मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 13 भाग 5

 समस्‍त विपरीतताओं का विलय—परमात्‍मा में


   ज्ञेयं यत्‍तत्‍प्रवक्ष्यामि यजज्ञात्‍वामृतमश्‍नुते।

अनादिमत्‍परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्‍यते।। 12।।

सर्वत: पाणियादं तत्‍सर्वतोउक्षिशिरोमखम्।

सर्वत: श्रुतिमल्‍लेके सर्वमावृत्य तिष्‍ठति।। 13।।

सर्वोन्द्रयगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।

असक्‍तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभक्‍तृ च।। 14।।


और हे अर्जुन, जो जानने योग्य है तथा जिसकी जानकर मनुष्य अमृत और परमानंद को प्राप्त होता है, उसको अच्छी प्रकार कहूंगा। वह आदिरहित परम बह्म अकथनीय होने से न सत कहा जाता है और न असत ही कहा जाता है।  परंतु वह सब ओर से हाथ—पैर वाला एवं सब ओर नैत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर से श्रोत बाला हे, क्योंकि वह संसार में सब को व्याप्त करके स्थित है। और संपूर्ण इंद्रिंयों के विषयों को जानने वाला है, परंतु वास्तव में सब इंद्रियों से रहित है। तथा आसक्‍तिरीहत है और गुणों से अतीत हुआ भी अपनी योगमाया से सब को धारण—पोषण करने वाला और गुणों को भोगने वाला है।


और हे अर्जुन, जो जानने के योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य अमृत और परम आनंद को प्राप्त होता है, उसको अच्छी प्रकार कहूंगा।

जो जानने के योग्य है..।

इसे थोड़ा हम खयाल में ले लें। बहुत—सी बातें जानने की इच्छा पैदा होती है, जिज्ञासा पैदा होती है, कुतूहल पैदा होता है। लेकिन हम यह कभी नहीं सोचते कि सच में वे बातें जानने योग्य भी हैं या नहीं। कुतूहल काफी नहीं है। क्योंकि कुतूहल से कुछ हल न होगा, समय और शक्ति व्यय होगी।

बहुत—सी बातें हम जानने की कोशिश करते हैं, बिना इसकी फिक्र किए कि जानकर क्या करेंगे। बच्चों जैसी उत्सुकता है। अगर बच्चों को साथ ले जाएं, तो वे कुछ भी पूछेंगे, कुछ भी सवाल उठाते जाएंगे। और ऐसा भी नहीं है कि सवालों से उन्हें कुछ मतलब है। अगर आप जवाब न दें, तो एक—दो क्षण बाद वे दूसरा सवाल उठाएंगे। पहले सवाल को फिर न उठाएंगे।

जानने को तो बहुत है, और आदमी के पास समय तो थोड़ा है। जानने को तो अनंत है, और आदमी की तो सीमा है। जानने के तो कितने आयाम हैं, और अगर आदमी ऐसा ही जानता रहे सभी रास्तों पर, तो खुद समाप्त हो जाएगा और कुछ भी जान न पाएगा। तो कृष्ण कहते हैं, जो जानने योग्य है..।

जिसको जानने का मन होता है, वह जानने योग्य है, जरूरी नहीं है। फिर जानने योग्य क्या है? क्या है परिभाषा जानने योग्य की? जानने की जिज्ञासा तो बहुत चीजों की पैदा होती है—यह भी जान लें, यह भी जान लें, यह भी जान लें।

कृष्ण कहते हैं—और भारत की पूरी परंपरा कहती है—कि जानने योग्य वह है, जिसको जानने पर फिर कुछ जानने को शेष न रह जाए। अगर फिर भी जानने को शेष रहे, तो वह जानने योग्य नहीं था। उससे तो प्रश्न थोड़ा आगे हट गया और कुछ हल न हुआ। 

पूरे दर्शनशास्त्र का इतिहास पुराने प्रश्नों में से नए प्रश्न निकालने का इतिहास है। उत्तर कुछ भी नहीं है। और जो लोग उत्तर देने की कोशिश भी करते हैं, उनका उत्तर भी कोई मानता नहीं है। उन उत्तर में से भी दस प्रश्न लोग खड़े करके पूछने लगते हैं। एक प्रश्न दूसरे प्रश्न को जन्म देता है, उत्तर कहीं दिखाई नहीं पड़ते। कारण कुछ होगा। और कारण यही है।

धर्म पूछता है उसी प्रश्न को, जो पूछने योग्य है। और जानना चाहता है वही, जो जानने योग्य है। और दर्शनशास्त्र जानना चाहता है कुछ भी, जो भी जानने योग्य लगता है; जिसमें भी कुतूहल पैदा हो जाता है।

दर्शनशास्त्र खुजली की तरह है। खुजाने का मन होता है, इसकी बिना फिक्र किए कि परिणाम क्या होगा। खुजाते वक्त अच्छा भी लगता है। लेकिन फिर लहू निकल आता है और पीड़ा होती है! धर्म कहता है, खुजाने के पहले पूछ लेना जरूरी है कि परिणाम क्या होगा। जिस जानने से और जानने के सवाल उठ जाएंगे, वह जानना व्यर्थ है। पर एक ऐसा जानना भी है, जिसको जानकर सब जानने की दौड़ समाप्त हो जाती है। वह कब होगी ? उस बात को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। आखिर आदमी जानना ही क्यों चाहता है ?

इसे हम ऐसा समझें कि अगर कोई मृत्यु न हो, तो दुनिया में दर्शनशास्त्र होगा ही नहीं। मृत्यु के कारण आदमी पूछता है, जीवन क्या है? मृत्यु के कारण आदमी पूछता है, शरीर ही सब कुछ तो नहीं है, आत्मा भीतर है या नहीं? मृत्यु के कारण आदमी पूछता है, जब शरीर गिर जाएगा तो क्या होगा? मृत्यु के कारण आदमी पूछता है, परमात्मा है या नहीं है?

