शनिवार, 14 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 15 भाग 5

 एकाग्रता और ह्रदय—शुद्धि


      यदादित्यगतं तेजो जगद्यासयतेऽखिलम्।

यच्‍चन्द्रमलि यचाग्नौ तत्तेजो विद्धि मांक्कम्।। 12।।

गामांविश्य च भूतानि धारयाथ्यमोजसा।

पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक:।। 13।।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमांश्रित:।

प्राणायानसमांयुक्त: पचाम्यन्‍नं चतुर्विधम्।। 14।।

सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत: स्मृतिज्ञनिमयहेनं च।

वेदैश्च सवैंरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदीवदेव चाहम्।। 15।।


और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थित हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान।

और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्‍ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रस—स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।

मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अश्निरूप होकर प्राण और अपान मे स्थित हुआ चार प्रकार के अन्न को पचाता हूं।


और मैं ही सब प्राणियों के ह्रदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन अर्थात संशय—विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।


और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थित हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान।

और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रस—स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।

मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त अन्न को पचाता हूं। और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन अर्थात संशय—विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।

कुछ बातें। पहली बात, कृष्ण के ये सारे सूत्र अर्जुन का समर्पण संभव हो सके, इसके लिए हैं। कृष्ण ये सारी बातें कह रहे हैं उस एक केंद्र की ओर इशारा करने को, जो सबका आधार है।

और अगर वह आधार हमें दिखाई पड़ने लगे, तो हम उस आधार की शरण सहज ही जा सकेंगे। अगर हमारी बुद्धि को उसकी झलक भी मिलने लगे, तो हम अपने होने का आग्रह, और अपने आपको कुछ समझने का आग्रह, अस्मिता और अहंकार की अति हमारी छूटनी शुरू हो जाएगी।

तो कृष्ण जब बार—बार यह कहते हैं कि मैं यह हूं मैं यह हूं मैं यह हूं तो बहुत—से पढ़ने वालों को गीता में ऐसा लगता है कि कृष्ण बड़े अहंकारी हैं। यह आदमी अजीब है। यह क्यों कहे चला जाता है कि सभी चांद—सूरज की रोशनी मैं हूं! कि सभी रसों में छिपा हुआ रस मैं हूं! कि सभी प्राणों में धड़कता प्राण मैं हूं!

आज के जमाने में तो गीता जैसी किताब लिखनी बड़ी मुश्किल हो जाए; कहनी भी मुश्किल हो जाए। फौरन पत्थर पड़ जाएं। क्योंकि लोग कहें कि दिमाग खराब है आपका! सभी कुछ आप हैं?

और अगर हिंदुओं को गीता पढ़ते वक्त यह खयाल नहीं आता, तो श्रृदा के कारण। उनको लगता है, कृष्ण भगवान हैं, इसलिए ठीक है। लेकिन मुसलमान जब गीता पढ़ता है, तो उसे फौरन खयाल आता है कि यह आदमी ठीक नहीं मालूम पड़ता। जैन जब पढ़ता है, तो उसे फौरन समझ में आता है कि यह आदमी अहंकारी है।

हिंदू सोच लेता है कि भगवान हैं, ठीक है। बाकी अगर वह भी विचार करेगा, तो उसको भी लगेगा कि यह बात क्या है? कृष्ण क्यों इतना जोर देते हैं कि मैं ही सब कुछ हूं?

और आपको अगर ऐसा लगे कि कृष्ण अहंकारी हैं, इतना जोर अपने मैं पर देते हैं, तो समझना कि यह चोट आपके अहंकार को लग रही है। यह आपका अहंकार क्रुद्ध हो रहा है।

कृष्ण का क्या प्रयोजन होगा? कृष्ण क्यों इतना जोर दे रहे हैं स्वयं पर? कृष्ण के जोर का कारण आप समझ लें।

कृष्ण का जोर स्वयं पर नहीं है; कृष्ण का जोर अर्जुन मिट जाए, इस पर है। पर इसके लिए एक ही उपाय है कि अर्जुन का केंद्र अर्जुन के बाहर हट जाए। अर्जुन का केंद्र अर्जुन के भीतर न हो, कहीं बाहर हो जाए। कृष्ण की यह सारी चेष्टा इसीलिए है कि अर्जुन देख पाए कि उसके भीतर जो मैं की आवाज है, वह व्यर्थ है; और वह संपूर्ण के केंद्र पर समर्पित हो जाए।

