रविवार, 3 सितंबर 2023

कृष्ण नैतिक मन को जितने कठिन पड़े हैं, उतना अनैतिक आदमी कठिन नहीं पड़ता। अनैतिक आदमी को नैतिक आदमी निपट जाता है कहकर कि बुरा है। कृष्ण को क्या कहे? बुरा कहते भी नहीं बनता, क्योंकि आदमी बुरा दिखाई पड़ता नहीं। अच्छे कहने की हिम्मत जुटाने वाले बहुत कम लोग हैं, क्योंकि अच्छा कहो तो यह आदमी ऐसी बातों में अर्जुन को डाल रहा है कि जो बुरी हैं।

इसलिए गांधी जी ने जब कृष्ण पर बात शुरू की तो उनको बड़ी कठिनाई हो गई। क्योंकि सच तो यह था कि गांधी जी से मेल-जोल था अर्जुन का, कृष्ण का कोई भी मेल-जोल नहीं हो सकता। कृष्ण युद्ध में कुदा रहे हैं, गांधी क्या करें! कृष्ण इतने बुरे हों कि साफ-साफ तय हो जाए कि बुरे हैं, तो गांधी छुटकारा पा सकते हैं। लेकिन वह साफ-साफ तय हो नहीं सकता, क्योंकि कृष्ण को बुरा और भला दोनों स्वीकार हैं। वह भले भी हैं--चरम कोटि के भले हैं और चरम कोटि के बुरे हैं एक साथ। तो उनका भोलापन तो साफ है। उनका बुरापन भी है। उस बुरेपन को गांधी क्या करें। तो गांधी को सिवाय इसके कोई उपाय नहीं रह जाता कि वह कहें यह सारा युद्ध "पैरेबल' है, कहानी है; "मिथ' है, पुराण-कथा है, युद्ध कभी हुआ नहीं। क्योंकि कृष्ण असली युद्ध में कैसे अर्जुन को उतार सकते हैं, अगर युद्ध असली में हुआ हो तो फिर युद्ध हिंसा हो जाएगी। तो गांधी को एक ही उपाय है कि वह कहें कि यह सारी कथा है। और यह जो युद्ध हो रहा है, यह असली युद्ध नहीं है। और गांधी पुराने द्वंद्व पर वापस लौट जाते हैं जिसके खिलाफ कृष्ण हैं, वह कहते हैं, यह अच्छाई और बुराई का युद्ध है। ये पांडव अच्छे हैं, और ये कौरव बुरे हैं, और वह पुराना अच्छे और बुरे का द्वंद्व वापस खड़ा कर लेते हैं कि अच्छाई और बुराई का युद्ध हो रहा है, और कृष्ण कह रहे हैं कि अच्छे की तरफ से लड़। यह रास्ता उन्हें खोज लेना पड़ा। पूरी कथा को झूठ कहना पड़ा। पूरी कथा को काव्य कहना पड़ा। लेकिन गांधी को...बहुत वक्त हुआ, कृष्ण और गांधी के बीच पांच हजार साल का फासला पड़ता है, इसलिए किसी पांच हजार साल पुरानी कहानी को "मिथ' कहना, कल्पना कहना कठिन नहीं है।

जैनों को इतना फासला नहीं था। इसलिए जैन कृष्ण की कथा को कहानी नहीं कह सके, वह घटना घटी है। जैन-चिंतन उतना ही पुराना है जितना वेद पुराने हैं। जैनों के पहले तीर्थंकर का नाम वेद में उपलब्ध है। हिंदू और जैनों की प्राचीनता बिलकुल बराबर है। जैन इनकार नहीं कर सकते थे कि युद्ध नहीं हुआ, और कृष्ण ने युद्ध नहीं करवाया। लेकिन जैन क्या करें, अगर उनको भी सुविधा होती तो जो गांधी ने किया, जो कि बहुत गहरे मन से जैन थे, शरीर से हिंदू थे, मन से जैन थे, गांधी तो पुराण कहकर टाल सके पर जैन नहीं टाल सकते थे, वह समसामयिक थे। उनको कृष्ण को नर्क में डालना पड़ा। उन्हें अपने शास्त्रों में लिखना पड़ा कि कृष्ण नर्क गए। इतनी बड़ी हिंसा करवा के आदमी नर्क न जाए, तो फिर चींटी न मारने वाले का क्या होगा? और इतनी बड़ी हिंसा करके भी कोई नर्क न जाए, तो मुंह पर पट्टी बांधने वाले को स्वर्ग कैसे मिलेगा? बहुत मुश्किल हो जाएगा। कृष्ण को नर्क में डालना ही पड़ेगा।