थोड़ी कल्पना करें एक ऐसे जगत की, जहां मृत्यु नहीं है, जीवन शाश्वत है। वहां न तो आप पूछेंगे आत्मा के संबंध में, न परमात्मा के संबंध में। वहा दर्शनशास्त्र का जन्म ही नहीं होगा।

सारा दर्शनशास्त्र मृत्यु से जन्मता है।

इसलिए धर्म कहता है, जब तक अमृत का पता न चल जाए, तब तक तुम्हारे प्रश्नों का कोई अंत न होगा, क्योंकि तुम मृत्यु के कारण पूछ रहे हो। जब तक तुम्हें अमृत का पता न चल जाए, तब तक तुम पूछते ही रहोगे, पूछते ही रहोगे। और कोई भी उत्तर दिया जाए, हल न होगा, जब तक कि अमृत का अनुभव न मिल जाए। इसलिए बुद्ध अक्सर कहते थे उनके पास आए लोगों से, कि तुम प्रश्नों के उत्तर चाहते हो या समाधान? जो भी आदमी आता उसको तो एकदम से समझ में भी न पड़ता कि फर्क क्या है? कोई आदमी आकर पूछता कि ईश्वर है या नहीं? तो बुद्ध कहते, तू उत्तर चाहता है कि समाधान? तो वह आदमी तो पहले चौंकता ही कि दोनों में फर्क क्या है? तो बुद्ध कहते, उत्तर अगर चाहिए, तो उत्तर तो हां या न में दिया जा सकता है, कि ईश्वर है या ईश्वर नहीं है। लेकिन तुझे उत्तर मिलेगा नहीं। क्योंकि मेरे कहने से क्या होगा! उत्तर तो मैं दे सकता हूं; समाधान तुझे खोजना पड़ेगा। उत्तर तो ऐसे मुफ्त मिल सकता है, समाधान साधना से मिलेगा। उत्तर तो ऊपरी होगा, समाधान आंतरिक होगा। तो तू ईश्वर है या नहीं, इसका उत्तर चाहता है कि समाधान? उत्तर चाहिए, तो शास्त्र में भी मिल जाएगा। और अगर समाधान चाहिए, तो फिर साधना की तैयारी करनी पड़ेगी। समाधान तो तेरे रूपांतरण से होगा।

तो कृष्ण कहते हैं, जो जानने योग्य है और जिसको जानकर मनुष्य अमृत को प्राप्त होता है..।

वही जानने योग्य है, जिसको जानकर आदमी अमृत को प्राप्त होता है। और अमृत परमानंद है, मृत्यु दुख है।

हमारे सभी दुखों के पीछे मृत्यु छिपी है। अगर आप खोज करेंगे, तो आप जिन बातों को भी दुख मानते हैं, उन सबके पीछे मृत्यु की छाया मिलेगी। चाहे ऊपर से दिखाई भी न पड़े, थोड़ा खोज करेंगे, तो पाएंगे, सभी दुखों के भीतर मृत्यु छिपी है। जहां भी मृत्यु की झलक मिलती है, वहीं दुख आ जाता है।

बुढ़ापे का दुख है, बीमारी का दुख है, असफलता का दुख है, सब मृत्यु का ही दुख है। धन छिन जाए, तो दुख है; वह भी मृत्यु का ही दुख है। क्योंकि धन से लगता है, इस जीवन को सुरक्षित करेंगे। धन छिन गया, असुरक्षित हो गए।

मकान जल जाए, तो दुख होता है। वह भी मकान के जलने का दुख नहीं है। मकान की दीवारों के भीतर मालूम होता था, सब ठीक है, सुरक्षित है। मकान के बाहर आकाश के नीचे खड़े होकर मौत ज्यादा करीब मालूम पड़ती है।

धन पास में न हो, तो मौत पास मालूम पड़ती है। धन पास में हो, तो मौत जरा दूर मालूम पड़ती है। धन की दीवार बीच में खड़ी हो, तो हम मौत को टाल सकते हैं, कि अभी कोई फिक्र नहीं; देखेंगे। और फिर धन हमारे पास है, कुछ न कुछ इंतजाम कर लेंगे। चिकित्सा हो सकती है, डाक्टर हो सकता है। कुछ होगा। हम मृत्यु को पोस्टपोन कर सकते हैं। वह हो या न, यह दूसरी बात है। लेकिन हम अपने मन में सोच सकते हैं कि इतनी जल्दी नहीं है कुछ, कुछ उपाय किया जा सकता है। धन पास में न हो, प्रियजन पास में न हों, अकेले आप खड़े हों आकाश के नीचे, मकान जल गया हो, मौत एकदम पास मालूम पड़ेगी।

सफल होता है आदमी, तो मौत बहुत दूर मालूम पड़ती है। असफल होता है आदमी, तो खयाल आने लगते हैं उदासी के, मरने का भाव होने लगता है।

जहां भी दुख है, समझ लेना कि वहां मौत कहीं न कहीं से झांक रही है।

तो हम मृत्यु को जानते हुए और मृत्यु में जीते हुए कभी भी आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकते। हम भुला सकते हैं अपने को, कि मौत दूर है, लेकिन दूर से भी उसकी काली छाया पड़ती ही रहती है। हमारे सभी सुखों में मौत की छाया आकर जहर घोल देती है, कितने ही सुखी हों। बल्कि सच तो यह है कि सुख के क्षण में भी मौत की झलक बहुत साफ होती है, क्योंकि सुख के क्षण में भी तत्‍क्षण दिखाई पड़ता है कि क्षणभर का ही है यह सुख। वह जो क्षणभर का दिखाई पड़ रहा है, वह मौत की छाया है।

