सोमवार, 9 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 11 भाग 8

 बेशर्त स्‍वीकार


 सजय उवाच:


एतच्‍छुत्वा वचनं केशवस्थ कृताज्जलिर्वेयमान किरीटी।

नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीत प्रणम्य।। 35।।


अर्जुन उवाच:


स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्यहृष्यगुरज्यते च।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा।। 36।।

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोउध्यादिकर्त्रे।

अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्यरं यत्।। 37।।

त्वमादिदेव: पुरूष पुराणस्‍त्‍वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।

वेत्तामि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।। 38।।

वायुर्यमोउग्निर्वरुण: शशाड्क: प्रजापतिस्व प्रपितामहश्च।

नमो नमस्तेस्‍तु सहस्रकृत्व: गुनश्च भूयोउपि नमो नमस्ते।। 39।।

नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोउख ते सर्वत एव सर्व।

अनन्तवीर्यामितविक्रमस्वं सर्वं समाम्नोषि ततोउमि सर्व:।। 40।।


इसके उपरांत संजय बोला कि हे राजन— केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, कांपता हुआ नमस्कार करके फिर भी भयभीत हुआ प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गदगद वाणी से बोला— हे अंतर्यामी यह योग्य ही है कि जो आपके नाम और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित होता है और अनुराग को भी प्राप्त होता है तथा भयभीत हुए राक्षस लोग दिशाओं में भागते हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार करते हैं।

हे महात्मन— ब्रह्मा के भी आदि कर्ता और सबसे बड़े आपके लिए वे कैसे नमस्कार नहीं करें क्योंकि हे अनंत हे देवेश हे जगन्निवास जो सत्र असत और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानंदघन ब्रह्म है वह आय ही हैं। और हे प्रभो आप आदिदेव और सनातन पुरूष हैं। आप इस जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परम धाम हैं। हे अनंतरूप, आपसे यह सब जगत व्याप्त अर्थात परिपूर्ण है।

और आप वायु यमराज अग्नि वरुण चंद्रमा तथा प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिए हजारों बार नमस्कार— नमस्कार होवे। आपके लिए फिर भी बारंबार नमस्कार होवे!

और हे अनंत सामर्थ्य वाले आपके लिए आगे से और पीछे से भी नमस्कार होवे। हे सर्वात्मनु आपके लिए सब ओर से नमस्कार होवे क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप सब संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं।


इसके उपरांत संजय बोला कि हे राजन्! केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, कांपता हुआ, नमस्कार करके, फिर भी भयभीत हुआ प्रणाम करके, भगवान कृष्‍ण के प्रति गदगद वाणी से बोला।

कांप रहा है अर्जुन। जो देखा है, उससे उसका रोआं—रोआं कांप गया है। भविष्य की झलक बड़ी खतरनाक हो सकती है। शायद इसीलिए प्रकृति हमें भविष्य के प्रति अंधा बनाती है। नहीं तो जीना बहुत मुश्किल हो जाए।

आप देखते हैं, तांगे में जुता हुआ घोडा चलता है, उसकी आंखों पर दोनों तरफ से पट्टी लगी होती है। अगर वह पट्टी न लगी हो, तो घोड़ा सीधा नहीं चल पाता। वह पट्टी खुली हो, तो दोनों तरफ उसे दिखाई पड़ता है। उसकी वजह से अड़चन खड़ी होती है। फिर वह सीधा नहीं चल पाता। तो दोनों तरफ से उसकी आंखें हम अंधी कर देते हैं। बस, सिर्फ वह आगे देख पाता है दो कदम। बस, एक सीधी रेखा में चलता रहता है।

