सोमवार, 9 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 12 भाग 4

 संदेह की आग


तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्यार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।। 7।।

मय्येव मन आधत्‍स्‍व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवीसष्यीस मय्येव अत ऊर्ध्व न संशय:।। 8।।


हे अर्जुन? उन मेरे में चित्त को लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु— रूप संसार— समुद्र से उद्धार करने वाला होता है। इसलिए है अर्जुन? तू मेरे में मन को लगा और मेरे में ही बुद्धि को लगा; इसके उपरांत तू मेरे में ही निवास करेगा

अर्थात मेरे को ही प्राप्त होगा? इसमें कुछ भी संशय नहीं है।


हे अर्जुन, उन मेरे में चित्त को लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु—रूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूं। इसलिए हे अर्जुन, तू मेरे में मन को लगा, और मेरे में ही बुद्धि को लगा। इसके उपरात तू मेरे में ही निवास करेगा अर्थात मेरे को ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

मुझ में चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु—रूपी समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूं!

जैसा मैंने कहा, प्रार्थना के मार्ग पर स्वयं को मिटाना शुरू करना होता है। तो वह जो तू है, प्रार्थना के साधक के लिए परमात्मा जो है, भगवान जो है, जो भी उसकी धारणा है परम सत्ता की, वह अपने को गलाता है, मिटाता है, उसके चरणों में समर्पित करता है। और जैसे—जैसे वह अपने को गलाता है, मिटाता है, वैसे—वैसे परमात्मा शक्तिशाली होता जाता है।

परमात्मा की शक्ति का अर्थ ही यह है कि मैं अब कोई बाधा नहीं डाल रहा हूं। मैं अपने को मिटा रहा हूं। अब मैं कोई अड़चन खड़ी नहीं कर रहा हूं। मैं अपने को हटा रहा हूं। मैं रास्ते से मिट रहा हूं। और मैं उसे कह रहा हूं कि अब तू जो भी करना चाहे, कर।

ऐसा समझें कि आप द्वार—दरवाजे बंद करके अपने घर में बैठे हैं। बाहर सूरज निकला है। सारा जगत आलोक से भरा है। और आप अपने द्वार—दरवाजे बंद करके घर के अंदर अंधेरे में बैठे हैं।

भक्त कहता है कि प्रकाश को तो भीतर लाना मुश्किल है। क्योंकि मेरी सामर्थ्य क्या? उस सूरज के प्रकाश को मैं भीतर लाऊंगा भी कैसे? कोई पोटलियां बांधकर उसे लाया भी नहीं जा सकता। और अगर आप पोटलियां बांधकर प्रकाश को भीतर लाएंगे, तो पोटलियां भीतर आ जाएंगी, प्रकाश बाहर ही रह जाएगा।

प्रकाश को लाने का, भक्त कहता है, एक ही उपाय है कि मैं अपने द्वार—दरवाजे खोल दूं। मैं कोई बाधा न डालूं। मैं किसी तरह का अवरोध खड़ा न करूं। तो प्रकाश तो अपने से आ जाएगा। प्रकाश तो आ ही रहा है। मेरे ही कारण रुका है।

भक्त की साधना का भाव यह है कि परमात्मा तो प्रतिपल उपलब्ध है। मेरे ही कारण रुका है। उसे खोजने नहीं जाना है। मैं ही उसको जगह—जगह से दीवालें बनाकर रोके हूं कि मेरे भीतर नहीं आ पाता। मैं ही इतना होशियार, इतना कुशल, इतना चालाक हूं कि मैं उसको भी सम्हाल—सम्हालकर भीतर आने देता हूं। जहां तक तो मैं उसे भीतर प्रवेश करने नहीं देता। चारों तरफ मैंने सुरक्षा की दीवाल बना रखी है। भक्त कहता है, इस दीवाल को गिरा देना है।

