सोमवार, 9 सितंबर 2024

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।

 खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।।

आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं। 

दुनियां के सामने, व्यर्थ मुस्कुराता रहा।।

रातें लंबी थीं, पर नींद कभी भी आई नहीं। 

चाहतें भी थीं, पर ज़ाहिर कभी हो पाई नहीं।।

हर ख़्वाब अधूरा, दिल में कहीं समाया रहा। 

फर्ज की आग में, मैं खुद को जलाता रहा।।

न कभी शिकायत की, अपने दर्द की मैंने। 

हर जख्म पर, मरहम वक्त ने लगा दिया।।

जिम्मेदारियों के बोझ तले, झुका रहा मैं। 

सोया ही था कि, ख्वाब ने फिर जगा दिया।।

कभी सोचा ही नहीं, क्या पाया, क्या खो दिया। 

जीवन के इस खेत में, जो बीज फर्ज का बो दिया।।

बो कर बीज फ़र्ज़ का, मैं दर्द को उगाता रहा।

 के कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें मैं यूं निभाता रहा।।

गुरुवार, 22 अगस्त 2024

 शादी जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. सही जीवनसाथी का चुनाव हमारे जीवन को अच्छा और खुशनुमा बना सकता है. सही जीवनसाथी का चुनाव मानसिक और भावनात्मक विचारों की स्थिति के लिए भी महत्वपूर्ण हैं. जब आप एक ऐसे व्यक्ति का चुनाव करते हैं जो आपके मूल्यों और दृष्टिकोण को समझता है, तो जीवन की चुनौतियों का सामना करना आसान हो जाता है। 

ईमानदारी और भरोसा किसी भी रिश्ते की नींव होती है. अगर आपका जीवनसाथी आपके प्रति ईमानदार है, तो आप दोनों एक-दूसरे पर पूरी तरह से भरोसा कर सकते हैं. यह विश्वास आपके रिश्ते को गहरा बनाता है और किसी भी मुश्किल समय में साथ रहने का हौसला देता है.

जीवनसाथी का समर्थन और प्रोत्साहन आपको आत्मविश्वास देता है. उनका साथ और हौसला आपको किसी भी मुश्किल समस्या को संभालने की हिम्मत देता है. एक अच्छे जीवनसाथी को हमेशा आपका साथ देना चाहिए.

प्यार और सम्मान एक अच्छे रिश्ते के लिए जरूरी है क्योंकि यही इसकी पहचान है. आपके जीवनसाथी को आपके विचारों, भावनाओं और इच्छाओं का सम्मान करना चाहिए. और आपके प्रति उन्हें सच्चा प्यार होना चाहिए.

हर रिश्ते में कभी-कभी समझौते की जरूरत होती है। एक अच्छे जीवनसाथी में समझौते की क्षमता होनी चाहिए। इससे आप दोनों के बीच के झगड़े और मतभेद आसानी से सुलझ सकते हैं और आपका रिश्ता मजबूत बना रहेगा।

आर्थिक समझदारी एक अच्छे जीवनसाथी की निशानी है. उन्हें पैसे का सही इस्तेमाल करना आना चाहिए और आर्थिक समस्याओं का हल निकालने की क्षमता होनी चाहिए. इससे आपका जीवन आर्थिक दृष्टि से संतुलित और सुरक्षित रहेगा.

मंगलवार, 20 अगस्त 2024

 मोक्ष-पट अर्थात साँप  सीढी   खेल का प्रारम्भिक उल्लेख और श्रेय तेहरवीं शताब्दी में महाराष्ट्र के संत-कवि ज्ञानदेव को जाता है। उस समय इस खेल को मोक्ष-पट का नाम दिया गया था। खेल का लक्ष्य केवल मनोरंजन ही नहीं था अपितु हिन्दू धर्म मर्यादाओं का ज्ञान मनोरंजन के साथ साथ जन साधारण को देना भी था। खेल को एक कपडे पर चित्रित किया गया था जिस में कई खाने बने होते थे और उन्हें घर की संज्ञा दी गयी थी।प्रत्येक घर को दया, करुणा, भय आदि भाव-वाचक संज्ञाओं से पहचाना जाता था। सीढियाँ सद्गुणों को तथा साँप अवगुणों का प्रतिनिधित्व करते थे। साँप और सीढियों का भी अभिप्राय था। साँप की तरह की हिंसा जीव को नरक में धकेल देती थी तथा विद्याभ्यास उसे सीढियों के सहारे उत्थान की ओर ले जाते थे। खेल को सारिकाओं या कौडियों की सहायता से खेला जाता था। सतरहवीं शताब्दी में यह खेल थँजावर में प्रचिल्लित हुआ।इस के आकार में वृद्धि की गयी तथा कई अन्य बदलाव भी किये गये। तब इसे ‘परमपद सोपान-पट्टा’ कहा जाने लगा। इस खेल की नैतिकता विकटोरियन काल के अंग्रेजों को भी कदाचित भा गयी और वह इस खेल को 1892 में इंगलैण्ड ले गये। वहाँ से यह खेल अन्य योरूपीय देशों में लुड्डो अथवा स्नेक्स एण्ड लेडर्स के नाम से फैल गया।

शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

मेरी बहू

 बहू और बेटियों मे जो अन्तर है वो मिटाया नहीं जा सकता। बेटियों को हम डांट नहीं सकते।उनको टोक नहीं सकते।बेटियों से अपने काम के लिए नहीं कह सकते। बेटियां बुढ़ापे का सहारा नहीं हो सकतीं। बेटियां किसी की अमानत होती है। भगवान ने उनके जिम्मे कोई काम लगाया है जिसको पूरा करने के लिये वे एक नये घर आंगन की शोभा बन कर उसे संवारती है।

मेरी बहू मेरी बेटी नहीं मेरी अच्छी दोस्त,मेरा सहारा है। मेरी बहू मेरे बेटे की हमसफर बनकर मेरा दूसरा बेटा बनीं है। मेरी बहू मेरे बेटे के साथ मिलकर हमारे जीवन को खुशियों से भरने का पूरा प्रयास करती है। मेरी बहू मेरे घर की रौनक है। मेरी बहू ने मेरे बेटे की जिंदगी मे आकर उसके जीवन को भी संवारने की कोशिश की है। भगवान मेरा आशिर्वाद,मेरा प्यार सदा उस पर बनाए रखें।

रविवार, 4 अगस्त 2024

 अगर आपका या कोई बच्चा, किसी परीक्षा परिणाम को लेकर चिंतित दिखें तो उसे गले से लगाना और कहना, चिंता की आवश्यकता ही नहीं, हाँ माना चिंता होती हैं हम भी निकले हैं इस दौर से, परंतु जो भी होगा हमें स्वीकार्य हैं हमें आपकी मेहनत पर पूर्ण विश्वास हैं... और फिर 90-95 की इस भीड़ में, 70-80 वाला भी कम नहीं होता, इन चंद अंक से पूरा जीवन तय नहीं होता..!

मंगलवार, 30 जुलाई 2024

 भोलेनाथ के भक्ति के लिए कुछ प्रसिद्ध और पवित्र मन्त्र यह हैं:

1. "ॐ नमः शिवाय" - यह सबसे प्रसिद्ध और पवित्र मंत्र है, जो भगवान शिव की आराधना के लिए उपयोग किया जाता है।

2. "महामृत्युंजय मंत्र" - यह मंत्र भगवान शिव की कृपा और सुरक्षा के लिए जाप किया जाता है।।

3. "शिव चालीसा" - यह एक पवित्र भजन है, जिसमें भगवान शिव की महिमा और भक्ति का वर्णन किया गया है।

4. "ॐ शिव ॐ शिव ॐ शिव" - यह एक सरल और प्रभावी मंत्र है, जो। भगवान शिव की आराधना के लिए उपयोग किया जाता है।

इन मंत्रों और भजनों का जाप करके, आप भगवान शिव की भक्ति में लीन हो सकते हैं और उनकी कृपा प्राप्त कर सकते हैं।

हर हर महादेव

सोमवार, 29 जुलाई 2024

 गृहस्थ जीवन में जितने भी सुख हैं, वे सब दाम्पत्य जीवन की सफलता पर निर्भर हैं। दाम्पत्य जीवन सुखी न हुआ तो अनेक तरह के वैभव होने पर भी मनुष्य सुखी, सन्तुष्ट तथा स्थिरचित्त न रह सकेगा। जिनके दाम्पत्य जीवन में किसी तरह का क्लेश कटुता तथा संघर्ष नहीं होता वे लोग बल, उत्साह और साहसयुक्त बने रहते हैं। गरीबी में भी मौज का जीवन बिताने की क्षमता दाम्पत्य जीवन की सफलता पर निर्भर है, इसे प्राप्त किया ही जाना चाहिए।

रविवार, 28 जुलाई 2024

 It's really magical

It is Gayatri Mantra in Raag Bhopali. Just close your eyes and listen to it. It is said that hearing this mantra at least twice a day also keeps your BP under control. The voices are of Hariharan, Anup Jalota, Sadhana Sargam, Devaki Pandit and Shankar Mahadevan. Music has been arranged by Ashit Desai .

शनिवार, 27 जुलाई 2024

भोजन करने से दस मिनट पहले अदरक के छोटे से टुकडे को सेंधा नमक में लपेट कर,नमक थोड़ा ज्यादा मात्रा में लें , अच्छी तरह से चबा लें। दिन में दो बार इसे अपने भोजन के  साथ प्रयोग  करें , इससे हृदय मजबूत और स्वस्थ बना रहेगा, दिल से सम्बंधित कोई बीमारी नहीं होगी और निराशा व अवसाद से भी मुक्ति मिल जाएगी

 विटामिन का राजा 'अखरोट' खाने के तमाम फायदों के बारे में आप सभी अच्छे से जानते होंगे। कैल्शियम, मैग्नीशियम, आयरन, फास्फोरस, कॉपर, सेलेनियम और प्रोटीन से भरपूर अखरोट कई बीमारियों से निजात दिलाने में मदद करता है। अखरोट को खाने से कुछ घंटों पहले अगर इसके भिगो कर रख दें तो इसके फायदे कई गुणा बढ़ जाते हैं।


अखरोट के औषधीय गुण के कारण इसके सेवन से कई स्वास्थ्य लाभ हो सकते हैं। यह कई रोग को दूर रखने और उसके इलाज में मदद कर सकता है, जो इस प्रकार है:


1. दिल के स्वास्थ्य के लिए

एनसीबीआई (नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉर्मेशन) की वेबसाइट पर पब्लिश एक वैज्ञानिक अध्ययन के मुताबिक, अखरोट खाने के फायदे हृदय को स्वस्थ बनाए रखने में मददगार साबित हो सकते हैं (1)। एक अन्य शोध में बताया गया है कि इसमें पॉलीअनसेचुरेटेड फैटी एसिड होता है, जो हृदय प्रणाली के लिए फायदेमंद होता है। इसके अलावा, जिन्हें उच्च रक्तचाप की समस्या होती है, उनके लिए भी अखरोट लाभकारी होता है। यहां बता दें कि पॉलीअनसेचुरेटेड फैटी एसिड शरीर से खराब कोलेस्ट्रॉल को कम करके अच्छे कोलेस्ट्रॉल के निर्माण में मदद करता है, जिससे हृदय को स्वस्थ रखने में मदद मिल सकती है (2)।


2. मस्तिष्क के लिए


अखरोट के औषधीय गुण को लेकर एक रिसर्च की गई, जिससे पता चलता है कि इसके सेवन से मस्तिष्क की कार्यप्रणाली में सुधार हो सकता है। इस रिसर्च के मुताबिक, अखरोट में भरपूर मात्रा में ओमेगा-3 फैटी एसिड पाया जाता है, जो मस्तिष्क के कार्य (ब्रेन फंक्शन) पर लाभकारी प्रभाव डाल सकता है (3)। फिलहाल, इस पर और शोध की आवश्यकता है, ताकि यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाए कि ओमेगा-3 ब्रेन फंक्शन पर किस तरह से काम करता है।


3. कैंसर के लिए


कैंसर जैसी घातक समस्या को दूर रखने में अखरोट फायदेमंद साबित हो सकता है। एक मेडिकल रिसर्च के अनुसार, अखरोट में एंटीकैंसर प्रभाव पाया जाता है। एंटीकैंसर प्रभाव के कारण कैंसर के ट्यूमर को पनपने से रोक सकता है। यह जानकारी एनसीबीआई की वेबसाइट पर उपलब्ध एक रिसर्च पेपर में दी गई है (4)। वहीं, अगर कोई कैंसर से पीड़ित है, तो उसे डॉक्टर से उचित इलाज करवाना चाहिए। सिर्फ घरेलू उपचार के जरिए कैंसर को ठीक करना संभव नहीं है।


4. हड्डियों के लिए


हड्डियों को मजबूती प्रदान करने के लिए भी अखरोट का सेवन किया जा सकता है। दरअसल, अल्फा लिनोलेनिक एसिड युक्त खाद्य पदार्थ के सेवन से हड्डियों को मजबूती मिलती है और जिन खाद्य पदार्थ में यह एसिड होता है, उनमें अखरोट भी शामिल है। इसके अलावा, अखरोट में कैल्शियम और विटामिन-डी भी पाया जाता है, जो हड्डियों को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी होता है (5)। ऐसे में कहा जा सकता है कि वालनट खाने के फायदे में हड्डियों को स्वस्थ रखना भी शामिल है।


5. वजन कम करने के लिए

वजन को कम करने में भी अखरोट का सेवन फायदेमंद साबित हो सकता है। एक वैज्ञानिक अध्ययन से प्राप्त निष्कर्ष से यह पता लगता है कि अखरोट के सेवन से वजन घटाने में मदद मिल सकती है। इस तथ्य की पुष्टि एनसीबीआई पर उपलब्ध रिसर्च पेपर से होती है (6)। फिलहाल, इस पर अभी और शोध की आवश्यकता है।


6. गर्भावस्था

एक वैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि गर्भावस्था के दौरान अखरोट का सेवन लाभकारी सिद्ध हो सकता है। इस शोध के मुताबिक अखरोट में पाए जाने वाले फैटी एसिड, विटामिन ए और ई होने वाले शिशु के मानसिक विकास में मदद कर सकते हैं। इसके अलावा, अखरोट में भरपूर मात्रा में फेनोलिक कंपाउंड (यौगिक) पाए जाते हैं, जो स्वास्थ्य पर लाभकारी प्रभाव डालने का काम कर सकते हैं। साथ ही इसमें एंटीकॉन्वेलसेंट, न्यूरोप्रोटेक्टिव और एंटीऑक्सीडेंट गुण भी होते हैं। अखरोट में प्रोटीन, पॉलीअनसेचुरेटेड फैटी एसिड (PUFA) और टोकोफेरॉल्स की भी समृद्ध मात्रा पाई जाती है (7)।


7. लो ब्लड प्रेशर के लिए

उच्च रक्तचाप की स्थिति में हृदय संबंधी रोग होने का जोखिम बना रहता है। ऐसे में उच्च रक्तचाप की समस्या को दूर रखना बेहतर होगा। इसके लिए अखरोट का सेवन करना अच्छा विकल्प साबित हो सकता है। एक शोध के अनुसार, अखरोट का सेवन उच्च रक्तचाप को कम करने का काम कर सकता है, जिससे हृदय से जुड़े जोखिम को दूर रखने में मदद मिल सकती है (8)। फिलहाल, इस पर और शोध की आवश्यकता है, ताकि रक्तचाप करने वाले पोषक तत्वों की जानकारी मिल सके।


8. प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए

प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) के मजबूत होने पर कई बीमारियों को दूर रखने में मदद मिल सकती है। इसे मजबूत करने में अखरोट के गुण सहायक साबित हो सकते हैं। दरअसल, अखरोट में मौजूद प्रोटीन में इम्यूनोमॉड्यूलेटरी प्रभाव पाए जाते हैं, जो इम्यून सिस्टम को मजबूत करने के लिए जाने जाते हैं (9)।


9. बेहतर नींद और तनाव से राहत पाने के लिए

अखरोट का सेवन करने से तनाव और नींद की समस्या से छुटकारा मिल सकता है। दरअसल, अखरोट में विटामिन-बी6, ट्रिप्टोफैन, प्रोटीन और फोलिक एसिड जैसे पोषक तत्व भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं, जो तनाव से छुटकारा दिलाने का काम कर सकते हैं। इसके अलावा, इसमें मौजूद ओमेगा 3 फैटी एसिड मूड को बेहतर करने का काम कर सकता है, जिससे अच्छी नींद आ सकती है। अखरोट ओमेगा 3 एसेंशियल फैटी एसिड और यूरिडीन का प्रमुख स्रोत है। ओमेगा 3 फैटी एसिड और यूरिडीन की मौजूदगी के कारण अखरोट में प्राकृतिक एंटीडिप्रेसेंट प्रभाव होता है (10)।


10. डायबिटीज

मधुमेह जैसी समस्या में अखरोट का सेवन लाभकारी साबित हो सकता है। एनसीबीआई द्वारा प्रकाशित एक वैज्ञानिक शोध में बताया गया है कि अखरोट का सेवन मधुमेह की रोकथाम में मददगार हो सकता है (11)। वहीं, इसी संबंध में बीजिंग स्थिति एक यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए रिसर्च से पता चलता है कि अखरोट के पेड़ और पत्तो में एंटी-डायबिटिक प्रभाव पाए जाते हैं। इस प्रभाव के कारण यह रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को कम करने का काम कर सकता है (12)। इससे मधुमेह की समस्या से राहत मिल सकती है। ऐसे में कहा जा सकता है कि अक्रोड खाने के फायदे में मधुमेह की समस्या को दूर रखना शामिल है।


11. मिर्गी से बचाव

अखरोट खाने के फायदे मिर्गी की समस्या को दूर रखने के लिए भी हो सकते हैं। दरअसल, फ्री रेडिकल्स के अधिक उत्पादन से मिर्गी और न्यूरोलॉजिकल जैसी विकारों का जोखिम बढ़ जाता है। इस समस्या को कम करने के लिए एंटीकॉन्वल्सेंट दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है। यह दवा मिर्गी के दौरे को कुछ कम कर सकती है। वहीं, एनसीबीआई की वेबसाइट पर मौजूद रिसर्च पेपर के अनुसार अखरोट में एंटीकॉन्वल्सेंट प्रभाव पाया जाता है। इस प्रभाव के कारण अखरोट मिर्गी के खिलाफ न्यूरोप्रोटेक्टिव यौगिक के रूप में काम कर सकता है। इस प्रकार मिर्गी की समस्या से बचा जा सकता है। वहीं, अगर किसी को मिर्गी की समस्या है, तो लक्षणों को कुछ कम किया जा सकता है (13)।


12. एंटी-इंफ्लेमेटरी और एंटीऑक्सीडेंट

कई समस्याओं के समाधान में एंटी-इंफ्लेमेटरी और एंटीऑक्सीडेंट प्रभाव की अहम भूमिका देखी गई है। वहीं, एक वैज्ञानिक शोध में पाया गया है कि अखरोट में ये दोनों प्रभाव पाए जाते हैं, जो इंफ्लेमेशन (सूजन) और ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस की समस्या से बचाए रखने का काम कर सकते हैं। ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस के कारण कैंसर, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, दिल की बीमारी, पार्किंसंस और अल्जाइमर जैसे घातक समस्याएं उत्पन्न हो सकती है। इसलिए, इससे बचने का बेहतर विकल्प अखरोट का सेवन हो सकता है (14)।


13. स्वस्थ पेट

एक शोध के अनुसार, 8 सप्ताह तक प्रतिदिन 43 ग्राम अखरोट का सेवन करने से एक स्वस्थ व्यक्ति में प्रोबायोटिक और ब्यूटिरिक एसिड का उत्पादक होता है, जो अच्छे बैक्टीरिया को बढ़ावा देते हैं। इससे आंतों को स्वस्थ्य बनाए रखने में मदद मिल सकती है। इस बात की पुष्टि एनसीबीआई की वेबसाइट पर उपलब्ध रिसर्च पेपर में भी की गई है (15)।


14. पित्त की पथरी

पित्त की पथरी के इलाज में अखरोट का सेवन सहायक हो सकता है। दरअसल, एनसीबीआई की वेबसाइट पर पब्लिश एक वैज्ञानिक अध्ययन के मुताबिक, अखरोट सहित कुछ नट्स में अनसैचुरेटेड फैटी एसिड, फाइबर और मिनरल पाए जाते हैं। ये सभी पोषक तत्व पित्त की पथरी से छुटकारा दिलाने में मदद कर सकते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि अखरोट के फायदे पित्त की पथरी से निजात दिलाने के लिए हो सकते हैं (14)। ध्यान रहे कि अखरोट सिर्फ मदद कर सकता है, इसे पित्त की पथरी का इलाज न समझा जाए।


15. एंटी-एजिंग

बढ़ते उम्र के प्रभाव को तेजी से बढ़ने से रोकने के लिए अखरोट का सेवन सहायक साबित हो सकता है। इस संबंध में पब्लिश एक रिसर्च पेपर में बताया गया है कि अखरोट विटामिन्स से भरपूर होता है, जो बढ़ते उम्र के प्रभाव को धीमा करने का काम करता है। साथ ही इसी शोध में अखरोट के तेल में एंटी-एजिंग प्रभाव का भी जिक्र किया गया है, जिसका उपयोग बढ़ते उम्र के प्रभाव को भी कम कर सकता है (12)। ऐसे में कहा जा सकता है कि अखरोट बढ़ते उम्र के प्रभाव को बढ़ने से रोकने का काम कर सकता है।


16. बालों के लिए

बालों के लिए अखरोट के फायदे हो सकते हैं । इसमें कई तरह के पोषक तत्व पाए जाते हैं, जो बालों को स्वस्थ बनाए रखने में मदद कर सकते हैं (16)। फिलहाल, बालों को लेकर अखरोट खाने के फायदे के संबंध में और शोध करने की जरूरत हैं।

शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

प्रत्येक अंग्रेजी दवा के

 अंत मे एक शब्द होता है

 जिससे जान सकते है 

वह दवा किस काम आएगी...