लेकिन यह समसामयिक लोगों का वक्तव्य है। अगर वक्त ज्यादा गुजर जाता तो कृष्ण की अच्छाई इतनी थी कि नर्क में डालना मुश्किल हो जाता। मुश्किल उनको भी पड़ा। इसलिए उनको दूसरी कहानी भी गढ़नी पड़ी। आदमी तो अदभुत था यह। युद्ध तो करवाया था, वह सच है। नाचा था स्त्रियों के साथ, वह सच है। स्त्रियों के कपड़े उघाड़कर झाड़ पर बैठ गया था, वह भी सच है। आदमी अच्छा था, काम बुरे किए थे, वह भी सच है। तो नर्क में डालकर भी तो चैन नहीं पड़ सकता न, इतने अच्छे को नर्क में डाल दें तो फिर अच्छे आदमी भी तो संदिग्ध हो जाएंगे कि इतना अच्छा आदमी नर्क में डाल दिया! अच्छे आदमियों को फिर पक्का नहीं हो सकता स्वर्ग जाने का। इसलिए जैनों को दूसरी बात भी तय करनी पड़ी कि कृष्ण आनेवाले कल्प में पहले जैनत्तीर्थंकर होंगे। नर्क में डालना पड़ा, आनेवाले कल्प में पहले तीर्थंकर की जगह भी देनी पड़ी। यह "बैलेंस', संतुलन खोजना पड़ा, क्योंकि इस आदमी को नर्क में भेजने जैसा आदमी तो नहीं है। लेकिन भेजना ही पड़ेगा, क्योंकि वह नैतिकता कहती है कि यह आदमी ठीक तो नहीं है। और इस आदमी का व्यक्तित्व कहता है कि यह आदमी तो तीर्थंकर होने योग्य है। तो यही रास्ता बन सकता था कि इसे अभी फिलहाल नर्क में डालो, भविष्य में पहला तीर्थंकर बनाओ। आनेवाले--जब सारी सृष्टि नष्ट हो जाएगी और पहली फिर से सृष्टि शुरू होगी तो पहला तीर्थंकर। यह "कांपनसेशन' है, यह सांत्वना है अपने मन को, कृष्ण को इससे कुछ लेना-देना नहीं है! अपने मन को कि इस आदमी को नर्क में डालते हैं, इसके लिए "कांपनसेशन' भी करना पड़ेगा। गांधी के लिए सुविधा है कि वह एक साथ निपटा दें दोनों बात। न नर्क में डालें, न पहला तीर्थंकर बनाएं, पूरी कहानी को कह दें कहानी है। युद्ध कभी हुआ नहीं सिर्फ एक प्रबोधकथा है। अच्छाई और बुराई के बीच युद्ध हो रहा है। गांधी की भी तकलीफ वही है जो जैनों की है, वह अहिंसा की तकलीफ है। अहिंसा नहीं मान सकती कि हिंसा की कोई भी जगह हो सकती है। वह वही तकलीफ है जो शुभ की तकलीफ है। शुभ कैसे माने कि अशुभ की भी कोई सुविधा हो सकती है।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, जगत द्वंद्व का मेल है; वहां दोनों एक-साथ हैं। न ऐसा कभी हुआ कि हिंसा न हो, न ऐसा कभी हुआ कि अहिंसा न हो। इसलिए जो भी एक को चुनते हैं वह अधूरे को चुनते हैं और कभी भी तृप्त नहीं हो सकते। ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि अंधेरा न हो, ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्रकाश न हो। इसलिए जो एक को चुनते हैं वे अधूरे को चुनते हैं। और अधूरे को चुनने वाला तनाव में पड़ा ही रहेगा, क्योंकि वह आधा मिट सकता नहीं, वह सदा मौजूद है।

