स्वयं को बदलो
बहिरन्तश्चइ भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थ चान्तिके च तत्।। 15।।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तीमव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रीअष्णु प्रभविष्णु च।। 16।।
ज्योतिषामयि तज्जयोतिस्तमस: परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं ह्रदि सर्वस्य विष्ठितम्।। 17।।
तथा वह परमात्मा बराबर अब भूतों के बाहर— भीतर परिपूर्ण है और चर— अचर रूप भी की है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है अर्थात जानने में नहीं आने वाला है। तथा अति समीप में और अति दूर में भी स्थित वही है।
और वह विभागरीहत एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर संपूर्ण भूतों में पृथक— पृथक के सदृश स्थित प्रतीत होता है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा भूतों का धारण— पोषण करने वाला और संहार करने वाला तथा सब का उत्पन्न करने वाला है।
और वह ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अति परे कहा जाता है। तथा वह परमात्मा बोधस्वरूप और जानने के योग्य है एवं तत्वज्ञान से प्राप्त होने वाला और सबके ह्रदय में स्थित है।
तथा वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर— भीतर परिपूर्ण है और चर—अचर रूप भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय अर्थात जानने में नहीं आने वाला है। तथा अति समीप में और अति दूर में भी स्थित वही है। और वह विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर संपूर्ण भूतों में पृथक—पृथक के सदृश स्थित प्रतीत होता है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा भूतों का धारण—पोषण करने वाला और संहार करने वाला तथा सब का उत्पन्न करने वाला है। और वह ज्योतियों की भी ज्योति एवं माया से अति परे कहा जाता है। तथा वह बोधस्वरूप और जानने के योग्य है एवं तत्वज्ञान से प्राप्त होने वाला और सब के हृदय में स्थित है।
तीन महत्वपूर्ण बातें। पहली बात, परमात्मा के संबंध में जब भी कुछ कहना हो, तो भाषा में जो भी विरोध में खड़ी हुई दो अतियां हैं, एक्सट्रीम पोलेरिटीज हैं, उन दोनों को एक साथ जोड़ लेना जरूरी है। क्योंकि दोनों अतियां परमात्मा में समाविष्ट हैं। और जब भी हम एक अति के साथ परमात्मा का तादात्म्य करते हैं, तभी हम भूल कर जाते हैं और अधूरा परमात्मा हो जाता है। और हमारा परमात्मा के संबंध में जो वक्तव्य है, वह असत्य हो जाता है, वह पूरा नहीं होता।
मगर मनुष्य का मन ऐसा है कि वह एक अति को चुनना चाहता है। हम कहना चाहते हैं कि परमात्मा स्रष्टा है। तो दुनिया के सारे धर्म, सिर्फ हिंदुओं को छोड्कर, कहते हैं कि परमात्मा स्रष्टा है, क्रिएटर है। सिर्फ हिंदू अकेले हैं जमीन पर, जो कहते हैं, परमात्मा दोनों है, स्रष्टा भी और विनाशक भी, क्रिएटर और डिस्ट्रायर।
यह बहुत विचारणीय है और बहुत मूल्यवान है। क्योंकि परमात्मा स्रष्टा है, यह तो समझ में आ जाता है। लेकिन वही विनाशक भी है, वही विध्वंसक भी है, यह समझ में नहीं आता।
आपके बेटे को जन्म दिया, तब तो आप परमात्मा को धन्यवाद दे देते हैं कि परमात्मा ने बेटे को जन्म दिया। और आपका बेटा मर जाए, तो आपकी भी हिम्मत नहीं पड़ती कहने की कि परमात्मा ने बेटे को मार डाला। क्योंकि यह सोचते ही कि परमात्मा ने बेटे को मार डाला, ऐसा लगता है, यह भी कैसा परमात्मा, जो मारता है।
लेकिन ध्यान रहे, जो जन्म देता है, वही मारने वाला तत्व भी होगा। चाहे हमें कितना ही अप्रीतिकर लगता हो। हमारी प्रीति और अप्रीति का सवाल भी नहीं है। जो बनाता है, वही मिटाएगा भी। नहीं तो मिटाएगा कौन?
