मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 13 भाग 6

स्‍वयं को बदलो


बहिरन्तश्चइ भूतानामचरं चरमेव च।

सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थ चान्‍तिके च तत्।। 15।।

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तीमव च स्थितम्।

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रीअष्णु प्रभविष्णु च।। 16।।

ज्योतिषामयि तज्जयोतिस्तमस: परमुच्‍यते।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं ह्रदि सर्वस्य विष्ठितम्।। 17।।


तथा वह परमात्मा बराबर अब भूतों के बाहर— भीतर परिपूर्ण है और चर— अचर रूप भी की है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है अर्थात जानने में नहीं आने वाला है। तथा अति समीप में और अति दूर में भी स्थित वही है।

और वह विभागरीहत एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर संपूर्ण भूतों में पृथक— पृथक के सदृश स्थित प्रतीत होता है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा भूतों का धारण— पोषण करने वाला और संहार करने वाला तथा सब का उत्पन्‍न करने वाला है।

और वह ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अति परे कहा जाता है। तथा वह परमात्मा बोधस्वरूप और जानने के योग्य है एवं तत्‍वज्ञान से प्राप्त होने वाला और सबके ह्रदय में स्थित है।


तथा वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर— भीतर परिपूर्ण है और चर—अचर रूप भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय अर्थात जानने में नहीं आने वाला है। तथा अति समीप में और अति दूर में भी स्थित वही है। और वह विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर संपूर्ण भूतों में पृथक—पृथक के सदृश स्थित प्रतीत होता है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा भूतों का धारण—पोषण करने वाला और संहार करने वाला तथा सब का उत्पन्न करने वाला है। और वह ज्योतियों की भी ज्योति एवं माया से अति परे कहा जाता है। तथा वह बोधस्वरूप और जानने के योग्य है एवं तत्वज्ञान से प्राप्त होने वाला और सब के हृदय में स्थित है।

तीन महत्वपूर्ण बातें। पहली बातपरमात्मा के संबंध में जब भी कुछ कहना होतो भाषा में जो भी विरोध में खड़ी हुई दो अतियां हैंएक्सट्रीम पोलेरिटीज हैंउन दोनों को एक साथ जोड़ लेना जरूरी है। क्योंकि दोनों अतियां परमात्मा में समाविष्ट हैं। और जब भी हम एक अति के साथ परमात्मा का तादात्म्य करते हैंतभी हम भूल कर जाते हैं और अधूरा परमात्मा हो जाता है। और हमारा परमात्मा के संबंध में जो वक्तव्य हैवह असत्य हो जाता हैवह पूरा नहीं होता।

मगर मनुष्य का मन ऐसा है कि वह एक अति को चुनना चाहता है। हम कहना चाहते हैं कि परमात्मा स्रष्टा है। तो दुनिया के सारे धर्मसिर्फ हिंदुओं को छोड्करकहते हैं कि परमात्मा स्रष्टा हैक्रिएटर है। सिर्फ हिंदू अकेले हैं जमीन परजो कहते हैंपरमात्मा दोनों हैस्रष्टा भी और विनाशक भीक्रिएटर और डिस्ट्रायर

यह बहुत विचारणीय है और बहुत मूल्यवान है। क्योंकि परमात्मा स्रष्टा हैयह तो समझ में आ जाता है। लेकिन वही विनाशक भी हैवही विध्वंसक भी हैयह समझ में नहीं आता।

आपके बेटे को जन्म दियातब तो आप परमात्मा को धन्यवाद दे देते हैं कि परमात्मा ने बेटे को जन्म दिया। और आपका बेटा मर जाएतो आपकी भी हिम्मत नहीं पड़ती कहने की कि परमात्मा ने बेटे को मार डाला। क्योंकि यह सोचते ही कि परमात्मा ने बेटे को मार डालाऐसा लगता हैयह भी कैसा परमात्माजो मारता है।

लेकिन ध्यान रहेजो जन्म देता हैवही मारने वाला तत्व भी होगा। चाहे हमें कितना ही अप्रीतिकर लगता हो। हमारी प्रीति और अप्रीति का सवाल भी नहीं है। जो बनाता हैवही मिटाएगा भी। नहीं तो मिटाएगा कौन?

और अगर मिटने की क्रिया न होतो बनने की क्रिया बंद हो जाएगी। अगर जगत में मृत्यु बंद हो जाएतो जन्म बंद हो जाएगा। आप यह मत सोचें कि जन्म जारी रहेगा और मृत्यु बंद हो सकती है। उधर मृत्यु बंद होगीइधर जन्म बंद होगा। और अनुपात निरंतर वही रहेगा। उधर मृत्यु को रोकिएगाइधर जन्म रुकना शुरू हो जाएगा।

