मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 12 भाग 7

 परमात्‍मा का प्रिय कौन


   अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र:—— करुण एव च।

निर्ममो निरहंकार: समदुःखसुखः शमी।। 13।।

संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढीनश्चय:।

मय्यर्पितमनोबुद्धियों मद्भक्तः स मे प्रिय:।। 14।।


इस प्रकार शांति को प्राप्त हुआ जो पुरूष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित एवं स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार से रहित और सुख— दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने धर्मो को भी अभय देने वाला है।

तथा जो योग मैं युक्‍त हुआ योगी निरंतर लाभ—हानि में संतुष्ट है तथा मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए मेरे में दृढ़ निश्चय वाला है, वह मेरे मैं अर्पण किए हुए मन— बुद्धि वाला मेरा भक्त मेरे को प्रिय है।


इस प्रकार शांति को प्राप्त हुआ जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित एवं स्वार्थरहित सबका प्रेमी है और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार से रहित और सुख—दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योग में युक्त हुआ योगी निरंतर लाभ—हानि में संतुष्ट है तथा मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए मेरे में दृढ़ निश्चय वाला है, वह मेरे में अर्पण किए हुए मन—बुद्धि वाला मेरा भक्त मेरे को प्रिय है।

क्या है परमात्मा को प्रिय? यह प्रश्न हजारों—हजारों साल में हजारों बार पूछा गया है।

क्या है परमात्मा को प्रिय? क्योंकि जो उसे प्रिय है, वही हमारे लिए मार्ग है। क्या है उसे प्यारा? काश! हमें यही पता चल जाए, तो फिर हम उसके प्यारे हो सकते हैं। कैसा चाहता है वह हमें? कब हमें चाह सकेगा? कब हमें समझेगा कि हम योग्य हुए उसके आलिंगन के? तो उसकी क्या रुझान है? उसका क्या लगाव है? उसकी क्या पसंद है? उसकी क्या रुचि है? वह अगर हमें पता चल जाए, तो मार्ग का पता चल गया।


क्या है परमात्मा को प्रिय? इसमें बहुत बातें सोचने जैसी हैं।

इसका यह मतलब नहीं है कि जो उसे प्रिय है, उसके साथ वह पक्षपात करेगा; जो उसे अप्रिय है, उसके साथ वह भेद— भाव करेगा। इसका यह मतलब नहीं है। नहीं तो हमें यह भी खयाल होता है कि जो उसका प्रिय है, उसके पाप भी माफ कर देगा, उसके गुनाह भी क्षमा हो जाएंगे। और जो उसे प्रिय नहीं है, वह पुण्य भी करे, तो पुरस्कार न पा सकेगा।

नहीं; ऐसा नहीं है। परमात्मा के प्रिय होने का अर्थ समझ लें। परमात्मा के प्रिय होने का अर्थ है, एक शाश्वत नियम, ऋत। जिसको लाओत्से ने ताओ कहा है। परमात्मा के प्रिय होने का इतना ही अर्थ है कि वह तो हमें हर क्षण उपलब्ध है, लेकिन जब हम एक खास ढंग में होते हैं, तब हम उसके लिए खुले होते हैं और वह हमारे भीतर प्रवेश कर जाता है। और जब हम उस खास ढंग में नहीं होते हैं, तो वह हमारे पास ही खड़ा अटका रह जाता है, क्योंकि हम अवरोध खड़ा करते हैं।

ऐसे ही जैसे सूरज निकला है और मैं अपनी आख बंद किए खड़ा हूं। तो सूरज निकला रहे, मैं अंधेरे में खड़ा रहूंगा। और ठीक मेरी पलकों पर सूरज की किरणें नाचती रहेंगी। और प्रकाश इतने करीब था, एक पलक झपने की बात थी और मैं प्रकाश से भर जाता। लेकिन मैं आख बंद किए हूं तो मैं अंधेरे में खड़ा हूं।

सूरज को खुली आंखें प्रिय हैं, इसका मतलब समझ लेना। इसका कुल मतलब इतना है कि खुली आख हो, तो सूरज प्रवेश कर पाता है। बंद आंख हो, तो सूरज प्रवेश नहीं कर पाता। और सूरज आक्रामक नहीं है कि जबरदस्ती आपकी आंख खोल दे। अनाक्रमक है।