ठीक हम भी अंधे आदमी हैं। हमें भविष्य दिखाई नहीं पड़ता। भविष्य दिखाई पड़े, तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ जाएं। आप किसी स्त्री को प्रेम कर रहे हैं और उससे कह रहे हैं कि तेरे बिना मैं जी न सकूंगा। और आपको दिखाई भी पड़ रहा हो कि दो दिन बाद यह मर जाएगी—न केवल मैं जीऊंगा, दूसरी शादी भी करूंगा। अगर यह भी आपको दिखाई पड़ रहा हो, तो किस मुंह से कह सकिएगा कि तेरे बिना जी न सकूंगा? मुश्किल हो जाएगा। जब दिख रहा हो कि दो दिन बाद यह स्त्री मरेगी और मैं जीऊंगा। और न केवल जीऊंगा, कोई और स्त्री से शादी करूंगा। और उस स्त्री से भी मैं यही कहूंगा कि तेरे बिना कभी न जी सकूंगा।

आपको भविष्य दिखता नहीं है। बच्चा पैदा हो और उसको उसका पूरा भविष्य दिख जाए, कैसी मुश्किल हो जाए! जीना बिलकुल असंभव हो जाए। एक—एक कदम चलना मुश्किल हो जाए। आपको पता नहीं है, इसलिए अंधे की तरह शान से चले जाते हैं। क्या कर रहे हैं, कोई फिक्र नहीं है। क्या हो रहा है, कोई फिक्र नहीं है। क्या परिणाम होगा, कोई फिक्र नहीं है।

अतीत भूलता चला जाता है, भविष्य दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए आप जी पाते हैं। अतीत भूले न, भविष्य दिखाई पड़ने लगे, आप यहीं ठप्प हो जाएं। इंचभर हिलने का उपाय न रह जाए। आपको दिखाई पड़ जाए कि आप मरने वाले हैं, चाहे सत्तर साल बाद सही; साफ दिखाई पड़ जाए कि फलां तिथि को मरने वाले हैं, सत्तर साल बाद। लेकिन ये बीच के सत्तर साल बेकार हो गए। अब आप जी न सकेंगे। अब आप किस इरादे से मकान बनाएंगे? किसी और के रहने के लिए? किस इरादे से बैंक में धन इकट्ठा करेंगे? किसी और के भोग के लिए? किस इरादे से लड़ेंगे किसी से?

अब कोई इरादा नहीं रह जाएगा। मौत सारे इरादों को काट देगी। और जीना तो पड़ेगा। अगर आपको यह भी पता हो कि सत्तर साल जीना ही पड़ेगा। मौत इसी तरह होगी, जैसी होने वाली है। बीच में आत्महत्या भी करने का कोई उपाय नहीं है, भविष्य नहीं है; भविष्य तो मरने का है खाट पर। फिर हाथ—पैर कांपते रहेंगे। पूरे जीवन आप कांपते रहेंगे। जो बहुत विचारशील लोग हैं, उनके कंपन का कारण यही है।

भविष्य नहीं दिखाई पड़ता, इसलिए हम बड़े निश्चिंत हैं। दिखाई पड़े तो बड़ी अड़चन हो जाए। अर्जुन को दिखाई पड़ा है, अभी उसने देखा। एक झलक उसे मिली है। वह कांप रहा है, वह भयभीत हो रहा है।

संजय कहता है, कांपता हुआ, हाथ जोडे हुए, नमस्कार करता है, भयभीत हुआ प्रणाम करता है। गदगद भी हो रहा है।

उसकी स्थिति बड़ी दुविधा की है। जो दिखाई पड़ा है, वह उसकी विजय है। जो दिखाई पड़ा है, उसमें वह जीतेगा, इसलिए आनंदित भी हो रहा है। जो दिखाई पड़ा है, वह विराट की झलक है। यह सौभाग्य है। यह कृपा है। यह प्रसाद है। वह गदगद भी हो रहा है। और जो दिखाई पड़ा है, वह मृत्यु भी है। वह भयभीत भी हो रहा है।

