रविवार, 29 जून 2025

 पहले तो रावण ने रक्षिकाओं को ही आदेश दिया कि सीता को अशोक-वाटिका तक पहुंचा आएं; किंतु बाद में जाने क्या सोचकर उसने अपना विचार बदल दिया था। सीता को अशोक-वाटिका तक पहुंचाने के लिए वह स्वयं साथ आया था। उसका साथ आना सुरक्षा-व्यवस्था की दृष्टि से आवश्यक नहीं था। जितने सशस्त्र सैनिक सीता के रथ को घेरकर चल रहे थे, उनका विरोध कर, उनके हाथों से निकल जाना, सीता की अपनी कल्पना के लिए भी दुरूह था। किंतु, फिर भी रावण साथ चल रहा था ।

"सीते !" रावण का स्वर अत्यन्त कोमल था ।

सीता ने उसकी बातों तथा संबोधनों के उत्तर प्रायः बंद कर दिए। क्या उत्तर दिया जाए इस षड्यंत्रकारी नीच पुरुष की बातों का !

"सीते ! यदि तुम स्वेच्छा से मुझे अंगीकार कर लो तो मैं राम और लक्ष्मण को जीवित छोड़ दूंगा और उन्हें कोई छोटा-मोटा राज्य भी दे दूंगा।" वह रुका, "और स्त्री के बिना राम यदि अत्यन्त दुःखी हो, तो मैं उसका विवाह शूर्पणखा से कर दूंगा।"

"तुम्हारी बहन तो अपने दहेज में लंका का राज्य और राजाधिराज का शव लाने वाली थी।" सीता का स्वर वितृष्णा से भर उठा।

रावण हतप्रभ रह गया।

उसे अपनी स्थिति में उबरने में कुछ क्षण लगे, "क्या कहा था शूर्पणखा ने ?"

 "उसी से क्यों नहीं पूछ लेते !"

रावण सीता को देखता रह गया। वह सीता को नहीं जानता था, किंतु शूर्पणखा को जानता था। उसकी कामाग्नि वस्तुतः इतनी उग्र थी कि यदि उसका वश चलता तो वह अपनी इच्छापूर्ति के लिए अपने समस्त बंधुओं तथा लंका के साम्राज्य को होम डालती। शूर्पणखा रावण की वास्तविक बहन थी ।

सहसा रावण का ध्यान दूसरी ओर चला गया। यदि किसी प्रकार राम लंका के आस-पास या लंका में आ गया और उसने शूर्पणखा की इच्छा पूर्ण कर दी तो लंका में भयंकर गृह-युद्ध होगा। शूर्पणखा रावण सरीखी योद्धा न सही, किंतु युद्ध-कुशल वह भी है। उसके समर्थक एवं प्रेमी भी अनेक हैं। कालकेय दैत्य आज भी उसके इंगित पर मरने को तत्पर बैठे हैं..

रावण ऐसा गृह-युद्ध नहीं चाहेगा। उसे अनेक लोगों से निबटना है।" और सबसे बड़ी बात, सीता से आत्म-समर्पण करवाना है। ऐसी स्थिति में शूर्पणखा का लंका में अधिक दिन रहना उचित नहीं है। वैसे भी यदि सीता ने रावण को अंगीकार कर लिया तो शूर्पणखा अपनी ईर्ष्या और क्रोध में ही जल मरेगी। उससे सावधान रहना होगा और उसे राम से यथासंभव दूर रखना होगा इसी सीता के कारण, किस झंझट में फंस गया रावण ! एक ओर मंदोदरी क्रुद्ध सिंहनी बनी हुई है, दूसरी ओर शूर्पणखा किसी भी समय घातक हो सकती है !

...और विभीषण ! विभीषण रावण की नीति को कभी स्वीकार नहीं करेगा। इन सारी परिस्थितियों में, रावण को लंका में ही पर्याप्त प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है रावण को पहले अपने घर का व्यूह साधना होगा शूर्पणखा को तो तत्काल ही अश्मद्वीप भेज देना होगा। उसका यहां रहना रावण के लिए घातक है। रावण की ओर से निराश होकर, वह राम को लंका में बुलाने का भी प्रयत्न कर सकती है और यदि राम लंका में आ गया उसने एक बार मुसकराकर शूर्पणखा की ओर देख लिया तो शूर्पणखा उसकी प्रणय-कृपा पाने की एक आशा में ही लंका को फूंक देगी...


कैसे झंझट में फंस गया रावण! केवल इस एक स्त्री के कारण..


रावण ने दृष्टि फेरकर सीता को देखा दासियों में घिरी, गंभीर तथा परेशान सीता ! इसे प्राप्त न किया तो राजाधिराज होने की क्या सार्थकता ? इसे पाने के लिए प्राणन दिए, तो जीवन की क्या उपयोगिता ? शूर्पणखा, राम को पाने के लिए यदि लंका को फूंक सकती है, तो रावण सीता को पाने के लिए संपूर्ण राक्षस साम्राज्य दांव पर लगा सकता है।


तभी प्रतिरावण हंसा, "यह विरोध राम और रावण का है या रावण और


शूर्पणखा का..?"

पर रावण का ध्यान प्रतिरावण से हटकर किन्ही अनजाने मागों पर भटकन भरी यात्राएं करता चला गया। सीता-प्राप्ति तो बाद में होगी, पहले उसे अपने घर में अपना शासन स्थापित करना पड़ेगा।


प्रतिरावण भी विलीन हो गया। इस बार उसने अधिक हठ नहीं ठाना। कदाचित् शूर्पणखा का भय उपजा जाना ही उसे पर्याप्त लगा था ।


सीता से रावण ने कोई विशेष बातचीत करने का प्रयास नहीं किया। वह अन्यमनस्क-सा बैठा, किन्ही गुत्थियों को मन-ही-मन सुलझाता रहा। उसके संकेत पर ही रथ अशोक वाटिका में प्रविष्ट हुआ। उसकी दृष्टि वाटिका के बाह्र स्थापित किए गए सैनिक शिविरों पर पड़ी- एक बार मन में आया भी कि एक साधारण-सी कोमल और कमनीय स्त्री को बन्दी बनाए रखने के लिए इतने सैनिकों की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए पर तत्काल ही उसका मन सशंक हो उठा. सीता के सम्बन्ध में तनिक भी असावधानी नहीं बरती जानी चाहिए। अपने बल पर मीता निकल भागने का प्रयत्न कदाचित् न भी करे, किन्तु शूर्पणखा अपने सहायकों के माध्यम में उसकी हत्या भी कर सकती है। मीता की हत्या ! इस कल्पना से ही रावण का मन क्षुब्ध हो उठता है विभीषण उभे मुका करवाने में गहायक हो सकता है। और मंदोदरी? फिर राम के पक्ष का भी कोई व्यक्ति आ सकता है। इन षड्यंत्रों के विरुद्ध रावण को सावधान रहना होगा पहरे में शिथिलता नहीं करनी होगी...


प्रतिरावण ने अट्टहास किया "राम का भय तेरे रक्त में घुल गया है. उसके यहां आ पहुंचने की ६. कल्पना करने लगा है तू?..."

 द्वार पर किसी के हाथ की थाप पड़ी ।

राम तत्काल उठ खड़े हुए। आज कुछ भी असहज नहीं था। किसी भी क्षण कोई भी सूचना आ सकती थी।...

राम ने कपाट खोला। दीपक के प्रकाश में सामने सौमित्र खड़े थे। उनका चेहरा पहले से भी अधिक निर्जीव लग रहा था। एक ही संध्या में कितने बदल गये थे सौमित्र !

"अभी तक सोये नहीं ?" राम स्वयं को संभालकर अत्यन्त कोमल स्वर में बोले, "कोई समाचार आया है क्या ?"

लक्ष्मण ने ऐसी दृष्टि से राम को देखा, जैसे उनकी कठोरता के विरुद्ध शिकायत कर रहे हों। फिर आंखें झुकाकर धीमे स्वर में बोले, "थोड़ी देर आपके पास बैठ सकता हूं ?"...

राम हतप्रभ रह गये वे एक के पश्चात एक भूल कैसे करते जा रहे हैं. पहले भी उन्होंने सौमित्र की भावनाओं की ओर ध्यान नहीं दिया था, अब फिर वे उनकी ओर से आंखें मूंद, अपने कुटीर में अकेले बंद हो गये थे। अपने दुख को कलेजे से लगाये, लोगों की दृष्टि से बचकर, एकांत में रोने का प्रयत्न कर रहे थे - उन्होंने क्यों नहीं सोचा कि इस दुख का बहुत बड़ा अंश उनके और सौमित्र के बीच सामान्य भी था। सीता उनकी पत्नी हैं तो सौमित्र की सखावत भाभी. मुखर उनसे बढ़कर सौमित्र का मित्र था फिर अन्याय के विरुद्ध यह युद्ध, जीवन का यह लक्ष्य, अकेले राम का नहीं था। वनवास में, लक्ष्य के लिए संघर्ष में सौमित्र कभी पीछे नहीं रहे थे फिर सौमित्र से अलग उनका दुख अपना कैसे हो सकता है. दोनों का दुख था, दोनों को सहना था इसको तो भाई के वक्ष से लगकर ही, साथ रोकर ही सहन किया जा सकता था; और भाई के कंधे से कंधा मिलाकर ही इसका प्रतिकार किया जा सकता था.