इधर चिकित्सकों नेचिकित्साशास्त्र ने मृत्यु को थोड़ा दूर हटा दिया हैबीमारी थोड़ी कम कर दी हैतो सारी दुनिया की सरकारें संतति—निरोध में लगी हैं। वह लगना ही पड़ेगा। उसका कोई उपाय ही नहीं है। और अगर सरकारें संतति—निरोध नहीं करेंगीतो अकाल करेगाभुखमरी करेगीबीमारी करेगी। लेकिन जन्म और मृत्यु में एक अनुपात है। उधर आप मृत्यु को रोकिएतो इधर जन्म को रोकना पड़ेगा।

अब इधर हिंदुस्तान में बहुत— से साधु—संन्यासी हैंवे कहते हैंसंतति—निरोध नहीं होना चाहिए। उनको यह भी कहना चाहिए कि अस्पताल नहीं होने चाहिए। अस्पताल न होंतो संतति—निरोध की कोई जरूरत नहीं है। इधर मौत को रोकने में सब राजी हैं कि रुकनी चाहिए। संत—महात्मा लोगों को समझाते हैंअस्पताल खोलोमौत को रोको। मौत को हटाओबीमारी कम करो। और वही संत—महात्मा लोगों को समझाते हैं कि बर्थ कंट्रोल मत करना। इससे तो बड़ा खतरा हो जाएगा। यह तो परमात्मा के खिलाफ है।

अगर बर्थ कंट्रोल परमात्मा के खिलाफ हैतो दवाई भी परमात्मा के खिलाफ है। क्योंकि परमात्मा बीमारी दे रहा है और तुम दवा कर रहे हो! परमात्मा मौत ला रहा है और तुम इलाज करवा रहे हो! तब सब चिकित्सा परमात्मा के विरोध में है। चिकित्सा बंद कर दोसंतति—निरोध की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी। लोग अपने आप ही ठीक अनुपात में आ जाएंगे। इधर मौत रोकीइधर जन्म रुकता है।

आप सोच लेंअगर किसी दिन विज्ञान ने यह तरकीब खोज निकाली कि आदमी को मरने की जरूरत नहींतो हमें सभी लोगों को बांझ कर. देना पड़ेगाक्योंकि फिर पैदा होने की कोई जरूरत नहीं।

जन्म और मृत्यु एक ही धागे के दो छोर हैं। उनमें एक संतुलन है। यह सूत्र पहली बात यह कर रहा है कि परमात्मा दोनों अतियों का जोड़ है। सब भूतों के बाहर— भीतर परिपूर्ण है।

बहुत लोग हैंजो मानते हैंपरमात्मा बाहर है। आम आदमी की धारणा यही होती है कि कहीं आकाश में परमात्मा बैठा है। एक बहुत बड़ी दाढ़ी वाला  बुजुर्ग सारी दुनिया को सम्हाल रहा है सिंहासन पर बैठा हुआ! इससे बड़ा खतरा भी होता है कभी—कभी।

आम आदमी की धारणा यही है कि वह कहीं आकाश में बैठा हुआ है बाहर। इसलिए आप मंदिर जाते हैंक्योंकि परमात्मा बाहर है। यह एक अति है।
एक दूसरी अति हैजो मानते हैं कि परमात्मा भीतर हैबाहर का कोई सवाल नहीं। इसलिए न कोई मंदिरन कोई तीर्थन बाहर कोई जाने की जरूरत। परमात्मा भीतर है।

यह सूत्र कहता है कि दोनों बातें अधूरी हैं। जो कहते हैंपरमात्मा भीतर हैवे भी आधी बात कहते हैं। और जो कहते हैंपरमात्मा बाहर हैवे भी आधी बात कहते हैं। और दोनों गलत हैंक्योंकि अधूरा सत्य असत्य से भी बदतर होता है। क्योंकि वह सत्य जैसा भासता है और सत्य नहीं होता। परमात्मा बाहर और भीतर दोनों में है।

वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर— भीतर परिपूर्ण है।

क्योंकि बाहर— भीतर उसके ही दो खंड हैं। हमारे लिए जो बाहर है और हमारे लिए जो भीतर हैवह उसके लिए न तो बाहर हैन भीतर है। दोनों में वही है।

ऐसा समझें कि आपके कमरे के भीतर आकाश है और कमरे के बाहर भी आकाश है। आकाश बाहर है या भीतरआपका मकान ही आकाश में बना हैतो आकाश आपके मकान के भीतर भी है और बाहर भी है। दीवालों की वजह से बाहर— भीतर का फासला पैदा हो रहा है। यह शरीर की दीवाल की वजह से बाहर— भीतर का फासला पैदा हो रहा है। वैसे बाहर—भीतर वह दोनों नहीं हैया दोनों है।

सूत्र कहता हैबाहर भीतर दोनों है परमात्मा। चर—अचर रूप भी वही है।

चर—अचर रूप भी वही है। जो बदलता हैवह भी वही हैजो नहीं बदलतावह भी वही है।

यहां भी हम इसी तरह का द्वंद्व खड़ा करते हैं कि परमात्मा कभी नहीं बदलता और संसार सदा बदलता रहता है। लेकिन बदलाहट में भी वही है और गैर—बदलाहट में भी वही है। दोनों द्वंद्व को वह घेरे हुए है।