अर्जुन ने कहीं भी यह सवाल नहीं उठाया कि आप इतने अहंकार की बातें क्यों कर रहे हैं! यह भी जरा आश्चर्यजनक है। क्योंकि अर्जुन बुद्धिमान है; जैसा सोफिस्टिकेटेड होना चाहिए, उतना है। सुशिक्षित है, सुसंस्कारी है। उस समय के प्रतिभावान व्यक्तियों में एक है। मेधावी है। नहीं तो कृष्ण की मित्रता का कोई अर्थ भी न था। और कृष्ण जिसके सारथी बनने को राजी हो गए हैं, वह कोई साधारण गंवार नहीं है। पर अर्जुन एक बार भी नहीं कहता कि आप क्यों अपने अहंकार की घोषणा किए जा रहे हैं!

कृष्ण अर्जुन से कह सके, क्योंकि अर्जुन का एक प्रेम, एक सतत प्रेम कृष्ण के प्रति है। और जहां प्रेम हो, वहां हम समझ पाते हैं कि यह जो कहा जा रहा है इसमें कोई अहंकार नहीं है। और प्रेम हो, तो यह भी हम समझ पाते हैं कि यह मेरे लिए कहा जा रहा है। तो अर्जुन को पूरे समय यह लगा है कि मैं मिट जाऊं, इसकी चेष्टा के लिए कृष्ण अपने मैं को बड़ा कर रहे हैं। वे अपने मैं को खड़ा कर रहे हैं, ताकि मेरा मैं उस बड़े मैं में खो जाए। वे अपने मैं के विराट रूप को मुझे दे रहे हैं, ताकि मैं एक बूंद की तरह उस सागर में खो जाऊं।

यह सिर्फ एक उपाय है। अर्जुन मिट सके, राजी हो सके मिटने को, इसके लिए यह सिर्फ एक सहारा है।

प्रत्येक गुरु अपने शिष्य को यह सहारा देगा ही। जिस दिन शिष्य मिट जाएगा, उस दिन गुरु हंसकर उससे भी कह देगा कि तुम भी नहीं हो, मैं भी नहीं हूं।

लेकिन उसके पहले यह नहीं कहा जा सकता। यह बड़ी अड़चन की बात है। क्योंकि गुरु अगर यह कह दे, मैं भी नहीं हूं तुम भी नहीं हो, तो शिष्य यह तो मान लेगा कि तुम नहीं हो, यह नहीं मान सकता कि मैं नहीं हूं। क्योंकि यह मानना बहुत कठिन बात है। यह तो कोई भी मान लेगा कि तुम नहीं हो, बिलकुल ठीक है, सच है। यह तो हम पहले ही जानते थे। इसलिए जो गुरु कहे, मैं नहीं हूं? शिष्य बिलकुल राजी होगा।

और एक खतरा हो जाता है कि अब जहां भी कृष्ण मिल जाएंगे उनको, और कृष्ण कहेंगे कि मैं हूं प्राणों का प्राण; मैं हूं ज्योतियों की ज्योति। वे कहेंगे, आपका दिमाग खराब है।  ज्ञानी तो सदा यह कहते हैं कि मैं कुछ भी नहीं हूं।

ज्ञानी सदा जानते हैं कि वे कुछ भी नहीं हैं। लेकिन अज्ञानियों से बात करना जोखम का काम है।

कृष्ण इतने जोर से कह रहे हैं कि मैं यह हूं ताकि अर्जुन को प्रतीति होने लगे कि वह कुछ भी नहीं है।

यह ठीक वैसा ही है, जैसा कि एक बड़ी प्रसिद्ध घटना है, जो आपने सुनी होगी कि अकबर ने एक लकीर खींच दी दीवाल पर और अपने दरबारियों को कहा कि इसे बिना छुए छोटा कर दो। वे नहीं कर पाए क्योंकि बुद्धि सीधी कहेगी कि बिना छुए कैसे छोटी होगी? हाथ लगाना पड़े, पोंछना पड़े। लेकिन बीरबल ने एक बड़ी लकीर उसके पास खींची। उस लकीर को नहीं छुआ, लेकिन वह छोटी हो गई।