और अगर मिटने की क्रिया न हो, तो बनने की क्रिया बंद हो जाएगी। अगर जगत में मृत्यु बंद हो जाए, तो जन्म बंद हो जाएगा। आप यह मत सोचें कि जन्म जारी रहेगा और मृत्यु बंद हो सकती है। उधर मृत्यु बंद होगी, इधर जन्म बंद होगा। और अनुपात निरंतर वही रहेगा। उधर मृत्यु को रोकिएगा, इधर जन्म रुकना शुरू हो जाएगा।
इधर चिकित्सकों ने, चिकित्साशास्त्र ने मृत्यु को थोड़ा दूर हटा दिया है, बीमारी थोड़ी कम कर दी है, तो सारी दुनिया की सरकारें संतति—निरोध में लगी हैं। वह लगना ही पड़ेगा। उसका कोई उपाय ही नहीं है। और अगर सरकारें संतति—निरोध नहीं करेंगी, तो अकाल करेगा, भुखमरी करेगी, बीमारी करेगी। लेकिन जन्म और मृत्यु में एक अनुपात है। उधर आप मृत्यु को रोकिए, तो इधर जन्म को रोकना पड़ेगा।
अब इधर हिंदुस्तान में बहुत— से साधु—संन्यासी हैं, वे कहते हैं, संतति—निरोध नहीं होना चाहिए। उनको यह भी कहना चाहिए कि अस्पताल नहीं होने चाहिए। अस्पताल न हों, तो संतति—निरोध की कोई जरूरत नहीं है। इधर मौत को रोकने में सब राजी हैं कि रुकनी चाहिए। संत—महात्मा लोगों को समझाते हैं, अस्पताल खोलो; मौत को रोको। मौत को हटाओ, बीमारी कम करो। और वही संत—महात्मा लोगों को समझाते हैं कि बर्थ कंट्रोल मत करना। इससे तो बड़ा खतरा हो जाएगा। यह तो परमात्मा के खिलाफ है।
अगर बर्थ कंट्रोल परमात्मा के खिलाफ है, तो दवाई भी परमात्मा के खिलाफ है। क्योंकि परमात्मा बीमारी दे रहा है और तुम दवा कर रहे हो! परमात्मा मौत ला रहा है और तुम इलाज करवा रहे हो! तब सब चिकित्सा परमात्मा के विरोध में है। चिकित्सा बंद कर दो, संतति—निरोध की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी। लोग अपने आप ही ठीक अनुपात में आ जाएंगे। इधर मौत रोकी, इधर जन्म रुकता है।
आप सोच लें, अगर किसी दिन विज्ञान ने यह तरकीब खोज निकाली कि आदमी को मरने की जरूरत नहीं, तो हमें सभी लोगों को बांझ कर. देना पड़ेगा, क्योंकि फिर पैदा होने की कोई जरूरत नहीं।
जन्म और मृत्यु एक ही धागे के दो छोर हैं। उनमें एक संतुलन है। यह सूत्र पहली बात यह कर रहा है कि परमात्मा दोनों अतियों का जोड़ है। सब भूतों के बाहर— भीतर परिपूर्ण है।
बहुत लोग हैं, जो मानते हैं, परमात्मा बाहर है। आम आदमी की धारणा यही होती है कि कहीं आकाश में परमात्मा बैठा है। एक बहुत बड़ी दाढ़ी वाला बुजुर्ग सारी दुनिया को सम्हाल रहा है सिंहासन पर बैठा हुआ! इससे बड़ा खतरा भी होता है कभी—कभी।
आम आदमी की धारणा यही है कि वह कहीं आकाश में बैठा हुआ है बाहर। इसलिए आप मंदिर जाते हैं, क्योंकि परमात्मा बाहर है। यह एक अति है।
एक दूसरी अति है, जो मानते हैं कि परमात्मा भीतर है, बाहर का कोई सवाल नहीं। इसलिए न कोई मंदिर, न कोई तीर्थ; न बाहर कोई जाने की जरूरत। परमात्मा भीतर है।
यह सूत्र कहता है कि दोनों बातें अधूरी हैं। जो कहते हैं, परमात्मा भीतर है, वे भी आधी बात कहते हैं। और जो कहते हैं, परमात्मा बाहर है, वे भी आधी बात कहते हैं। और दोनों गलत हैं, क्योंकि अधूरा सत्य असत्य से भी बदतर होता है। क्योंकि वह सत्य जैसा भासता है और सत्य नहीं होता। परमात्मा बाहर और भीतर दोनों में है।
वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर— भीतर परिपूर्ण है।
क्योंकि बाहर— भीतर उसके ही दो खंड हैं। हमारे लिए जो बाहर है और हमारे लिए जो भीतर है, वह उसके लिए न तो बाहर है, न भीतर है। दोनों में वही है।
ऐसा समझें कि आपके कमरे के भीतर आकाश है और कमरे के बाहर भी आकाश है। आकाश बाहर है या भीतर? आपका मकान ही आकाश में बना है, तो आकाश आपके मकान के भीतर भी है और बाहर भी है। दीवालों की वजह से बाहर— भीतर का फासला पैदा हो रहा है। यह शरीर की दीवाल की वजह से बाहर— भीतर का फासला पैदा हो रहा है। वैसे बाहर—भीतर वह दोनों नहीं है; या दोनों है।