सूक्ष्म होने से अविज्ञेय हैजानने में आने वाला नहीं है।

बहुत सूक्ष्म है। सूक्ष्मता दो तरह की है। एक तो कोई चीज बहुत सूक्ष्म होतो समझ में नहीं आती। या कोई चीज बहुत विराट होतो समझ में नहीं आती। न तो यह अनंत विस्तार समझ में आता है और न सूक्ष्म समझ में आता है। दो चीजें छूट जाती हैं।

दो छोर हैंविराट और सूक्ष्म। सूक्ष्म को कहना चाहिएशून्य जैसा सूक्ष्म। एक से भी नीचेजहां शून्य है। दो तरह के शून्य हैं। एक से भी नीचे उतर जाएंतो एक शून्य है। और अनंत का एक शून्य है। ये दोनों समझ में नहीं आते। परमात्मा दोनों अर्थों में सूक्ष्म है। विराट के अर्थों में भीशून्य के अर्थों में भी। और इसलिए अविज्ञेय है। समझ में आने जैसा नहीं है।

पर यह तो बड़ी कठिन बात हो गई। अगर परमात्मा समझ में आने जैसा ही नहीं हैतो समझाने की इतनी कोशिश! सारे शास्त्रसारे ऋषि एक ही काम में लगे हैं कि परमात्मा को समझाओ। और वह समझ में आने योग्य नहीं है। फिर यह समझाने से क्या सार होगा! समझ में आने योग्य नहीं हैइसका यह मतलब आप मत समझना कि वह अनुभव में आने योग्य नहीं है। समझ में तो नहीं आएगालेकिन अनुभव में आ सकता है।

जैसे अगर मैं आपको समझाने बैठूं नमक का स्वादतो समझा नहीं सकता। परमात्मा तो बहुत दूर हैनमक का स्वाद भी नहीं समझा सकता। और अगर आपने कभी नमक नहीं चखा हैतो मैं लाख सिर पटकू और सारे शास्त्र इकट्ठे कर लूं और दुनियाभर के विज्ञान की चर्चा आपसे करूंतो भी आखिर में आप पूछेंगे कि आपकी बातें तो सब समझ में आईंलेकिन यह नमकीन क्या हैउसका उपाय एक ही है कि एक नमक का टुकड़ा आपकी जीभ पर रखा जाए। शास्त्र—वास्त्र की कोई जरूरत नहीं है। जो समझ में आने वाला नहीं हैवह भी अनुभव में आने वाला हो जाएगा। और आप कहेंगे कि आ गया अनुभव में—स्वाद।

परमात्मा का स्वाद आ सकता है। इसलिए कोई प्रत्यय के ढंग सेकंसेप्ट की तरह समझाएकोई सार नहीं होता। इसीलिए तो हम परमात्मा के लिए कोई स्कूल नहीं खोल पातेकोई पाठशाला नहीं बना पाते। या बनाते हैं तो उससे कोई सार नहीं होता।

कितनी ही धर्म की शिक्षा दोकोई धर्म नहीं होता। सीख—साख कर आदमी वैसे का ही वैसा कोरा लौट जाता है। और कई दफे तो और भी ज्यादा चालाक होकर लौट जाता हैजितना वह पहले नहीं था। क्योंकि अब वह बातें बनाने लगता है। अब वह अच्छी बातें करने लगता है। वह धर्म की चर्चा करने लगता है। और स्वाद उसे बिलकुल नहीं है।

कृष्ण कहते हैंसूक्ष्म होने से अविज्ञेय हैसमझ में आने वाला नहीं है। अति समीप है और अति दूर भी है

पास है बहुतइतना पासजितना कि आप भी अपने पास नहीं हैं। असल में पास कहना ठीक ही नहीं हैक्योंकि आप ही वही हैं। और दूर इतना हैजितने दूर की हम कल्पना कर सकें। अगर संसार की कोई भी सीमा होविश्व कीतो उस सीमा से भी आगे। कोई सीमा है नहींइसलिए अति दूर और अति निकट। ये दो अतियां हैंजिन्हें जोड्ने की कृष्ण कोशिश कर रहे हैं।

विभागरहितउसका कोई विभाजन नहीं हो सकता। और सभी विभागों में वही मौजूद है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा भूतों का धारण—पोषण करने वाला और संहार करने वाला और उत्पन्न करने वालासभी वही है।

वही बनाता हैवही सम्हालता हैवही मिटाता है। यह धारणा बड़ी अदभुत है। और एक बार यह खयाल में आ जाएवही बनाता हैवही सम्हालता हैवही मिटाता हैतो हमारी सारी चिंता समाप्त हो जाती है।

