सोमवार, 29 सितंबर 2025

यदि किसी को कोई जहरीली चीज काट लेती है, तो प्रभावित क्षेत्र पर घाव बनने लगता है। बवासीर का घाव  इतना दर्दनाक होता है कि इसे ठीक करना मुश्किल हो जाता है।और व्यक्ति के लिए शौचालय जाने का दर्द सहन करना मुश्किल हो जाता है।
इन सब समस्याओं का इलाज या तो लाखों रुपए के ऑपरेशन से हो सकता है या निःशुल्क। यह काम निःशुल्क किया जाना चाहिए।
एक पेड़ होता है जिसे आक कहते हैं। पंजाबी में इसे अक कहते हैं।
यदि आप आक का एक पत्ता तोड़ेंगे तो उसमें से दूध निकलेगा । यह एक हरा पौधा है। यह एक पेड़ है। इसकी अधिकतम ऊँचाई 6 फीट होती है। या उस से भी अधिक।
इसका फूल इंडिगो है, बैंगनी रंग का होता है।
इसके पत्ते भी बहुत उपयोगी हैं। इसका फूल भी बहुत उपयोगी है।
और जो पत्ते पीले पड़कर नीचे गिर जाते हैं वे अत्यंत उपयोगी होते हैं। तो, यह एक बहुत ही मूल्यवान चीज़ है.
मूल्यवान वस्तुएँ वे हैं जिन्हें परमेश्वर ने पृथ्वी पर खुलेआम रखा है
ताकि हर कोई इसका लाभ उठा सके और कोई व्यक्ति प्रश्नकर्ता न बने।
तो, भगवान ने जो लाखों रुपए की चीजें खुलेआम रखी हैं
बिना पंजीकरण या किसी फॉर्म पर हस्ताक्षर किए, भगवान ने उन्हें पृथ्वी पर डाल दिया है।
मैं इसके कैरी के बारे में बात कर रहा हूं।
कैरी (छोटी बीज फली)।
इसमें इतनी बड़ी फली होती है कि इसे आक की कैरी कहते हैं।

 वे लोग जिन्हें बवासीर के घाव हैं।
तो, ऐसे मामले में, क्या होगा कि कैरी, सबसे पहले सुरक्षा चश्मा लगाएगा
अपनी आंखों पर रखें ताकि पानी आपकी आंखों में न जाए।
तो, पहले इस कैरी के छोटे-छोटे टुकड़े तेज कटर से काट लें, फिर इसे एक छोटे से बर्तन में डाल दें।
ग्राइंडर, मसाला ग्राइंडर, और इसे ठीक से बंद करें ताकि पानी अंदर न उड़े
जब इसे पीस लिया जाता है तो यह आंखों में जलन पैदा कर सकता है।
फिर इसे पीस लें.
यह क्या बन गया है? चटनी।
अब, यह चटनी बहुत उपयोगी है।
किसी को देना हो तो तीन कैरी की चटनी बना कर तैयार कर लें
कुल मिलाकर, इसे एक जार में डालें और बेच दें।
बेचो, उपहार दो, इनाम दो, पैसा कमाओ और दे दो,
कुछ भी करो, बस दे दो।
Tell him to keep it in the fridge, it will go bad.
Now tell him that wherever there is a child who memorizes, give it to
him for free.
A child who memorizes is a great asset of the hereafter.
The one who reads the Qur'an, the one who helped you, is an asset of the hereafter.
I don't know how many more children will memorize in his progeny, I don't know how
much Qur'an he will read, God will also enter that to your account.
So give it to him for free.
The rest you have to do is to give it to whomever you want, tell them to take a
teaspoon of this chutney and apply it,
put some cotton and tie a bandage, in the morning for four hours.
There is no use of a bandage at night, except for cleaning with povidone, you will
not be able to sleep at night otherwise.
In the morning, apply a little chutney, half a teaspoon of this chutney,
on that wound, and put some cotton and tie a bandage, for
four hours.
Daily, three days, four days, and that's it, nothing else.
What will you do to the one with Bawaseer? You will tell him to buy a packet of
cotton,
a clean cotton, the one that is available in the medical store.
Don't tear it from the mattress that your wife has brought in her dowry, it is
infected.
So buy a clean cotton from the market, from a medical store,
and apply a little chutney on the cotton and keep it in the bathroom.
After keeping it, after three days, your wound, your piles wound,
hemorrhoid wound, bawasiri problem, brother, it will all disappear.
On the first day, it will be a little itchy, and on the first day it will be a
little itchy in the rectum area.
so don't curse me, this is a treatment, you will be fine.
You will be saved from very long expenses, fees, medicines, and operations.
Everything happened for free, right?
Everyone in the world knows, those who do not know this,
in the world of herbal, ask a Pansari, ask a nursery worker, ask a gardener,
ask an elderly person, ask your seniors, ask the capable people,
it is better to consult them.
Allah has chosen those who consult each other.
So, brother, such a terrible disease, where the operation is a must,
there was a person who had a huge tumor on his penile gland,
and the doctor said to him that if I cut this tumor,
it is possible that blood and veins may also be cut from the inside,
it is possible that you may not be able to have children.
He said to me that I am ready to spend as much money as I want,
but please save my life from this tumor.
I will not be able to tell you the cause of the tumor.
It will be a long story.
Anyway, I told him this prescription.
I said, I will not be making this medicine.
I am telling you the prescription, you can make it yourself and apply it,
for free fund.
He applied it and believe me, in four days his tumor disappeared,
his javelin, his spear became completely straight, and may Allah grant him peace.
These are simple things, cheap things, note them down in your diary.
One thing that I said in the past, I am saying it again today,




