सोमवार, 6 नवंबर 2023

 अब धृष्टद्युम्न स्वयं को रोक नहीं पाया। बोला, “कृष्णे ! तुम्हें अपने इन महावीर पतियों पर तनिक भी क्रोध नहीं आता ? ये अपना इतना अपमान सहकर क्लीवों के समान चुपचाप वहाँ से चले आए और अब तपस्वी-मुनियों के समान यहाँ शांतिपूर्वक बैठे, साधना कर रहे हैं।"

द्रौपदी के चेहरे पर सहमति नहीं उभरी। बोलीं , "मैं अपने भाई को यह अधिकार नहीं दे सकती, कि वह मेरे सम्मुख मेरे पतियों की निन्दा करे। वे साधारण जन नहीं हैं । वे अपने धर्म पर अटल हैं; और मैं भी अपने धर्म पर दृढ़ हूँ। मैं अपने भाई अथवा पिता के द्वारा अपने पतियों को अपमानित होते नहीं देखना चाहती ।"

 धृष्टद्युम्न सँभल गया कृष्णा केवल उसकी बहन ही नहीं, पांडवों की पत्नी भी थी। पति से अधिक घनिष्ठ और विश्वसनीय और कोई व्यक्ति नहीं होता, भाई भी नहीं ! 

"मैं उनका अपमान करना नहीं चाहता। वे अपने धर्म पर अटल हैं, यह तो उचित ही है; किंतु धर्मराज को द्यूत में अपनी पत्नी को दाव पर लगाने की क्या आवश्यकता थी ?" इच्छा होते हुए भी, धृष्टद्युम्न स्वयं को रोक नहीं पाया, "नारी पर इतना अत्याचार !और तुम उसे धर्म कह रही हो।"

द्रौपदी की आँखें, अपने भाई की ओर उठीं। उनमें कटाक्ष था, "क्या अब परिवार को भी नारी और पुरुष में विभक्त कर देखा जायेगा ? जब महाराज शांतनु की पट्टमहिषी गंगा ने अपने सात-सात पुत्र देव-सरिता में प्रवाहित कर जीवन- मुक्त कर दिया था, तब तो किसी ने नहीं पूछा था कि वे नारी होकर पुरुषों पर इतना अत्याचार क्यों कर रही माँ और पुत्र का संबंध भी क्या 'नारी' और 'पुरुष' के रूप में वर्गीकृत हो सकता है ?"

"नहीं !" धृष्टद्युम्न को द्रौपदी की उक्ति में ही अपना समर्थन मिल गया, “किंतु पति और पत्नी का संबंध तो स्त्री और पुरुष का ही है ।"

“नहीं ! वह दो समुदायों के प्रतिनिधियों का मिलन नहीं है । वह दो व्यक्तियों का एक हो जाने का प्रयत्न है ।" द्रौपदी बोली, "और जहाँ तक धर्मराज के द्यूत का संबंध है, उन्होंने पहले अपने भाइयों को दाव पर लगाया, जो पुरुष हैं।" द्रौपदी का स्वर कुछ उग्र हो उठा,

 “वे कभी न चाहते कि उनके भाई और उनकी पत्नी दाव पर लगें; किंतु वे द्यूत-शास्त्र, द्यूत-परंपरा और धृतराष्ट्र के आदेश का क्या करते ! संपत्ति शेष रहते, कोई पक्ष द्यूत से उठ नहीं सकता था। अब बताओ, तुम्हारे अर्थशास्त्र के अनुसार, परिवार के सदस्य, परिवार के मुखिया की संपत्ति हैं या नहीं ? तुम पिताजी की संपत्ति हो या नहीं ? तुम्हारी पत्नी और संतान, तुम्हारी संपत्ति हैं या नहीं ? गंगा के पुत्र उनकी संपत्ति थे या नहीं ?"

