गुरुवार, 12 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 14भाग2

 त्रिगुणात्‍मक जीवन के पार


   सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या:।

तासो ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता।। 4।।

सत्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसंभवा।

निबध्‍नन्ति महाबाहो देहे देहिनमध्ययम्।। 5।।

तत्र सत्वं निर्मलत्‍वात्प्रकाशकमनामयम्।

सुखसङ्गेन बध्‍नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ।। 6।।


तथा है अर्जुन, नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियां अर्थात शरीर उत्पन्‍न होते है, उन सबकी त्रिगुणमयी माया तो गर्भ को धारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूं।

हे अर्जुन, सत्‍वगुण, रजोगुण और तमोगुण, ऐसे यह प्रकृति से उत्पन्‍न हुए तीनों गुण इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं।

हे निष्पाप, उन तीनों गुणों में प्रकाश करने वाला निर्विकार सत्‍वगुण तो निर्मल होने के कारण सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्‍ति से अर्थात ज्ञान के अभिमान से बांधता है।


हे अर्जुन, नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियां अर्थात शरीर उत्पन्न होते हैं, उन सबकी त्रिगुणमयी माया तो गर्भ को धारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूं। हे अर्जुन, सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, ऐसे यह प्रकृति से उत्पन्न हुए तीनों गुण इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं। हे निष्पाप, उन तीनों गुणों में प्रकाश करने वाला निर्विकार सत्वगुण तो निर्मल होने के कारण सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से अर्थात ज्ञान के अभिमान से बांधता है।

पहली बात, गीता के अनुसार और वस्तुत: सांख्य के अनुसार प्रकृति तीन तत्वों का मेल है, सत्व, रज, तम।

यह आश्चर्य की बात है कि जगत में जहां भी किसी ने विश्लेषण किया है जीवन का, अंतिम विश्लेषण हमेशा तीन पर टूट जाता है। प्रतीकों में, धारणाओं में, सिद्धांतों में अस्तित्व तीन हिस्सों में टूट जाता है।

हिंदू त्रिमूर्ति में विश्वास करते हैं कि परमात्मा के तीन चेहरे हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश। उन तीन चेहरों से ही सारा जगत, उन तीन व्यक्तित्वों से ही सारा जगत निर्मित है।

सांख्य अति वैज्ञानिक है। वह ट्रिनिटी और त्रिमूर्ति की बात नहीं करता, तीन चेहरों की बात नहीं करता, वह तीन तत्वों की बात करता है, सत्व, रज, तम।  सत्व, रज, तम, तीनों के तीन गुण हैं। और उन तीनों गुणों के मेल से सारा अस्तित्व गतिमान है।

तम स्थिति—स्थापक है। तम का अर्थ है, आलस्य की, विश्राम की दशा, ठहरी हुई दशा, अवरोधक। एक पत्थर आप फेंकते हैं। अगर आप न फेंकते, तो पत्थर अपनी जगह पड़ा रहता। अपनी जगह पड़ा रहना तम है। जब तक कि कोई बाहरी चीज धक्का न दे, सभी चीजें अपनी जगह पड़ी रहेंगी। तम का अर्थ है, अपनी जगह ठहरे रहना, हटना नहीं। और जब आप पत्थर को फेंकते हैं, तब भी आपको ताकत लगानी पड़ती है। वह ताकत इसीलिए लगानी पड़ती है, क्योंकि पत्थर अपनी जगह रहना चाहता है। उसको जगह से हटाने में आपको संघर्ष करना पड़ता है।