"आओ, सौमित्र !" राम का स्वर विह्वल हो उठा। वे लक्ष्मण को उनके बांहों से घेर भीतर ले आये ।

लक्ष्मण को आसन पर बैठा, राम सम्मुख बैठ गये। सहज होने का प्रयत्न करते हुए धीरे से बोले, "बहुत दुखी हो, सौमित्र ?"

लक्ष्मण तुरन्त नहीं बोले। कुछ देर शून्य में देखते रहे, जैसे बोलने के लिए शक्ति बटोर रहे हों, "दुखी क्षुब्ध अपमानित सबसे अधिक अपराध-बोध से पीड़ित हूं..।"

"सौमित्र !"

"मुझे दंड दें, भैया ! मैं अपराधी विश्वासघाती..." राम चौके, "क्या है तुम्हारे मन में, सौमित्र!"...

"आपकी अनुपस्थिति में रक्षा का दायित्व मेरा था।" लक्ष्मण का स्वर अत्यन्त उदास था, "भाभी के अपहरण, मुखर के वध के लिए अपराधी मैं हूं। उन्हें अकेले, असुरक्षित छोड़कर जाने का औचित्य..."

"सौमित्र ! सीता और मुखर 'वस्तु' नहीं थे, जिनकी रक्षा का दायित्व तुम पर था।" राम बोले, "वे सचेतन प्राणी थे। तुम्हारे संरक्षित थे, किंतु तुम्हारे साथी भी थे। वे सैनिक थे और शत्रु से युद्ध कर रहे थे।" राम ने रुककर लक्ष्मण को देखा, "इस दीर्घकालीन युद्ध में अनेक छोटी-बड़ी झड़पों में हम विजयी हुए हैं, किंतु इस झड़प में शत्रु विजयी हो गया है। इस पराजय को उसके वास्तविक रूप में ग्रहण कर, हमें आगामी व्यूह के लिए सन्नद्ध रहना चाहिए। अपनी भूलों से कुछ सीख आगे बढ़ना चाहिए। तुम्हें दंड किस बात का दूं ?..."

"मैं अपनी ग्लानि और अपराध-बोध का क्या करूं?" अपनी व्याकुलता में लक्ष्मण ने अपने सिर को अनेक झटके दिये ।

"यह तर्क नहीं, भावना है- जो निजी क्षति से उत्पन्न हुई है।" राम का स्वर भर्रा आया, "निजी रूप से मैं भी बहुत पीड़ित हूं, सौमित्र ! व्यक्तिगत क्षति के लिए बहुत रो चुका हूं। अब सैनिक-धर्म समझने का प्रयत्न कर रहा हूं।"

लक्ष्मण की दृष्टि में राम के लिए सम्मान और स्नेह दोनों थे, "आपके जैसा ठंडा कलेजा कहां से लाऊं?" लक्ष्मण की आंखों से अश्रु चू पड़े, "इस धधकती ज्वाला का क्या करूं ? इच्छा होती है, इस सृष्टि को नष्ट कर दूं, यहां न्याय कभी विजयी नहीं होगा।"

राम स्नेहसिक्त आंखों से लक्ष्मण को निहारते रहे, जैसे उनकी भावना की प्रशस्ति गा रहे हों; और फिर धीरे से बोले, "आग तो मेरे वक्ष में भी ऐसी लगी है कि स्वयं ही भस्मीभूत होने की आशंका जगती है। विनाश का उन्माद मेरे मन में भी बवंडर के समान उठा था; किन्तु सौमित्र ! संसार के कुछ नियम हैं। उनके विरुद्ध आचरण करने से कभी सफलता नहीं मिलती। हमें धैर्य तथा विवेक से योजनाबद्ध रूप में सीता की खोज करनी होगी। सीता का अपहरणकर्ता ही मुखर का हत्यारा भी है। उसकी शक्ति के अनुरूप अपना संगठन करना होगा। ऐसा न हो कि अपनी असावधानी से हम अपना अहित कर बैठें और वैदेही के लिए और अधिक कष्ट के कारण बन जाएं ו"

"मैं क्या करूं, भैया ?"

"अपने शोक को ऊर्जा में बदलो।" राम की शांति में उनका संकल्प बोल रहा था, "व्यक्ति के रूप में नहीं, सैनिक के रूप में सोचो।"

लक्ष्मण ने अपने सिर को झटका दिया, "शोक मना चुका। अब स्वयं को युद्ध के लिए तैयार करूंगा।"

जाने के लिए लक्ष्मण उठ खड़े हुए ।

"आज रात यहीं सो रहो, सौमित्र !" राम के स्वर में अथाह प्यार था।

"नहीं, भैया !" लक्ष्मण के शोक में से उनका ओज. झांक उठा, "शोक का काल समाप्त हुआ। शस्त्रागार के प्रहरी के रूप में, अपने ही कुटीर में सोऊंगा।"

नरेन्द्र कोहली अभूदय 

गुरुवार, 26 जून 2025

 प्राचीन काल में हमारे पूजनीय पूर्वजों ने, ऋषियों ने अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से विज्ञान के इस सूक्ष्म तत्त्व को पकड़ा था, उसी की शोध और सफलता में अपनी शक्तियों को लगाया था। फलस्वरूप वे वर्तमान काल के यशस्वी भौतिक विज्ञान की अपेक्षा अनेक गुने लाभों से लाभान्वित होने में समर्थ समर्थ हुए थे। वे आद्यशक्ति के सूक्ष्म शक्ति प्रवाहों पर अपना अधिकार स्थापित करते थे। यह प्रकट तथ्य है कि मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार की शक्तियों का आविर्भाव होता है। हमारे ऋषिगण योग-साधना के द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में छिपे पड़े हुए शक्ति-केन्द्रों को, चक्रों को, ग्रन्थियों को, मातृकाओं को, ज्योतियों को, भ्रमरों को जगाते थे और उस जागरण से जो शक्ति प्रवाह उत्पन्न होता था, उसे आद्यशक्ति के त्रिविध प्रवाहों में से जिसके साथ आवश्यकता होती थी, उससे सम्बन्धित कर देते थे। जैसे रेडियो का स्टेशन के ट्रांसमीटर यन्त्र से सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाता है, तो दोनों की विद्युत् शक्तियाँ सम श्रेणी होने के कारण आपस में सम्बन्धित हो जाती हैं तथा उन स्टेशनों के बीच आपसी वार्तालाप का, सम्वादों का आदान-प्रदान का सिलसिला चल पड़ता है। इसी प्रकार साधना द्वारा शरीर के अन्तर्गत छिपे हुए और तन्द्रित पड़े हुए केन्द्रों का, जागरण करके सूक्ष्म प्रकृति के शक्ति प्रवाहों से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, तो मनुष्य और आद्यशक्ति आपस में सम्बन्धित हो जाते हैं। इस सम्बन्ध के कारण मनुष्य उस आद्यशक्ति के गर्भमें भरे हुए रहस्यों को समझने लगता है और अपनी इच्छानुसार उनका उपयोग करके लाभान्वित हो सकता है। चूँकि संसार में जो कुछ है वह सब आद्य-शक्ति के भीतर है, इसलिये वह सम्बन्धित व्यक्ति भी संसार के सब पदार्थों और साधनों से अपना सम्बन्ध स्थापित कर सकता है।

वर्तमान काल के वैज्ञानिक पंचतत्त्वों की सीमा तक सीमित, स्थूल प्रकृति के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए बड़ी-बड़ी कीमती मशीनों को विद्युत्, वाष्प, गैस, पेट्रोल आदि का प्रयोग करके कुछ आविष्कार करते हैं और थोड़ा-सा लाभ उठाते हैं। यह तरीका बड़ा श्रम-साध्य, कष्ट-साध्य, धन-साध्य और समय-साध्य है। उसमें खराबी टूट-फूट और परिवर्तन की खटपट भी आये दिन लगी रहती है। उन यन्त्रों की स्थापना, सुरक्षा और निर्माण के लिए हर समय काम जारी रखना पड़ता है तथा उनका स्थान परिवर्तन तो और भी कठिन होता है। यह सब झंझट भारतीय योग-विज्ञान के विज्ञानवेत्ताओं के सामने नहीं थे। वे बिना किसी यन्त्र की सहायता के, बिना संचालक, विद्युत्, पेट्रोल आदि के केवल अपने शरीर के शक्ति केन्द्रों का सम्बन्ध सूक्ष्म प्रकृति से स्थापित करके ऐसे आश्चर्यजनक कार्य कर लेते थे, जिनकी सम्भावना तक को आज के भौतिक विज्ञानी समझने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं।

महाभारत और लंका युद्ध में जो अस्त्र-शस्त्र व्यवहृत हुए थे, उनमें से बहुत थोड़ों का धुँधला रूप अभी सामने आया है। रडार, गैस बम, अश्रु-बम, रोग कीटाणु बम, परमाणु बम, मृत्यु किरण आदि का धुँधला चित्र अभी तैयार हो पाया है। प्राचीनकाल में मोहक शस्त्र, ब्रह्मपाश, नागपाश, वरुणास्त्र, आग्नेय बाण, शत्रु को मारकर तरकस में लौट आने वाले बाण आदि व्यवहृत होते थे, शब्द वेध का प्रचलन था। ऐसे अस्त्र-शस्त्र किन्हीं कीमती मशीनों से नहीं, मन्त्र बल से चलाये जाते थे, जो शत्रु को जहाँ भी वह छिपा हो, ढूँढ़कर उसका संहार करते थे। लंका में बैठा हुआ रावण और अमेरिका में बैठा हुआ अहिरावण आपस में भली प्रकार वार्तालाप करते थे, उन्हें किसी रेडियो यन्त्र या ट्रांसमीटर की जरूरत नहीं थी। विमान बिना पेट्रोल के उड़ते थे।