CAIN...

Xylocaine

 Benzocaine

 Amylocaine 

Lidocaine

ये एक लोकल 

इनेस्थेटिक है, अर्थात

 ये दवाईया किसी अंग 

को सुन्न करने के 

लिए दी जाती है

MYCIN.

Azithromycin

 Erythromycin 

Neomycin 

Strptomycin

ये एंटीबायोटिक है 

अर्थात इंफेक्शन के 

लिए दी जाती है

OLOL

Metaprolol

 Atenolol

 Esmolol

 Bisoprolol

ये बीटा ब्लॉकर्स होते है 

अर्थात इनका प्रयोग 

हाइपरटेंशन, या हार्ट अटैक / 

HIGH BP में करते है

MIDE & ZIDE...

Furosemide

 Bumetanide

 Benzthiazide 

Chlorothiazide

ये डाइयुरेटिक्स है अर्थात

 यूरीन को बढ़ाती है, 

शरीर मे सूजन होती है

 या BP ज्यादा होता है

 उन्हें देते है

VIR

Acyclovir 

Ritonavir 

Indinavir

ये एन्टीवायरल है 

अर्थात वायरस के 

इंफेक्शन में प्रयोग 

करते है

PAM.

Diazepam

 Lorazepam

ये एंटीएंजाइटी है 

अर्थात घबराहट बेचैनी

 नींद न आने में दी जाती है


STATIN......

Atorvastatin 

Simvastatin

 Lovastatin

इसका प्रयोग एंटी

 हायपर लिपिडेमिक्स

 में होता है अर्थात 

जिनका कोलस्ट्रॉल बढ़ 

जाता है उन्हें देते है

SONE...

Betamethasone

 Cortisone 

Dexamethasone

ये स्टेरॉइड है अर्थात 

सूजन को दूर करने

 के लिए देते हैं।

AZOLE.

Ketoconazole

Fluconazole

Econazole

Miconazole

एंटीफंगल है अर्थात 

फंगल इंफकेशन में 

दी जाती है


TIDINE.

Ranitidine

Cimetidine

Famotidine

Roxatidine

ये H2 रिसेप्टर ब्लोकर 

है अर्थात पेट मे एसिड को 

कम करती है, पेप्टिक 

अल्सर में प्रयोग होता है

SETRON.

Ondasetron

Grenisetron

Dolosetron

5HT3 एनटागोनिस्ट होती

 है अर्थात उल्टी, 

चक्कर में दी जाती है

OFLOXACIN.

Ciprofloxacin

Norfloxacin

Levofloxcin

ये एंटीबैक्टीरियल है

NIDAZOLE.

Metronidazole

Ornidazole

Tinidazole

ये एन्टीअमेबिक है 

अर्थात दर्द के साथ 

दस्त में दी जाती है

TRIPTAN.

Sumatriptan

Rizatriptan

Naratripton

5HT एगोनिस्ट होती है 

अर्थात माइग्रेन में

 दी जाती है

PROFEN.

Ibuprofen

Ketoprofen

Flurbiprofen

ये नॉन स्ट्रोइडल 

एंटी इन्फ्लामेट्री

 ड्रग्स होती है

 अर्थात सूजन, बुखार, 

दर्द आदि में दिया जाता है

PRAZOLE.

Pantoprazole, 

Omeprazole

Esomeprazole, 

Rabeprazole

पेट मे एसिड कम करती है 

और पेट मे हाइड्रोजन पोटेशियम

 पम्प को बन्द कर देती है,

 गेस्ट्रो सम्बन्धी पेप्टिक 

अल्सर में प्रयोग करते है

GLIPTIN....

Sitagliptin 

Vildagliptin

 Alogiptin 

Linagliptin

DDP 4 इन्हेबिटर है, 

अर्थात डाइबिटीज में 

प्रयोग होता है

सीखते रहिये।

मंगलवार, 23 जुलाई 2024

 गांधी ने जाने-अनजाने पुनः इसी दरिद्रता के दर्शन को फिर से सहारा दे दिया है। गांधी ने फिर दरिद्र को दरिद्रनारायण कह दिया है। दरिद्र नारायण नहीं है, दरिद्रता पाप है, दरिद्रता रोग है। उससे घृणा करनी है, उसे नष्ट करना है। दरिद्र को अगर हम पवित्र और भगवान और इस तरह की बातें करेंगे और दरिद्रता को महिमावंत करेंगे तो हम दरिद्रता को नष्ट नहीं कर सकते हैं, हम दरिद्रता को बनाए ही रखेंगे। हम दरिद्रता पर दया कर सकेंगे, सेवा कर सकेंगे दरिद्र की, लेकिन दरिद्र को मिटा नहीं सकेंगे। दरिद्र की सेवा की जरूरत नहीं है, दरिद्र के गुणगान की जरूरत नहीं है, दरिद्र को दया की जरूरत नहीं है, दरिद्र को पृथ्वी से समाप्त करना है, दरिद्र को नष्ट करना है, दरिद्र को नहीं बचने देना है। दरिद्रता के साथ एक महामारी का व्यवहार करना है। प्लेग और हैजा और मलेरिया के साथ हम जो व्यवहार करते हैं वह दरिद्रता के साथ व्यवहार करना है। लेकिन हिंदुस्तान की जो परंपरा है दरिद्रता की और त्याग की, गांधी के मन पर उसका प्रभाव है, सारे मुल्क के मन पर उसका प्रभाव है। हमने जाने-अनजाने हमारे अचेतन में, अनकांशस तक यह बात प्रविष्ट हो गई है कि दरिद्रता को कुछ गौरव है।

यह बहुत ही खतरनाक दृष्टि है, यह बहुत ही आत्मघाती दृष्टि है; क्योंकि जब हम दरिद्रता को इस भांति स्वीकार करते हैं, सम्मान देते हैं और दरिद्रता में संतोष कर लेने को एक धार्मिक गुण मानते हैं, तो फिर समाज समृद्ध कैसे होगा? समाज संपत्ति पैदा कैसे करेगा? 

रविवार, 21 जुलाई 2024

 संसार के प्रथम गुरु भगवान श्री कृष्ण, जिनके श्रीमुख से उच्चरित श्रीमद्भागवत को पढ़कर मानव जीवन में अग्रसित हो रहा है,को सादर प्रणाम।

शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

 खुद का सम्मान करो, 

खुद से प्यार करो, 

क्योंकि तुम्हारे जैसा कोई व्यक्ति 

कभी भी नहीं हुआ और 

न फिर कभी होगा।

बुधवार, 17 जुलाई 2024

 औरत समझती नहीं है, लेकिन सच तो ये है 

मर्द आपनी पसंदीदा स्त्री को छूने वाली 

हवा का भी दुश्मन होता है।

मंगलवार, 16 जुलाई 2024

 दो भूत आपस में बात कर रहे थे। पहला भूत तू मरा कैसे? दूसरा भूत फ्रिज की ठंड से और तू कैसे मरा?

पहला भूत.... पत्नी पर शक था पूरा घर ढूंढ डाला लेकिन आशिक नहीं मिला इसलिए परेशान होकर सुसाइड किया.....। पहला भूत... फ्रिज खोल कर देख लेता तो दोनों बच जाते....।

सोमवार, 15 जुलाई 2024

दुनिया में एक तिहाई बीमारियाँ डॉक्टरों द्वारा पैदा की जाती हैं। जानबूझकर नहीं - सिर्फ़ उनकी दवाइयों के कारण, जिनके दुष्परिणाम होने वाले हैं। कुछ समय के लिए वे उपयोगी हो सकती हैं, लेकिन वे आपकी केमिस्ट्री, आपके हॉरमोन, आपकी बायोलॉजी में कुछ बदलाव ला सकते हैं। 

मिसाल है राधा-कृष्ण का प्यार... 

राधा-कृष्ण की जोड़ी से हमें प्यार और जिंदगी की बहुत सी चीजें सीखने को मिलती हैं. दोनों के प्यार में समर्पण है, ठहराव है. दोनों का प्यार एक ऐसी मिसाल है जिससे आज के प्रेमी जोड़े भी बहुत कुछ सीख सकते हैं.

राधा-कृष्ण का नाम एक-दूसरे के बिना नहीं लिया जाता. दोनों का नाम एक साथ ऐसे लिया जाता है मानों यह एक ही नाम हो. राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं और कृष्ण के बिना राधा. दोनों की प्रेम कहानी की मिसाल दी जाती है.

आज के समय में जबकि रिश्तों में ठहराव और समर्पण खोता जा रहा है ऐसे में राधा-कृष्ण की प्रेम कहानी एक सीख है. उनके प्यार और जीवन से ये कुछ खास बातें हम सभी सीख सकते हैं.

1. पार्टनर के लिए समर्पण का भाव रखें

राधा शक्ति का अवतार मानी जाती हैं. कहा जाता है राधा, कृष्ण के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थीं. वृंदावन के माखन चोर जब भी बांसुरी बजाया करते थे, राधा उनकी धुन में पूरी तरह खो जाती थीं और खुद को नाचने से रोक नहीं पाती थीं.

तो आप भी अपने पार्टनर के लिए पूरी तरह समर्पित रहें, अपने हाव-भाव में अपने इस भाव को दिखाएं.

2. रिश्ते में धीरज रखें

यह माना जाता है कि राधा जो कृष्ण से उम्र में बड़ी थीं, उन्होंने तब तक अपनी आंखें नहीं खोली थी जब तक कृष्ण का जन्म नहीं हुआ था. इस तरह का प्यार दृढ़ता और धैर्य रखने से ही आता है.

यदि आपको भी अपना रिश्ता मजबूत रखना है तो छोटी- छोटी लड़ाइयों में पड़ने से बेहतर है कि शांत भाव से रहें और बातों से मसलों को सुलझाएं. रिश्ते का असली मतलब यही होता है कि आप एक-दूसरे को समझें.

3. अपने पार्टनर से शक्ति लें और उसकी ताकत बनें

भगवान कृष्ण जो पृथ्वी पर भगवान विष्णु के आठवें अवतार थे, उन्होंने राधा से शक्ति ग्रहण की थी. कृष्ण से बहुत सी गोपियां प्यार करती थीं लेकिन कृष्ण तो अपना दिल राधा पर हार बैठे थे. जब तक कृष्ण वृंदावन रहे, राधा ने हमेशा उनका साथ दिया था.

आप भी अपने पार्टनर की शक्ति बनने की कोशिश करें ना कि उनकी कमजोरी बनें. आपके प्यार में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि जरूरत पड़ने पर आप पर्वत भी हिला दें.

4. अपने पार्टनर की आत्मा से जुड़ें

कृष्ण जब यमुना नदी के अंदर कालिया नाग का वध करने गए तब वृंदावन में सब कृष्ण की कुशलता के लिए प्रर्थना कर रहे थे. उस समय बस राधा ही थीं जो कृष्ण के लिए जान देने के लिए भी तैयार थीं.

ऐसी भावनाएं आप में तभी आ सकती हैं जब आप अपने पार्टनर के साथ दिल की गहराई से जुड़े हों. एक-दूसरे की आत्मा को छूने का प्रयास करें.

5. प्रेम में त्याग करना सीखें

सच्चे प्यार की परिभाषा को समझें. प्यार करने का अर्थ

यह नहीं होता कि आप उनके साथ ही रहें. यह राधा-कृष्ण

की कहानी से अच्छा आपको कौन समझा सकता है. जब

कृष्ण को वृंदावन छोड़ना था जब उन्हें पता था कि उन्हें

अपना सबकुछ यहीं छोड़ कर जाना होगा. वो जानते थे

कि उन्हें राधा को भी छोड़ना होगा. राधा जानती थीं

कृष्ण उनसे शादी नहीं कर पाएंगे और ना ही शारीरिक

रूप से उनके साथ मौजूद होंगे. लेकिन वो जानती थीं कि

दोनों की आत्मा एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं.

आज की जेनरेशन ये सब नहीं समझती है. आज के समय में ज्यादातर रिश्ते सिर्फ नाम के लिए हैं, रिश्तों को महसूस करना जरूरी है.

रविवार, 14 जुलाई 2024

जहां भी तुम प्रीति को उंडेल दोगेवहीं क्रांति घट जाती है। प्रेम क्रांति है। प्रेम पत्थर को रूपांतरित कर देता है। और जहा प्रेम नहीं हैवहा जीवंत व्यक्ति भी पत्थर होकर रह जाता है। तुमने देखाजिस व्यक्ति से तुम्हारा प्रेम नहीं हैवह व्यक्ति है या नहीं हैतुम्हें कोई अंतर नहीं पड़ता। पड़ोस में कोई मर गयातुम सुन भी लेते होकहते हो बुरा हुआमगर वह भी सब औपचारिक है। तुम्हारे भीतर कोई रेखा नहीं खिंचती। लेकिन तुमने अगर किसी पत्थर की मूर्ति को भी प्रेम किया और वह टूट गयीतो तुम रोओगे। तुम्हारा हृदय टुकड़े—टुकड़े हो जाएगा। जीवन वहीं होता है जहा तुम्हारा प्रेम होता है। जीवन वहीं दिखायी पड़ता है जहा तुम प्रेम की आंख से देखते हो। नहीं तो कहीं जीवन दिखायी नहीं पड़ता।

शनिवार, 13 जुलाई 2024

 कितना आधुनिक थे रामायण के समय धरती और मनुष्य ? 


1. उस समय नदी में नाव और जलपोत चलते थे।

 2. कई लोगों के पास मायावी विमान तक होते थे जिनपर एक साथ 4 लोग बैठते थे!

3. रावण के पास पुष्पक विमान के साथ और कई विमान और आधुनिक नाव व समुंद्री जलपोत थे।

4. उस समय लोकप्रिय खेल शतरंज था जिसकी रचना रावण की पत्नी मंदोदरी ने की थी उस समय इसे चतुरंग कहते थे!

5. पुराणों के अनुसार श्रीराम और रावण का युद्ध धनुष, बाण,गदा, तलवार और आदि से भी ज्यादा शस्त्रो से लड़ा गया था!

6. जिस तरह आज के समय कई तरह की Missile, Rocket, Bomb, Tank और कई हथियार होते है उसी तरह के एक हथियार से सदासुर राक्षस ने श्रीराम की सेना पर प्रहार किया जिसने सुवेल नामक पर्वत के साथ दक्षिण भारत के गिरी को समंदर में गिरा दिया था।

शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

ऑफिस के बिजी शेड्यूल और थकान के उपरांत एक महिला मेट्रो में चढ़ी और अपनी सीट पे बैठकर आंखें बंद करके थोड़ा मानसिक आराम कर तनाव दूर कर रही थी..

जैसे ही ट्रेन स्टेशन से आगे बढ़ी, वर्मा जी जो कि महिला के बगल वाली सीट पर बैठे थे...

अपना मोबाइल निकाला और जोर जोर से बातें करने लगे.. वर्मा जी का संवाद इस प्रकार था :-

जानेमन, मैं अनिल बोल रहा हूं और मेट्रो पकड़ ली है.. हां, मुझे पता है कि अभी सात बजे है पांच नहीं.. मैं मीटिंग में व्यस्त था इसलिए देर हो गई..

नहीं जानेमन, मैं एकाउन्टेंट प्रीति के साथ नहीं बल्कि बॉस के

साथ मीटिंग में था..

नहीं जान, केवल तुम अकेली ही मेरे जीवन मे हो.. हाँ, पक्का कसम से..!!

पन्द्रह मिनट बाद भी जब वर्मा जी जोर जोर से वार्तालाप जारी किए हुए थे..

तब वो महिला जो कि परेशान हो चुकी थी.. फोन के पास जाकर जोर से बोली :-

अनिल डार्लिंग फ़ोन बंद करो ना.. बहुत हो चुका.. अब तुम्हारी प्रीती और इंतजार नहीं कर सकती..!!

अब वर्मा जी हॉस्पीटल से वापिस आ चुके है और..उन्होंने सार्वजनिक स्थान पर मोबाइल का इस्तेमाल पूरी तरह से बंद कर दिया है..!!