यह एक सूत्र आपको निश्चित कर देने के लिए काफी है। यह एक सूत्र आपको सारे संताप से मुक्त कर देने के लिए काफी है। क्योंकि फिर आपके हाथ में कुछ नहीं रह जाता। न आपको परेशान होने का कोई कारण रह जाता है। और न आपको शिकायत की कोई जरूरत रह जाती है। और न आपको कहने की जरूरत रह जाती है कि ऐसा क्यों हैबीमारी क्यों हैबुढ़ापा क्यों हैमौत क्यों हैकुछ भी पूछने की जरूरत नहीं रह जाती। आप जानते हैं कि वही एक तरफ से बनाता है और दूसरी तरफ से मिटाता है। और वही बीच में सम्हालता भी है।


इसलिए हमने परमात्मा का त्रिमूर्ति की तरह प्रतीक निर्मित किया है। उसमें तीन मूर्तियांतीन तरह के परमात्मा की धारणा की है। शिवब्रह्माविष्णुवह हमने तीन धारणा की हैं। ब्रह्मा सर्जक हैस्रष्टा है। विष्णु सम्हालने वाला है। शिव विनष्ट कर देने वाला है। लेकिन त्रिमूर्ति का अर्थ तीन परमात्मा नहीं है। वे केवल तीन चेहरे हैं। मूर्ति तो एक है। वह अस्तित्व तो एक हैलेकिन उसके ये तीन ढंग हैं।

और वही ज्योतियों की ज्योतिमाया से अति परे कहा जाता है। तथा वह परमात्मा बोधस्वरूप और जानने के योग्य है एवं तत्वज्ञान से प्राप्त होने वाला और सबके हृदय में स्थित है।

अविज्ञेय हैसमझ में न आने वाला हैऔर फिर भी जानने योग्य वही है। ये बातें उलझन में डालती हैं। और लगता है कि एक—दूसरे का विरोध है। विरोध नहीं है। समझ में तो वह नहीं आएगाअगर आपने समझदारी बरती। अगर आपने कोशिश की कि बुद्धि से समझ लेंगेतर्क लगाएंगेगणित बिठाएंगेआर्ग्यू करेंगेप्रमाण जुटाएंगेतो वह आपकी समझ में नहीं आएगा। क्योंकि सभी प्रमाण आपके हैंआपसे बड़े नहीं हो सकते। सभी तर्क आपके हैंआपके अनुभव से ज्यादा की उनसे कोई उपलब्धि नहीं हो सकती। और सभी तर्क बांझ हैंउनसे कोई अनुभव नहीं मिल सकता।

लेकिन जानने योग्य वही है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि जानने की कोई और कीमियाकोई और प्रक्रिया हमें खोजनी पड़ेगी। बुद्धि उसे जानने में सहयोगी न होगी। क्या बुद्धि को छोड्कर भी जानने का कोई उपाय हैक्या कभी आपने कोई चीज जानी हैजो बुद्धि को छोड्कर जानी हो?

अगर आपके जीवन में प्रेम का कोई अनुभव होतो शायद थोड़ा—सा खयाल आ जाए। प्रेम के अनुभव में आप बुद्धि से नहीं जानतेकोई और ढंग है जानने काकोई हार्दिक ढंग है जानने का।
मां अपने बेटे को बुद्धि के ढंग से नहीं जानती। सोचती नहीं उसके बाबतजानती है। हृदय की धड़कन से जुड़कर जानती है। वह उसे पहचानती है। वह पहचान कुछ और मार्ग से होती है। वह मार्ग सीधा—सीधा खोपड़ी से नहीं जुड़ा हुआ है। वह शायद हृदय की धड़कन से और भावअनुभूति से जुड़ा हुआ है।

परमात्मा को जानने के लिए बुद्धि उपकरण नहीं है। बुद्धि को रख देना एक तरफ मार्ग है। इसलिए सारी साधनाएं बुद्धि को हटा देने की साधनाएं हैं। और बुद्धि को जो एक तरफ उतारकर रख देजैसे स्नान करते वक्त किसी ने कपड़े उतारकर रख दिए होंऐसा प्रार्थना और ध्यान करते वक्त कोई बुद्धि को उतारकर रख देबिलकुल निर्बुद्धि हो जाएबिलकुल बच्चे जैसा हो जाएबाल—बुद्धि हो जाएजिसे कुछ बचा ही नहींसोच—समझ की कोई बात ही न रहीतो तत्‍क्षण संबंध जुड़ जाता है।

क्यों ऐसा होता होगाऐसा इसलिए होता है कि बुद्धि तो बहुत संकीर्ण है। बुद्धि का उपयोग है संसार में। जहां संकीर्ण की हम खोज कर रहे हैंक्षुद्र की खोज कर रहे हैंवहा बुद्धि का उपयोग है। लेकिन जैसे ही हम विराट की तरफ जाते हैंवैसे ही बुद्धि बहुत संकीर्ण रास्ता हो जाती है। उस रास्ते से प्रवेश नहीं किया जा सकता है। उसको हटा देनाउसे उतार देना।