सूत्र कहता है, बाहर भीतर दोनों है परमात्मा। चर—अचर रूप भी वही है।
चर—अचर रूप भी वही है। जो बदलता है, वह भी वही है, जो नहीं बदलता, वह भी वही है।
यहां भी हम इसी तरह का द्वंद्व खड़ा करते हैं कि परमात्मा कभी नहीं बदलता और संसार सदा बदलता रहता है। लेकिन बदलाहट में भी वही है और गैर—बदलाहट में भी वही है। दोनों द्वंद्व को वह घेरे हुए है।
सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है, जानने में आने वाला नहीं है।
बहुत सूक्ष्म है। सूक्ष्मता दो तरह की है। एक तो कोई चीज बहुत सूक्ष्म हो, तो समझ में नहीं आती। या कोई चीज बहुत विराट हो, तो समझ में नहीं आती। न तो यह अनंत विस्तार समझ में आता है और न सूक्ष्म समझ में आता है। दो चीजें छूट जाती हैं।
दो छोर हैं, विराट और सूक्ष्म। सूक्ष्म को कहना चाहिए, शून्य जैसा सूक्ष्म। एक से भी नीचे, जहां शून्य है। दो तरह के शून्य हैं। एक से भी नीचे उतर जाएं, तो एक शून्य है। और अनंत का एक शून्य है। ये दोनों समझ में नहीं आते। परमात्मा दोनों अर्थों में सूक्ष्म है। विराट के अर्थों में भी, शून्य के अर्थों में भी। और इसलिए अविज्ञेय है। समझ में आने जैसा नहीं है।
पर यह तो बड़ी कठिन बात हो गई। अगर परमात्मा समझ में आने जैसा ही नहीं है, तो समझाने की इतनी कोशिश! सारे शास्त्र, सारे ऋषि एक ही काम में लगे हैं कि परमात्मा को समझाओ। और वह समझ में आने योग्य नहीं है। फिर यह समझाने से क्या सार होगा! समझ में आने योग्य नहीं है, इसका यह मतलब आप मत समझना कि वह अनुभव में आने योग्य नहीं है। समझ में तो नहीं आएगा, लेकिन अनुभव में आ सकता है।
जैसे अगर मैं आपको समझाने बैठूं नमक का स्वाद, तो समझा नहीं सकता। परमात्मा तो बहुत दूर है, नमक का स्वाद भी नहीं समझा सकता। और अगर आपने कभी नमक नहीं चखा है, तो मैं लाख सिर पटकू और सारे शास्त्र इकट्ठे कर लूं और दुनियाभर के विज्ञान की चर्चा आपसे करूं, तो भी आखिर में आप पूछेंगे कि आपकी बातें तो सब समझ में आईं, लेकिन यह नमकीन क्या है? उसका उपाय एक ही है कि एक नमक का टुकड़ा आपकी जीभ पर रखा जाए। शास्त्र—वास्त्र की कोई जरूरत नहीं है। जो समझ में आने वाला नहीं है, वह भी अनुभव में आने वाला हो जाएगा। और आप कहेंगे कि आ गया अनुभव में—स्वाद।
परमात्मा का स्वाद आ सकता है। इसलिए कोई प्रत्यय के ढंग से, कंसेप्ट की तरह समझाए, कोई सार नहीं होता। इसीलिए तो हम परमात्मा के लिए कोई स्कूल नहीं खोल पाते, कोई पाठशाला नहीं बना पाते। या बनाते हैं तो उससे कोई सार नहीं होता।
कितनी ही धर्म की शिक्षा दो, कोई धर्म नहीं होता। सीख—साख कर आदमी वैसे का ही वैसा कोरा लौट जाता है। और कई दफे तो और भी ज्यादा चालाक होकर लौट जाता है, जितना वह पहले नहीं था। क्योंकि अब वह बातें बनाने लगता है। अब वह अच्छी बातें करने लगता है। वह धर्म की चर्चा करने लगता है। और स्वाद उसे बिलकुल नहीं है।
कृष्ण कहते हैं, सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है, समझ में आने वाला नहीं है। अति समीप है और अति दूर भी है।
पास है बहुत, इतना पास, जितना कि आप भी अपने पास नहीं हैं। असल में पास कहना ठीक ही नहीं है, क्योंकि आप ही वही हैं। और दूर इतना है, जितने दूर की हम कल्पना कर सकें। अगर संसार की कोई भी सीमा हो, विश्व की, तो उस सीमा से भी आगे। कोई सीमा है नहीं, इसलिए अति दूर और अति निकट। ये दो अतियां हैं, जिन्हें जोड्ने की कृष्ण कोशिश कर रहे हैं।
विभागरहित, उसका कोई विभाजन नहीं हो सकता। और सभी विभागों में वही मौजूद है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा भूतों का धारण—पोषण करने वाला और संहार करने वाला और उत्पन्न करने वाला, सभी वही है।
