शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 14 भाग 7

 असंग साक्षी


नान्यं गुणेभ्‍य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यीत।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्‍छति।। 19।।

गुणानेतानतीत्‍य त्रीन्‍देही देहसमुद्भवान्।

जन्मस्त्युऋजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।। 20।।


और हे अर्जुन, जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है अर्थात गुण ही गुणों में बर्तते है, ऐसा देखता है और तीनों गुणों से अति परे सच्चिदानंदधनस्वरूप मुझ परमात्‍मा को तत्‍व से जानता है, उस काल में वह पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।

तथा यह पुरूष इन  स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्‍था और सब प्रकार के दुखों से मुक्‍त हुआ परमानंद को प्राप्त होता है।


जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है...।

एक—एक शब्द को ठीक से समझ लें।

जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है अर्थात गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा देखता है और तीनों गुणों से अति परे सच्चिदानंदघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है, उस काल में वह पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। तथा यह पुरुष इन स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुखों से मुक्त हुआ परमानंद को प्राप्त होता है।

जिस काल में, समय की जिस अवधि में, जिस क्षण में...। और यह क्षण अभी भी हो सकता है। इसके लिए कोई जन्मों तक रुकने की जरूरत नहीं है। क्योंकि यह आपके भीतर का जो स्वभाव है, यह कुछ निर्मित नहीं करना है। यह है ही। ऐसा है ही, अभी भी, इस क्षण भी। आप साक्षीरूप हैं और सारा कर्तृत्व आपके शरीर की प्रकृति में हो रहा है, गुणों में हो रहा है, तीन गुणों में हो रहा है, जो प्रकृति के तीन नियंता हैं, और आप अभी भी अलग खड़े हैं। यह सिर्फ भ्रांति है कि आप सोचते हैं, आप कर रहे हैं।

जिस काल में, जिस क्षण में, द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है।

जिस क्षण आपको यह समझ में आ जाता है कि मेरे तीन गुण ही समस्त कर्म कर रहे हैं, मैं करने वाला नहीं हूं; गुण ही कर रहे हैं, करवा रहे हैं......।

कठिन है। क्योंकि अहंकार को कोई जगह न रह जाएगी। इसलिए अहंकार बाधा बनेगा। अहंकार कहेगा, कौन कहता है कि धन मैं नहीं कमा रहा हूं? धन मैं कमा रहा हूं। हालांकि आपको पता नहीं है, आपके भीतर जो लोभ का गुण है, वे जो लोभ के परमाणु हैं, वे आपको धक्का दे रहे हैं। लेकिन आप सोचते हैं, मैं धन कमा रहा हूं। धन के लिए तो आपके भीतर लोभ के परमाणु दौड़ा रहे हैं। लेकिन यह आप जो मैं— भाव निर्मित करते हैं, यह बिलकुल थोथा है, यह झूठा है।

आप कहते हैं, मैं प्रेम में पड़ रहा हूं। मैं इस स्त्री के प्रेम में पड़ गया हूं। जब कि सिर्फ आपके वासना—क्या प्रेम में पड़ गए हैं। इसलिए जिन लोगों ने सांख्य की इस दृष्टि को ठीक से समझा था, उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं, जो इस युग में समझना मुश्किल हो गई हैं। कठिन भी है समझना। मगर अगर यह सूत्र खयाल में आ जाए, तो समझ में आ सकता है।


मनु ने कहा है कि अपनी बहन, अपनी बेटी, अपनी मां के साथ भी एकांत में मत रहना बिलकुल अकेले।

लगते हैं, बड़े दमनकारी लोग हैं। लेकिन उनके सूत्र त्रिगुणों के ऊपर आधारित हैं। वे यह कह रहे हैं, सवाल यह नहीं है कि वह लड़की है तुम्हारी। गहरे में तो वह स्त्री है और तुम पुरुष हो। और हार्मोन न लड़की को जानते हैं, न मां को जानते हैं, न पिता को जानते हैं, न बहन को जानते है। हार्मोन की कोई नैतिकता नहीं है। अगर पिता भी पुत्री के साथ एकांत में बहुत दिन हो, तो धीरे— धीरे लड़की स्त्री रह जाएगी, पिता पुरुष रह जाएगा। और उन दोनों की प्रकृति के जो खिंचाव हैं, वे शुरू हो जाएंगे। यह तभी रुक सकता है, जब साक्षी जग गया हो। लेकिन साक्षी कितने लोगों का जगा है?