रविवार, 10 अगस्त 2025

 परिशिष्टम् - २


गृह-समृद्धि हेतु  वास्तु नियम

अनन्त शक्तियों से समन्वित प्रकृत प्रकृति में सृष्टि, विकास एवं प्रलय की प्रक्रिया सतत् प्रवहमान रहती है। वास्तुशास्त्र में पञ्चमहाभूतों के साथ-साथ प्रकृति की तीन शक्तियों पर भी विचार किया जाता है; वे शक्तियाँ है- गुरुत्व ऊर्जा, चुम्बकीय ऊर्जा एवं सौर ऊर्जा। पञ्चमहाभूत से निर्मित शरीर को सुखमय एवं स्वस्थ बनाने के लिये जिस भवन में अग्नि, आकाश, भूमि, जल एवं वायुस्वरूप पञ्चमहाभूत का यदि सम्यक् रूप से नियोजन किया जाय तो उस निर्मित भवन में निवास करने वाले प्राणी निश्चित रूप से सदा-सर्वदा शारीरिक, मानसिक एवं भौतिक रूप से समृद्ध रहते हैं। अतः भवन-निर्माण के क्रम में सर्वसाधारण के लिये कतिपय स्मर्तव्य नियमों का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है, जिसका पालन करने पर निर्मित भवन एवं उसको अपना आश्रय बनाने वाले प्राणी सदैव ऊर्जावान बने रहते हैं; वे नियम निम्नवत् हैं-

१. सफेद रंग की सुगन्धित मिट्टी वाली भूमि ब्राह्मणों के लिये श्रेष्ठ मानी गयी है।

 २. लाल रंग की कसैले स्वाद वाली भूमि क्षत्रिय, राजनेता, सेना व पुलिस के अधिकारियों के लिये शुभ मानी गयी है।

३. हरे या पीले रंग की खट्टे स्वाद वाली भूमि व्यापारियों, व्यापारिक स्थलों तथा वित्तीय संस्थानों के लिये शुभ मानी गयी है।

४. काले रंग की कड़वे स्वाद वाली भूमि अशुभ होती है। यह शुद्रों के लिये उपयुक्त कही गई है।