फिर आप पत्थर को फेंक भी देते हैं, अगर तम जैसी कोई चीज न होती, तो पत्थर फिर कभी रुकता ही नहीं। वह चलता ही चला जाता। लेकिन पत्थर लड़ रहा है रुकने के लिए। आपने फेंक दिया, तो आपने थोडी—सी ऊर्जा उसको दी, शक्ति दी अपने शरीर की। वह शक्ति जैसे ही चुक जाएगी, पत्थर वापस जमीन पर गिर जाएगा। विज्ञान जिसको ग्रेविटेशन कहता है, सांख्य उसको तम कहता है, ठहरने की, प्रतिरोध की, रुकने की, स्थिति में बने रहने की। अगर दुनिया में तम न हो, तो फिर कोई भी चीज ठहरेगी नहीं। बड़ा मुश्किल हो जाएगा। सभी चीजें गति में रहेंगी। और गति इतनी विक्षिप्त हो जाएगी कि उसके ठहरने का कोई उपाय नहीं रह जाएगा। अकेली गति काफी नहीं है। ठहरने का तत्व कहीं प्रकृति में गहन होना चाहिए।

तम है स्थिति का, ठहरने का तत्व, कहें मृत्यु का तत्व। क्योंकि मृत्यु ठहरा लेती है। मर जाने के बाद फिर कोई गति नहीं है। इसलिए तामसिक व्यक्ति हम उसको कहते हैं, जो मरा—मरा जीता है। जिसमें तम इतना है, कि जिसमें गति है ही नहीं। जो चलता ही नहीं, उठता ही नहीं। जिसके भीतर कोई क्रांति, कोई परिवर्तन, कोई नया नहीं होता; कुछ रूपांतरण नहीं होता। जो पत्थर की तरह पड़ा हुआ है।

देखें, हम प्रकृति में भी इसी तरह हिसाब लगाते हैं विकास का। जितना ज्यादा तम हो, उतनी अविकसित चीज मानी जाएगी। जितना कम तम हो, उतनी विकसित। आदमी सबसे ज्यादा गतिमान है। पत्थर सबसे ज्यादा गतिहीन है। पौधों में थोड़ी गति है। पशुओं में और ज्यादा। मनुष्य में बहुत।

मनुष्य पानी में भी गति करे, जमीन पर भी, हवा में, आकाश में भी, चांद—तारों तक भी जाए। उसे रोकने का उपाय नहीं, सब तरफ भागता है। इसलिए मनुष्य सर्वाधिक विकसित है। उसने अपने तम की या अपने भीतर की मृत्यु पर सर्वाधिक विजय पा ली है। वह बदल सकता है।

समाज में भी वही समाज सबसे ज्यादा प्रगतिशील होगा, जिसने तम को तोड़ दिया है। पश्चिम के समाज अपने तम को तोड्ने में काफी सफल हुए हैं। विकास तीव्र हो गया है। लेकिन किन्हीं सीमाओं में विकास इतना ज्यादा हो गया है कि ठहरने की उन्हें कला ही भूली जा रही है। तो भी घबड़ा गए हैं।

क्योंकि एक आदमी चल पड़े और रुकना न जाने, रुकना भूल जाए! मंजिल पर पहुंचने को चला था, लेकिन मंजिल पर रुकना पड़ेगा; और वह रुकना भूल जाए! और चलना ऐसा हो जाए कि वह रुकना भी चाहे, तो रुक न सके। मंजिल भी आ जाए, तो क्या करे? मंजिल पीछे छूट जाएगी। वह आदमी चलता ही रहेगा।

तम ठहरने वाली, ठहराने वाली, रोकने वाली। 

रज गति देने वाली, तीव्रता देने वाली। रज शक्ति है, ऊर्जा है प्रवाहमान, जैसे नदी, विद्युत।

यह सारा जगत गतिमान है। अगर चीजें ठहरी ही रहें, तो जगत नहीं हो सकता। उसमें चलना, उसमें बढ़ना।

बच्चा पैदा होता है, बढ़ेगा। मौत अगर तम है, तो जीवन रज है, जन्म रज है। जन्म के क्षण में बच्चे में रज का तत्व ज्यादा होता है, तम का कम। बुजुर्ग में तम बढ़ जाता है और रज कम हो जाता है। जिस दिन रज और तम दोनों समान होते हैं, उस दिन व्यक्ति जवान होता है; उस दिन उसमें गति और ठहराव बराबर होते हैं। उस दिन संतुलन होता है। उस दिन एक बैलेंस होता है। इसीलिए जवानी में एक सौंदर्य है।