तो मनु की बात भी बड़ी गहरी है, पर सांख्य के सूत्रों पर खड़ी है। सांख्य बड़ा अनूठा खोजी है। सांख्य की खोज गहरी है। खोज का सार यह है कि आपके भीतर दो तत्व हैं, एक प्रकृति और पुरुष। पुरुष तो आपकी चेतना है और प्रकृति आपकी देह और मन की संघटना है। और जो भी क्रियाएं हैं, वे सब प्रकृति से हो रही हैं। कोई क्रिया चेतना से नहीं निकल रही है।

लेकिन चेतना को यह शक्ति है कि वह क्रियाओं के साथ अपने को जोड़ ले और कहे कि मैं कर रहा हूं। यह संभावना चेतना की है कि वह कहे कि मैं कर रहा हूं। इतना कहते ही संसार निर्मित हो जाता है।

इसलिए सांख्य—सूत्र कहते हैं कि संसार का जन्म अहंकार के साथ है। मैं आया, संसार निर्मित हुआ। मैं गया, संसार विलीन हो गया। जैसे ही मैं गया, उसका अर्थ है कि मैं सिर्फ देखने वाला रह गया।

और ध्यान रहे, देखना कोई क्रिया नहीं है, द्रष्टा होना कोई क्रिया नहीं है। द्रष्टा होना आपका स्वभाव है। आपको कुछ करना नहीं पड़ता द्रष्टा होने के लिए, द्रष्टा आप हैं।

रात सोते हैं, सपना देखते हैं, तब भी आप द्रष्टा हैं। सुबह उठते हैं एक गहरी नींद के बाद, तो भी आप कहते हैं, बड़ा आनंद आया, नींद बड़ी गहरी थी। इसका मतलब है कि कोई आपके भीतर देखता रहा कि नींद बड़ी गहरी थी। सुबह आप कहते हैं, नींद बड़ी गहरी थी, बड़ा सुख रहा।

जागे, सोए, सपना देखें, द्रष्टा कायम है। यह द्रष्टा कोई किया नहीं है। यह द्रष्टा आपका सतत स्वभाव है। यह एक क्षण को भी खोता नहीं है। लेकिन इस द्रष्टा को आप कर्ता बना सकते हैं, यह सुविधा है। चाहे इसे सुविधा कहें, चाहे असुविधा। यह स्वतंत्रता है। चाहे इसे स्वतंत्रता कहें, और चाहे समस्त परतंत्रता का मूल। क्योंकि इसी स्वतंत्रता के गलत उपयोग से संसार निर्मित होता है। और इसी स्वतंत्रता के सही उपयोग से मोक्ष निर्मित हो जाता है।

मोक्ष है आपकी स्वतंत्रता का ठीक उपयोग। संसार है आपकी स्वतंत्रता का गलत उपयोग। आपकी चेतना प्रतिपल मात्र साक्षी है।

जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है .....।

बस, ये तीन ही गुण कर रहे हैं। कोई और चौथा मेरे भीतर कर्ता नहीं है। अर्थात गुण ही गुणों में बर्तते हैं.......।

गुण ही गुणों के साथ वर्तन कर रहे हैं; एक्‍शन—रिएक्‍शन कर रहे हैं। मेरे भीतर का पुरुष—गुण किसी के स्त्री—गुण का पीछा कर रहा है। मेरे भीतर का क्रोध का गुण किसी के ऊपर क्रोध बरसा रहा है। मेरे भीतर हिंसा का गुण किसी के प्रति हिंसा से भर रहा है।