तो कृष्ण कह रहे हैं कि जैसे ही कोई अपने चारों तरफ की अस्मिता की, अहंकार की दीवाल को गिरा देता है, मैं तत्‍क्षण उसका उद्धार करने में लग जाता हूं। क्योंकि प्रकाश भीतर प्रवेश करने लगता है। और उस प्रकाश की किरणें आकर आपको रूपांतरित करने लगती हैं। और जब आपको मिटने में मजा आ जाता है, तो फिर मिटने में दिक्कत नहीं रहती।

पहले ही चरण की कठिनाई है। हमें लगता है कि अगर मिट गए तो! कहीं मिट न जाएं! तो डरे हुए हैं। एक दफा आपको मिटने का जरा—सा भी मजा आ जाए, जरा—सा भी स्वाद आ जाए, तो आप कहेंगे कि अब, अब बचना नहीं है, अब मिटना है।

संसार के प्रेम भी परमात्मा के रास्ते पर सबक हैं। इसलिए संसार के प्रेम से भी घबड़ाना मत। उस प्रेम के भी अनुभव को ले लेना।

थोड़ा ही सही, क्षणभर को ही सही, क्षणभंगुर ही सही, थोड़ा—सा भी मिटने का अनुभव इतनी तो खबर दे जाएगा कि मिटने में दुख नहीं है, मिटने में सुख है। इतनी तो प्रतीति हो जाएगी कि मिटने में एक मजा है। क्षणभर सही; वह स्वाद क्षणभर रहा हो। एक बूंद ही मिली हो उसकी, लेकिन इतना तो समझ में आ जाएगा कि मिटने में घबड़ाने की जरूरत नहीं है। मिटने में रस है, सुख है। मिटने में मजा है, एक मस्ती है। तो फिर हम परमात्मा की तरफ मिटने की बात भी सीख सकते हैं।

परमात्मा की तरफ तो पूरा मिटना होगा, रत्ती—रत्ती। कुछ भी बचना नहीं होगा। लेकिन जैसे ही हम मिटना शुरू हो जाते हैं कि परमात्मा प्रवेश करने लगता है।

कृष्ण का यह कहना कि उन मेरे में चित्त को लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु—रूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला हूं। इसमें दूसरा शब्द है मृत्यु—रूप संसार, जो सोचने जैसा है। इस जगत में प्रेम के अतिरिक्त मृत्यु के बाहर का कोई अनुभव नहीं है। जिसने प्रेम को नहीं जाना, उसने सिर्फ मृत्यु को ही जाना है। इसलिए एक बड़ी मजेदार घटना घटती है कि प्रेमी मरने को तैयार होता है। लेकिन जिसने प्रेम नहीं किया, वह मरने से बहुत डरता है।

प्रेमी मरने को हमेशा तैयार है। प्रेमी मजे से मर सकता है। प्रेमी को मरने में जरा भी भय नहीं है। तो अगर मजनू को मरना हो, तो मर सकता है। फरिहाद को मरना हो, तो मर सकता है। कोई अड़चन नहीं है। क्या बात है? आखिर प्रेमी मरने से क्यों नहीं डरता?

जरूर प्रेमी ने कुछ जान लिया है, जो मृत्यु के आगे जाता है और मृत्यु जिसे नहीं मिटा पाती। इसलिए जिसके जीवन में प्रेम की अनुभूति हुई, वह मरने से नहीं डरेगा। मरने से तो वे ही डरते हैं, जिन्होंने जाना ही नहीं कि मृत्यु के आगे कुछ और भी है।

कृष्ण कहते हैं, जो मुझ में पूरी तरह मिटने को तैयार है, मिटने को अर्थात मुझ में पूरी तरह मरने को तैयार है, उसे मैं मृत्यु—रूपी संसार से ऊपर उठा लेता हूं।