प्रेम अनाक्रमक होगा ही। जबरदस्ती आपकी आंख भी खोली जा सकती है कि सूरज चोट करे और आपकी आंख खोल दे। लेकिन इस जगत में अस्तित्व की कोई भी व्यवस्था आक्रामक नहीं है। आपके लिए प्रतीक्षा करेगा। सूरज प्रतीक्षा करेगा कि खोलना जब आंख, तब प्रकाश भर जाएगा।

परमात्मा के लिए प्रिय होने का यही अर्थ है कि कुछ ढंग है व्यक्तित्व का, जब हम खुले होते हैं, रिसेप्टिव होते हैं, ग्राहक होते हैं और परमात्मा भीतर प्रवेश कर पाता है। और कुछ ढंग है व्यक्तित्व का, जब हम बंद होते हैं, और सब तरफ से द्वार, दरवाजे, खिड़कियों पर ताले पड़े होते हैं, और परमात्मा बाहर—बाहर भटकता रहता है, हमारे भीतर प्रवेश नहीं कर पाता। कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि वह कौन—सा ढंग है जो परमात्मा को प्रिय है। कैसे तुम हो जाओ कि वह तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाएगा। समझें।

शांति को प्राप्त हुआ पुरुष!

अशांत चित्त में क्या होता है? अशांत चित्त अपने में ग्रसित होता है। आप रास्ते पर चलते लोगों को देखें। जितना अशांत आदमी होगा, उतना ही रास्ते पर बेहोश चलता हुआ दिखाई पड़ेगा। अनेक लोग खुद से बातचीत करते हुए चलते जाते हैं। होंठ हिल रहे हैं; हाथ हिला रहे हैं। किससे बात कर रहे हैं? कोई वहा है नहीं उनके साथ। खुद से ही, भीतर परेशान हैं। भीतर परेशानी की तरंगें चल रही हैं।

अगर आप भी दस मिनट बैठकर अपना लिख डालें, आपके मन में क्या चलता है, तो आप खुद ही घबड़ा जाएंगे कि यह क्या मेरे भीतर चल रहा है! लगेगा, मैं पागल हूं! आप, जो आपके भीतर चलता है, किसी को भी नहीं बताते। जिसको आप प्रेम करते हैं, उसको भी नहीं बताते जो आपके भीतर चलता है।

तो मनसविद कहते हैं कि अगर कोई आदमी अपने भीतर जो चलता है, सब बता दे, तो फिर दुनिया में मित्र खोजना मुश्किल है। आप सब दबाए हैं भीतर, बाहर तो कुछ—कुछ थोड़ी—सी झलक देते हैं। वह भी काफी दुखदायी हो जाती है। सम्हाले रहते हैं।

यह जो भीतर अशांति का तूफान चल रहा है, यह दीवाल है। इसके कारण आप परमात्मा से नहीं जुड़ पाते। आपके और परमात्मा के बीच में एक तूफान है अशांति का, विचार का, विक्षिप्तता का, पागलपन का। यह हट जाए।

कृष्ण कहते हैं, शांति को प्राप्त हुआ!

और शांति को वही प्राप्त होता है—या तो ध्यान से चले, विचारशून्य हो जाए; या प्रेम से चले और भक्तिपूर्ण हो जाए। या तो सारे विचार समाप्त हो जाएं या सारे विचार प्रेम में डूबकर प्रेममय हो जाएं और प्रेम ही रह जाए, विचार खो जाएं। या तो सब विचार पिघलकर प्रेम बन जाए और या सब विचार भाप बन जाएं, और भीतर शून्य, शांत अवस्था रह जाए।

जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित..।

और जैसे ही कोई शांत होगा, द्वेष समाप्त हो जाता है। या उलटा भी समझ लें। जैसे ही द्वेष समाप्त होता है, शांत हो जाता है। जब तक आपका द्वेष है कहीं, तब तक आप शांत नहीं हो सकते। क्योंकि जिस से द्वेष है, वही कारण बनेगा आपके भीतर अशांति का।

स्वार्थरहित, सब का प्रेमी, हेतुरहित दयालु..।

क्या है हमारी अशांति? स्वार्थ। चौबीस घंटे सोचते हैं अपनी ही भाषा में।

तो कृष्ण कहते हैं, स्वार्थरहित जो व्यक्ति हो, वह परमात्मा के लिए खुला होता है। जो स्वार्थ से भरा हो, वह बंद होता है।

तो चौबीस घंटे में कुछ समय तो स्वार्थरहित होना सीखना चाहिए। फिर धीरे— धीरे उसका आनंद आने लगेगा। कभी स्वार्थरहित छोटा—मोटा कृत्य भी करके देखें। कभी किसी की तरफ यूं ही अकारण मुस्कुराकर देखें।

