रविवार, 12 नवंबर 2023

 द्रौपदी, एक वृक्ष के नीचे, अकेली बैठी, बड़ी देर से अपने विचारों में लीन थी पिछले दिनों, उन लोगों ने परस्पर बहुत चर्चा की थी। चर्चा ही क्यों, उसे वाद-विवाद कहना चाहिए । “कितनी कटुता थी द्रौपदी के मन में युधिष्ठिर के लिए, और उसके पश्चात् भीम, अर्जुन तथा नकुल सहदेव के लिए । “कभी-कभी तो उसे लगने लगता था कि जिन धार्तराष्ट्रों ने उसका अपमान किया था, उनके प्रति भी उसके मन में उतनी कटुता नहीं थी, जितनी अपने पतियों के प्रति थी पर यह तो मन का छल मात्र था। ऊपरी काई हटाकर देखने पर उसकी समझ में आ गया था कि धार्तराष्ट्रों के प्रति उसके मन में घृणा थी, शत्रुता थी वह उनका नाश चाहती थी, सर्वनाश ! सबकी मृत्यु ! मृत्यु से कम कुछ नहीं । उनके साथ, उसके मन के माधुर्य का कोई एक सूत्र, कभी एक क्षण के लिए भी नहीं जुड़ा था। उनसे उसे कोई अपेक्षा नहीं थी । कटुता तो उनके प्रति थी, जिनसे उसे प्रेम था, जिनसे उसे अपेक्षाएँ थीं, जिन्हें वह अपने रक्षक मानती थी उन लोगों की ओर से उसके प्रेम की प्रतिध्वनि नहीं हुई। उन्होंने उसके प्रेम में बहकर अपने धर्म को तिलांजलि नहीं दी। उन्होंने अपने धर्म की रक्षा की और उसे असुरक्षित छोड़ दिया...।

द्रौपदी सोचती जाती थी और उसके अपने ही मन की परतें उघड़ती जाती थीं उसके मन में, यह बहुत बाद में स्पष्ट हुआ था पांडवों के व्यवहार से जो आहत हुई, वह द्रौपदी के भीतर की नारी थी। वह रूपगर्विता नारी, जो मानती थी कि पुरुष की दृष्टि उस पर पड़ी नहीं कि वह मदांध हुआ नहीं ! उसने चाहा तो यही चाहा कि जिस पुरुष  की ओर वह एक अपांग से देख ले, वह घुटनों के बल उसके सम्मुख आ गिरे। फिर उसका आचार-व्यवहार, धर्म- नीति, कुछ न हो, बस उसका रूप ही हो। पांडवों ने सदा उसे अपनी प्रिय पत्नी माना था। उसकी हल्की सी कसक से भी वे तड़प उठते थे; किंतु परीक्षा की इस घड़ी में उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि वह उन्हें कितनी भी प्रिय क्यों न हो, उनके लिए धर्म से बढ़कर नहीं थी । 

द्रौपदी अपने-आपको भी धीरे-धीरे पहचान रही थी वह केवल एक रूपगर्विता नारी ही नहीं थी । नारी तो वह थी ही, और उसका रूप भी ऐसा था, जिस पर कोई भी गर्व कर सकता था किंतु यह तो उसके व्यक्तित्त्व का एक अंश मात्र था । उसके संपूर्ण व्यक्तित्त्व में तो और भी बहुत कुछ था वह धर्म को जानती थी, धर्मशास्त्र की पंडिता थी, चरित्र और संकल्प से परिचय था उसका ।अब यह उसकी बारी थी कि वह पांडवों के चरित्र पर मुग्ध हो । युधिष्ठिर को ठीक ही कहा जाता था 'धर्मराज !' और कौन ऐसा मनुष्य होगा, जो पितृ आज्ञा को, अपना धर्म मानकर, अपना साम्राज्य इस प्रकार त्याग दे त्रेता में भगवान राम ने ऐसा किया था और द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर ने । ठीक है कि यह वैसा त्याग नहीं था,  जैसा भगवान राम ने किया था किंतु इसका मूल स्वरूप तो वही था । धृतराष्ट्र पांडवों का राज्य छीन लेना चाहता था, जैसे कैकेयी राम का राज्य छीनना चाहती थी । धृतराष्ट्र जानता था कि युधिष्ठिर उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेंगे और वह यह भी जानता था कि द्यूत में शकुनि उनके हाथों में पासे आने ही नही देगा यह सब युधिष्ठिर भी जानते थे । वे द्यूत का विरोध करते रहे, किंतु धृतराष्ट्र की इच्छा का विरोध नहीं किया उन्होंने । खेलने बैठ ही गए थे, तो किसी भी दाव के पश्चात् वे उठ भी सकते थे । किंतु धृतराष्ट्र की आज्ञा की अपेक्षा में, वे बैठे, हारते रहे । पासों में हार चुकने के पश्चात् वे राज्य देना अस्वीकार कर सकते थे, इतना सैन्य बल था उनके पास । किंतु अपने वचन के विरुद्ध नहीं जा सकते थे । उनकी पत्नी को सभा में लाकर उनके सम्मुख निर्वस्त्र करने का प्रयत्न किया गया; किंतु धर्मराज तनिक भी नहीं डोले । वे जानते थे कि द्रौपदी दासी नहीं है, किंतु वे स्वयं तो दास हो चुके थे। वे स्वामी के विरुद्ध शस्त्र कैसे उठाते । पत्नी की रक्षा उन्होंने कुलवृद्धों, धर्म और ईश्वर पर छोड़ दी ।