पढ़ रहा था मैं हरमन हेस के बाबत। जिस दिन उसे नोबल प्राइज मिली, उसने अपने मित्र को एक पत्र में लिखा है कि एक क्षण को मैं परम आनंदित मालूम हुआ। लेकिन एक क्षण को! और तत्‍क्षण उदासी छा गई, अब क्या होगा? अभी तक एक आशा थी कि नोबल प्राइज। वह मिल गई; अब? घनघोर अंधेरा घेर लिया। अब जीवन व्यर्थ मालूम पड़ा, क्योंकि अब कुछ पाने योग्य भी नहीं। मौत करीब दिखाई पड़ने लगी।

आदमी दौड़ता रहता है, जब तक सुख नहीं मिलता। जब मिलता है, तब अचानक दिखाई पड़ता है, अब? अब क्या होगा? जिस स्त्री को पाना था, वह मिल गई। जिस मकान को बनाना था, वह मिल गया। बेटा चाहिए था, बेटा पैदा हो गया। अब?

सुख के क्षण में सुख क्षणभंगुर है, तत्‍क्षण दिखाई पड़ जाता है। सुख के क्षण में सुख जा चुका, यह अनुभव में आ जाता है। सुख के क्षण में दुःख मौजुद हो जाता है।

मौत सब तरफ से घेरे हुए है, इसलिए कृष्ण कहते हैं, अमृत और परमानंद को जिससे प्राप्त हो जाए, वही ज्ञान है। और ऐसी जानने योग्य बातें मैं तुझसे अच्छी प्रकार कहूंगा।

वह आदिरहित परम ब्रह्म अकथनीय होने से न सत कहा जाता है और न असत ही कहा जाता है।

यह बहुत सूक्ष्म बात है। थोड़ा ध्यानपूर्वक समझ लेंगे।

वह आदिरहित परम ब्रह्म अकथनीय होने से न सत कहा जाता है और न असत ही कहा जाता है।

परमात्मा को हम न तो कह सकते कि वह है, और न कह सकते कि वह नहीं है। कठिन बात है। क्योंकि हमें तो लगता है, दोनों बातों में से कुछ भी कहिए तो ठीक है, समझ में आता है। या तो कहिए कि है, या कहिए कि नहीं है। दुनिया में जो आस्तिक और नास्तिक हैं, वे इसी विवाद में होते हैं।

इसलिए अगर कोई पूछे कि गीता आस्तिक है या नास्तिक? तो मैं कहूंगा, दोनों नहीं है। कोई पूछे कि वेद आस्तिक हैं या नास्तिक? तो मैं कहूंगा, दोनों नहीं हैं। धार्मिक हैं, आस्तिक—नास्तिक नहीं हैं।

क्योंकि आस्तिकता—नास्तिकता तो जीवन को दो हिस्सों में तोड़ लेती हैं। आस्तिक कहता है, ईश्वर है। नास्तिक कहता है, ईश्वर नहीं है। लेकिन दोनों एक ही भाषा का उपयोग कर रहे हैं। आस्तिक कहता है, है में हमने ईश्वर को पूरा कह दिया। और नास्तिक कहता है कि नहीं है में हमने पूरा कह दिया। उनमें फर्क शब्दों का है। लेकिन दोनों दावा करते हैं कि हमने पूरे ईश्वर को कह दिया।

गीता कहती है कि कोई भी शब्द उसे पूरा नहीं कह सकता। क्योंकि शब्द छोटे हैं और वह बहुत बड़ा है। हम कहेंगे है, तो भी आधा कहेंगे, क्योंकि नहीं होना भी जगत में घटित होता है। वह भी तो परमात्मा में ही घटित हो रहा है। नहीं है अगर परमात्मा के बाहर हो, तो इसका अर्थ हुआ कि जगत के दो हिस्से हो गए। कुछ परमात्मा के भीतर है, और कुछ परमात्मा के बाहर है। तब तो परमात्मा दो हो गए; तब तो जगत विभाजित हो गया।

अगर हम कहें कि परमात्मा सिर्फ जीवन है, तो फिर मौत किस में होगी? और अगर हम कहें कि परमात्मा सिर्फ सुख है, तो दुख किस में होगा? और अगर हम कहें कि परमात्मा सिर्फ स्वर्ग है, तो फिर नर्क कहां होगा? फिर हमें नर्क को अलग बनाना पड़ेगा परमात्मा से। उसका अर्थ हुआ कि हमने अस्तित्व को दो हिस्सों में तोड़ दिया। और अस्तित्व दो हिस्सों में टूटा हुआ नहीं है, अस्तित्व एक है।

परमात्मा ही जीवन है और परमात्मा ही मृत्यु। दोनों है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, वह अकथनीय है। क्योंकि जब कोई चीज दोनों हो, तो अकथनीय हो जाती है। कथन में तो तभी तक होती है, जब तक एक हो और विपरीत न हो।

अरस्तु ने कहा है कि आप दोनों विपरीत बातें एक साथ कहें, तो वक्तव्य व्यर्थ हो जाता है।

जैसे कि अगर आप मुझसे पूछें कि आप यहां हैं या नहीं हैं ? मैं कहूं कि मैं यहां हूं भी और नहीं भी हूं तो वक्तव्य व्यर्थ हो गया। अदालत आपसे पूछे कि आपने हत्या की या नहीं की? और आप कहें, हत्या मैंने की भी है और मैंने नहीं भी की है, तो आपका वक्तव्य व्यर्थ हो गया। क्योंकि दोनों विपरीत बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।