अष्ट-सिद्धि और नव-निधि का योग शास्त्रों में जगह-जगह पर वर्णन है। अग्नि में प्रवेश करना, जल पर चलना, वायु के समान तेज दौड़ना, अदृश्य हो जाना, मनुष्य से पशु-पक्षी और पशु-पक्षी से मनुष्य का शरीर बदल लेना, शरीर को बहुत छोटा या बड़ा, बहुत हल्का या भारी बना लेना, शाप से अनिष्ट उत्पन्न कर देना, वरदानों से उत्तम लाभों की प्राप्ति, मृत्यु को रोक लेना, पुत्रेष्टि यज्ञ, भविष्य का ज्ञान, दूसरों के अन्तस् की पहचान, क्षण भर में यथेष्ट धन, ऋतु, नगर, जीव-जन्तु गण, दानव आदि उत्पन्न कर लेना, समस्त ब्रह्माण्ड की हलचलों से परिचित होना, किसी वस्तु का रूपान्तर कर देना, भूख, प्यास, नींद, सर्दी-गर्मी पर विजय, आकाश में उड़ना आदि अनेकों आश्चर्य भरे कार्य केवल मन्त्र बल से, योगशक्ति से, अध्यात्म विज्ञान से होते थे और उन वैज्ञानिक प्रयोजनों के लिये किसी प्रकार की मशीन, पेट्रोल, बिजली आदि की जरूरत न पड़ती थी। यह कार्य शारीरिक विद्युत् और प्रकृति के सूक्ष्म प्रवाह का सम्बन्ध स्थापित कर लेने पर बड़ी आसानी से हो जाते थे। यह भारतीय विज्ञान था, जिसका आधार था-साधना ।

साधना द्वारा केवल तम तत्त्व से संबंध रखने वाले उपरोक्त प्रकार के भौतिक चमत्कार ही नहीं होते वरन् रज और सत् क्षेत्र के लाभ एवं आनन्द भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त किये जा सकते हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विपन्न परिस्थितियों में पड़कर जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यु तुल्य मानसिक कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्म-शक्तियों के उपयोग की विद्या जानने वाला व्यक्ति विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा और ईश्वर-विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते-हँसते आसानी से काट लेता है और बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनन्द को बढ़ाने का मार्ग ढूँढ़ निकालता है। वह जीवन को इतनी मस्ती, प्रफुल्लता और मजेदारी के साथ बिताता है, जैसा कि बेचारे करोड़पतियों को भी नसीब नहीं हो सकता। जिसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य आत्मबल के कारण ठीक बना हुआ है, उसे बड़े अमीरों से भी अधिक आनन्दमय जीवन बिताने का सौभाग्य अनायास ही प्राप्त हो जाता है। रज शक्ति का उपभोग जानने का यह लाभ भौतिक विज्ञान द्वारा मिलने वाले लाभों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।

पंडित श्री राम शर्मा 

 गायत्री सूक्ष्म शक्तियों का स्रोत है

पिछले पोस्ट पर बतलाया जा चुका है कि एक अव्यय, निर्विकार, अजर-अमर परमात्मा की 'एक से अधिक हो जाने' की इच्छा हुई। ब्रह्म में स्फुरण हुआ कि 'एकोऽहं बहुस्याम्' मैं अकेला हूँ, बहुत हो जाऊँ। उसकी यह इच्छा ही शक्ति बन गयी। इस इच्छा, स्फुरणा या शक्ति को ही ब्रह्म पत्नी कहते हैं। इस प्रकार बह्म एक से दो हो गया। अब उसे लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम, राधे-श्याम, उमा-महेश, शक्ति-शिव, माया-ब्रह्म, प्रकृति- परमेश्वर आदि नामों से पुकारने लगे।

इस शक्ति के द्वारा अनेक पदार्थों तथा प्राणियों का निर्माण होना था, इसलिए उसे भी तीन भागों में अपने को विभाजित कर देना पड़ा; ताकि अनेक प्रकार के सम्मिश्रण तैयार हो सकें और विविध गुण, कर्म, स्वभाव वाले जड़, चेतन पदार्थ बन सकें। ब्रह्मशक्ति के ये तीन टुकड़े (१) सत् (२) रज (३) तम-इन तीन नामों से पुकारे जाते हैं। सत् का अर्थ है- ईश्वर का दिव्य तत्त्व। तम का अर्थ है- निर्जीव पदार्थों में परमाणुओं का अस्तित्व । रज का अर्थ है- जड़ पदार्थों और ईश्वरीय दिव्य तत्त्व के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई आनन्ददायक चैतन्यता, ये तीन तत्त्व स्थूल सृष्टि के मूलकारण हैं। इनके उपरान्त स्थूल उपादान के रूप में मिट्टी, पानी, हवा, अग्नि, आकाश-ये पाँच स्थूल तत्त्व और उत्पन्न होते हैं। इन तत्त्वों के परमाणुओं तथा उनकी शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तन्मात्राओं द्वारा सृष्टि का सारा कार्य चलता है। प्रकृति के दो भाग हैं- सूक्ष्म प्रकृति जो शक्ति प्रवाह के रूप में, प्राण संचार के रूप में कार्य करती है, वह सत्, रज, तममयी है। स्थूल प्रकृति जिससे दृश्य पदार्थों का निर्माण एवं उपयोग होता है, परमाणुमयी है। यह मिट्टी, पानी, हवा आदि स्थूल पञ्चतत्त्वों के आधार पर अपनी गतिविधि जारी रखती है।

आप समझ गये होंगे कि पहले एक ब्रह्म था, उसकी स्फुरणा से आदिशक्ति का आविर्भाव हुआ। इस आदिशक्ति का नाम ही गायत्री है। जैसे ब्रह्म ने अपने तीन भाग कर लिये- (१) सत्- जिसे 'ह्रीं' या सरस्वती कहते हैं (२) रज- जिसे 'श्रीं' या लंक्ष्मी कहते हैं (३) तम- जिसे 'क्लीं' या काली कहते हैं। वस्तुतः सत् और तम दो ही विभाग हुए थे, इन दोनों के मिलने से जो धारा उत्पन्न हुई, वह रज कहलाती है। जैसे गंगा, यमुना जहाँ मिलती है, वहाँ उनकी मिश्रित धारा को सरस्वती कहते हैं। सरस्वती वैसे कोई पृथक् नदी नहीं है। जैसे इन दो नदियों के मिलने से सरस्वती हुई वैसे ही सत् और तम के योग से रज उत्पन्न हुआ और यह त्रिधा प्रकृति कहलाई ।

अद्वैतवाद, द्वैतवाद, त्रैतवाद का बहुत झगड़ा सुना जाता है, वस्तुतः यह समझने का अन्तर मात्र है। ब्रह्म, जीव, प्रकृति यह तीनों ही अस्तित्व में हैं। पहले एक ब्रह्म था यह ठीक है, इसलिये अद्वैतवाद भी ठीक है। पीछे ब्रह्म और शक्ति (प्रकृति) दो हो गये, इसलिए द्वैतवाद भी ठीक है। प्रकृति और परमेश्वर के संस्पर्श से जो रसानुभूति और चैतन्यता मिश्रित रज सत्ता उत्पन्न हुई, वह जीव कहलायी। इस प्रकार त्रैतवाद भी ठीक है। मुक्ति होने पर जीव सत्ता नष्ट हो जाती है। इससे भी स्पष्ट है कि जीवधारी की जो वर्तमान सत्ता मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के ऊपर आधारित है, वह एक मिश्रण मात्र है।

तत्त्व-दर्शन के गम्भीर विषय में प्रवेश करके आत्मा के सूक्ष्म विषयों पर प्रकाश डालने का यहाँ अवसर नहीं है। इन पंक्तियों में तो स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति का भेद बताया था, क्योंकि विज्ञान के दो भाग यहीं से होते हैं, मनुष्यों की द्विधा प्रकृति यहीं से बनती है। पञ्चतत्त्वों द्वारा काम करने वाली स्थूल प्रकृति का अन्वेषण करने वाले मनुष्य, भौतिक विज्ञानी कहलाते हैं। उन्होंने अपने बुद्धि बल से पञ्चतत्त्वों के भेद-उपभेदों को जानकर उनसे अनेक लाभदायक साधन प्राप्त किये। रसायन, कृषि, विद्युत्, वाष्प, शिल्प, संगीत, भाषा, साहित्य, वाहन, गृह-निर्माण, चिकित्सा, शासन, खगोल विद्या, अस्त्र-शस्त्र, दर्शन, भू- परिशोध आदि अनेक प्रकार के सुख-साधन खोज निकाले और रेल, मोटर, तार, डाक, रेडियो, टेलीविजन, फोटो आदि विविध वस्तुयें बनाने के बड़े-बड़े यंत्र निर्माण किये। धन, सुख, सुविधा और आराम के साधन सुलभ हुए। इस मार्ग से जो लाभ मिलता है, उसे शास्त्रीय भाषा में 'प्रेय' या 'भोग' कहते हैं। यह विज्ञान, भौतिक विज्ञान कहलाता है। यह स्थूल प्रकृति के उपयोग की विद्या है।

