मंगलवार, 18 जून 2024

 महाभारत में वर्तमान कलियुग तक की घटनाओं का विवरण मिलता है। इसी युग के प्रारम्भ में आज से लगभग ५,००० वर्ष पूर्व भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने मित्र तथा भक्त अर्जुन को भगवद्गीता सुनाई थी।

उनकी यह वार्ता, जो मानव इतिहास की सबसे महान दार्शनिक तथा धार्मिक वार्ता है, उस महायुद्ध के शुभारम्भ के पूर्व हुई, जो धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों तथा उनके चचेरे भाई पाण्डवों के मध्य होने वाला था।

धृतराष्ट्र तथा पाण्डु भाई-भाई थे जिनका जन्म कुरुवंश में हुआ था और जो राजा भरत के वंशज थे, जिनके नाम पर ही महाभारत नाम पड़ा। चूँकि बड़ा भाई धृतराष्ट्र जन्म से अंधा था, अतएव राजसिंहासन उसे न मिलकर उसके छोटे भाई पाण्डु को मिला।

पाण्डु की मृत्यु बहुत ही कम आयु में हो गई, अतएव उसके पाँच पुत्र- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव धृतराष्ट्र की देखरेख में रख दिये गये, क्योंकि उसे कुछ काल के लिए राजा बना दिया गया था। इस तरह धृतराष्ट्र तथा पाण्डु के पुत्र एक ही राजमहल में बड़े हुए। दोनों ही को गुरु द्रोण द्वारा सैन्यकला का प्रशिक्षण दिया गया और पूज्य भीष्म पितामह उन्हें सलाह देते रहते थे।

 धृतराष्ट्र का सबसे बड़ा पुत्र दुर्योधन पाण्डवों से घृणा और ईर्ष्या करता था और अन्धा तथा दुर्बलहृदय धृतराष्ट्र पाण्डुपुत्रों के बजाय अपने पुत्रों को राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। इस तरह धृतराष्ट्र के परामर्श से दुर्योधन ने पाण्डु के युवा पुत्रों को जान से मार डालने का षड्यन्त्र रचा। पाँचों पाण्डव अपने चाचा विदुर तथा अपने ममेरे भाई कृष्ण के संरक्षण में रहने के कारण अपने प्राणों की रक्षा करते रहे।

कृष्ण कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, अपितु साक्षात् परम ईश्वर हैं जिन्होंने इस धराधाम में अवतार लिया था और अब एक राजकुमार की भूमिका अदा कर रहे थे। वे पाण्डु की पत्नी कुन्ती  के भतीजे थे। इस तरह सम्बन्धी के रूप में तथा धर्म के पालक होने के कारण वे पाण्डुपुत्रों का पक्ष लेते रहे और उनकी रक्षा करते रहे।

किन्तु अन्ततः चतुर दुर्योधन ने पाण्डवों को जुआ खेलने के लिए ललकारा । उस निर्णायक स्पर्धा में दुर्योधन तथा उसके भाइयों ने पाण्डवों की सती पत्नी द्रौपदी पर अधिकार प्राप्त कर लिया और फिर उसे राजाओं तथा राजकुमारों की सभा के मध्य निर्वस्त्र करने का प्रयास किया। कृष्ण के दैवी हस्तक्षेप से उसकी रक्षा हो सकी, किन्तु जुए में हार जाने के कारण पाण्डवों को अपने राज्य से हाथ धोना पड़ा और तेरह वर्ष के लिए  वनवास  जाना पड़ा।

वनवास से लौटकर पाण्डवों ने दुर्योधन से अपना राज्य माँगा, किन्तु उसने देने से इनकार कर दिया। पाँचों पाण्डवों ने अन्त में अपना पूरा राज्य न माँगकर केवल पाँच गाँवों की माँग रखी, किन्तु दुर्योधन सुई की नोक भर भी भूमि देने के लिए राजी नहीं हुआ ।

अभी तक तो पाण्डव सहनशील बने रहे, लेकिन अब उनके लिए युद्ध करना अवश्यम्भावी हो गया।

विश्वभर के राजकुमारों में से कुछ धृतराष्ट्र के पुत्रों के पक्ष में थे, तो कुछ पाण्डवों के पक्ष में। उस समय कृष्ण पाण्डुपुत्रों के संदेशवाहक बनकर शान्ति की याचना के लिए धृतराष्ट्र के दरबार में गये। जब उनकी याचना अस्वीकृत हो गई, तो युद्ध निश्चित था।

अत्यन्त सच्चरित्र पाँचों पाण्डवों ने कृष्ण को भगवान् के रूप में पहचान लिया था, किन्तु धृतराष्ट्र के दुष्ट पुत्र उन्हें नहीं समझ पाये थे। फिर भी कृष्ण ने विपक्षियों की इच्छानुसार ही युद्ध में सम्मिलित होने का प्रस्ताव रखा। ईश्वर के रूप में वे युद्ध नहीं कर सकते थे, किन्तु जो भी उनकी सेना का उपयोग करना चाहे, कर सकता था। राजनीति में कुशल दुर्योधन ने कृष्ण की सेना झपट ली, जबकि पाण्डवों ने कृष्ण को लिया। इस प्रकार कृष्ण अर्जुन के सारथी बने और उन्होंने उस सुप्रसिद्ध धनुर्धर का रथ हाँकना स्वीकार किया। इस तरह हम उस बिन्दु तक पहुँच जाते हैं जहाँ से भगवद्‌गीता का शुभारम्भ होता है- दोनों ओर की सेनाएँ युद्ध के लिए तैयार खड़ी हैं और धृतराष्ट्र अपने सचिव सञ्जय से पूछ रहा है कि उन सेनाओं ने क्या किया ?






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