५. मधुर, समतल, सुगन्धित व ठोस भूमि भवन बनाने हेतु उपयुक्त होती है।

६. खुदाई में चींटी, दीमक, अजगर, साँप, हड्डी, कपड़े, राख, कौड़ी, जली हुई लकड़ी व लोहा मिलना अशुभ होता है।

७. भूमि का ढलान उत्तर व पूर्व में तथा छत की ढ़लान ईशान में शुभ होती है। 

८. भूखण्ड के दक्षिण या पश्चिम में ऊँचे मकान, पहाड, टीले या पेड अशुभ होते हैं। 

९. भूखण्ड से पूर्व या उत्तर की ओर यदि कोई नदी या नहर हो तथा उसका प्रवाह उत्तर या पूर्व की ओर हो तो यह भूखण्ड शुभ होता है।

 १०. भूखण्ड के उत्तर, पूर्व या ईशान में भूमिगत जलस्रोत, कुआँ, तालाब व बाबडी शुभ होती है।

११. भूखण्ड या भवन यदि दो बड़े भूखण्डों के मध्य हो तो वह अशुभ होता है। 

१२. आयताकार, वृत्ताकार व गोमुख भूखण्ड गृह-निर्माण के लिये शुभ होता है। वृत्ताकार भूखण्ड में निर्माण भी वृत्ताकर ही होना चाहिये।


१३. सिंहमुखी भूखण्ड व्यावसायिक भवन-हेतु शुभ होता है।


१४. भूखण्ड का उत्तर या पूर्व या ईशान कोण में विस्तार शुभ होता है। 

१५. भूखण्ड के उत्तर या पूर्व में मार्ग शुभ होता है। दक्षिण या पश्चिम में मार्ग व्यापारिक स्थल के लिये शुभ होते हैं।

१६. भवन के द्वार के सामने मन्दिर, खम्मा व गड्डा अशुभ होते हैं।

 १७. यदि आवासीय परिसर में बेसमेन्ट का निर्माण कराना हो तो उसे उत्तर या पूर्व में ब्रह्मस्थान को बचाते हुये बनाना चाहिये। बेसमेन्ट की ऊँचाई कम से कम ९ फीट होनी चाहिये तथा वह तल से ३ फीट ऊपर होना चाहिये, जिससे उसमें प्रकाश व हवा का निर्बाध रूप से आवागमन हो सके।

१८. कुआँ, बोरिंग व भूमिगत टंकी उत्तर, पूर्व या ईशानकोण में बनानी चाहिये।

 १९. भवन के प्रत्येक मंजिल के छत की ऊँचाई १२ फीट होनी चाहिये; किन्तु यह १० फीट से कम कथापि नहीं होनी चाहिये।


२०. भवन का दक्षिणी भाग हमेशा उत्तरी भाग से ऊँचा होना चाहिये एवं पश्चिमी भाग हमेशा पूर्वी भाग से ऊँचा होना चाहिये। भवन में नैर्ऋत्य सबसे ऊँचा व ईशान सबसे नीचा होना चाहिये।

२१. भवन का मुख्य द्वार ब्राह्मणों को पूर्व में, क्षत्रियों को उत्तर में, वैश्य को दक्षिण में तथा शूद्रों को पश्चिम में बनाना चाहिये। इसके लिये ८१ पदों का वास्तुचक्र बनाकर निर्णय करना चाहिये।


२२. द्वार की चौड़ाई उसकी ऊँचाई से आधी होनी चाहिये। बरामदा घर के उत्तर या पूर्व में ही बनाना चाहिये।


२३. खिड़कियों घर के उत्तर या पूर्व में अधिक तथा दक्षिण या पश्चिम में कम संख्या में होनी चाहिये।


