गुरुवार, 12 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 14 भाग 4

 होश: सत्‍व का द्वार


रजस्तमश्चाभिभूय सत्वं भवति भारत।

रज: सत्वं तमश्चैव तम: सत्व रजस्तथा ।। 10।।

सर्वद्वरेषु देहेऽस्मिप्रकाश उयजाक्ते।

ज्ञानं यदा तदा विद्यद्ववृद्धं सत्‍वमित्‍युत।। 11।।

लोभ: प्रवृत्तिरारम्भ: कर्मणामशम: स्पृहा।

रजस्यैतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ।। 12।।


और हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण होता है अर्थात बढता है तथा रजोगुण और सत्‍वगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है; वैसे ही तमोगुण और सत्‍वगुण की दबाकर रजोगुण बढ़ता है।

इसलिए जिस काल में इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता और बोध—शक्‍ति उत्पन्‍न होती है, उस कल्प में ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बड़ा है। और हे अर्जुन, रजोगुण के बढने पर लोभ और प्रवृत्ति अर्थात सांसारिक चेष्टा तथा सब प्रकार के क्रमों का स्वार्थ— बुद्धि से आरंभ एवं अशांति अर्थात मन की चंचलता और विषय— भोगों की लालसा, ये सब उत्पन्‍न होते है


और हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण होता है अर्थात बढ़ता है तथा रजोगुण और सत्वगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है, वैसे ही तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है।

जिस काल में इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता और बोध—शक्ति उत्पन्न होती है, उस काल में ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा है।

तो सत्वगुण का एक ही लक्षण है, चेतनता। जब आप होश से भरे हैं, तब जानना कि सत्वगुण बढ़ा है। सत्वगुण चाहिए हो, तो जितना ज्यादा आप होशपूर्वक हो सकें, उतना शुभ है। जो भी आप करें, क्षुद्र से क्षुद्र या बड़े से बड़ा काम, वह होशपूर्वक हो, उसमें काशसनेस हो, उसे करते वक्त आप जागे हुए करें, सो न जाएं। जितनी जागरूकता की मात्रा बढ़ेगी, उतना आपके भीतर सत्वगुण ज्यादा हो जाएगा; उतने आप साधु, उतने आप सात्विक हो जाएंगे।

यह बड़े मजे की बात है। क्योंकि कृष्ण जैसा कह रहे हैं, ऐसा आमतौर से धार्मिक लोग नहीं समझते हैं। धार्मिक लोग समझते हैं, अच्छे काम करो, तो सात्विक हो जाएंगे। कृष्ण लेकिन अच्छे काम को कुछ जगह नहीं दे रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, होशपूर्वक! चाहे करो और चाहे न करो, लेकिन होशपूर्वक रहो, तो सात्विकता पैदा होगी।

तो एक आदमी खाली भी बैठा हो और होश से भरा हो, तो सात्विक होगा। और एक आदमी समाज की सेवा कर रहा हो, मरीजों की अस्पताल में देखभाल कर रहा हो और होशपूर्वक न हो, तो सात्विक नहीं होगा। आप अपनी जान भी दे दें सेवा में, लेकिन होश न हो, तो आप सात्विक नहीं होंगे। और आप कभी जिंदगी में किसी की सेवा न किए हों, आलस्य में बैठे रहे हों, लेकिन भीतर आलस्य के होश जगा रहा हो, तो आप सात्विक होंगे।

इसका यह मतलब नहीं है कि सात्विक आदमी अच्छे काम नहीं करेगा। सात्विक ही अच्छे काम कर सकता है। लेकिन सात्विकता अच्छे काम करने से नहीं आती, अच्छे काम सात्विकता से आते हैं। तो जो जितना जागा हुआ है, वह उतना प्रेमपूर्ण होगा। वह उतना करुणामय होगा, वह उतना तत्पर होगा कि किसी का दुख मिटा सके, तो मिटाने की कोशिश करे। यह सेवा पैदा होगी उसकी जागरूकता से, उसकी जागरूकता का परिणाम होगी।