कृष्ण यह कह रहे हैं अर्जुन से कि यह जो भी युद्ध हो रहा है, यह भी तीन गुणों का वर्तन है। इसमें उस तरफ खड़े लोग भी उन्हीं गुणों से सक्रिय हो रहे हैं। इस तरफ खड़े लोग भी उन्हीं गुणों से सक्रिय हो रहे हैं। और अगर तू भागेगा, तो तू यह मत सोचना कि तूने संन्यास लिया। अगर तेरे भीतर भागने के परमाणु हों, तो तू भाग सकता है। लेकिन तब भी यह तू जानना कि ये गुण ही बर्त रहे हैं। तू इस भ्रांति में मत पड़ना.....। जो भी हो, तू एक बात खयाल रखना कि तू देखने वाला है।

गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा जो देखता है और तीनों गुणों से अतीत—तीनों गुणों के पार, बियांड—तीनों गुणों से ऊपर, दूर, अतीत, सच्चिदानदघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है...।

प्रत्येक के भीतर इन तीन तत्वों के पीछे छिपा हुआ कृष्ण है। ब्रह्म कहें, क्राइस्ट कहें, बुद्ध कहें, जो भी कहना हो। इन तीनों तत्वों के भीतर छिपा हुआ आपका परम स्वभाव है, परम ब्रह्म है।

जो भी इन तीन गुणों को कर्ता की तरह जानता है, और इन तीनों के परे मुझ सच्चिदानदघनरूप परमात्मा को पहचानता है, उस काल में वह पुरुष मुझे प्राप्त हो जाता है।

वह प्राप्त है ही। सिर्फ यह प्रत्यभिज्ञा, यह रिकग्नीशन, यह पहचान प्राप्ति बन जाती है। इस क्षण भी आप आंख मोड़ लें गुणों से और गुणों के पीछे सरककर एक झलक ले लें, तो जो मोक्ष बहुत दूर दिख रहा है, वह जरा भी दूर नहीं है। सिर्फ मुड़कर देखने की बात है।

जो परमात्मा बडा जटिल मालूम पड़ता है, जिस पर भरोसा नहीं आता, तर्क जिसे सिद्ध नहीं कर पाता, जिस पर बड़ा अविश्वास और संदेह पैदा होता है, हजार चिंताएं मन में पकड़ती हैं कि परमात्मा कैसे हो सकता है! वह परमात्मा इतना निकट है कि जितनी देर परमात्मा शब्द कहने में लगती है, उतनी देर भी उसे पाने में लगने का कोई कारण नहीं है। मगर एक अबाउट टर्न, एक पूरा घूम जाना; जहां पीठ है, वहां चेहरा हो जाए; और जहां चेहरा है, वहां पीठ हो जाए।

अभी हमारा चेहरा गुणों की तरफ है। कभी इस गुण में, कभी उस गुण में, कभी तीसरे गुण में हम उलझे हैं। और गुण का जो खेल है, जाल है, वह जाल हम अपना समझ रहे हैं।

बुढ़ापे में लोग शीलवान हो जाते हैं। बुढ़ापे में लोग सच्चरित्रता की बात करने लगते हैं। बुढ़ापे में दूसरे लोगों को समझाने लगते हैं कि जवानी सब रोग है। जब वे जवान थे, तो उनके घर के बड़े—बूढ़े भी उन्हें यही समझा रहे थे कि जवानी सब रोग है। उन्होंने उनकी नहीं सुनी। उनके बेटे भी उनकी नहीं सुनेंगे।

और बड़ा मजा यह है कि जब आपने अपने बाप की नहीं सुनी, तो आप किस भ्रांति में हैं कि अपने बेटे को सोच रहे हैं, सुन ले। किसी बेटे ने कभी नहीं सुनी। क्योंकि जवानी सुनती ही नहीं। और बुढ़ापा बोले चला जाता है। बुढापा समझाए चला जाता है। क्योंकि बुढ़ापा अब कुछ और कर नहीं सकता। करने के दिन गए। वह जिन तत्वों से करना निकलता था, वे क्षीण हो गए।

और बड़े मजे की बात है, जब आप नहीं कर सकते, तब भी आपको यह खयाल नहीं आता कि शरीर के गुणधर्म क्षीण हो गए हैं, जिससे आप नहीं कर सकते हैं। जब आप कर सकते थे, तब आप सोचते थे, मैं कर रहा हूं। और जब आप नहीं कर सकते, तब आप सोचते हैं कि मैंने त्याग कर दिया! जब आप नहीं कर सकते, तब आप सोचते हैं, मैंने त्याग कर दिया !'