२४. घर के ब्रह्मस्थान को खुला, साफ तथा हेवादार होना चाहिये। 

२५. गृहनिर्माण में ८१ पद वाले वास्तुचक्र में ९ स्थान ब्रह्मस्थान के नियत किये गये हैं।


२६. चारदीवारी के अन्दर सबसे ज्यादा खुला स्थान पूर्व में रखना चाहिये। उससे कम उत्तर में, उससे कम पश्चिम में तथा सबसे कम दक्षिण में छोड़ना चाहिये। दीवारों की मोटाई सबसे ज्यादा दक्षिण में, उससे कम पश्चिम में, उससे कम उत्तर में तथा सबसे कम पूर्व दिशा में होनी चाहिये।


२७. घर के ईशान कोण में पूजाघर, कुआँ, बोरिंग, बच्चों का कमरा, भूमिगत वाटर टैंक, बरामदा, लिविंग रूप, ड्राइंग रूम अथवा बेसमेन्ट बनाना शुभ होता है 

२८. घर की पूर्व दिशा में स्नानघर, तहखाना, बरामदा, कुओं, बगीचा व पूजाघर बनाया जा सकता है। घर के आग्नेय कोण में रसोईघर, बिजली के मीटर, जेनरेटर, इन्वर्टर व मेन स्विच लगाया जा सकता है। दक्षिण दिशा में मुख्य शयनकक्ष, भण्डार-गृह, सीढ़ियों व ऊँचे वृक्ष लगाये जा सकते हैं। घर के नैर्ऋत्य कोण में शयनकक्ष, भारी व कम उपयोग के सामान का स्टोर, सीढ़ियाँ, ओवरहेड वाटर टैंक,शौचालय व ऊँचे वृक्ष लगाये जा सकते हैं। 

२९. घर के वायव्य कोण में अतिथिघर, कुँआरी कन्याओं का शयनकक्ष, रोदन कक्ष, लिविंग रूम, ड्राइंग रूम, सीढ़ियों, अनभण्डारकक्ष व शौचालय बनाये जस सकते हैं। कोषागार व लिविंग रूम बनाये जा सकते हैं।


३१. घर का हल्का सामान उत्तर या पूर्व या ईशान में रखना चाहिये।


३०. घर की उत्तर दिशा में कुआँ, तालाब, बगीचा, पूजाघर, तहखाना, स्वागतकक्ष,


३२. घर के नैर्ऋत्य कोण में किरायेदार या अतिथियों को नहीं ठहराना चाहिये। 

३३. सोते समय सिर पूर्व या दक्षिण की तरफ होना चाहिये अथवा मतान्तर से अपने घर में पूर्व दिशा में सिर करके सोना चाहिये। ससुराल में दक्षिण की ओर एवं परदेश में पश्चिम की ओर सिर रखकर सोना चाहिये।

३४. दिन में उत्तर की ओर तथा रात्रि में दक्षिण की ओर मुख करके मूत्र का त्याग करना चाहिये। घर के पूजास्थान में बड़ी मूर्तियाँ नहीं होनी चाहिये।

३५. घर में दो शिवलिंग, तीन गणेश, दो शंख, दो सूर्यदेव की प्रतिमा, तीन देवी-प्रतिमा, दो गोमतीचक्र व दो शालिग्राम नहीं रखना चाहिये।

३६. घर में भोजन सदैव पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके ही करना चाहिये।

 ३७. सीढ़ियों के नीचे पूजाघर, शौचालय व रसोईघर का निर्माण नहीं कराना चाहिये।

३८. धन की तिजोरी का मुख उत्तर दिशा में रखना चाहिये।

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

 दशरथ पुत्र रामचन्द्र ने रावण के जीवनवृत्त के बारे में महर्षि अगस्त्य से प्रश्न किया था। अगस्त्य जी ने कहा- हे राम ! मैं आपको रावण के कुल और वर-प्राप्ति के संबंध में बताता हूं।

