सोमवार, 29 अगस्त 2022

पतन या विकास 1

वेदों में होमापक्षी की कथा है। यह चिड़िया आकाश में बहुत ऊंचे पर रहती है। वहीं पर अंडे देती है। अंडा देते ही वह गिरने लगता है। परंतु इतने ऊंचे से गिरता है कि गिरते—गिरते बीच में ही फूट जाता है। तब बच्चा गिरने लगता है। गिरते—गिरते ही उसकी आंखें खुलती हैं और पंख निकल आते हैं। आंखें खुलने से जब वह बच्चा देखता है कि मैं गिर रहा हूं और जमीन पर गिर कर चूर—चूर हो जाऊंगा, तब वह एकदम अपनी मां की ओर फिर ऊंचे चढ़ जाता है। 

 यह कथा किसी पक्षी की कथा नहीं, मनुष्य की कथा है। मनुष्य के पतन, मनुष्य के बोध की कथा है। ऐसा ही मनुष्य है। आकाश में हमारा घर है, ऊंचाइयों पर हमारा घर है, लेकिन जन्म के साथ ही हम गिरना शुरू हो जाते हैं। गिरने का कोई अंत नहीं है। क्योंकि खाई अतल है। कोई तल नहीं है खाई का। हम गिरते जा सकते हैं और गिरते जा सकते हैं। ऐसी कोई सीमा नहीं है जहां अनुभव में आए कि बस इसके आगे गिरना और नहीं हो सकता। और भी हो सकता है, और भी हो सकता है।

गिरने का कोई अंत नहीं है। गिरते ही गिरते किसी दिन आंख खुलती है। गिरने की चोट से ही आंख खुलती है। गिरने की पीड़ा से ही आंख खुलती है। और उसी आंख के खुलने में मनुष्य को अपने घर की याद आनी शुरू  होती है। उस आंख का खुलना है—दर्शन, दृष्टि। नहीं तो हम अंधे हैं। ये बाहर की आंखें खुली हैं इससे यह मत सोच लेना कि तुम्हारे पास आंखें हैं। 

हमारी आंखें वैसी ही हैं जैसे तुमने मोर के पंख पर बनी आंखें देखी हों। उनसे दिखाई कुछ नहीं पड़ता, आंखें भर हैं। हमारी आंखें मोरपंखी हैं। चित्रित हैं। दिखता कुछ नहीं है, सूझता कुछ नहीं है, बुझता कुछ नहीं है। टटोल—टटोल कर गिरते—उठते हम चलते रहते हैं। आंख तो तब है जब तुम्हें अपने घर की याद आ जाए।

आंख तो तब है जब तुम्हें ऊंचाई का स्मरण आ जाए। तुम कहां से आए हो, किस स्रोत से आए हो, जब उसकी प्रतीति सघन हो जाए, तब समझना कि आंख खुली। और उसी क्षण क्रांति शुरू हो जाती है। उसी क्षण अनुलोम समाप्त हुआ, विलोम प्रारंभ हुआ। उसी क्षण हम परमात्मा से दूर जाने के बजाय उसके पास आने शुरू हो जाते हैं। और पंख हमारे पास हैं, आंख हमारे पास नहीं है। आंख हो तो हम पंखों का सम्यक उपयोग कर लें। शक्ति हमारे पास है, दृष्टि हमारे पास नहीं है। इसलिए हमारी शक्ति आत्मघाती हो जाती है।   मनुष्य ही अपना मित्र और मनुष्य ही अपना शत्रु है। शत्रु तब तक जब तक आंख नहीं। तब तक हाथ में आई हुई ऊर्जा भी आत्मघाती सिद्ध होती है। और मित्र उस दिन से जिस दिन आंख खुली। 

यहां पूरी चेष्टा यही है कि तुम्हें यह स्मरण आ जाए कि तुम्हारे पास आंख अभी है नहीं। तुम्हें स्मरण आ जाए कि तुम्हारा जो ज्ञान है थोथा है, झूठा है। तुम्हें ये स्मरण आ जाए कि जिसे तुमने जीवन समझा है, वह सपने से ज्यादा नहीं है और इससे तुम कुछ निकाल न पाओगे। जैसे कोई रेत से तेल निकालने की कोशिश कर रहा है, ऐसे ही जीवन में हारोगे। विषाद में मरोगे। ये आशाएं जो तुमने संजो रखी हैं, कोई भी काम आनेवाली नहीं हैं। क्योंकि इन आशाओं का अस्तित्व से कोई सामंजस्य नहीं है। ये तुम्हारे निजी सपने हैं। ये सपने पूरे नहीं हो सकते। अस्तित्व का सहयोग मिले तो कोई चीज पूरी हो सकती है। और अस्तित्व का सहयोग तभी मिलता है कि जब तुम्हारा अहंकार मरता है। अहंकार गिराता है, निर—अहंकार उठाता है। अहंकार अंधापन है, निर— अहंकार आंख है।