आप भी ध्यान रखें वरना कोई प्रीति आपकी जिंदगी खराब कर सकती हैं।

 श्रवण कुमार के पिता रत्नऋषि नंदीग्राम के राजा अश्वपति के राजपुरोहित थे और कैकेयी राजा अश्वपति की बेटी थी। रत्नऋषि ने कैकेयी को सभी शास्त्र वेद पुराण की शिक्षा दी।

एक दिन बातों ही बातों में अयोध्या नरेश महाराजा दशरथ की चर्चा चल पड़ी। रत्नऋषि ने कैकेयी को बतलाया कि दशरथ की कोई संतान राज गद्दी पर नहीं बैठ पायेगी और साथ ही ज्योतिष गणना के आधार पर यह भी बतलाया कि दशरथ की मृत्यु के पश्चात यदि चौदह वर्ष के दौरान कोई संतान गद्दी पर बैठ भी गया तो रघुवंश का नाश हो जाएगा।

यह बात कैकेयी ने पूरी तरह हृदयगंम कर लिया और विवाह के बाद भी कैकेयी के जेहन मे यह बात पूरी तरह समायी हुई थी।

जब राम के राज तिलक करने का अवसर आया तो बुद्धिमती कैकेयी को राजपुरोहित के कथन का स्मरण हो आया और उसने यह निश्चय कर लिया कि वह अपने प्रिय पुत्र राम को रघुवंश के विनाश का कारण नहीं बनने देगी और वही हुआ।

राम के वन गमन के पश्चात् भी कैकेयी भरत के लिए भी यही चाहती थी कि वह राजसिंहासन पर बैठ कर राज्य का संचालन न करे और यही हुआ। भरत ने राज कार्य तो संभाला लेकिन राजसिंहासन धारण न कर सिंहासन पर राम की चरण पादुका स्थापित कर राज्य का शासन कुशासन पर बैठ कर संचालित किया।

गुरुवार, 11 जुलाई 2024

 एक बार भूतभावन भगवान् शंकर ने अपनी प्राणवल्लभा पार्वती जी से अपने ही साथ भोजन करने का अनुरोध किया। भगवती पार्वती जी ने यह कहकर टाला कि वे विष्णुसहस्रनाम का पाठ कर रही हैं। थोड़ी देर तक प्रतीक्षा करके शिवजी ने जब पुनः पार्वती जी को बुलाया तब भी पार्वती जी ने यही उत्तर दिया कि वे विष्णुसहस्रनाम के पाठ के विश्राम के पश्चात् ही आ सकेंगी। शिव जी को शीघ्रता थी। भोजन ठण्डा हो रहा था। अतः भगवान् भूतभावन ने कहा- पार्वति! राम राम कहो। एक बार राम कहने से विष्णुसहस्रनाम का सम्पूर्ण फल मिल जाता है। क्योंकि श्रीराम नाम ही विष्णु सहस्रनाम के तुल्य है। इस प्रकार शिवजी के मुख से ‘राम’ इस दो अक्षर के नाम का विष्णुसहस्रनाम के समान सुनकर ‘राम’ इस द्व्यक्षर नाम का जप करके पार्वती जी ने प्रसन्न होकर शिवजी के साथ भोजन किया।

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।

 सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥

हे पार्वति! मैं भी इन्हीं मनोरम राम में रमता रहता हूँ। यह राम नाम विष्णु सहस्रनाम के तुल्य है। 

इस मंत्र को श्री राम तारक मंत्र भी कहा जाता है। और इसका जाप, सम्पूर्ण विष्णु सहस्त्रनाम या विष्णु के 1000 नामों के जाप के समतुल्य है। यह मंत्र श्री राम रक्षा स्तोत्रम् के नाम से भी जाना जाता है।

 हरे कृष्ण हरे कृष्ण

कृष्ण कृष्ण हरे हरे

हरे राम हरे राम

राम राम हरे हरे॥

 श्रील प्रभुपाद जी महाराज ने इस 'हरे कृष्ण महामंत्र' को पूरे विश्व में प्रसिद्ध कर दिया। यह अति पवित्र मंत्र है । 

दुनियाभर में भगवान कृष्ण के असंख्य भक्त हैं. इन सभी के लिए एक इंटरनेशनल संगठन का निर्माण किया गया.जिसका इस्कॉन नाम दिया गया, इस्कॉन का पूरा नाम इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्ण कॉन्शसनेस है. 

1. इस्कॉन मंदिर के अनुयाई तामसिक भोजन जैसे प्याज, लहसुन, मांस, मदिरा का सेवन नहीं करते.

2. इन लोगों को अनैतिक आचरण वाली चीजों से दूर रहना होता है.

3. नियमित रूप से सभी को एक घंटा शास्त्रों का अध्ययन करना होता है. जिसमें गीता और भारतीय धर्म से जुड़े शास्त्रों के बारे में पढ़ते हैं.

4. सबसे मुख्य नियम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे महामंत्र की 16 बार माला करनी होती है.



बुधवार, 10 जुलाई 2024

प्रथम अध्याय में दोनों सेनाओं का वर्णन किया जाता है। शंख बजाने के पश्चात अर्जुन सेना को देखने के लिए रथ को सेनाओं के मध्य ले जाने के लिए कृष्ण से कहता है। सहसा अर्जुन के चित्त पर एक दूसरे ही प्रकार के मनोभाव का आक्रमण हुआ, कार्पण्य का। एक विचित्र प्रकार की करुणा उसके मन में भर गई और उसका क्षात्र स्वभाव लुप्त हो गया। जिस कर्तव्य के लिए वह कटिबद्ध हुआ था उससे वह विमुख हो गया। ऊपर से देखने पर तो इस स्थिति के पक्ष में उसके तर्क धर्मयुक्त जान पड़ते हैं, किंतु उसने स्वयं ही उसे कार्पण्य दोष कहा है और यही माना है कि मन की इस कायरता के कारण उसका जन्मसिद्ध स्वभाव उपहत या नष्ट हो गया था। 

तब मोहयुक्त हो अर्जुन कायरता तथा शोक युक्त वचन कहता है। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि युद्ध करे अथवा वैराग्य ले ले। क्या करें, क्या न करें, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इस मनोभाव की चरम स्थिति में पहुँचकर उसने धनुषबाण एक ओर डाल दिया।

कृष्ण ने अर्जुन की वह स्थिति देखकर जान लिया कि अर्जुन का शरीर ठीक है किंतु युद्ध आरंभ होने से पहले ही उस अद्भुत क्षत्रिय का मनोबल टूट चुका है। बिना मन के यह शरीर खड़ा नहीं रह सकता। अतएव कृष्ण के सामने एक गुरु कर्तव्य आ गया। अत: तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म की चर्चा से, विश्व के स्वभाव से, उसमें जीवन की स्थिति से, दोनों के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन के मन का उद्धार करना, यही उनका लक्ष्य हुआ। इसी तत्वचर्चा का विषय गीता है। पहले अध्याय में सामान्य रीति से भूमिका रूप में अर्जुन ने भगवान से अपनी स्थिति कह दी।

मंगलवार, 9 जुलाई 2024

 15. सदैव संदेह करने वाले व्यक्ति के लिए प्रसन्नता ना इस लोक में है ना ही कहीं और।

16. जब इंसान अपने काम में आनंद खोज लेता हैं, तब वे पूर्णता प्राप्त कर लेता हैं। 

17. व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को वश में रखने के लिए बुद्धि और मन को नियंत्रित रखना होगा।

 7. जो व्यवहार आपको दूसरों से अपने लिए पसंद ना हो, ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ भी ना करें। 

8. हे पार्थ, तुम फल की चिंता मत करो, अपना जरुरी कर्म करते रहो, मै फल जरूर दुंगा। 


9. तुम्हारे साथ जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है वो भी अच्छा है और जो होगा वो भी अच्छा होगा।


10. जीवन का आनंद ना तो भूतकाल में है और ना भविष्यकाल में। बल्कि जीवन तो बस वर्तमान को जीने में है।


11. मन की शांति से बढ़कर इस संसार में कोई भी संपत्ति नहीं है।


12. जो व्यक्ति मन को नियंत्रित नहीं करते, उनके लिए मन शत्रु के समान कार्य करता हैं। 


13. जो लोग बुद्धि को छोड़कर भावनाओं में बह जाते हैं, उन्हें हर कोई मुर्ख बना सकता हैं। 


14. कोई भी इंसान अपने जन्म से नहीं, बल्कि अपने कर्मो से महान बनता है।

 1. कोई भी अपने कर्म से भाग नहीं सकता, कर्म का फल तो भुगतना ही पड़ता हैं। इसलिए अच्छे कर्म करो ताकि अच्छे फल मिले। 

2. ज्यादा खुश होने पर और ज्यादा दुखी होने पर निर्णय नहीं लेना चाहिए। क्योंकि यह दोनों परिस्थितियां आपको सही निर्यय नहीं लेने देती हैं। 


3. जो होने वाला हैं वो होकर ही रहता है, और जो नहीं होने वाला वह कभी नहीं होता, जो ऐसा मानते हैं, उन्हें चिंता कभी नहीं सताती हैं। 

4. सही कर्म वह नहीं है जिसके परिणाम हमेशा सही हो बल्कि सही कर्म वह है जिसका उद्देश्य कभी भी गलत ना  हो। 

5. धरती पर जिस तरह मौसम में बदलाव आता हैं, उसी तरह जीवन में भी सुख- दुःख आता जाता रहता हैं। 


6. मानव कल्याण ही भगवद गीता का प्रमुख उद्देश्य है, इसलिए मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन करते समय, मानव कल्याण को प्राथमिकता देनी चाहिए। 

 आध्यात्मिक मनोवृत्ति वाले जो भक्त पहले यज्ञ में अर्पित करने के पश्चात भोजन ग्रहण करते हैं, वे सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो अपनी इन्द्रिय तृप्ति के लिए भोजन बनाते हैं, वे वास्तव में पाप अर्जित करते हैं।

वैदिक परम्परा में भोजन इस भावना से बनाया जाता था कि भोजन भगवान के सुख के लिए है। फिर भोज्य पदार्थों के एक भाग को किसी पात्र में रखकर मौखिक रूप से या मन से भगवान से इसका भोग लगाने की प्रार्थना की जाती थी। भगवान का भोग लगाने के पश्चात पात्र में रखे भोजन को भगवान का प्रसाद या भगवान की कृपा समझा जाता है।  श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में यह व्याख्या की है कि सर्वप्रथम भगवान के भोग के लिए अर्पित किए गए भोजन को जब प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है तब वह मनुष्यों को पाप मुक्त करता है और जो भगवान को भोग लगाए बिना भोजन ग्रहण करते हैं, वे पाप अर्जित करते हैं।

यदि हम अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए भोजन ग्रहण करते हैं तब भी हम जीवन के विनाशकारी कर्मफलों से बंधन में पड़ जाते हैं। इस श्लोक में प्रयुक्त शब्द आत्म-कारणात् का अर्थ 'अपना निजी सुख' है। किन्तु यदि हम भगवान को अर्पित करने के पश्चात यज्ञ के अवशेषों का प्रसाद के रूप में सेवन करते हैं तब हमारी भावना परिवर्तित हो जाती है और हम अपने शरीर को भगवान की धरोहर के रूप में देखते हैं जिसकी देखभाल भगवान की सेवा के लिए की जाती है। हमें भगवान की कृपा से प्राप्त अनुमत्य भोजन को इस भावना के साथ ग्रहण करना चाहिए कि यह हमारे शरीर को स्वस्थ बनाए रखेगा। 

 परमपिता परमात्मा संसार की शासन व्यवस्था के नियंत्रण और संचालन संबंधी अपने कार्य देवताओं के माध्यम से करते हैं। ये देवता भौतिक ब्रह्मांड के उच्च लोक जिसे स्वर्ग या देवलोक कहा जाता है, में निवास करते हैं। देवतागण भगवान नहीं हैं अपितु वे भी हमारे जैसी आत्माएँ हैं। उन्हें संसार के संचालन से संबंधित दायित्वों का निर्वाहन करने हेतु पद सौंपे गये हैं। संसार के प्रशासन संबंधी कार्यों का संचालन करने के लिए  कुछ पद जैसे अग्निदेव अग्नि का देवता, वायु देव वायु का देवता, वरुणदेव समुद्र का देवता, इन्द्रदेव स्वर्ग के देवताओं का राजा आदि पदों का सृजन किया गया है। पूर्वजन्म के संस्कारों, गुणों और पाप-पुण्यमय कर्मों के आधार पर जीवात्मा को इन पदों पर नियुक्त किया जाता है। ये पद दीर्घकाल के लिए निश्चित होते हैं और इन पदों पर आसीन लोग ब्रह्मांड के शासन का संचालन करते हैं। ये सब देवता हैं। वेदों में स्वर्ग के देवताओं को प्रसन्न करने के लिए कई प्रकार के कर्मकाण्डों एवं धार्मिक विधि-विधानों का उल्लेख किया गया है और इनके बदले में देवता लौकिक सुख समृद्धि प्रदान करते हैं। जब हम अपने यज्ञ कर्म भगवान की संतुष्टि के लिए करते हैं तब स्वर्ग के देवता भी स्वतः संतुष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार हम किसी वृक्ष की जड़ को पानी देते है तब वह स्वतः उसके पुष्पों, फलों, पत्तियों शाखाओं और लताओं तक पहुँच जाता है। 

 विष्णु भगवान की उपासना करने से सभी देवताओं की स्वतः उपासना हो जाती है क्योंकि वे अपनी शक्तियाँ उनसे प्राप्त करते हैं। इसलिए यज्ञ कर्म के निष्पादन से देवतागण वास्तव में प्रसन्न होते हैं और वे कृपापूर्वक भौतिक प्रकृति के उपादानों का सामंजस्य करते हुए मानव समाज के लिए सुख समृद्धि की व्यवस्था करते हैं।

  हाथ हमारे शरीर का अभिन्न अंग है। यह अपने पोषण हेतु शरीर से रक्त, ऑक्सीजन, विटामिन आदि प्राप्त करता है और इसके बदले में यह शरीर के लिए आवश्यक कार्य करता है। यदि हाथ यह सोचने लगे कि शरीर की सेवा करना एक बोझ है और यह निर्णय कर ले कि शरीर ही उसकी सेवा करे तब हाथ एक क्षण के लिए भी चेतन नहीं रह सकता। यदि वह शरीर के लिए यज्ञ के रूप में कर्म करता है तब हाथ का निजी स्वार्थ भी पूरा हो जाता है। समान रूप से जीवात्माएँ भगवान का अणु अंश हैं और भगवान की अनन्त सृष्टि में हम सब को भी अपनी भूमिका का निर्वाहन करना चाहिए। जब हम अपने समस्त कार्यों को यज्ञ के रूप में भगवान की सेवा में अर्पित करते हैं तब इससे हमारे निजी हित की भी स्वाभाविक रूप से तुष्टि होती है। 

प्रायः हवन कुंड में अग्नि प्रज्जवलित कर हवन करने को यज्ञ कर्म कहा जाता है। परन्तु भागवद्गीता में वर्णित 'यज्ञ' में धार्मिक ग्रंथों में लिखित सभी नियत कर्म भी सम्मिलित हैं जिन्हें हम भगवान को अर्पित करने के भाव से सम्पन्न करते हैं।

 डाकू हत्या करने के प्रयोजन से चाकू का प्रयोग करता है जबकि एक सर्जन उसी चाकू का प्रयोग एक उपकरण के रूप में लोगों का जीवन बचाने के लिए करता है। यह चाकू स्वयं न तो किसी की हत्या करता है और न ही किसी के जीवन की रक्षा करता है। इसके प्रभाव का परिणाम इसका प्रयोग करने के प्रयोजन से ज्ञात होता है। कोई भी कर्म बुरा या अच्छा नहीं होता किन्तु हमारी सोच इन्हें ऐसा बनाती है।  मनुष्य की मनोदशा के अनुसार यह बंधन या उत्थान का कारण हो सकता है। इन्द्रिय सुख भोगों और अपने अहम् की तुष्टि के लिए किया गया कार्य भौतिक संसार में बंधन का कारण होता है और भगवान के सुख के लिए यज्ञ के रूप में किया गया कर्म माया के बंधनों से मुक्त करता है तथा भगवान की दिव्य कृपा प्राप्त करने की ओर उत्साहित करता है। क्योंकि कर्म करना हमारी प्रकृति है और हम दो प्रकार के कार्यों में किसी एक को करने के लिए बाध्य होते हैं। हम एक क्षण के लिए भी अकर्मा नहीं रह सकते क्योंकि हमारा मन खाली नहीं रह सकता। अगर कोई भी कार्य हम भगवान को अर्पण किए बिना करते हैं तब हम अपने मन और इन्द्रियों की तुष्टि के लिए कार्य करने के लिए विवश होंगे। जब हम किसी कार्य को समर्पण की भावना से सम्पन्न करते हैं तब हम यह पाते हैं कि यह सारा संसार और उसमें व्याप्त सभी वस्तुएँ भगवान से संबंधित हैं और उनका उपयोग भगवान की सेवा के लिए ही है। 

सोमवार, 8 जुलाई 2024

 जब श्रीकृष्ण धरती पर मनुष्य के रूप में प्रकट हुए तब उन्होंने योद्धा राजाओं के परिवार के एक सदस्य के रूप में समाज में अपनी प्रतिष्ठा के अनुसार उपयुक्त सभी प्रकार के अपेक्षित शिष्टाचारों और कुलाचारों को अपनाया। यदि वे इसके विपरीत कर्म करते तब अन्य मनुष्य भी यह सोचकर उनका अनुकरण करते कि उन्हें भी धर्मपरायण राजा वासुदेव के सुयोग्य पुत्र के आचरण का अनुकरण करना चाहिए। यदि श्रीकृष्ण वैदिक कर्म का अनुपालन करने में असफल हो जाते तब मानव जाति भी उनके पदचिन्हों का अनुसरण कर कर्म के अनुशासन से पलायन कर अराजकता की स्थिति में आ जाती। यह एक गम्भीर अपराध होता और श्रीकृष्ण इसके दोषी कहलाते इसलिए वे अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि यदि वह अपने वर्ण धर्म का पालन नहीं करेंगे तब उसके कारण समाज में अराजकता उत्पन्न होगी। 

अर्जुन युद्ध में पराजित न होने वाला विश्व विख्यात योद्धा था और धर्मपरायण सत्यवादी राजा युधिष्ठर का भाई था। यदि अर्जुन धर्म की रक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करने से मना कर देता तब अन्य पराक्रमी और श्रेष्ठ योद्धा भी उसका अनुकरण करते हुए धर्म की रक्षा के निमित्त अपने नियत कर्त्तव्य पालन को त्याग देते। इससे संसार का संतुलन डगमगा जाता और निर्दोष तथा सदगुणी लोगों का विनाश हो जाता। इसलिए श्रीकृष्ण ने समूची मानव जाति के कल्याणार्थ अर्जुन को उसके लिए निश्चित वैदिक कर्त्तव्यो की उपेक्षा न करने के लिए मनाया।

 हम सब इसलिए कार्य करते हैं क्योंकि हमारी कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं। हम सब भगवान के अणु अंश हैं जो आनन्द के महासागर हैं और इसलिए हम भी आनन्द चाहते हैं। फिर भी हमें अभी तक पूर्ण आनन्द प्राप्त नहीं हुआ है क्योंकि हम स्वयं को असंतुष्ट और अपूर्ण समझते हैं। हम जो कुछ भी करते हैं, केवल आनन्द की प्राप्ति के लिए ही करते हैं लेकिन आनन्द भगवान की एक शक्ति है और केवल वे ही असीम आनन्द के स्वामी हैं। भगवान ही पूर्ण और स्वयंसिद्ध हैं और उन्हें किसी बाहरी पदार्थ की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती इसलिए उन्हें आत्माराम, आत्मरति और आत्मक्रिया भी कहा जाता है। यदि ऐसा परम पुरुष कोई कार्य करता है तब उसका केवल एकमात्र यह कारण होता है कि वे अपने लिए कुछ न कर लोगों के कल्याण के लिए ही कार्य करेगा। इस प्रकार से श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि साकार रूप में भी ब्रह्माण्ड में मेरे लिए किस प्रकार के नियत कर्म नहीं हैं लेकिन फिर भी मैं लोगों के कल्याण के लिए कर्म करता हूँ। अब वे स्पष्ट करते हैं कि जब वे कर्म करते हैं तब भी उससे किस प्रकार से मानव मात्र का कल्याण पूरा होता है।

