मंगलवार, 7 नवंबर 2023

"कृष्णे !”

द्रौपदी का, अब तक का सहेजकर रखा गया संयम टूट गया। इतने दिनों से वह जिसकी प्रतीक्षा कर रही थी, उसका वह सखा आ गया था पहले उसकी आँखें भर आईं, और फिर टप-टप आँसू गिरने लगे । स्वयं को सँभालने के, उसके सारे प्रयत्न निष्फल हो गए, तो वह सशब्द रो उठी ।

"पांचाली !” कृष्ण का स्वर शीतल वयार का सा प्रभाव लिये हुए था । “मैं अब और नहीं सह सकती केशव ! असहनीय है, यह सब कुछ मेरे लिए ।" द्रौपदी हिचकियों के मध्य बोली, “जिसका कोई न हो, उस अनाथा का भी, इतना अपमान नहीं होता। वह अपमान ।"

"मैं समझता हूँ कृष्णे !” कृष्ण बोले, "और यह भी कहा कि निश्चय ही, कौरव इस पाप का भीषण दंड पाएँगे। धर्म उनको कभी क्षमा नहीं करेगा ।"

लगा, द्रौपदी के शरीर पर जैसे कशाघात हुआ सारा शरीर झकोला खा गया। भीतरी ताप से उसके अश्रु सूख गए । हिचकियां बंद हो गई। आँखों से चिंगारियाँ फूटने लगीं, “नाम मत लो धर्म का उसके लिए ये धर्मराज ही बहुत हैं ।"

कृष्ण, उस स्थिति में भी मुस्करा पड़े "धर्मराज !...." 'धार्तराष्ट्रों के विरुद्ध मेरे  मन में क्या  है, वह कहने की बात नहीं ।"

 द्रौपदी आवेश भरे स्वर में बोली, “मैं धिक्कारती  हूँ अपने इन पाँच पतियों को, इनके क्षत्रियत्व को, इनके युद्ध-कौशल इनके दिव्यास्त्रों को ..." द्रौपदी अग्नि-शिखा- सी जल रही थी, “केशों से पकड़, दुःशासन, मुझे भरी सभा में घसीट लाया; और ये लोग बैठे देखते रहे । वे मुझे निर्वस्त्र करने का प्रयत्न करते रहे, काम-भोग का निमंत्रण देते रहे; और ये सिर झुकाए धर्म-चिंतन करते रहे। क्या करूँ मैं धर्मराज के धर्म का, मध्यम के बल का, धनंजय के गांडीव का, सहदेव की खड्ग का तथा नकुल की अश्व संचालन क्षमताओं का ? ये सब मिलकर भी अपनी पत्नी के सम्मान की रक्षा नहीं कर सके ! एक साधारण-सा अपंग पुरुष भी, अपनी पत्नी के सम्मान की रक्षा के लिए दहाड़ता और चिंघाड़ता है और दिव्यास्त्रों से सज्जित ये विश्वविख्यात् क्षत्रिय योद्धा मुँह लटकाए बैठे, अपने पैरों के अंगूठों से भूमि कुरेदते रहे । धर्म- ।"

"मैं तुम्हारा कष्ट समझता हॅू कृष्णा !" कृष्ण धीरे से बोले, "यदि मैं वहाँ उपस्थित होता, तो निश्चित् रूप से दुर्योधन यह सब नहीं कर पाता । "

" पर तुम वहाँ उपस्थित नहीं थे केशव !” द्रौपदी का स्वर पुनः आरोह की ओर बढ़ा, "और धर्मराज आज भी क्षमा को प्रतिशोध से अधिक वरेण्य बता रहे हैं । अब तुम ही कहो, मैं यह सारा अत्याचार कैसे भूल जाऊँ ?”

"तुम भूल भी जाओ, तो मैं नहीं भूलूँगा । धर्म इसे नहीं भूलेगा, प्रकृति इसे नहीं भूलेगी। प्रकृति कुछ नहीं भूलती । धार्तराष्ट्रों को उनके कृत्य का फल अवश्य मिलेगा। कौरव दंडित होंगे ।"

"कौन दंड देगा उन्हें ?" द्रौपदी का अविश्वास जैसे मूर्तिमंत हो उठा, "धर्मराज ?"

"हाँ ! धर्मराज उन्हें दंडित करेंगे। पाँचों पांडव मिलकर उन्हें दंडित करेंगे ।" कृष्ण की आँखों में एक असाधारण ज्योति थी, "वे नहीं करेंगे, तो मैं कौरवों को दंडित करूँगा । यदि धर्मराज को आपत्ति न हो, तो मैं यहीं से, हस्तिनापुर चलने को प्रस्तुत हूँ । उन सारे पापियों का संहार मैं स्वयं अपने हाथों से, वैसे ही कर दूँगा, जैसे शिशुपाल का किया था ।"

द्रौपदी उन आँखों को देख नहीं रही थी, वह तो उनके तेज का पान कर रही थी । उसके चेहरे पर उभर आई उग्र रेखाएँ कुछ शांत हुईं। नयनों में कुछ विश्वास जागा, "मैं तुम्हारे वचन पर अविश्वास नहीं करूँगी केशव मै तो मानती हूँ कि कौरवों की उस सभा में, मेरी रक्षा, तुमने ही की है। द्रौपदी का स्वर शांत था, “तुम वहाँ उपस्थित चाहे नहीं थे, किंतु तुम वर्तमान थे । दुःशासन के मन में तुम्हारा ही भय था, जिसने मेरी रक्षा ली; नहीं तो उन पिशाचों ने अपनी ओर से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।"

"बहन !" धृष्टद्युम्न ने पहली बार मुंह खोला, "जब वासुदेव ने कह दिया तो निश्चित् जानों कि कौरवों को इसका दंड अवश्य दिया जाएगा। इन नीचों को अपने रक्त से, अपने पिशाच कृत्यों का मूल्य चुकाना होगा। इनमें से एक भी क्षमा नहीं किया जायेगा ।"

द्रौपदी चुप रही, किंतु उसकी आँखों से पुनः अश्रु बह निकले, जैसे उसके भीतर का दुख रह-रहकर, हृदय से उठकर आँखों में आ जाता था ।

"मैं क्या करूँ ! मैं उस दृश्य को भूल नहीं पाती । और जब-जब मुझे उसकी याद आती है, मैं जैसे फिर से उस सभा में खड़ी कर दी जाती हूँ। मेरे कानों में उन दुष्टों के अट्टहास और अपशब्द गूँजने लगते हैं। उनकी दृष्टियाँ मेरे शरीर को भेदने लगती हैं। कैसे बताऊँ कि मेरे मन में अपने पतियों के लिए, कैसे-कैसे धिक्कार उठने लगते हैं । मेरे मन में इतनी भयंकर प्रतिहिंसा जागती है कि, इच्छा होती है, सारी सृष्टि को जलाकर क्षार कर दूँ ।"

"नहीं द्रौपदी ! यह मानव-धर्म नहीं है ।" कृष्ण की वाणी सांत्वना देकर, रक्त के तप्त कणों को शांत ही नहीं करती थी, सारे शरीर में जैसे बल का संचार कर जाती थी ।

द्रौपदी की उग्रता, उस वाणी से क्षीण होकर भी, पुनः भड़क उठी, "फिर वही धर्म ! धर्म की चर्चा मुझसे मत करो। मुझे धर्म से घृणा हो गई है । 

नरेंद्र कोहली 



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