मंगलवार, 20 जून 2023

दशरथ

 वाल्मीकि के दशरथ

 वाल्मीकि रामायण मे दशरथ का जो चरित्र प्रत्यक्षीकृत होता है, वह बहुत गौरवशाली नहीं है। विश्वामित्र द्वारा राम की मांग किये जाने पर वात्सल्य की प्रबलता के कारण राम को उनके साथ न भेज कर स्वयं चलने की इच्छा व्यक्त करते हैं, किन्तु विश्वामित्र के मुख से यह सुनकर कि रावण प्रेरित मारीच और सुबाहू के विरुद्ध संघर्ष करना है, वे तुरन्त कह उठते हे — 'मैं रावण के समक्ष युद्ध मे नही ठहर सकता । आप मुझ पर तथा मेरे पुत्रों पर कृपा कीजिये ।" यह चित्र दशरथ की तेजस्विता नहीं, उनकी भीरुता और दीनता का है ।

बाल्मीकि ने दशरथ को जिस रूप मे प्रस्तुत किया है उसमें उनकी कान्ति निखरी हुई नहीं दिखलायी देती-उसमे उसका पौरुप और पराक्रम दृष्टिगोचर नहीं होता । दशरथ का जो चित्र वहाँ दिखलायी देता है वह एक ऐसे कूटनीतिपरायण व्यक्ति का चित्र है जो अपनी चतुराई का शिकार स्वयं बन जाता है । दशरथ ने कैकेयी के पिता को वचन दिया था कि कैकयी पुत्र उनका उत्तराधिकारी होगा ।

किन्तु कालान्तर मे राम के प्रति प्रेमाधिक्य तथा ज्येष्ठ पुत्र के उत्तराधिकार की परम्परा के कारण वे राम को उस समय युवराज बनाना चाहते है जब भरत अपने ननिहाल गए हुए होते है । वे भरत के लौटने से पहले ही राम का अभिषेक कर देना चाहते हैं । 

वे ऐसी उतावली और शंकित चित्त से इस अभिषेक के कार्य में प्रवृत्त हुए कि मानो किसी अमंगल की छाया उन पर पडी हो, भावी अनर्थ के पूर्वाभास ने मानो अलक्षित भाव से उनके मन पर अधिकार कर लिया हो और किसी अशुभ ग्रह के फल से मानो वे स्वयं रामचन्द्र के अभिषेक के समय अचिंतनीय-पूर्व दिघ्नो को आशक्त द्वारा खीच लाए हो । 

भरत के आने और अपने सम्बधीयों के बुलाने पर, इस कार्य मे प्रवृत्त होने से इस प्रकार के अनर्थ की सभावना नहीं थी, क्योकि भरत के उपस्थित रहने पर कैकेयी का षड्यंत्र व्यर्थ जाता। यह भी दशरथ के हृदय की भीरुता--आत्म-विश्वास और आत्मबल को शून्यता के ही दर्शन होते हैं ।


फिर भी उनके चरित्र का आकर्षण वात्सल्य की अतिशयता और लोक-मर्यादा की रक्षा के कारण अक्षुण्ण रह सका है। जब उन दोनो प्रवृत्तियाँ एक दूसरे के विरोध में उपस्थित हुई तो दशरथ ने अपने प्राण देकर दोनो की एक साथ रक्षा की। रामायण मे दशरथ का आचरण यत्र तत्र  आत्म सम्मान शून्य जान पडता है। रूठी कैकेयी को मनाने का प्रयत्न करते समय वे उसके पैरों पड़ने तक की बात कह जाते हैं।किन्तु उसका कारण आत्म सम्मान की भावना का अभाव नही है। वात्सल्य की प्रबल प्रेरणा के साथ-साथ उनका स्त्रैण स्वभाव उन्हें उस सीमा तक खिच ले जाता है ।