वह तो जैसे ही कोई मिटने को तैयार होता है प्रेम में, वैसे ही मृत्यु के पार उठ जाता है। प्रेम मृत्यु पर विजय है। आपका क्षुद्र प्रेम भी मृत्यु पर छोटी—सी विजय है। और अगर आपके जीवन में कोई भी प्रेम नहीं है, तो आप सिर्फ मरे हुए जी रहे हो। आपको जीवन का कोई अनुभव ही नहीं है।

इसीलिए जीवन इतना तड़पता है प्रेम को पाने के लिए। जीवन की यह तड़प मृत्यु के ऊपर कोई अनुभव पाने की आकांक्षा है। यह तड़प इतनी जोर से है, कि प्रेम! कहीं से प्रेम! किसी को मैं प्रेम कर सकूं और कोई मुझे प्रेम कर सके! यह असल में किसी भांति मैं जान सकूं—एक क्षण ही सही—जो मृत्यु के बाहर है, अतीत है, पार है, अतिक्रमण कर गया हो मृत्यु का।

तो प्रभु का प्रेम तो पूरा मिटा डालता है। प्रेमियों का प्रेम पूरा नहीं मिटाता है। क्षणभर को मिटाता है। कभी—कभी मिटाता है। क्षणभर बाद हम वापस अपनी जगह खड़े हो जाते हैं। द्वार—दरवाजे मिटते नहीं। जैसे हवा का तेज झोंका आता है, जरा—सा खुलते हैं और फिर बंद हो जाते हैं। जरा—सी झलक बाहर की रोशनी की, और द्वार फिर बंद हो जाते हैं। ऐसा साधारण प्रेम है।

लेकिन परमात्मा का प्रेम तो सारे द्वार—दरवाजे गिरा देने का है। सब जलाकर राख कर देने का है। अपने को उसमें ही खत्म कर देने का है। फिर जो अनुभूति होती है, वह अमृत की है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मृत्यु के पार उद्धार करने वाला हूं। इसलिए हे अर्जुन, तू मेरे में मन को लगा; मेरे में ही बुद्धि को लगा। इसके उपरांत तू मुझ में ही निवास करेगा, मुझको ही प्राप्त होगा। इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा। दो बातें कही हैं। मुझ में मन को लगा, मुझ में ही बुद्धि को लगा। लेकिन पहले कहा कि मुझ में मन को लगा।

हम सब कोशिश करते हैं, पहले बुद्धि को लगाने की। प्रमाण चाहिए तर्क चाहिए, तब हम भाव करेंगे! यह नहीं हो सकता, यह उलटा है। पहले भाव। तो कृष्ण कहते हैं, मुझ में मन को लगा। बुद्धि को भी लगा।

एक दफा मन लग जाए तो फिर बुद्धि भी लग जाती है। तर्क तो हमेशा भाव का अनुसरण करता है। क्योंकि भाव गहरा है और तर्क तो उथला है। बच्चा भाव के साथ पैदा होता है, तर्क तो बाद में सीखता है। तर्क तो दूसरों से सीखता है; भाव तो अपना लाता है। बुद्धि तो उधार है; मन तो अपना है, निजी है। यह जो निजी भाव अगर एक दफा चल पड़े, तो फिर बुद्धि इसके पीछे चलती है। इसलिए देखें, हमारे तर्कों में बड़ा फर्क होता है, अगर हमारे भाव में फर्क हो। अगर हमारा भाव अलग हो, तो वही स्थिति हमें दूसरा तर्क सुझाती है।

सुना है मैंने कि एक सूफी फकीर शराब पीकर और प्रार्थना कर रहा था। उसके गुरु को खबर दी गई। जिन्होंने खबर दी, वे शिकायत लाए थे, और उन्होंने कहा कि निकाल बाहर करो अपने इस शिष्य को। यह शराब पीकर प्रार्थना कर रहा है! और अगर लोग देख लेंगे कि प्रार्थना करने वाले लोग शराब पीते हैं, तो कैसी बदनामी न होगी!