अकारण कोई मुस्कुराता तक नहीं। हालांकि मुस्कुराहट में कुछ खर्च नहीं होता। लेकिन आप तभी मुस्कुराते हैं, जब कोई मतलब हो। और जब आप मुस्कुराते हैं, तो दूसरा भी सावधान हो जाता है कि जरूर कोई मतलब है। क्योंकि कोई गैर—मतलब के मुस्कुराता भी नहीं है। कोई गैर—मतलब के किसी से राम—राम भी नहीं करता। गांव में लोग करते थे, अब तो धीरे— धीरे बात समाप्त वहा भी होती जा रही है। गांव में कोई किसी से भी राम—राम कर लेता था अजनबी से भी। तो शहर का आदमी गांव जाए और कोई राम—राम करे, तो वह बहुत डरता है। क्योंकि जिससे जान—पहचान नहीं, वह राम— राम क्यों कर रहा है! जरूर कोई मतलब होगा। मतलब के बिना तो हम राम—राम भी नहीं करते; किसी को नमस्कार भी नहीं करते। करेंगे भी क्यों? जब कोई प्रयोजन होता है।

चौबीस घंटे में अगर दों—चार घंटे भी ऐसे आपकी जिंदगी में आ जाएं, तो आप पाएंगे कि धर्म ने प्रवेश शुरू कर दिया। और आपकी जिंदगी में कहीं से परमात्मा आने लगा। कभी अकारण कुछ करें। और अपने को केंद्र बनाकर मत करें।

सब का प्रेमी, हेतुरहित दयालु..

दया तो हम करते हैं, लेकिन उसमें हेतु हो जाता है। और हेतु बड़े छिपे हुए हैं।

कृष्ण कहते हैं, हेतुरहित दयालु अगर कोई हो, तो परमात्मा उसमें प्रवेश कर जाता है। वह परमात्मा को प्यारा है।

सब का प्रेमी।

प्रेम हम भी करते हैं। किसी को करते हैं, किसी को नहीं करते हैं। तो जिसको हम प्रेम करते हैं, उतना ही द्वार परमात्मा के लिए हमारी तरफ खुला है। वह बहुत संकीर्ण है। जितना बड़ा हमारा प्रेम होता है, उतना बड़ा द्वार खुला है। अगर हम सबको प्रेम करते हैं, तो सभी हमारे लिए द्वार हो गए, सभी से परमात्मा हममें प्रवेश कर सकता है।

लेकिन हम एक को भी प्रेम करते हैं, यह भी संदिग्ध है। सबको तो प्रेम करना दूर, एक को भी करते हैं, यह भी संदिग्ध है। उसमें भी हेतु है; उसमें भी प्रयोजन है। पत्नी पति को प्रेम कर रही है, क्योंकि वही सुरक्षा है, आर्थिक आधार है। पति पत्नी को प्रेम, कर रहा है, क्योंकि वही उसकी कामवासना की तृप्ति है। लेकिन यह सब लेन—देन है। यह सब बाजार है। इसमें प्रेम कहीं है नहीं।

जब आप प्रेम भी कर रहे हैं और प्रयोजन आपका ही है कुछ, तो वह प्रेम परमात्मा के लिए द्वार नहीं बन सकता। इसीलिए हम कुछ को प्रेम करते हैं, जिनसे हमारा स्वार्थ होता है। जिनसे हमारा स्वार्थ नहीं होता, उनको हम प्रेम नहीं करते। जिनसे हमारे स्वार्थ में चोट पड़ती है, उनको हम घृणा करते हैं। मगर हमेशा केंद्र में मैं हूं। जिससे मेरा लाभ हो, उसे मैं प्रेम करता हूं; जिससे हानि हो, उसको घृणा करता हूं। जिससे कुछ भी न हो, उसके प्रति मैं तटस्थ हूं उपेक्षा रखता हूं उससे कुछ लेना—देना नहीं है।

परमात्मा के लिए द्वार खोलने का अर्थ है, सब के प्रति। लेकिन सब के प्रति कब होगा? वह तभी हो सकता है, जब मुझे प्रेम में ही आनंद आने लगे, स्वार्थ में नहीं। इस बात को थोड़ा समझ लें। जब मुझे प्रेम में ही आनंद आने लगे, प्रेम से क्या मिलता है, यह सवाल नहीं है। कोई पत्नी है, उससे मुझे कुछ मिलता है, कोई बेटा है, उससे मुझे कुछ मिलता है। कोई मां है, उससे मुझे कुछ मिलता है। कोई पिता है, कोई भाई है, कोई मित्र है, उनसे मुझे कुछ मिलता है। उन्हें मैं प्रेम करता हूं  क्योंकि उनसे मुझे कुछ मिलता है। अभी मुझे प्रेम का आनंद नहीं आया। अभी प्रेम भी एक साधन है, और कुछ मिलता है, उसमें मेरा आनंद है।