के अक्सर सोचते हैं कि वे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गए हैं। अन्यथा उपाय क्या था? मजबूरी को ब्रह्मचर्य समझ लें, तो भ्रांति जारी रहती है। उचित यही होगा कि समझें कि जिन गुणधर्मों से, जिस प्रकृति के तत्व से वासना उठती थी, वे तत्व क्षीण हो गए, जल गए। जब वे जग रहे थे तत्व, सजग थे, तेज थे, दौड़ते थे, तब आप उनका पीछा कर रहे थे। तब भी आप कर्ता नहीं थे। और अब भी आप कर्ता नहीं हैं। लेकिन वासना के दिन में समझा था कि मैं कर्ता हूं। मैं हूं जवान। और बुढ़ापे के दिन में समझ रहे हैं कि मैं हूं त्यागी, मैं हूं ब्रह्मचारी। दोनों भ्रांतियां हैं।

अगर आप देख पाएं कि सारा खेल प्रकृति का है और आप उसके बीच में सिर्फ खड़े हैं देखने वाले की तरह, एक क्षण को भी कर्तृत्व आपका नहीं है, आप मुक्त हो गए। यह जानते ही कि मैं कर्ता नहीं हूं बंधन गिर गए। यह पहचानते ही कि मैंने कभी कुछ नहीं किया है, सारे कर्मों का जाल टूट गया।

कर्म आपको नहीं बांधे हुए हैं। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि जन्मों—जन्मों के कर्म पकड़े हुए हैं। कोई कर्म आपको नहीं पकड़े हुए है, कर्ता पकड़े हुए है। कर्ता के छूटते ही सारे कर्म छूट जाएंगे। क्योंकि जिसने किए थे, जब वह ही न रहा, तो कर्म कैसे पकड़ेंगे? कर्म नहीं पकड़ता, कर्ता पकड़ता है। और कर्ता के कारण जन्मों—जन्मों के कर्म इकट्ठे रहते हैं, उनका बोझ आप ढोते हैं।


कई लोग मुझसे यह भी पूछने आते हैं कि पिछले किए हुए कर्मों को कैसे काटें?

एक तो उनको किया नहीं कभी। अब उनको काटने का कर्म करने की कोशिश चल रही है! उनको कैसे काटें? जिनको किया ही नहीं, उनको अनकिया कैसे करिएगा? वह भ्रांति थी कि आपने किया। अब आप एक नई भ्रांति चाहते हैं कि उनको हम काटने का कर्म कैसे करें! पहले संसारी थे, अब संन्यासी कैसे हों?

संन्यास का कुल मतलब इतना है कि करने को कुछ भी नहीं है, सिर्फ देखने को है। अब करने वाला मैं नहीं हूं, सिर्फ देखने वाला हूं। फिर जो भी हो रहा हो, उसे देखते रहना है सहज भाव से, उसमें कोई बाधा नहीं डालनी है।

और इसमें कहा है कि ज्ञानी अगर ब्राह्मण की भी हत्या कर दे, उसे कोई पाप नहीं है! और अज्ञानी? किसी शास्त्र में लिखा नहीं है, लेकिन कहीं न कहीं लिखना जरूर चाहिए। अज्ञानी अगर पुतला भी बनाकर मिट्टी का काट दे, मैं मानता हूं, पाप है। फर्क समझ लेना जरूरी है।

ज्ञानी हम कहते उसे हैं, जो कहता है, मैं कर्ता नहीं हूं। अगर वह काट भी रहा हो, तो सिर्फ उसके गुण ही काट रहे हैं, वह नहीं काट रहा है। और उस हत्या के कृत्य में भी वह सिर्फ साक्षी है। जरूरी नहीं कि ज्ञानी ऐसा करे, आवश्यकता भी नहीं है। ज्ञानी होते—होते वस्तुत: भीतर के सारे तत्व धीरे— धीरे समस्वरता को उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसी घटना शायद ही कभी घटती है। लेकिन घट सकती है।