गुरु सुनकर नाचने लगा। और उसने कहा कि धन्यवाद तेरा, कि मेरे शिष्य शराब भी पी लें, तो भी प्रार्थना करना नहीं भूलते हैं! और गजब हो जाएगा, अगर दुनिया यह जान लेगी कि अब शराबी भी प्रार्थना करने लगे हैं!

स्थिति एक थी। तर्क अलग हो गए। वे खबर लाए थे कि अलग करो इसको आश्रम से। और गुरु ने कहा कि मैं जाऊंगा और स्वागत से उसे वापस लाऊंगा कि तूने तो गजब कर दिया। हम तो बिना शराब पीए भी कभी—कभी प्रार्थना करना भूल जाते हैं। बिना शराब पीए कभी—कभी प्रार्थना करना भूल जाते हैं! तू तो हद कर दिया कि शराब पीए है, तो भी प्रार्थना करने गया है! तेरी याददाश्त, तेरा स्मरण शराब भी नहीं मिटा पाती!

स्थिति एक है, भाव अलग हैं, तो तर्क बदल जाते हैं। तर्क भाव के पीछे चलें, तो ही कोई परमात्मा की खोज में जा सकता है। अगर तर्क के पीछे आप भावों को घसीटेंगे, तो आपने बैलगाड़ी के पीछे बैल बांध रखे हैं। फिर आप कितनी ही कोशिश करें, बैलगाड़ी कहीं जा नहीं सकती। और अगर जाएगी भी, तो किसी गड्डे में जाएगी। सीधा करें व्यवस्था को। भाव से बहे, क्योंकि भाव स्वभाव है, निसर्ग है। बुद्धि को पीछे चलने दें। बुद्धि हिसाबी—किताबी है। अच्छा है; उसकी जरूरत है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मुझ में मन को लगा। पहले अपने भाव को मुझ से जोड़ दे। फिर कोई हर्जा नहीं तेरी बुद्धि का।

इसलिए ऐसा मत सोचना कि आस्तिक जो हैं, वे कोई तर्कहीन हैं। अतर्क्य हैं, तर्कहीन नहीं हैं। आस्तिक जो हैं, वे भी तर्क करते हैं, और खूब गहरा तर्क करते हैं। लेकिन भाव के ऊपर तर्क को नहीं रखते हैं। कोई तार्किकों की कमी नहीं है आस्तिकों के पास। लेकिन भाव पहले है। और जो उन्होंने भाव से जाना है, उसे ही वे तर्क की भाषा में कहते हैं।

तो ऐसा मत सोचना कि भगवान ही भक्त के हृदय तक आता है। जिस दिन भक्त राजी हो जाता है कि भगवान उसके हृदय में आ जाए उस दिन भक्त भी भगवान के हृदय में पहुंच जाता है। तो ऐसा ही नहीं है कि भक्त ही याद कर—करके भगवान को अपने हृदय में रखता है। शुरुआत भक्त को ऐसे ही करनी पड़ती है। जिस दिन यह घटना घट जाती है...।

भक्त शुरू करता है भगवान को अपने भीतर लेने से और आखिर में पाता है कि भगवान ने उसे अपने भीतर ले लिया है। कृष्ण कहते हैं, उसके उपरात तू मुझमें ही निवास करेगा, मुझको ही प्राप्त होगा। इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

अगर भाव से शुरू करें, तो कुछ भी संशय नहीं है। अगर बुद्धि से शुरू करें, तो संशय ही संशय है। जरा—सा फर्क कि आप बुद्धि को पहले रख लें, फिर संशय ही संशय है। भाव को पहले रख लें, फिर कोई संशय नहीं है।

अपने भीतर खोज करनी चाहिए कि मैंने किस चीज को प्राथमिकता दे रखी है। हमारा अहंकार अपने को ही प्राथमिकता दिए हुए है। और हम को तो ऐसा लगता है कि हमारे ही ऊपर तो सारा सब कुछ टिका है। अगर हम ही जरा डांवाडोल हो गए अपने अहंकार से, तो सारा जगत न गिर जाए! सब को ऐसा लगता है।