ये कृष्ण इतना ही कर रहे हैं कि अर्जुन की लकीर के पास एक बहुत बड़ी लकीर खींच रहे हैं, कृष्ण की लकीर। वह अर्जुन का मैं है, छोटा—सा टिमटिमाता दीया; और कृष्ण कह रहे हैं, सूर्यों का सूर्य मैं हूं। तू इधर देख, तू इस तरफ मुड़, तू कहां छोटे—से दीए की टिमटिमाती लौ! और मिट्टी का तेल—वह भी मिलना मुश्किल—उसमें तू कब तक टिमटिमाता रहेगा, इस तरफ देख। और अर्जुन का प्रेम है इतना कृष्ण के प्रति, वह देख सकता है। इतना भरोसा है कि यह आदमी कह रहा है, तो कोई सूरज होगा उसमें। और सूरज सबके भीतर छिपा है, इसलिए अड़चन कुछ भी नहीं है। अगर अर्जुन भाव से देख ले, तो कृष्ण के भीतर का सूरज दिख जाएगा। और जिस दिन कृष्ण के भीतर का सूरज दिखेगा, वह अपने टिमटिमाते दीए को छोड़ देगा।

टिमटिमाता दीया छूट जाए तो अपने भीतर का सूरज भी दिखेगा। लेकिन यह गुरु जो है, वह मीडियाकार है। अपने ही भीतर के सूरज को देखना अति कठिन है। क्योंकि अपनी नजर तो अपने दीए पर ही लगी है। इस दीए का बुझना जरूरी है। यह गुरु के सहारे बुझ जाएगा। और एक बार बुझ जाए, तो गुरु के सूरज को देखने की कोई जरूरत नहीं है, अपना सूरज भी दिखाई पड़ने लगेगा।

हम दीए से आविष्ट होकर बैठे हैं। हमारी हालत ऐसी है, सूरज निकला है खुले मैदान में, हम अपना दीया रखे उस पर आंख गड़ाए बैठे हैं। इतने जन्मों से आंख गड़ाए हैं कि हिप्‍नोटाइज्‍ड हो गए हैं। वह दीया ही दिखाई पड़ता है। और दीया देखते—देखते आंखें भी इतनी छोटी हो गई हैं कि अगर एक दफे सूरज की तरफ देखें, तो अंधेरा ही दिखाई पड़ेगा।

कृष्ण का सहारा सिर्फ इतना है कि आहिस्ता से अर्जुन को उसके दीए से हटा लें। और एक बार वह सूरज कृष्ण का देख ले, तो वह कृष्ण का सूरज नहीं है, वह सभी का सूरज है; वह सभी के भीतर बैठा है। इसे खयाल में रखें।

और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थित हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान। और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण किए हूं और रस—स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।

सोम दो अर्थ रखता है। एक तो सोम का अर्थ है, चंद्रमा। हिंदुओं का जो रस—विज्ञान है, उसमें औषधियों को जो पुष्टि मिलती है, वह चंद्रमा से मिलती है। सूर्य उनको प्राण देता है। सूर्य के बिना औषधियां बड़ी नहीं होंगी, वनस्पतिया बड़ी नहीं होंगी; वृक्ष बड़े नहीं होंगे। सूरज उन्हें प्राण देता है। लेकिन जो रस है, जो उनमें जीवनदायी तत्व है, वह उन्हें चांद से मिलता है; वह चांद के द्वारा मिलता है।

यह बात काल्पनिक समझी जाती थी आज तक कि आयुर्वेद और हिंदुओं की यह जो रस—विद्या है, यह काव्य है, प्रतीक है। लेकिन इधर पचास वर्षों में जो खोजबीन हुई है, उससे सिद्ध हो रहा है कि चांद निश्चित ही प्राण देने वाला है।

और सूरज जो कुछ भी देता है, उसमें एक उत्तेजना है, और चांद जो भी देता है, उसमें एक शांति है। इसलिए जितनी शांत औषधियां हैं, उन सब में चांद छिपा है। और जो सर्वाधिक शांतिदायी औषधि थी, इसी कारण—वह दूसरा अर्थ है सोम का—उसे हम सोम—रस कहते थे।

पश्चिम में वैज्ञानिक बड़ी खोज में लगे हैं कि वेदों ने जिसको सोम—रस कहा है, वह क्या है? पच्चीसों प्रस्ताव किए गए हैं, पच्चीसों दावे किए गए हैं कि यह वनस्पति सोम—रस होनी चाहिए। कुछ लक्षण मिलते हैं, लेकिन पूरे लक्षण किसी वनस्पति से नहीं मिलते। संभावना इस बात की है कि वह वनस्पति पृथ्वी से खो गई। या हिंदुओं ने उसे विलुप्त कर दिया।