लेकिन इससे बड़ी भांति पैदा हुई है। इससे ऐसा लगता है कि जो सेवा कर रहा है, वह सात्विक हो गया। और जिनके पास बहुत गहरी परख नहीं है, उन्हें बिलकुल ठीक लगेंगे। लेकिन बिलकुल विपरीत हैं। धर्म सेवा है, लेकिन सेवा धर्म नहीं है। धार्मिक व्यक्ति से सेवा उठेगी, लेकिन कोई सेवा को ही साध ले, तो धार्मिक हो जाएगा, इस भूल में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। 

सेवा धर्म नहीं है, यद्यपि धर्म सेवा है।

तो जो व्यक्ति जितना सचेतन हो जाएगा भीतर, उसके जीवन से जो भी होगा, वह शुभ होगा। फिर जरूरी नहीं है कि वह सेवा करे ही। 

कुछ हैं जो स्थूल कल्याण में लगते हैं, कुछ हैं जो सूक्ष्म कल्याण में लग जाते हैं। उनकी मौजूदगी कल्याण का महास्रोत हो जाती है। उनके आस—पास से गुजरने वाले लोग, जहां तक उनकी हवाएं उनकी खबर को ले जाती हैं, उनके अस्तित्व की सुगंध को ले जाती हैं, वहा—वहा तक न मालूम कितने जीवन रूपांतरित होते हैं।

निश्चित ही वे किसी के शरीर की बीमारी दूर करने नहीं जाते। लेकिन शरीर से गहरी बीमारियां हैं। और शरीर को बिलकुल स्वस्थ कर दिया जाए तो भी वे बीमारियां नहीं मिटती हैं। उन बीमारियों को दूर करने का अपरोक्ष, अप्रत्यक्ष आयोजन उनकी मौजूदगी से होता रहता है। लेकिन वह सूक्ष्म कला है; सभी उसमें कुशल नहीं हो सकते।

बड़ी गहरी चेतनाएं चुपचाप भी करती रहती हैं। निर्भर करेगा इस बात पर कि किस तरह का व्यक्ति है। अगर अंतर्मुखी व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होगा, सत्य को उपलब्ध होगा, तो वह चुप हो जाएगा, मौन हो जाएगा, शांत हो जाएगा। उसकी मौजूदगी से काम होगा, उसके प्रभाव अप्रत्यक्ष होंगे, पर बड़े गहरे होंगे, दूरगामी होंगे।

अगर बहिर्मुखी व्यक्ति होगा और सत्व को उपलब्ध हो जाएगा, तो उसके प्रभाव विस्तीर्ण होंगे, स्थूल होंगे, बहुत लोगों की सेवा उससे होगी, लेकिन बहुत दूरगामी नहीं होगी। 

सत्व जब पैदा होता है, तो शुभ आंचरण में अपने आप आता है। हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा होता है।

इस प्रक्रिया को समझ लेना चाहिए कि ये गुण कैसे काम करते हैं। रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा होता है। ये तीनों गुण सभी के भीतर मौजूद हैं। कोई गुण बाहर से लाना नहीं है। तीनों गुण भीतर मौजूद हैं। और तीनों गुणों में जो ऊर्जा काम करती है, वह भी मौजूद है। वह ऊर्जा एक है। ये तीन गुण हैं, वह ऊर्जा एक है।

जैसे समझें कि आपके घर में एक मात्रा का जल है, और घर में से तीन छेद हैं, जिनसे वह जल बाहर जा सकता है। आप चाहें तो एक ही छेद से उस जल को बाहर भेज सकते हैं, तब धारा बड़ी हो जाएगी। आप चाहें तो तीनों छिद्रों से उस जल को बाहर भेज सकते हैं; तब धाराएं क्षीण हो जाएंगी। आप चाहें तो एक से ज्यादा, दूसरे से कम और तीसरे से और कम जल को भेज सकते हैं।

आपकी जीवन—ऊर्जा की धारा आपके पास है। और यह तीन गुणों का यंत्र आपके पास है। जब आप बिना किसी साधना के जीते हैं, तो सिर्फ परिस्थितियां ही निर्धारक होती हैं कि किस गुण से आपकी ऊर्जा बहेगी—परिस्थितियां, आप नहीं।