वही बनाता है, वही सम्हालता है, वही मिटाता है। यह धारणा बड़ी अदभुत है। और एक बार यह खयाल में आ जाए, वही बनाता है, वही सम्हालता है, वही मिटाता है, तो हमारी सारी चिंता समाप्त हो जाती है।
यह एक सूत्र आपको निश्चित कर देने के लिए काफी है। यह एक सूत्र आपको सारे संताप से मुक्त कर देने के लिए काफी है। क्योंकि फिर आपके हाथ में कुछ नहीं रह जाता। न आपको परेशान होने का कोई कारण रह जाता है। और न आपको शिकायत की कोई जरूरत रह जाती है। और न आपको कहने की जरूरत रह जाती है कि ऐसा क्यों है? बीमारी क्यों है? बुढ़ापा क्यों है? मौत क्यों है? कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं रह जाती। आप जानते हैं कि वही एक तरफ से बनाता है और दूसरी तरफ से मिटाता है। और वही बीच में सम्हालता भी है।
इसलिए हमने परमात्मा का त्रिमूर्ति की तरह प्रतीक निर्मित किया है। उसमें तीन मूर्तियां, तीन तरह के परमात्मा की धारणा की है। शिव, ब्रह्मा, विष्णु, वह हमने तीन धारणा की हैं। ब्रह्मा सर्जक है, स्रष्टा है। विष्णु सम्हालने वाला है। शिव विनष्ट कर देने वाला है। लेकिन त्रिमूर्ति का अर्थ तीन परमात्मा नहीं है। वे केवल तीन चेहरे हैं। मूर्ति तो एक है। वह अस्तित्व तो एक है, लेकिन उसके ये तीन ढंग हैं।
और वही ज्योतियों की ज्योति, माया से अति परे कहा जाता है। तथा वह परमात्मा बोधस्वरूप और जानने के योग्य है एवं तत्वज्ञान से प्राप्त होने वाला और सबके हृदय में स्थित है।
अविज्ञेय है, समझ में न आने वाला है, और फिर भी जानने योग्य वही है। ये बातें उलझन में डालती हैं। और लगता है कि एक—दूसरे का विरोध है। विरोध नहीं है। समझ में तो वह नहीं आएगा, अगर आपने समझदारी बरती। अगर आपने कोशिश की कि बुद्धि से समझ लेंगे, तर्क लगाएंगे, गणित बिठाएंगे, आर्ग्यू करेंगे, प्रमाण जुटाएंगे, तो वह आपकी समझ में नहीं आएगा। क्योंकि सभी प्रमाण आपके हैं, आपसे बड़े नहीं हो सकते। सभी तर्क आपके हैं, आपके अनुभव से ज्यादा की उनसे कोई उपलब्धि नहीं हो सकती। और सभी तर्क बांझ हैं, उनसे कोई अनुभव नहीं मिल सकता।
लेकिन जानने योग्य वही है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि जानने की कोई और कीमिया, कोई और प्रक्रिया हमें खोजनी पड़ेगी। बुद्धि उसे जानने में सहयोगी न होगी। क्या बुद्धि को छोड्कर भी जानने का कोई उपाय है? क्या कभी आपने कोई चीज जानी है, जो बुद्धि को छोड्कर जानी हो?
अगर आपके जीवन में प्रेम का कोई अनुभव हो, तो शायद थोड़ा—सा खयाल आ जाए। प्रेम के अनुभव में आप बुद्धि से नहीं जानते, कोई और ढंग है जानने का, कोई हार्दिक ढंग है जानने का।
मां अपने बेटे को बुद्धि के ढंग से नहीं जानती। सोचती नहीं उसके बाबत; जानती है। हृदय की धड़कन से जुड़कर जानती है। वह उसे पहचानती है। वह पहचान कुछ और मार्ग से होती है। वह मार्ग सीधा—सीधा खोपड़ी से नहीं जुड़ा हुआ है। वह शायद हृदय की धड़कन से और भाव, अनुभूति से जुड़ा हुआ है।
परमात्मा को जानने के लिए बुद्धि उपकरण नहीं है। बुद्धि को रख देना एक तरफ मार्ग है। इसलिए सारी साधनाएं बुद्धि को हटा देने की साधनाएं हैं। और बुद्धि को जो एक तरफ उतारकर रख दे, जैसे स्नान करते वक्त किसी ने कपड़े उतारकर रख दिए हों, ऐसा प्रार्थना और ध्यान करते वक्त कोई बुद्धि को उतारकर रख दे, बिलकुल निर्बुद्धि हो जाए, बिलकुल बच्चे जैसा हो जाए, बाल—बुद्धि हो जाए, जिसे कुछ बचा ही नहीं, सोच—समझ की कोई बात ही न रही, तो तत्क्षण संबंध जुड़ जाता है।