लेकिन प्रेम तो खुद ही अदभुत बात है। उससे कुछ मिलने का सवाल ही नहीं है। प्रेम अपने आप में काफी है। प्रेम इतना बड़ा आनंद है कि उससे आगे कुछ चाहने की जरूरत नहीं है।

जिस दिन मुझे यह समझ में आ जाए कि प्रेम ही आनंद है, और यह मेरा अनुभव बन जाए कि जब भी मैं प्रेम करता हूं तभी आनंद घटित हो जाता है, आगे—पीछे लेने का कोई सवाल नहीं है। तो फिर मैं काहे को कंजूसी करूंगा कि इसको करूं और उसको न करूं? फिर तो मैं खुले हाथ, मुक्त— भाव से, जो भी मेरे निकट होगा, उसको ही प्रेम करूंगा। वृक्ष भी मेरे पास होगा, तो उसको भी प्रेम करूंगा, क्योंकि वह भी आनंद का अवसर क्यों छोड़ देना! एक पत्थर मेरे पास होगा, तो उसको भी प्रेम करूंगा, क्योंकि वह भी आनंद का अवसर क्यों छोड़ देना!

जिस दिन आपको प्रेम में ही रस का पता चल जाएगा, उस दिन आप जो भी है, जहां भी है, उसको ही प्रेम करेंगे। प्रेम आपकी श्वास बन जाएगी।

आप श्वास इसलिए नहीं लेते हैं कि उससे कुछ मिलेगा। श्वास जीवन है; उससे कुछ लेने का सवाल नहीं है। प्रेम और गहरी श्वास है, आत्मा की श्वास है; वह जीवन है। जिस दिन आपको यह समझ में आने लगेगा, उस दिन आप प्रेम को स्वार्थ से हटा देंगे। और प्रेम तब आपकी सहज चर्या बन जाएगी।

कृष्ण कहते हैं, प्रेमी सबका; ममता से रहित।

यह बड़ा उलटा लगेगा। क्योंकि हम तो समझते हैं, प्रेमी वही है, जो ममता से भरा हो। ममता प्रेम नहीं है। ममता और प्रेम में ऐसा ही फर्क है, जैसे कोई नदी बह रही हो, यह तो प्रेम है। और कोई नदी बंध जाए और डबरा बन जाए और बहना बंद हो जाए और सड़ने लगे, तो ममता है।

जहां प्रेम एक बहता हुआ झरना है; किसी पर रुकता नहीं, बहता चला जाता है। कहीं रुकता नहीं; कोई रुकावट खड़ी नहीं करता। यह नहीं कहता कि तुम पर ही प्रेम करूंगा; तुम्हें ही प्रेम करूंगा। अगर तुम नहीं हो, तो मैं मर जाऊंगा। अगर तुम नहीं हो, तो मेरी जिंदगी गई। तुम्हारे बिना सब असार है। बस, तुम ही मेरे सार हो। ऐसा जहां प्रेम डबरा बन जाता है, वहा प्रेम धारा न रही; वहां प्रेम में सड़ाध पैदा हो गई।

सड़ा हुआ प्रेम ममता है, रुका हुआ प्रेम ममता है। ममता से आदमी परमात्मा तक नहीं पहुंचता। ममता से तो डबरा बन गया। नदी सागर तक कैसे पहुंचेगी? वह तो यहीं रुक गई। उसकी तो गति ही बंद हो गई।

इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ते हैं, सब का प्रेमी, हेतुरहित दयालु, ममता से रहित.।

प्रेम कहीं रुकता न हो; किसी पर न रुकता हो, बहता जाए; जो भी करीब आए, उसको नहला दे और बहता जाए। कहीं रुकता न हो, कहीं आग्रह न बनाता हो। और कहीं यह न कहता हो कि बस, यही मेरे प्रेम का आधार है।

ऐसा जो करेगा, वह दुख में पड़ेगा और ऐसा प्रेम भी बाधा बन जाएगा। इसलिए ममता का विरोध किया है। वह प्रेम का विरोध नहीं है। वह प्रेम बीमार हो गया, उस बीमार प्रेम का विरोध है।