काफी काम इस समय विज्ञान में चलता है। बड़े ग्रंथ लिखे जाते हैं, बड़ी शोध की जाती है सोम की खोज के लिए। क्यों? क्योंकि पश्चिम में इधर तीस वर्षों में वनस्पति के द्वारा, औषधि के द्वारा, रसायन के द्वारा समाधि कैसे प्राप्त की जाए, इस संबंध में बड़ा आंदोलन है। तो एल. एस डी., मारिजुआना, मेस्कलीन, इन सब की बड़ी पकड़ है। और सारी गवर्नमेंट्स डर गई हैं, सारी दुनिया में रुकावट लगा दी गई है कि कोई भी इन चीजों को न ले।

और यह बड़े मजे की बात है कि शराब सबसे ज्यादा खतरनाक है, लेकिन शराब सब जगह प्रचलित है! और ये औषधियां शराब जैसी खतरनाक नहीं हैं, लेकिन इन पर भारी रोक है। और डर इस बात का है कि ये औषधियां व्यक्ति में ऐसे क्रांतिकारी फर्क ले आती हैं कि आज का जो समाज है, वह उस व्यक्ति का उपयोग नहीं कर सकेगा।

जैसे अगर युवक एल. एस डी, मारिजुआना, और इस तरह की चीजों का उपयोग करने लगें, तो उनको युद्ध पर नहीं भेजा जा सकता। वे इतने शांत हो जाएंगे कि उनको युद्ध पर नहीं भेजा जा सकता। उनसे दंगे, उपद्रव नहीं करवाए जा सकते। उन्हें रस ही नहीं रह जाएगा लड़ने का।

इन सारी औषधियों के कारण पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक अल्डुअस हक्सले ने घोषणा की थी कि इस सदी के पूरे होते—होते हम सोम का पता लगा लेंगे। क्योंकि सोम इन्हीं से मिलती—जुलती कोई चीज होनी चाहिए। इनसे बहुत श्रेष्ठ, लेकिन इनसे मिलती—जुलती। क्योंकि वेद में जो वर्णन है सोम का कि ऋषि सोम को पी लेते हैं और समाधिस्थ हो जाते हैं, और परमात्मा के आमने—सामने उनकी चर्चा और बातचीत होने लगती है। इस लोक से रूपांतरित हो जाते हैं; किसी और आयाम में प्रविष्ट हो जाते हैं।

हो सकता है, सोम इस तरह का रासायनिक रस रहा हो कि समाज को उसे विलुप्त कर देना पड़ा हो। क्योंकि समाज उसके सहारे नहीं चल सकता। अगर लोग बहुत आनंदित हो जाएं, नाचने—गाने लगें और तल्लीन रहने लगें, तो समाज नहीं चल सकता है। समाज के लिए थोड़े दुखी, परेशान लोग चाहिए; वे ही चलाते हैं। उनके बिना नहीं चल सकता।

अगर सभी लोग प्रसन्न हों, तो बहुत मुश्किल है काम। किसको लगाइएगा दौड़ में कि तू फैक्टरी चला। वह कहेगा, ठीक है, रोटी मिल जाती है। किसको दौड़ में लगाइएगा कि तू दिल्ली जा! वह कहेगा, हम पागल नहीं हैं। हम जहा हैं, वहीं दिल्ली है। हम मजे में हैं।

यह जो इतनी दौड़ चलती है, अर्थ की, राजनीति की, सब तरह की विक्षिप्तता की, इसके लिए दुखी लोग चाहिए। युद्ध चलते हैं, संघर्ष चलता है, और चैन नहीं है एक क्षण को, इसके लिए बेचैन लोग चाहिए।

हिप्पियों से अमेरिका डर गया था। क्योंकि अगर सारे लड़के और लड़किया हिप्पियों जैसे हो जाएं, तो अमेरिका डूबेगा। इस अर्थ—तंत्र में उसकी कोई जगह न रह जाएगी।

इनको लड़वाया नहीं जा सकता है। ये लड़ने से इनकार करते हैं। और यह परिणाम है एल एस. डी. और मांरिजुआना और मेस्कलीन का, तो सोम का क्या परिणाम रहा होगा!