कैसी परीक्षा ली थी धार्तराष्ट्रों ने पांडवों की ! पर क्या दुर्योधन पांडवों का राज्य ही छीनना चाहता था ?--यदि केवल इतनी ही बात होती, तो पांडवों से राज्य लेना क्या कठिन था ? युधिष्ठिर तो किसी भी बात पर राज्य त्याग देते ! और द्यूत के पश्चात् तो उनका राज्य ले ही लिया था। फिर उन्हें इस प्रकार अपमानित करने की क्या आवश्यकता थी ? वह मात्र पर-पीड़न का सुख लेना चाहता था ? पर नहीं । इस सुख कितना जोखिम था । वह पांडवों के बल को भी जानता था और क्रोध को भी । यदि पांडवों में से कोई एक भी अपनी मर्यादा तोड़ बैठता, तो कुछ  ही क्षणों में धार्तराष्ट्रों की इतनी अपरिहार्य क्षति हो जाती उसके पश्चात् पांडवों का जो भी होता। पांडव यदि मार भी डाले जाते, तो वे धृतराष्ट्र की इतनी हानि कर चुके होते, जो उसके जीवन का रोग बन गई होती। और बात पांडवों की मृत्यु के साथ ही तो समाप्त नहीं हो जाती। पांडवों के मित्र प्रतिशोध लेकर छोड़ते ।मित्र भी कैसे कृष्ण और धृष्टद्युम्न ! नहीं ! दुर्योधन पांडवों को मात्र अपमानित ही नहीं कर रहा था। वह उनकी परीक्षा भी नहीं ले रहा था। किसी की परीक्षा लेने के लिए, कोई अपने लिए इतना संकट आमंत्रित नहीं करता कदाचित् दुर्योधन एक ओर पांडवों का धर्म खंडित करना चाह रहा था और दूसरी ओर उनकी एकता ! वह युधिष्ठिर को इंद्रप्रस्थ का राजा नहीं रहने देना चाहता, तो वह उन्हें धर्मराज भी नहीं रहने देना चाहता । वह चाहता है कि पांडव, धर्म के लिए न लड़ें, अपने राज्य के लिए लड़ें, अपने स्वार्थ के लिए लड़ें। वह चाहता है कि युधिष्ठिर भी उसी के समान मात्र एक भोगी, लोलुप और अत्याचारी क्षत्रिय बनें, ताकि धर्म का बल पांडवों की ओर न रहे । कोई राजा इसलिए पांडवों की ओर से न लड़े, क्योंकि वे धर्म के लिए लड़ रहे हैं; वह उनके पक्ष से इसलिए युद्ध करे, क्योंकि युद्ध जीतने से भोग-सामग्री उपलब्ध होती है । अहंकार स्फीत होता है। दूसरों का दमन करने का अधिकार मिलता है । और उस दिन धर्मराज तनिक भी दुर्वल पड़ते, तो ऐसा हो गया होता ।

नरेंद्र कोहली 

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