संतों ने न मालूम कितनी तरकीबों से एक ही बात सिखाई है कि कैसे आप अपनी बुद्धि से मुक्त हों। इसलिए बड़ी खतरनाक भी है। क्योंकि हमें तो लगता है कि बुद्धि को बचाकर कुछ करना हैबुद्धि साथ लेकर कुछ करना हैसोच—विचार अपना कायम रखना है। कहीं कोई हमें धोखा न दे जाए। कहीं ऐसा न हो कि हम बुद्धि को उतारकर रखेंऔर इसी बीच कुछ गड़बड़ हो जाए। और हम कुछ भी न कर पाएंगे।

तो बुद्धि को हम हमेशा पकड़े रहते हैंक्योंकि बुद्धि से हमें लगता हैहमारा कंट्रोल हैहमारा नियंत्रण है। बुद्धि के हटते ही नियंत्रण खो जाता है। और हम सहज प्रकृति के हिस्से हो जाते हैं। इसलिए खतरा है और डर है। इस डर में थोड़ा कारण है। वह खयाल में ले लेना जरूरी है।

अगर आपको क्रोध आता हैतो बुद्धि एक तरफ हो जाती है। जब क्रोध चला जाता हैतब बुद्धि वापस आती है। और तब आप पछताते हैं। जब कामवासना पकड़ती हैतो बुद्धि एक तरफ हो जाती है। और जब काम कृत्य पूरा हो जाता हैतब आप उदास और दुखी और चिंतित हो जाते हैं कि फिर वही भूल की। कितनी बार सोचा कि नहीं करें, फिर वही किया। फिर बुद्धि आ गई।

एक बात खयाल रखेंप्रकृति भी तभी काम करती हैजब बुद्धि बीच में नहीं होती। आपके भीतर जो निम्न हैवह भी तभी काम करता हैजब बुद्धि नहीं होती। अगर आप बुद्धि को सजग रखेंतो आप क्रोध भी नहीं कर पाएंगे और कामवासना में भी नहीं उतर पाएंगे।

अगर दुनिया बिलकुल बुद्धिमान हो जाए तो संतान पैदा होनी बंद हो जाएगीसंसार उसी वक्त बंद हो जाएगा। क्योंकि नीचे की प्रकृति की भी सक्रियता तभी हो सकती हैजब आप बुद्धि का नियंत्रण छोड़ दें। क्योंकि प्रकृति तभी आपके भीतर काम कर पाती हैजब आपकी बुद्धि बीच में बाधा नहीं डालती।

वह जो श्रेष्ठ प्रकृति हैजिसको हम परमात्मा कहते हैंवह भी तभी काम करता हैजब आपकी बुद्धि नहीं होती। पर इसमें एक खतरा हैजो समझ लेने जैसा है। वह यह कि चूंकि हम नीचे की प्रकृति से डरे हुए हैंइसलिए बुद्धि के नियंत्रण को हम हमेशा कायम रखते हैं। हम डरे हुए हैं। अगर बुद्धि को छोड़ देंतो क्रोधहिंसाकुछ भी हो जाए। अगर बुद्धि को हम छोड़ देंतो हमारे भीतर की वासनाएं स्वच्छंद हो जाएंतो हम तो अभी पागल की तरह न मालूम क्या कर गुजरें

कितनी बार हत्या करने की सोची है बात! लेकिन बुद्धि ने कहायह क्या कर रहे होपाप है। जन्मों—जन्मों तक भटकोगेनरक में जाओगे। और न भी गए नरक मेंतो अदालत हैकोर्ट हैपुलिस है। और कहीं भी न गएतो खुद की कासिएंस हैअंतःकरण हैवह कचोटेगा सदाकि तुमने हत्या की। फिर क्या मुंह दिखाओगेकैसे चलोगे रास्ते परकैसे उठोगेतो बुद्धि ने रोक लिया है।

अगर आज कोई कहे कि बुद्धि का नियंत्रण छोड़ दोतो पहला खयाल यही आएगाअगर नियंत्रण छोड़ा कि उठाई तलवार और किसी की हत्या कर दी। क्योंकि वह तैयार बैठा है भाव भीतर। नीचे की प्रकृति के डर के कारण हम बुद्धि को नहीं छोड़ पाते। और हमें ऊपर की प्रकृति का कोई पता नहीं है। क्योंकि वह भी बुद्धि के छोड़ने पर ही काम करती है।

इसे हम ऐसा भी समझें। अगर कोई आदमी बीमार होतो चिकित्सक पहली फिक्र करते हैं कि उसको नींद ठीक से आ जाए। क्योंकि वह जगा रहता हैतो शरीर की प्रकृति को काम नहीं करने देताबाधा डालता रहता है। नींद आ जाएतो शरीर अपना काम पूरा कर लेप्रकृति उसके शरीर को ठीक कर देउसके घाव भर देउसकी बीमारी को दूर कर दें।

इसलिए चिकित्सक की पहली चिंता होती है कि मरीज सो जाए। बाकी काम दूसरा हैनंबर दो पर है। दवा वगैरह नंबर दो पर है। पहला काम है कि मरीज सो जाए। क्यों इतनी चिंता हैक्योंकि मरीज की बुद्धि दिक्कत दे रही है। सो जाएतो प्रकृति काम कर सके।