बच्चे में एक त्वरा होती है, चंचलता होती है, क्योंकि रज तेज होता है, तम कम होता है। तुम उसे कहो कि बैठो शांत, तो वह शांत नहीं बैठ सकता। बुढो को बहुत अखरता है कि बच्चे शांत नहीं बैठ सकते। उनको अखरने का कारण है। क्योंकि वे चंचल नहीं हो सकते।

 लेकिन उनको पता नहीं है कि बच्चे बुढ़े नहीं हैं, इसलिए उनसे ठहरने की आकांक्षा करनी गलत है। अगर उन्हें ठहराना भी हो, तो एक ही उपाय है कि उन्हें काफी दौड़ाओ कि वे थक जाएं। उनका रज थक जाए। उनका रज थक जाए, तो तम ज्यादा हो जाएगा। फिर वे बैठ जाएंगे। उनके विश्राम का एक ही उपाय है कि वे काफी दौड़ लें।

बुढ़े के दौड़ने का एक ही उपाय है कि काफी विश्राम कर ले, तो थोड़ा दौड़ सकता है। उसका तम थक जाए विश्राम कर—करके, तो रज थोड़ा गतिमान हो सकता है।

और जवानी एक संतुलन है। और जब पूरी तरह संतुलित होती है गति की क्षमता और ठहरने की क्षमता, तो सौंदर्य प्रकट होता है। क्योंकि दोनों विपरीत बिलकुल मिल जाते हैं। दोनों में जरा भी भेद नहीं रह जाता। दोनों तनाव एक जगह पर आ जाते हैं। उस तनाव का नाम जवानी है, उस टेंशन का नाम, जहां दोनों विपरीत शक्तियां बराबर मात्रा की हो जाती हैं।

सत्व न तो गति का तत्व है, न ठहरने का। सत्व है संतुलन। सत्य वहीं प्रकट होता है, जहां दोनों तत्व संतुलित हो जाते हैं। सत्व है बैलेंस। इसलिए जब भी आप जीवन की किसी भी दिशा में संतुलन को पाते हैं, तो सत्व प्रकट होता है।

साधु का अर्थ है, जो संतुलन को उपलब्ध हुआ, सात्विक हुआ। सत्व है संयम, विपरीत के बीच संयम। दोनों विपरीत टूट गए। दोनों विपरीत एक—दूसरे को साध दिए। दो विरोधी स्वरों से एक संगीत पैदा हो गया। इस संगीत का नाम है सत्व।

रज और तम शक्ति, दौड़, ठहरने के नियम हैं। और दोनों के बीच जब कोई संतुलन पैदा होता है, तो जो सत्व पैदा होता है, वह है सत्व। इन तीन तत्वों से मिलकर प्रकृति बनी है।

प्रकृति में जहां भी सौंदर्य दिखाई पड़ता है, वहां समझना कि सत्व पैदा हो गया। हम भगवान के मंदिर में मूर्ति पर फूल ले जाकर चढ़ाते हैं। वह फूल सत्व का प्रतीक है। वह फूल सौंदर्य का प्रतीक है। वृक्ष के जीवन में, प्राणों में, फूल तभी खिलता है, जब एक गहन संतुलन पैदा हो जाता है। उस संतुलन को हम परमात्मा के चरणों में चढ़ाते हैं। वह प्रतीक है। ऐसा संतुलन, ऐसा फूल हमारे जीवन में खिले और हम उसे मंदिर में चढ़ा सकें, वह उसकी आकांक्षा है, वह उस दिशा की तरफ हमारा भाव है।

बुद्ध में जो संतुलन दिखाई पड़ता है, वह सत्व है। महान, महानतम व्यक्तियों में भी, पृथ्वी पर जो हम देख सकते हैं ज्यादा से ज्यादा, वह सत्व है।