क्यों ऐसा होता होगा? ऐसा इसलिए होता है कि बुद्धि तो बहुत संकीर्ण है। बुद्धि का उपयोग है संसार में। जहां संकीर्ण की हम खोज कर रहे हैं, क्षुद्र की खोज कर रहे हैं, वहा बुद्धि का उपयोग है। लेकिन जैसे ही हम विराट की तरफ जाते हैं, वैसे ही बुद्धि बहुत संकीर्ण रास्ता हो जाती है। उस रास्ते से प्रवेश नहीं किया जा सकता है। उसको हटा देना, उसे उतार देना।
संतों ने न मालूम कितनी तरकीबों से एक ही बात सिखाई है कि कैसे आप अपनी बुद्धि से मुक्त हों। इसलिए बड़ी खतरनाक भी है। क्योंकि हमें तो लगता है कि बुद्धि को बचाकर कुछ करना है, बुद्धि साथ लेकर कुछ करना है, सोच—विचार अपना कायम रखना है। कहीं कोई हमें धोखा न दे जाए। कहीं ऐसा न हो कि हम बुद्धि को उतारकर रखें, और इसी बीच कुछ गड़बड़ हो जाए। और हम कुछ भी न कर पाएंगे।
तो बुद्धि को हम हमेशा पकड़े रहते हैं, क्योंकि बुद्धि से हमें लगता है, हमारा कंट्रोल है, हमारा नियंत्रण है। बुद्धि के हटते ही नियंत्रण खो जाता है। और हम सहज प्रकृति के हिस्से हो जाते हैं। इसलिए खतरा है और डर है। इस डर में थोड़ा कारण है। वह खयाल में ले लेना जरूरी है।
अगर आपको क्रोध आता है, तो बुद्धि एक तरफ हो जाती है। जब क्रोध चला जाता है, तब बुद्धि वापस आती है। और तब आप पछताते हैं। जब कामवासना पकड़ती है, तो बुद्धि एक तरफ हो जाती है। और जब काम कृत्य पूरा हो जाता है, तब आप उदास और दुखी और चिंतित हो जाते हैं कि फिर वही भूल की। कितनी बार सोचा कि नहीं करें, फिर वही किया। फिर बुद्धि आ गई।
एक बात खयाल रखें, प्रकृति भी तभी काम करती है, जब बुद्धि बीच में नहीं होती। आपके भीतर जो निम्न है, वह भी तभी काम करता है, जब बुद्धि नहीं होती। अगर आप बुद्धि को सजग रखें, तो आप क्रोध भी नहीं कर पाएंगे और कामवासना में भी नहीं उतर पाएंगे।
अगर दुनिया बिलकुल बुद्धिमान हो जाए तो संतान पैदा होनी बंद हो जाएगी, संसार उसी वक्त बंद हो जाएगा। क्योंकि नीचे की प्रकृति की भी सक्रियता तभी हो सकती है, जब आप बुद्धि का नियंत्रण छोड़ दें। क्योंकि प्रकृति तभी आपके भीतर काम कर पाती है, जब आपकी बुद्धि बीच में बाधा नहीं डालती।
वह जो श्रेष्ठ प्रकृति है, जिसको हम परमात्मा कहते हैं, वह भी तभी काम करता है, जब आपकी बुद्धि नहीं होती। पर इसमें एक खतरा है, जो समझ लेने जैसा है। वह यह कि चूंकि हम नीचे की प्रकृति से डरे हुए हैं, इसलिए बुद्धि के नियंत्रण को हम हमेशा कायम रखते हैं। हम डरे हुए हैं। अगर बुद्धि को छोड़ दें, तो क्रोध, हिंसा, कुछ भी हो जाए। अगर बुद्धि को हम छोड़ दें, तो हमारे भीतर की वासनाएं स्वच्छंद हो जाएं, तो हम तो अभी पागल की तरह न मालूम क्या कर गुजरें।
कितनी बार हत्या करने की सोची है बात! लेकिन बुद्धि ने कहा, यह क्या कर रहे हो? पाप है। जन्मों—जन्मों तक भटकोगे, नरक में जाओगे। और न भी गए नरक में, तो अदालत है, कोर्ट है, पुलिस है। और कहीं भी न गए, तो खुद की कासिएंस है, अंतःकरण है, वह कचोटेगा सदा, कि तुमने हत्या की। फिर क्या मुंह दिखाओगे? कैसे चलोगे रास्ते पर? कैसे उठोगे? तो बुद्धि ने रोक लिया है।
अगर आज कोई कहे कि बुद्धि का नियंत्रण छोड़ दो, तो पहला खयाल यही आएगा, अगर नियंत्रण छोड़ा कि उठाई तलवार और किसी की हत्या कर दी। क्योंकि वह तैयार बैठा है भाव भीतर। नीचे की प्रकृति के डर के कारण हम बुद्धि को नहीं छोड़ पाते। और हमें ऊपर की प्रकृति का कोई पता नहीं है। क्योंकि वह भी बुद्धि के छोड़ने पर ही काम करती है।
इसे हम ऐसा भी समझें। अगर कोई आदमी बीमार हो, तो चिकित्सक पहली फिक्र करते हैं कि उसको नींद ठीक से आ जाए। क्योंकि वह जगा रहता है, तो शरीर की प्रकृति को काम नहीं करने देता, बाधा डालता रहता है। नींद आ जाए, तो शरीर अपना काम पूरा कर ले, प्रकृति उसके शरीर को ठीक कर दे, उसके घाव भर दे; उसकी बीमारी को दूर कर दें।