आप भी जब सोते हैंतभी आपका शरीर स्वस्थ हो पाता है। दिनभर में आप उसको अस्वस्थ कर लेते हैं।

आपको पता हैबच्चा जब पैदा होता है तो बाईस घंटे सोता हैबीस घंटे सोता है। और मां के पेट में नौ महीने चौबीस घंटे सोता है। फिर जैसे—जैसे उम्र बड़ी होने लगती हैनींद कम होने लगती है। फिर बुजुर्ग और कम सोता है। फिर बुढ़ापे में कोई आदमी दो ही घंटेतीन घंटे ही सो लेतो बहुत।

के बहुत परेशान होते हैं। सत्तर साल के बूढ़े भी मेरे पास आ जाते हैं। वे कहते हैंकुछ नींद का रास्ता बताइए।

नींद की आपको जरूरत नहीं रही है अब। जैसे—जैसे शरीर मरने के करीब पहुंचता हैप्रकृति शरीर में काम करना कम कर देती है। उसकी जरूरत नहीं है। बनाने का काम बंद हो जाता है।

बच्चा चौबीस घंटे सोता हैक्योंकि प्रकृति को बनाने का काम करना है। अगर बच्चा जग जाएतो बाधा डालेगा। उसकी बुद्धि बीच में आ जाएगी। वह कहेगाटांग जरा लंबी होतीजो अच्छा था। नाक जरा ऐसी होतीतो अच्छा था। आंख जरा और बड़ी होतीतो मजा आ जाता। वह गडबड़ डालना शुरू कर देगा।

तो नौ महीने प्रकृति उसको एक दफे भी होश नहीं देती। बेहोशप्रकृति अपना काम करती है। जैसे ही बच्चा पूरा हो जाता हैबाहर आ जाता है। लेकिन तब भी बाईस घंटे सोता है। अभी बहुत काम होना है। अभी उसकी पूरी जिंदगी की तैयारी होनी है।

जैसे ही बच्चे के शरीर का काम पूरा हो जाता हैवैसे ही नींद एक जगह आकर रुक जाती है—छ घंटासात घंटाआठ घंटा। काम प्रकृति का पूरा हो गया। अब ये आठ घंटे तो रोज के काम के लिए हैं। रोज में आप शरीर को जितना तोड़ लेंगेउतना प्रकृति रात में पूरा कर देगी। दूसरे दिन आप सुबह ताजा होकर काम में लग जाएंगे। बूढा तो अब मरने के करीब हैउसको तीन घंटा भी जरूरत से ज्यादा है। क्योंकि अब प्रकृति कुछ बना नहीं रही हैसिर्फ तोड़ रही है। इसलिए नींद कम होती जा रही है।

प्रकृति भी काम करती हैजब आप बुद्धि से बीच में बाधा नहीं डालते। यह मैं इसलिए उदाहरण दे रहा हूं कि जो नीचे की प्रकृति के संबंध में सच हैवही ऊपर की प्रकृति के संबंध में भी सच है। जब आप परमात्मा को भी बाधा नहीं डालते और बुद्धि को हटा लेते हैंतब वह भी काम करता है। लेकिन नीचे के भय के कारण हम ऊपर से भी भयभीत होते हैं। नीचे के डर के कारणहम ऊपर की तरफ भी नहीं खुलते।

इसलिए मेरा कहना है कि प्रकृति को भी परमात्मा का बाह्य रूप समझें। उससे भी भयभीत न हों। उससे भी भयभीत न होंउसमें भी उतरें। उससे भी डरें मत। उससे भी भागें मत। उसको भी घटने दें। उसमें भी बाधा मत डालें और नियंत्रण मत बनाएं। बिना बाधा डालेबिना नियंत्रण बनाएहोश को कायम रखें। वह अलग बात है। फिर वह बुद्धि नहीं है।

बुद्धि का अर्थ हैबाधा डालनानियंत्रण करना। ऐसा न होऐसा हो। उपाय करना। होश का अर्थ हैसाक्षी होना। हम कोई बाधा न डालेंगे। अगर क्रोध आ रहा हैतो हम क्रोध के भी साक्षी हो जाएंगे। और कामवासना आ रही हैतो हम कामवासना के भी साक्षी हो जाएंगे। हम देखेंगेहम बीच में कुछ निर्णय न करेंगे कि अच्छा हैकि बुरा हैहोना चाहिएकि नहीं होना चाहिएमैं रोकूकि न रोकूंकरूंकि न करूंहम कुछ भी निर्णय न लेंगे। हम सिर्फ शांत देखेंगेजैसे दूर खड़ा हुआ कोई आदमी चलते हुए रास्ते को देख रहा हो। आकाश में पक्षी उड रहे हों और आप देख रहे होंऐसा हम देखेंगे।