और ध्यान रहे, प्रत्येक व्यक्ति प्रतिपल बदलता रहता है। सुबह हो सकता है तमोगुणी रहा हो, और दोपहर को रजोगुणी हो जाए, और शाम को सत्वगुणी मालूम पड़े। लेकिन परिस्थितियां निर्धारक होती हैं।

समझ लें कि आप सुबह ही उठे और पा रहे हैं कि चित्त आलस्य से भरा है, उठने का कोई मन नहीं, दिनभर बिस्तर में ही पड़े रहें। और तभी पता लगा कि मकान में आग लग गई। तमोगुण तत्‍क्षण विदा हो जाएगा। आप एकदम रजोगुणी हो जाएंगे। एकदम से तम के द्वार से जो ऊर्जा बह रही थी, वह खींच ली जाएगी। और पूरी की पूरी ऊर्जा रज के द्वार से प्रवाहित होने लगेगी। क्योंकि मकान में आग लगी है; आग बुझाना जरूरी है।

उस वक्त आप नहीं कह सकते कि मैं आलस्य में हूं। अभी मेरा मन नहीं उठने का। आप भूल ही जाएंगे कि नींद भी कोई तत्व है जीवन में, कि बिस्तर में पड़े रहने में भी कोई रस हो सकता है। छलांग लगाकर बिस्तर से उठेंगे, जैसा आप कभी नहीं उठे थे। लेकिन यह घटना घट रही है परिस्थितिवश।

बाहर आकर आपको पता चले कि अफवाह थी, किसी ने ऐसे ही चिल्ला दिया कि मकान में आग लगी है। कहीं कोई आग नहीं लगी। आप वापस अपने बिस्तर में लौट आएंगे। रजोगुण तमोगुण में प्रविष्ट हो गया। वह जो ऊर्जा जगकर सक्रिय होना चाहती थी, वह फिर विश्राम को उपलब्ध हो गई।

बाहर की परिस्थिति आपको चौबीस घंटे चला रही है। इसलिए अगर आपमें भरोसा करने वाले लोग आपके चारों तरफ हों...। आप चोर हैं, और आपके पास आठ—दस लोग हों, जो आपको मानते हों कि आप साधु हैं, तो हो सकता है कि उनकी मान्यता के कारण आपकी धारा सत्वगुण से बहने लगे। क्योंकि वे बारह आदमी आपके अहंकार को बढा रहे हैं। वे कह रहे हैं कि आप महासाधु हैं। अब आप चोरी करना भी चाहें, तो आपका अहंकार बाधा देता है कि कम से कम मुश्किल से तो जिंदगी में बारह आदमी मिले, जो साधु मानते हैं, अब दो—चार पैसे की चोरी के लिए साधुता को खोना उचित नहीं मालूम होता।

आप पूरे समय बदल रहे हैं। इसलिए अच्छे आदमी के पास आप अच्छे आदमी हो जाते हैं। बुरे आदमी के पास आप बुरे आदमी हो जाते हैं। अगर सक्रिय लोगों के बीच में पड़ जाएं, तो आप सक्रिय हो जाते हैं। अगर आलसियों के बीच में पड़ जाएं, तो आपको नींद आने लगती है।

अभी भी आप चौबीस घंटे एक गुण में नहीं होते। इसीलिए मंदिरों का उपयोग है, मस्जिदों का उपयोग है। क्योंकि वहां हमने कोशिश की है सत्य की हवा पैदा करने की। दिनभर जो तमोगुणी भी रहा हो, रजोगुणी भी रहा हो, वह भी घंटेभर आकर मंदिर में बैठ जाए, तो सत्य की थोड़ी हवा उसमें पैदा हो सकती है।

सत्संग का इतना ही अर्थ है, जहां थोड़ी देर को सत्व की हवा पैदा हो जाए और आपकी ऊर्जा सत्व से बहने लगे। आप दिनभर कुछ भी कर रहे हों, लेकिन यह स्वाद आपको आने लगे, तो शायद धीरे— धीरे यह स्वाद आपके चौबीस घंटे पर भी फैल जाए। इसमें आपको आनंद मालूम होने लगे और दूसरी चीजें फीकी मालूम होने लगें, तो शायद आप जिंदगी को बदलने का उपाय भी कर लें।

