बुधवार, 31 अगस्त 2022

पतन या विकास 2

 पश्चिम के बहुत हंसोड़ लेखक मार्क टवेन ने लिखा है कि मैं जब सत्रह साल का था और विश्वविद्यालय से पहली दफा घर आया, तो मुझे लगा—अरे, मेरे माता—पिता कितने गंवार हैं! फिर जब मैं चौबीस वर्ष का हो गया और विश्वविद्यालय से सारी शिक्षाएं पूरी कर के लौटा, तब मैं बड़ा चकित हुआ कि इन सात—आठ सालों में मेरे मां—बाप ने बड़ा विकास कर लिया, ये बड़े बुद्धिमान हो गए। जैसे—जैसे समझ बढ़ी वैसे—वैसे माता—पिता में बुद्धिमत्ता दिखाई पड़ी। जितनी समझ कम थी, उतने माता—पिता बुद्ध मालूम होते थे। जवानी में हर युवक सोचता है कि मां—बाप मेरे मूढ़ हैं।

क्यों? 

सोचता है मैं विकास कर रहा हूं। मैं आगे जा रहा हूं। मेरे मां—बाप को पता क्या है? ये अभी भी पुराने ढर्रे के लोग अभी भी पुरानी रूढ़ि में चल रहे हैं और जी रहे हैं। इन्हें कुछ पता नहीं है। जिंदगी कहां से कहां चली गई, इन्हें कुछ पता नहीं है। जवानी में हर आदमी क्रांतिकारी होता है और सोचता है कि मैं जिंदगी को बड़े आगे ले जा रहा हूं। वह सिर्फ जवानी का भ्रम है। पक्षी जब तक उसकी आंखें बंद हैं यही सोचता होगा कि मैं आगे बढ़ता जा रहा हूं कितना आगे बढ़ता जा रहा हूं! कितना दूर निकल आया, मां बाप को कितने पीछे छोड़ आया! बेचारी मां, वहीं के वहीं हैं। जब आंख खुलती है, तब उसे पता चलता है कि मैं दूर तो निकल आया लेकिन आगे नहीं निकल आया हूं। दूर निकल आना अनिवार्यरूप से आगे निकल जाना नहीं है। दूर निकल जाना गिरना भी हो सकता है, उठना भी हो सकता है। और उठना तो आंख खुलने के बाद ही संभव है। क्योंकि आंख खुली हो तभी पंखों का सदुपयोग हो सकता है।

अब तुम होमापक्षी को खोजने मत निकल जाना! नहीं तो कहीं नहीं मिलेगा। यह बात हो ही नहीं सकती कि इतनी ऊंचाई पर मां अंडा दे। ऊंचाई पर रहेगी कैसे? घोंसला कहां बनाएगी? अंडे को रखेगी कहां? इतनी ऊंचाई तो कोई भी नहीं है जहां से अंडा गिरे और गिरते ही गिरते, गिरते ही गिरते पक्षी निकल आए; और गिरते ही गिरते, गिरते ही गिरते पंख निकल आएं; और गिरते ही गिरते, गिरते ही गिरते आंखें खुल जाएं, ऐसी तो कोई ऊंचाई नहीं है। यह प्रतीक कथा है। सोमा भी कोई जड़ी—बूटी नहीं है, वह परमात्मा को पी जाने का नाम है। वह परम औषधि को पी जाने का नाम है। ये प्रतीक हैं। जब कोई व्यक्ति सोमरस पी लेता है—सोमरस यानी प्रभु—रस; रसों वै सः—जब प्रभु के रस को कोई पी लेता है, तो फिर जो मस्ती आती है, वह कभी टूटती नहीं। यहां तो जितने भी रस उपलब्ध हैं सबकी मस्ती टूट ही जाती है। क्षणभंगुर है। अभी है, अभी समाप्त हो जाएगी।

कीमती से कीमती शराब भी कितनी देर काम आएगी? थोड़ी देर विस्मरण हो जाता है, फिर सब वही जाल शुरू हो जाता है। मगर भक्ति का एक ऐसा रस है, एक ऐसी मधुशाला है, जहां अगर तुमने पी लिया, तो बस पी लिया। उसको पीते ही तुम मिट जाते हों—विस्मरण नहीं होते, मिट ही जाते हो, गल ही जाते हो, खो ही जाते हो।

सोमा प्रतीक है परम रस का। और होमा प्रतीक है उस परम गृह का, उस मातृगृह का, उस मातृभूमि का जहां से हम आए हैं। हम बड़ी ऊंचाइयों से आ रहे हैं। हम अगम्य ऊंचाइयों से आ रहे हैं। हमारे तथाकथित गौरीशंकर इत्यादि कुछ भी नहीं हैं, बच्चों के खिलौने हैं, जिन ऊंचाइयों से हम आ रहे हैं। हम परमात्मा से आ रहे हैं। कोई अभी अंडे में ही है। जो अंडे में ही है, उसे धर्म शब्द अर्थहीन मालूम होता है। उसे हैरानी होती है लोग जब धर्म चर्चा के लिए जाते हैं, या सत्संग के लिए जाते हैं, वह कहता है—क्या करते हो? मैं सिनेमा जा रहा हूं चलो वहा! वहां कुछ रस है, कुछ आनंद; तुम जाते कहां हो? धर्म में रखा क्या है? अभी वह अंडे में है। जो अंडे में है, उसे अंडे के बाहर क्या है यह पता नहीं हो सकता। 