ममता हटे और प्रेम बढ़े, तो आप परमात्मा की तरफ पहुंचेंगे। लेकिन हमें आसान है दो में से एक। अगर हम प्रेम करें, तो ममता में फंसते हैं। और अगर ममता से बचें, तो हम प्रेम से ही बच जाते हैं। ऐसी हमारी दिक्कत है। अगर किसी से कहो कि ममता मत करो, तो फिर वह प्रेम ही नहीं करता किसी को। क्योंकि वह डरता है कि किया प्रेम, कि कहीं ममता न बन जाए; तो वह प्रेम से रुक जाता है।

ममता से बचते हैं, तो प्रेम रुक जाता है। तब भी दरवाजा बंद हो गया। अगर प्रेम करते हैं, तो फौरन ममता बन जाती है। तो भी दरवाजा बंद हो गया। प्रेम हो और ममता न हो। नदी तो बहे और कहीं सरोवर न बने। इसको खयाल में रखें।

बच्चे को प्रेम करें। आप अपने बेटे को प्रेम करें, इसमें कुछ भी हर्ज नहीं है। शुभ है। लेकिन वह प्रेम आपके ही बेटे पर समाप्त क्यों हो? वह और थोड़ा बहे। और भी पड़ोसियों के बेटे हैं, उनको भी छुए। क्यों रुके बेटे तक? और सच में अगर आप असली बाप हैं और आपने बेटे का प्रेम जाना है, तो आप चाहेंगे कि जितने बेटे बढ़ जाएं, उतना अच्छा। क्योंकि उतना प्रेम आपको आनंद देगा। एक बेटा इतना आनंद देता है, अगर सारी जमीन के बेटे आपके बेटे हों, तो कितना आनंद होगा! एक मित्र जब इतना आनंद देता है, तो फिर क्यों कंजूसी कर रहे हैं! बढ़ने दें। सारी पृथ्वी मित्रता बन जाए, तो और गहरा आनंद होगा। अंतहीन आनंद होगा।

जब मनुष्यों को प्रेम करने से इतना आनंद मिलता, तो पशुओं को क्यों वंचित करना! फैलने दें। पौधों को क्यों वंचित करना! फैलने दें। जब प्रेम इतना आनंद देता है, तो रोकते क्यों हैं? उसे बढ़ने दें, उसे फैलने दें। उसे सारी जमीन को, सारे अस्तित्व को घेर लेने दें। तो आप परमात्मा के लिए प्रिय हो जाएंगे। क्योंकि आप खुल जाएंगे सब तरफ से। आपका रंध्र—रंध्र खुल जाएगा। सब तरफ से प्रभु की किरणें प्रवेश कर सकती हैं।

अहंकार से रहित, सुख—दुखों की प्राप्ति में सम, क्षमावान, अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला। अहंकार से रहित। जितना गहन होता है प्रेम, उतना अहंकार अपने आप शांत और शून्य हो जाता है। जितना कम होता है प्रेम, उतना अहंकार होता है ज्यादा। अहंकार और प्रेम विरोधी हैं। अगर प्रेम बढ़ता है, तो अहंकार पिघल जाता है।

लेकिन बहुत लोग पूछते हैं, एक मित्र ने आज भी पूछा है कि अहंकार से कैसे छुटकारा हो?

अहंकार से सीधे छुटकारा न होगा। आप प्रेम को बढ़ाए। जैसे—जैसे प्रेम बढ़ेगा, अहंकार विसर्जित होने लगेगा। क्योंकि जो शक्ति अहंकार बनती है, वही प्रेम बनती है। प्रेम और अहंकार में एक ही शक्ति काम करती है। इसलिए अगर आप बड़े अहंकारी हैं, तो निराश मत हों। आपके पास प्रेम की बड़ी क्षमता छिपी पड़ी है। दुखी मत हों; आपके पास बड़ा स्रोत है। यही ऊर्जा मुक्त हो जाए, तो प्रेम बन जाएगी।

लेकिन सीधा अहंकार से मत लड़े। आप जो कुछ भी करेंगे सीधा, उससे अहंकार नहीं मिटेगा। आप तो प्रेम की तरफ फैलाव शुरू कर दें। कहीं से भी प्रेम को फैलाना शुरू करें। जिस तरफ लगाव जाता हो, उसी तरफ प्रेम को बहाए। एक ही खयाल रखें कि उसको रुकने मत दें। उसे बढ़ते जाने दें। उसकी सीमाएं जितनी विस्तीर्ण होने लगें, होने दें। यह विस्तीर्ण होती सीमा, एक दिन आप अचानक पाएंगे आपके अहंकार का घाव तिरोहित हो गया। आप प्रेम से भर गए हैं और मैं का कोई भाव नहीं रह गया है।