अरस्तु का तर्क कहता है, एक ही बात सही हो सकती है। और यही बुनियादी फर्क है, भारतीय चिंतना में और यूनानी चिंतना में, पश्चिम और पूरब के विचार में।

पश्चिम कहता है कि विपरीत बातें साथ नहीं हो सकती हैं, कंट्राडिक्टरीज साथ नहीं हो सकते। या तो ऐसा होगा, या वैसा होगा; दोनों एक साथ नहीं हो सकते। इसलिए पश्चिम कहता है, या तो कहो गॉड इज, ईश्वर है; या कहो गॉड इज नाट, ईश्वर नहीं है। लेकिन गीता कहती है, गॉड इज एंड इज नाट, बोथ, ईश्वर है भी, नहीं भी है।

वह सत भी है, असत भी है, या तो यह उपाय है कहने का। और या दूसरा उपाय यह है कि न तो वह सत है, और न वह असत है। और चूंकि दोनों को एक साथ उपयोग करना पड़ता है, इसलिए अकथनीय है; कहा नहीं जा सकता। कहने में आधे को ही कहना पड़ता है। क्योंकि भाषा द्वंद्व पर निर्भर है, भाषा द्वैत पर निर्भर है, भाषा विरोध पर निर्भर है। भाषा में अगर दोनों विरोध एक साथ रख दिए जाएं, तो व्यर्थ हो जाता है, अर्थ खो जाता है। इसलिए अकथनीय है। लेकिन क्यों नहीं कहा जा सकता ईश्वर को कि है?

थोड़ा समझें। हम कह सकते हैं, टेबल है, कुर्सी है, मकान है। इसी तरह हम कह नहीं सकते कि ईश्वर है। क्योंकि मकान कल नहीं हो जाएगा। कुर्सी कल जलकर राख हो जाएगी, मिट जाएगी। टेबल परसों नहीं होगी। मकान आज है, कल नहीं था। जब हम कहते हैं, मकान है, तो इसमें कई बातें सम्मिलित हैं। कल मकान नहीं था, और कल मकान फिर नहीं हो जाएगा। और जब हम कहते हैं, ईश्वर है, तो क्या हम ऐसा भी कह सकते हैं कि कल ईश्वर नहीं था और कल ईश्वर नहीं हो जाएगा?

हर है के दोनों तरफ नहीं होता है। मकान कल नहीं था, कल फिर नहीं होगा, बीच में है। हर है के दोनों तरफ नहीं होता है। इसलिए ईश्वर है, यह कहना गलत है। क्योंकि उसके दोनों तरफ नहीं नहीं है। वह कल भी था, परसों भी था। कल भी होगा, परसों भी होगा। वह सदा है।

तो जो सदा है, उसको है कहना उचित नहीं। क्योंकि हम है उन चीजों के लिए कहते हैं, जो सदा नहीं हैं। और जिसके लिए है कहना ही उचित न हो, उसके लिए नहीं है कहने का तो कोई अर्थ नहीं रह जाता।

ईश्वर अस्तित्व ही है। नहीं और है, दोनों उसमें समाविष्ट हैं। उसका ही एक रूप है है; और उसका ही एक रूप नहीं है। कभी वह प्रकट होता है, तब है मालूम होता है। और कभी अप्रकट हो जाता है, तब नहीं है मालूम होता है।

एक बीज है। अगर मैं आपसे पूछूं कि बीज में वृक्ष है या नहीं? तो आपको कहना पड़ेगा कि दोनों बातें हैं। क्योंकि बीज में वृक्ष है, इस अर्थ में, कि वृक्ष हो सकता है, अगर हम बो दें, तो वृक्ष हो जाएगा। जो कल हो सकता है, वह आज भी कहीं न कहीं छिपा होना चाहिए, नहीं तो कल होगा कैसे। फिर कोई बीज बो देने से हर कोई वृक्ष नहीं हो जाएगा। जो वृक्ष छिपा है, वही होगा। नहीं तो हम आम बो दें और नीम पैदा हो जाए। नीम बी दें और आम पैदा हो जाए। लेकिन नीम से नीम पैदा होगी। इसका एक मतलब साफ है कि नीम में नीम का ही वृक्ष छिपा था। जो बीज है आज, वह कल वृक्ष हो सकता है, इसलिए वृक्ष उसमें है—अव्यक्त, अप्रकट, अनमैनिफेस्ट।

फिर कल वृक्ष हो गया। अगर मैं आपसे पूछूं कि बीज कहां है? कल बीज था, वृक्ष छिपा था। आज वृक्ष है, बीज छिप गया। बीज अब भी है, लेकिन अब छिप गया। अप्रकट है। लेकिन हम कहेंगे, बीज नहीं है।

नहीं अप्रकट रूप है, और है प्रकट रूप है। ईश्वर दोनों है, कभी प्रकट है, कभी अप्रकट है। जगत उसका है रूप है, पदार्थ उसका है रूप है, और आत्मा उसका नहीं रूप है।

यह थोड़ा जटिल है। इसलिए बुद्ध ने आत्मा को नथिंगनेस कहा है, नहीं। यह जो दिखाई पड़ता है, यह परमात्मा का है रूप है। और जो भीतर नहीं दिखाई पड़ता है, वह उसका नहीं रूप है। और जब तक दोनों को हम न जान लें, तब तक हम मुक्त नहीं हो सकते। है को तो हम जानते हैं, नहीं है को भी जानना होगा। इसलिए ध्यान मिटने का उपाय है, नहीं होने का उपाय है। प्रेम मिटने का उपाय है, नहीं होने का उपाय है। समर्पण, भक्ति, श्रद्धा, सब मिटने के उपाय हैं, ताकि नहीं रूप को भी आप जान लें।