यह होमा बहुत ऊंचे आकाश में रहता है। ये तो प्रतीक हैं। हम ऊंचाई से आते हैं।

चार्ल्स डार्विन ने पश्चिम में एक विचार प्रतिपादित किया—विकासवाद का। वह विचार समस्त धर्मों के विपरीत है। विकासवाद का अर्थ होता है—हम नीचाई से ऊपर की तरफ आ रहे हैं। पतन नहीं हो रहा है, विकास हो रहा है। समस्त बुद्धों ने इससे भिन्न बात कही है। उन्होंने कहा है—मनुष्य का पतन हुआ है, हम ऊंचाई से नीचाई की तरफ आ रहे हैं। बुद्धों ने कहा है कि हम परमात्मा से नीचे गिरे हैं! यह हमारा पतन है। डार्विन ने कहा है—हम बंदरों से ऊपर उठे हैं। यह हमारा विकास है। बुद्धों ने कहा, परमात्मा हमारा पिता है और चार्ल्स डार्विन कहता है—बंदर हमारे पिता हैं। चार्ल्स डार्विन की बात के पीछे भी थोड़ा बल है; नहीं तो जीतती नहीं बात। ऊपर से देखने में ऐसा ही लगता कि डार्विन ही ठीक है, विकास हो रहा है, देखो बैलगाड़ी की जगह हवाई जहाज, तो विकास हो गया। यह जीवन को एक तरह से देखने का ढंग हुआ। तलवार की जगह एटम बम, यह विकास हो गया। लेकिन बुद्धों से पूछो। बुद्ध कहते हैं—तलवार जिसने खोजी थी और जिसने एटम बम खोजा है, इनमें विकास नहीं हुआ है, पतन हो गया, क्योंकि तलवार छोटी—मोटी हिंसा की खबर देती थी, एटम बम विराट हिंसा की खबर देता है। जिन्होंने तलवार से काम चला लिया था, वे बहुत बड़े हिंसक नहीं थे। हमारा तो एटम बम से भी काम नहीं चलता है। तो हाइड्रोजन बम! और अब और आगे बात चल रही है कि हम और भी नए बम खोज लें। हमारी चेष्टा यह है कि एक ही बम सारी पृथ्वी को डुबाने में समर्थ हो जाए। ये विकास है?

आदमी और विकृत हो गया।

जिंदगी को देखने के ढंग पर सब निर्भर करता है, तुम कैसे देखते हो।

आज लोग ज्यादा पढ़े—लिखे हैं, निश्चित। आज से दस हजार साल पहले गैर पढ़े—लिखे लोग थे। कोई लिखना नहीं जानता था, कोई पढ़ना नहीं जानता था। इस हिसाब से देखो तो आज का आदमी विकसित है। किताब पढ़ लेता है, अखबार पढ़ लेता है। लेकिन दस हजार साल पहले जो आदमी था, वह ज्यादा शांत था, ज्यादा आनंदित था, ज्यादा प्रफुल्लित था। उसके जीवन में एक राग था, एक छंद था। वह सब छंद खो गया। उस छंद को देखो तो पतन हो गया है। अखबार की कतरनें बढ़ती चली गई हैं, छंद खोता चला गया है। पढ़ाई—लिखाई हो गई बहुत, मस्तिष्क में बहुत—सी सूचनाएं संगृहीत हो गई और हृदय बिलकुल सिकुड़ गया है। अगर मस्तिष्क को देखो, तो मात्रा बढ़ी है, मात्रा का विकास हुआ है। लेकिन अगर हृदय को देखो तो गुण गिरा है गुण का पतन हुआ है।

मूल्यवान क्या है—गुण या मात्रा? 