लेकिन ये घटनाएं घटती हैं परिस्थिति से। और जब तक परिस्थिति से घटती हैं  तब तक कोई बडा मूल्य नहीं है। बड़ा मूल्य तो तब है, जब आपके संकल्प से घटे। तब आप मालिक हुए। तब भीड़ कुछ भी कर रही हो, आप निज में हो सकते हैं। सारी भीड़ सो गई हो और आप जागना चाहें, तो जाग सकते हैं। सारी भीड़ उपद्रव कर रही हो, हत्या कर रही हो, हिंसा कर रही हो, तो भी आप अपने को भीड के प्रभाव से बचा सकते हैं।

और जो व्यक्ति भीड़ के प्रभाव से अपने को बचा लेता है, वही व्यक्ति मालिक है। उसमें आत्मा पैदा हुई। वह आत्मवान हुआ। उसके पहले कोई आत्मा नहीं है। उसके पहले सब हम प्रभावित होकर चल रहे हैं।

और चारों तरफ से हमें प्रभावित किया जा रहा है। और हमें पता भी नहीं चलता कि हम किस भांति पकड़ लिए गए हैं भीड के द्वारा, और भीड़ हमें लिए जा रही है। एक बड़ा प्रवाह है, उसमें हम तिनके की तरह बहते हैं।

हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा होता है।

इसलिए अगर भीतर सत्वगुण पैदा करना हो, तो रजोगुण और तमोगुण की जो वृत्तियां हैं, आलस्य की और व्यर्थ सक्रियता की।

विश्राम बुरा नहीं है, आलस्य बुरा है। फर्क क्या है? विश्राम का मतलब है, आवश्यक, जिससे शरीर ताजा हो, मन प्रफुल्लित हो। विश्राम का अर्थ है, जो श्रम के लिए तैयार करे। इस परिभाषा को ठीक से समझ लेना।

विश्राम का अर्थ है, जो श्रम के लिए तैयार करे। विश्राम का प्रयोजन ही यही है कि अब हम फिर श्रम करने के योग्य हो गए। वह जो श्रम ने हमें तोड़ दिया था, थका दिया था, हमारे स्नायु खराब हो गए थे, जीवकोष्ठ टूट गए थे, वे फिर पुनरुज्जीवित हो गए। विश्राम ने हमें फिर से नया जीवन दे दिया। अब हम फिर श्रम करने के योग्य हैं।

जिस विश्राम के बाद आप श्रम करने के योग्य न हों, वह आलस्य है। उसका मतलब है, विश्राम के द्वारा आप और विश्राम के लिए तैयार हुए जा रहे हैं। विश्राम और विश्राम में ले जा रहा है, तब खतरा है।

ठीक यही बात श्रम के बाबत भी लागू है। श्रम वही सम्यक है, जो आपको विश्राम के योग्य बनाए। अगर कोई ऐसा श्रम है, जो आपको विश्राम में जाने ही नहीं देता, तो वह विक्षिप्तता हो गई। वह फिर श्रम न रहा। ठीक श्रम के बाद आदमी सो जाएगा। बिस्तर पर सिर रखेगा और नींद में उतर जाएगा। ठीक श्रम के बाद।

एक किसान है। दिनभर उसने श्रम किया है खेत पर। सांझ घर आता है, खाना खाता है, और सिर रखता है बिस्तर पर, और सो जाता है। यह श्रम है।

एक दुकानदार है। उसने भी दिनभर श्रम किया है। लेकिन वह जब बिस्तर पर सिर रखता है, तो विश्राम नहीं आता, नींद नहीं आती, मन में हिसाब चलता रहता है। कितने रुपये कमाए; कितने गंवाए; क्या हुआ; क्या नहीं हुआ—वह जारी है। उसका मतलब हुआ कि दुकानदार के श्रम में कहीं कुछ भूल है। वह सिर्फ श्रम नहीं है, शायद लोभ की विक्षिप्तता है।

किसान के श्रम में वह भूल नहीं है। वह सिर्फ शायद भोजन के लिए है। लोभ की नहीं, जरूरत के लिए है। वह जो किसान है, वह निन्यानबे के चक्कर में नहीं है। वह सिर्फ श्रम कर रहा है। कल की रोटी जुट गई, काफी है। वह जो दुकानदार है, वह कल की रोटी की उतनी फिक्र नहीं कर रहा है। वह रोटी तो उसने बहुत पहले जुटा रखी है। वह कुछ महल बना रहा है लोभ के।