रामायण में उनकी स्त्रैण के अनेक प्रमाण मिलते हैं। भरत  ननिहाल से  लौटने पर कहते हैं कि राजा कैकेयी के प्रासाद मे होंगे क्योकि वे बहुधा वहीं रहने है । स्वय वाल्मीकि ने लिखा है कि वृद्ध राजा तरूणी पत्नी को प्राणों से भी अधिक प्रेम करते थे । कदाचित् स्त्रेणता के कारण ही उन्होने कैकेयी के पिता को वचन दिया था कि वे कैकेयी के पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाएँगे, परन्तु उनकी स्त्रैणता उनके वात्सल्य की तुलना में निर्बल सिद्ध होती है। राम के निर्वासन पूर्व जो कैकेयी राजा को प्राणाधिक प्रिय थी वही उनके निर्वासन के उपरान्त त्याज्य हो जाती है । 

उनके व्यक्तित्व का यह रूप उनके चरित्र की सारी दुर्बलताओं को ढक लेता हैं ।और इसलिए उस ओर सामान्यतया पाठक का ध्यान नहीं जा पाता ।


तुलसी दास के दशरथ


तुलसीदास जी ने दशरथ की अन्तर्वृतियों का संयोजन कुछ ऐसे ढंग से किया है कि उनका चरित्र वाल्मीकि रामायण के दशरथ की तुलना में बहुत निखरा है । यद्यपि वाल्मीकि रामायण और मानस, दोनो मे हो दशरथ के चरित्र कि केन्द्रीय वृत्ति है उनका वात्सल्य, फिर भी इतर वृत्तियो और विशेषनामों में हेर-फेर के साथ तुलसीदास जी ने मानस के दशरथ का वात्सल्य भी नूतन रूप में चिह्नित किया है ।

वाल्मीकि के दशरथ अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को इतना अधिक प्यार करते दिखलाई देते हैं कि उसके कारण उनका आचरण पक्षपात और कपट की सीमा तक पहुंच गया है। भरत के लौटने से पहले पहले वे चुपके से राम को युवराज बनाना चाहते हैं | 

वात्सल्य से उद्भुत उनका कपटपूर्ण आचरण ही उनके संकट का कारण बन जाता है । कैकेयी के दुराग्रह को देखकर अपने वचन की रक्षा के लिए राम को निर्वासन का आदेश तो दे देते हैं, किन्तु इसके साथ होने वास्तविक इच्छा भी प्रकट कर देते हैं- 'मुझे बलपूर्व बन्दी बना कर राजा बन जायो ।" दशरथ की इस उक्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि दशरथ का यह आदेश  कहने भर के लिए था, उनका अंतर्मन उस आदेश का साथ नहीं दे रहा था । तुलसीदास ने राजा दशरथ के चरित्र को इस असंतुलन से बचाया है। इसके लिए उन्होंने राम को युवराज बनाने का निर्णय किसी दुरभिसधि के रूप मे न कराकर सार्वजनिक रूप से करवाया है। वे सबको सहमति से ही इस सबंध में निर्णय करते हैं।

 इसके साथ ही उन्होंने राजा दशरथ और राम की गुप्त बातचीत आदि का कोई लेख नहीं किया है। राम को युवराज बनाने के निर्णय की सूचना भी उन्होंने राजा दशरथ से न दिलवाकर वसिष्ठ मुनि से दिलवाई। कवि की इस सावधानी के कारण 'मानस' के दशरथ पक्षपात और कपट व्यवहार के लाछंन से बच गए हैं ।

यह सब होते हुए भी कवि ने दशरथ के वात्सल्य मे किसी प्रकार की कमी नही आने दी है। विश्वामित्र द्वारा राम की याचना की जाने पर उन्हें देने में दशरथ की हिचकिचाहट दिखाकर तो कवि ने उनके वात्सल्य की अभिव्यक्ति  ही की है, किन्तु उससे भी अधिक सूक्ष्म रूप से उनके वात्सल्य की व्यजना उस अवसर पर दिखलाई देती है जब राजा जनक के दूत उनके पास धनुष भंग की सूचना लेखर पधारते हैं । उस समय राजा दशरथ उनके साथ जो व्यवहार करते हैं उससे उनका वात्सल्य प्रकट होता है।