“तुम सत्य कह रही हो ।" धृष्टद्युम्न का स्वर मंद हो गया । " मैंने अपने पिता के संकल्प के कारण हवन कुंड से पुनर्जन्म ग्रहण किया था; और वीर्य-शुल्का बन गई थी," द्रौपदी की आँखों में तेज लहरा रहा था, "अब जब मैं अपने पति के धर्म के कारण दावँ पर लगी, तो स्थिति बदल गई ? तब 'पुत्री' थी, तो अब 'पत्नी' क्यों नहीं हूँ ? अब मैं पत्नी न रहकर 'स्त्री' हो गई ? क्या तुम नहीं समझते भैया ! कि मैंने कांपिल्य के धनुर्यज्ञ में कर्ण का जो तिरस्कार किया था, कर्ण उसका प्रतिशोध ले रहा है। जो पीड़ा मैंने उसे दी, वह उससे शतगुणित पीड़ा पांडवों को दे रहा है ? पांडव, महाराज द्रुपद के जामाता हैं, इसलिए वे भीष्म और द्रोण के द्वारा तिरस्कृत हो रहे है ? मैं उनके कारण कष्ट नहीं पा रही; वे मेरे कारण अपमानित और प्रताड़ित हो रहे हैं ।"

धृष्टद्युम्न कुछ क्षण मौन खड़ा, द्रौपदी के इस रूप को देखता रहा। पंडिता तो वह पहले भी थी। तर्क भी किया करती थी । किंतु इतनी सहिष्णु तो वह कभी नहीं थी...." मैंने कभी इस रूप में नहीं सोचा कृष्णे !" अंततः धृष्टद्युम्न बोला, "तुम जानती हो, मैं योद्धा हूँ, तुम्हारे समान दार्शनिक कभी नहीं रहा। जब चर्चा होती है, विश्लेषण होता है, तो मैं भी कुछ-कुछ समझने लगता हूँ कि धर्मराज युधिष्ठिर असाधारण हैं, हमसे, सब सामान्य लोगों से भिन्न हैं, उदात्त हैं, किंतु मेरी प्रकृति इससे विद्रोह करती है । मैं अपने विपक्षी के विरुद्ध, तत्काल शस्त्र उठा लेना चाहता हूँ, धर्मराज के समान, उसे क्षमा नहीं कर देना चाहता । तुम जानती हो कृष्णा ! मैं अपनी प्रकृति को बदल नही सकता। मैं हवन- में से उत्पन्न हुआ हूँ, अग्नि के रथ पर । मैं जिस धर्म को जानता और हूँ, वह क्षत्रिय धर्म है-- ।"

"तुम कहना चाहते हो भैया ! कि पांडव क्षत्रिय धर्म का पालन नहीं कर रहे ? भीम और अर्जुन क्षत्रिय नहीं धृष्टद्युम्न ने कोई उत्तर नहीं दिया वह यह कैसे कह सकता था कि भीम और अर्जुन क्षत्रिय नहीं हैं" न यह कह सकता था कि वे अपने धर्म का आचरण नहीं कर रहे" 

" वस्तुतः मात्र हिंसा करने वाला क्षत्रिय नहीं है ।" द्रौपदी का स्वर एक गहरी गूँज लिये हुए था, "कई बार तो धर्म, शस्त्र न उठाने में होता है ।"

धृष्टद्युम्न समझ गया । बहन से तर्क-वितर्क करना व्यर्थ था। अग्नि कुंड में से, उसके साथ जन्मी, उसकी यह सहोदरा, अब कदाचित् अग्नि-धर्मा नहीं रह गई थी । वह धर्मराज के प्रभाव में शीतलमना हो गई थी. "तो फिर अब तुम लोगों की क्या योजना है ?" 

धृष्टद्युम्न का स्वर, कुछ उत्तेजना लिये हुआ था, “क्या तुम लोग मोक्ष प्राप्ति तक यहीं साधना करना चाहते हो ?..." और सहसा, उसे जैसे कुछ नया सूझ गया, "वैसे तुम्हें यह भी बता दूँ कृष्णे ! यदि धर्मराज शांतिपूर्वक यहाँ, वन में, तपस्वी का जीवन व्यतीत करना चाहें, तो वह दुष्ट दुर्योधन, उन्हें वह भी नहीं करने देगा। तुम लोग यहाँ तनिक भी सुरक्षित नहीं हो ।"

नरेंद्र कोहली 

 

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