सोम अदभुततम रस है। हिंदू धारणा से सभी वनस्पतियों में चांद उतरता है। लेकिन सोम नाम की जो वनस्पति है, उसमें चांद पूरा उतरता है। वह चांद की पूरी शांति को पी जाती है। उसके पत्ते—पत्ते में, उसके फूल में, उसकी जड़ों में चांद छिप जाता है। और उसका अगर विधिवत उपयोग किया जाए, तो समाधि फलित होती है। निश्चित ही, उस पर रोक लगाई गई होगी; उसको छिपाया गया होगा या नष्ट कर दिया गया होगा। इसलिए बहुत खोज करके हिमालय में भी सोम वनस्पति उपलब्ध नहीं होती।

लेकिन कृष्ण यहां कह रहे हैं कि मैं वही सोम हूं। चांद भी मैं हूं, सूरज भी मैं हूं। इस जगत में जो तेज है, वह भी मेरा है, और इस जगत में जो शांति है, सन्नाटा है, वह भी मेरा है। इस जगत में जो तरंगें हैं, वे भी मेरी हैं। इस जगत में जो मौन है, वह भी मेरा है। इस जगत का जो ताप—उत्तप्त व्यक्तित्व है, वह भी मैं हूं; और इस जगत का जो शांत समाधिस्थ व्यक्तित्व है, वह भी मैं हूं।

मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त हुआ अन्न को पचाता हूं। और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं।

यह काफी महत्वपूर्ण बात है, सभी प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं।

आपके भीतर कहां अंतर्यामी है? अगर आप अपने अंतर्यामी को पकड़ लें, तो भगवान के चरण हाथ में आ गए। कौन—सा तत्व है आपके भीतर जो अंतर्यामी है? कैसे उस तत्व को पकड़े?

अंतर्यामी का अर्थ होता है, भीतर का जानने वाला। भीतर जो छिपा है जानने वाला। तो जिस तत्व को आप जान नहीं सकते और जो सबको जानता है, धीरे— धीरे उसकी गहराई में डूबना है।

शरीर को मैं जानता हूं। शरीर को देखता हूं। तो जिसे मैं जानता हूं और देखता हूं वह अलग हो गया, पृथक हो गया, वह मेरा ज्ञाता न रहा, ज्ञेय हो गया, वह आब्जेक्ट हो गया। वह संसार का हिस्सा हो गया।

भीतर आंख बंद करता हूं तो हृदय की धड़कन भी मैं सुनता हूं? अपने हृदय की धड़कन भी सुनता हूं। तो यह हृदय की धड़कन मेरी न रही; यंत्रवत हो गई, शरीर की हो गई। मैं देखने वाला इसके पीछे खड़ा हूं। इसको भी मैं सुनता हूं; इससे मैं अलग हो गया, फासला हो गया।

आंख बंद करता हूं विचारों की बदलियां घूमती हैं। उनको भी मैं देखता हूं कि यह विचार जा रहा है, यह अच्छा, यह बुरा; यह क्रोध, यह लोभ। इन विचारों के पार मैं देखने वाला हो गया।

समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं इतनी ही चेष्टा करती हैं कि तुम्हें यह समझ में आना शुरू हो जाए कि तुम क्या—क्या नहीं हो। नेति—नेति; यह भी मैं नहीं, यह भी मैं नहीं। काटते जाओ। जो भी दिखाई पड़ जाए, जो भी ज्ञेय बन जाए जो भी आब्जेक्ट बन जाए, उसे छोड़ते जाओ; इलिमिनेट करो, नकार करो। और उस जगह ही रुको, जहा सिर्फ जानने वाला ही रह जाए। वह अंतर्यामी है। वह जो भीतर छिपा और सब जानता है, और किसी के द्वारा कभी जाना नहीं जाता। क्योंकि उसके पीछे जाने का कोई उपाय नहीं है। वह सबसे पीछे है। वह अंत है। वह मूल है। वह उत्स है।

अगर हम अपने भीतर के अंतर्यामी को पकड़ लें, वही हम हैं, अगर उसमें हम खडे हो जाएं और ठहर जाएं, तो हम कृष्ण में खड़े हो गए। और तब हम भी कह सकेंगे कि यह सूरज मेरी ही रोशनी है, और यह चांद मुझसे ही चमकता है, औषधियां मुझसे ही बड़ी होती हैं; और इस जगत में जो सोम बरस रहा है, वह मैं ही हूं।