इन तीनों के पार भी एक अवस्था है, जिसको कृष्ण बाद में बताएंगे, जिसे वे गुणातीत कहते हैं। पर उस अवस्था को देखा नहीं जा सकता। बुद्ध में वह पैदा होती है, कृष्ण में पैदा होती है, पर उसको हम देख नहीं सकते हैं। वह तो हममें ही जब पैदा हो, तभी हम उसका अनुभव कर सकते हैं।

बुद्ध को भी हम ज्यादा से ज्यादा सत्व में देख सकते हैं, क्योंकि आंखें सत्व को देख सकती हैं। आंखें प्रकृति की हैं। वे भी तीन तत्वों से बनी हैं। उनमें भी रज है, तम है और सत्व है। इसलिए जो हमारी आंखों में छिपा है, उसे हम पहचान सकते हैं, ज्यादा से ज्यादा। वह भी सभी लोग नहीं पहचान सकेंगे।

बुद्ध के पास अगर कोई तामसी जाएगा, तो बुद्ध को बिलकुल नहीं पहचान पाएगा। वह समझेगा कि कोई ढोंगी है, वह समझेगा कि लोगों को धोखा दे रहा है। इससे सावधान रहना, कहीं रात सो गए, जेब न काट ले! वह बुद्ध के पास भी अपनी जेब पर हाथ रखेगा कि क्या भरोसा! देखने में तो भोला लगता है, लेकिन भोलापन हमेशा खतरनाक होता है। पता नहीं बनकर भोला बैठा हो यह आदमी। कोई तरकीब हो। कोई इसके पीछे हिसाब जरूर होगा, नहीं तो कोई क्यों भोला बैठेगा!

बुद्ध के पास अगर कोई रज से भरा हुआ, भाग—दौड़ से भरा हुआ, चंचल व्यक्ति पहुंचेगा, तो वह मुर्दा समझेगा बुद्ध को। कि यह क्या जीवन है? यह भी कोई जीवन है! पलायनवादी, एस्केपिस्ट है यह आदमी। यह भाग गया। इसमें कुछ कमी है। यह लड़ न सका। कायर है, कमजोर है।

लोगों ने ऐसा कहा है। कहने वाले का कारण है। क्योंकि वह चंचलता में जीवन देखता है, भाग—दौड़ में जीवन देखता है। ऊर्जा नाचती हो, वहां जीवन देखता है।

यहां बुद्ध में सब शांत है। यहां जैसे कोई तरंग भी नहीं हिलती। तो वह कहेगा, यह भी कोई जीवन है! यह तो मरने का एक ढंग हुआ। यह आदमी तो मर चुका। मैदान में आओ जिंदगी के। वहा तुम्हारा पता चलेगा। भगोड़े हो।

बुद्ध को भी वही पहचान पाएगा, जिसमें सत्व का थोड़ा उदय हुआ हो। क्योंकि हम वही पहचान सकते हैं, जो हमारे भीतर है। अन्यथा को पहचानने का कोई उपाय नहीं है। वही देख सकते हैं, जो हमारी आंख में भी आ गया हो। वही हमारे हृदय को भी छू सकता है, जो हमारे हृदय में भी कंपित हो रहा हो। समान समान से मिल जाते हैं। समान समान को पहचान लेते हैं।

तो सात्‍विक व्‍यक्‍ति ही बुद्ध को पहचान पाएगा कि कौन—सी महान घटना घटी है। इस व्यक्ति के भीतर कौन—सा फूल खिला है। इसलिए बुद्ध के पास वे ही लोग इकट्ठे हो पाएंगे, जो सात्विक हैं, जो सरल हैं, जो संतुलित हैं, जो संयमी हैं, और जिन्होंने एक भीतरी हारमनी, एक लयबद्धता को पा लिया है। बहुत लोग पास से गुजरेंगे, उन बहुतों में से बहुत थोड़े लोग ही बुद्ध के पास रुक पाएंगे।