नीचे की प्रकृति को भी दर्शन करना सीखेंतो बुद्धि हटेगी और साक्षी जगेगा। और जब नीचे का भय न रह जाएगातो आप ऊपर की तरफ भी बुद्धि को हटाकर रख सकेंगे। क्योंकि आपको भरोसा आ जाएगा कि बुद्धि को ढोने की कोई भी जरूरत नहीं है। और जैसे ही बुद्धि हटती हैपरमात्मा शांत होना शुरू हो जाता है।

वह अविज्ञेय है बुद्धि से। लेकिन बुद्धि के हटते ही प्रज्ञा सेसाक्षी भाव से वही ज्ञान योग्य हैवही जानने योग्य हैवही अनुभव योग्य है।

आखिरी बात इस संबंध में खयाल ले लेंक्योंकि साक्षी का सूत्र बहुत मूल्यवान है। और अगर आप साक्षी के सूत्र को ठीक से समझ लेंतो परमात्मा का कोई भी रहस्य आपसे अनजाना न रह जाएगा। और इस साक्षी के सूत्र को समझने के लिए छोटा—छोटा प्रयोग करें। कुछ भी छोटा—मोटा काम कर रहे होंतो कर्ता बनकर मत करेंसाक्षी बनकर करेंताकि थोड़ा अनुभव होने लगे कि देखने वाले का अनुभव क्या है।

भोजन कर रहे हैं। साक्षी हो जाएं। अचानक खयाल आएएक गहरी श्वास लें और देखने लगें कि आप देख रहे हैं अपने शरीर को भोजन करते हुए। पहले थोड़ी अड़चन होगीथोड़ा—सा विचित्र मालूम पड़ेगाक्योंकि दो की जगह तीन आदमी हो गए। अभी भोजन थाकरने वाला थाभूख थीकरने वाला था। अब एक यह तीसरा और आ गयादेखने वाला।

यह देखने वाले की वजह से थोड़ी कठिनाई होगी। एक तो भोजन करना धीमा हो जाएगा। आप ज्यादा चबाकेआहिस्ता उठाएंगे। क्योंकि यह देखने वाले की वजह से क्रियाओं में जो विक्षिप्तता हैवह कम हो जाती है। शायद इसीलिए हम देखने वाले को बीच में नहीं लातेक्योंकि जल्दी ही डालकर भागना है। किसी तरह अंदर कर देना है भोजन को और निकल पड़ना है।

अगर आप चलेंगे भी होशपूर्वकतो आप पाएंगेआपकी गति धीमी हो गई।

बुद्ध चलते हैं। उनके चलने की गति ऐसी शांत हैजैसे कोई परदे पर फिल्म को बहुत धीमी स्पीड में चला रहा होबहुत आहिस्ता है। बुद्ध से कोई पूछता है कि आप इतने धीमे क्यों चलते हैंतो बुद्ध ने कहा कि उलटी बात है। तुम मुझ से पूछते हो कि मैं इतना धीमा क्यों चलता हूं! मैं तुमसे पूछता हूं कि तुम पागल की तरह क्यों चलते होयह इतना ज्वरइतना बुखार चलने में क्यों हैचलने में इतनी विक्षिप्तता क्यों हैमैं तो होश से चलता हूं तो सब कुछ धीमा हो जाता है।

ध्यान रहेजितना होश होगाउतनी आपकी क्रिया धीमी हो जाएगी। और जितना कर्ता शून्य होगाउतना क्रियाओं में से उन्मादज्वर चला जाएगाक्रियाएं शांत हो जाएंगी।

और ध्यान रहेशांत क्रियाओं से पाप नहीं किया जा सकता। अगर आप किसी की हत्या करने जा रहे हैं और धीमे— धीमे जा रहे हैंतो पक्का समझिएहत्या—वत्या नहीं होने वाली है। अगर आप किसी का सिर तोड्ने को खड़े हो गए हैं और बड़े आहिस्ता से तलवार उठा रहे होंतो इसके पहले कि तलवार उसके सिर में जाएम्यान में वापस चली जाएगी।

उतने धीमे पाप होता ही नहीं। पाप के लिए ज्वरत्वरातेजी चाहिए। और जो आदमी तेजी से जी रहा हैवह चाहे पाप कर रहा होन कर रहा होउससे बहुत पाप अनजाने होते रहते हैं। उसकी तेजी से ही होते रहते हैं। उसके ज्वर से ही हो जाते हैं। ज्वर ही पाप है।

बुद्ध कहते हैंजैसे ही होश से करोगेसब धीमा हो जाएगा। रास्ते पर चलते वक्त अचानक खयाल कर लेंएक गहरी श्वास लेंताकि खयाल साफ हो जाए और धीमे से देखें कि आप चल रहे हैं।

खाली बैठे हैंआंख बंद कर लें और देखें कि आप बैठे हुए हैं। आंख बंद करके बराबर आप देख सकते हैं कि आपकी मूर्ति बैठी हुई है। एक पैर की तरफ से देखना शुरू करें कि पैर की क्या हालत है। दब गया है। परेशान हो रहा है। चींटी काट रही है। ऊपर की तरफ बढ़े। पूरे शरीर को देखें कि आप देख रहे हैं। आप देखते—देखते ही बड़ी गहरी शांति में उतर जाएंगेक्योंकि देखने में आदमी साक्षी हो जाता है।