सूक्ष्म प्रकृति वह है, जो आद्यशक्ति गायत्री से उत्पन्न होकर सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा में बँटती है। यह सर्वव्यापिनी शक्ति-निर्झरिणी पंचतत्त्वों से कहीं अधिक सूक्ष्म है। जैसे नदियों के प्रवाह में, जल की लहरों पर वायु के आघात होने के कारण 'कल-कल' से मिलती-जुलती ध्वनियाँ उठा करती हैं, वैसे ही सूक्ष्म प्रकृति की शक्ति-धाराओं से तीन प्रकार की शब्द-ध्वनियाँ उठती हैं। सत् प्रवाह में 'ह्रीं', रज प्रवाह में 'श्रीं' और तम प्रवाह में 'क्ली' शब्द से मिलती-जुलती ध्वनि उत्पन्न होती है। उससे भी सूक्ष्म ब्रह्म का ॐकार ध्वनि प्रवाह है। नादयोग की साधना करने वाले ध्यान मग्न होकर इन ध्वनियों को पकड़ते हैं और उनका सहारा पकड़ते हुए सूक्ष्म प्रकृति को भी पार करते हुए ब्रह्म सायुज्य तक जा पहुँचते हैं। 

पंडित श्री राम शर्मा 

 ब्रह्म की स्फुरणा से गायत्री का प्रादुर्भाव

अनादि परमात्म तत्त्व ब्रह्म से यह सब कुछ उत्पन्न हुआ। सृष्टि उत्पन्न करने का विचार उठते ही ब्रह्म में एक स्फुरणा उत्पन्न हुई, जिसका नाम है-शक्ति। शक्ति के द्वारा दो प्रकार की सृष्टि उत्पन्न हुई- एक जड़, दूसरी चैतन्य । जड़ सृष्टि का संचालन करने वाली शक्ति 'प्रकृति' और चैतन्य सृष्टि का संचालन करने वाली शक्ति का नाम 'सावित्री' है।

पुराणों में वर्णन मिलता है कि सृष्टि के आदिकाल में भगवान् की नाभि में से कमल उत्पन्न हुआ। कमल के पुष्प में से ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा से सावित्री हुई, सावित्री और ब्रह्मा के संयोग से चारों वेद उत्पन्न हुए। वेद से समस्त प्रकार के ज्ञानों का उद्भव हुआ। तदनन्तर ब्रह्माजी ने पंचभौतिक सृष्टि की रचना की। इस आलंकारिक गाथा का रहस्य यह है-निर्लिप्त, निर्विकार, निर्विकल्प परमात्म तत्त्व की नाभि में से, केन्द्र भूमि में से-अन्तःकरण में से कमल उत्पन्न हुआ और वह पुष्प की तरह खिल गया। श्रुति ने कहा कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा की इच्छा हुई कि 'एकोऽहं बहुस्याम्' मैं एक से बहुत हो जाऊँ। यह उसकी इच्छा, स्फुरणा नाभि देश में से निकल कर स्फुटित हुई अर्थात् कमल की लतिका उत्पन्न हुई और उसकी कली खिल गयी।

इस कमल पुष्प पर ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। ये ब्रह्मा सृष्टि-निर्माण की त्रिदेव शक्ति का प्रथम अंश है। आगे चलकर यह त्रिदेवी शक्ति उत्पत्ति, स्थिति और नाश का कार्य करती हुई, ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में दृष्टिगोचर होती है। आरम्भ में कमल के पुष्प पर केवल ब्रह्माजी ही प्रकट होते हैं, क्योंकि सर्वप्रथम उत्पन्न करने वाली शक्ति की आवश्यकता हुई।

अब ब्रह्माजी का कार्य आरम्भ होता है। उन्होंने दो प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की-एक चैतन्य, दूसरी जड़। चैतन्य शक्ति के अन्तर्गत सभी जीव आ जाते हैं, जिनमें इच्छा, अनुभूति, अहंभावना पाई जाती है। चैतन्य की एक स्वतंत्र सृष्टि है, जिसे विश्व का 'प्राणमय कोश' कहते हैं। निखिल विश्व में एक चैतन्य तत्त्व भरा हुआ है, जिसे 'प्राण' नाम से पुकारा जाता है। विचार, संकल्प, भाव, इस प्राण तत्त्व के तीन वर्ग हैं और सत्, रज, तम यह तीन इसके वर्ण हैं। इन्हीं तत्त्वों को लेकर आत्माओं के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर बनते हैं। सभी प्रकार के प्राणी इसी प्राण तत्त्व से चैतन्यता एवं जीवन सत्ता प्राप्त करते हैं।

जड़ सृष्टि निर्माण के लिए ब्रह्माजी ने पंचभूतों का निर्माण किया। पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश के द्वारा विश्व के सभी परमाणु मय पदार्थ बने। ठोस, द्रव, गैस इन्हीं तीन रूपों में प्रकृति के परमाणु अपनी गतिविधि जारी रखते हैं। नदी, पर्वत, धरती आदि का सभी पसारा इन पंच-भौतिक परमाणुओं का खेल है, प्राणियों के स्थूल शरीर भी इन्हीं प्रकृति जन्य पंच-तत्त्वों के बने होते हैं।

क्रिया जड़-चेतन, दोनों सृष्टि में है। प्राणमय चैतन्य सृष्टि में अहंभाव, संकल्प और प्रेरणा की गतिविधियाँ विविध रूपों में दिखलाई पड़ती हैं। भूतमय जड़ सृष्टि में, शक्ति, हलचल और सत्ता इन आधारों के द्वारा विविध प्रकार के रंग-रूप, आकार-प्रकार बनते-बिगड़ते रहते हैं। जड़ सृष्टि का आधार परमाणु और चैतन्य सृष्टि का आधार संकल्प है। दोनों ही आधार अत्यन्त सूक्ष्म और अत्यन्त बलशाली हैं, इनका नाश नहीं होता केवल रूपान्तर होता रहता है।

जड़-चेतन सृष्टि के निर्माण में ब्रह्माजी की दो शक्तियाँ काम कर रही हैं- (१) संकल्प शक्ति (२) परमाणु शक्ति । इन दोनों में प्रथम संकल्प शक्ति की आवश्यकता हुई, क्योंकि बिना उसके चैतन्य का आविर्भात नहीं होता और बिना चैतन्य के परमाणु का उपयोग किस लिए होता। अचैतन्य सृष्टि तो अपने में अचैतन्य थी, क्योंकि न तो उसको किसी का ज्ञान होता और न उसका कोई उपयोग होता है। 'चैतन्य' के प्रकटीकरण की सुविधा के लिए उसकी साधन- सामग्री के रूप में 'जड़' का उपयोग होता है। अस्तु, आरम्भ में ब्रह्माजी ने चैतन्य बनाया, ज्ञान के संकल्प का आविष्कार किया, पौराणिक भाषा में यह कहिये कि सर्वप्रथम वेदों का प्राकट्य हुआ।

पुराणों में वर्णन मिलता है कि ब्रह्मा के शरीर से एक सर्वांग सुन्दरी तरुणी उत्पन्न हुई, यह उनके अंग से उत्पन्न होने के कारण उनकी पुत्री हुई। इसी तरुणी की सहायता से उन्होंने अपना सृष्टि निर्माण कार्य जारी रखा। इसके पश्चात् उस अकेली रूपवती युवती को देखकर उनका मन विचलित हो गया और उन्होंने उससे पत्नी के रूप में रमण किया। इस मैथुन से मैथुनी संयोजक परमाणुमय पंचभौतिक-सृष्टि उत्पन्न हुई। इस कथा के आलंकारिक रूप को-रहस्यमय पहेली को न समझकर कई व्यक्ति अपने मन में प्राचीन तत्त्वों को उथली और अश्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। वे भूल जाते हैं कि ब्रह्या कोई मनुष्य नहीं है और न ही उनसे उत्पन्न हुई शक्ति पुत्री या स्त्री है और न पुरुष-स्त्री की तरह उनके बीच में समागम होता है। इस सृष्टि निर्माण काल के एक तथ्य को गूढ़ पहेली के रूप में आलंकारिक ढंग से प्रस्तुत करके कवि ने अपनी कलाकारिता का परिचय दिया है।

ब्रह्मा, निर्विकार परमात्मा की शक्ति है, जो सृष्टि का निर्माण करती है। इस निर्माण कार्य को चालू करने के लिये उसकी दो भुजाएँ हैं, जिन्हें संकल्प और परमाणु शक्ति कहते हैं। संकल्प शक्ति चेतन सत्- सम्भव होने से ब्रह्मा की पुत्री है। परमाणु शक्ति स्थूल क्रियाशील एवं तम-सम्भव होने से ब्रह्मा की पत्नी है। इस प्रकार गायत्री और सावित्री ब्रह्मा की पुत्री तथा पत्नी नाम से प्रसिद्ध हुई।