सांख्य ने इन तीन तत्वों को खोजा। ये तत्व बड़े अदभुत हैं। और इन तीन तत्वों के आधार पर मनुष्य का, प्रकृति का सारा व्यवहार समझा जा सकता है।

फिर आधुनिक विज्ञान ने भी तीन तत्वों की खोज की है, और परमाणु के विस्फोट पर उनको पता चला कि परमाणु भी तीन तत्वों से ही निर्मित है। एक को वे कहते हैं इलेक्ट्रान, एक को प्रोटोन, एक को न्‍यूट्रान। और उन तीनों के भी लक्षण करीब—करीब वही हैं, जो सत्व, रज और तम के हैं। उनमें से एक स्थिति को पकड़ने वाला है, एक गति देने वाला है, और एक संतुलन है।

निश्चित ही, कहीं गहराई में विज्ञान भी उसी तत्व को छू रहा है, जिसको सांख्यों ने छुआ था, जिसकी कृष्ण इन सूत्रों में बात कर रहे हैं। और ये तीन तत्व वही हैं, जिनको हिंदू मिथ में हमने ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहा है। तीनों के लक्षण भी यही हैं उनके। ब्रह्मा पैदा करता है, वह रज है। विष्णु सम्हालते हैं, संतुलन देते हैं, वे सत्व हैं। शिव तम हैं; विनष्ट करते हैं। सब चीजें शात हो जाती हैं वापस।

इसलिए अक्सर तामसी जो लोग हैं, शिव की पूजा करते दिखाई पड़ते हैं। शिव उनको रसपूर्ण मालूम होते हैं। शिव विध्वंसक हैं, वे मृत्यु के प्रतीक हैं। इसलिए शिव के पीछे अगर चरस, गांजा, अफीम तेजी से चल पड़ा, उसका कारण है। क्योंकि ये सभी तत्व मृत्यु के तत्व हैं। सभी विध्वंसक हैं। सभी आपको नष्ट कर देंगे। इनके विनाश में जो रस आ सकता है, वह तामसी वृत्ति को आ सकता है।


पश्चिम में एल .एस डी., मेस्केलीन, मारिजुआना तेज गति पर है। और पश्चिम के ये भक्त—मारिजुआना के भक्त, एल एस डी के भक्त—उनके मन में भी शिव के प्रति बड़ा प्रेम पैदा हो रहा है। हिप्पी आता है, तो काशी जाता है। काशी शिव की नगरी है। वहा जाकर वह शिव के दर्शन करता है। वह नेपाल जाता है। क्योंकि वहा शिव के बड़े प्राचीन मंदिर हैं, शिव— भक्तों की बड़ी पुरानी धारा है। अमेरिका की हिप्पी बस्तियों में भी बम भोले, जय भोले की आवाज सुनाई पड़ने लगी है।

जहर मौत का प्रतीक है। और जहर आपके भीतर चीजों को ठंडा कर देता है, गति छीन लेता है। इसलिए नशे का इतना रस है। क्योंकि आप इतने तनाव में रहते हैं, इतनी भाग—दौड़ में रहते हैं, कि थोड़ी शराब पी लेते हैं, तो थोड़ा तनाव कम हो जाता है, भाग—दौड़ कम हो जाती है। पड़ जाते हैं, बेहोशी में पड़ जाते हैं, लेकिन रुक जाते हैं।

सभी मादक द्रव्य तमस पैदा करते हैं। वे आपके भीतर दौड़ को रोक देते हैं। इसलिए बहुत दौड़ने वाले लोग शराब से नहीं बच सकते। क्योंकि उनकी दौड़ इतनी ज्यादा है कि उनको इस दौड़ को रोकने के लिए किसी न किसी तरह की बेहोशी चाहिए। वे बेहोश होंगे, तभी रुक पाएंगे, नहीं तो रुक नहीं सकते। रात नींद में भी दौड़ते रहेंगे।