दादा महर्षि पुलस्त्य

हे राम ! प्राचीन समय में सतयुग में प्रजापति ब्रह्माजी के एक पुत्र 'पुलस्त्य' थे। वह ब्रह्मर्षि पुलस्त्य ब्रह्माजी के समान ही तेजस्वी और शूरवीर थे। उनके गुण, शील और धर्म का पूर्ण वर्णन करना संभव नहीं लगता। उनके विषय में केवल इतना कहना ही पूर्ण है कि वह प्रजापति ब्रह्माजी के पुत्र थे।

एक बार वह धार्मिक यात्रा के लिए महागिरि सुमेरु पर्वत के पास राजर्षि तृणविन्दु के आश्रम में गए और वहीं पर रहने लगे।वह दानवीर-धर्मात्मा तपस्या करते हुए, स्वाध्याय और जितेंद्रिय में संलग्न रहते थे। परन्तु कुछ कन्याएं उनके आश्रम में पहुंच कर उनकी तपस्या में विघ्न पैदा करती थीं।

राजर्षियों, नागों और ऋषियों की कन्याएं तथा कुछ अन्य अप्सराएं भी खेल-खिलाव करती हुईं उनके आश्रम के क्षेत्र में प्रवेश कर जाती थीं।

जिस स्थान पर ब्राह्मण श्रेष्ठ पुलस्त्यजी रहते थे, वह तो अत्यधिक रमणीय था। अतः सभी कन्याएं उस स्थान पर पहुंच कर प्रतिदिन नृत्य, गायन, वादन करती थीं।

अपनी इन विभिन्न गतिविधियों द्वारा वे सभी कन्याएं मुनि के तप में बाधा एवं विघ्न पैदा करती थीं। इस कारण ही एक दिन महामुनि महातेजस्वी कुछ क्रोधित हो उठे।

अतः उन्होंने यह घोषणा कर दी कि कल से मुझे इस स्थान पर जो कन्या दिखाई पड़ेगी, वह गर्भवती हो जाएगी। उनके इस वाक्य को सुनकर वे सभी कन्याएं भयभीत हो गईं। उस ब्रह्मशाप के भय से डरकर उन्होंने उस आश्रम क्षेत्र में जाना छोड़ दिया। किन्तु राजर्षि तृणविन्दु की कन्या ने ऋषि के इस शाप को नहीं सुना था । वह कन्या अगले दिन भी बिना किसी भय के उस आश्रम में जाकर विचरण करने लगी।

उसने देखा कि वहां उसकी कोई भी अन्य सखी नहीं है। उस समय वहां प्रजापति के पुत्र महातेजस्वी महान् ऋषि पुलस्त्यजी अपनी तपस्या में संलग्न होकर वेदों का स्वाध्याय कर रहे थे।

उनकी वेदों की आवाज सुनकर वह उसी ओर चली गई और वहां उसने तपोनिधि मुनिजी को देखा। महर्षि पुलस्त्यजी को देखते ही उस कन्या का शरीर पीला पड़ गया और वह गर्भवती हो गई। उस भयंकर दोष को अपने शरीर में देखकर वह राजकन्या घबरा गई। तदुपरान्त वह यह सोचती हुई कि मुझे यह क्या हो गया है, अपने पिता के आश्रम में जा पहुंची।

कन्या की स्थिति को देखकर तृणविन्दु ने पूछा- तुम्हारे शरीर की यह दशा कैसे हो गई?

