शनिवार, 28 अक्तूबर 2023

 अर्जुन सजग हुआ । उसने कृष्ण की ओर देखा, वे उसके प्रिय सखा के रूप में सामने खड़े मुस्करा रहे थे। इस समय वे सर्वथा आत्मीय लग रहे थे। उनमें कुछ भी असाधारण नहीं था, कुछ भी भिन्न नहीं था। उनका दिव्य-भाव जाने कहाँ तिरोहित हो गया था। साधारण मनुष्य के समान अधरों पर नटखट मुस्कान लिए उसे देख रहे थे, जैसे कह रहे हों, 'देखा, तुम्हें कैसे छकाया ।" कृष्ण यह कैसे कर लेते हैं. कभी तो वे इतने निकट, इतने आत्मीय, इतने अपने होते हैं, और कभी वे इतने दिव्य, इतने विराट, इतने दूर होते हैं, जैसे आकाश पर खड़े हों, जिन्हें छूना अर्जुन के लिए संभव न हो "मैं सोचता हूँ कृष्ण ! जिस अनासक्ति की चर्चा तुम कर रहे हो, क्या इस संसार में रहकर वह संभव है ?..."

"क्यों ? संभव क्यों नहीं ?" कृष्ण ने कहा, "मिट्टी का साधारण-सा खिलौना टूट जाने पर, एक छोटा बालक जिस प्रकार गला फाड़कर चिल्लाता है, किसी वयस्क को रोते देखा है तुमने ?" उसी प्रकार रोते देखा है।

"नहीं !"

"क्यों नहीं रोता वयस्क ? इसलिए कि उसका चिंतन-मनन, ज्ञान तथा अनुभव से यह समझ चुका है और प्रौढ़ मन, अपने मिट्टी का खिलौना इतना मूल्यवान नहीं कि उसके लिए इस प्रकार रोया जाए ।" कृष्ण ने अर्जुन की ओर देखा, "क्या उसी प्रकार कुछ और अधिक प्रौढ़ नहीं हुआ जा सकता, जिससे सांसारिक सुखों की वास्तविकता भी मिट्टी के उस खिलौने के समान हमारे सामने प्रकट हो जाए ?"

"संभव क्यों नहीं !" अर्जुन जैसे "उन सुखों की निरर्थकता का साक्षात्कार हम कर लेंगे, तो उनके प्रति आसक्ति अपने आप ही समाप्त हो जायेगी । अर्जुन अपने-आपसे बोला । कृष्ण से कहा।

"तुम ठीक कह रहे हो । मेरा ध्यान कभी इस ओर गया ही नहीं ।" अर्जुन पुनः अपने भीतर कहीं बहुत डूब गया था।

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