 प्राचीनकाल में सौभरि नाम के परम तपस्वी थे सौभरि का अपने शरीर पर इतना नियंत्रण था कि वे यमुना नदी के बीच में जल में डुबकी लगाकर जल के नीचे तपस्या करते थे। एक दिन उन्होंने दो मछलियों को मैथुन क्रिया करते हुए देख लिया। इस दृश्य ने उनके मन और इन्द्रियों को हर लिया और उनमें संभोग करने की इच्छा जागृत हो गयी। उन्होंने तपस्या को बीच में छोड़ दिया और नदी से बाहर निकल आये और अपनी काम-वासना की तृप्ति के संबंध में सोचने लगे। उस समय अयोध्या में मान्धाता नामक राजा, जो बहु-यशस्वी और दयालु शासक था। उसकी पचास कन्याएँ थीं जो सब एक-दूसरे से सुन्दर थीं। सौभरि ने राजा के पास जाकर उससे पचास राजकुमारियों में से एक कन्या उसे सौंपने को कहा। राजा को उस तपस्वी की विवेकशीलता पर आश्चर्य हुआ और वह समझ गया-"यह वृद्ध तपस्वी विवाह करना चाहता है। राजा, तपस्वी सौभरि की शक्ति से परिचित होने के कारण वह भयभीत थे कि यदि उन्होंने सौभरि मुनि के प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो वे राजा को श्राप दे देंगे। राजा के लिए इस प्रस्ताव को मानने का अर्थ यह होता कि उसकी एक कन्या का जीवन नष्ट हो जाता। वह दुविधा में पड़ गया। राजा ने कहा, "हे पुण्यात्मा! मुझे आपके आग्रह को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है। कृपया आसन ग्रहण करें, मैं अपनी पचास कन्याओं को आपके सम्मुख प्रस्तुत करता हूँ और जो भी कन्या आपका वरण करेगी, मैं उससे आपका विवाह कर दूंगा।" राजा को विश्वास था कि उसकी कोई भी कन्या उस बूढ़े तपस्वी का चयन नहीं करेगी और इस प्रकार से वह उस मुनि के श्राप से बच जाएगा। सौभरि राजा के अभिप्राय को भली-भांति समझ गया। उन्होंने राजा से कहा कि वे कल आएँगे। संध्या के समय उसने अपनी योग शक्ति द्वारा स्वयं को एक सुंदर नवयुवक के रूप में परिवर्तित कर लिया। अगले दिन जब सौभरि मुनि महल में पहुंचे तब सभी पचास राजकुमारियों ने उन्हें पति के रूप में वरण कर लिया। राजा ने अपने दिए गये वचन से बंधे होने के कारण विवश होकर अपनी सभी कन्याओं का विवाह तपस्वी के साथ कर दिया। अब राजा को अपनी कन्याओं में परस्पर कलह होने की चिन्ता सताने लगी क्योंकि उन्हें एक ही पति के साथ जीवन व्यतीत करना था। सौभरि ने पुनः अपनी योग शक्ति का प्रयोग किया। राजा की आशंका को दूर करने के लिए उसने अपने पचास रूपा धारण कर लिए और अपनी पत्नियों के लिए पचास महल बना दिए और उन सभी के साथ अलग-अलग रहने लगा। इस प्रकार सहस्रों वर्ष व्यतीत हो गए। 

पुराणों में उल्लेख है कि सौभरि की उन सभी पत्नियों से अनेक सन्तानों ने जन्म लिया और उनकी आगे और संतानें हुई और यहाँ तक कि एक छोटा नगर बस गया। एक दिन सौभरि के चित्त में विचार आया और वे शोक से कहने लगे “अहो इमं पश्यत मे विनाशं " अर्थात हे मनुष्यों! तुम में से जो लौकिक पदार्थों से सुख प्राप्त करना चाहते हैं, वे सावधान हो जाएँ। मेरे अधोपतन की ओर देखें कि पहले मैं कहाँ था और अब मैं कहाँ पर हूँ। मैंने योग शक्ति द्वारा पचास शरीर धारण किए तथा सहस्त्रों वर्षों तक पचास स्त्रियों के साथ रहा फिर भी इन्द्रिय भोगों से तृप्ति नहीं हुई, अपितु और अधिक तुष्टि की लालसा बनी रही। अतः मेरे अधोपतन से शिक्षा लें और सावधान रहकर इस दिशा की ओर न भटकें।"

 यह गीता के सभी 18 अध्यायों का सार मात्र 18 वाक्यों में हैं।

वन लाइनर गीता

अध्याय 1 - गलत सोच ही जीवन की एकमात्र समस्या है।

अध्याय 2 - सही ज्ञान ही हमारी सभी समस्याओं का अंतिम समाधान है।

अध्याय 3 - निःस्वार्थता ही प्रगति और समृद्धि का एकमात्र मार्ग है।

अध्याय 4 - प्रत्येक कार्य प्रार्थना का कार्य हो सकता है।

अध्याय 5-व्यक्तित्व के अहंकार को त्यागें और अनंत के आनंद का आनंद लें।

अध्याय 6 - प्रतिदिन उच्च चेतना से जुड़ें।

अध्याय 7 - आप जो सीखते हैं उसे जिएं।

अध्याय 8 - अपने आप को कभी मत छोड़ो।

अध्याय 9 - अपने आशीर्वाद को महत्व दें।

अध्याय 10 - चारों ओर देवत्व देखें।

अध्याय 11 - सत्य को जैसा है वैसा देखने के लिए पर्याप्त समर्पण करें।

अध्याय 12 - अपने मन को उच्चतर में लीन करें।

अध्याय 13 - माया से अलग होकर परमात्मा से जुड़ो।

अध्याय 14 - एक ऐसी जीवन-शैली जिएं जो आपकी दृष्टि से मेल खाती हो।

अध्याय 15 - देवत्व को प्राथमिकता दें।

अध्याय 16 - अच्छा होना अपने आप में एक पुरस्कार है।

अध्याय 17 - सुखद पर अधिकार चुनना शक्ति की निशानी है।

अध्याय 18 - चलो चलें, ईश्वर के साथ मिलन की ओर बढ़ते हैं।

 इन्द्रियों की तुष्टि करने के लिए उसके विषयों से संबंधित इच्छित पदार्थों की आपूर्ति करते हुए इन्द्रियों को शांत करने का प्रयास ठीक वैसा ही है जैसे जलती आग में घी की आहुति डालकर उसे बुझाने का प्रयास करना। इससे अग्नि कुछ क्षण के लिए कम हो जाती है किन्तु फिर एकदम और अधिक भीषणता से भड़कती है।  इन इच्छाओं की तुलना शरीर के खाज रोग से की जा सकती है। खाज कष्टदायक होती है और खुजलाहट करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न करती है। खुजलाहट समस्या का समाधान नहीं है, कुछ क्षण इससे राहत मिलती है और फिर यह खुजलाहट अधिक वेग से बढ़ती है। यदि कोई इस खाज को कुछ समय तक सहन कर लेता है तब इसका दंश दुर्बल होकर धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। यह खाज से राहत पाने का रहस्य है। यही तर्क कामनाओं पर भी लागू होता है। मन और इन्द्रियाँ सुख के लिए असंख्य कामनाएँ उत्पन्न करती हैं लेकिन जब तक हम इनकी पूर्ति के प्रयत्न में लगे रहते हैं तब ये सब सुख मृग-तृष्णा की भांति भ्रम के समान होते हैं। किन्तु जब हम भगवान का अलौकिक सुख प्राप्त करने के लिए इन सब कामनाओं का त्याग कर देते हैं तब हमारा मन और इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं। 

 

 "सभी लोग सुख प्राप्त करने के लिए साकाम कर्मों में संलग्न रहते हैं किन्तु फिर भी उन्हें इससे संतोष नहीं मिलता अपितु फल के प्रति आसक्त होकर कर्म करने से उनके कष्ट और अधिक बढ़ जाते हैं।" परिणामस्वरूप व्यावहारिक रूप से सभी लोग इस संसार मे दुखी है। कुछ शारीरिक और मानसिक कष्ट भोग रहे हैं। कुछ लोग अपने परिवार के सदस्यों या सगे-संबंधियों से उत्पीड़ित होते हैं और कुछ धन और जीवन यापन के लिए मूलभूत वस्तुओं के अभाव से दुखी होते हैं। भौतिक सुखों में लिप्त सांसारिक मनोवृत्ति वाले लोग जानते हैं कि वे वास्तव मे दुखी हैं किन्तु वे सोचते हैं कि जो अन्य लोग उनसे अधिक समृद्ध हैं, वे सुखी होंगे और इसलिए वे भी सांसारिक सुख सुविधाओं को बढ़ाने की दिशा की ओर निरन्तर भागने में लगे रहते हैं। यह अंधी दौड़ अनेक जन्मों तक चलती रहती है और फिर भी सुख की कोई किरण दिखाई नहीं देती। जब लोगों को यह अनुभव होता है कि साकाम कर्मों में संलग्न होने से कभी भी कोई मनुष्य सुख प्राप्त नहीं कर सकता, तब उन्हें समझ में आता है कि वे जिस दिशा की ओर भाग रहे हैं, वह निस्सार है और फिर वे आध्यात्मिक जगत की ओर मुड़ने के लिए सोचते हैं। 

वे बुद्धिमान पुरुष जो आध्यात्मिक ज्ञान से दृढ़-निश्चयी हो जाते हैं और यह जान जाते हैं कि भगवान सभी पदार्थों के भोक्ता हैं। परिणामस्वरूप वे अपने कर्मों के प्रति आसक्ति के भाव को त्याग कर सब कुछ भगवान को अर्पित करते हैं और सुख-दुख आदि सभी को समान रूप से स्वीकार करते हैं। ऐसा करने से उनके कर्म उन प्रतिक्रियाओं से मुक्त हो जाते हैं जो मनुष्य को जन्म और मृत्यु के बंधन मे बांधते हैं।

रविवार, 7 जुलाई 2024

 

स्वर्गलोक में भौतिक ऐश्वर्य और इन्द्रिय तृप्ति और जीवन का आनन्द उठाने के भरपूर साधन उपलब्ध होते हैं। किन्तु स्वर्गलोक जाने की कामना आध्यात्मिक उत्थान के लिए सहायक नहीं होती। स्वर्गलोक में भी मायाबद्ध संसार की तरह राग और द्वेष पाया जाता है और स्वर्ग लोक में जाने के पश्चात जब हमारे संचित पुण्यकर्म समाप्त हो जाते है तब हमें पुनः मृत्युलोक में वापस आना पड़ता है।

 अल्पज्ञानी लोग स्वर्ग की कामना रखते हैं और सोचते हैं कि वेदों का केवल यही उद्देश्य है। इस प्रकार वे भगवद्प्राप्ति का प्रयास किए बिना निरन्तर जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमते रहते हैं। जबकि आध्यात्मिक चिन्तन में लीन साधक स्वर्ग की प्राप्ति को अपना लक्ष्य नहीं बनाते।

"जो स्वर्ग जैसे उच्च लोकों का सुख पाने के प्रयोजन से वेदों में वर्णित आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों में व्यस्त रहते है और स्वयं को धार्मिक ग्रंथों का विद्वान समझते हैं किन्तु वास्तव में वे मूर्ख हैं। वे एक अंधे व्यक्ति द्वारा दूसरे अंधे को रास्ता दिखाने वाले के समान हैं।"

 हमारे सामने सबसे बड़ा भय यह है कि अगले जन्म में हमें संभवतः मानव देह प्राप्त होने के स्थान पर कहीं निम्न योनियों जैसे पशु, पक्षी आदि की योनियों में जन्म लेना और नरक लोकों आदि में न जाना पड़े। हमें यह आत्मसंतुष्टि नहीं हो सकती कि अगले जन्म में हमारे लिए मनुष्य योनि सुरक्षित रहेगी क्योंकि पुनर्जन्म का निर्धारण हमारे कर्मों और इस जीवन की चेतनावस्था के अनुसार होता है। 

पृथ्वी पर 84 लाख योनियों का अस्तित्व पाया जाता है। मनुष्य से निम्न योनियों-पशु-पक्षी, मीन, कीट-कीटाणु, आदि में मनुष्यों के समान बुद्धि नहीं होती। यद्यपि वे मनुष्य की भांति खाने, सोने और अपनी रक्षा व संभोग आदि गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त करने के प्रयोजनार्थ मानवजाति को बुद्धि के गुण से सम्पन्न किया गया है ताकि वह इसका प्रयोग स्वयं के आत्म उत्थान के लिए कर सके। अगर मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग पशुओं की भांति केवल खाने, सोने, संभोग और अपनी रक्षा करने आदि जैसे कार्यों में भोग विलास के लिए करता है तब यह मानव जीवन को व्यर्थ करने के समान है। यदि कोई मनुष्य जीवन के क्षणिक सुख के लिए खाद्य पदार्थों का सेवन करने में ही जीवन व्यतीत कर देता है तब अगले जन्म में उस व्यक्ति के लिए सुअर का शरीर अति उपयुक्त होगा और उस मनुष्य को अगले जन्म में सुअर का शरीर मिलेगा। अगर कोई निद्रा को ही जीवन का लक्ष्य बनाता है तब भगवान उसकी रुचि के अनुरूप पोलर बीयर के शरीर को उपयुक्त समझ कर अगले जन्म में उसे ध्रुवीय भालू की पशु योनि में भेजेंगे। 

 यदि हम छोटे शिशु की गतिविधियों पर ध्यानपूर्वक विचार करते हैं, तब हमें यह ज्ञात होता है कि वह बिना किसी स्पष्ट कारण के कभी प्रसन्न, कभी उदास और कभी भयभीत दिखाई देता है।  छोटा शिशु अपने पूर्वजन्म का स्मरण करता रहता है और इसी कारण समय-समय पर उसकी मनोदशा में परिवर्तन देखने को मिलता है। हालांकि जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती है तब उसके मन-मस्तिष्क मे वर्तमान जीवन के संस्कार पूरी तरह अंकित हो जाते हैं तथा जिसके परिणामस्वरूप उसके पूर्वजन्म की स्मृतियाँ विलुप्त हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया भी अत्यंत पीड़ादायक होती है जो हमारी पूर्वजन्म की स्मृतियों के ठोस अंशों को मिटा देती है।  

 नवजात शिशु को भाषा का कोई ज्ञान नहीं होता। तब फिर कोई माँ जब अपने बालक के मुँह में अपना स्तन डाल कर उसे दूध पीना या स्तनपान करना कैसे सिखा सकती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नवजात शिशु ने अपने अनन्त पूर्व जन्मों में यहाँ तक कि पशु की योनी में स्तन, निप्पल और थन से अपनी असंख्य माताओं का दूध पिया होता है। इसलिए 

जब माँ अपने बच्चे के मुँह में स्तन का अग्रभाग डालती है, तब बच्चा स्वतः अपने पूर्व जन्म के अभ्यास के आधार पर अपनी माँ का स्तनपान करना आरंभ कर देता है।

 पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार किए बिना मानव मात्र में भेद करना अनिवर्चनीय और तर्कहीनता है।  यदि कोई व्यक्ति जन्म से अंधा है तब वह व्यक्ति यह कहे कि उसे ऐसा दण्ड क्यों मिला तब इसका तर्कसंगत उत्तर क्या होना चाहिए? यदि हम कहते हैं कि ये सब उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का परिणाम है तब वह यह तर्क देगा कि उसने केवल वर्तमान जीवन को देखा है और इस प्रकार से जन्म लेते समय उसके कोई पूर्वकर्म ही नहीं है जो उसे इस जन्म में बुरा फल देते। यदि हम कहते हैं कि यह भगवान की इच्छा थी तब यह भी अविश्वसनीय लगता है क्योंकि अकारण करुणा-करण भगवान जो सब पर बिना भेदभाव के करुणा करते हैं और वे कभी किसी को अनावश्यक रूप से अंधा नहीं बनाना चाहेंगे। इसकी तर्कसंगत व्याख्या यही है कि वह मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कर्मों के कारणवश अंधा है। इस प्रकार सामान्य मत और धर्मग्रंथों के प्रमाणों के आधार पर हमें पूर्वजन्म की अवधारणा को स्वीकार करना चाहिए।

शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

 यहाँ इस सेना में भीम और अर्जुन के समान बलशाली युद्ध करने वाले महारथी युयुधान, विराट और द्रुपद जैसे अनेक शूरवीर धनुर्धर हैं। यहाँ पर इनके साथ धृष्टकेतु, चेकितान काशी के पराक्रमी राजा कांशिराज, पुरूजित, कुन्तीभोज और शैव्य सभी महान सेना नायक हैं। इनकी सेना में पराक्रमी युधमन्यु, शूरवीर, उत्तमौजा, सुभद्रा और द्रोपदी के पुत्र भी हैं जो सभी निश्चय ही महाशक्तिशाली योद्धा हैं।

अपने सम्मख संकट को मंडराते देखकर दुर्योधन को पाण्डवों द्वारा एकत्रित की गयी सेना वास्तविकता से अपेक्षाकृत अधिक विशाल प्रतीत होनी लगी। अपनी चिन्ता को व्यक्त करने के लिए दुर्योधन ने यह इंगित किया कि पाण्डव पक्ष की ओर से महारथी यानी ऐसे योद्धा जो अकेले ही साधारण दस हजार योद्धाओं के साथ युद्ध करने की सामर्थ्य रखते हों, युद्ध करने के लिए उपस्थित हैं। दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना के ऐसे असाधारण महापराक्रमी योद्धाओं का उल्लेख भी किया जो अर्जुन और भीम के समान बलशाली महान सेना नायक थे जिन्हें युद्ध में पराजित करना कठिन होगा।

Credit to Mukundanda 

 

श्रीमद्भागवत गीता भाग 4

 दुर्योधन ने कहाः पूज्य आचार्य! पाण्डु पुत्रों की विशाल सेना का अवलोकन करें, जिसे आपके द्वारा प्रशिक्षित बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र ने कुशलतापूर्वक युद्ध करने के लिए सुव्यवस्थित किया है।

दुर्योधन एक कुशल कूटनीतिज्ञ के रूप में अपने सेनापति गुरु द्रोणाचार्य द्वारा अतीत में की गई भूल को इंगित करना चाहता था। द्रोणाचार्य का राजा द्रुपद के साथ किसी विषय पर राजनैतिक विवाद था। उस विवाद के कारण क्रोधित होकर द्रुपद ने प्रतिशोध की भावना से यज्ञ किया

और यह वरदान प्राप्त किया कि उसे ऐसे पुत्र की प्राप्ति होगी जो द्रोणाचार्य का वध करने में समर्थ होगा। इस वरदान के फलस्वरूप उसका धृष्टद्युम्न के नाम से पुत्र हुआ। यद्यपि द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्न के जन्म का रहस्य जानते थे किन्तु जब द्रुपद ने अपने पुत्र धृष्टद्युम्न को सैन्य कौशल की विद्या प्रदान करने के लिए द्रोणाचार्य को सौंपा तब उदारचित द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न को सैन्य युद्ध कौशल की विद्या में निपुण बनाने में कोई संकोच और भेदभाव नही किया। अब धृष्टद्युम्न पाण्डवों के पक्ष से उनकी सेना के महानायक के रूप में उनकी सेना की व्यूह रचना कर रहा था। ऐसे में दुर्योधन अपने गुरु को यह अवगत कराना चाहता था कि अतीत में की गई उनकी भूल के कारण उसे वर्तमान में संकट का सामना करना पड़ रहा है और वह यह भी इंगित करना चाहता था कि उन्हें आगे पाण्डवों के साथ युद्ध करने में किसी प्रकार की उदारता नहीं दर्शानी चाहिए।

गुरुवार, 4 जुलाई 2024

गीता प्रथम अध्याय भाग 3

 संजय ने कहाः हे राजन्! पाण्डवों की सेना की व्यूहरचना का अवलोकन कर राजा दुर्योधन ने अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाकर इस प्रकार के शब्द कहे।

धृतराष्ट्र इस बात की पुष्टि करना चाहता था कि क्या उसके पुत्र अब भी युद्ध करने के उत्तरदायित्व का निर्वहन करेंगे? संजय धृतराष्ट्र के इस प्रश्न के तात्पर्य को समझ गया और उसने ऐसा कहकर कि पाण्डवों की सेना व्यूह रचना कर युद्ध करने को तैयार है, यह पुष्टि की कि युद्ध अवश्य होगा। फिर उसके पश्चात उसने वार्ता का विषय बदलते हुए यह बताया कि दुर्योधन क्या कर रहा था। 

धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन निर्दयी और दुष्ट प्रवृत्ति का था। धृतराष्ट्र के जन्म से अंधा होने के कारण व्यावहारिक रूप से हस्तिनापुर के शासन की बागडोर दुर्योधन के हाथों में थी। वह पाण्डवों के साथ अत्यधिक ईर्ष्या करता था और कठोरता से उनका दमन करना चाहता था ताकि वह हस्तिनापुर पर निर्विरोध शासन कर सके। उसने यह कल्पना की थी कि पाण्डव कभी भी इतनी विशाल सेना एकत्रित नही कर सकते जो उसकी सेना का सामना कर सके। किन्तु अपने आंकलन के विपरीत पाण्डवों की विशाल सेना को देखकर दुर्योधन व्याकुल और हतोत्साहित हो गया। 

ऐसे में दुर्योधन का अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाना यह दर्शाता है कि वह युद्ध के परिणाम के संबंध में भयभीत था। वह द्रोणाचार्य के प्रति अपना आदर प्रकट करने का ढोंग करते हुए, उनके पास गया किन्तु वास्तव में वह अपनी चिन्ता को कम करना चाहता था। 

 

गीता प्रथम अध्याय भाग 1

 धृतराष्ट्र ने कहाः हे संजय! कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि पर युद्ध करने की इच्छा से एकत्रित होने के पश्चात, मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया?