उस समय उस दीनभावापन्न कन्या ने अपने तपस्वी पिता से हाथ जोड़कर कहा- हे तात! मैं उस वजह को नहीं जानती जिसके कारण मेरा शरीर ऐसा हो गया है। 

कुछ समय पहले अपनी सखियों को ढूंढ़ती हुई मैं महर्षि पुलस्त्य के आश्रम में गई थी। परन्तु वहां पर मैंने अपनी किसी भी सहेली को नहीं पाया। उस समय ही मेरा शरीर ऐसा विकृत हो गया। यह देखकर मैं भय के कारण यहां चली आई हूं।

राजर्षि तृणविन्दु अपनी घोर तपस्या के कारण स्वयं प्रकाशित थे। जब उन्होंने अन्तर ध्यान होकर देखा तो उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यह सब कुछ ऋषि पुलस्त्य के कारण हुआ है।

महर्षि के शाप को जानने के बाद वे अपनी पुत्री के साथ महामुनि पुलस्त्यजी के आश्रम में जा पहुंचे और उनसे कहने लगे।

हे भगवान्! यह मेरी पुत्री अपने गुणों से विभूषित है। हे महर्षि! इसे आप स्वयं अपने आप प्राप्त होने वाली भिक्षा के रूप में ग्रहण कर लें।

आप तपस्या तथा आराधना करने के कारण थकान का अनुभव करते होंगे। यह आपकी सेवा में संलग्न रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।

धर्मात्मा राजर्षि के इस कथन पर, ब्रह्मर्षि पुलस्त्यजी ने उस कन्या को ग्रहण करने की इच्छा प्रकट करते हुए कहा- बहुत अच्छा।

उस समय राजर्षि तृणविन्दु अपनी कन्या को महर्षि को सौंपकर अपने आश्रम लौट पड़े। उसके बाद वह कन्या अपने गुणों और बुद्धि की सहायता से अपने पति को संतुष्ट रखने का प्रयास करती हुई वहां रहने लगी।

उस कन्या ने अपने सदाचरण और शील व्यवहार से मुनिश्रेष्ठ को संतुष्ट कर दिया। उसके कारण एक दिन महातेजस्वी मुनिवर पुलस्त्य ने प्रसन्न होकर उससे कहा।

हे सुन्दरी! मैं तुम्हारे गुणों और व्यवहार के संपत्ति रूपी भण्डार से बहुत प्रसन्न हूं, अतः हे देवी! मैं तुम्हें अब एक ऐसा पुत्र प्रदान करूंगा जो ठीक मेरे जैसा ही होगा।

माता-पिता दोनों के कुलों की प्रतिष्ठा को बढ़ावा देने वाला वह बालक 'पौलस्त्य' के नाम से प्रसिद्ध होगा। जब मैं वेद-पाठ कर रहा था, उस समय विशेष रूप से तुमने उसे श्रवण किया था।

अतः उस बालक का नाम 'विश्रवा' होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। महर्षि के यह कहने पर वह देवी अत्यन्त प्रसन्न हुई।

कुछ समय के बाद उस देवी ने विश्रवा नामक पुत्र को जन्म दिया जो धर्म, यश एवं परोपकार से समन्वित होकर तीनों लोकों में अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ।

'विश्रवा' नाम के यह मुनि वेदज्ञ, व्रत, आचारों और समदर्शी का पालन करने वाले ठीक अपने पिता के समान ही महान् तेजस्वी थे।

महर्षि पुलस्त्य के यह पुत्र मुनिश्रेष्ठ विश्रवा कुछ ही वर्ष बाद पिता की भांति तपस्या करने में संलग्न हो गए।

वे सत्यवादी, सदैव ही धर्म में तत्पर रहने वाले, स्वाध्यायी, पवित्र, परायण, जितेन्द्रिय एवं शीलवान् आदि सभी प्रकार के गुणों से संलिप्त थे।

महामुनि विश्रवा के इन महान गुणों तथा सदृत्तों के बारे में जानकारी पाकर महामुनि भारद्वाज ने देवाङ्गनाओं के समान अपनी सुन्दर कन्या का विवाह उनके साथ कर दिया।

मुनिश्रेष्ठ धर्मज्ञ विश्रवा ने महर्षि भारद्वाज की कन्या को प्रसन्नतापूर्वक तथा धर्मानुसार ग्रहण किया। फिर जन-प्रजा के हित-चिन्तन करने वाली बुद्धि द्वारा जन-कल्याण की कामना करते हुए उन्होंने उस कन्या के गर्भ से एक पराक्रमी तथा अद्भुत पुत्र उत्पन्न किया, जो उनके समान ही समस्त गुणों से सम्पन्न था।