कुछ नहीं है वहां भीतर सम्हालने को, लेकिन बस, सम्हाले हुए हैं! और कोई आप पर निर्भर नहीं है। लेकिन बड़ी जिम्मेवारी उठाए हुए हैं। सारा भार सारे संसार का आपकी ही समझ पर है! अगर आप नासमझ हो गए, तो सारा जगत रास्ते से विचलित हो जाएगा। यह जो तर्क की दृष्टि है, यह जो अहंकार का बोध है, इसकी वजह से हम भाव को कभी भी आगे रखने में डरते हैं, क्योंकि भाव अराजक है। और भाव कहां ले जाएगा, नहीं कहा जा सकता। इसलिए हम सदा भाव को दबाए रखते हैं, क्योंकि भाव क्या करेगा, वह भी अनजान, अपरिचित, अज्ञात है।

तो भाव से हम भयभीत हैं। न तो कभी हम हंसते हैं खुलकर, क्योंकि डर लगता है कि कहीं सीमा के बाहर न हंस दें! न हम कभी रोते हैं हृदयपूर्वक, क्योंकि लगता है कि लोग क्या कहेंगे कि अभी भी बच्चों जैसा काम कर रहे हो!

नहीं; हम कुछ भी भाव से नहीं करने देते। सब पर बुद्धि को अड़ा देते हैं। तो भीतर आंसू भी इकट्ठे हो जाते हैं। सागर में भी इतना खारापन नहीं है, जितना आपके भीतर एक जिंदगी में इकट्ठा हो जाता है। आंसू ही आंसू इकट्ठे हो जाते हैं। हंसे भी कभी नहीं, तो मुर्दा हंसिया इकट्ठी हो जाती हैं, उनकी लाशें सड़ जाती हैं। सब जहर हो जाता है भीतर। भाव कहीं बाहर निकल न जाए, तो बुद्धि को सम्हाल—सम्हालकर चलते हैं।

इस दुनिया में इसलिए लोगों को इतनी ज्यादा शराब पीने की जरूरत पड़ती है, क्योंकि शराब पीकर थोड़ी देर को बुद्धि एक तरफ हट जाती है और भाव बाहर आ जाता है। और जब तक हम भाव को आगे नहीं रखते, तब तक दुनिया से शराब नहीं मिट सकती। अब यह बड़े मजे का और उलझा हुआ मामला है। अक्सर जो लोग दुनिया से शराब मिटाना चाहते हैं, वे ही इस दुनिया में शराब के जिम्मेवार हैं। क्योंकि वे ही लोग बुद्धि को थोपते हैं, कि शराब में यह खराबी है, यह खराबी है, इसलिए मत पीओ। इससे यह नुकसान है, यह नुकसान है, इसलिए मत पीओ। ये ही लोग हैं, जिन्होंने सब नुकसान और खराबियां बता—बताकर भाव के जगत को भीतर बिलकुल कुंठित कर दिया है। और इन्हीं की कृपा है कि उस कुंठित आदमी को थोड़ी देर को तो राहत चाहिए, तो वह पीकर राहत ले लेता है। थोड़ी देर को वह खुल जाता है।

आप देखें, एक आदमी शराब पीता है; जैसे—जैसे शराब पकड़ने लगती है उसको, उसके चेहरे पर रौनक आने लगती है। मुस्कुराने  लगता है। जिंदगी में गति मालूम पड़ने लगती है। क्या हो रहा है? यह आदमी अभी मरा—मरा क्यों था? इस आदमी में यह ताजगी कहां से चली आ रही है?