अंतर्यामी को आप पकड़ लें, तो यही घोषणा जो कृष्ण की है, आपकी घोषणा हो जाएगी। और तभी आप समझ पाएंगे कि कृष्ण अहंकार के कारण यह घोषणा नहीं कर रहे हैं, यह एक आंतरिक अनुभव के कारण कर रहे हैं।

और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, जान और अपोहन, संशय—विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं तथा वेदात का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।

मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन

तीन शब्दों का कृष्ण ने उपयोग किया है, स्मृति, ज्ञान और अपोहन। अपोहन का अर्थ है, संशय—विसर्जन। यह बड़ी समझने की बात है। अपोहन शब्द याद रखने जैसा है।

आपके भीतर सदा ऊहापोह चलता है। ऊहापोह का मतलब है, यह ठीक कि वह ठीक! यह भी ठीक, वह भी ठीक! कुछ समझ नहीं पड़ता, क्या ठीक। संशय! मन डोलता रहता है घड़ी के पेंडुलम की तरह, बाएं —दाएं; कहीं ठहरता नहीं मालूम पड़ता। यह ऊहापोह की अवस्था है।

अपोहन का अर्थ है, इससे विपरीत अवस्था। जहा कोई ऊहापोह नहीं, जहा संशय चला गया; जहा असंशय आप खड़े हो गए। जहा पेंडुलम घूमता नहीं है; खड़ा हो गया है घिर। जहा कोई कंपन नहीं है। जहा यह ठीक या वह ठीक, ऐसा भी कोई सवाल नहीं है। जहा आप सिर्फ खड़े हैं, जहा चुनाव न रहा। जिसको कृष्णमूर्ति च्चाइसलेसनेस कहते हैं, वह अपोहन है। जहा सब चुनाव शांत हो गए; जहा मुझे चुनना नहीं कि यहां जाऊं कि वहा जाऊं। जहा आप बिना चुनाव चुपचाप खड़े हैं, जहां चित्त थिर है।

कृष्ण कहते हैं, स्मृति मैं हूं। क्योंकि आपके भीतर जिसको आप स्मृति कहते हैं, उसको कृष्ण स्मृति नहीं कह रहे हैं। जिसको आप मेमोरी कहते हैं, वह नहीं। कि आपको पता है कि आपका नाम क्या है, आपकी तिजोरी में कितना रुपया जमा है, आपकी दुकान कहां है, इससे प्रयोजन नहीं है स्मृति का। स्मृति से इस बात का प्रयोजन है कि मैं कौन हूं। सेल्फ रिमेंबरिग। मेमोरी नहीं, आत्म—बोध, कि मैं कौन हूं!

आप दुकानदार हैं, यह आत्म—बोध नहीं है। क्योंकि दुकानदार होना सांयोगिक है; कोई आपका स्वभाव नहीं है।

लेकिन हम उसको भी स्वभाव की तरह पकड़ लेते हैं। दुकानदार को दुकान से हटाओ, उसको लगता है, उसकी आत्मा जा रही है। नेता को पद से हटाओ, उसको लगता है, मरे; गए। पद के बिना वह कुछ भी नहीं है।

मैंने सुना है, एक गाव से चार चोर निकलते थे। उन्होंने देखा कि एक नट छलांग लगाकर बड़ी ऊंची रस्सी पर चढ़ गया। और रस्सी पर नाचने के कई तरह के करतब दिखाने लगा। उन चोरों ने कहा, यह आदमी तो काम का है! इसको उड़ा ले चलें। हमें बड़ी मेहनत पड़ती है मकानों में चढ़ने में रात। यह तो गजब का आदमी है! एक इशारा करो कि दूसरी मंजिल पर पहुंच जाए।

उस नट को उन्होंने उड़ा लिया। रात उन्होंने बड़े से बड़ा जो नगर का सेठ था, उसकी हवेली चुनी; जिसको वे अब तक नहीं चुन पाए थे, क्योंकि हवेली बड़ी थी, चढ़ने में अड़चन थी।