रावण संहिता 

रविवार, 6 जुलाई 2025

 शिव-विवाह

सती विरह में भगवान् शंकर की विचित्र दशा हो गयी। वे दिन-रात सती का ही ध्यान करते और उसी की चर्चा करते। सती ने भी देहत्याग करते समय यही संकल्प किया था कि मैं पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म ग्रहण कर फिर से शंकरजी की अर्द्धांगिनी बनूं। भला जगदम्बा का संकल्प कहीं अन्यथा हो सकता है? वे काल पाकर हिमालय-पत्नी मैना के गर्भ में प्रविष्ट हुईं और यथासमय उनकी कोख से प्रकट हुईं। पर्वतराज की दुहिता होने के कारण वे 'पार्वती' कहलायीं। जब वे कुछ सयानी हुईं तो उनके माता-पिता को उनके अनुरूप वर तलाश करने की फिक्र पड़ी। एक दिन अकस्मात् देवर्षि नारद पर्वतराज के भवन में आ पहुंचे और कन्या को देखकर कहने लगे- इसका विवाह शंकरजी के साथ होना चाहिए, वही इसके योग्य हैं। यह जानकर कि साक्षात् जगन्माता सती ही उनके यहां प्रकट हुई हैं, पार्वती के माता-पिता के आनन्द का ठिकाना न रहा। वे मन ही मन अपने भाग्य की सराहना करने लगे।

एक दिन अकस्मात् शंकरजी सती विरह में व्याकुल, घूमते-घामते उसी प्रदेश में जा पहुंचे और पास ही गंगावतरण-स्थान में तपस्या करने लगे। हिमालय को जब इस बात का पता लगा तो वे अपनी पुत्री को साथ लेकर शिवजी के पास पहुंचे और अनुनय-विनय पूर्वक अपनी पुत्री को सेवा में ग्रहण करने की प्रार्थना की। शिवजी ने पहले तो उनकी सेवा स्वीकार करने में आनाकानी की, किन्तु पार्वती की अनुपम भक्ति देखकर उनका आग्रह न टाल सके। अब तो पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ लेकर शंकरजी की सेवा में उपस्थित होने लगीं। वे उनके बैठने का स्थान झाड़-बुहारकर साफ कर देतीं और उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो, इस बात का सदा ध्यान रखतीं। वे नित्यप्रति उनके चरण धोकर चरणोदक ग्रहण करतीं और षोडशोपचार से उनकी पूजा करतीं।

इस प्रकार पार्वती को भगवान् शंकर की सेवा करते सुदीर्घ काल व्यतीत हो गया। किन्तु त्रिभुवन सुन्दरी पूर्णयौवना बाला पार्वती से इस प्रकार एकान्त में सेवा लेते रहने पर भी शंकर के मन में कभी विकार नहीं उत्पन्न हुआ। वे सदा आत्मस्मरण करते हुए समाधि में निश्चल रहते।

इधर देवताओं को तारक नाम का असुर बड़ा त्रास देने लगा। यह जानकर कि शिव के पुत्र से ही उसकी मृत्यु हो सकती है, वे शिव-पार्वती का विवाह कराने की चेष्टा करने लगे। उन्होंने शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने हेतु कामदेव को सिखा-पढ़ाकर उनके पास भेजा, किन्तु पुष्पायुध का पुष्पबाण भी शंकर के मन को विक्षुब्ध न कर सका। उलटे वह उनकी क्रोधाग्नि से भस्म हो गया। शंकरजी भी वहां अधिक रहना अपनी तपश्चर्या के लिए अन्तराय रूप समझ कैलास की ओर चल दिए। पार्वती को शंकर की सेवा से वंचित होने का बड़ा दुःख हुआ, किन्तु उन्होंने निराश न होकर अबकी बार तप के द्वारा शंकर को सन्तुष्ट करने की मन में ठानी। उनकी माता ने उन्हें सुकुमार एवं तप के अयोग्य समझकर बहुत कुछ मना किया। इसीलिए उनका नाम 'उमा' = उ+मा (तप न करो) प्रसिद्ध हुआ।