राजा धृतराष्ट्र जन्म से नेत्रहीन होने के अतिरिक्त आध्यात्मिक ज्ञान से भी वंचित था। अपने पुत्रों के प्रति अथाह मोह के कारण वह सत्यपथ से च्युत हो गया था और पाण्डवों के न्यायोचित राज्याधिकार को हड़पना चाहता था। अपने भतीजों पाण्डव पुत्रों के प्रति उसने जो अन्याय किया था, उसका उसे भलीभांति बोध था। इसी अपराध बोध के कारण वह युद्ध के परिणाम के संबंध में चिन्तित था। इसलिए धृतराष्ट्र संजय से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि जहाँ युद्ध होने वाला था-की घटनाओं के संबंध में जानकारी ले रहा था।

इस श्लोक में धृतराष्ट्र ने संजय से यह प्रश्न पूछा कि उसके और पाण्डव पुत्रों ने युद्धभूमि में एकत्रित होने के पश्चात क्या किया? अब यह एकदम स्पष्ट था कि वे युद्धभूमि में केवल युद्ध करने के उद्देश्य के लिए एकत्रित हुए थे। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि वे युद्ध करेंगे। धृतराष्ट्र को ऐसा प्रश्न करने की आवश्यकता क्यों पड़ी कि उन्होंने युद्धभूमि में क्या किया? 

गीता प्रथम अध्याय भाग 2

धृतराष्ट्र द्वारा 'धर्म क्षेत्रे', धर्मभूमि शब्द का प्रयोग करने से उसकी आशंका का पता चलता है।  धृतराष्ट्र आशंकित था कि कुरुक्षेत्र की पावन धर्म भूमि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उसके पुत्रों में कहीं उचित और अनुचित में भेद करने का ऐसा विवेक जागृत न हो जाए कि वे यह सोचने लगें कि अपने स्वजन पाण्डवों का संहार करना अनुचित और धर्म विरूद्ध होगा और कहीं ऐसा विचार कर वे शांति के लिए समझौता करने को तैयार न हो जाएं। इस प्रकार की संभावित आशंकाओं के कारण धृतराष्ट्र के मन में अत्यंत निराशा उत्पन्न हुई। वह सोचने लगा कि यदि उसके पुत्रों ने युद्ध विराम या संधि का प्रस्ताव स्वीकार किया तो पाण्डव निरन्तर उनकी उन्नति के मार्ग में बाधा उत्पन्न करेंगे। साथ ही साथ वह युद्ध के परिणामों के प्रति भी संदिग्ध था और अपने पुत्रों के उज्ज्वल भविष्य के प्रति सुनिश्चित होना चाहता था। इसलिए उसने संजय से कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में हो रही गतिविधियों के संबंध में पूछा। जहाँ दोनों पक्षों की सेनाएं एकत्रित हुई थीं।

 

शनिवार, 29 जून 2024

 साख बनाने में बीस साल लगते हैं और उसे गंवाने में बस पांच मिनट, अगर आप इस बारे में सोचेंगे तो आप चीजें अलग तरह से करेंगे।

जब भाग्य साथ नहीं दे रहा तो समझ लेना मेहनत साथ देगी।


समय बहरा है कभी किसी की नही सुनता,
लेकिन अंधा नही है,
देखता सबको है

कामयाबी की चाबी आत्मविश्वास और लगन है।

असफलता से डरो मत, उससे सीखो और फिर से कोशिश करो


 यदि "महाभारत" को पढ़ने का समय न भी हो..तो भी इसके नौ सार- सूत्र हमारे जीवन में उपयोगी सिद्ध हो सकते है


1. संतानों की गलत मांग और हठ पर समय रहते अंकुश नहीं लगाया गया, तो अंत में आप असहाय हो जायेंगे। जैसे कौरव


2. आप भले ही कितने बलवान हो लेकिन अधर्म के साथ हो तो,आपकी विद्या, अस्त्र-शस्त्र शक्ति, उच्च स्तरीय पद और वरदान सब निष्फल हो जायेंगे- जैसे कर्ण


3. संतानों को इतना महत्वाकांक्षी मत बना दो कि विद्या का दुरुपयोग कर स्वयंनाश कर सर्वनाश को आमंत्रित करे जैसे अश्वत्थामा


4. कभी किसी को ऐसा वचन मत दो कि आपको अधर्मियों के आगे समर्पण करना पड़े - जैसे भीष्म पितामह 


5. संपत्ति, शक्ति व सत्ता का दुरुपयोग और दुराचारियों का साथ अंत में स्वयंनाश का दर्शन कराता है जैसे दुर्योधन


6.  मुद्रा, मदिरा, सत्ता,अज्ञान, मोह और काम (मृदुला) अंध व्यक्ति के हाथ में  विनाश की ओर ले जाती है - जैसे धृतराष्ट्र


 7. यदि व्यक्ति के पास विद्या, विवेक से बँधी हो तो विजय अवश्य मिलती है -जैसे अर्जुन


8. हर कार्य में छल, कपट, व प्रपंच रच कर आप हमेशा सफल नहीं हो सकते - जैसे शकुनि


9. यदि आप नीति, धर्म, व कर्म का सफलता पूर्वक पालन करेंगे, तो विश्व की कोई भी शक्ति आपको पराजित नहीं कर सकती - जैसे युधिष्ठिर


यदि इन नौ सूत्रों से सबक लेना सम्भव नहीं होता है। तो जीवन में महाभारत संभव हो जाता है, अपने ही सगे-सम्बन्धी, दोस्तों, जानकारों के बीच में।


बुधवार, 26 जून 2024

यह सुबह,  पक्षियों की चहचहाहट... या कि हवाओं का वृक्षों से गुजरना, पहाड़ों का सन्नाटा... या कि नदियां का पहाड़ों से उतरना... या सागरों में लहरों की हलचल, नाद... या आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट—यह सभी ओंकार है।

      ओंकार का अर्थ है :  समस्त ध्वनियों का सार। ओंकार कोई मंत्र नहीं, सभी छंदों में छिपी हुई आत्मा का नाम है। जहां भी गीत है, वहां ओंकार है। जहां भी वाणी है, वहां ओंकार है। जहां भी ध्वनि है, वहां ओंकार है।

      और यह सारा जगत ध्वनियों से भरा है। इस जगत की उत्पत्ति ध्वनि में है। इस जगत का जीवन ध्वनि में है; और इस जगत का विसर्जन भी ध्वनि में है।

      ओम से सब पैदा हुआ, ओम में सब जीता, ओम में सब एक दिन लीन हो जाता है। जो प्रारंभ है, वही अंत है। और जो प्रारंभ है और अंत है, वही मध्य भी है। मध्य अन्यथा कैसे होगा!

      

      मैं बोलूं तो ओंकार है। तुम सुनो तो ओंकार है। हम मौन बैठें तो ओंकार है। जंहा लयबद्धता है, वहीं ओंकार है। सन्नाटे में भी—स्मरण रखना—जंहा कोई नाद नहीं पैदा होता, वहा भी छुपा हुआ नाद है। मौन का संगीत का संगीत शून्य का संगीत। जब तुम चुप हो, तब भी तो एक गीत झर—झर बहता है। जब वाणी निर्मित नहीं होती, तब भी तो सूक्ष्म में छंद बंधता है। अप्रकट है, अव्यक्त है; पर है तो सही। तो शून्य में भी और शब्द में भी ओंकार निमज्जित है।

      इस ओकार को समझना। इस ओंकार को ठीक से समझा नहीं गया है। लोग तो समझे कि एक मंत्र है, दोहरा लिया। यह दोहराने की बात नहीं है। यह तो तुम्हारे भीतर जब छंदोबद्धता पैदा हो, तभी तुम समझोगे ओंकार क्या है। 

      उस ओम में सब आ गया; अब आगे विस्तार होगा। जो जानते हैं उनके लिए ओम में सब कह दिया गया। जो नहीं जानते, उनके लिए बात फैलाकर कहनी होगी। 

    ओंकार बनता है तीन ध्वनियों से : अ, उ, म। ये तीन मूल ध्वनिया है;शेष सभी ध्वनियां इन्हीं ध्वनियो के प्रकारातर से भेद हैं। यही असली त्रिवेणी है—अ, उ, म। यही त्रिमूर्ति है। यही शब्दब्रह्म के तीन चेहरे हैं।

   इसलिए वेद घोषणा करते हैं कि जिसने ओंकार को जान लिया, उसे जानने को कुछ और शेष नहीं रहा। निश्चित ही यह उस ओंकार की बात नहीं है, जो तुम अपने पूजागृह में बैठकर दोहरा लेते हो। यह ओंकार तो तुम्हारे पूरे जीवन की सुगंध की तरह प्रकट होगा, तो समझोगे।

      तुम्हारे जीवन में बड़ी छंदहीनता है। तुम्हारा जीवन टूटा—फूटा हुआ सितार है, जिसके तार या तो बहुत ढीले हैं या बहुत कसे हैं; और जिस तार पर कैसे अंगुलियां रखें, उसका शास्त्र ही तुम भूल गए हो; और जिस सितार को कैसे बजाएं, कैसे निनादित करें, उसकी भाषा ही तुम्हें नहीं आती। तुम सितार लिए बैठे हो, सितार में छिपा संगीत तुम्हारी प्रतीक्षा करता है, और जीवन बड़ी पीड़ा से भरा है। यह सारी पीड़ा रूपांतरित हो सकती है : तुम गाओ, तुम गुनगुनाओ; तुम्हारे भीतर की सरिता बहे; तुम नाचो।

      भक्ति जीवन का परम स्वीकार है। इसलिए शुभ ही है कि शांडिल्य अपने इस अपूर्व सूत्र—ग्रंथ का उदघाटन ओम से करते हैं। ठीक ही है, क्योंकि भक्ति जीवन में संगीत पैदा करने की विधि है। जिस दिन तुम संगीतपूर्ण हो जाओगे; जिस दिन तुम्हारे भीतर एक भी स्वर ऐसा न रहेगा जो व्याघात उत्पन्न करता है; जिस दिन तुम बेसुरे न रहोगे, उसी दिन प्रभु मिलन हो गया। प्रभु कहीं और थोड़े ही है—छंदबद्धता में है, लयबद्धता मे है। जिस दिन नृत्य पूरा हो उठेगा, गान मुखरित होगा, तुम्हारे भीतर का छंद जिस क्षण स्वच्छंद होगा, उसी क्षण परमात्मा से मिलन हो गया।

      इसलिए तो कहते हैं वेद कि ओम को जिन्होंने जान लिया, उन्हें जानने को कुछ शेष न रहा। यह शास्त्र में लिखे हुए ओम की बात नहीं है, यह जीवन में अनुभव किए गए, अनुभूत छंद की बात है।

      तुम्हारे भीतर ओंकार पड़ा है—बंधन में, जंजीरों में। मुक्त करो उसे! गाओ! नाचो! ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट जाए और नाच ही रह जाए —उस क्षण पहचान होगी ओंकार से। ऐसे गाओ कि गायक न बचे; गीत ही रह जाए—उस क्षण तुम भगवदगीता हो गये। जिस क्षण गाने वाला भीतर न हो और गान अपनी सहज स्फुरणा से बहे, उस क्षण तुम कुरान हो गये। उस दिन तुम्हारे भीतर परम काव्य का जन्म हुआ। उस दिन जीवन साधारण न रहा, असाधारण हुआ। उस दिन जीवन में दीप्ति आयी, आभा उपजी। इसलिए ओम से प्रारंभ है।

      

भक्ति अर्थात क्या?

      एक तत्व हमारे भीतर है, जिसको प्रीति कहें। यह जो तत्व हमारे भीतर है— प्रीति—इसी के आधार पर हम जीते है। चाहे हम गलत ही जीएं, तो भी हमारा आधार प्रीति ही होता है। कोई आदमी धन कमाने में लगा है; धन तो ऊपर की बात है, भीतर तो प्रीति से ही जी रहा है— धन से उसकी प्रीति है। कोई आदमी पद के पीछे पागल है; पद तो गौण है, प्रतिष्ठा की प्रीति है। जंहा भी खोजोगे, तो तुम प्रीति को ही पाओगे। कोई वेश्यालय चला गया है और किसी ने किसी की हत्या कर दी—पापी में और पुण्यात्मा में, तुम एक ही तत्व को एक साथ पाओगे, वह तत्व प्रीति है। फिर प्रीति किससे लग गयी, उससे भेद पड़ता है। धन से लग गयी तो तुम धनी होकर रह जाते हो। ठीकरे हो जाते हो। कागज के सड़े—गले नोट होकर मरते हो। जिससे प्रीति लगी, वही हो जाओगे; यह बड़ा बुनियादी सत्य है; इसे हृदय में सम्हालकर रखना।

      प्रीति महंगा सौदा है, हर किसी से मत लगा लेना। जिससे लगायी वैसे ही हो जाओगे —वैसा होना हो तो ही लगाना। प्रीति का अर्थ ही यही होता है कि मैं यह होना चाहता हूं। राजनेता गांव में आया और तुम भीड़ करके पहुंच गये, फूलमालाएं सजाकर—किस बात की खबर है? तुम गहरे में चाहते हो कि मेरे पास भी पद हो, प्रतिष्ठा हो; इसलिए पद और प्रतिष्ठा की पूजा है। कोई फकीर गांव मे आया और तुम पहुंच गये; उससे भी तुम्हारी प्रीति की खबर मिलती है कि तडफ रहे हो फकीर होने को—कि कब होगा वह मुक्ति का क्षण, जब सब छोड़—छाड़... जब किसी चीज पर मेरी कोई पकड़ न रह जाएगी। कोई संगीत सुनता है तो धीरे—धीरे उसकी चेतना में संगीत की छाया पड़ने लगती है।

      तुम जिससे प्रीति करोगे, वैसे हो जाओगे : जिनसे प्रीति करोगे वैसे हो जाओगे। तो प्रीति का तत्व रूपातरकारी है। प्रीति का तत्व भीतरी रसायन है। और बिना प्रीति के कोई भी नहीं रह सकता। प्रीति ऐसी अनिवार्य है जैसे श्वास। जैसे शरीर श्वास से जीता, आत्मा प्रीति से जीती। इसलिए अगर तुम्हारे जीवन मे कोई प्रीति न हो, तो तुम आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। या कभी तुम्हारी प्रीति का सेतु टूट जाए, तो आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। घर में आग लग गयी। और सारा धन जल गया और तुमने आत्महत्या कर ली; क्या तुम कह रहे हो? तुम यह कहते हो : यह घर ही मैं था, यह मेरी प्रीति थी। अब यही न रहा तो मेरे रहने का क्या अर्थ! तुम्हारी पत्नी मर गयी और तुमने आत्महत्या कर ली;तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो : यह मेरी प्रीति का आधार था। जब मेरी प्रीति उजड़ गयी, मेरा संसार उजड़ गया। अब मेरे रहने में कोई सार नहीं।... हम प्रीति के साथ अपना तादात्म्य कर लेते है।

      बिना प्रीति के कोई भी नहीं जी सकता। जीना संभव ही प्रीति के सहारे है। जैसे बिना श्वास लिए शरीर नहीं रहेगा, वैसे बिना प्रीति के आत्मा नहीं टिकेगी। प्रीति है तो आत्मा टिकी रहती है—फिर प्रीति गलत से भी हो तो भी आत्मा टिकी रहती है। मगर चाहिए, प्रीति तो चाहिए—गलत हो कि सही।

फिर प्रीति के बहुत ढंग हैं, वे समझ लेने चाहिए। हम प्रेम कहते हैं। प्रेम का अर्थ होता है : उसके साथ, जो समतल है। तुमसे ऊपर एक प्रीति है, जो तुम्हारी पत्नी में होती है, मित्रों में होती है, पति में होती है, भाई—बहन में होती है। उस प्रीति को भी नहीं, तुमसे नीचे भी नहीं;तुम्हारे जैसा है;जिससे आलिंगन हो सकता है; उसको प्रेम कहते हैं। समतुल व्यक्तियों में प्रीति होती है तो प्रेम कहते हैं।