रात बिस्तर पर लेट गए हैं। सोने के पहले एक पांच मिनट आंख बंद करके पूरे शरीर को भीतर से देख लें।

शायद आपको पता हो या न होपश्चिम तो अभी एनाटॉमी की खोज कर पाया है कि आदमी के शरीर में क्या—क्या है। क्योंकि उन्होंने सर्जरी शुरू कीआदमी को काटना शुरू किया। यह कोई तीन सौ साल में ही आदमी को काटना संभव हो पायाक्योंकि दुनिया का कोई धर्म लाश को काटने के पक्ष में नहीं था। तो पहले सर्जन जो थेवे चोर थे। उन्होंने लाशें चुराई मुरदाघरों सेकाटाआदमी को भीतर से देखा। लेकिन योग हजारों साल से भीतर आदमी के संबंध में बहुत कुछ जानता है।

अब ये पश्चिम के सर्जन कहते हैं कि पूरब में योग को कैसे पता चला आदमी के भीतर की चीजों कावह पता काटकर नहीं चला है। वह योगी के साक्षी भाव से चला है।




अगर आप भीतर साक्षी भाव से प्रवेश करें और घूमने लगेंतो थोड़े दिन में आप अपने शरीर को भीतर से देखने में समर्थ हो जाएंगे। आप भीतर का हड्डीमांस—मज्जास्नायु—जाल सब भीतर से देखने लगेंगे। और एक बार आपको भीतर से शरीर दिखाई पड़ने लगेकि आप शरीर से अलग हो गए। क्योंकि जिसने भीतर से शरीर को देख लियावह अब यह नहीं मान सकता कि मैं शरीर हूं। वह देखने वाला हो गयावह द्रष्टा हो गया।

चौबीस घंटे में जब भी आपको मौका मिल जाएकोई भी क्रिया मेंसाक्षी को सम्हाले। साक्षी के सम्हालते दो परिणाम होंगे। क्रिया धीमी हो जाएगीकर्ता क्षीण हो जाएगाऔर विचार और बुद्धि कम होने लगेंगेविचार शांत होने लगें। बुद्धि का ऊहापोह बंद हो जाएगा।

कोई छोटा—सा प्रयोग। कुछ नहीं कर रहे हैंश्वास को ही देखें। श्वास भीतर गईबाहर गई। श्वास भीतर गईबाहर गई। आप उसको ही देखें

लोग मुझसे पूछते हैंकोई मंत्र दे दें। मैं उनसे कहता हूं मंत्र वगैरह न लें। एक मंत्र परमात्मा ने दिया हैवह श्वास है। उसको देखें। श्वास पहला मंत्र है। बच्चा पैदा होते ही पहला काम करता है श्वास लेने का। और आदमी जब मरता हैतो आखिरी काम करता है श्वास छोड़ने का। श्वास से घिरा है जीवन।

जन्म के बाद पहला काम श्वास हैवह पहला कृत्य है। आप श्वास लेकर ही कर्ता हुए हैं। इसलिए अगर आप श्वास को देख सकेंतो आप पहले कृत्य के पहले पहुंच जाएंगे। आपको उस जीवन का पता चलेगाजो श्वास लेने के भी पहले थाजो जन्म के पहले था।

अगर आप श्वास को देखने में समर्थ हो जाएंतो आपको पता चल जाएगा कि मृत्यु शरीर की होगीश्वास की होगीआपकी नहीं होने वाली। आप श्वास से अलग हैं।

बुद्ध ने बहुत जोर दिया है अनापानसती—योग परश्वास के आने—जाने को देखने का योग। वे अपने भिक्षुओं को कहते थेतुम कुछ भी मत करोबस एक ही मंत्र हैश्वास भीतर गईइसको देखोश्वास बाहर गईइसको देखो। और जोर से मत लेना। कुछ करना मत श्वास कोसिर्फ देखना। करने का काम ही मत करना। सिर्फ देखना।

आंख बंद कर लीश्वास ने नाक को स्पर्श कियाभीतर गईभीतर गई। भीतर पेट तक जाकर उसने स्पर्श किया। पेट ऊपर उठ गया। फिर श्वास वापस लौटने लगी। पेट नीचे गिर गया। श्वास वापस आई। श्वास बाहर निकल गई। फिर नई श्वास शुरू हो गई। यह वर्तुल है। इसे देखते रहना।

अगर आप रोज पंद्रह—बीस मिनट सिर्फ श्वास को ही देखते रहेंतो आप चकित हो जाएंगेबुद्धि हटने लगी। साक्षी जगने लगा। आंख खुलने लगी भीतर की। हृदय के द्वारजो बंद थे जन्मों सेखुलने लगेसरकने लगे। उस सरकते द्वार में ही परमात्मा की पहली झलक उपलब्ध होती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 
हरिओम सिगंल


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