और मजा तो यह है कि जिस आधे को हम चुनते हैं वह उस बाकी आधे पर ही ठहरा होता है जिसको हम चुनते नहीं, यद्यपि इनकार करते हैं।

सारी अहिंसा हिंसा पर ही खड़ी होती है। और सारा प्रकाश अंधेरे के ही कारण होता है। सारी भलाई अशुभ की ही पृष्ठभूमि में जन्मती और जीती है। सब संत दूसरे छोर पर वे जो बुरे आदमी खड़े हैं, उनसे ही बंधे होते हैं। "पोलेरिटीज' जो हैं वे सभी एक-दूसरे से बंधी होती हैं, ऊपर नीचे से बंधा है, बुरा भले से बंधा है, नर्क स्वर्ग से बंधा है। ये ध्रुव हैं एक ही सत्य के और कृष्ण कहते हैं, दोनों को स्वीकार करो, क्योंकि दोनों हैं। दोनों से राजी हो जाओ, क्योंकि दोनों हैं। चुनाव ही मत करो। अगर कहें तो कृष्ण पहले आदमी हैं, जो "च्वॉइसलेसनेस', चुनावरहितता की बात करते हैं। वह कहते हैं, चुनो ही मत। चुना कि भूल में पड़े, चुना कि भटके, चुना कि आधे का क्या होगा? वह आधा अभी है। और हमारे हाथ में नहीं है कि वह नहीं हो जाए। हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है, वह है। हम नहीं थे तब भी था, हम नहीं होंगे तब भी होगा।

लेकिन नैतिक मन या जो अब तक धार्मिक समझा जाता रहा है, उसकी बड़ी कठिनाई है। वह द्वंद्व में जीता है, वह शुभ और अशुभ को बांटकर जीता है। उसका सारा मजा अशुभ की निंदा में है, तभी वह शुभ में मजा ले पाता है। संत का सारा मजा असंत के विरोध में है, अन्यथा वह मजा नहीं ले पाता। स्वर्ग जाने का सारा सुख नर्क में गए लोगों के दुख पर खड़ा है। अगर स्वर्ग में जो लोग हैं उनको एकदम पता चल जाए कि नर्क है ही नहीं तो स्वर्ग के लोग एकदम दुखी हो जाएंगे। अगर नर्क है ही नहीं तो बेकार सब मेहनत गई। और वे चोर और वे बदमाश, जिन्हें नर्क भेजना चाहा था वे सब स्वर्ग में ही आ गए हैं। क्योंकि वे जाएंगे कहां। स्वर्ग में जो रस है वह नर्क में दुख भोगने वाले लोगों पर खड़ा है; अमीर का जो सुख है वह गरीब की गरीबी में है, अमीर की अमीरी में नहीं है। अच्छे आदमी का जो सुख है वह बुरे आदमी के बुरे होने में है, अच्छे आदमी के अच्छे होने में नहीं। इसलिए जिस दिन सारे लोग अच्छे हो जाएंगे उस दिन साधु का मजा चला जाएगा। साधु बिलकुल अर्थहीन मालूम पड़ेगा। हो सकता है साधु कुछ लोगों को तैयार करे कि तुम असाधु हो जाओ क्योंकि मेरा क्या होगा। उसका कोई अर्थ नहीं है। इस जगत की सारी अर्थवत्ता विरोध में है, और इस जगत को जो पूरा देखेगा वह पाएगा कि जिसे हम बुरा कहते हैं वह अच्छे का ही छोर है। जिसे हम अच्छा कहते हैं, वह बुरे का छोर है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...