पड़ा योद्धाओं का समा जाना और वह घबड़ाकर पूछने लगा। कृष्ण उससे कह रहे हैं कि तू भयभीत न हो अर्जुन। मैं इन युद्ध के लिए इकट्ठे हुए वीरों का अंत करने के लिए आया हूं। मैं इस समय महाकाल हूं। उसकी ही झलक तूने देख ली, जो थोड़ी देर बाद होने वाला है। उसका प्रि—व्‍यू उसकी पूर्व—झलक तुझे दिखाई पड़ गई है।

इससे तू खड़ा हो, यश को प्राप्त कर, शत्रुओं को जीत। ये शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। तू यह चिंता भी मत कर कि तू इन्हें मारेगा। तू यह ध्यान भी मत रख कि तू इनके मारने का कारण है। तू कारण नहीं है, तू निमित्त है।

निमित्त और कारण में थोड़ा फर्क हमें समझ लेना चाहिए। कारण का तो अर्थ होता है, जिसके बिना घटना न घट सकेगी। निमित्त का अर्थ होता है, जिसके बिना भी घटना घट सकेगी।

आप पानी गर्म करते हैं। गर्म करना, आग कारण है। अगर आग न हो, तो फिर पानी गर्म नहीं हो सकेगा। कोई उपाय नहीं है। लेकिन जिस बर्तन में रखकर आप गर्म कर रहे हैं, वह कारण नहीं है, वह निमित्त है। इस बर्तन के न होने पर कोई दूसरा बर्तन होगा, कोई तीसरा बर्तन होगा। बर्तन न होगा, तो कोई और उपाय भी हो सकता है। जिस चूल्हे पर आप गर्म कर रहे हैं, यह चूल्हा न होगा, तो कुछ और होगा। कोई सिगड़ी होगी। कोई स्टोव होगा। कोई बिजली का यंत्र होगा। कोई और उपाय हो सकता है। गर्मी तो कारण है। लेकिन ये सब निमित्त हैं।

आप गर्म कर रहे हैं, यह भी निमित्त है। कोई और गर्म कर सकता है—कोई पुरुष, कोई स्त्री, कोई बच्चा, कोई बुढा, कोई जवान। आप भी नहीं होंगे, तो कोई गर्म नहीं होगा पानी, ऐसा नहीं है। एक बात, आग चाहिए, वह कारण है। बाकी सब निमित्त है। निमित्त बदले जा सकते हैं, कारण नहीं बदला जा सकता।

कृष्ण यह कह रहे हैं, कारण तो मैं हूं तू निमित्त है। अगर तू नहीं मारेगा, कोई और मारेगा। इनकी मृत्यु होने वाली है। इनकी मृत्यु आ चुकी है। इनकी मृत्यु एक अर्थ में घटित हो चुकी है। मैं इन्हें मार ही चुका हू? अर्जुन अब तू तो सिर्फ मुर्दो को मारने का काम में लगाया जा रहा है।

यह कृष्ण अर्जुन से यही कह रहे हैं कि तू बहुत परेशान मत हो, जिनको तू मारने की सोच रहा है, उनको मैं पहले ही काट चुका हूं।  सिर कट चुके हैं।  अकारण ही तू यश को प्राप्त हो जाएगा, धन को, राज्य को। वह तेरी मुफ्त उपलब्धि होगी, सिर्फ निमित्त होने के कारण। जिन्हें तू सोचता है कि इन्हें मारने से हिंसा लगेगी, वे मर चुके हैं, वे मृत हैं। तू सिर्फ मुर्दों को आखिरी धक्का दे रहा है। जैसे ऊंट पर कोई आखिरी तिनका रखे और ऊंट बैठ जाए। बस, तू आखिरी तिनका रख रहा है। और ऊंट बैठने के ही करीब है। तू नहीं सहारा देगा, तो कोई और यह तिनका रख देगा। क्योंकि गर्दन काटने का असली काम हो चुका है। नियति उन्हें काट चुकी है।

इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि दुर्योधन जहां खड़ा है, उसके साथी जहां खड़े हैं, उसके मित्रों की फौज जहां खड़ी है, वे जो कुछ भी कर चुके हैं, घड़ा भर चुका है, फूटने के करीब है। तू मुफ्त ही यश का भागी हो जाएगा। तू यह मौका मत छोड़। और ध्यान रखना कि तू निमित्त ही था, इसलिए किसी अहंकार को बनाने की चेष्टा मत करना, कि मैं जीत गया, कि मैंने मार डाला।

इसमें दोहरी बातें हैं। एक तो कृष्ण यह कह रहे हैं, तू नियति को स्वीकार कर ले। जो हो रहा है, उसे हो जाने दे। और दूसरा, उससे भी महत्वपूर्ण जो बात है, वह यह कह रहे हैं कि अगर तू जीत जाएगा..। और जीत जाएगा, क्योंकि मैं तुझसे कहता हूं जीत निश्चित है। जीत हो ही गई है। तू जैसा है, उसके कारण तू जीत गया है। तू जो करेगा, उसके कारण नहीं। तू जैसा है, उसके कारण तू जीत गया है।

राम और रावण को युद्ध पर खड़े देखकर कहा जा सकता है कि राम जीत जाएंगे। जिसको जीवन की गहराइयों का पता है, जिसे सूत्र पढ़ने आते हैं, वह कह सकता है कि राम जीत जाएंगे। राम जीत ही गए हैं। क्योंकि रावण जो भी कर रहा है, वे हारने के ही उपाय हैं। बुराई हारने का उपाय है। राम कुछ भी बुरा नहीं कर रहे हैं। वे जीतते जा रहे हैं। वह जो अच्छा करना है, वह जीतने का उपाय है। तो हारने के पहले भी कहा जा सकता है कि रावण हार जाएगा।

हारने के पहले कहा जा सकता है कि दुर्योधन और उसके साथी हार जाएंगे। उन्होंने जो भी किया है, वह पाप पूर्ण है। उन्होंने जो भी किया है, वह बुरा है। सबसे बड़ी बुराई उन्होंने क्या की है? सबसे बड़ी बुराई उन्होंने यह की है कि जगत की सत्ता से अपने को तोडकर वे निरे अहंकारी हो गए हैं। उन्होंने प्रवाह से अपने को तोड़ लिया है।

ऐसा समझें। हमें दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए समझना मुश्किल होता है। एक नदी में हम दो लकडी के छोटे—छोटे टुकड़े डाल दें। और एक टुकड़ा चेष्टा करने लगे नदी के विपरीत धारा में बहने की। करेगा नहीं, क्योंकि लकड़ी के टुकड़े इतने नासमझ नहीं होते, जितने आदमी होते हैं! मगर मान लें कि आदमियों जैसे लकड़ी के टुकड़े हैं। आदमियों की बीमारी उनको लग गई। आदमियों के साथ रहने से इनफेक्यान हो गया। और एक टुकड़ा नदी की तरफ ऊपर बहने लगा।

क्योंकि आदमी को हमेशा धारा के विपरीत बहने में मजा आता है। धारा में बहने में क्या रखा है? कोई भी बह जाता है। कुछ उलटा करो। चौगड्डे पर आप शीर्षासन लगाकर खड़े हो जाएं, भीड़ लग जाएगी। पैर पर खड़े रहें, कोई देखने नहीं आएगा! क्या, मामला क्या है? सिर के बल जो आदमी खड़ा है, उलटा कुछ कर रहा है। यह आकर्षित करता है।

आदमी उलटा करने में उत्सुक है। क्यों? क्योंकि उलटे से अहंकार सिद्ध होता है। सीधे से कोई अहंकार सिद्ध होता नहीं। अगर आप किसी को रास्ते में से चलते में से गिर रहा हो कोई, सम्हाल लें; अखबार में कोई खबर नहीं छपेगी। रास्ते में कोई चल रहा हो, धक्का देकर गिरा दें, दूसरे दिन खबर छप जाएगी। कुछ अच्छा करिए, दुनिया में किसी को पता नहीं चलेगा। कुछ बुरा करिए, फौरन पता चल जाएगा।