इसलिए चिकित्सक की पहली चिंता होती है कि मरीज सो जाए। बाकी काम दूसरा है, नंबर दो पर है। दवा वगैरह नंबर दो पर है। पहला काम है कि मरीज सो जाए। क्यों इतनी चिंता है? क्योंकि मरीज की बुद्धि दिक्कत दे रही है। सो जाए, तो प्रकृति काम कर सके।
आप भी जब सोते हैं, तभी आपका शरीर स्वस्थ हो पाता है। दिनभर में आप उसको अस्वस्थ कर लेते हैं।
आपको पता है, बच्चा जब पैदा होता है तो बाईस घंटे सोता है, बीस घंटे सोता है। और मां के पेट में नौ महीने चौबीस घंटे सोता है। फिर जैसे—जैसे उम्र बड़ी होने लगती है, नींद कम होने लगती है। फिर बुजुर्ग और कम सोता है। फिर बुढ़ापे में कोई आदमी दो ही घंटे, तीन घंटे ही सो ले, तो बहुत।
के बहुत परेशान होते हैं। सत्तर साल के बूढ़े भी मेरे पास आ जाते हैं। वे कहते हैं, कुछ नींद का रास्ता बताइए।
नींद की आपको जरूरत नहीं रही है अब। जैसे—जैसे शरीर मरने के करीब पहुंचता है, प्रकृति शरीर में काम करना कम कर देती है। उसकी जरूरत नहीं है। बनाने का काम बंद हो जाता है।
बच्चा चौबीस घंटे सोता है, क्योंकि प्रकृति को बनाने का काम करना है। अगर बच्चा जग जाए, तो बाधा डालेगा। उसकी बुद्धि बीच में आ जाएगी। वह कहेगा, टांग जरा लंबी होती, जो अच्छा था। नाक जरा ऐसी होती, तो अच्छा था। आंख जरा और बड़ी होती, तो मजा आ जाता। वह गडबड़ डालना शुरू कर देगा।
तो नौ महीने प्रकृति उसको एक दफे भी होश नहीं देती। बेहोश, प्रकृति अपना काम करती है। जैसे ही बच्चा पूरा हो जाता है, बाहर आ जाता है। लेकिन तब भी बाईस घंटे सोता है। अभी बहुत काम होना है। अभी उसकी पूरी जिंदगी की तैयारी होनी है।
जैसे ही बच्चे के शरीर का काम पूरा हो जाता है, वैसे ही नींद एक जगह आकर रुक जाती है—छ घंटा, सात घंटा, आठ घंटा। काम प्रकृति का पूरा हो गया। अब ये आठ घंटे तो रोज के काम के लिए हैं। रोज में आप शरीर को जितना तोड़ लेंगे, उतना प्रकृति रात में पूरा कर देगी। दूसरे दिन आप सुबह ताजा होकर काम में लग जाएंगे। बूढा तो अब मरने के करीब है, उसको तीन घंटा भी जरूरत से ज्यादा है। क्योंकि अब प्रकृति कुछ बना नहीं रही है, सिर्फ तोड़ रही है। इसलिए नींद कम होती जा रही है।
प्रकृति भी काम करती है, जब आप बुद्धि से बीच में बाधा नहीं डालते। यह मैं इसलिए उदाहरण दे रहा हूं कि जो नीचे की प्रकृति के संबंध में सच है, वही ऊपर की प्रकृति के संबंध में भी सच है। जब आप परमात्मा को भी बाधा नहीं डालते और बुद्धि को हटा लेते हैं, तब वह भी काम करता है। लेकिन नीचे के भय के कारण हम ऊपर से भी भयभीत होते हैं। नीचे के डर के कारण, हम ऊपर की तरफ भी नहीं खुलते।
इसलिए मेरा कहना है कि प्रकृति को भी परमात्मा का बाह्य रूप समझें। उससे भी भयभीत न हों। उससे भी भयभीत न हों, उसमें भी उतरें। उससे भी डरें मत। उससे भी भागें मत। उसको भी घटने दें। उसमें भी बाधा मत डालें और नियंत्रण मत बनाएं। बिना बाधा डाले, बिना नियंत्रण बनाए, होश को कायम रखें। वह अलग बात है। फिर वह बुद्धि नहीं है।
बुद्धि का अर्थ है, बाधा डालना, नियंत्रण करना। ऐसा न हो, ऐसा हो। उपाय करना। होश का अर्थ है, साक्षी होना। हम कोई बाधा न डालेंगे। अगर क्रोध आ रहा है, तो हम क्रोध के भी साक्षी हो जाएंगे। और कामवासना आ रही है, तो हम कामवासना के भी साक्षी हो जाएंगे। हम देखेंगे, हम बीच में कुछ निर्णय न करेंगे कि अच्छा है, कि बुरा है, होना चाहिए, कि नहीं होना चाहिए; मैं रोकू? कि न रोकूं; करूं, कि न करूं, हम कुछ भी निर्णय न लेंगे। हम सिर्फ शांत देखेंगे, जैसे दूर खड़ा हुआ कोई आदमी चलते हुए रास्ते को देख रहा हो। आकाश में पक्षी उड रहे हों और आप देख रहे हों, ऐसा हम देखेंगे।