सुख—दुखों की प्राप्ति में सम ।

सुख आता है, दुख भी आता है। लेकिन आपने कभी खयाल नहीं किया होगा कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख के पीछे ही दुख छिपा होता है, उसका ही संगी—साथी है। और दोनों में तलाक का कोई भी उपाय नहीं है। दोनों सदा साथ हैं। उनका जोड़ा कभी छूटता नहीं। जब दुख आता है, तब उसके पीछे सुख छिपा रहता है। लेकिन हमारी आंखें संकीर्ण हैं। जो होता है, उसको ही हम देखते हैं। जो पीछे छिपा है, उसको नहीं देखते हैं। जब आप खुश हो रहे हैं, तब अब की दफा ध्यान रखना, जब सुख आए, तब ध्यान रखना कि जरूर उसके पीछे उससे जुड़ा हुआ दुख आएगा। और आप घड़ी, दो घड़ी में ही पाएंगे कि दुख आ गया। और इस दुख की क्वालिटी वही होगी, जो आपने सुख भोगा था उसकी थी; वही गुणधर्म होगा।

हर दुख के पीछे उसका सुख है। और हर सुख के पीछे उसका दुख है। रुपए में जैसे दो पहलू होते हैं, ऐसे वे दो पहलू हैं।

मगर हम कभी ध्यान नहीं करते। हमने कभी निरीक्षण नहीं किया। नहीं तो आप यह पहचान जाएंगे कि हर सुख का अनिवार्य दुख है। हर दुख का अनिवार्य सुख है। और दोनों मिलते हैं, एक नहीं मिलता। अगर आप अपना दुख कम करना चाहते हैं, तो आपको अपना सुख कम करना पड़ेगा। अगर आप अपना सुख बढ़ाना चाहते हैं, आपको अपना दुख बढ़ाना पड़ेगा।

इसलिए एक बड़ी अदभुत घटना घटी है इस जमीन पर। अब हमें खयाल में आती है। जमीन पर जितना सुख बढ़ता जाता है, उतना दुख भी बढ़ता जाता है। यह बड़े मजे की बात है।

विज्ञान ने सुख के बहुत उपाय किए हैं। और सुख निश्चित ही आदमी का बढ़ गया है। लेकिन आदमी जितना आज दुखी है, इतना कभी भी नहीं था। लोगों को लगता है, इसमें बड़ा कंट्राडिक्यान है, इसमें बड़ा विरोधाभास है। विज्ञान ने इतना सुख बढ़ा दिया, तो आदमी इतना दुखी क्यों है?

इसीलिए। इसमें विरोध नहीं है। जितना सुख बढ़ेगा, उसके ही अनुपात में दुख भी बढ़ेगा। वे साथ ही बढ़ेंगे।

एक गांव का आदमी कम दुखी है, क्योंकि कम सुखी भी है। एक आदिवासी कम दुखी है। यह तो हमको भी दिखाई पड़ता है कि कम दुखी है। लेकिन दूसरी बात भी आप ध्यान रखना, वह कम सुखी भी है। एक धनपति ज्यादा सुखी है, ज्यादा दुखी भी है। एक भिखमंगा कम सुखी है, कम दुखी भी है।

जिस मात्रा में सुख बढ़ता है, उसी मात्रा में दुख बढ़ता है। वह उसी के साथ—साथ है। वह उसी की छाया है। आप उससे भाग नहीं सकते। उससे आप बच नहीं सकते।

जिस दिन व्यक्ति को यह दिखाई पड़ जाता है कि सुख—दुख दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं, उस दिन वह समभावी हो जाता है। उस दिन वह कहता है कि अब इसमें सुख को चाहने और दुख से बचने की बात मूढ़तापूर्ण है।

यह तो ऐसे हुआ, जैसे मैं अपने प्रेमी को चाहता हूं और नहीं चाहता कि उसकी छाया उसके साथ मेरे पास आए। और छाया को देखकर मैं दुखी होता हूं। और मैं कहता हूं छाया नहीं आनी चाहिए, सिर्फ प्रेमी आना चाहिए। वह प्रेमी के साथ उसकी छाया भी आती है। वह आएगी ही। अगर मैं छाया नहीं चाहता हूं? तो मुझे प्रेमी की चाह कम कर देनी पड़ेगी। और अगर मैं प्रेमी को चाहता हूं तो मुझे छाया को भी चाहना शुरू कर देना पडेगा। बस, ये दो उपाय हैं।