अखबार उठाकर देखते हैं आप! पहली लकीर से लेकर आखिरी लकीर तक, सारी लकीर उन लोगों के बाबत है, जो कुछ उलटा कर रहे हैं। कहीं कोई दंगा—फसाद हो रहा हो, कहीं कोई हड़ताल हो रही हो, कहीं कोई चोरी, कहीं डाका, कहीं कोई ट्रेन उलटाई हो, कहीं कुछ उपद्रव हुआ हो, तो अखबार में खबर बनती है।

आदमी उलटे में उत्सुक है, तो हो सकता है, लकड़ी का टुकड़ा उलटा बहे। जो टुकड़ा उलटा बहेगा, हम पहले से ही कह सकते हैं किनारे खड़े हुए कि यह हारेगा। इसमें कोई बड़ी बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है। क्योंकि धारा के विपरीत लकड़ी का टुकड़ा बहने की कोशिश कर रहा है। यह हारेगा, अर्जुन! कृष्ण कह सकते हैं कि यह हारेगा।

और जो नदी की धारा के साथ बह रहा है, हम कह सकते हैं, इसको हराने का कोई उपाय नहीं है। इसको हराइएगा कैसे? इसने कभी जीतने की कोई कोशिश ही नहीं की। इसको हराइएगा कैसे? यह तो नदी की धारा में पहले से ही बह रहा है, स्वीकार करके। यह तो कहता है, धारा ही मेरा जीवन है। जहां ले जाए, जाऊंगा। कहीं और मुझे जाना नहीं है।

राम नदी की धारा में बहते हुए हैं। इसलिए पहले से ही कहा जा सकता है, वे जीतेंगे। रावण हारेगा, वह धारा के विपरीत बह रहा है।

यह कृष्ण अर्जुन से जो कह रहे हैं, यह किसी पक्षपात के कारण नहीं कि मैं तेरे पक्ष में हूं तेरा मित्र हूं इसलिए तू जीतेगा। इसका गहन कारण यह है कि कृष्ण देख सकते हैं कि अर्जुन जिस पक्ष में खड़ा है, वह धारा के अनुकूल बहता रहा है। और अर्जुन के विपरीत जो लोग खड़े हैं, वे धारा के प्रतिकूल बहते रहे हैं। उनकी हार निश्चित है। वे हारेंगे, पराजित होंगे।

इसलिए तू नाहक ही अड़चन में पड़ रहा है। और तेरी अड़चन तुझे धारा के विपरीत बहने की संभावना जुटाए दे रही है। तू है क्षत्रिय। तेरी सहज धारा, तेरा स्वधर्म यही है कि तू लड़। और लड़ने में निमित्त मात्र हो जा। तू संन्यास की बातें कर रहा है, वे उलटी बातें हैं।

अर्जुन अगर संन्यासी हो जाए, तो प्रभावित बहुत लोगों को करेगा। प्रभावशाली व्यक्ति था। लेकिन हो नहीं पाएगा संन्यासी। और अगर संन्यास लेकर बैठ भी जाए कहीं जंगल में ध्यान वगैरह करने, तो ज्यादा देर नहीं चलेगा ध्यान वगैरह उसका! एक हरिण दिखाई पड़ जाएगा और उसके हाथ धनुष—बाण खोजने लगेंगे। और एक कौआ ऊपर से बीट कर देगा, तो पत्थर उठाकर उसका वह वहीं फैसला कर देगा। वह जो उसका होना है, जो स्वधर्म है उसका, वह योद्धा है। उसमें कहीं भी कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे कि वह संन्यासी हो सके।

तो कृष्‍ण उससे कह रहे हैं कि तू नदी में उलटे बहने की कोशिश कर रहा है। अगर तू सोचता है कि मैं ऐसा करूं, वैसा करूं; यह ठीक नहीं है, वह ठीक है...। कृष्‍ण उससे कह रहे हैं, तू सिर्फ बह जा, नियति के हाथ में छोड़ दे। तू निमित्त हो जा। उनकी हार निश्चित है। और विपक्ष में खड़े योद्धा मेरे मुंह में जा रहे हैं, मृत्यु में, यह निश्चित है। वे पहले ही मारे जा चुके हैं। ये द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, ये जयद्रथ और कर्ण, जो महाप्रतापी हैं, महावीर हैं, इनसे भी तू भय मत कर। क्योंकि जिनके साथ ये खड़े हैं, वे गलत लोग हैं। उनके साथ ये पहले ही डूब चुके।

