गुरुवार, 30 सितंबर 2021

सतयुग या कलयुग

 बच्चा पैदा होता है, तब वह निर्दोष है, तब उसकी स्लेट कोरी है। न उस पर बुरा है कुछ, और न अच्छा है। बच्चा साधु नहीं है, निर्दोष है। असाधु भी नहीं है। असाधु तो है ही नहीं, साधु होने का दोष भी अभी उसके ऊपर नहीं है। अभी उसने हा और न कुछ भी नहीं कहा है। अभी उसने बुरा और अच्छा कुछ भी चुना नहीं है। अभी निर्विकल्प है। अभी उसका कोई चुनाव नहीं है। अभी च्वाइसलेस है। अभी उसे पता भी नहीं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है। अभी भेद पैदा नहीं हुआ। अभी बच्चा अभेद में जी रहा है।

यह जो बच्चे की दशा है, यही दशा पूरे समाज की भी कभी रही है, उसी को हिंदू सतयुग कहते हैं। और ठीक मालूम होता है, वैज्ञानिक मालूम होता है। क्योंकि एक व्यक्ति की जीवन—कथा जो है, वही जीवन—कथा सभी व्यक्तियों की जीवन—कथा है।

बच्चा निर्दोष पैदा होता है और बुढ़ा सब दोषों से भरकर मरता है। सतयुग बचपन है समाज का। और कलियुग बुढ़ापा है समाज का; वह अंतिम घड़ी है। जब सब तरह के रोग इकट्ठे कर लिए गए। जब सब तरह की बीमारियां संगृहीत हो गईं। जब सब तरह के अनुभवों ने आदमी को चालाक और बेईमान बना दिया, भोलापन खो गया।

हालांकि उस बेईमानी और चालाकी से कुछ मिलता नहीं है। क्योंकि मिलता होता, तो बुजुर्ग प्रसन्न होते और बच्चे दुखी होते। खोता ही है, मिलता कुछ नहीं है। लेकिन मन समझाता है कि होशियारी।

तो जिसे हम आदमी की समझदारी कहते हैं, वह इससे ज्यादा नहीं है। क्योंकि फल क्या है? सारी बुद्धिमत्ता कहा ले जाती है? हाथ में बचता क्या है? बच्चे को हानि क्या है? उसकी निर्दोषता से उसका क्या खो रहा है? निर्दोष चित्त का कुछ खो ही नहीं सकता। क्योंकि उसकी कोई पकड़ नहीं है।

मनुष्य की जो, एक—एक व्यक्ति की जो कथा है, हिंदू विचार पूरे जीवन की कथा को भी वैसा ही स्वीकार करता है। मनुष्य—जाति का जो आदिम युग था, वह सतयुग है। जब लोग सरल थे और बच्चों की भांति थे। और यह बात सच मालूम पड़ती है। आज भी आदिम जातियां हैं, वे सरल हैं और बच्चों की भांति हैं।

फिर सभ्यता, समझ, गणित का विकास होता है। हृदय खोता है और बुद्धि प्रबल होती है। भाव क्षीण होते हैं और हिसाब मजबूत होता है। कविता खो जाती है और गणित ही गणित रह जाता है।  सब चीज गणित हो जाती है। आंकडे सब कुछ हो जाते हैं। सबसे ऊपर कैलकुलेशन, हिसाब हो जाता है। चालाकी है। लेकिन हिंदू हिसाब से कलियुग है। आखिरी वक्त है; सबसे बुरा वक्त है।

इसे विकास कहें या इसे पतन कहें? बुजुर्ग को बच्चे का विकास कहें? या बूढ़े को बचपन का खो जाना कहें, पतन कहें? अगर आप से कोई पूछे, तो दोनों में क्या होना चाहेंगे? उससे निर्णय हो जाएगा। क्योंकि जो आप होना चाहेंगे, वही पाने योग्य है, वही श्रेष्ठ है। जो आप न होना चाहेंगे, वहीं कुछ भ्रांति, भूल, कहीं कुछ अंधकार है।

कोई भी बूढा नहीं होना चाहता और कोई भी सिर्फ गणित में नहीं जीना चाहता। क्योंकि जीवन के आनंद की कोई भी झलक मस्तिष्क में कभी नहीं उतरती। जीवन का आनंद, जीवन का नृत्य, जीवन की सुगंध तो हृदय ही अनुभव करता है। मस्तिष्क सब कुछ दे सकता है, सिवाय आनंद को छोड्कर। और हृदय के साथ शायद सब कुछ खो जाएगा, सिर्फ आनंद बचेगा। लेकिन सब कुछ खोकर भी आनंद बचाने जैसा है।