      फिर एक प्रीति होती है माता, पिता या गुरु में; उसे श्रद्धा कहते हैं। कोई तुमसे ऊपर है; प्रीति को पहाड़ चढ़ना पड़ता है। इसलिए श्रद्धा कठिन होती है। श्रद्धा मे दाव लगाना पड़ता है। श्रद्धा में चढ़ाई है। इसलिए बहुत कम लोगों मे वैसी प्रीति मिलेगी जिसको श्रद्धा कहें। माता—पिता से कौन प्रीति करता है! कर्तव्य निभाते हैं लोग। दिखाते हैं। उपचार। दिखाना पड़ता है। प्रीति कहा! अपने से ऊपर प्रीति करने में पहाड़ चढ़ने की हिम्मत होनी चाहिए। और ध्यान रखना, तुम अपने से ऊपर, जितने ऊपर प्रीति करोगे, उतने ही तुम ऊपर जाने लगोगे, तुम्हारी चेतना ऊर्ध्वगामी होगी। इसलिए तो हमने श्रद्धा को बड़ा मूल्य दिया है सदियों से, क्योंकि श्रद्धा आदमी को बदलती है, अपने से पार ले जाती है। तुम्हारे हाथ तुमसे ऊपर की तरफ उठने लगते हैं और तुम्हारे पैर किसी ऊर्ध्वगमन पर गतिमान होते है। तुम्हारी आंखें ऊंचे शिखरों से टकराती और चुनौती लेती हैं।

      जिसके जीवन मे श्रद्धा नहीं है, उसके जीवन में विकास नहीं है। विकास हो ही नहीं सकता। किसी को महावीर में श्रद्धा है तो विकास होगा; किसी को बुद्ध में, तो; क्राइस्ट में, तो। श्रद्धा से विकास होता है, कृष्ण—क्राइस्ट तो सब खूंटियां है। कहा तुमने अपनी श्रद्धा टागी, यह बात गौण है। मगर श्रद्धा कहीं न कहीं टलना जरूर। यह बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि तुमने महावीर चुना कि मोहम्मद, कि कृष्ण चुने कि क्राइस्ट, इसमें बहुत मूल्य नहीं है, मूल्य इस बात में है कि तुमने श्रद्धा का कोई पात्र चुना। तुमने कोई चुना जो तुमसे पार है। तुमने कोई चुना जो आकाश में है— धवल शिखरों की भांति। उस चुनाव में ही यात्रा शुरू हो गयी—तुम्हारी आखें ऊपर उठने लगीं। तुमने जमीन पर गड़े—गड़े चलना बंद कर दिया। तुमने जमीन पर सरकना बंद कर दिया। तुम्हारे पंख फड़फड़ाने लगे, आज नहीं कल तुम उड़ोगे। क्योंकि जिससे श्रद्धा लग गयी है, उस तक जाना होगा। यात्रा कठिन होगी तो भी जाना होगा। लाख कठिनाइयां होंगी। तो भी जाना होगा। प्रीति लग जाए तो कठिनाइयों का पता नहीं चलता।

      तो एक प्रीति है : श्रद्धा। अपने से ऊपर। वह ऊर्ध्वगामी है। एक प्रीति है : प्रेम अपने से समतुल। उससे तुम कहीं जाते—आते नहीं; कोस्कू के बैल की तरह चक्कर काटते हो। पत्नी भी तुम जैसी, पति भी तुम जैसा, मित्र भी तुम जैसे—लोग अपने जैसे ही तो चुनते हैं, लोग अपने जैसो मे ही तो आकर्षित होते है। अपने से बड़े में आकर्षित होने में ही खतरा मालूम होता है। क्यों? क्योंकि पहले तो किसी को अपने से बड़ा मानना अहंकार के प्रतिकूल है। किसी को गुरु मानना अहंकार के प्रतिकूल है—अहंकारी किसी को गुरु नहीं मान सकता। वह हजार बहाने खोजता है सिद्ध करने के कि कोई गुरु है ही नहीं। अब कहां गुरु! सतयुग मे होते थे, यह कलियुग है! अब कहा गुरु! यह पंचम काल है, अब कहा गुरु! सब कहानियां हैं, कपोल—कल्पनाएं हैं। बचाता है अपने को, क्योंकि गुरु चुनने में ही तुमने एक बात जाहिर कर दी कि अब तुम्हें चुनौती स्वीकार करनी पड़ेगी। तुम जंहा हो, वहीं समाप्त नहीं हो सकते हो, ऊपर जाना है।

      इसलिए लोग अपने ही समान व्यक्तियो को चुनते हैं। उनके साथ कहीं जाना नहीं;यहीं झगड़ना है। पति—पत्नी यहीं लड़ते रहेंगे; कोल्हू के बैल की तरह रोज वही दोहराते रहेंगे जो कल भी किया था, परसों भी किया था; कल भी करेंगे, परसों भी करेंगे;पूरा जन्म निकल जाएगा और वही पुनरुक्ति, पुनरुक्ति। नहीं कोई गति होती। हो नहीं सकती।

      तीसरा प्रेम है, प्रीति है, जिसे हम स्नेह कहते हैं; वह अपने से छोटों के प्रति। पुत्र, कन्यादिक या शिष्य। जो अपने से छोटे के प्रति होती है। अपने से छोटे के प्रति भी हम आसानी से राजी हो जाते हैं। सच तो यह है, हम बड़े आह्लादित होते हैं। इसलिए तो तुम आह्लादित होते हो जब तुम्हारे घर में बेटा पैदा होता है। तुम्हारा आहाद क्या है? तुम्हारा आह्लाद यही है कि इसकी तुलना में तुम बड़े हो गये।

      तुमने कहानी सुनी न, अकबर ने एक लकीर खींच दी राजदरबार में आकर और कहा—इसे बिना छुए छोटी कर दो। कोई न कर सका। लेकिन बीरबल ने एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी;उसे छुआ नहीं, छोटी हो गयी। छोटी लकीर खींच देता तो बड़ी हो जाती—उसे छुए बिना।

      तुम अपने पुत्र में, पुत्रियों में इतना जो रस लेते हो उसका कारण क्या है? चलो, कोई तो है जो तुम्हारी तरफ देखता है और तुम्हें बड़ा मानता है! तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है।  

 किसी को अगर तुम पा लो किसी हालत में कि सलाह की जरूरत है, तो तुम्हें चाहे सलाह देने योग्य पात्रता हो या न हो, तुम जरूर देते हो। तुम चूकते नहीं मौका। कोई मिल भर जाए मुसीबत में, तुम उसकी गर्दन पकड़ लेते हो। तुम उसको सलाह पिलाने लगते हो। और ऐसी सलाहें, जो तुमने जीवन में खुद भी कभी स्वीकार नहीं कीं; जिन पर तुम कभी नहीं चले; जिन पर तुम कभी चलोगे भी नहीं। लेकिन किसी और ने तुम्हारी गर्दन पकड़कर तुम्हें पिला दी थीं, अब तुम किसी और के साथ बदला ले रहे हो।

      दुनिया में सलाहें इतनी दी जाती हैं, मगर लेता कौन! कोई किसी की सलाह लेता है! तुमने कभी किसी की ली? और खयाल रखना, जिसने भी तुम्हारी असहाय अवस्था का मौका उठाकर सलाह दी है, उससे तुम नाराज हो, अभी भी नाराज हो, तुम उसे क्षमा नहीं कर पाए हो। क्योंकि तुम असमय में थे और दूसरे ने फायदा उठा लिया। तुम्हारे घर में आग लग गयी थी और कोई ज्ञानी तुमसे कहने लगा : क्या रखा है; यह संसार तो सब जल ही रहा है; सब जल ही जाएगा, सब पड़ा रह जाएगा—सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब बांध चलेगा बंजारा—अरे, यहा रखा क्या है! यह बाते तो तुम्हें भी मालूम हैं, लेकिन तुम्हारा घर जल रहा है और इन सज्जन को सलाह देने की सूझी है! तुम्हारी पत्नी मर गयी और कोई कह रहा है कि आत्मा तो अमर है। तुम्हारी तबियत होती है कि इसको यहीं दुरुस्त कर दो इस आदमी को! मेरी पत्नी मर गयी है, इसे ज्ञान सूझ रहा है! और तुम भलीभांति जानते हो कि इसकी पत्नी जब मरी थी तब यह भी रो रहा था—और कल जब इसका बेटा मरेगा तो फिर यह जार—जार रोका। तब तुम्हारे हाथ में एक मौका होगा कि तुम भी बदला ले लोगे, तुम भी सलाह दे दोगे।

      सलाहें एक—दूसरे का अपमान हैं। सलाह का मतलब यह होता है, तुम सिद्ध कर रहे हो; मैं जानता हूं तुम नहीं जानते; मैं ज्ञानी, तुम अज्ञानी। तुम मौका पाकर गुरु बन रहे हो। जांचना। अपने जीवन को जरा परखना। हर किसी को सलाह देने को तैयार हो! कोई सिगरेट पी रहा है और तुम्हारे भीतर एकदम खुजलाहट होती है कि इसको सलाह दो कि सिगरेट पीना बुरा है—और तुम पान चबा रहे हो! मगर पान चबाना बात और! —लेकिन तुम सलाह देने का मौका नहीं छोड़ोगे। तुम्हारे बाप ने तुम्हें सलाह दी थी और तुमने एक न मानी। और वे ही सलाहें तुम अपने बेटों को पिला रहे हो। वे भी नहीं मानेगे। तुमने नहीं मानी थी। कौन मानता है सलाह! क्यों सलाहें नहीं मानी जातीं? कारण है। देने वाला अहंकार का मजा लेता है, लेने वाले के अहंकार को चोट लगती है।

      तुम्हारे घर बेटे—बेटियां पैदा हो जाते हैं, तुम बड़े खुश होते हो। तुमको यह असहाय प्राणी मिल गये, जिनको अब तुम जैसा चाहो बनाओ; जंहा चाहो भेजो; जो आज्ञा दो, इन्हें मानना ही पड़े।

      मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चों के साथ सदियों में जो अत्याचार हुआ है, वैसा अत्याचार किसी के साथ कभी नहीं हुआ। गुलाम से गुलाम भी इतना गुलाम नहीं होता जितने बच्चे तुम्हारे गुलाम हो जाते हैं। क्योंकि असहाय हैं, तुम पर निर्भर हैं। जी नहीं सकते तुम्हारे बिना। एक छोटा—सा बच्चा है, दूध नहीं मिले, सेवा नहीं मिले, सुरक्षा नहीं मिले—मर ही जाएगा, जी ही नहीं सकता। उसका जीवन दाव पर लगा है, तुम इस मौके को नहीं चूकते। तुम इस मौके का पूरा फायदा उठा लेते हों—पूरे से ज्यादा फायदा उठा लेते हो। हालांकि तुम कहते यही हो कि मुझे तुमसे प्रेम है, इसीलिए ऐसा कर रहा हूं। लेकिन अगर बहुत छान—बीन करोगे, थोड़े सजग होओगे तो पाओगे, अहंकार का रस ले रहे हो। और तो कोई तुम्हारी सुनता नहीं, तुम्हारे बेटे को तो सुननी ही पड़ती है। इसलिए कौन बेटा अपने बाप को माफ कर पाता है! कोई बेटा अपने बाप को माफ नहीं कर पाता। और अगर मौका मिलेगा बुढ़ापे में, जब तुम बूढ़े हो जाओगे और कमजोर हो जाओगे, असहाय हो जाओगे, बच्चे जैसे हो जाओगे, तब तुम्हारा बेटा तुमसे बदला लेगा। तब छोटी—छोटी बातों में तुम दुत्कारे जाओगे। और तब तुम तड़फोगे और तुम कहोगे —मैंने ऐसा क्या पाप किया? मैंने तुझे बड़ा किया। मैंने अपना जीवन तेरे ऊपर लगाया, निछावर किया और तू मुझ से बदला ले रहा है! यह कैसी अकृतज्ञता! नहीं, लेकिन तुम जांच करना, गौर करना। तुमने अपने अहंकार को खूब उछाला होगा। इस बेटे में पड़े घाव अब तक हरे है।

      बच्चों के साथ हम बड़ा अमानवीय व्यवहार करते हैं। और यह कहते हम चले जाते हैं कि हमारा बड़ा स्नेह है।

      अपने से छोटे के प्रति जो प्रीति होती है उसका नाम स्नेह है। मेरे देखे, अपने से छोटे के प्रति सच्ची प्रीति और ठीक प्रीति तभी होती है जब अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा हो, अन्यथा नहीं होती; अन्यथा झूठी होती है। जिस व्यक्ति के जीवन में अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा है, सम्यक श्रद्धा है, उस व्यक्ति के जीवन में अपने से छोटे के प्रति सम्यक स्नेह होता है। और उस व्यक्ति के जीवन में एक और क्रांति घटती है—अपने से सम के प्रति सम्यक प्रेम होता है। उसके जीवन मे प्रेम का छंद बंध जाता है। छोटे के प्रति सम्यक स्नेह होता है, धारा की तरह बहता है उसका प्रेम बेशर्त। वह कोई शर्तबंदी नहीं करता कि तुम ऐसा करोगे तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा, कि तुम ऐसे होओगे तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा। वह यह भी नहीं कहता कि बड़े होकर तुम इस तरह के व्यक्ति बनना; कि मैं हिंदू हूं तो तुम भी हिंदू होना; कि मैं कम्यूनिस्ट हूं तो तुम भी कम्युनिस्ट होना; कि मैं ईसाई हूं तो तुम भी ईसाई रहना; कि मैं चाहता हूं कि तुम डाक्टर बनो, कि इंजीनियर बनो, तो इंजीनियर ही बनना। नहीं, वह कोई आग्रह नहीं रखता। वह कहता है—मैंने तुम्हें प्रेम दिया, मैं प्रेम देकर आनंदित हुआ; तुमने मुझे हलका किया। जैसे बादल हलके हो जाते हैं भूमि पर बरसकर, ऐसा तुम पर बरसकर मैं हलका हुआ। मैं अनुगृहीत हूं। तुम्हें जो होना हो तुम होना; मैं तुम्हें सहारा दूंगा—तुम जो होना चाहो उसमें —लेकिन तुम्हें कुछ खास बनाने की चेष्टा नहीं करूंगा। मैं कौन हूं! तुम स्वतंत्र हो। तुम आत्मवान हो।

      मगर यह प्रेम, यह स्नेह उसी में हो सकता है, जिसके जीवन में श्रद्धा हुई हो और जिसने किसी गुरु का सत्संग किया हो। गुरु वही है जो तुम्हें इतनी स्वतंत्रता दे कि तुम जो होना चाहो, तुम्हें साथ दे, सहारा दे; तुम्हें अपनी सारी संपदा को खोलकर रख दे कि चुन लो; और इतनी भी अपेक्षा न रखे कि तुम धन्यवाद देना। जब तुम किसी गुरु से मिल गए हो, तभी तुम इस योग्य हो सकोगे कि अपने से छोटे के प्रति स्नेह कर सको—सम्यक स्नेह। अन्यथा तुम्हारा स्नेह भी फासी का फंदा होगा। और जब तुम अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा कर सको और अपने से छोटे के प्रति स्नेह कर सको, तो दोनों के मध्य में प्रेम की घटना घटती है, अन्यथा नहीं घटती। तभी तुम अपनी पत्नी को प्रेम कर सकोगे, अपने पति को प्रेम कर सकोगे। और उस प्रेम में बड़े फूल खिलेंगे, बड़ी सुगंध होगी। उस प्रेम में बड़े संगीत का जन्म होगा।

      यह प्रीति की तीन साधारण स्थितियां हैं। और जब यह तीनों सम्यक हो जाती हैं, जब इन तीनों के तार मिल जाते हैं, जब यह तीनों छंदोबद्ध हो जाती हैं, तब चौथी अवस्था, परम अवस्था पैदा होती है, उसका नाम— भक्ति।अथातो भक्ति जिज्ञासा।

      जिसने स्नेह किया हो, जिसने प्रेम किया हो, जिसने श्रद्धा की हो और जिसके तीनों के तार मिल गए हों और तीनों के माध्यम से जिसके भीतर एक अपूर्व आनंद की आभा जगी हो—वही व्यक्ति भक्ति करने में कुशल हो सकता है। भक्ति प्रीति की पराकाष्ठा है।

      भक्ति का अर्थ है : सर्वात्मा से प्रीति। छोटे से कर ली, समान से कर ली, बड़े से कर ली—अब सर्वात्मा से, अब परमेश्वर से।

      परमेश्वर कोई व्यक्ति नहीं है, खयाल रखना बार—बार। अगर परमेश्वर व्यक्ति है तुम्हारी धारणा में, तो तुम जो करोगे वह श्रद्धा होगी। फिर श्रद्धा में और भक्ति में कोई फर्क न रह जाएगा। फिर तो परमेश्वर भी एक व्यक्ति हो गया, जैसे गुरु है—और ऊपर सही, बहुत ऊपर सही, मगर श्रद्धा ही रहेगी। श्रद्धा और भक्ति में भेद है।

      परमात्मा यानी सर्व। जिस दिन तुम्हारी प्रीति सब दिशाओं में अकारण बहने लगे—अहेतुक—वृक्षो को, पहाड़ों को, पत्थरों को, चांद—तारों को, दृश्य को, अदृश्य को, यह समस्त को तुम्हारी प्रीति मिलने लगे; तुम इस सारे के प्रेम में पड़ जाओ; तुम्हारे प्रेम पर कोई सीमाएं न रह जाएं, उस दिन भक्ति।

      अथातोभक्‍तिजिज्ञासा।

      अब भक्ति की जिज्ञासा करें।

      सापरानुरक्ति: ईश्वरे।

      ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है।

      ऐसा हिंदी में जगह—जगह अनुवाद किया जाता है। मूल ज्यादा साफ है। अनुवाद कहता है : ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है। मूल कहता है : सापरानुरक्ति:। परा। वह जो तीन प्रीतिया थीं, उनका नाम है अपरा— श्रद्धा, प्रेम, स्नेह। वे सांसारिक है। ध्यान रहे, श्रद्धा भी सांसारिक है। नास्तिक भी श्रद्धा कर सकता है। आखिर कम्युनिस्ट श्रद्धा करता ही है कार्ल मार्क्स में और दास केपिटल में। नास्तिक भी श्रद्धा कर सकता है, उसके भी गुरु होते हैं। चार्वाक को मानने वाला चार्वाक में श्रद्धा करता है। एपीकुरास को मानने वाला एपीकुरस में श्रद्धा करता है। उसके भी गुरु हैं, उसके भी शास्त्र हैं उसके भी सिद्धात हैं, उसके भी तीर्थ हैं। अगर मुसलमानों के लिए मक्का है तो कम्युनिस्टों के लिए मास्को है, पर तीर्थ तो है ही। अगर किसी के लिए काबा है तो किसी के लिए क्रेमलिन है। तीर्थ तो हैं ही। उसी भक्ति, उसी पूजा, उसी श्रद्धा से लोग मास्को जाते, जिस भक्ति, श्रद्धा और पूजा से लोग काशी जाते हैं, काबा जाते हैं, गिरनार जाते है।

      श्रद्धा सांसारिक है। जिससे हमने कुछ सीखा है, उसके प्रति श्रद्धा हो जाएगी। अगर तुमने किसी से चोरी सीखी है तो वह तुम्हारा गुरु हो गया और उससे श्रद्धा हो जाएगी। पापी भी श्रद्धा करता है, बुरा आदमी भी श्रद्धा करता है—आखिर जिससे कुछ सीखा है, वही गुरु हो जाता है। भक्ति श्रद्धा से भिन्न बात है।

      सूत्र कहता है :

      सापरानुरक्ति।

      यह तो अपरा हुई। यह तो इस जगत की बातें हुइ —प्रेम, स्नेह, श्रद्धा। इनके पार भी एक शुद्ध रूप है प्रीति का। उस रूप को परा अनुरक्ति, ऐसा शांडिल्य कहते है। उस परा अनुरक्ति का जो पात्र है, वही ईश्वर है।

      अब तुम यह मत समझना कि कोई ईश्वर है, जिस पर तुम अपनी अनुरक्ति को ढालोगे, जिस पर तुम अपनी अनुरक्ति को केंद्रित करोगे। नहीं, अगर तुमने कोई ईश्वर मान लिया और फिर उस पर अपनी अनुरक्ति को केंद्रि त किया तो श्रद्धा हो गयी। जिस दिन तुम्हारी अनुरक्ति सभी पात्रों से मुक्त हो जाएगी—न स्नेह रही, न प्रेम रही, न श्रद्धा रही; जिस दिन तुम्हारी प्रीति शुद्ध प्रीति हो गयी; मात्र प्रीति हो गयी; तुम्हारे चित्त की सहज दशा हो गयी, उस दिन जिस तरफ तुम बहोगे, वही ईश्वर है। सब तरफ ईश्वर है।

      सापरानुरक्तिरीश्वरे। परा अनुरक्ति संपूर्ण होती है। बच्चे से प्रेम होता है, लेकिन इतना नहीं होता कि अगर मरने का वक्त आ जाए और चुनाव करना पड़े कि दो में से कोई एक ही जी सकता है। तुम या तुम्हारा बेटा—तो बहुत संभावना यह है कि तुम अपने को बचाओगे। तुम कहोगे : बेटे तो और भी पैदा हो सकते हैं। प्रेम था, लेकिन इतना नहीं था कि अपने को गंवा दो।

      पत्नी से प्रेम है; तुम कहते हो कि तेरे बिना मर जाऊंगा। मगर अगर आज ऐसा मौका आ जाए कि एक हत्यारा आ जाए और कहे कि दो में से कोई भी एक मरने को तैयार हो जाओ, तो तुम अपनी पत्नी को कहोगे—क्या बैठी देख रही हो, तैयार हो! मैं तेरा स्वामी हूं! पति तो परमात्मा है! तू बैठी क्या देख रही है? तब तुम मरने को राजी न होओगे। यह कहने की बातें हैं!