जो न सत है, जो न असत है, या जो दोनों है, वह अकथनीय है। उसे कहा नहीं जा सकता। इसलिए सभी शास्त्र उस संबंध में बहुत कुछ कहकर भी यह कहते हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता। हमारा सब कहना बच्चों की चेष्टा है। हमारा सब कहना प्रयास है आदमी का, कमजोर आदमी का, सीमित आदमी का। जैसे कोई आकाश को मुट्ठी में बांधने की कोशिश कर रहा हो।

निश्चित ही, मुट्ठी में भी आकाश ही होता है। जब आप मुट्ठी बांधते हैं, तो जो आपके भीतर है मुट्ठी के, वह भी आकाश ही है। लेकिन फिर भी क्या आप उसको आकाश कहेंगे? क्योंकि आकाश तो यह विराट है।

आपकी मुट्ठी में भी आकाश ही होता है, लेकिन पूरा आकाश नहीं होता। क्योंकि आपकी मुट्ठी भी आकाश में ही है, पूरे आकाश को मुट्ठी नहीं घेर सकती। मुट्ठी आकाश से बड़ी नहीं हो सकती। मनुष्य की चेतना परमात्मा को पूरा अपनी मुट्ठी में नहीं ले पाती, क्योंकि मनुष्य की चेतना स्वयं ही परमात्मा के भीतर है। फिर भी हम कोशिश करते हैं। उस कोशिश में थोड़ी—सी झलकें मिल सकती हैं। लेकिन झलक भी तभी मिल सकती है, जब कोई सहानुभूति से समझने की कोशिश कर रहा हो। अगर जरा भी सहानुभूति की कमी हो, तो झलक भी नहीं मिलेगी, झलक भी खो जाएगी।

शब्द असमर्थ हैं। लेकिन अगर सहानुभूति हो, तो शब्दों में से कुछ सार—सूचना मिल सकती है।

परंतु वह सब ओर से हाथ—पैर वाला एवं सब ओर से नेत्र, सिर और मुख वाला है तथा सब ओर से श्रोत वाला है, क्योंकि वह संसार में सब को व्याप्त करके स्थित है।

लेकिन इसका यह मतलब मत समझना कि वह अकथनीय है, निराकार है, निर्गुण है, न कहा जा सकता सत, न असत, तो हमसे सारा संबंध ही छूट गया। फिर आदमी को लगता है कि ऐसी चीज, शून्य जैसी, उससे हमारा क्या लेना—देना! फिर हम किसके सामने रो रहे हैं? और किससे प्रार्थना कर रहे हैं? और किसकी पूजा कर रहे हैं? और किसके प्रति समर्पण करें? जो न है, न नहीं है, जो अकथनीय है। कृष्ण खुद जिसको कहने में समर्थ न हों, उसके बाबत बात ही क्या करनी है! फिर बेहतर है, हम अपने काम—काज की दुनिया में लगे रहें। ऐसे अकथनीय के उपद्रव में हम न पड़ेंगे। क्योंकि जिसे कहा नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता, उससे संबंध भी क्या निर्मित होगा!

तो तत्‍क्षण दूसरे वचन में ही कृष्ण कहते हैं, परंतु वह सब ओर से हाथ—पैर वाला, सब ओर से नेत्र, सिर, मुख वाला, कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त कर के स्थित है।

जैसे उसका प्रकट और अप्रकट रूप है, वैसे ही उसका आकार और निराकार रूप है। जैसा उसका निराकार और आकार रूप है, वैसा ही उसका सगुण और निर्गुण रूप है। वह दोनों है, दोनों विपरीतताएं एक साथ। इसलिए अगर कोई चाहे तो उससे बात कर सकता है। कोई चाहे तो उसके कान में बात डाल सकता है। कोई कान आपके सामने नहीं आएगा। लेकिन अगर आप पूरे हृदयपूर्वक उससे कुछ कहें, तो उस तक पहुंच जाएगा, क्योंकि सभी तरफ उसके कान हैं।

कृष्ण यह कह रहे हैं, सब ओर से कान वाला, सब ओर से हाथ वाला......।

अगर आप हृदयपूर्वक अपने हाथ को उसके हाथ में दे दें, असंदिग्ध मन से, तो शून्य आकाश भी उसका हाथ बन जाएगा। और आपके हाथ को वह सम्हाल लेगा। लेकिन यह निर्भर आप पर है। क्योंकि अगर यह हृदय पूरा हो, तो यह घटना घट जाएगी, क्योंकि सब कुछ वही है। हर जगह उसका हाथ उठ सकता है। हर हवा की लहर उसका हाथ बन सकती है। लेकिन वह बनाने की कला आपके भीतर है। अगर यह श्रद्धा पूरी हो, तो यह घटना घट जाएगी। लेकिन अगर जरा—सा भी संदेह हो, तो यह घटना नहीं घटेगी।

लोग कहते हैं कि हमारा संदेह तो तब मिटेगा, जब घटना घट जाए। वे भी ठीक ही कहते हैं। संदेह तभी मिटेगा, जब घटना घट जाए। लेकिन तब बड़ी कठिनाई है। कठिनाई यह है कि जब तक संदेह न मिटे, घटना भी नहीं घटती। यह बड़ी उलझन की बात है। 