जिसको हम वैज्ञानिक विकास कहते हैं, वह विज्ञान का विकास होगा। ज्यादा बड़ी मशीनें हमारे पास हैं, ज्यादा बडे मकान हमारे पास हैं। लेकिन वे आनंद का विकास तो नहीं हैं। क्योंकि उन बड़े मकानों में भी दुखी लोग रह रहे हैं। झोपड़ों में भी इतने दुखी लोग नहीं थे, जितने बड़े मकानों में दुखी लोग रह रहे हैं। और जिनके पास कुछ भी न था, कोई औजार न थे, कोई शस्त्र—साधन न थे, वे भी इससे ज्यादा आनंदित थे। हमारे पास एटामिक मिसाइल्स हैं, चांद पर पहुंचने के उपाय हैं, लेकिन सुख का कोई कण भी नहीं है।

कैसे हम नापते हैं, यह सवाल है। अगर आप सिर्फ रुपयों के ढेर से नापते हैं कि आदमी का विकास हुआ कि पतन, तो विकास हुआ है। अगर आप आदमी में देखते हैं और नापते हैं, तो पतन हुआ है। तो आपकी दृष्टि पर निर्भर करेगा। क्या दृष्टिकोण है? मापदंड क्या है? क्राइटेरियन क्या है? नापते कैसे हैं?

हिंदू चिंतन, उपनिषद के ऋषि या गीता के कृष्ण, मनुष्यता से नापते हैं। क्या आपके पास है, यह मूल्यवान नहीं है, आप क्या हैं, यही मूल्यवान है। कितना आपके पास है, यह व्यर्थ हिसाब है। कितनी आत्मा है! कितना सत्व है! कितना चैतन्य है! आप क्या हैं! बीइंग से नापते हैं, हैविग से नहीं। आपके बैंक बैलेंस से आपके होने का कोई नाता नहीं है। आप नग्न खड़े हों, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, तो भी आपके भीतर सत्व हो सकता है।

महावीर जैसे नग्न खड़े व्यक्ति के पास भी आत्मा है, सब कुछ है। बाहर से कुछ भी नहीं है। कैसे नापते हैं!

इस युग से ज्यादा दुखी कोई युग नहीं था। इस युग से ज्यादा विक्षिप्तता किसी युग में नहीं थी। फिर भी हम कहे चले जाते हैं, संपन्न हैं! फिर भी हम कहे चले जाते हैं, वैभवशाली हैं!

सच है, बात तो सच है। इतनी संपन्नता भी कभी नहीं थी। इतनी विपन्नता भी कभी नहीं थी। पर दो अलग कोण हैं नापने के। एक कोण है, जो धन से नापता है, पदार्थ से नापता है। और एक कोण है, जो चेतना से नापता है।

चेतना की दृष्टि से मनुष्य का पतन हुआ है परमात्मा से। इसलिए हम चेतना को फिर वापस उसी स्थिति में ले जाएं, जहां से परमात्मा से हमारा संबंध छूटता है। फिर हमारी धारा वहीं गिरे, तो वही परम निष्पत्ति होगी।

लेकिन पदार्थ की दृष्टि से, साधन—सामग्री की दृष्टि से हम रोज विकास कर रहे हैं। हम विकास कर रहे हैं, यह कहना भी शायद ठीक नहीं है, क्योंकि मशीनें खुद ही विकास कर रही हैं। अब तो आदमी को उसमें हाथ बंटाने की भी जरूरत नहीं है। कंप्यूटर हैं, वे विकास करते चले जाएंगे।

और वैज्ञानिक कहते हैं, इस सदी के पूरे होते—होते हम ऐसी मशीनें पैदा कर लेंगे, जो मशीनों को जन्म दे सकें, अपने से बेहतर मशीनों को जन्म दे सकें। वह बिल्ट—इन हो जाएगा, कि मशीन जब टूटने के करीब आए, मिटने के करीब आए, तो अपने से बेहतर मशीन को जन्म दे जाए। जैसे आप एक बच्चे को जन्म दे जाते हैं। तब तो फिर आपकी बिलकुल भी जरूरत नहीं होगी। तब मशीनें विकसित होती रहेंगी। आप अपने घर भी बैठे रहे, जैसे थे वैसे रहे, तो भी मशीनें विकसित होती रहेंगी।

मशीन ही विकसित हो रही है। आदमी खों रहा है। इस हिसाब से पतन है।

इसमें पूरा पूरब सहमत है। बुद्ध, लाओत्से, कृष्ण, सब सहमत हैं, जीसस, मोहम्मद, सब सहमत हैं, जरथुस्त्र, कनक्यूसियस, सब सहमत हैं कि बचपन श्रेष्ठतम है, शुद्धता की दृष्टि से। और इसलिए जब कोई व्यक्ति, लाओत्से कहता है, पुन: बचपन को उपलब्ध हो जाता है, तब वह संत हो गया। वर्तुल पूरा हुआ। उदगम से फिर मिलना हो गया। कृष्ण भी यही गीता में कह रहे हैं।

ओशो रजनीश



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