पंडित श्री राम शर्मा 

शनिवार, 21 जून 2025

 "व्यक्ति रावण से अधिक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति रावण है।" ऋषि बोले, "विरोध उस दुष्ट प्रवृत्ति और भ्रष्ट व्यवस्था का है, जिसका अधिनायकत्व रावण कर रहा है। जनस्थान मे अगस्त्य और पुत्री लोपामुद्रा उससे जूझ रहे हैं, सशस्त्र जन-बल तैयार कर । किष्किंधा मे वाली का छोटा भाई सुग्रीव, उसके सहयोगी हनुमान और जामवंत; यहां तक कि वाली का तरुण पुत्र अंगद भी, रावण के निरंतर वर्धमान प्रभाव से प्रतिदिन उलझ रहे है। किंतु उनकी समस्या और भी विकट है। उनका अधिपति वाली स्वयं राक्षस नही है। वह एक प्रकार का पूजापाठी और कर्मकांडी व्यक्ति है, जो उसे धार्मिकता का आवरण प्रदान करता है; किंतु उसमे कुछ दुर्बलताएं हैं। वह स्त्री-लोलुप और कामी है। फिर रावण का मित्र होने के कारण ने केवल वह अधिकाधिक सुविधा जीवी होता जा रहा है तथा प्रजा की उपेक्षा कर रहा है; वरन् रावण के बढ़ते हुए प्रभाव का विरोध भी नही कर रहा । सुग्रीव और उसके साथी, विकासमान दुष्टता को देख रहे हैं, और भीतर-ही-भीतर ऐंठ रहे है। और अंत मे, स्वयं रावण के अपने घर मे विभीषण और उसके मुट्ठी भर साथी है। विभीषण रावण का भाई होते हुए भी, उसकी किसी नीति से सहमत नही है, किंतु रावण के सम्मुख वह पूर्णतः अशक्त है। राघव ! आज राक्षसी शक्तियां सगठित है, और मानवीय शक्तियां बिखरी हुई है। विजय संगठन की होती है। अतः राक्षसी तंत्र का ध्वंस करने का श्रेय भी उसी व्यक्ति को मिलेगा, जो राक्षस-विरोधी शक्तियों का सगठन करने में सफल होगा."

सहसा भरद्वाज अत्यन्त भावुक हो उठे, "और मेरी विडंबना यह है, राम ! कि मैं शरीर से यहां बैठा हू और आत्मा मेरी लोपामुद्रा और अगस्त्य मे बसती है। उन्होंने राक्षस-विरोधी इस संघर्ष को, चिंतन के धरातल से, कर्म के धरातल पर उतार दिया है। संघर्ष केवल सिद्धांत के धरातल पर होता है, तो प्रवृत्ति का विरोध कर हम व्यक्ति के साथ समझौता कर, जी लेते है; किंतु संघर्ष के कर्म  धरातल पर उतरने के पश्चात् कोई समझौता नही होता, समन्वय नही होता, सह-अस्तित्व नही होता।"

भरद्वाज मौन ही नही हुए, किसी और लोक में लीन हो गये। कोई और व्यक्ति भी नही बोला। चारों ओर निस्तब्धता छा गयी। सीता ने दृष्टि उठाकर राम को देखा - वे भरद्वाज से कम लीन नही थे। इतने लीन वे कभी-कभी ही होते थे, और तभी होते थे, जब उनके मन में कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण घटित हो रहा होता था, और उनका निश्चय करने का क्षण होता था, जब कोई विचार कर्म मे परिणत हो रहा होता था और लक्ष्मण ! लक्ष्मण के मन मे जो कुछ था, वह सब उनके मुख-मंडल पर प्रतिबिंबित था। वे उग्र से उग्रतर होते जा रहे थे..

"भैया ! हम यहां से कब चलेंगे ?" सहसा लक्ष्मण ने पूछा ।


अपनी अन्तर्मुखी दृष्टि से, क्षण भर राम ने प्रश्नवाचक मुद्रा में लक्ष्मण को देखा और दूसरे ही क्षण वे खिलखिलाकर हंस पड़े, "ऋषि-श्रेष्ठ ! आपकी बातों ने लक्ष्मण के उग्रदेव को जगा दिया है। उन्हें न्याय-अन्याय, मानवता और राक्षसत्व की संघर्ष-भूमि में पहुंचने की जल्दी मच गयी है। वे अब इस आश्रम में अधिक रुक नहीं पाएंगे।"

भरद्वाज मुसकराए, "मैं तो कब से कामना कर रहा हूं कि जन-जन में यह उग्रदेव जागे । यदि मेरी बातों ने लक्ष्मण के उग्रदेव को जगाया है, तो मैं धन्य हुआ, राम ! पर, पुत्र सौमित्र ! अब संध्या का समय है। इस समय यात्रा उचित नहीं। आज रात मेरे ही आश्रम में आतिथ्य ग्रहण करो। कल प्रातः प्रस्थान करना। मेरे शिष्य अगले पड़ाव तक तुम्हारे साथ जाएंगे और तुम्हारे शस्त्रास्त्रों के परिवहन में तुम्हारी सहायता करेंगे।"

"यही उचित होगा।" राम बोले, "क्यों वैदेही ?"

"देवर की क्या इच्छा है ?" सीता ने लक्ष्मण की ओर देखा ।

"जो ऋषि श्रेष्ठ का आदेश हो।" लक्ष्मण अपने आक्रोश को दबा रहे थे।

नरेंद्र कोहली अवसर 

 पहली बार राम की गंभीरता उदासी में परिवर्तित हुई। प्रातः पिता के सम्मुख जाने के समय से अब तक मे पहली बार उन्होंने स्वयं को ढीला छोड़ा। पिता की बात और थी- वे चिंतित थे, वृद्ध थे और कैकेयी के मोह में बंधे थे। माता कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी की बात भिन्न थी; उन सबके अपने मोह और अपनी सीमाएं थीं। पर सीता के सम्मुख वे अपनी चिताएं, द्वंद्व और आशंकाएं प्रकट कर सकते है। अपनी पत्नी के सम्मुख मन नही खोल सके, तो फिर कहीं भी नही खोल सकेंगे...

"अभिषेक नही होगा। चौदह वर्षों के दंडक-वास का आदेश हुआ है।" राम बोले, "नही जानता प्रसन्न होने की बात है अथवा उदास होने की। जाना तो था ही पर निर्वासन.."

सीता ने राम को निहारा। नही यह परिहाम नही है। उनकी मुद्रा, उनकी वाणी, उनके हाव-भाव बता रहे है, यह नाटक नही है- अभिनय नही है। यह यथार्थ है। तभी तो प्रातः सुमत्र इतने उदास थे...

सीता की मुद्रा के साथ-साथ उनको वाणी भी गंभीर हो गयी, "आप इस आदेश का पालन करेंगे ?"

"और कोई विकल्प नही।"

सीता ने अपना संपूर्ण अस्तित्व, अपनी आंखों में भरकर, राम को पूरी तन्मयता के साथ देखा। एक गहन चिंतन, उस चिंतन से उबरकर, निर्णय तक पहुंचने की स्थितियां उन्होंने चामत्कारिक शीघ्रता से पार कीं; और बोलीं, "विकल्प नहीं है तो आदेश को हंसकर सिर-माथे पर लेना होगा। क्या-क्या तैयारी कर लूं ?"

राम मुग्ध हो उठे। मुग्धा वस्था में परेशानी खो गयी। सीता वास्तविक संगिनी थीं- शब्द के सही अर्थों में। उन्होंने यह नहीं पूछा कि वनवास का आदेश किसने दिया, क्यों दिया, उस आज्ञा को स्वीकार करने की बाध्यता क्या है सीता ने इस निर्णय से उन्हें टालना नहीं चाहा, समझानें का प्रयत्न नहीं, हठ नहीं। एक क्षण के लिए भी शंका नहीं, द्वंद्व नही, संकोच नही जिसकी संगिनी ऐसी हो, उसे किसी और का सहारा क्या करना है ?...

"तुम तैयारी क्यों करोगी, सीते? मैं वन जा रहा हूं, तुम्हें किसी ने राजप्रासाद छोड़ने को नहीं कहा।"

सीता मुसकराई, "मुझे अलग से कहने की आवश्यकता नही है। आदेशों से पति-पत्नी के संबंध बदल नहीं जाते।" सहसा उनका स्वर विस्मय से भर उठा, "कहीं आप अकेले जाने की बात तो नहीं सोच रहे ?"

राम का विषाद घुल गया। सीता के निष्कपट व्यवहार ने उनका आत्मविश्वास पूरी तरह लौटा दिया था। मां के रोने ने उन्हें विह्वल कर दिया था, सीता के व्यवहार से वे फिर स्थिर हो गये थे। लीला पूर्वक हंसकर बोले, "नही। सारा कुटुंब साथ चलेगा । आदेश मुझे मिला है तो मैं ही जाऊंगा।"

राम ने प्रातः से अब तक की घटनाएं विस्तार से सीता को सुनाई।

सीता ध्यान से सुनती रही; किंतु सुन लेने के पश्चात् भी उनका निर्णय नही बदला, "मैं कैसे मान लूं कि पति-पत्नी मे भी आदेश केवल एक व्यक्ति को दिया जा सकता है। किसी कारण से कभी मुझे भी ऐसा ही कोई आदेश मिले, तो क्या आप मुझे अकेली को वन भेजकर स्वयं राजप्रासाद में रह जाएंगे ?"

"तुम्हारी बात भिन्न है। तुम स्त्री हो।..."