दूतों को 'भैया' कर सम्बोधन करना और निकट बिठाना वात्सल्य का ही परिणाम है। मनोविज्ञान के अनुसार संतान या बालक से संबन्धित व्यक्तियों ओर वस्तु तक वात्सल्य का विस्तार होता है ।

इसके उपरात उनका वात्सल्य तभी प्रकट होता है जब कैकेयी द्वारा आघात पहुचाया जाता है । यहाँ उनकी सिद्धांतवादिता उनके वास्यल्य की प्रतिरोधक बनकर पाई है। सिद्धातवादिता के कारण उसके वचन के समक्ष झुकना पडता है और वे राम के निर्वासन के लिए बाध्य हो जाते हैं, किन्तु अपनी इस विवशता कारण उन्हें जो प्राणघातक पीड़ा होती है । यह उनके वात्सल्य को सर्वोपरि सिद्ध करती है । राम के वन मे चले जाने पर ये उनके वियोग की पीड़ा से तडप तडप कर प्राण दे देते हैं-

उनके चरित्रम वात्सल्य से दूसरा स्थान काम-प्रवृत्ति का दिखलाई  देता है । यो कहने को तो दशरथ एकाध स्थान पर अपने प्रेम (काम) को वात्सल्य से भी अधिक महत्त्व दे गए हैं।

  जैसे ही कैकेयी उनसे यह वरदान मांगती है कि राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास दिया जाए वैसे हो उनका मुख विवर्ण हो जाता है और वे उसे थोड़ी देर समझाने के बाद फटकारने लग जाते है। इससे पता चलता है कि राजा दशरथ के चरित्र मे काम का स्थान वात्सल्य के बाद है ।

काम का स्थान दूसरा होने पर भी उनके चरित्र में उसका रूप बड़ उग्र है ।  महाराज दशरथ कैकेयी के कोप भवन मे आते समय कांप जाते हैं। 

काम की प्रबलता के कारण ही वे कामियों के समान बढ़ चढ़ कर बातें करने लगते हैं ।

फिर भी मानस के दशरथ वाल्मीकि के दशरथ के समान कामी प्रतीत नही होते। काम की प्रधानता के कारण उन्होंने कैकेयी को कोई ऐसा वचन दिया हो कि वे उसी के पुत्र को राजा बनाएंगे- ऐसा कोई उल्लेख मानस में नहीं है जबकि वाल्मीकि में यह बात स्पष्ट रूप से उल्लिखित है ।


इसी प्रकार तुलसीदासजी ने राजा दशरथ की भीरुत को उनके चरित्र से निकाल दिया है। वाल्मीकि रामायण मे दशरथ विश्वामित्र के मुख से राम की बात सुन कर उन्हें राम न देकर उनके स्थान पर स्वयं चलने की इच्छा प्रकट करते हैं किन्तु जैसे ही उन्हें यह पता चलता है कि रावण के भेजे राक्षसों का सामना करना है वे इस सबंध में तुरत अपनी असमर्थता प्रकट कर देते हैं। राम के विवाहोपरात अयोध्या लौटते समय मार्ग में क्रुद्ध परशुराम को देखकर भी भय से व्याकुल हो जाते हैं। तुलसीदास इन दोनो परिस्थितियों को टाल गए हैं । विश्वामित्र प्रसंग मे वसिष्ठ को बीच में लाकर उन्होंने इस स्थिति को बचा लिया है और परशुराम को विवाह से पहले ही मिथिला में ला कर राजा दशरथ की अनुपस्थिति दिखा दी है।

 इस प्रकार उन्होंने राजा दशरथ के चरित्र को उज्ज्वल बनाने का पूरा प्रयत्न किया है और उसमें वे पूरी सफल रहे हैं।




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