      फिर संपूर्ण अनुरक्ति का क्या अर्थ होता है? संपूर्ण अनुरक्ति का अर्थ होता है—अब तुम अपने को छोड़ने को राजी हो। अपरा अनुरक्ति में तुम रहते हो। तुम्हारे रहते, सब ठीक; लेकिन अगर तुम्हें स्वयं को दाव लगाना पड़े तो फिर तुम हट जाते हो। परा अनुरक्ति में तुम अपने को दाव पर लगा देते हो। तुम कहते हो—मैं तो बूंद हूं, जो सागर मे खो जाना चाहती है। मैं तो बीज हूं जो भूमि में खो जाना चाहता है। तुम परमात्मा और अपने बीच परमात्मा को चुनते हो, सर्व को चुनते हो; तुम अपनी सारी सीमाएं छोड़कर छलांग लगा जाना चाहते हो।

      जब तक यह शीशे का घर है

      तब तक ही पत्थर का डर है

      हर आंगन जलता जंगल है

      दरवाजे सांपों का पहरा

      झरती रोशनियों में अब भी

      लगता कहीं अंधेरा ठहरा

      जब तक यह बालू का घर है

      तब तक ही लहरों का डर है

      हर खूंटी पर टंगा हुआ है

      जख्म भरे मौसम का चेहरा

      शोर सड़क पर थमा हुआ है

      गलियों में सन्नाटा गहरा

      जब तक यह काजल का घर है

      तब तक ही दर्पण का डर है

      हर क्षण धरती टूट रही है

      जर्रा—जर्रा पिघल रहा है

      चांद—सूर्य को कोई अजगर

      धीरे— धीरे निगल रहा है

      जब तक यह बारूदी घर है

      तब तक चिनगारी का डर है

      जब तक हमने शरीर के साथ अपने को एक समझा है, तभी तक सब भय हैं—बीमारी के, बुढ़ापे के, मृत्यु के। जिसकी आखें सब जगह छिपे हुए परमात्मा को खोजने लगीं, जिसमें भक्ति की जिज्ञासा उठी, जिसने जानना चाहा है कि जीवन का परम सार क्या है, जीवन की परम बुनियाद क्या है; जो जानना चाहता है कि अब मैं तरंगों से नहीं, सागर से मिलना चाहता हूं; अब मैं अभिव्यक्ति से नहीं, अभिव्यक्तियों के भीतर जो छिपा है, अदृश्य, उसको जानना चाहता हूं; जिसने अपने भीतर देखा कि एक तो देह है जो दिखायी पड़ती है और एक मैं हूं जो दिखायी नहीं पड़ता...।

      तुम आज तक किसी को दिखायी नहीं पड़े हो, इस पर तुमने कभी विचार किया? न तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें देखा, न तुम्हारे बेटे ने, न तुम्हारे मित्रों ने—न तुमने अपनी पत्नी को देखा है। जो देखा है वह देह है—तुम अनदेखे रह गए हो। तुम जरा कभी बैठकर सोचना। तुम्हें आज तक किसी ने भी नहीं देखा। तुम्हारी आंखों में भी कोई आखें डाल दे, तो भी तुम्हें नहीं देख सकता। फिर भी तुम हों—आंखों से अलग, कानों से अलग, हाथ—पैरों से अलग तुम हो; इस देह से अलग तुम हो। तुम भलीभांति जानते हो, वह तुम्हारा सहज अनुभव है कि मैं इससे पृथक हूं। तुम्हारा हाथ कट जाए तो भी तुम नहीं कट जाते। तुम आखें बंद कर लो तो भी भीतर तुम देखते हों—बिना आंख के देखते हो। तुम भीतर हो। तुम चैतन्य हो। तुम अदृश्य हो।

      जैसे तुम्हारे भीतर यह छोटा सा अदृश्य छिपा है, ऐसा ही इस सारे जगत के भीतर भी अदृश्य छिपा है। दृश्य दिखायी पड़ रहा है, अदृश्य से पहचान नहीं हो रही है।

      उस अदृश्य की प्रीति में पड़ जाने का नाम भक्ति है।

      फिर भय क्या? दृश्य छिन जाएगा तो छिन जाए। अगर दृश्य की कीमत पर विराट अदृश्य मिलता हो, यह क्षुद्र देह जाती हो तो जाए—यह सस्ता सौदा है—अगर इस देह के जाने पर विराट से मिलन होता हो, प्रभु—मिलन होता हो, तो कौन होगा पागल, जो इस देह के लिए रुकेगा! मगर यह प्रतीति भीतर गहरी हो गयी हो, तब; नहीं तो भक्ति की जिज्ञासा का क्षण नहीं आया अभी।

      दोपहरी तक पहुंचते—पहुंचते

      मुर्झा जाता है जो

      वह कैसा भोर है

      क्या

      कुल मिला कर

      जीवन का मुंह

      मृत्यु की ओर है

      ऐसा ही है। हम सब मरने की तरफ चल रहे हैं। जिस दिन तुम्हें यह दिखायी पड़ता है कि देर—अबेर, आज नहीं कल, यह देह छूट ही जाएगी; यहा हम सब मरने को ही सन्नद्ध खड़े हैं, पंक्तिबद्ध खड़े हैं; कोई आज मर गया, कोई कल मरेगा; देर—अबेर मैं भी मरूंगा; यहा मृत्यु घटने ही वाली है—इसके पहले अमृत से कुछ पहचान कर लें! अथातोभक्तिजिज्ञासा! इसके पहले कि देह छिन जाए, देह में जो बसा है, उससे पहचान कर लें! इसके पहले कि पिंजड़ा टूट जाए, पिंजड़े में जो पक्षी है, उससे पहचान कर लें। तो फिर पिंजड़ा रहे कि टूटे, कोई भेद नहीं पड़ता। अंतर की जिसे पहचान हो गयी, उसे सब तरफ भगवान की झलक मिलने लगती है। मगर पहली पहचान अपने भीतर है। जिसने स्वयं को नहीं जाना, वह उस परमात्मा को कभी भी नहीं जान सकेगा।

      मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते है —परमात्मा को जानना है। मैं उनसे पूछता हूं —तुम स्वयं को जानते हो? स्वयं को बिना जाने कैसे परमात्मा को जानोगे? कण से तो पहचान करो, फिर विराट से करना।

      तत्संस्थस्यामृतत्वोपदेशात्।

      ऐसा कहा है कि उनमें चित्त लग जाने से जीव अमरत्व को प्राप्त हो जाता है।

      उपदेशात् का अर्थ होता है : जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा है। उपदेश शब्द का अर्थ इतना ही नहीं होता कि ऐसा कहा है। हर किसी की कही बात उपदेश नहीं होती। उपदेश किस की बात को कहते हैं? जिसने जाना हो। और उपदेश क्यों कहते हैं? उपदेश शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है : जिसके पास बैठने से तुम भी जान लो—उप, देश—जिसके पास बैठने से तुम्हें भी जानना घटित हो जाए, जिसकी सन्निधि में तुम्हारे भीतर भी तरंगे उठने लगें, जिसके स्पर्श से तुम भी स्फुरित हो उठो, जिसके निकट आने से तुम्हारा दीया भी जल जाए, उसके वचन को उपदेश कहते हैं।

      तत्सस्थस्यामृतत्वोपदेशात्। जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है कि उसमें चित्त लग जाने से जीवन अमरत्व को प्राप्त हो जाता है। अनुवाद में थोड़े शब्द ज्यादा हो गए हैं। संस्कृत के सूत्र शब्दों के संबंध में बड़े वैज्ञानिक है; एक शब्द का भी ज्यादा उपयोग नहीं करेंगे। अनुवाद ने जीव शब्द को बीच में डाल दिया। अनुवाद इतना ही होना चाहिए—जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा : जो उसे पा लेते हैं वे अमृत हो जाते हैं। उनकी मृत्यु मिट जाती है। उनके लिए मृत्यु मिट जाती है। उनका मृत्यु से संबंध विच्छिन्न हो जाता है। क्यों? क्योंकि ईश्वर का अर्थ होता है : जीवन। वृक्ष आते हैं और जाते हैं; लेकिन वृक्षों के भीतर जो छिपा जीवन है वह सदा है। पात्र बदलते हैं, नाटक चलता है। हम नहीं थे, सब था; हम नहीं होंगे; फिर भी सब होगा। हमारे होने—न होने से कुछ भेद नहीं पड़ता। जो है, है। हम तरंगें हैं। हम हो भी जाते हैं, नहीं भी हो जाते है—फिर भी इस अस्तित्व में न तो हमारे होने से कुछ जुड़ता है और न हमारे न होने से कुछ घटता है। यह अस्तित्व उतना का उतना, जितना का जितना, जस का तस, वैसा का वैसा बना रहता है।

      सागर में लहर उठी, फिर लहर सो गयी; क्या तुम सोचते हो लहर के उठने से सागर में कुछ नया जुड़ गया था? अब लहर के चले जाने से क्या सागर में कुछ कमी हो गयी? न तो सागर में कुछ जुड़ा, न कुछ कमी हुई। सब वैसा का वैसा है।

      सत्य न तो घटता, न बढ़ता। बढ़े तो कहा से बढ़े। घटे तो कहां घटे, कैसे घटे? सत्य तो जितना है उतना है। जिस दिन व्यक्ति अपने को लहर की तरह देखता है और परमात्मा को सागर की तरह, अपने को तरंग की तरह, इससे ज्यादा नहीं; एक रूप, एक नाम, इससे ज्यादा नहीं; एक भावभंगिमा, एक मुख—मुद्रा, इससे ज्यादा नहीं; उसके भीतर उठा हुआ एक स्वप्न, इससे ज्यादा नहीं—अमृत से संबंध हो गया।

      तत्संस्थस्या... उसके साथ जो जुड़ गया। तत् शब्द विचारणीय है। तत् का अर्थ होता है : वह; दैट। ईश्वर को हम कोई व्यक्तिवाची नाम नहीं देते, क्योकि व्यक्तिवाची नाम देने से भ्रांतियां होती हैं। राम कहो, कृष्ण कहो— भ्रांति खड़ी होती है। क्योंकि यह भी तरंगें हैं; बड़ी तरंगें सही, मगर तरंगें हैं। उसकी तरंगें हैं। अवतार सही, मगर आज है और कल नहीं हो जाएंगे। छोटी तरंग हो सागर में कि बड़ी तरंग हो, इससे क्या फर्क पड़ता है—तरंग तरंग है। उसकी! तत्! उसमें जो ठहर गया; उससे भिन्न अपने को जो नहीं मानता—उसका संबंध अमृत से हो जाता है, क्योंकि परमात्मा अमृत है।

      ऐसा कहना कि परमात्मा अमृत है, शायद ठीक नहीं। ऐसा ही कहना ठीक है कि इस जगत में जो अमृत है, उसका नाम परमात्मा है। इस जगत में जो नहीं मरता उसका नाम परमात्मा है। जो इस जगत में मर जाता है, वह संसार। जो नहीं मरता, वह परमात्मा।

      तुमने एक बीज बोया। बीज मर गया। लेकिन अंकुर हो गया। जो बीज में छिपा था अमृत, अब अंकुर में आ गया। बीज मर गया, उसने बीज को छोड़ दिया, वह देह छोड़ दी, अब उसने नयी देह ले ली, नया रूप ले लिया। अब तुम बैठकर रोओ मत बीज की मृत्यु पर। क्योंकि बीज मे तो कुछ और था ही नहीं, जो था, अब अंकुर में है। फिर एक दिन वृक्ष बड़ा हो गया, फिर एक दिन वृक्ष मर गया। अब तुम रोओ मत वृक्ष की मृत्यु पर। क्योंकि जो वृक्ष में मर गया, वह अब फिर बीजो में छिप गया है। वृक्ष पर बीज लग गये। अब फिर कहीं, फिर किसी मौसम में, फिर किसी अवसर में, फिर किसी क्षण में बीज अंकुरित होंगे। फिर पौधा होगा, फिर वृक्ष होगा।

      जीवन शाश्वत है। रूप बदलते, ढंग बदलते, मगर जीवन शाश्वत है। उसे देखो

      —अविच्छिन्न जीवन की धारा को।

      एक दिन तुम मां के पेट में सिर्फ मांस—पिंड थे। आज वहा मांस—पिंड कहीं भी नहीं है। आज तुम्हारे सामने उस मांस—पिंड का कोई चित्र रख दे तो तुम पहचान ही न सकोगे कि कभी मैं यह था। या कि तुम सोचते हो पहचान सकोगे? फिर एक दिन तुम छोटे बच्चे थे, फिर वह भी खो गया। फिर तुम जवान थे, वह भी खो गया। अब तुम बूढ़े हो, वह भी खो रहा है। मौत भी आएगी, यह देह भी खो जाएगी। फिर किसी और क्षण में, फिर किसी और मौसम में, तुम कहीं फिर उमगोगे, फिर जन्मोगे। जो इस तरह से रूपों से गुजरता है, उसकी याद करो, उसका स्मरण करो। उसका नाम तत्, वह। वह अमृत है। और उससे जो जुड़ गया, वह भी अमृत हो गया।

      अब यहा यह भ्रांति मत कर लेना—जैसा कि हिंदी—अनुवाद में हो सकती है—ऐसा कहा है कि उनमें चित्त लग जाने से जीव अमरत्व को प्राप्त हो जाता है। इसमे भ्रांति पैदा हो सकती है, तुमको यह लग सकता है; तो चलो परमात्मा से जुड़ जाएं, इससे मृत्यु से बच जाएंगे; अमृत हो जाएंगे! तो मैं बचूगा! तो रहूंगा बैकुंठ में, कि स्वर्ग में, कि मोक्ष में —मगर मैं बचूगा—जीव बचेगा! अब यह जीव नाहक बीच में ले आया गया; इसकी कोई जरूरत न थी।

      यह तो ऐसा ही हुआ कि बीज सोचे कि मैं बचूगा; चलो कोई हर्जा नहीं, पौधे में बचूगा। बीज कहा बचेगा? बीज तो जाएगा। तुम तो जाओगे, तुम नहीं बचोगे। तुम जैसे हो ऐसे तो तुम जाओगे ही, जा ही रहे हो, प्रतिपल जा रहे हो। तुमने जैसा अपने को जाना है यह बचने वाली बात नहीं है, लेकिन तुम्हारे भीतर कोई ऐसा तत्व भी छिपा पड़ा है, जैसा तुमने अपने को अभी तक जाना ही नहीं है, वह बचेगा। उसका तुमसे कुछ संबंध नहीं।

      वह यानी वह, तत्। तुम्हारे भीतर भी तत् बैठा है—साक्षी की तरह बैठा है। जब तुम भोजन कर रहे हो तब वह भोजन नहीं कर रहा है, देख रहा है कि तुम भोजन कर रहे हो। जब तुम स्नान कर रहे हो, तब वह स्नान नहीं कर रहा है, देख रहा है कि तुम स्नान कर रहे हो। जब तुम बीमार पड़ते हो, तब वह बीमार नहीं होता, देखता है कि तुम बीमार हो गए हो। और जब तुम स्वस्थ होते हो, तब वह स्वस्थ नहीं होता, देखता है कि तुम स्वस्थ हो गए हो।

      समझ लेना भेद। जिसने भोजन किया, जो भूखा था, जो बीमार पड़ा, जो स्वस्थ हुआ—इसको ही तुमने अब तक माना है कि मैं हूं। यह तो जाएगा। और तुम्हारे भीतर एक तत् छिपा है, एक साक्षी खड़ा है; एक चैतन्य—जिससे तुमने अपना संबंध ही नहीं जोड़ा है अभी तक, जिससे तुम्हारी कोई पहचान ही नहीं—तुम्हारी अपने से पहचान ही कहा है!