अगर आपको लगता हो कि संदेह तो हम तभी छोड़ेंगे, जब उसका हाथ हमारे हाथ को पकड़ ले, तो बड़ी कठिनाई में हैं आप। क्योंकि उसका हाथ तो सब तरफ मौजूद है। लेकिन जिसका संदेह छूट गया, उसी के लिए हाथ उसकी पकड़ में आता है। आप तभी पकड़ पाएंगे—उसका हाथ तो मौजूद है—आप तभी पकड़ पाएंगे, जब आपका संदेह छूट जाए।

तो कुछ प्रयोग करने पड़ेंगे, जिनसे संदेह छूटे। कुछ प्रयोग करने पड़ेंगे, जिनसे श्रद्धा बढ़े। कुछ प्रयोग करने पड़ेंगे, जिनसे वह खुला आकाश उसके हाथ, उसके कान, उसकी आंखों में रूपांतरित हो जाए।

एक ही बात मेरे खयाल में आती है। खुद पर विश्वास करने की कोई भी जरूरत नहीं है, हमें खुद पर विश्वास होता ही है। आप हैं, इतना पक्का है। ऐसा कोई भी आदमी नहीं है, जिसको यह शक हो कि मैं नहीं हूं।

क्या आपको कभी कोई ऐसा आदमी मिला, जिसको शक हो कि मैं नहीं हूं। इस शक के लिए भी तो खुद का होना जरूरी है। कौन करेगा शक? एक बात असंदिग्ध है कि मैं हूं। इसलिए इस मैं हूं के साथ कुछ प्रयोग करने चाहिए, जो असंदिग्ध है।

और जैसे—जैसे इस मैं हूं में प्रवेश होता जाएगा, वैसे—वैसे ही संदेह बिलकुल समाप्त हो जाएंगे। और जिस दिन मैं हूं की पूरी प्रतीति होती है, हाथ फैला दें, और परमात्मा का हाथ हाथ में आ जाएगा। आंख खोलें, और उसकी आंख आपकी आंख के सामने होंगी। बोलें, और उसके कान आपके होंठों से लग जाएंगे।

कृष्ण कहते हैं, वह सब ओर से हाथ—पैर वाला है, क्योंकि सब को व्याप्त करके वही स्थित है। और संपूर्ण इंद्रियों के विषयों को जानने वाला है, परंतु वास्तव में सब इंद्रियों से रहित है।

वह आपके बाहर ही है, ऐसा नहीं है; वह आपके भीतर भी है। हमारा और उसका संबंध ऐसे है, जैसे मछली और सागर का संबंध।

कृष्ण कहते हैं, संपूर्ण इंद्रियों को जानने वाला भी वही है। भीतर से वही आंख में से देख रहा है। बाहर वही दिखाई पड़ रहा है फूल में। भीतर आंख से वही देख रहा है। और सब इंद्रियों के भीतर से जानते हुए भी सब इंद्रियों से रहित है।

इसका थोड़ा प्रयोग करें, तो खयाल में आ जाए। क्योंकि यह कोई तर्क—निष्पत्ति नहीं है। यह कोई तर्क का वक्तव्य होता, तो हम गणित और तर्क से इसको समझ लेते। ये सभी वक्तव्य अनुभूति—निष्पन्न हैं।

थोड़ा प्रयोग कर के देखें। थोड़ा आंख बंद कर लें और भीतर देखने की कोशिश करें। आप चकित होंगे, थोड़े ही दिन में आपको भीतर देखने की कला आ जाएगी। इसका मतलब यह हुआ कि आंख जब नहीं है, बंद है, तब भी आप भीतर देख सकते हैं।

कान बंद कर लें और थोड़े दिन भीतर सुनने की कोशिश करें। एक घंटेभर कान बंद करके बैठ जाएं और सुनने की कोशिश करें भीतर। पहले तो आपको बाहर की ही बकवास सुनाई पड़ेगी। पहले तो जो आपने इकट्ठा कर रखा है कानों में संग्रह, कान उसी को मुक्त कर देंगे और वही कोलाहल सुनाई पड़ेगा। लेकिन धीरे—धीरे, धीरे— धीरे— धीरे कोलाहल शांत होता जाएगा और एक ऐसी घड़ी आएगी कि आपको भीतर का नाद सुनाई पड़ने लगेगा। वह नाद बिना कान के सुनाई पड़ता है। फिर अगर कोई आपके कान बिलकुल भी नष्ट कर दे, तो भी वह नाद सुनाई पड़ता रहेगा।

अंधा भी आत्मा को देख सकता है। अंधा भी भीतर के अनुभव में उतर सकता है। और बहरा भी ओंकार के नाद को सुन सकता है। लेकिन हम उस दिशा में मेहनत नहीं करते। हम तो बहरे को निंदित कर देते हैं कि तुम बहरे हो, तुम्हारा जीवन व्यर्थ है।

अगर दुनिया कभी ज्यादा समझदार होगी, तो हम बहरे को सिखाएंगे वह कला, जिसमें वह भीतर का नाद सुन ले। क्योंकि बहरा हमसे ज्यादा आसानी से सुन सकता है। क्योंकि हम तो बाहर के कोलाहल में बुरी तरह उलझे होते हैं। बहरे को भीतर का नाद जल्दी सुनाई पड़ सकता है।

और अंधे को भीतर का दर्शन जल्दी हो सकता है। लेकिन हम तो निंदित कर देते र्हैं। क्योंकि हमारी बाहर आंखों की दुनिया है, जो बाहर नहीं देख सकता, वह अंधा है, वह जीवन से व्यर्थ है। जो बाहर नहीं सुन सकता, वह व्यर्थ है। जो बोल नहीं सकता, वह बेकार है। लेकिन भीतर के प्रवेश के लिए मूक होना पड़ता है, बहरा होना पड़ता है और अंधा होना पड़ता है।