यह शराब से नहीं आ रही है। शराब तो जहर है; उससे क्या ताजगी आएगी! यह ताजगी इसलिए आ रही है कि ताजगी तो सदा से भाव में भरी थी, लेकिन दबाकर बैठा था। अब वह जो दबाने वाली थी बुद्धि, शराब उसको बेहोश कर रही है। वह पहरेदार बेहोश हो रहा है। तो भीतर के दबे हुए भाव बाहर आ रहे हैं।



इसलिए शराब पीकर आदमी ज्यादा आदमी मालूम पड़ता है, जिंदा मालूम पड़ता है, अच्छा मालूम पड़ता है, भला मालूम पड़ता है। शराब यह सब कुछ नहीं कर रही है। लेकिन शराब पहरे को हटा रही है। वह जो तर्क का और बुद्धि का झंडा गड़ा हुआ था और बंदूक लिए पहरेदार खड़ा था, वह पी रहा है शराब, वह बेहोश हो जाएगा। यही काम नींद कर रही है। सुबह आप ताजे मालूम पड़ते हैं, क्योंकि रात सपनों में तर्क से नहीं चलते, भाव से चलते हैं। रात सपने में तर्क सो जाता है और भाव की दुनिया मुक्त हो जाती है। आकाश में उड़ना हो, तो उड़ते हैं। उस वक्त यह नहीं कहते कि मैं संदेह करता हूं आकाश में उड़ना कैसे हो सकता है? हम उड़ते हैं। सुबह भला संदेह करें। लेकिन रात मजे से उड़ते हैं। और जिससे प्रेम करना है, उससे सपने में प्रेम कर लेते हैं। उस वक्त यह नहीं कहते कि यह मैं क्या कर रहा हूं! यह अनैतिक है।

सपने में आप भाव से जीने लगते हैं; बुद्धि हट जाती है। इसलिए रात ताजगी देती है। सुबह आप ताजे उठते हैं। आप सोचते होंगे कि सपनों की वजह से आपको नुकसान होता है, तो आप गलती में हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर सपना न आए, तो आप सुबह ताजे होकर न उठ सकेंगे। सपना आपको ताजा कर रहा है, क्योंकि सपना छुटकारा दे रहा है बुद्धि से।

अभी वैज्ञानिकों ने प्रयोग किए हैं कि अगर नींद में बाधा डाली जाए तो ज्यादा नुकसान नहीं होता। लेकिन सपने में बाधा डाली। जाए, तो ज्यादा नुकसान होता है। रात में कुछ घड़ी आप सपना देखते हैं, कुछ घड़ी सोते हैं। तो वैज्ञानिकों ने ऐसे प्रयोग किए है—अब तो जांचने का उपाय है कि कब आप सपना ले रहे हैं और कब सो रहे है—तो जब आप सपना ले रहे हैं, तब जगा दिया हड़बड़ाकर। जब भी सपना लिया, तब जगा दिया। और जब शांति से सोए रहे, तो सोने दिया। तो पाया कि आदमी तीन दिन से ज्यादा बिना सपने के नहीं रह सकता। बिलकुल टूट जाता है।

दूसरा प्रयोग भी किया है कि जब नींद आई, तब जगा दिया। और जब सपना आया, तब सोने दिया। कोई तकलीफ नहीं होती।

सुबह आदमी उतना ही ताजा उठता है। इसलिए पहले खयाल था कि नींद से ताजगी मिलती है। अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं, सपने से ताजगी मिलती है।

बड़ी हैरानी की बात है। सपने से ताजगी क्यों मिलती होगी? सपने से ताजगी इसीलिए मिलती है कि बुद्धि का बोझ हट जाता है। और जब बुद्धि का बोझ हट जाता है, तो आप जिंदगी का रस लेकर वापस लौट आते हैं।

भक्त जागते जिंदगी का बोझ फेंक देता है और एक आध्यात्मिक स्वप्न में लीन हो जाता है। उस स्वप्न में वह सब कुछ न्योछावर कर देता है। और कृष्ण कहते हैं, तब उसे मैं उठा लेता हूं।

तुम्हारी बुद्धि से जो सत्य दिखाई पड़ रहा है, वह इतना सत्य नहीं है, जितना प्रेम और भाव से दिखाई पड़ने वाला स्वप्न भी सत्य होता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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