अगर आदमी को देखो तो कभी झोपड़ी में रहता था, फिर अच्छे मकानों में रहा, अब महलों में रह रहा है। आज गरीब से गरीब आदमी जो कपड़े पहने हुए हैं, वे सम्राटों को उपलब्ध नहीं थे। अशोक और अकबर के पास तुम जैसे अच्छे कपड़े नहीं थे। बिजली का पंखा नहीं था। न रेडियो था, न टेलीविजन था। आज गरीब से गरीब आदमी भी एक अर्थ में अशोक और अकबर से ज्यादा आगे हैं—विकसित हैं। चीजें बढ़ गइ।

आदमी के पास परिग्रह का विस्तार बढ़ गया। लेकिन परिग्रह के विस्तार को बढ़ाने वाला आदमी विकसित आदमी है? यह सवाल है। क्योंकि जितना परिग्रह बढ़ता है, उतनी चिंता बढ़ती है। उतनी अशांति बढ़ती है, उतनी बेचैनी बढ़ती है, उतनी विक्षिप्तता बढ़ती है। चीजों की गिनती कर रहे हो, तो विकास मालूम होता है। लेकिन चीजों का विकास क्या आदमी का विकास है?

लोग कहते हैं जीवन—स्तर बढ़ गया। स्टैंड़र्ड आफ लाइफ। अच्छा मकान है। अच्छी सड़कें हैं, अच्छे कपड़े हैं, अच्छी दवाइयां हैं—जीवन स्तर बढ़ गया। इसको जीवन—स्तर कहते हो? बस, इतने पर जीवन समाप्त हो जाता है? जीवन गुण की बात है।

डार्विन की बात अगर हम केवल मात्रा को सोचें तो ठीक मालूम होती है। अगर भीतर के गुणों को सोचें तो ठीक नहीं मालूम होती।

यह होमा की कथा मनुष्य की चेतना के निरंतर पतन की कथा है।

इसलिए इस देश में हमने जो विभाजन किया है, वह देखते हो? चार कालों में समय को बांटा है। पहला काल, सतयुग। फिर द्वापर। फिर त्रेता। फिर कलि। श्रेष्ठतम युग पहले। फिर प्रतिक्षण पतन होता जाता है। फिर एक—एक टांग टूटती जाती है। आदमी अपंग होकर गिर पड़ता है कलि में। दोनों हाथ, दोनों पैर, सब टूट गए। इसके पीछे बड़ा गहरा मनोविज्ञान है। इसे तुम एक—एक आदमी की जिंदगी में भी देख सकते हो।

बच्चा पैदा होता है, तब वह सतयुग में होता है। बच्चे के जीवन में श्रद्धा होती है, सरलता होती है, निर्दोष भाव होता है। सौंदर्य होता है। आह्लाद होता है। आश्चर्यविमुग्ध बच्चा जीता है। छोटे बच्चे को देखो, अभी— अभी ताजे पैदा हुए बच्चे को देखो! वह सतयुग में है। सतयुग के लिए तुम्हें दार्शनिक सिद्धातों में जाने की जरूरत नहीं है, छोटे बच्चे को देखो, वह सतयुग में है। फिर धीरे— धीरे पतन शुरू होता है। अहंकार पैदा होगा। पतन शुरू हुआ। फिर परिग्रह बढ़ेगा। पतन और शुरू हुआ। और आखिर में तुम एक आदमी को देखो, बुढ़ापे में, वह कलियुग है। सब यंत्रवत हो जाता है। जिंदगी बोझ हो जाती है। बूढ़ा आदमी मशीन की तरह हो जाता है। जीता है किसी तरह, सांस लेता किसी तरह, अब मरने की तैयारी है, मरने के सिवाय और कोई भविष्य नहीं है।

इसलिए इस देश में हमने कहा है कि कलियुग के बाद प्रलय हो जाएगी। मृत्यु! कलियुग के बाद फिर कोई और समय नहीं बचता, मृत्यु ही बचती है। यह आदमी के सामान्य प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की कहानी है। और जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की कहानी है, वही मनुष्य जाति की भी कहानी है।

होमापक्षी गिरना शुरू होता है ऊंचाई से, परमात्मा के घर से। पहले अंडे में छिपा होता है। फिर अंडा भी टूट जाता है—गिरते—गिरते—गिरते। फिर पंख भी निकल आते हैं—गिरते—गिरते—गिरते। फिर आंख भी खुल जाती है—गिरते—गिरते। और जब आंख खुलती है तब उसे समझ में आता है कि क्या हो रहा है! जब तक आंख नहीं खुली थी, तब तक शायद वह सपना देखता हो कि मैं ऊंचाइयों पर जा रहा हूं, विकास हो रहा है। कि मैं अपनी मां को कितना पीछे छोड़ आया! हर बच्चा ऐसा ही सोचता है कि मैं अपने मां—बाप को कितना पीछे छोड़ आया!

ओशो रजनीश 




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