दोनों ही अर्थों में बुद्धि सम हो जाती है। या तो सुख को भी मत चाहें, अगर दुख से बचना है। और अगर सुख को चाहना ही है, तो फिर दुख को भी उसी आधार पर चाह लें। और जिस दिन आप दोनों की चाह—अचाह में बराबर हो जाते हैं, उस दिन सम हो जाते हैं। कृष्ण कहते हैं, जो सम है सुख—दुख की प्राप्ति में, वह प्रभु के लिए उपलब्ध हो जाता है।

क्षमावान, अपराध करने वाले को भी जो अभय देने वाला है।

क्षमा बड़ी कठिन है। क्यों इतनी कठिन है? किसी को भी आप क्षमा नहीं कर पाते हैं। क्या कारण है? क्योंकि आप अपने को नहीं जानते हैं, इसलिए क्षमा नहीं कर पाते।

कभी आप खयाल करें अब, जिन—जिन चीजों पर आप दूसरों पर नाराज होते हैं, विचार किया आपने कि वे सब चीजें आपके भीतर भी छिपी पड़ी हैं! कोई क्रोध करता है, तो आप कहते हैं, बुरी बात है। लेकिन आपने सोचा कि क्रोध आपके भीतर भी पडा है! कोई चोरी करता है, तो आप कहते हैं, पाप! बड़ा शोरगुल मचाते हैं। लेकिन आपने सोचा कि चोर आपके भीतर भी मौजूद है! हो सकता है, इतना कुशल चोर हो कि आप भी नहीं पकड़ पाते। पुलिस वाले तो पकड़ ही नहीं पाते, आप भी नहीं पकड़ पाते। लेकिन क्या चोरो की वृत्ति भीतर मौजूद नहीं है?

हत्या कोई करता है। आप नाराज होते हैं। लेकिन क्या आपने कई बार हत्या नहीं करनी चाही? यह दूसरी बात है कि नहीं की। हजार कारण हो सकते हैं। सुविधा न रही हो, साहस न रहा हो, अनुकूल समय न रहा हो। लेकिन हत्या आपने करनी चाही है। चोरी आपने करनी चाही है।

ऐसा कौन—सा पाप है जो आपने नहीं करना चाहा है? किया हो, न किया हो, यह गौण बात है। और अगर जितने पाप जमीन पर हो रहे हैं, सब आप भी करना चाहे हैं, कर सकते थे, करने की संभावना है, तो इतना क्रोधित क्यों हो रहे हैं दूसरे पर?

मनोवैज्ञानिक कहते हैं बड़ी उलटी बात। वे कहते हैं कि अगर कोई आदमी चोरी का बहुत ही विरोध करता हो, तो समझ लेना कि उसके भीतर काफी बड़ा चोर छिपा है। अगर कोई आदमी कामवासना का बहुत ही पागल की तरह विरोध करता हो, तो समझ लेना, उसके भीतर कामवासना छिपी है। क्यों? क्योंकि वह उस चीज का विरोध करके अपने को भी दबाने की कोशिश कर रहा है। चिल्लाता है दूसरे पर, नाराज होता है, तो उसको अपने को भी दबाने में सुविधा मिलती है।

जिस चीज का आप विरोध करते हैं बहुत, गौर से खयाल करना, कहीं आपके भीतर अचेतन में वह दबी पड़ी है। इसीलिए इतना जोर से विरोध कर रहे हैं।

लेकिन जो व्यक्ति जितना आत्म—निरीक्षण करेगा, उतना ही क्षमावान हो जाएगा। क्योंकि वह पाएगा, ऐसा कोई पाप नहीं, जिसे मैं करने में समर्थ नहीं हूं। और ऐसी कोई भूल नहीं है, जो मुझसे न हो सके। तो दूसरे पर इतना नाराज होने की क्या बात है! दूसरा भी मेरे जैसा ही है। वह भी मेरा ही एक रूप है। जो मेरे भीतर छिपा है, वही उसके भीतर छिपा है।

तो क्षमा का भाव पैदा होता है। क्षमा का मतलब यह नहीं है कि आप बड़े महान हैं, इसलिए दूसरे को क्षमा कर दें। वह क्षमा थोथी है। वह तो अहंकार का ही हिस्सा है।