सीता ने राम की बात बीच में काट दी, "हमारा समाज यह भेद करता है, पर आप स्त्री-पुरुष के अधिकारों की समानता के समर्थक हैं, राम! आप कैसे कह सकते हैं कि आपका मेरे प्रति जो कर्तव्य है, वही मेरा आपके प्रति नही है ?"

"ठीक है। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध तुम्हें अयोध्या में छोड़कर नही जाऊंगा; पर कुछ बाते विचारणीय है। मां को बड़ी दुखी मनःस्थिति में छोड़कर जा रहा हू। पति-पत्नी एकरूप हैं। इसीलिए एक ही समय में दो कार्य करने के लिए विभक्त हो जाते हैं। मेरी अनुपस्थिति मे, मेरे स्थान पर, मेरी मां की देख-भाल करो।" 

"बहुत बढ़िया ।"

 सीता के अधरों पर एक तीखी मुसकान थी, "विवाह के पश्चात् के इन चार वर्षों मे, कुल-वृद्धाओं और सारी प्रजा द्वारा लगाए गये बंध्या होने के आरोप को इसलिए झेलती रही हूं कि आप कर्तव्य की पुकार पर वन जाएं तो मैं सोलहों श्रृंगार किए, मणि-माणिक्य के आभूषण पहने, सेवक-सेविकाओं तथा परिजनो से घिरी, माता कौसल्या की सेवा का नाटक करने के लिए, पीछे रह जाऊं। आप दिन-दिनभर बाहर जनता के कार्यों में व्यस्त रहे और पीछे मैं अकेली यह सोच-सोचकर तृप्त होती रही कि मेरे पति आत्मकेंद्रित, स्वार्थी मनुष्य नही हैं। उनमें पर-दुःख-कातरता है। मैं अपने भीतर दमित ऊर्जा को सड़ते देखती रही और आपसे कहती रही कि मुझे अधिक कार्य मिले, जिससे मेरा अस्तित्व भी सार्थक हो सके । आपने सदा यही कहा कि अभी अवसर नही आया। और आज, जब अवसर आया है कि मैं आपके साथ दंडक वन जाऊं; पीड़ित तथा त्रस्त जन-सामान्य के सीधे संपर्क में आऊं; उनके लिए कुछ कर अपने अस्तित्व को उपयोगी बनाऊं, तो आपकी मातृ-भक्ति, सास की सेवा के झूठे बहाने की आड़ में मुझे सड़ने-गलने के लिए यहां छोड़ जाना चाहती है। इससे तो कही अच्छा होता, मैं माता कौसल्या की बात मान, उनकी गोद मे पौत्र डाल, उनके मन को संतोष देती।"

"सीते !" राम ने अनुराग भरी दृष्टि से सीता को निहारा, "मुझे गलत मत समझो । अयोध्या मे नागरिक सुविधाओ और सुरक्षा के वातावरण के मध्य रहकर जन-कल्याण का कार्य करना और बात है; राक्षसों, दस्युओं, हिंस्र पशुओं से भरे उस बीहड़ वन मे समय बिताना और बात । क्या तुम्हारे लिए वनवास सुविधा-जनक होगा ?"

सीता के चेहरे का तेज उभरा। सुहाग भरी वाणी मे तमककर बोली, "सुविधाओं और सुरक्षाओं की बात मुझसे मत कीजिए। सुविधा की बात सोचने-वाला व्यक्ति कभी स्वार्थ से उबर सका है? आज तक यही समझा है आपने मुझे । राजप्रासाद का लालच मुझे न दे। जहां आप जाएंगे, मैं भी जाऊंगी।"

"मेरी बात नही मनोगी ?"

"यह बात नही मानूंगी ।"

"लोग क्या कहेगे ।"

"उन्हें बुद्धि होगी, तो कहेंगे कि सीता पति से प्रेम करती है।"

"नही, प्रिये !" राम फिर गंभीर हो गये, "मैं तुम्हारी क्षमताओं को जानता हूं, इसीलिए चाहता हूं कि तुम यही रहो। तुम यहां रहोगी, तो मुझे वन में मां की चिन्ता नही सताएगी। और" राम ने रुककर मीता को देखा, "प्रेम अथवा आदर्श की भावुकता मे यथार्थ को अनदेखा मत करो। वन में राजप्रासाद नही होते, सेना नही होती, प्रहरी नहीं होते। पेट की अंतड़ियां भूख से बिलबिलाकर टूट रही हों, तो खाने को अन्न नही मिलता; सर्दी-गर्मी में उपयुक्त कपड़े नहीं मिलते ।"

सीता का स्वर अत्यन्त विक्षोभ पूर्ण हो उठा, "तो आप यही समझते हैं कि सुख-सुविधापूर्ण जीवन के लिए मैं आपके साथ हूं! 

शुक्रवार, 20 जून 2025

 "मैं वह धरती हूं, राम ! जिसकी छाती करुणा से फटती है तो शीतल जल उमड़ता है; घृणा से फटती है तो लावा उगलती है। दोनों मिल जाते हैं तो भूचाल आ जाता है ! आज मेरी स्थिति भूडोल की है, राम !" आवेश से कैकेयी का चेहरा लाल हो गया, "मैं इस घर में अपने अनुराग का अनुसरण करती हुई नही आयी थी। मैं पराजित राजा की ओर से विजयी सम्राट् को संधि के लिए दी गयी एक भेंट थी। सम्राट् और मेरे वय का भेद आज भी स्पष्ट है। मैं इस पुरुष को पति मान पत्नी की मर्यादा निभाती आयी हूं, पर मेरे हृदय से इनके लिए स्नेह का उत्स कभी नही फूटा। ये मेरी मांग का सिंदूर तो हुए, अनुराग का सिदूर कभी नहीं हो पाए। मै इस घर में प्रतिहिंसा की आग में जलती, सम्राट् से संबंधित प्रत्येक वस्तु से घृणा करती हुई आयी थी। तुम जैसे निर्दोष, निष्कलुष और प्यारे बच्चे को अपने महल में घुस आने के अपराध में मैंने अपनी दासी से पिटवाया था..."

"मुझे याद है, मां !"

"वह मैंने तुम्हें नही पिटवाया था, मेरी प्रतिहिंसा ने सम्राट् के पुत्र को पिटवा-कर, सम्राट् को पीड़ित कर, प्रतिशोध लेना चाहा था। तब मैं तुमसे घृणा करती थी, तुम्हारी मां से घृणा करती थी, बहन सुमित्रा से घृणा करती थी। मैं रघुवंशियों से, मानव-वंश की परंपराओं से प्रत्येक वस्तु से घृणा करती थी। जहां तक संभव हुआ, मैंने बड़ा उद्दंड, उच्छृंखल और अमर्यादित व्यवहार किया केवल इसलिए कि इन सब के माध्यम से मैं सम्राट् को पीड़ा पहुंचा सकूं। पर क्रमशः मैंने पहचाना कि मैं तुम्हें या बहन कौसल्या को पीड़ा पहुंचाकर, सम्राट् को पीड़ा नहीं पहुंचा रही हूं- उससे तो मैं सम्राट् को सुख दे रही हूं। तुम लोगों से उनका संबंध भावात्मक नहीं, अभावात्मक था। तुम लोग तो स्वयं मेरे समान पीड़ित थे, अपमानित थे। और फिर तुम्हारे और बहन कौसल्या के गुण मेरे सामने प्रकट हुए । मुझे तुम लोगों से सहानुभूति हुई, जो क्रमशः प्रेम में बदल गयी। क्या मैं झूठ कह रही हूं, राम ?"

"नही, मां !" राम ने स्वीकार किया, "तुमने मुझे भरत का-सा प्यार दिया है।"

"मैंने क्रमशः मानव-बंशी परंपराओं का विरोध भी छोड़ दिया। मैने पहचाना कि अपनी प्रतिहिंसा में मैंने न्याय-अन्याय का विचार छोड़ दिया है। मैं स्वयं राक्षसी बन रही हूं। मैं किसी अन्य को नही, स्वयं अपनी आत्मा को पीड़ा दे रही हूं। शनैः शनैः मैने स्वयं को सहज किया। अपना विरोध छोड़ने के प्रयत्न में, पिता द्वारा लिया गया वचन भुला दिया, शंबर-युद्ध के पश्चात् मिले अपने वरदानों का उपयोग नही किया; और अयोध्या की प्रजा के समान चाहा कि राम ही युवराज हों। तुम ही इस योग्य थे, पुत्र ! तुम ही इस योग्य हो। किंतु मुझे अपनी सद्भावन का पुरस्कार क्या मिला ?"