और एक अर्थ से और भी भयभीत हो रहा है। क्योंकि जो विजय सुनिश्चित हो, उसमें भी मजा चला जाता है। अगर आप एक खेल खेल रहे हैं किसी के साथ, जिसमें आपकी जीत निश्चित है; खेल का मजा चला जाता है। खेल का तो मजा इसी में है कि जीत अनिश्चित है। आप जीत भी सकते हैं, हार भी सकते हैं। जिस खेल में आपको जीतना ही है, जिसमें कोई उपाय ही नहीं है हार का, वह खेल खतम हो गया। वह तो एक बंधन हो गया।

इसे थोड़ा समझ लें, थोड़ा बारीक है।


अगर आपको पक्का ही है और कोई उपाय जगत में नहीं है कि आप हार सकें, आप जीतेंगे ही, तो मजा ही जीत का चला गया। और जीत से भी भय पैदा होगा। यह जीत भी एक जबरदस्ती मालूम पड़ेगी। इसमें अहंकार को रस तो रह नहीं गया।

अर्जुन ने देखा है कि वह जीतेगा। उसके योद्धा विपरीत जो खड़े हैं, वे मृत्यु में विलीन हो रहे हैं। उसकी जीत सुनिश्चित है, नियति है, भाग्य है।

अगर जीत नियति है, तो फिर अहंकार को उससे कुछ भी रस नहीं मिलेगा। फिर मैं नहीं जीतता हूं। जीतना था, इसलिए जीतता हूं। फिर दुर्योधन नहीं हारता है। हारना था बेचारे को, इसलिए हारता है। तब न तो कोई रस है अपने अहंकार में और न दुर्योधन की हार में कोई रस है। तब तो हम पात्र हो गए, खिलौने हो गए। तब तो हम गुड़ियों की तरह नाच रहे हैं, कोई भीतर से तार खींच रहा है। किसी को जिताता है, वह जीत जाता है। किसी को हराता है, वह हार जाता है। किसका गौरव? किसका अपयश?

अगर यह सच है कि मेरी जीत निश्चित है, तो अर्जुन कांप गया होगा इससे भी। क्योंकि तब तो मजा ही चला गया। तब किस मुंह से वह कहेगा कि दुर्योधन को मैंने हराया; कि कौरव हारे पांडव से। तब इसका कोई अर्थ नहीं रह गया। कौरव हारे, क्योंकि नियति उनकी हारने की थी। पांडव जीते, क्योंकि नियति उन्हें जिता रही थी। और नियति दोनों के हाथ के बाहर है। यह भी बहुत भय देने वाली बात है। यह तो मजा ही चला गया!

एक तो मृत्यु को देखा, उससे वह कंपित हो रहा है। दूसरा, सुनिश्चित विजय को देखा। उससे भी, उससे भी वह भयभीत हो रहा है। अर्जुन योद्धा था। फेअर नहीं है अब लड़ाई। अब जो युद्ध है, वह न्याय—संगत नहीं है। अब तो हारने वाले हारेंगे, जीतने वाला जीतेगा। और कृष्‍ण कहते हैं, मैं पहले ही काट चुका हूं इनको, तू सिर्फ निमित्त है। यह भी कंपित कर देगा। क्षत्रिय का सारा मजा ही चला गया। अब यह युद्ध हो रहा है, जैसे हो या न हो बराबर है। एक झूठा युद्ध रह गया, एक सूडो, मिथ्या, भ्रामक। जिसमें सब बातें पहले से ही तय हों, उसमें क्या सार है?

एक अर्थ में गदगद है कि कृष्ण ने अनुभव का मौका दिया; एक द्वार खोला अनंत का। और एक लिहाज से भयभीत है। दोनों बातें एक साथ!