पश्चिम में शराब का मूल्य बढ़ता चला गया है, क्योंकि पश्चिम दौड़ रहा है, उसने रज पर भरोसा कर लिया है। रज पर अगर आप भरोसा करेंगे, तो तम को भी आपको साथ में लाना पड़ेगा। नहीं तो रज घातक हो जाएगा, आप विक्षिप्त हो जाएंगे।

पश्चिम में अधिकतम लोग पागल हो रहे हैं, वह रज का परिणाम है। ज्यादा दौड़ेंगे, तो विक्षिप्त हो जाएंगे। ठहरना भी उतना ही जरूरी है। और जो व्यक्ति जानता है—जैसा ताओ ने कहा है, कहां ठहर जाना—जो जानता है, कहां ठहर जाना, वह कभी संकट में नहीं पड़ता।

दौड़ना भी जरूरी है, ठहरना भी जरूरी है। दौड़ने और ठहरने में जो संतुलन को पैदा कर लेता है, वह सत्व को उपलब्ध हो जाता है, वह साधु है।

साधुता का अर्थ है, भीतर एक लयबद्धता पैदा हो जाए। न तो दौड़ हो और न मूर्च्छा हो। मूर्च्छा हो तो तम होता है; दौड़ हो तो पागलपन होता है। दौड़ और रुकने की क्षमता दोनों मिल जाएं और एक तीसरा तत्व पैदा हो जाए। उस तत्व को कृष्ण ने सत्व, सांख्य ने सत्व कहा है।

यह सत्व भी आखिरी नहीं है। इस संसार में श्रेष्ठतम है। इससे ही कोई मुक्त नहीं हो जाएगा, लेकिन इससे मुक्ति की संभावना बनती है।

ध्यान रहे, कोई सात्विक होकर मुक्त नहीं हो जाएगा। सात्विक होकर भी संसार का ही हिस्सा रहेगा। इसलिए साधु मुक्त नहीं होता। संत को हम मुक्त कहते हैं, साधु को नहीं। लेकिन साधु में संत होने की क्षमता हो जाती है। चाहे तो साधु संत हो सकता है।

साधुता में सिर्फ पूर्व— भूमिका है। संतुलन पैदा हो गया है। अब चाहे तो समाधि भी आ सकती है। लेकिन संतुलन ही समाधि नहीं है। ये तीन तत्व तो प्रकृति के ही हैं। इसमें तम मूर्च्छा में ले जाता है। इसमें रज गति और विकास, त्वरा में ले जाता है। इसमें सत्व शांति में ले जाता है। लेकिन ये तीनों तत्व जगत के भीतर हैं।

सत्व के भी पार जाना जरूरी है। तब गुणातीत अवस्था पैदा होती है, जो तीनों गुणों के पार है। और जो तीनों गुणों के पार है, वह प्रकृति के पार है। वही परमात्मा है। तीन गुण प्रकृति के; और तीनों गुणों के जो पार निकल जाए, वह परमात्मा है, वह पुरुष है, वह मुक्त की दशा है।

लेकिन सत्व द्वार बन जाता है। पर अगर आप नासमझी करें, तो सत्व ही बाधा भी बन सकता है। क्योंकि अगर साधुता का अभिमान आ जाए, जो कि आ सकता है। शांति का अभिमान आ जाए, जो कि आ सकता है। सत्व में ज्ञान का अभिमान आ जाए, जो कि आ सकता है। सात्विक होने की अहंमन्यता आ जाए, जो कि बड़ी सरल है।

इसलिए साधु से ज्यादा अहंकारी आदमी दूसरे नहीं पाए जाते। उनके पास अहंकार करने को कुछ है भी। और जब कुछ अहंकार करने को हो, तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। संसार में तो ऐसे लोग भी अहंकार में पड़े हैं, जिनके पास अहंकार करने को कुछ भी नहीं है। उनका अहंकार जस्टीफाइड भी नहीं है। वे भी अहंकार कर रहे हैं। लेकिन साधु का अहंकार न्यायसंगत भी मालूम पड़ सकता है। उसके पीछे तर्क है, आधार भी है। वह शांत है। वह सत्व में ठहरा हुआ है। वह एक तरह का सुख पा रहा है।