वह जो दुकानदार है—या कोई भी, जो किसी चक्कर में है, लोभ के, वासना के—वह श्रम नहीं कर रहा है। उसका श्रम ऊपर—ऊपर है, भीतर कुछ और चल रहा है। वह और जो चल रहा है, वह उसका पागलपन है। वह पागलपन उसे विश्राम न करने देगा। और जब विश्राम न होगा, तो सम्यक श्रम पैदा नहीं होता। और तब एक दुष्टचक्र पैदा होता है। दोनों गलत हो जाते हैं।

सत्वगुण के पैदा होने का अर्थ है, रजोगुण और तमोगुण को ध्यान में रखना है। तमोगुण का उतना ही उपयोग करना है, जिससे विश्राम मिले, आलस्य पैदा न हो। और रजोगुण का उतना ही उपयोग करना है, जिससे जीवन की जरूरत पूरी हो, लोभ पैदा न हो। बस, फिर आपके भीतर सत्य की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।

यही अर्थ है, तमोगुण और रजोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा होता है अर्थात बढ़ता है। तथा रजोगुण और सत्वगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है। वैसे ही तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है।

आप अपने भीतर दो को दबा सकते हैं; तीसरा मुक्त हो जाता है। जिसे भी मुक्त करना हो, उसको छोड्कर बाकी दो को दबाना शुरू कर देना चाहिए।

हम सारे लोग सत्वगुण को दबाते हैं। अच्छाई, शुभ हम दबाते हैं। जहां तक बच सकें, उससे बचते हैं। अगर शुभ करने का कोई मौका हो, शांत होने का कोई मौका हो, सत्व में उतरने की कोई सुविधा हो, तो हम उसको चूकते हैं।

अगर कोई कहे कि आओ, एक घंटा चुपचाप शांति से बैठें, तो हमें व्यर्थ लगता है। हम कहेंगे, कुछ करो। ताश ही खेलें। बैठने से क्या होगा! कुछ करें।

हमारी ऊर्जा दो हिस्सों में बहती है, या तो तमोगुण या रजोगुण। रजोगुण से बचाएं, तो तमोगुण। तमोगुण से बचाएं, तो रजोगुण। और दोनों से बचाएं, तो तीसरे द्वार से पहली दफा झरना फूटेगा। 

तो आपकी चेतना कहां जाएगी? चेतना को कहीं तो जाय ही है, क्योंकि चेतना एक गति है, ऊर्जा है। जब नींद भी नहीं बन सकती और कर्म भी नहीं बन सकती, तो चेतना ध्यान बन जाती है, होश बन जाती है।

इसलिए जिस काल में इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता और बोध—शक्ति उत्पन्न होती है, उस काल में ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा।

और हे अर्जुन, रजोगुण के बढ़ने पर लोभ और प्रवृत्ति अर्थात सांसारिक चेष्टा तथा सब प्रकार के कर्मों का स्वार्थ—बुद्धि से आरंभ एवं अशांति अर्थात मन की चंचलता, विषय— भोगों की लालसा, ये सब उत्पन्न होते हैं।

रजोगुण के ये लक्षण हैं।

सत्वगुण का लक्षण है, बोध, अवेयरनेस, जागरूकता। रजोगुण का लक्षण है, लोभ, सांसारिक चेष्टा, कुछ पा लें संसार में। सब प्रकार के कर्मों का स्वार्थ—बुद्धि से आरंभ। मुझे कुछ मिले लाभ, ऐसे किसी कर्म में उतरने की वृत्ति। अशांति, मन की चंचलता, विषय— भोगों की लालसा, ये सब उत्पन्न होते हैं।

अगर रजोगुण से छूटना हो, तो इन सबसे छूटना जरूरी है। और छूटने का एक ही अर्थ है, इनको सहयोग मत दें। जब लोभ उठे, तो उसे देखते रहें। उसको कोआपरेट मत करें। उसको साथ मत दें। लेकिन हम साथ देते हैं।