नट को लेकर वे पहुंचे। बड़े प्रसन्न थे। उन्होंने नट से कहा, अब तू देर न कर भाई। एक, दो, तीन, छलांग लगा, ऊपर चढ़। लेकिन नट वहीं खड़ा रहा। उन्होंने फिर दुबारा कहा; नट वहीं फिर खड़ा रहा। उन्होंने फिर तीसरी बार कहा। तीसरी बार एक चोर बिलकुल नाराज हो गया, उसने कहा, अभी तू खड़ा क्यों है? चढ़! हमारे पास ज्यादा समय नहीं है।

नट ने कहा, पहले नगाड़ा बजाओ। बिना नगाड़े के कैसे नट चढ़ सकता है! नगाड़ा जब बजे, तब उसने कहा, मैं नहीं तो मेरे पैर में गति ही नहीं है। हम खड़े नहीं हैं, कोई उपाय ही नहीं है। अब चोर नगाड़ा तो बजा नहीं सकता। पर नट ठीक कह रहा था। लेकिन उसको भी खयाल नहीं है कि अगर वह छलांग लगा सकता है, तो नगाड़े से कुछ लेना—देना नहीं है।

दुकानदार होना आपका, कि डाक्टर होना, कि मजदूर होना, कि स्त्री होना, कि पुरुष होना, सांयोगिक है। वह कोई आपका स्वभाव नहीं है। और आप वह नहीं रहेंगे, तो सब मिट गया, ऐसा कुछ नहीं है। कुछ नहीं मिटता। उसकी जो स्मृति है, उसको कृष्ण नहीं कह रहे हैं कि वह मैं हूं नहीं तो आप सोचें कि कृष्ण।

कृष्ण कह रहे हैं, आत्म—स्मरण मैं हूं सेल्फ रिमेंबरेंस मैं हूं। जिस दिन आप स्मरण करेंगे इन सब संयोगों से हटकर आपका जो स्वभाव है, आप कौन हैं! मैं कौन हूं!

ये सारी सांयोगिक बातें हैं। मेरा नाम, मेरा घर, पता, ये सब कुछ मूल्य के नहीं हैं। मेरा न कोई नाम है, और न मेरा कोई घर है, और न मेरा कोई रूप है। मेरी वह जो अरूप और अनाम स्थिति है, उसको कृष्ण कहते हैं, वह स्मृति है।

स्मृति शब्द बाद में बिगड़ा और कबीर और दादू के समय में सुरति हो गया। नानक और दादू और कबीर सुरति का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, सुरति जगाओ। सुरति का मतलब है, जगाओ उसको, जो आपके भीतर परमात्मा है।

 वह जो सब संयोगों के पार है, सब स्थितियों के पार है, सभी स्थितियों से गुजरता है, फिर भी किसी स्थिति के साथ एक नहीं है, सभी अवस्थाओं से गुजरता है।

कभी आप बच्चे हैं; कभी जवान हैं; कभी बुढ़े हैं; लेकिन आपके भीतर कोई है, जो न बच्चा है, न जवान है, न बुढ़ा है; जो तीनों से गुजरता है। जैसे तीन स्टेशनें हों और आपकी ट्रेन तीनों से गुजर जाए। वह जो यात्री भीतर बैठा है, जो सदा चल रहा है, कहीं भी ठहरता नहीं है, किसी भी अवस्था के साथ एक नहीं हो जाता है; सदा अवस्था—मुक्त है, उसकी स्मृति को कृष्ण कहते हैं, मैं हूं। ज्ञान! यहां ज्ञान से अर्थ नालेज का नहीं है। विश्वविद्यालय ज्ञान देते हैं। कृष्ण उस ज्ञान की बात नहीं कर रहे हैं। शिक्षक ज्ञान देते हैं! स्मृति इकट्ठी कर लेती है ज्ञान को। संग्रह हो जाता है आपके पास, बड़ी सूचनाएं इकट्ठी हो जाती हैं। कृष्ण उसको ज्ञान नहीं कह रहे हैं।

ज्ञान से अर्थ नालेज नहीं है। ज्ञान से अर्थ प्रज्ञा है। ज्ञान से अर्थ विजडम है। बड़ी अलग बात है। क्योंकि यह हो सकता है, आप कुछ न जानते हों और ज्ञानी हों। और यह भी हो सकता है, बहुत कुछ जानते हों और निपट अज्ञानी हों। आपके जानने से कोई संबंध नहीं है।



एक आदमी बहुत कुछ जान सकता है। सब शास्त्र कंठस्थ हों; तोते की तरह कंठस्थ हो सकते हैं, जरा भी भूल न करे। यंत्रवत स्मृति हो। और फिर भी जीवन में व्यवहार जो करे, वहां अज्ञानी सिद्ध हो।

