शुक्रवार, 19 मई 2023

राम की सीता के लिए चिन्ता

 वनवास की अवधि में लक्ष्मण किसी प्रकार की असुविधा का अनुभव नही करेंगे राम जानते थे—उन्हे केवल राम का संग मिल जाए तो वे मग्न हो जाते हैं और यहां तो सामने एक लक्ष्य भी था। यह सारा चित्रकूट प्रदेश उनके सम्मुख था । यहां के लोगों से परिचय प्राप्त करना था। उनकी जीवन-पद्धति को समझना था उनकी कठिनाइयां और समस्याओं को जानना था। विभिन्न आश्रमो की व्यवस्था और उनके शिक्षण स्तर को परखना था। फिर प्रकृति एक चुनौती के समान उनके सामने खडी थी । पर्वत, नदी, वन, हिंस्र पशू, और जैसा कि भरद्वाज आश्रम से ही सुनाई पडना आरंभ हो गया था कि इस क्षेत्र में राक्षसों का अन्याय भी बढ़ता जा रहा था । लक्ष्मण इन सब में उलझे रहगे। उन्हें अयोध्या की याद नही आएगी माता की याद भी नही आएगी। जानने सुनने को कुछ नया हो करने को कुछ अपूर्व हो, सामने एक चुनौती हो तो लक्ष्मण स्वयं को भी भूले रहते है।


पर सीता । चार वर्षों के दाम्पत्य जीवन में राम ने सीता को अच्छी प्रकार जाना-समझा था। किंतु लोक चिन्तन कहता है कि स्त्री कोमल होती है उसका मन कठिनाइयो से भागता है तथा वैभव और सुविधा की ओर झुकता है। सीता के आज तक के व्यवहार ने इस चिंतन का समर्थन नहीं किया था। वे सदा लोक-कल्याण की प्रवृत्ति की ओर झुकी थी किंतु आज से पहले तो राम उनके साथ इस प्रकार का कठिन वन्य जीवन व्यतीत करने के लिए बाहर भी नही निकले थे। संभव है इस कठिन जीवन में सीता को असुविधा हो


"देवी सीता। "राम का स्वर बहुत मदु था ।


सीता ने चौंककर पति की ओर देखा, 'क्या बात है राम! आप मुझे 'प्रिये' नही कह रहे। इतने अतिरिक्त कोमल और शिष्ट क्यो हो रहे हैं ? कही फिर से मुझे अयोध्या लौट जाने का प्रलोभनयुक्त उपदेश देने का विचार तो नही है ?


राम की आधी चिंता दूर हो गयी। वे कुछ हल्के हुए और कुछ सहज भी।


नही, प्रिये । अयोध्या लौटने को नही कहूंगा, किंतु यह पूछने की इच्छा अवश्य है कि इस वन्य जीवन में कोई असुविधा तो नहीं ? वन में आने का कोई पश्चात्ताप कोई उत्तर विचार कोई पुर्नविचार की इच्छा ?"


"झगडे की इच्छा तो नहीं ?" सीता सहज भरी मुसकान अधरों पर ले आयी ।


"नही" राम मुसकराए "पर अपनी पत्नी की उचित देखभाल मेरा कर्तव्य है । इसलिए उसकी सुविधा असुविधा को तो जानना होगा । जो राम सीता से विवाह कर उसे अपने घर लाया था, वह अयोध्या का संभावित युवराज था वनवासी नहीं।"


प्रिये  मैं तुम्हे और लक्ष्मण को तुम लोगो के प्रेम का दण्ड दे रहा हूं ।


 सीता पुनः मुस्कराई 'प्रेम तो अपने-आप में एक दंड है । प्रेम किया है तो उसका दर्द भी स्वीकार करना ही होगा। यह कोई नयी बात तो नही ।


किन्तु एक असुविधा मुझे है ।


 'क्या ? राम ने उत्सुकता से पूछा, वही तो मैं भी जानना चाह रहा हूं सीता गंभीर हो गयीं यदि चौदह वर्षो तक मेरे पति मुझसे इसी प्रकार औपचारिक व्यवहार करते रहे, तो मैं  अपने आप को भी परायी लगने लगूंगी।


राम जोर से हस पड़े।


'मैं आपके साथ इसलिए आयी थी कि हमारे बीच राज प्रासाद और राजपरिवार की सारी औपचारिकताएं समाप्त हो जाएगी। मैं अपने पति के लिए सघन जनसंख्या वाले प्रदेश की इकाई न होकर उनके इतनी करीब होऊगी कि वे अनेक कामों के लिए मुझ पर निर्भर होगे। हम दोनो सहज रूप में दो साथियों के समान कार्य करेंगे। मैं उनमुक्त प्रकृति के बीच अपने प्रिय साथी को नये आयाम दूंगी और आत्म निर्भर इकाई रुप में समाज के लिए कुछ उपयोगी हो सकूगी ।


राम भाव में बह गए। उन्होंने सीता के कन्धों पर हाथ रख दिए यही होगा प्रिये । यही होगा। जाने क्यो मैं कभी-कभी विभिन्न संभावनाओं पर विचार करते करते काई ऐसी बात सोचने लगता हूँ जिसमें स्वयं मुझे भी अपनी पत्नी की उदात्तता समझने में कठिनाई होने लगती है। उन्हाने सीता को अपनी बाहों में भर लिया मुझे लगता है सीते । कि आदमी कितना ही दृढ निश्चित तथा आत्मविश्वासी क्या न हो यदि वह मनुष्य है तो उसके जीवन में कभी न कभी ऐसे दुर्बल क्षण आते ही है-- जब वह आशंकित होता है असंभव सभावनाओ की कल्पना करता है तथा स्वयं अपने संबंधों पर संदेह करता है ।


'प्रिये । ऐसे ही क्षणों को सबल बनाने के लिए सीता तुम्हारे साथ आयी हैं।'।


 सीता ने अपना सिर राम के वक्ष पर टिका दिया ।


तो ऐसा ही हो प्रिये । कल से तुम्हारा नया जीवन आरंभ हो । वन प्रांत से तुम वनवासिनी वदेही बन जाओ एक स्वतंत्र आत्मनिर्भर व्यक्ति, राम के साधारण जीवन की सगिनी और सहगामी ।


सीता ने मस्तक उठाकर दुलार से राम की ओर देखा । राम मुग्ध हो उठे।


नरेंद्र कोहली की पुस्तक का अंश

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