भीष्म पितामह भले आदमी हैं। लेकिन गलत लोगों के साथ खड़े हैं। अक्सर भले आदमी कमजोर होते हैं। और अक्सर भले आदमी कई दफा चुपचाप बुराई को सह लेते हैं और बुराई के साथ खड़े हो जाते हैं। ये जो खड़े हैं बुराई के साथ, ये कितने ही भले हों, और इनके पास कितनी ही शक्ति हो, तेरी शक्ति से ये नहीं कटेंगे, विराट की शक्ति के विपरीत होने से ये कट गए हैं।

इस अर्थ को ठीक से समझ लें।

तू इन्हें नहीं मार पाएगा। अर्जुन और कर्ण में सीधा मुकाबला हो सकता था। और कुछ तय करना मुश्किल है कि कौन जीतेगा। वे एक ही मां के बेटे हैं। और कर्ण रत्तीभर भी कम नहीं है। डर तो यह है कि वह ज्यादा भी साबित हो सकता है। लेकिन हारेगा। कोई ताकत के कारण ही नहीं, हारेगा इसलिए कि विराट की शक्ति के विपरीत खड़ा है। जो विराट चाहता है, उसके विपरीत खड़ा है। विराट के विपरीत खड़ा होना खतरनाक है। फिर कभी छोटा आदमी भी हरा सकता है।

और यह वैज्ञानिक है। इसको आप ऐसा भी देख सकते हैं कि एक बैलगाड़ी में आप बैठे हैं और एक शराबी बैठा है। बैलगाड़ी उलट जाए, आपको फ्रैक्यर हो जाएंगे, शराबी को बिलकुल नहीं होंगे। शराबी रोज गिर रहा है सड़क पर। कम से कम इतना तो सीखो उससे! कि चोट नहीं खाता। रोज सुबह देखो, फिर ताजे हैं!

नहा— धोकर फिर चले जा रहे हैं! और रोज गिर रहे हैं, इनको चोट क्यों नहीं लगती?

शराबी अपने को अलग नहीं रखता। जब शराब पी लेता है, तो बेहोश हो गया, वह प्रकृति का हिस्सा हो गया। अब उसको कोई होश नहीं कि मैं हूं। अब वह गिरता है, तो कड़ा नहीं हो पाता। बैलगाड़ी उलट रही है, आप भी उलट रहे हैं, वह भी उलट रहा है आपके साथ। आप सम्हल गए, बचने लगे। आपका अहंकार आ गया कि मैं बचूं। और शराबी का कोई अहंकार नहीं आया, वे लुढ़क गए। जैसे ही बैलगाड़ी लुढकी, उसी के साथ लुढ़क गए। उनका कोई विरोध नहीं है, कोई प्रतिरोध नहीं है; को—आपरेशन है, सहयोग है। उनको चोट नहीं लगेगी।

छोटे बच्चे गिरते हैं, उनको चोट नहीं लगती। जैसे—जैसे बड़े होने लगते हैं, चोट लगने लगती है। जिस दिन से आपके बच्चे को चोट लगने लगे, समझना कि अहंकार निर्मित हो गया। जब तक उसको चोट नहीं लग रही, तब तक अहंकार नहीं है। वह गिरता है, तो गिरने के साथ होता है। रोकता नहीं कि अरे, मैं गिर रहा हूं। अभी कोई है नहीं, जो गिरने से रोके अपने को। वह गिर जाता है। गिरकर वह उठ जाता है। कहीं कोई चोट घटती नहीं।

यह जो कृष्‍ण का कहना है कि तू जीता ही हुआ है, वह इसीलिए कि तू उस पक्ष में है, जो बुराई के साथ नहीं है। तू विपरीत नहीं बह रहा है, तू साथ बह रहा है। और ये हारे ही हुए हैं। ये विपरीत बह रहे हैं। यह नियति तय हो गई है अर्जुन, इसलिए तू व्यर्थ चिंतित न हो, निस्संदेह तू जीतेगा; युद्ध कर।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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