सत्व एक सुख देता है, जिसका अंतिम दर्जा स्वर्ग है। सत्व की जो आखिरी दशा है, वह स्वर्ग है, मोक्ष नहीं, स्वर्ग। सुख की बड़ी गहन क्षमता है।

उसके पास कुछ है। और जब हम ना—कुछ के अभिमानी हो जाते हैं, तो जिनके पास कुछ है, उनको अहंकार पकड़ ले, इसमें आश्चर्य नहीं है। वही खतरा है। उनको अहंकार से छुड़ाना बहुत मुश्किल है। संसारी को अहंकार से छुड़ाना बहुत आसान है, साधु को अहंकार से छुड़ाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि उसको लगता है कि अहंकार का कुछ कारण है। वह ऐसे ही अहंकार नहीं कर रहा है, कुछ वजह है। वह वजह बाधा बन जाती है।


हे अर्जुन, नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियां, जितने शरीर, जितने रूप उत्पन्न होते हैं, उन सबकी त्रिगुणमयी माया को तो गर्भ धारण करने वाली माता समझो। यह जो प्रकृति है तीन गुणों से भरी हुई, इसे तुम मां समझो, गर्भ समझो। और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूं।

तो शरीर और रूप तो इन तीन गुणों से मिलता है। मन, शरीर, रूप इन तीन गुणों से मिलता है। चेतना परमात्मा से आती, इन तीनों गुणों के पार से आती है। चेतना इन तीनों गुणों के भिन्न जगत से आती है। और इन तीन के भीतर आवास करती है।

लेकिन इन तीनों में से किसी न किसी में जकड़ जाने का डर है। या तो आलस्य में उलझ जाती है, तम में पड़ जाती है। या तो विक्षिप्तता में, चंचलता में, दौड़ में पड जाती है। और या फिर सत्व के अहंकार में पड़ जाती है। और इन तीनों में से किसी एक से भी जुड़ जाए, तो अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पाती, क्योंकि वास्तविक स्वरूप तीनों के पार से आता है।

यह इसका अर्थ है। तीन गुण तो मां है, और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूं। मैं से अर्थ है, ब्रह्म। मैं से अर्थ है, इस जगत की परम चेतना।

हे अर्जुन, सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, ऐसे यह प्रकृति से उत्पन्न हुए तीनों गुण इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं। ये तीन जीवात्मा के लिए बंधन निर्मित करते हैं। इन तीनों के बिना जीवात्मा शरीर में नहीं हो सकती। तम चाहिए, जो ठहराव की शक्ति दे। रज चाहिए, जो गति दे और जीवन दे। सत्व चाहिए, जो संतुलन दे, सुख दे। अगर इन तीनों में से एक भी कम है, तो आप टिक न पाएंगे।

अगर सुख बिलकुल न रह जाए, तो आप आत्महत्या कर लेते। क्यों? किसलिए जीएं? सुख की थोड़ी झलक तो चाहिए। असाधु में भी थोड़ी—सी तो सुख की झलक चाहिए ही। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कहीं सुख मिलेगा, इसका थोड़ा आसरा चाहिए। उतना भी काफी है बांधने के लिए। अगर सुख के सब सेतु टूट जाएं, साफ हो जाए, कोई सुख नहीं, आप इसी क्षण मर जाएंगे। ये तीनों चाहिए। ये तीन शरीर को बांधते हैं।

हे निष्पाप, उन तीनों गुणों में प्रकाश करने वाला निर्विकार सत्वगुण है। इन तीनों गुणों में सबसे ज्यादा प्रकाशित, सबसे ज्यादा निर्मल, निर्विकार सत्वगुण है। निर्मल होने के कारण सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से अर्थात ज्ञान के अभिमान से बांधता है।