      तुम्हारी हालत ऐसे ही है जैसे किसी ने अपने को अपने वस्त्रों के साथ एक कर लिया और सोचता है : यही मैं हूं। यह कमीज, यह कोट, यह टोपी, यह अंगरखा, यह मैं हूं। यह तो जाएंगे, यह तुम हो ही नहीं। तुम तो बिलकुल न बचोगे। लेकिन फिर भी कुछ बचेगा। और वह कुछ तुम्हारे मैं से बिलकुल मुक्त है। वहा मैं का भाव ही नहीं उठता है। वहा मैं की तरंग ही नहीं बनती है।

      इसलिए बुद्ध ने तो कह दिया : अनात्मा; कोई आत्मा नहीं। क्योंकि आत्मा अर्थात मैं। उस साक्षी में कहा आत्मा है! उस साक्षी में यह भाव ही नहीं बनता कि मैं। जंहा मैं का भाव बना, संसार शुरू हुआ। जंहा मैं का भाव मिटा, संसार मिटा। उसमें ठहर गये, तो अमरत्व—ऐसा जानने वालों ने कहा है।

      ज्ञानमितिचेन्नद्विषतोऽपिज्ञानस्यतदसस्थिते:।

      ईश्वर—संबंधी ज्ञानविशेष का नाम भक्ति नहीं है। द्वेषी पुरुष को भी ज्ञान होता है, परंतु उसमें प्रीति नहीं होती।

      यह सूत्र बहुमूल्य है। खूब ध्यानपूर्वक समझना। ज्ञानविशेष का नाम भक्ति नहीं है। ईश्वर के संबंध में जानना ईश्वर को जानना नहीं है। ईश्वर के संबंध में जानना तो बहुत सस्ता है; बिना कुछ दाव पर लगाए हो जाता है—शास्त्र पढ़ लिए और जान लिया। सदगुरुओ के वचन कंठस्थ कर लिए—तोते की भांति! तो ज्ञान तो सस्ता है। पंडित हो जाना तो बहुत सस्ता है। ज्ञानी होना बहुत कठिन है। ज्ञानी कोई ज्ञान से नहीं होता, ज्ञानी तो प्रेम से होता है। यह बात जरा उलझी हुई लगेगी।

      जानने के लिए ज्ञान का संग्रह पर्याप्त नहीं है। जानने के लिए तो प्रीति कानी चाहिए—विराट के प्रति, अनंत के प्रति, अमृत के प्रति।

      ईश्वर—संबंधी ज्ञानविशेष का नाम भक्ति नहीं है। इसलिए इस भ्रांति में मत पड़ लेना कि खूब जान लिया—उपनिषद पढ़े, वेद पढ़े, गीता पढ़ी, खूब जान लिया, कंठस्थ कर लिया, शास्त्र याद हो गये, सोचने लगे कि ईश्वर है, क्योंकि शास्त्रों के तर्क ने समझा दिया कि ईश्वर है। मानने भी लगे कि ईश्वर है। लेकिन यह मानना, यह जानना, सब थोथा है, सब ऊपर—ऊपर है। यह तुम्हारे हृदय में नहीं अंकुरित हुआ है। यह जानना तुम्हारा नहीं है। और जब तक तुम्हारा न हो तब तक झूठ है।

      ईश्वर—संबंधी ज्ञानविशेष का नाम भक्ति नहीं है। तो असली भक्ति क्या है? असली भक्ति वैव्‍यक्‍तिक रूप से ईश्वर से संबंधित होना है। असली भक्ति व्यक्ति का परम से विवाह है।

      शास्त्र पढ्ने से नहीं होगा। सत्य में उतरना होगा। उतरना महंगा सौदा है। खतरा है। बड़ा खतरा तो है अपने को खोने का। अपने को जो मिटाने को तैयार है, वही वहां जाएगा। कबीर ने कहा है; जो घर बारै आपना, चलै हमारे संग। यह अपना, यह मैं, यह घर तो जला डालना होगा। यह अपने ही हाथ से फूंक देना होगा। पंडित कुछ भी नहीं फूंकता, उलटे उसका मैं और मजबूत हो जाता है। वह तो अपने मैं के घर को और बड़ा कर लेता है। ज्ञान से खूब सजा लेता है।

      ज्ञान आभूषण है अहंकार का। इसलिए ज्ञानी परमात्मा को नहीं जान पाता, प्रेमी जानता है। प्रेमी का अर्थ है : जो अपने को कुर्बान करने को तत्पर है। प्रेमी का अर्थ है : जो झुकने को, समर्पित होने को राजी है।

      मैं रुका रहा

      किसी बांस की डाली की तरह

      हवा के सामने झुका रहा

      और आवाज सुनता रहा एक

      कि नति ठीक है

      मगर मना नहीं है तुम्हारे लिए गति

      हमने तो तुमसे उन्नत होने को कहा है

      विरति की बात कहां कही है हमने

      रत रहने के लिए

      कहा है हमने तो तुमसे

      सुनने को सुनता रहा मैं यह आवाज

      मगर समझ लिया मैंने

      कि यह एक सलाह है

      अपनी एक राह है मेरी

      रुकने की और झुकने की

      किसी न किसी जगह

      पूरी तरह चुकने की

      वही जान पाएगा परमात्मा को, जिसने यह राह पकड़ी—

      अपनी एक राह है मेरी

      रुकने की और झुकने की

      किसी न किसी जगह

      पूरी तरह चुकने की

      जो अपने को पूरा उंडेल देगा। कुछ और चढ़ाने से काम नहीं होगा। किसको धोखा देते हो! फूल चढ़ाने से काम नहीं होगा, जब तक तुम अपने प्राणों के फूल न चढ़ाओ। यह धूप—दीप जलाने से कुछ भी न होगा, जब तक तुम अपने प्राणों के धूप—दीप न जलाओ। ये तुम्हारे पूजा के थाल झूठे हैं। इसलिए तो परमात्मा से कभी कोई संबंध नहीं हुआ। यह पूजा के थाल ही अड़ंगा बने हैं। यह तुम्हारे मंदिरों में बजते हुए घटनाद और उठता हुआ धूप का धुआ—यह सब झूठा है। यह धुआ तुमसे उठे। यह नाद तुम्हारे भीतर हो! यह तुम्हारा ओंकार हो! तुम जलों! तुम गलो! तुम झुकों! तुम अपने को उडेलो, तो कुछ हो!

      ईश्वर—संबंधी ज्ञानविशेष का नाम भक्ति नहीं है। द्वेषी पुरुष को भी ज्ञान होता है, परंतु उसमें प्रीति नहीं होती। ज्ञान तो सरल बात है। ज्ञान तो कैसे भी आदमी को हो सकता है। द्वेषी को भी हो सकता है। अत्यंत घृणा से भरे हुए व्यक्ति को भी हो सकता है। क्रोध से भरे हुए व्यक्ति को भी हो सकता है।

      तुमने दुर्वासा जैसे ऋषियों की कहानियां तो पढ़ी ही हैं। ऋषि तो थे ही, मगर गजब के ऋषि रहे होंगे! ज्ञान तो था ही, शास्त्रों के ज्ञाता तो थे ही, लेकिन प्रीति नहीं उमगी, प्रेम का वसंत नहीं आया, प्रेम के फूल नहीं खिले प्रेम की सरिता नहीं बही—क्रोध ही जलता रहा। फिर कभी—कभी उनको भी हो गया है, जिनके पास पांडित्य बिलकुल नहीं था—जैसे कबीर को, या कि जैसे मीरा को। पंडित तो जरा भी नहीं थे। शास्त्र का तो कुछ बोध ही नहीं था। कबीर ने तो कहा है—मसि कागद छूयो नहीं। स्याही और कागज तो कभी छुआ ही नहीं। लेकिन कबीर ने कहा है—ढाई आंखर प्रेम के, पढै सो पंडित होय। वे जो ढाई अक्षर प्रेम के हैं, वे जरूर पढ़े। बस उन्हीं को पढ़ लिया तो सब पढ़ लिया। उन ढाई अक्षरों में सब अक्षर आ गये। अक्षर आ गया।

      प्रेम द्वार है परमात्मा का, ज्ञान नहीं।

      तीन बातें खयाल में लेना। पहली बात—कर्म, दूसरी बात—ज्ञान, और तीसरी बात— भक्ति। कर्म बड़ा स्थूल अहंकार है—कुछ करके दिखा दूं। कुछ पाकर दिखा दूं। धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, दौड़— धाप—कर्ता का अहंकार है। जब आदमी कर्म से हार जाता है, गिर पड़ता है, चलते—चलते—चलते थक जाता है, अनुभव में आता है कि मेरे ही किए कुछ भी नहीं होगा, मेरे बस मे नहीं है, मैं एक छोटी बूंद हूं और यह अस्तित्व बड़ा है, मेरी सामर्थ्य में नहीं—तब आदमी ज्ञान से संयुक्त होता है। कर्म से थका तो ज्ञान से संयुक्त होता है।

      ज्ञान का अर्थ होता है : जीत तो न सका, जान कर रहूंगा। जीत तो नहीं हो सकी, लेकिन जानना तो हो सकता है! यह सूक्ष्म अहंकार है। फिर एक दिन आदमी इससे भी थक जाता है, कि जानना भी नहीं हो सकता; मैं इतना छोटा हूं और यह इतना विराट है—इसको जानूंगा कैसे! मैं इससे अलग कहा हूं; अलग—थलग होता तो जान लेता; मैं तो इसी में जुड़ा हूं; इसीका हिस्सा हूं। अब कोई पत्ता किसी वृक्ष का, वृक्ष को जानना चाहे, कैसे जानेगा! वह वृक्ष का ही हिस्सा है। वृक्ष उससे पूर्व है। वृक्ष चाहे तो पत्ते को जान ले, पत्ता वृक्ष को नहीं जान सकता।

      एक दिन कर्म थक जाता है तो ज्ञान पैदा होता है। कर्म यानी स्थूल अहंकार ज्ञान यानी सूक्ष्म अहंकार। एक दिन ज्ञान भी थक जाता है, ततब क्षण आता है : अथातो भक्‍तिजिज्ञासा! तब आदमी कहता है : न मैं जीत सका, न मैं जान सका, प्रेम तो कर सकता हूं! यह हो सकता है। पत्ता वृक्ष को जीत नहीं सकता, न वृक्ष को जान सकता है; लेकिन पत्ता वृक्ष के प्रेम में लीन हो सकता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। कर्म—स्थूल अहंकार ज्ञान—सूक्ष्म अहंकार; भक्ति—निरहंकार।

      तयोपक्षयाच्च।

      क्योंकि पूर्णरूप से भक्ति का उदय होते ही ज्ञान का नाश हो जाता है।

      यह सूत्र बड़ा अदभुत है। इसके दो अर्थ हो सकते हैं। तयोपक्षयाच्च। उसके जानने से क्षय हो जाता है। इसके दो अर्थ हो सकते है। एक अर्थ तो यह हो सकता है कि ज्ञान के जानने से भक्ति का क्षय हो जाता है। दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि भक्ति के जानने से ज्ञान का क्षय हो जाता है। दोनों अर्थ प्यारे है। और दोनों अर्थ एक साथ मैं करना चाहता हूं। अब तक किसी ने दोनों अर्थ एक साथ किए नहीं है।

      पहला, ज्ञान से भक्ति का क्षय हो जाता है। जितना आदमी जानकार होगा, उतना ही कम प्रेम हो जाएगा। जानना प्रेम की हत्या करता है। जानना जहर है प्रेम के लिए। क्योंकि प्रेम के लिए रहस्य चाहिए, प्रेम के लिए विस्मय—विमुग्धता चाहिए और ज्ञान तो रहस्य को छीन लेता है। ज्ञान तो कहता है : हम जानते हैं रहस्य क्या है?

      छोटे बच्चे प्रेम कर सकते है—क्योंकि आश्चर्यचकित, विस्मय—विमुग्ध, अवाक!

      छोटा बच्चा छोटी—छोटी चीजों के प्रेम मे पड़ जाता है—समुद्र के किनारे रंगीन पत्थर बीनने लगता है; शंख—सीप बीनने लगता है। तुम ज्ञानी हो, तुम कहते हो फेंको इनको, कचरा कहां ले जा रहे हो! बच्चे की समझ में नहीं आता कि इतना प्यार पत्थर, सूरज की रोशनी में ऐसे दमक रहा है हीरे जैसा! ऐसा प्यार शंख! वह बाप की नजर बचाकर खीसे में छिपा लेता है। उसे प्रेम उपजता है। उसे हर चीज से प्रेम उपजता है। वह हर चीज के पास ठिठककर खड़ा हो जाता है। घास में फूल खिला है और वह ठिठककर खड़ा हो जाता है। वह भरोसा नहीं कर पाता ऐसा प्यारा फूल, ऐसा अदभुत रंग! एक तितली उड़ी जा रही है, वह भरोसा नहीं कर पाता; वह भागने लगता है तितली के पीछे—ऐसा चमत्कार, जैसे फूल को पंख लग गए हों! हर चीज चमत्कृत करती है, उसे, क्योंकि वह कुछ भी नहीं जानता, अज्ञानी है, विस्मय से भरा है। आश्चर्य अभी उसका जीवित है।

      फिर तुम धीरे—धीरे ज्ञान ठूसोगे, तुम हर चीज समझा दोगे। फिर एक दिन धीरे— धीरे जब वह विश्वविद्यालय से वापिस लौटेगा ज्ञानी होकर—सब गंवाकर और कोरे कागज साथ लेकर, सर्टिफिकेट लेकर—तब उसे कोई चीज विस्मय—विमुग्ध न करेगी। हर चीज का उत्तर उसके पास होगा। तुम पूछो—वृक्ष हरे क्यो है? वह कहेगा—क्लोरोफिल। बात खतम हो गयी। स्त्री सुंदर क्यो लगती है? हारमोन। बात खतम हो गयी। प्रेम क्या है? रसायनशास्त्र। वह समझा सकेगा सब। वह सब समझकर आ गया है। वह हर चीज को जानता है। अब अनजाना कुछ छूटा नहीं है, प्रीति कैसे उमगे! आश्चर्य ही मर गया। आश्चर्य की हवा में प्रीति उमगती है।

      इसलिए तुम जानकर आश्चर्य चकित मत होना कि जैसे—जैसे आदमी का ज्ञान बढ़ा है वैसे—वैसे दुनिया मे प्रेम कम हो गया। यह स्वाभाविक परिणाम है। यह शाडित्य के सूत्र में छिपा है : तयोपक्षयाच्च।

      देखते नहीं, तुम रोज देखते नहीं—दुनिया मे जितनी शिक्षा बढ़ती जाती है, उतना प्रेम कम होता जाता है। शिक्षित आदमी और प्रेमी, जरा मुश्किल जोड़ है! जितना शिक्षित, उतना ही कम प्रेमी। थोड़ा अशिक्षित होना चाहिए प्रेम के लिए। ग्रामीण के पास प्रेम है, शहरी के पास विदा हो गया। असभ्य के पास प्रेम है, सभ्य के पास नहीं। जो जितना सुसंस्कृत हो गया है, उसके पास औपचारिकता है, लेकिन औपचारिकता में कहीं कोई प्राण नहीं, कहीं कोई जीवन नहीं। वह जब तुमसे पूछता है, कहिए कैसे? कुछ नहीं पूछ रहा है। वह यह कह रहा है कि चलो, आगे बढ़ो। यह तो पूछना पड़ता है। हमें मतलब? तुम्हें मतलब? किसी को क्या लेना—देना है।

      वर्षो बीत जाते हैं और पड़ोसी से पहचान नहीं होती। सुसंस्कृत आदमी का कोई पड़ोसी ही नहीं है। पड़ोस तो प्रेम से बनता है। जीसस ने कहा है—कौन है पड़ोसी? क्योंकि जीसस बहुत जोर देते थे इस बात पर कि पड़ोसी से प्रेम करो, तो ही तुम परमात्मा से प्रेम कर पाओगे। अपने प्रेम को थोड़ा बढ़ाओ, फैलाओ सब तरफ; आस—पड़ोस प्रेम को फैलाओ। कौन है पड़ोसी? एक दिन उनके शिष्य ने पूछा कि आप किसको पड़ोसी कहते हैं? तो जीसस ने कहा—एक आदमी निकलता था एक सुनसान रास्ते से, डाकुओं ने हमला किया, उसे लूट लिया, उसको छुरे मारे। उसको कई घावों से भरकर पास के गड्डे में फेंक दिया। फिर उसके गांव का ही पादरी वहा से गुजरा—रबाई—उसने देखा इस आदमी को, यह इसके गांव का ही आदमी था, इसके ही मंदिर में प्रार्थना करने आता था—यह मंदिर में ही प्रार्थना करने जा रहा था—इसने देखा—घाव से भरे, कराहते। उस आदमी ने कहा कि मुझे बचाओ; मैं मर रहा हूं; मुझे उठाओ। लेकिन उसने कहा कि अगर मैं तुम्हें उठाऊं तो मैं झंझट में पडूगा; पुलिस पीछे पड़ेगी—क्या हुआ? कैसे हुआ? किसने मारा? तुम वहां क्या कर रहे थे? तुम्हारा कुछ हाथ तो नहीं है? फिर अभी मुझे मंदिर जाना है, मैं प्रार्थना करने जा रहा हूं। यह बेवक्त की झंझट कौन सिर ले! मंदिर की जगह पुलिस— थाने जाना पड़े! फिर इसको अस्पताल ले जाओ, फिर मर—मरा जाए, फिर न—मालूम कौन झंझट खड़ी हो। उसने तो पीठ फेर ली और चल पड़ा। फिर दूसरे गांव का एक आदमी पास से गुजर रहा था, जिसने इस आदमी को कभी देखा भी नहीं, वह पास आया, उसने इसे अपने गधे पर बिठाया, इसके घाव धोये, इसको पास की धर्मशाला में ले गया, वहा भोजन कराया, वहा इसे लिटाया चिकित्सक को बुलाया—और यह इस आदमी को जानता भी नहीं था।

      तो जीसस ने पूछा अपने शिष्यों से—तुम किसको पड़ोसी कहते हो? वह पुरोहित पड़ोसी था, जो पड़ोस में ही रहता था, या यह अजनबी आदमी पड़ोसी है, जिसने इसे कभी देखा नहीं था? शिष्यों ने कहा—स्वभावत: यह अजनबी आदमी पड़ोसी है। तो जीसस ने कहा : जंहा प्रेम है, वहा पड़ोस है। जीता बड़ा प्रेम है, उतना पड़ोस है। अगर प्रेम बड़ा हो तो सारी पृथ्वी पड़ोस है। और प्रेम बड़ा हो तो सारा ब्रह्मांड पड़ोस है। प्रेम की सीमा पड़ोस की सीमा है। प्रेम यानी पड़ोस।

      जैसे—जैसे शिक्षा बढ़ती है, ज्ञान बढ़ता है, प्रेम संकुचित होता जाता है। तयोपक्षयाच्च। इसलिए ज्ञान भक्ति मे सहयोगी तो होता ही नहीं, बाधा होता है।

      और दूसरा अर्थ भी बहुमूल्य है— भक्ति से ज्ञान का क्षय हो जाता है। और जब भक्ति का जन्म होता है तो आदमी पुन: अज्ञानी हो जाता है; वह सब ज्ञान—व्यान को जलाकर फेंक देता है, राख कर देता है। क्योंकि जब वह परमात्मा से थोड़ा सा जुड़ता है, तब उसे पता चलता है कि जो जाना सब कचरा था। वह तो सब झूठ था वह तो सब व्यर्थ था। अब असली हीरे मिले। तो वह जो उसने कंकड़—पत्थर बीन रखे थे, फेंक देता है। जो उसने शास्त्रों का उच्छिष्ट इकट्ठा कर लिया था, अब क्यों करे! अब तो अपने ही शास्त्र का जन्म हो गया है। अब तो उपनिषद अपने भीतर ही उतर रहा है। अब क्यों किसी उपनिषद को बांधे फिरे। अब क्यों किसी कुरान की आयत को दोहराए! अपनी ही आयत गर्भ में आ गयी है, पक रही है। अपने ही फल पकने लगे, अपने ही फूल खिलने लगे।

      तो जैसे ही भक्ति का जन्म होता है, ज्ञान का क्षय हो जाता है। भक्ति और ज्ञान ऐसे हैं जैसे रोशनी और अंधेरा। रोशनी है तो अंधेरा नहीं। अंधेरा है तो रोशनी नहीं। दोनों साथ नहीं होते हैं।

      ज्ञानी भक्त नहीं होता—ज्ञानी यानी पंडित, खयाल रखना—और भक्त ज्ञानी नहीं होता। भक्त तो निर्दोष हो जाता है, समस्त ज्ञान से मुका हो जाता है। भक्त तो पुन: अज्ञानी हो जाता है। क्योंकि परमात्मा अज्ञेय है; उसके सामने हम अज्ञानी की तरह ही खड़े हो सकते हैं, इतनी की तरह नहीं। ज्ञान का दावा अहंकार का दावा है।

   

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...