नीचे की प्रकृति को भी दर्शन करना सीखें, तो बुद्धि हटेगी और साक्षी जगेगा। और जब नीचे का भय न रह जाएगा, तो आप ऊपर की तरफ भी बुद्धि को हटाकर रख सकेंगे। क्योंकि आपको भरोसा आ जाएगा कि बुद्धि को ढोने की कोई भी जरूरत नहीं है। और जैसे ही बुद्धि हटती है, परमात्मा शांत होना शुरू हो जाता है।
वह अविज्ञेय है बुद्धि से। लेकिन बुद्धि के हटते ही प्रज्ञा से, साक्षी भाव से वही ज्ञान योग्य है, वही जानने योग्य है, वही अनुभव योग्य है।
आखिरी बात इस संबंध में खयाल ले लें, क्योंकि साक्षी का सूत्र बहुत मूल्यवान है। और अगर आप साक्षी के सूत्र को ठीक से समझ लें, तो परमात्मा का कोई भी रहस्य आपसे अनजाना न रह जाएगा। और इस साक्षी के सूत्र को समझने के लिए छोटा—छोटा प्रयोग करें। कुछ भी छोटा—मोटा काम कर रहे हों, तो कर्ता बनकर मत करें, साक्षी बनकर करें, ताकि थोड़ा अनुभव होने लगे कि देखने वाले का अनुभव क्या है।
भोजन कर रहे हैं। साक्षी हो जाएं। अचानक खयाल आए, एक गहरी श्वास लें और देखने लगें कि आप देख रहे हैं अपने शरीर को भोजन करते हुए। पहले थोड़ी अड़चन होगी, थोड़ा—सा विचित्र मालूम पड़ेगा, क्योंकि दो की जगह तीन आदमी हो गए। अभी भोजन था, करने वाला था, भूख थी, करने वाला था। अब एक यह तीसरा और आ गया, देखने वाला।
यह देखने वाले की वजह से थोड़ी कठिनाई होगी। एक तो भोजन करना धीमा हो जाएगा। आप ज्यादा चबाके, आहिस्ता उठाएंगे। क्योंकि यह देखने वाले की वजह से क्रियाओं में जो विक्षिप्तता है, वह कम हो जाती है। शायद इसीलिए हम देखने वाले को बीच में नहीं लाते, क्योंकि जल्दी ही डालकर भागना है। किसी तरह अंदर कर देना है भोजन को और निकल पड़ना है।
अगर आप चलेंगे भी होशपूर्वक, तो आप पाएंगे, आपकी गति धीमी हो गई।
बुद्ध चलते हैं। उनके चलने की गति ऐसी शांत है, जैसे कोई परदे पर फिल्म को बहुत धीमी स्पीड में चला रहा हो; बहुत आहिस्ता है। बुद्ध से कोई पूछता है कि आप इतने धीमे क्यों चलते हैं? तो बुद्ध ने कहा कि उलटी बात है। तुम मुझ से पूछते हो कि मैं इतना धीमा क्यों चलता हूं! मैं तुमसे पूछता हूं कि तुम पागल की तरह क्यों चलते हो? यह इतना ज्वर, इतना बुखार चलने में क्यों है? चलने में इतनी विक्षिप्तता क्यों है? मैं तो होश से चलता हूं तो सब कुछ धीमा हो जाता है।
ध्यान रहे, जितना होश होगा, उतनी आपकी क्रिया धीमी हो जाएगी। और जितना कर्ता शून्य होगा, उतना क्रियाओं में से उन्माद, ज्वर चला जाएगा; क्रियाएं शांत हो जाएंगी।
और ध्यान रहे, शांत क्रियाओं से पाप नहीं किया जा सकता। अगर आप किसी की हत्या करने जा रहे हैं और धीमे— धीमे जा रहे हैं, तो पक्का समझिए, हत्या—वत्या नहीं होने वाली है। अगर आप किसी का सिर तोड्ने को खड़े हो गए हैं और बड़े आहिस्ता से तलवार उठा रहे हों, तो इसके पहले कि तलवार उसके सिर में जाए, म्यान में वापस चली जाएगी।
उतने धीमे पाप होता ही नहीं। पाप के लिए ज्वर, त्वरा, तेजी चाहिए। और जो आदमी तेजी से जी रहा है, वह चाहे पाप कर रहा हो, न कर रहा हो, उससे बहुत पाप अनजाने होते रहते हैं। उसकी तेजी से ही होते रहते हैं। उसके ज्वर से ही हो जाते हैं। ज्वर ही पाप है।
बुद्ध कहते हैं, जैसे ही होश से करोगे, सब धीमा हो जाएगा। रास्ते पर चलते वक्त अचानक खयाल कर लें; एक गहरी श्वास लें, ताकि खयाल साफ हो जाए और धीमे से देखें कि आप चल रहे हैं।
खाली बैठे हैं; आंख बंद कर लें और देखें कि आप बैठे हुए हैं। आंख बंद करके बराबर आप देख सकते हैं कि आपकी मूर्ति बैठी हुई है। एक पैर की तरफ से देखना शुरू करें कि पैर की क्या हालत है। दब गया है। परेशान हो रहा है। चींटी काट रही है। ऊपर की तरफ बढ़े। पूरे शरीर को देखें कि आप देख रहे हैं। आप देखते—देखते ही बड़ी गहरी शांति में उतर जाएंगे, क्योंकि देखने में आदमी साक्षी हो जाता है।