और जब कोई अंधा होकर भी भीतर देख लेता है, बहरा होकर भी भीतर सुन लेता है, तब हमें पता चल जाता है कि वह जो भीतर छिपा है, वह इंद्रियों से जानता है, लेकिन इंद्रियों से रहित है। वह इंद्रियों के बिना भी जान सकता है।

तथा आसक्तिरहित और गुणों से अतीत हुआ निर्गुण भी है, अपनी योगमाया से सब का धारण—पोषण करने वाला और गुणों को भोगने वाला भी है।

इन सारे वक्तव्यों में विरोधों को जोड्ने की कोशिश की गई है। वह कोशिश यह है कि हम परमात्मा को विभाजित न करें। और हम यह न कहें कि वह ऐसा है और ऐसा नहीं है। वह दोनों है। निर्गुण भी है, और गुणों को भोगने वाला भी है।

मनुष्य के मन को सबसे बड़ी कठिनाई यही है, विपरीत को जोड़ना। हमें तोड़ना तो आता है, जोड़ना बिलकुल नहीं आता। हम तो किसी भी चीज को बड़ी आसानी से तोड़ लेते हैं। तोड्ने में हमें जरा अड़चन नहीं होती। क्योंकि बुद्धि की व्यवस्था ही तोड्ने की है। बुद्धि खडक है। जैसे कि कोई आपने अगर कांच का प्रिज्य देखा हो; तो प्रिज्म से किरण को गुजारें प्रकाश की, वह सात टुकड़ों में टूट जाती है।

इंद्रधनुष दिखाई पड़ता है वर्षा में, वह इसीलिए दिखाई पड़ता है। वर्षा में कुछ पानी के कण हवा में टंगे रह जाते हैं। सूरज की किरण उन कणों से निकलती है; वे कण प्रिज्य का काम करते हैं। वे किरण को सात टुकड़ों में तोड़ देते हैं। सूरज की किरण तो सफेद है। लेकिन पानी के लटके कणों में से गुजरकर सात टुकड़ों में टूट जाती है। इसलिए आपको इंद्रधनुष दिखाई पड़ता है।

मनुष्य की बुद्धि भी प्रिज्य का काम करती है और चीजों को तोड़ती है। जब तक आप बुद्धि को हटाकर देखने की कला न पा जाएं, तब तक आपको इंद्रधनुष दिखाई पड़ेगा, चीजें टूटी हुई अनेक रंगों में दिखाई पड़ेगी। अगर आप इस प्रिज्य को हटा लें, तो चीज एक रंग की हो जाती है, सफेद हो जाती है।

सफेद कोई रंग नहीं है। सफेद सब रंगों का जोड़ है। सफेद में सब रंग छिपे हैं। इसलिए स्कूल में बच्चों को सिखाया जाता है, तो एक छोटा—सा चाक(पहिया) बना लेते हैं। चाक में सात रंग की पंखुड़ियां लगा देते हैं। और फिर चाक को जोर से घुमाते हैं। चाक जब जोर से घूमता है, तो सात रंग नहीं दिखाई पड़ते, चाक सफेद रंग का दिखाई पड़ने लगता है। सफेद सातों रंगों का जोड़ है। सातों रंग सफेद के टूटे हुए हिस्से हैं।

जगत इंद्रधनुष है। इंद्रियों से टूटकर जगत का इंद्रधनुष निर्मित होता है। इंद्रियों को हटा दें, मन को हटा दें, बुद्धि को हटा दें, तो सारा जगत शुभ्र, एक रंग का हो जाता है। वहां सभी विरोध मिल जाते हैं। वहां काला और हरा और लाल और पीला, सब रंग एक हो जाते हैं।

यह जो कृष्ण कह रहे हैं, यह इंद्रधनुष मिटाने वाली बातें हैं। वे कह रहे हैं, निर्गुण भी वही, सगुण भी वही, सब गुण उसी के हैं; और फिर भी कोई गुण उसका नहीं है।

इस तरह की बातों को पढ़कर पश्चिम में तो लोग समझने लगे कि ये भारत के ऋषि—महर्षि, अवतार, ये थोड़े—से विक्षिप्त मालूम होते हैं। ये इस तरह के वक्तव्य देते हैं, जिनमें कोई अर्थ ही नहीं है।

क्योंकि अरस्तु ने कहा है कि ए इज़ ए, एंड कैन नेवर बी नाट ए—अ अ है और न—अ कभी ब नहीं हो सकता। इस आधार पर आज की सारी शिक्षण—पद्धति विकसित हुई है कि विरोध इकट्ठे नहीं हो सकते। और यह क्या बात है, वेद, उपनिषद, गीता एक ही बात कहे चले जाते हैं कि वह दोनों है!

इसे हम समझ लें ठीक से। इसे कहने का कारण है।


आपकी बुद्धि को तोड़ने के लिए यह कहा जा रहा है, आपकी बुद्धि को समझाने के लिए नहीं। यह कृष्ण अर्जुन की बुद्धि को समझाने की कोशिश नहीं कर रहे है यह अर्जुन की बुद्धि को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि बुद्धि समझ भी ले, तो भी बुद्धि के पार न जाएगी। बुद्धि तो टूट जाए, तो ही अर्जुन पार जा सकता है। यह वक्तव्य बुद्धि विनाशक है। वह जो खंड—खंड करने वाली बुद्धि है, उसको तोड्ने का उपाय है, उसे व्यर्थ करने का उपाय है। और जब दोनों विरोध एक साथ दे दिए जाएं, तो बुद्धि व्यर्थ हो जाती है। फिर सोचने को कुछ भी नहीं बचता।