राम मौन रहे। वे भरी आखों से कैकेयी को देखते रहे ।

"इस राज-प्रासाद मे मुझ पर कभी विश्वास नही किया गया। मुझे सदा चुडैल समझा गया। मेरे भाई को आतंकी माना गया। मेरे मायके की परपराओ को हीन और घृणित कहा गया। मैं सदा यहा अपरिचित होकर रही एक बाह्य वस्तु जिसका यहा के हवा-पानी से कोई मेल नही था। मै बहन कौसल्या या सुमित्रा या अन्य किसी को उसके लिए दोष नही देती। उनसे मेरा सबंध ही ऐसा था. वे मुझ पर विश्वास नही कर सकती थी। मुझे और किसी से शिकायत नही। शिकायत है अपने इस पति से, जो बलपूर्वक मुझसे विवाह कर मुझे यहा लाया। जिसने अयोग्य होते हुए भी मुझसे सद्भावना चाही और प्राप्त की; कितु स्वय मेरे प्रति घोर दुर्बलता का अनुभव करते हुए भी मुझ पर कभी विश्वास नही किया।

 मैं उसके लिए आकर्षण किंतु भय की वस्तु रही। उसने मुझे अपने सिंहासन पर तो स्थान दिया, किंतु हृदय मे नही। मैं उस सारे समय के लिए क्या कहू, राम ! जब-जब सुना कि मेरे पति ने कोई कर्म किया है, कोई निर्णय किया है, किंतु भयभीत होकर मुझसे छिपाया है। झूठ बोला है। उस झूठ को छिपाने के लिए फिर-फिर झूठ बोला है। अपने ऐसे व्यवहार से उसने अपना आत्म-विश्वास खोया हे. स्वयं अपने-आपको और मुझे बार-बार अपमानित किया है। राम ! तुम पुत्र हो मेरे। तुम्हे कैसे बताऊं कि हमारी राते प्यार-मनुहार में कटने के स्थान पर झगड़ों और लानत-मलामत मे बीत जाती थी । बार-बार संकल्प करने के बाद भी झगड़े होते रहे। कलह-क्लेश शांत ही नही हुए। पति पत्नी के इन झगड़ो के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए, उसे एक शांत और स्नेहिल वातावरण देने के लिए, मै भरत को बार-बार उसके ननिहाल भेजती रही..."

कैकेयी का स्वर रुंध गया। उसकी आंखों मे जल और अग्नि एक साथ प्रकट हुई, "और अंत में मैने क्या पाया, राम ! कल रात ढले कुन्जा तुम्हारे युवराजाभिषेक का समाचार लायी। मैने बहुमूल्य मोतियो की माला कुन्जा को पुरस्कार मे दे डाली। किंतु उस मूर्खा, कुटिला दासी ने वह मेरे मुह पर दे मारी। किस आधार पर किया उसने यह दुस्साहस ?'

कैकेयी क्षण-भर रुकी; और पुनः बह निकली, "तुम्हारे पिता के मेरे प्रति अविश्वास के आधार पर। उसने मुझे बताया कि यह गोपनीय निर्णय था। सम्राट् को आशंका थी कि कुछ लोग अभिषेक मे विघ्न डालेंगे, राम को नष्ट करने के लिए रातों-रात उस पर आक्रमण करेगे। किससे था भय? मुझसे मेरे पुत्र से ! मेरे भाई से ! इसीलिए मुझे बताया नही। भरत को ननिहाल भेज दिया।

शनिवार, 22 मार्च 2025

 लड़की पन्द्रह-सोलह साल की थी।

खूबसूरत बेहिसाब खूबसूरत। गोरी ऐसी कि लगे हाथ लगते ही कहीं रंग ना मैला हो जाये। नैन नक्श ऐसे तीखे कि देखने वाले की नजर अटकी रह जाये। बदन भी उसका बड़ा ही आकर्षक था। भरे-भरे जिस्म पर, सुडौल उभार- पतली कमर हिरनी सी बलखाती चाल। नागिन-सी लहराती जुल्फें।

कुल मिलाकर उस लड़की में वह सब कुछ था जो किसी भी मर्द को दीवाना बना दे- पागल कर दे।

उस लड़की को देख कर आहें भरने वाले आशिक तो हजारों होंगे पर वो फिदा थी अपने ही किरायेदार के लड़के सतीश पर।

सतीश कोई खूबसूरत युवक ना था। फिर भी जवानी की तमाम शाखियां उसमें थीं। लड़कियों को आकर्षित करने वाले सारे लटके झटके जानता था वह। अतः अपने मकान मालिक की कमसिन भोली भाली लड़की अलका को प्रभावित करने में वह अपनी निरन्तर कोशिशों के बाद कामयाब हो ही गया।

अलका के घर में किसी चीज की कमी ना थी- खाते-पीते घर की लड़की थी। बदन जवानी से पहले ही जवान हो चला था। और आज के फिल्मी माहौल असर - ख्वाहिशें भी, वक्त से पहले ही धड़कनें तेज करने लगी थीं।

सतोश पच्चीस वर्षीय देवारा था जब अलका दस साल की थी तभी से सहलाता पुचकारता वह उसे प्यार करता चला आ रहा था। अतः जवानी की डगर पर कदम रखती अलका को बहलाने-फुसलाने व मर्दानगी की आंच के जादुई असर से उसे पिघलाने में सतीश को कोई बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं हुई।

लड़की एक बार उसकी बांहों में पहुँच समर्पित हुई तो शारीरिक सुख की जो लज्जत उसे महसूस हुई- उसकी ख्वाहिशों ने युवा जिस्म में जैसे उबाल-सा पैदा कर दिया।

वह सतीश के साथ ही जिन्दगी के सुनहरे ख्वाब संजोने लगी। उसके साथ जीने-मरने की कसमें खाने लगी।

मगर सतीश ने बेबसी के झूठे आंसू बहाये। आत्महत्या कर लेने की धमकी दी यह बता कर कि ये दुनिया वाले उन्हें एक नहीं होने देंगे और बिना अलका के वह जीवित नहीं रह सकेगा इसलिए आत्महत्या कर लेगा तो अलका जैसी मासूम भोली-भाली लड़की को भला यह कैसे अच्छा लगता कि उसका मजनूं अपनी लैला के लिए जान दे दे।

दुनिया वालों से सतीश का मतलब'अलका के माता-पिता के लिए' भी था। और उसकी सोच सही थी- भला अलका के माता-पिता अपनी फूल-सी, नाजों से पली बच्ची को उस जैसे आवारा के साथ बांधना कैसे स्वीकार कर लेते। उन्होंने तो इस बेमेल बन्धन के लिए किसी भी दशा में रजामन्द नहीं होना था और यह बात अलका भी अच्छी तरह जानती थी।

यह और बात थी कि सतीश के आसुंओं- उसके डॉयलाग्स ने मासूम दिल अलका का दिल जीत लिया और वह भला-बुरा सोचे समझे बगैर ही सतीश के साथ भाग निकलने के लिए तैयार हो गई।

समझा दिया था कि वे इस जालिम जमाने से दूर- कहीं दूर चले जायेंगे वहीं अपनी मोहब्बत की रोटी और इश्क की दाल पकायेंगे और जिन्दगी के सभी गमों से मुंह मोड़ खुशियों के ख्वाबों में खो जायेंगे।

और अलका को साथ ले सतीश हिमाचल के एक छोटे शहर में अपने एक दोस्त जीवन के यहां पहुंच गया।

और फिर... सतीश के बहकावे में आकर, घर से माल-मत्ता, जेवर लेकर एक रात वह घर से भाग निकली।

इधर अलका के गायब होने पर उसके मां-बाप ने भाग-दौड़ की तो पता चला उनके किरायेदार का लड़का सतीश भी गायब है। किरायेदार से पूछताछ की। वे अपने लाड़ले के बारे में कुछ ना बता सके। खूब झै-झै हुई। आखिरकार पुलिस में रिपोर्ट की गई। पुलिस ने लड़के का पता जानने के लिए किरायेदार और उसकी पत्नी व दूसरे लड़के को हिरासत में ले लिया।

अगले रोज अखबारों में खबर छपी- मकान मालिक की नाबालिग लड़की किरायेदार के लड़के साथ भागी।

पुलिस ने किरायेदार के रिश्तेदारों के यहां भी दबिश डाली। मगर कहीं पर भी सतीश व अलका बरामद नहीं हो सके।

इधर अपने गायब होने पर अपने-अपने परिवारों के हाल से बेखबर लैला मजनूं अपनी रातें रंगीन करने लगे।

सतीश के दोस्त जीवन को भी अलका की खूबसूरती भा गई। उसने सतीश से कहा "यार! तेरी हूर तो गजब की है- तूने तो बहुत मौज मस्ती कर ली। कुछ मौज मुझे भी मारने दे।".

"नहीं यार! मैं इससे शादी करने की सोच रहा हूं।" सतीश का स्वर मानों नशे में डूबा हुआ था।

"शादी करने की।" जीवन हंसा।

"हां। बड़ी मोटी आसामी है। मेरे मकानमालिक की लड़की है।" सतीश जीवन को बताने लगा- "इसके बाप ने मुझे स्वीकार कर लिया तो समझ लो जिन्दगी भर के दलिद्दर मिट गये सारी गरीबी दूर हो जायेगी।"

"मगर इसका बाप तुझे क्यों अपनाने लगा भई? वो तो तेरे हाथ-पैर तुड़वा देगा।" जीवन ने कहा।

सतीश हंसा- "यही सोचकर तो इसे यहां तेरे पास लेकर आया हूं यार! वरना किसी रिश्तेदार के यहां भी जा सकता था। मालूम था तू अकेला रहता है। तेरे साथ कुछ ना कुछ जुगाड़ बैठा लूंगा यह भरोसा था। और अब तूने मुझे व अलका को अपना दोस्त व उसकी घरवाली कहकर इन्ट्रोड्यूस कर ही दिया है। इसलिए किसी काम में कोई दिक्कत नहीं आनी है।"

"मैं तेरा मतलब नहीं समझा।" जीवन कुछ उलझी हुई नजरों से सतीश की ओर देखने लगा।

"बात यह है यार! मैं चाहता हूं यह खूबसूरत छोकरी जल्द से जल्द प्रेगनेन्ट हो जाये गर्भवती हो जाये।"