संजय कहता है, ऐसा भयभीत, साथ ही गदगद हुआ, प्रणाम करके, अर्जुन कहने लगा, हे अंतर्यामिन्! यह योग्य ही है कि जो आपके नाम और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित होता है और अनुराग को भी प्राप्त होता है। तथा भयभीत हुए राक्षस लोग दिशाओं में भागते हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार करते हैं।

यह योग्य ही है। ये दोनों बातें ही योग्य हैं कि कोई आपके नाम से हर्षित होता है, और कोई आपके नाम से भयभीत होता है। ये दोनों बातें ठीक ही हैं। क्योंकि जो मिटने जा रहा है आपको देखकर, आप जिसके लिए विनाश बन जाते हैं, उसका भयभीत होना; और वह जो आपको देखकर आनंद को, परम अवस्था को उपलब्ध होने जा रहा है, जिसके भीतर नये का सृजन हो रहा है, उसका हर्षित होना, दोनों ही ठीक हैं।

लेकिन अर्जुन को दोनों हो रहे हैं। और आपको भी दोनों होंगे। क्योंकि इस जमीन पर देवता को अलग और राक्षस को अलग खोजना बहुत मुश्किल है। वे दोनों मिले—जुले हैं। वे हर आदमी में हैं। वे आदमी के दो पहलू हैं। मन दो के बिना होता ही नहीं।

इसलिए आप ऐसा देवता पुरुष भी नहीं खोज सकते, जिसका कोई हिस्सा राक्षसी न हो। और आप ऐसा कोई राक्षस भी नहीं खोज सकते, जिसका कोई हिस्सा देवता जैसा न हो। रावण के भीतर भी एक कोना राम का होगा, और राम के भीतर भी एक कोना रावण का होगा। अन्यथा उनका संसार में होने का कोई उपाय नहीं है। इस जगत में प्रकट होने का उपाय है मन। और मन है द्वंद्व। इसलिए अच्छे से अच्छे आदमी में थोड़ी—सी कालिख कहीं न कहीं लगी होती है। बुरे से बुरे आदमी में भी एक चमकदार रेखा होती है। वही उन दोनों को आदमी बनाती है। नहीं तो वे आदमी नहीं रह जाएंगे। नहीं तो उनके आदमी होने का कोई उपाय नहीं रह जाएगा। यहां तो हर आदमी दोनों है।

इसलिए जब परम अनुभव का द्वार खुलता है, तो दोनों बातें एक साथ घटती हैं। वह जो आपके भीतर राक्षस है, वह भयभीत होने लगता है। और वह जो आपके भीतर दिव्य है, वह आनंदित होने लगता है। परमात्मा के सामने दोनों बातें एक साथ घट जाती हैं। यह तो तोड़कर कहा है, ताकि समझ में आ सके।

अर्जुन कहता है, लोग अनुराग को उपलब्ध होते हैं, हर्षित होते हैं, आपके कीर्तन, आपके नाम को सुनकर। और ऐसे लोग भी हैं, जो भागते हैं दसों दिशाओं में। और देखता हूं सिद्धगणों को भी कि पैर झुकाए, घुटने टेके, आपको नमस्कार कर रहे हैं। यह ठीक ही है अंतर्यामिन्!

आज अर्जुन को लगा कि ऐसा क्यों है। ऐसा क्यों है कि कोई भगवान का नाम सुनते ही पीड़ित और दुखी क्यों हो जाता है? और कोई भगवान का नाम सुनते ही आनंदित, प्रफुल्लित क्यों हो जाता है?

जब आप भगवान का नाम सुनकर दुःखी होते है, तो आप खबर दे रहे हैं कि भगवान आपके लिए कहीं न कहीं मृत्यु से जुड़ा हुआ है। कुछ आप कर रहे हैं, जो भगवान के सान्निध्य में टूटेगा और नष्ट होगा। कुछ आप कर रहे हैं, जो धारा के विपरीत है, जो निसर्ग के प्रतिकूल है। और जब भगवान का नाम सुनकर आप आनंदित होते हैं, तब उसका अर्थ है कि आपके भीतर कोई धारा है, जो भगवान के साथ बह रही है। तो नाम भी सुनकर आप प्रफुल्लित हो जाते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल


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