थोड़ा सोचें, निर्गुण भी वही, सगुण भी वही, क्या सोचिएगा? इसलिए दो पंथ हमने निर्मित कर लिए हैं। निर्गुणवादियो ने अलग पथ निर्मित कर लिया है। उन्होंने कहा कि नहीं, वह निर्गुण है। सगुणवादियो ने अलग पंथ निर्मित कर लिया। उन्होंने कहा कि नहीं, वह सगुण है; निर्गुण कभी नहीं है।

ये दोनों बातें बुद्धिगत हैं। अगर निर्गुण है, तो सगुण नहीं हो सकता। सगुण है, तो निर्गुण नहीं हो सकता। हमने दो पंथ निर्मित कर लिए। ये दोनों पंथ अधार्मिक हैं, क्योंकि दोनों पंथ बुद्धिगत बात को मानते हैं। बुद्धि के पार नहीं जाते।

धर्म विरोध को जोड्ने वाला है। वह कहता है, वह दोनों है और दोनों नहीं है। जो व्यक्ति इस बात को समझने में राजी हो जाएगा कि दोनों है, उसको समझने की कोशिश में अपनी समझ ही छोड़ देनी पड़ेगी

हमारी जो बुद्धि है, वह विरोधों में बंटी है। वह चीजों को बाटती है, एनालाइज करती है, विश्लिष्ट करती है। वह कहती है, यह जन्म है, यह मौत है। वह कहती है, यह मित्र है, यह शत्रु है। वह कहती है, यह जहर है, यह अमृत है। वह कहती है, यह अच्छा है, और यह बुरा है। हर चीज को बांटती है।

यह कृष्ण का पूरा प्रयास यही है कि बांटो मत। जगत को, अस्तित्व को एक की तरह देखो। बांटी मत। निर्गुण भी वही, गुणों वाला भी वही है।

इस पर अगर थोड़े प्रयास करेंगे, इस तरह की विपरीत बातों को अगर एक साथ आंख बंद करके ध्यान करेंगे, तो बहुत आनंद आएगा। मन तो कहेगा कि एक कुछ भी तय कर लो जल्दी, या तो निर्गुण या सगुण।

इसे जरा प्रयोग करके देखें। आंख बंद करके कभी बैठ जाएं अपने मंदिर में, अपनी मस्जिद में और कहें कि वह दोनों है। और फिर अपने से पूछें कि क्या राजी हैं? मन कहेगा कि नहीं, दोनों नहीं हो सकते। एक कुछ भी हो सकता है। मन फौरन कहेगा कि या तो मान लो कि सगुण है, या मान लो कि निर्गुण है।

तो मुसलमान मान लिए कि निर्गुण है। तो मूर्तियां तोड़ते फिरे, क्योंकि सगुण को नहीं बचने देना है। उनको लगा कि जब निर्गुण है, तो फिर सगुण को तोड़ देना है।

एक आदमी मूर्ति—पूजा कर रहा है। वह कहता है, भगवान सगुण है, इसलिए हम मूर्ति बनाते हैं। एक आदमी कहता है, वह निर्गुण है, इसलिए हम मूर्ति तोड़ते हैं। लेकिन दोनों मूर्ति की तरफ ध्यान लगाए हुए हैं, एक तोड्ने के लिए, एक बनाने के लिए। मुसलमानों से ज्यादा मूर्ति—पूजक खोजना बहुत मुश्किल है, क्योंकि मूर्ति को तोड़ना भी उसके ही साथ संबंधित हो जाना है। आखिर मूर्ति पर इतना ध्यान देने की जरूरत क्या है! अगर वह निर्गुण है और सगुण नहीं है, तो मूर्ति को तोड्ने से क्या फायदा है? कोई अर्थ नहीं है।

लेकिन आदमी का मन ऐसा है कि वह एक पक्ष में हो जाए तो दूसरे पक्ष के खिलाफ कोशिश करता है, तो ही एक पक्ष में रह सकता है। डर लगता है कि कहीं दूसरा पक्ष ठीक न हो; तो मिटा दो दूसरे पक्ष को।

लेकिन कुछ मिट सकता नहीं। पत्थर की मूर्तियां टूट सकती हैं। ये आदमी भी सब मूर्तियां हैं। इनको कैसे तोडिएगा? वृक्ष भी एक मूर्ति है। पत्थर को भी तोड़ दो, तो वह जो टूटा हुआ पत्थर है, वह भी मूर्ति है, वह भी एक मूर्त रूप है; वह भी आकार है। आकार कैसे मिटाइएगा?

अस्तित्व में दोनों समाविष्ट हैं, निराकार भी, आकार भी। न तो बनाने की कोई जरूरत है, न मिटाने की कोई जरूरत है। बनाने और मिटाने का अगर कोई काम ही करना हो, तो भीतर करना जरूरी है कि भीतर इस मन को इस हालत में लाना जरूरी है कि जहां यह दोनों विरोधों को एक साथ स्वीकार कर ले।

जैसे ही दोनों विरोध एक साथ स्वीकार होते हैं, मन तीर जाता है और समाप्त हो जाता है। और अमन की स्थिति पैदा हो जाती है। वह अमनी स्थिति ही समाधि है।

यह सारा प्रयोजन कृष्ण का इतना ही है कि आप दोनों को एक साथ स्वीकार करने को राजी हो जाएं। राजी होते ही आप रूपांतरित हो जाएंगे। और जब तक आप राजी न होंगे और एक पक्ष में झुकेंगे, तब तक आप बदल नहीं सकते हैं, तब तक आप द्वंद्व में ही घिरे रहेंगे।

दो में से एक को चुनना द्वैत को समर्थन करना है। दोनों को एक साथ स्वीकार कर लेना, अद्वैत की उपलब्धि है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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