चूंकि सत्वगुण निर्मल है, शांत है, शुद्ध है, सुख देता है, ज्ञान भी देता है। क्योंकि एक क्लैरिटी, एक स्वच्छता आंखों में आ जाती है, देखने की एक क्षमता आ जाती है, चीजों को आर—पार पहचानने की कला आ जाती है। सुख भी देता है भीतर और साथ में एक जानकारी, जीवन में प्रवेश करने की, ज्ञान की क्षमता देता है। पर इन दोनों से अभिमान पैदा होता है।

ज्ञान से भी अभिमान पैदा होता है कि मैं जानता हूं। सुख से भी अभिमान पैदा होता है कि मैं सुखी हूं। और वह जो मैं का भाव इन दोनों से पैदा हो जाता है, तो सत्वगुण भी फिर संसार में ही रखने का कारण बनता है।

जिस दिन ये दोनों बातें भी छोड़ दी जाती हैं, न तो कोई सुख से बंधता है और न कोई ज्ञान से।

इसे थोड़ा हम समझ लें।

हम तो दुख से भी बंधे हुए हैं। दुख को भी कहते हैं, मेरा दुख, मेरा सिरदर्द, मेरी बीमारी। उसके साथ भी हम मैं को जोड़ते हैं। अज्ञान के साथ भी हम मैं को जोड़ते हैं, तो ज्ञान के साथ तो हम मैं को जोड़ेंगे ही। सुख के साथ तो हम कैसे बचेंगे बिना जोड़े!

इसलिए अगर स्वर्ग के देवता मुक्त होने से वंचित रह जाते हैं, तो उसका कारण है। सत्व के साथ बंधे हुए लोग हैं। सुख बहुत है। और जहां सुख ज्यादा हो, वहा तादात्म्य तोड्ने का मन भी पैदा नहीं होता। दुख से तो तादात्म्य तोड्ने का मन भी पैदा होता है कि कोई समझा दे कि दुख अलग है और मैं अलग हूं। कोई बता दे कि अज्ञान अलग है और मैं अलग हूं इसकी थोड़ी आकांक्षा होती है। क्योंकि दुख कोई भी चाहता नहीं है, अज्ञान कोई भी चाहता नहीं है।

लेकिन जब आप सुख में हों और कोई बताए कि तुम अलग और सुख अलग, तो आप उसको मित्र न समझेंगे, शत्रु समझेंगे। उससे कहेंगे, जाओ, कहीं और समझाओ। कोई आपसे कहे, तुम्हारा ज्ञान अलग, तुम अलग, यह ज्ञान कचरा है। तुम ज्ञान नहीं हो। यह सुख व्यर्थ है। तुम सुख नहीं हो, तुम दूर अलग हो।

इसलिए संतों ने कहा है, दुख अभिशाप नहीं, वरदान है। क्योंकि दुख में दुख से टूटने की कामना पैदा होती है।

दुख भी साधना बन जाता है। दुख जब साधना बन जाता है, तो उसे हमने तपश्चर्या कहा है। तपश्चर्या का मतलब यह है कि दुख से हम अपने को अलग कर रहे हैं। इसलिए साधक सामान्य दुखों से अपने को तोड़ता ही है, अगर जरूरत पड़े तो विशेष दुख भी अपने लिए पैदा कर लेता है, जिनकी वजह से वह अपने को तोड़ सके।

सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से! सत्य भी जान के अभिमान से बांधता है।

तम और रज तो बांधते ही हैं, सत्व भी बांधता है। बुरा तो बांधता ही है, जिसे हम अच्छा कहते हैं, वह भी बांधता है। शुभ भी बांधता है। यहां जंजीरें सिर्फ लोहे की ही नहीं हैं, सोने की भी हैं। कुछ लोहे की जंजीरों से बंधते हैं, कुछ सोने की जंजीरों से बंध जाते हैं। 

इन तीन गुणों के बंधन के पार जो उठ जाए, वही व्यक्ति उस परम ज्ञान को अनुभव कर पाता है, कृष्ण कह रहे हैं, जिसे मैं तुझे फिर से कहूंगा।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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