उस संभावना को मानकर यह शास्त्रों में सूत्र है कि अगर ब्राह्मण को भी काट दे! और ब्राह्मण को काटने का मतलब है, क्योंकि ब्राह्मण का मतलब है, जिसने इस जीवन में श्रेष्ठतम, सुंदरतम जीवन—दशा पा ली हो, उसको भी काट दे, अच्छे से अच्छे फूल को भी मिटा दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं है।

पाप इसलिए नहीं है कि वह जानता है कि मैं कर्ता नहीं हूं। और आप किसी की तस्वीर भी फाड़ दें क्रोध से, मिट्टी का पुतला बनाकर काट दें......। ऐसा अज्ञानी करते भी हैं। किसी का पुतला बनाकर निकालेंगे जुलूस, उसको जला देंगे। उनका भाव बड़ी गहरी हिंसा का है। और जलाते वक्त उनके मन में पूरा भाव है कर्ता का कि हम मारे डाल रहे हैं।

मैं कर्ता हूं, तो मैं पापी हो जाता हूं। मैं कर्ता नहीं हूं तो पाप का कोई कारण नहीं है। इसलिए हमने ज्ञानी को समस्त नियमों के पार रखा है। कोई नियम उस पर लगते नहीं। वह नियमातीत है। इसीलिए नियमातीत है कि जब कर्तृत्व उसका कोई न रहा, तो सब नियम कर्म पर लगते हैं और कर्ता पर लगते हैं। साक्षी पर कोई नियम कैसे लग सकता है?

जैसे ही कोई तीन गुणों के सारे कर्म हैं, ऐसा जानता है, और स्वयं को साक्षी, वह मुझ सच्चिदानंदनघनरूप परमात्मा को तत्व से पहचान लेता है, उस काल में वह पुरुष मुझे प्राप्त हो जाता है। तथा यह पुरुष इन स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप तीनों गुणों को उल्लंघन करके..।

इस शरीर के जन्म के कारण वे तीनों गुण ही हैं। और उन तीनों गुणों के साथ मेरा तादात्म्य है, वही मुझे नए शरीरों को ग्रहण करने में ले जाता है।

जो उनका उल्लंघन कर जाता है, वह जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, सब प्रकार के दुखों से मुक्त हुआ परमानंद को प्राप्त होता है।

इसमें हमें समझ में आ जाएगा कि हो सकता है, उसका नया जन्म न हो। यह भी समझ में आ सकता है कि उसे दुख न हो। लेकिन मृत्यु न होगी, यह कैसे समझ में आएगा!

महावीर भी मरते हैं, बुद्ध भी मरते हैं, कृष्ण खुद भी मरते हैं। मृत्यु तो होगी, लेकिन जिसने भी जान लिया कि मैं साक्षी हूं वह मृत्यु का भी साक्षी रहेगा। तो वह देखेगा कि गुण ही मर रहे हैं; गुणों का जाल शरीर ही मर रहा है, मैं नहीं मर रहा हूं। उसकी वृद्धावस्था संभव नहीं है। असल में उसकी कोई अवस्था संभव नहीं है।

जवान होकर वह जवान नहीं रहेगा। बुढ़ा होकर बुढ़ा नहीं रहेगा।

बच्चा होकर बच्चा नहीं रहेगा। क्योंकि अब सब अवस्थाएं गुणों की हैं। बचपन गुणों का एक रूप है। जवानी गुणों का दूसरा रूप है। बुढ़ापा गुणों का तीसरा रूप है। और वह तीनों के पार है। इसलिए न वह बच्चा है, न जवान है, न बूढ़ा है। किसी अवस्था में नहीं है। सभी अवस्थाओं के पार है।

इस ट्रांसेंडेंस को, इस भावातीत अवस्था को अनुभव कर लेना मुक्ति है।

इसलिए कृष्ण ने कहा कि अर्जुन जिस ज्ञान से परम सिद्धि उपलब्ध होती है, वह मैं तुझे फिर से कहूंगा। वे फिर—फिर कर, कैसे व्यक्ति अपनी परम मुक्ति को इसी क्षण अनुभव कर ले सकता है, उसके सूत्र दे रहे हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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