आपको वेद कंठस्थ हों, सारी बातें याद हों, और गीता आपकी जबान पर बैठी हो; और आपको मालूम है बिलकुल कि न तो शस्त्रों से छिदता हूं न अग्नि मुझे जला सकती है। और जरा—सा दुख आ जाए और आप छाती पीटकर रो रहे हैं! सब गीता वगैरह रखी रह जाती है! वहा पता चलता है कि यह प्रज्ञा है या नहीं। प्रज्ञा आपके अनुभव में काम आती है। और ज्ञान केवल बुद्धि की बातचीत है। और बुद्धि की बातचीत तो हम कुछ भी इकट्ठी कर ले सकते हैं।

मैं एक प्रोफेसर के घर मेहमान था। ऐसे अचानक मेरे कान में पति—पत्नी की बात पड़ गई। मैं अपने कमरे में बैठा था, जहा उनके घर में रुका था। पति बाहर से आए। पत्नी से कहा—कुछ जोर से ही कहा, बड़े प्रसन्न थे—कि आज रोटरी क्लब में रात मेरा व्याख्यान है तिब्बत के ऊपर। पत्नी ने कहा, तिब्बत? लेकिन तुम तिब्बत तो कभी गए नहीं! पति ने कहा, छोड़ो भी। सुनने वाले ही कौन से तिब्बत होकर आए हैं!

यह मैं सुन रहा था। तब मुझे पता चला कि ज्ञान के लिए तिब्बत जाने की कोई जरूरत नहीं है, न सुनने वाले को, न बोलने वाले को। अक्सर अध्यात्म के नाम पर ऐसे ही तिब्बत के यात्री चलते रहे हैं। न सुनने वाले को कुछ पता है कि ब्रह्म क्या, न बोलने वाले को कुछ पता है। जब दोनों को पता नहीं, तो कोई अड़चन ही नहीं है। यहां जो कृष्ण कह रहे हैं ज्ञान, तो विजडम, प्रज्ञा से उसका संबंध है। अनुभव में जिसके, जीवन में जिसका बोध सधा हुआ है, कैसी भी अवस्था हो, जिसके बोध को डिगाया नहीं जा सकता, वह मैं हूं। स्मृति, ज्ञान और अपोहन, सब वेदों द्वारा जानने योग्य। ये ही तीन बातें हैं। सारा वेदांत इन्हीं तीन की खोज करता है। और न केवल सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं वरन वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।

सारे वेद मुझे ही खोजते हैं। और सारे वेद मेरे ही अनुभव से निकलते हैं।

सारे वेदों की खोज क्या है? कि वह अंतर्यामी मिल जाए। वह जो भीतर छिपा हुआ राजों का राज है, वह मिल जाए। लेकिन वेद निकलते कहां से हैं?

जिनको वह मिल जाता है, उनकी वाणी वेद बन जाती है। जो उसे पा लेते हैं, उनकी सुगंध वेद बन जाती है। जो वहां तक पहुंच जाते हैं उस अंतर्यामी तक, फिर वे जो भी कहते हैं, वही वेद बन जाता है। वे न कहें, तो मौन उनका वेद हो जाएगा। वे चलें—फिरें, उठें, तो उनकी गतिविधि वेद हो जाएगी।

अगर बुद्ध को चलते हुए भी देख लो, तो भी उस चलने में समाधि है; उसमें भी इशारा है। अगर कृष्ण को बांसुरी बजाते हुए देख लो, तो उस बांसुरी में वेद है; उसमें सारा वेदांत है, उसमें सारा इशारा है।

कृष्ण कहते हैं कि मैं ही सबकी खोज, और मैं ही सब का मूल उत्स। और यह जो मैं है, तुम्हारे भीतर छिपा हुआ अंतर्यामी है। कृष्ण बाहर से बोल रहे हैं, लेकिन जिसकी तरफ इशारा कर रहे हैं, वह अर्जुन के भीतर है।

गुरु सदा बाहर से बोलता है, लेकिन जिस तरफ इशारा करता है, वह शिष्य के भीतर है। इसलिए दो पड़ाव हैं यात्रा के। एक तो बाहर का गुरु, वह पहला पड़ाव है। और फिर भीतर का गुरु, वह अंतिम पड़ाव है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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