इस दुनिया में अधिक लोग अंडे में हैं। अभी अंडा भी नहीं टूटा, वे गिरते ही जा रहे हैं गिरते ही जा रहे हैं। कुछ लोग अंडे में ही रह कर मर जाते हैं।

अंडा भी तभी टूट सकता है जब तुम थोड़े पंख फड़फड़ाओ। तुम जरा भीतर से चोंच मारो! तुम अंडे से राजी मत हो जाओ! तुम अपनी सुरक्षा से राजी मत हो जाओ! तुम थोड़े—से अभियान करो, थोड़ी खोजबीन करो, थोड़ी जिज्ञासा करो— ! अंडा टूटेगा, मगर तुम कुछ भीतर से करोगे तो टूटेगा। बाहर तो कोई तोड़ नहीं सकता। बाहर से यह अंडा तोड़ा नहीं जा सकता, इसकी कुंजी भीतर से ही तोड़ी जा सकती है। बाहर से तो कोई तोड़ेगा तो और कठिन हो जाता है, क्योंकि तुम भीतर से रक्षा करने लगते हो। तुम आत्मरक्षा में लग जाते हो। तुम भयभीत हो जाते हो। तुम्हीं साहस जुटाओगे तो अंडा टूटेगा। 

कुछ का अंडा टूट जाता है, मगर उनकी आंखें नहीं खुलतीं। फिर वे बंद आंखों से गिरना शुरू हो जाते हैं। ऐसे लोग धर्म के संबंध में विचार तो करते हैं, लेकिन धर्म का आचरण नहीं करते। सोचते हैं। कहते हैं, धर्म अच्छी बात है, ईश्वर इत्यादि की सैद्धांतिक चर्चा करते हैं, गीता इत्यादि पढ़ते हैं,  शब्द कंठस्थ कर लेते हैं, लेकिन उनके जीवन में कोई रंग नहीं होता। जीवन को नहीं रंगते। बातचीत ही होता है धर्म। बकवास होता है धर्म। बहुत लोग ऐसे ही बकवास करते समाप्त हो जाते हैं।

बहुत थोड़े से सौभग़यशाली लोग हैं जो आंख खोलने की चेष्टा में संलग्न होते हैं। भजन से खुलती है आंख। भजन की ऊर्जा में ही आंख के खुलते की संभावना—या ध्यान से खुलती है आंख। एक ही बात को कहने के दो ढंग। ध्यान से या भजन से आंख खुलती है। भजन के संबंध में मत सोचते रहो, भजन करो। धर्म तुम्हारा कृत्य हो तो आंख खुलेगी। और आंख खुलते ही क्रांति घट जाती है। आंख खुलते ही दिखाई पड़ता है—तुम गिर रहे हो। रोज—रोज गिरते जा रहे हो। हम सब मृत्यु के मुंह में गिरते जा रहे हैं। वही है जमीन से टकराकर टूट जाना।

देखते नहीं कितने लोग टूटकर गिर गए हैं और अपनी कब्रों में पड़े हैं? तुम भी कितनी देर चलोगे? जल्दी ही टकरा जाओगे, टूटोगे और कब्र में समा जाओगे। कोई भी खो गई घडी वापस नहीं मिलती। जो समय गया, गया। आंख खुलते ही दिखाई पड़ता है कि बहुत मैं गंवा चुका हूं। अब और गंवाने की जरूरत नहीं।  दिशा रूपातरित हो जाती है।

पंख तो तुम्हारे पास ही हैं, आंख न हो तो अपने पंख भी नहीं दिखाई पड़ते। आंख न हो तो मैं कितनी संपदा लेकर पैदा हुआ हूं यह भी दिखाई नहीं पड़ता। आंख न हो तो पता ही नहीं चलता कि मेरे भीतर हीरे—जवाहरातों की खदानें हैं। प्रभु का राज्य मेरे भीतर है। परमात्मा ने पूरा पाथेय देकर भेजा है। मगर आंख तो चाहिए ही चाहिए। कहते रहते हैं बुद्ध और क्राइस्ट और कृष्ण कि परमात्मा का राज्य तुम्हारे भीतर है, तुम सुन भी लेते हो फिर अपनी दुकान पर बैठ जाते हो। सुन लेते हो और अनसुना कर देते हो। 

कुछ लोग सौभाग्यशाली हैं, जिनकी आंख खुलती है। बस आंख खुलने का क्षण संन्यास का क्षण है। फिर उसके बाद रूपांतरण हो जाता है। विलोम शुरू हुआ, वापसी की यात्रा शुरू हुई। बेटा बाप की तरफ वापिस लौटने लगा। जो अदम प्रभु के राज्य से निष्कासित हो गया था, वह फिर प्रभु की तलाश में चल पड़ा। अपने घर की खोज।

इस होमापक्षी की कथा को कथा मान कर तुम पढ़ लोगे तो चूक जाओगे इसका रस। इसमें पूरी प्रक्रिया छिपी हुई है।

ओशो रजनीश 



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