रात बिस्तर पर लेट गए हैं। सोने के पहले एक पांच मिनट आंख बंद करके पूरे शरीर को भीतर से देख लें।
शायद आपको पता हो या न हो, पश्चिम तो अभी एनाटॉमी की खोज कर पाया है कि आदमी के शरीर में क्या—क्या है। क्योंकि उन्होंने सर्जरी शुरू की, आदमी को काटना शुरू किया। यह कोई तीन सौ साल में ही आदमी को काटना संभव हो पाया, क्योंकि दुनिया का कोई धर्म लाश को काटने के पक्ष में नहीं था। तो पहले सर्जन जो थे, वे चोर थे। उन्होंने लाशें चुराई मुरदाघरों से, काटा, आदमी को भीतर से देखा। लेकिन योग हजारों साल से भीतर आदमी के संबंध में बहुत कुछ जानता है।
अब ये पश्चिम के सर्जन कहते हैं कि पूरब में योग को कैसे पता चला आदमी के भीतर की चीजों का? वह पता काटकर नहीं चला है। वह योगी के साक्षी भाव से चला है।
अगर आप भीतर साक्षी भाव से प्रवेश करें और घूमने लगें, तो थोड़े दिन में आप अपने शरीर को भीतर से देखने में समर्थ हो जाएंगे। आप भीतर का हड्डी, मांस—मज्जा, स्नायु—जाल सब भीतर से देखने लगेंगे। और एक बार आपको भीतर से शरीर दिखाई पड़ने लगे, कि आप शरीर से अलग हो गए। क्योंकि जिसने भीतर से शरीर को देख लिया, वह अब यह नहीं मान सकता कि मैं शरीर हूं। वह देखने वाला हो गया, वह द्रष्टा हो गया।
चौबीस घंटे में जब भी आपको मौका मिल जाए, कोई भी क्रिया में, साक्षी को सम्हाले। साक्षी के सम्हालते दो परिणाम होंगे। क्रिया धीमी हो जाएगी, कर्ता क्षीण हो जाएगा; और विचार और बुद्धि कम होने लगेंगे, विचार शांत होने लगें। बुद्धि का ऊहापोह बंद हो जाएगा।
कोई छोटा—सा प्रयोग। कुछ नहीं कर रहे हैं; श्वास को ही देखें। श्वास भीतर गई, बाहर गई। श्वास भीतर गई, बाहर गई। आप उसको ही देखें
लोग मुझसे पूछते हैं, कोई मंत्र दे दें। मैं उनसे कहता हूं मंत्र वगैरह न लें। एक मंत्र परमात्मा ने दिया है, वह श्वास है। उसको देखें। श्वास पहला मंत्र है। बच्चा पैदा होते ही पहला काम करता है श्वास लेने का। और आदमी जब मरता है, तो आखिरी काम करता है श्वास छोड़ने का। श्वास से घिरा है जीवन।
जन्म के बाद पहला काम श्वास है; वह पहला कृत्य है। आप श्वास लेकर ही कर्ता हुए हैं। इसलिए अगर आप श्वास को देख सकें, तो आप पहले कृत्य के पहले पहुंच जाएंगे। आपको उस जीवन का पता चलेगा, जो श्वास लेने के भी पहले था, जो जन्म के पहले था।
अगर आप श्वास को देखने में समर्थ हो जाएं, तो आपको पता चल जाएगा कि मृत्यु शरीर की होगी, श्वास की होगी, आपकी नहीं होने वाली। आप श्वास से अलग हैं।
बुद्ध ने बहुत जोर दिया है अनापानसती—योग पर, श्वास के आने—जाने को देखने का योग। वे अपने भिक्षुओं को कहते थे, तुम कुछ भी मत करो, बस एक ही मंत्र है, श्वास भीतर गई, इसको देखो; श्वास बाहर गई, इसको देखो। और जोर से मत लेना। कुछ करना मत श्वास को, सिर्फ देखना। करने का काम ही मत करना। सिर्फ देखना।
आंख बंद कर ली, श्वास ने नाक को स्पर्श किया, भीतर गई, भीतर गई। भीतर पेट तक जाकर उसने स्पर्श किया। पेट ऊपर उठ गया। फिर श्वास वापस लौटने लगी। पेट नीचे गिर गया। श्वास वापस आई। श्वास बाहर निकल गई। फिर नई श्वास शुरू हो गई। यह वर्तुल है। इसे देखते रहना।
अगर आप रोज पंद्रह—बीस मिनट सिर्फ श्वास को ही देखते रहें, तो आप चकित हो जाएंगे, बुद्धि हटने लगी। साक्षी जगने लगा। आंख खुलने लगी भीतर की। हृदय के द्वार, जो बंद थे जन्मों से, खुलने लगे, सरकने लगे। उस सरकते द्वार में ही परमात्मा की पहली झलक उपलब्ध होती है।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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