किन्तु पार्वतीजी अपने संकल्प से तनिक भी विचलित नहीं हुईं। वे तपस्या हेतु घर से निकल पड़ीं और जहां शिवजी ने तपस्या की थी, उसी शिखर पर तपस्या करने लगीं। तभी से लोग उस शिखर को 'गौरी-शिखर' कहने लगे। वहां उन्होंने पहले वर्ष फलाहारी जीवन व्यतीत किया, दूसरे वर्ष वे पर्ण (वृक्षों के पत्ते) खाकर रहने लगीं और फिर तो उन्होंने पर्ण का भी त्याग कर दिया, इसीलिए वे 'अपर्णा' कहलायीं। इस प्रकार उन्होंने तीन हजार वर्ष तक घोर तपस्या की। उनकी कठोर तपश्चर्या को देखकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी दंग रह गए। अन्त में भगवान् आशुतोष का आसन हिला। उन्होंने पार्वती की परीक्षा के लिए पहले सप्तऋषियों को भेजा और बाद में स्वयं वटुवेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के निमित्त प्रस्थान किया।

जब उन्होंने सब प्रकार से जांच-परखकर देख लिया कि पार्वती की उनमें अविचल निष्ठा है, तब वह अपने को अधिक देर तक न छिपा सके। वे तुरन्त अपने असली रूप में पार्वती के सामने प्रकट हो गए और उन्हें पाणिग्रहण का वरदान देकर अन्तर्धान हो गए।

पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख अपने घर लौट आयीं और अपने माता-पिता से शंकरजी के प्रकट होने तथा वरदान देने का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। अपनी एकमात्र दुलारी पुत्री की कठोर तपश्चर्या को फलोन्मुख देखकर हिमालय ने शंकर जी के पास विवाह का संदेश भेजा। इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हुई। शंकरजी ने नारदजी के द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमन्त्रित किया और निश्चित तिथि को ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र प्रभृति सारे प्रमुख देवता अपने-अपने दल-बल सहित कैलास पर आ पहुंचे। उधर हिमाचल ने विवाह के लिए बड़ी धूम-धाम से तैयारियां कीं। शुभलग्न में शिवजी की बारात हिमालय के द्वार पर आ लगी। पहले तो शिवजी का विकट रूप तथा उनकी भूत-प्रेतों की सेना देखकर मैना बहुत डर गयीं। वे उनके साथ अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराने में आनाकानी करने लगीं। बाद में जब उन्होंने शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने वाला सोलह वर्ष की अवस्था का परम लावण्यमय रूप देखा तो वे देह-गेह की सुधि भूल गयीं। उन्होंने शंकर पर अपनी कन्या के साथ ही साथ अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर दिया। हर-गौरी का शुभविवाह आनन्दपूर्वक सम्पन्न हुआ तथा हिमाचल ने बड़े चाव से कन्यादान किया। भगवान् विष्णु, अन्यान्य देव और अन्य प्राणियों ने नाना प्रकार के उपहार भेंट किए। ब्रह्माजी ने वेदोक्त रीति से विवाह करवाया। सब लोग अमित उछाह से भरे अपने-अपने स्थानों को लौट गए।

रावण संहिता 

यदि किसी को कोई जहरीली चीज काट लेती है, तो प्रभावित क्षेत्र पर घाव बनने लगता है।  बवासीर का घाव  इतना दर्दनाक होता है कि इसे ठीक करना मुश्कि...