 इसको अगर आप सहयोग देते चले जाते हैं, तो रजोगुण बढ़ेगा। क्योंकि जितना लोभ बढ़ेगा, उतना कर्म में उतरना पड़ेगा। लोभ को पूरा करना हो, तो दौड़— धूप करनी ही पड़ेगी। फिर जितना लोभ बढ़ेगा, उतनी अशांति बढ़ेगी। क्योंकि मिलेगा? नहीं मिलेगा? कैसे मिलेगा? ये सब चिंताएं मन को पकड़ेगी। और कैसे मिल जाए? क्या तरकीब लगाएं? झूठ बोलें, बेईमानी करें, चोरी करें; क्या करें, क्या न करें; यह सब आयोजन करना होगा। अशांति बढ़ेगी। और मन को बहुत दौड़ाना पड़ेगा। चंचलता बढ़ेगी। रजोगुण इन सारी वृत्तियों को भीतर जन्म देगा। और ये सारी वृत्तियां आपकी सारी ऊर्जा को रजोगुण के द्वार से प्रकट करने लगेंगी।

रजोगुण का अंतिम चरण विक्षिप्तता है। वे जो पागल होकर पागलखानों में बैठे हैं, वे रजोगुण की साकार प्रतिमाएं हैं। उन्होंने इतना दौड़ा दिया मन को कि लगाम वगैरह ही टूट गई। फिर अब वह रोकना भी चाहे, तो रोकने का साधन ही नहीं है। वह बढ़ता ही चला गया। घोड़े सब भागने लगे। लगामें टूट गईं। कहां ले जाने लगे, रास्ते से हट गए। फिर कोई हिसाब न रहा।

पागल हो जाने का अर्थ है कि आपके पास नियंत्रण की कोई क्षमता न रही। मन इतना लोभ से भर गया कि उसने सब नियंत्रण तोड़ दिए।

रजोगुण अगर पूरा बढ़ जाए, तो विक्षिप्तता अंतिम फल है। अगर तमोगुण पूरा बढ़ जाए तो मृत्यु अंतिम फल है। सत्वगुण पूरा बढ़ जाए, तो समाधि अंतिम फल है।

फिर जो आपको खोजना हो। अगर मृत्यु खोजनी हो, तो आलस्य को साधें। तंद्रा मृत्यु का ही प्राथमिक चरण है। फिर पड़े रहें मिट्टी के ढेर बनकर। जल्दी ही मिट्टी के ढेर हो जाएंगे।

विक्षिप्तता खोजनी हो, तो लोभ को बढ़ाए। फिर कोई सीमा न मानें। असीम लोभ में दौड़ते चले जाएं। जल्दी ही आप पागलखाने में होंगे।

और अगर इन दोनों को दबा दें, दबा दें अर्थात इन दोनों के साथ सहयोग अलग कर लें, तो आपके भीतर सत्व उदय होगा। सत्य महासुख है। और सत्व शुभ में ले जाएगा। सत्य धीरे— धीरे शांति में ले जाएगा। सत्व धीरे— धीरे ध्यान में ले जाएगा।

और सत्व के भी पार जिस दिन आप उठने लगेंगे..। और सत्व उस जगह पहुंचा देता है, जहां से पार उठना आसान है। जब सब विकार छूटने लगते हैं, सिर्फ सत्व का शुद्ध विकार रह जाता है, तो उसे छोड़ने में बहुत कठिनाई नहीं होती।

यह करीब—करीब ऐसा ही है, जैसे दीया जलता है। तो पहले तो वह जो अग्नि की शिखा है, वह तेल को जलाती है। फिर जब तेल जल जाता है, तो बत्ती को जलाती है। फिर जब बत्ती भी जल जाती है, तो खुद जलकर शून्य हो जाती है।

सत्वगुण अग्नि जैसा है। पहले रजोगुण, तमोगुण को जलाएगा। जब वे दोनों जल जाएंगे, तो खुद को जला लेगा। और जब सत्वगुण भी जल जाता है, जब उसकी भी राख हो जाती है, तब जो शेष रह जाता है, वही स्वभाव है। उसे कृष्ण ने गुणातीत अवस्था कहा है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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