"पर वो नाबालिग है- अभी बहुत छोटी है- पन्द्रह साल की है- यह तूने ही कहा था सतीश।"

"हां कहा था- पर प्यारे जो लड़की मर्द के साथ हम बिस्तर होने के लिए छोटी नहीं है। वह भला बच्चा जनने के लिए क्यों छोटी होने लगी।"

"कानून ने तेरी यह दलील नहीं सुननी है बेटा! धर लिया गया तो नप जायेगा।" जीवन ने सतीश को चेताया।

"कुछ नहीं होगा- मैं तब तक किसी के सामने नहीं पहुंचूंगा जब तक मेरा मकसद पूरा नहीं होता।"

"और मकसद क्या है तेरा इस लड़की को प्रेगनेन्ट करना- ताकि इसका बाप इसकी शादी तेरे साथ करने को तैयार हो जाये।" जीवन ने कहा। फिर सतोश कुछ भी जवाब देता, उससे पहले ही वह बोला, "नहीं पार्टनर नहीं! तेरी यह स्कीम कामयाब नहीं होने की इसका बाप इसका एबार्शन करवा कर बच्चा गिरवा भी तो सकता है।"

"ऐसा कुछ नहीं होगा- मैंने इतनी कच्ची स्कीम नहीं बनाई है।" सतीश आत्मविश्वास भरे स्वर में बोला, "मैं तब तक पुलिस के हाथ लगूंगा ही नहीं जब तक कि अलका एक बच्चे की मां ना बन जाये। इसके लिये चाहे मुझे साल भर तक यहीं तेरे पास हो छुपा क्यों ना रहना पड़।"

"पर साल भर तक मैं तुझे कहां से खिलाऊंगा यार?" जीवन ने कहा तो सतीश तुरन्त ही बोल उठा, "हमारे खाने-पीने, खर्चे की तू जरा भी चिन्ता ना कर अव्वल तो जल्दी ही मैं कोई नौकरी कर लूंगा और अगर नौकरी ना भी मिली तो माल बहुत है मेरे पास।"

"अबे फक्कड़ ! क्यों झूठ बोलता है- तेरे पास भला माल कहां से आया?" जीवन ने मजाक उड़ाया।

"इसी लड़की के साथ आया प्यारे! अपने घर से पचास-साठ हजार के जेवर, छः-सात हजार कैश लेकर आई है मेरे साथ।"

"सच।"

"बिल्कुल सच! अबे यार! हमने इसे पट्टी ही ऐसी पढ़ाई थी पुड़िया ही ऐसी दिलाई थी कि थोड़ा-सा समझाने पर, बाप के माल पर भी तबियत से हाथ साफ करके आई है पट्टी।" सतीश ने कहा।

सतीश व जीवन ये बातें टैरेस में खड़े बहुत धीमे-धीमे कर रहे थे। उन्हें स्वप्न् में भी गुमान ना था कि जिस अलका को वे बड़ी गहरी नींद में सोता कमरे में छोड़ आये थे। अचानक लाईट चली जाने से गर्मी के कारण, वह जागकर, टैरेस में प्राकृतिक हवा खाने आ रही थी। किन्तु उन दोनों की बातें सुन ठिठक गई। उसने सारी बातें सुन लीं। सतीश की सोचों ने उसके विचारों ने भोली-भाली अलका को बुरी तरह झिंझोड़ दिया। उसे सतीश की मीठी-मीठी बातें याद आने लगीं। वे बातें जिनकी वजह से वह सतीश की दीवानी हो, उसके साथ भागने की मूर्खता कर बैठी थी। एक बार ऐसी ही डॉयलागबाजी के दौरान कहा था सतीश 

सतीश ने उसे बहला-फुसला कर, ने- यदि कुछ भी ना हुआ तो डार्लिंग हम मोहब्बत की रोटी खायेंगे- इश्क की दाल पकायेंगे अगर हवा भी हमारे खिलाफ हो गई तो भी कोई गम नहीं- हम सांस लेना ही छोड़ देंगे- मगर एक-दूसरे से जुदा नहीं होंगे।

मोहब्बत की रोटी...।

इश्क की दाल...।

बातें याद आते ही अलका की आंखों में आंसू आते चले गये वह दबे पांव पीछे हटी। और...

थोड़ी ही देर बाद वह अपने सारे सामान सहित निकट के पुलिस स्टेशन में थी। लड़की कम उम्र व भोली-भाली अवश्य थी, किन्तु बिल्कुल ही बेवकूफ तो नहीं थी।

उधर अलका को फ्लैट में ना पाकर सतीश व जीवन दोनों ही चकराये, मगर वह कहां चली गई। यह तुरन्त ही अनुमान नहीं लगा सके वह। अलका का सारा सामान भी गायब था। इसलिये उनका माथा तो ठनक गया था कि जरूर कुछ गड़बड़ हो गई है। शायद अलका ने उन दोनों की बातें सुन ली है- यह वह भी समझ गये थे। पर वह गई कहां होगी ये सोचने पर उनके दिमाग में यही आया कि या तो वह रेलवे स्टेशन की तरफ भागी होगी- अथवा रोडवेज की तरफ।

सतीश स्टेशन की तरफ भागा- जीवन रोडवेज की तरफ

मगर दोनों ही निराश होकर जब थोड़ी देर बाद लौटे, तो पुलिस मानों उनके स्वागत को तैयार ही बैठी थी। उन्हें आनन-फानन में ही गिरफ्तार कर लिया गया।

अलका को उसके सामान के साथ उसके पिता के पास पहुंचा दिया गया। माता-पिता से अलका ने कुछ भी नहीं छिपाया। सच-सच बता दिया कि वह बहक गई थी- सतीश के बहकावे में आ गई थी। उसे माफ कर दें। अब वह कभी नहीं बहकेगी। और मां-बाप ने अपनी लाड़ली को दिल

से माफ कर दिया था। जैसे कुछ हुआ ही ना हो।

सतीश आजकल जेल में मोहब्बत की रोटियां पका रहा है।



शनिवार, 15 मार्च 2025

 मंत्रों की सूची/Mantraas Mentioned in Podcast:-


ॐ क्लीं ह्रीं महालक्ष्म्यै नमः। ॐ वसुधरे स्वाहा


ॐ श्रीं ॐ।

शनिवार, 11 जनवरी 2025

एक आदमी ने नारदमुनि से पूछा मेरे भाग्य में कितना धन है? नारदमुनि ने कहा- भगवान विष्णु से पूछकर कल बताऊंगा। नारदमुनि ने कहा- 1 रुपया रोज तुम्हारे भाग्य में है। आदमी बहुत खुश रहने लगा, उसकी जरूरते 1 रूपये में पूरी हो जाती थी।

एक दिन उसके मित्र ने कहा मैं तुम्हारा सादगीपूर्ण जीवन और खुश देखकर बहुत प्रभावित हुआ हूं और अपनी बहन की शादी तुमसे करना चाहता हूँ

आदमी ने कहा मेरी कमाई 1 रुपया रोज की है इसको ध्यान में रखना। इसी में से ही गुजर बसर करना पड़ेगा तुम्हारी बहन को। मित्र ने कहा कोई बात नहीं मुझे रिश्ता मंजूर है।

अगले दिन से उस आदमी की कमाई 11 रुपया हो गई। उसने नारदमुनि से पूछा की हे मुनिवर मेरे भाग्य में 1 रूपया लिखा है फिर 11 रुपये क्यो मिल रहे है? नारदमुनि ने कहा- तुम्हारा किसी से रिश्ता या सगाई हुई है क्या? हाँ हुई है, उसने जवाब दिया । तो यह तुमको 10 रुपये उसके भाग्य के मिल रहे है, इसको जोड़ना शुरू करो तुम्हारे विवाह में काम आएँगे नारद जी ने जवाब दिया ।

एक दिन उसकी पत्नी गर्भवती हुई और उसकी कमाई 31 रूपये होने लगी। फिर उसने नारदमुनि से पूछा है मुनिवर मेरी और मेरी पत्नी के भाग्य के 11 रूपये मिल रहे थे लेकिन अभी 31 रूपये क्यों मिल रहे है। क्या मै कोई अपराध कर रहा हूँ या किसी त्रुटिवश ये हो रहा है? मुनिवर ने कहा- यह तेरे बच्चे के भाग्य के 20 रुपये मिल रहे है।

हर मनुष्य को उसका प्रारब्ध (भाग्य) मिलता है। किसके भाग्य से घर में धन दौलत आती है हमको नहीं पता। लेकिन मनुष्य अहंकार करता है कि मैने बनाया, मैंने कमाया, मेरा है, मेरी मेहनत है, मै कमा रहा हूँ। मगर हमें पता नहीं कि हम किसके भाग्य का खा रहे हैं, इसलिए अपनी उपलब्धियों पर अहंकार कभी नहीं करना।  

रविवार, 5 जनवरी 2025

 मैं वही करता हूँ जिससे मुझे आनंद आता है। लोग क्या सोचेंगे या कहेंगे, इसकी चिंता छोड़ दी है। चार लोगों को खुश रखने के लिए अपना मन मारना छोड़ दिया है।

 पहले तो रावण ने रक्षिकाओं को ही आदेश दिया कि सीता को अशोक-वाटिका तक पहुंचा आएं; किंतु बाद में जाने क्या सोचकर उसने अपना विचार बदल दिया था। ...