ठीक क्षमा का अर्थ है कि आप पाते हैं कि सारी मनुष्यता आप में है। और मनुष्य जो करने में समर्थ है, वह आप भी समर्थ हैं। मनुष्य जिस नरक तक जा सकता है, आप भी जा सकते हैं। एक बात। इससे क्षमा आती है।

और दूसरी बात, कि आप जिस ऊंचाई तक पहुंच सकते हैं, दूसरा मनुष्य भी उसी ऊंचाई तक पहुंच सकता है। दूसरी बात। निकृष्टतम भी आपके भीतर छिपा है, यह बोध, और श्रेष्ठतम भी दूसरे के भीतर छिपा है, यह बोध; आपके जीवन में क्षमा का जन्म हो जाएगा।

अभी हम उलटा कर रहे हैं। अभी श्रेष्ठतम हम मानते हैं हमारे भीतर है, और निकृष्टतम सदा दूसरे के भीतर है। दूसरे का जो बुरा पहलू है, वह देखते हैं। और खुद का जो भला पहलू है, वह देखते हैं। इससे बड़ी तकलीफ होती है। इससे बड़ी अस्तव्यस्तता फैल जाती है। दोनों देखें।

और जिस नरक में आप दूसरे को देख रहे हैं, उसमें आप भी खड़े हैं कहीं। और जिस स्वर्ग में आप सोचते हैं कि आप हो सकते हैं, या हैं, उसमें दूसरा भी हो सकता है। तब आपके जीवन में क्षमा का भाव आ जाएगा। और यह क्षमा सहज होगी। इससे कोई अहंकार निर्मित नहीं होगा कि मैंने क्षमा किया।

तथा जो योग में युक्त हुआ योगी निरंतर लाभ—हानि में संतुष्ट, मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए मेरे में दृढ़ निश्चय वाला है, वह मेरे में अर्पण किए हुए मन—बुद्धि वाला मेरा भक्त मेरे को प्रिय है।

परमात्मा को जो प्रिय है, वही उस तक पहुंचने का द्वार है। ये गुण विकसित करें, अगर उसे खोजना है। इन गुणों में गहरे उतरें, अगर चाहना है कि कभी उससे मिलन हो जाए। सीधे परमात्मा की भी फिक्र न की, तो भी हल हो जाएगा। अगर इतने गुण आ गए, तो परमात्मा उपलब्ध हो जाएगा।

एक मित्र ने पूछा है कि अगर हम ठीक जीवन ही जीए चले जाएं, तो क्या परमात्मा से मिलना न होगा?

बिलकुल हो जाएगा। लेकिन ठीक जीवन! ठीक जीवन का अर्थ ही धर्म है। और ये जितनी विधियां बताई जा रही हैं, ये ठीक जीवन के लिए ही हैं।

उन मित्र ने पूछा है कि धर्म की क्या जरूरत है, अगर हम ठीक जीवन जीएं?

ठीक जीवन बिना धर्म के होता ही नहीं। ठीक जीवन का अर्थ ही धार्मिक जीवन है। शब्दों का ही फासला है। कोई हर्ज नहीं, ठीक जीवन कहें या धार्मिक जीवन कहें। लेकिन ठीक जीवन का क्या अर्थ है?

ये जो गुण कृष्ण ने बताए, ये हैं ठीक जीवन। अहंकारशून्यता, सहज सबके प्रति प्रेम अकारण, क्षमा, एकाग्र चित्त—ये घटनाएं अगर बिना ईश्वर के भी घट जाएं.।

घटी हैं। महावीर ईश्वर को नहीं मानते हैं। बुद्ध तो आत्मा तक को नहीं मानते हैं। लेकिन महावीर भगवत्ता को उपलब्ध हो गए। जो भगवान को नहीं मानते है, उनको लोगों ने भगवान कहा। बुद्ध आत्मा—परमात्मा को कुछ भी नहीं मानते। और बुद्ध जैसा पवित्र, और बुद्ध जैसा खिला हुआ फूल पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ है।

ठीक जीवन पर्याप्त है। लेकिन ठीक जीवन का अर्थ यही है। ठीक जीवन ही तो प्रभु के लिए खुलना है। ठीक जीवन के प्रति ही तो उसका प्रेम है। गैर—ठीक जीवन में हम पीठ किए खड़े होते हैं। ठीक जीवन में हमारा मुंह ईश्वर की तरफ उन्‍मुख हो जाता है।

उन्मुख हो जाना उसकी तरफ ठीक जीवन है। या ठीक जीवन हो जाए तो उन्मुखता आ जाती है। अभी हम जैसे हैं, वह विमुखता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...